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Dec 6, 2020

पूण्य स्मरण - 18 दिसम्बर: साहित्य के मूक साधक- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

- विनोद साव

आधुनिक काल में हिन्दी निबंधों के विकास का पहला युग भारतेंदु युग कहलाया और दूसरा युग द्विवेदी युग। तीसरा युग शुक्ल युग। इस तीसरे युग में रामचंद शुक्ल के साथ बाबू गुलाबरायपदुमलाल पुन्नालाल बख्शीजयशंकर प्रसाद आदि हुए थे।  बक्शी जी का नाम पदुमलाल थानाम के साथ वे पिता का नाम पुन्नालाल लगाते थे। अनेक विधाओं में लिखने के बाद निबंधकार के रूप में उन्हें ख्याति मिली। अपनी विशिष्ट शैली में उनके निबंध मौलिकता और नवीनता लिए हुए हैं जो अपने समय से पहले आधुनिक खड़ी बोली में मँजे हुए हैं। उनकी भाषा प्रेमचंद जैसी निश्छल और साफगोई से भरी भाषा थी। आज हम प्रेमचंद और बख्शी जैसी आधुनिक ललित भाषा को ‘एडॉप्ट’ किए हुए हैं।

बख्शी जी छत्तीसगढ़ की माटी की देन है। उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ की आत्मा’ कहानी लिखी है। इसमें वे लिखते हैं ‘छत्तीसगढ़ के जनजीवन में चरित्र की एक ऐसी उज्ज्वलता हैजो अन्यत्र नहीं पा जाती। वे स्वयं धोखा नहीं देते। वे स्वयं कष्ट सह लेते हैं पर दूसरों को कष्ट नहीं देते। वे कठिन परिस्थितियों में भी स्नेह और ममत्व नहीं छोड़ते। जो इस आत्मा से परिचित नहीं होते वे छत्तीसगढ़ के जीवन की महिमा व्यक्त नहीं करते।’ लोककला निर्देशक रामचंद देशमुख बताते थे कि ‘चंदैनी गोंदा’ के बाद ‘कारी’ नामक लोक-प्रस्तुति तैयार करने की प्रेरणा मुझे बख्शी जी की इसी कहानी और उसकी नायिका से मिली थी।

बख्शी जी के जन्मशताब्दी वर्ष 1994 में भिलाई में तीन दिवसीय राष्ट्रीय साहित्य सम्मलेन राजनयिक व गाँधी विचारक कनक तिवारी जी के संयोजन में रखा गया था। सम्मलेन में कथाकार कमलेश्वर आह्वान कर रहे थे कि ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास में जिसे द्विवेदी युग कहा जाता हैउसे द्विवेदी जी को प्रणाम अर्पित करते हुए सप्रे युग भी कहा जाना चाहिए। हिन्दी कहानी और हिन्दी गद्य को माधव राव सप्रे और बाद में बख्शी जी ने बड़ी ऊँचाई दी। इन दोनों सृजनकारों ने हिन्दी साहित्य के आधुनिकीकरण और गद्य को दिशा दी है; लेकिन हिन्दी साहित्य का वर्णवादी इतिहास इन दोनों व्यक्तित्वों के बारे में मौन है। आचार्य शुक्ल का इतिहास सप्रेजी के बारे में मौन है, तो बाद के इतिहासकारों के विवरण बख्शी जी के बारे में खामोश हैं।

अपने निबंध ‘साहित्य और शिक्षा’ में बख्शी जी लिखते हैं ‘लोकरुचि  बदलती रहती है और उसी के अनुसार ग्रंथों की लोकप्रियता भी बढती-घटती रहती है। वर्तमान युग प्रचार का युग है। राजनीति की तरह साहित्य में भी प्रचार का बड़ा महत्त्व है। ढोल पीटकर या नगाडा बजाकर यदि कोई जनता का मत प्राप्त कर मंत्री बन सकता है, तो साहित्य के क्षेत्र में भी यथेष्ट ढोल पीटकर कोई लेखक या कवि गौरव के शिखर पर पहुँच कर विशेष ख्याति भी प्राप्त कर सकता है।

उन्होंने कवि सम्मेलनों में कवियों के वाणी चातुर्य को देखकर ही लिखा है कि, “प्रेम के मधुर सपनों में लीन होकर जो अवसाद से पूर्ण होकर नि:श्वास लेता है, उसे रोगग्रस्त समझना चाहिए... इसी प्रकार रौद्र रस या वीर रस का कवि जब यह चीत्कार करता है कि मैं चाहूँ तो अपनी वाणी से आग लगा दूँ। सब कुछ नष्ट भ्रष्ट कर दूँ और अपने गान से पृथ्वी को विचलित कर दूँ, तब उसके गान को भी विकृत मस्तिष्क का प्रलाप समझना चाहिए।

मंचीय कवियों को सीख देते हुए साहित्य की बगिया के माली ने आगे इसी निबंध में लिखा है कि शब्दों की कामना से सर्जना र्जा नहीं आती। इसके लिए कठोर साधना का प्रयास करना पड़ता है।उनके अनुसार कवि सम्मेलनों में केवल स्वर को ही महत्त्व मिलता है। स्वर-माधुर्य का सम्बन्ध संगीत से है। काव्य-माधुर्य कुछ और होता है;  क्योंकि काव्य का भाव सौन्दर्य तो मन के द्वारा नियंत्रित होता है।बख्शी जी स्वर माधुर्य को ही कविता का आश्रय नहीं मानते हैं। उनके अनुसार कविता में विशुद्ध भाव होगा, जितना ही चितरंजन स्वरूप होगा, उतनी ही उसकी महत्ता है।’   

कवि सम्मेलनों में पढ़ी जाने वाली रचनाओं के सन्दर्भ में उनका स्पष्ट मत है कि इन रचनाओं का उद्देश्य केवल श्रोताओं का मनोविनोद ही होता है। वे मनोविनोद के लिए ही कवि सम्मेलनों में जाते हैं। कवि सम्मेलनों में भाव -भरी गूढ़ रचनाएँ छूट जाती हैं। जिन रचनाओं में भाव की सूक्ष्मता है अथवा जो आकर्षक ढंग से नहीं पढ़ी गई है अथवा जिनमें कवित्व कला का सच्चा निर्देशन नहीं है, वे प्रायः लोकप्रिय नहीं हो सकतीं। भावुकता तथा नाटकीय ढंग से प्रस्तुत की गई रचनाएँ सम्मान पा जाती हैं इनमें कवि की भाव भंगिमाओं का भी अपना स्थान रहता है।

वास्तव में कविता धर्म तो लोकरुचि का विस्तार करना है पर कवि सम्मलेन में श्रोता रुचिका ही ध्यान रखा जाता है। आखिर बख्शी जी की भविष्यवाणी सिद्ध हुई। अब कवि सम्मेलनों में रुचि आई है, जहाँ हो रहे हैं उनमें व्यंग्य रचनाओं को ही सुना जाता है।

हास्य-व्यंगात्मक शैली तथा भाषा बख्शी जी के ललित निबंधों में प्रयुक्त हुई है। आत्मपरक निबंधों में इस शैली को अपनाया गया है - ‘क्या लिखूँ निबंध’ उनकी आत्मव्यंजक शैली का सुंदर नमूना है। इसमें लेखक की निजता और उसका व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। उनके विनोदप्रिय व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए धमतरी के रामायणी दाउद-खाँ एक बार एक प्रसंग सुना रहे थे कि खैरागढ़ में एक मारवाड़ी अपनी अंतिम साँसें ले रहा था। तब उनका एक सेवक दौड़ते हुए बख्शी जी के पास आया और कहा - ‘मास्टर जी.. मालिक ने खटिया पकड़ ली है और आपको याद कर रहे हैं। चलिए ज़ल्दी चलिए।’ यह सुनकर बख्शी जी बोले – ‘जाओ तुम्हारे मालिक से कहना कि कुछ नहीं होगा। वो मारवाड़ी मरेगा नहीं.. अभी इतने गुनाह बाकी हैं उन्हें कौन करेगा?’

प्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी अपने संस्मरण ‘पचास वर्ष पूर्व का प्रयाग’ में लिखते हैं ‘बख्शी जी अत्यंत साधारण स्तर का जीवन जीते थे, पर साहित्य पर उनकी असाधारण पकड़ थी। साहित्य के अतिरिक्त कोई और शगल उनका था ही नहीं। वे बहुत ही दीन व संकोची स्वाभाव के व्यक्ति थे, जिन्होंने विश्व साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। वे प्रेमचंद और पंत के भक्त अनुचर थे। देवबिहारी और मतिराम जैसे कवियों के प्रेमी थे; पर पद्माकर से उन्हें इतना मोह था कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता। देवकीनंदन खत्री व मैथिलीशरण गुप्त के उपासक थे; पर वे यह कहने में कोई संकोच नहीं करते थे -‘भविष्य जो है वह प्रेमचंदजैनेंद्रकुमारपंत और निराला का ही हैकिसी और का नहीं।

बख्शी जी को देखकर पता चलता था कि एक समर्पित साहित्यकार कैसा होता है। मित्रों के दबाव के फलस्वरूप उन्होंने विश्व साहित्य का अनुशीलन’ नामक आलोचनात्मक निबंध संग्रह भी लिखे, जो मील के पत्थर हैं। वे साहित्य के मूक साधक थे और इस कारण भी उनको उचित सम्मान नहीं मिला; हालाँकि उनमें महान प्रतिभा थी। निराला जी भी उनकी प्रतिभा के कायल थे और पंत जी उन पर जान देते थे।

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ‘सरस्वती’ के संपादक बनकर जब फिर प्रयाग आए, तो पत्रिका का स्तर बहुत ही ज़ल्दी ऊपर उठने लगा। वे हिन्दी के महानतम निबंधकार हैं। गुलेरीजी की ‘उसने कहा था’ नामक कहानी की भाँतिबख्शी जी का रामलाल पंडित’ नामक एक निबंध ही उन्हें अमर रखने के लिए काफी है। यह दुखद है कि विद्यानिवास मिश्र ने जब निबंध संग्रह तैयार किया, तो उन्होंने ‘आधुनिक निबंधावली’ में राम मनोहर लोहिया और कमलापति त्रिपाठी जैसे लोगों की रचनाओं को शामिल किया, पर बख्शी जी को लेना वे भूल गए।

वे लगभग दो वर्ष प्रयाग में रहे। उसके बाद उन्होंने इंडियन प्रेस के मालिक हरिकेशव घोष (पटल बाबू) से सदा के लिए विदा माँगी। पटल बाबू ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की; पर पता नहीं क्योंबख्शी जी ने अपने गाँव जाने की जिद न छोड़ी। प्रयाग छोड़ने से पहले उन्होंने संगम में स्नान कियापंत और निराला से अंतिम भेंट कीहिंदू-होस्टल के कर्ता-धर्ता देवीदत्त शुक्ल के साथ भोजन किया और नौसिखियों को आशीर्वाद भी दिया और कहा कि ‘सच्चा साहित्यकार वही हो सकता है, जिसमें सृजन का सुख होगा। सृजन के सुख के सामने प्रशंसापुरस्कार व यश कोई मायने नहीं रखते। साहित्य का सच्चा समीक्षक मात्र काल हैऔर कोई नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘पुराने साहित्यकारों को सदैव पढ़ते रहना चाहिए। पुराने को जाने बिना आप नया नहीं लिख सकते।

त्यागी जी लिखते हैं कि ‘उनको छोड़ने मैं स्टेशन गया और जब गाड़ी चली , तो प्रयाग को सदा के लिए छोड़ते हुए वे अत्यंत भावुक हो उठे। सभी लोगों की आँखों में आँसुओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। अपने जीवन में मैंने अनेक बड़े -बड़े साहित्यकार देखे पर बख्शी जी जैसा विरक्त और नि:संग व्यक्ति कोई और नहीं देखा। बख्शी जी के जाने के बाद ‘सरस्वती छपती तो रही; पर उसमें अब पहले जैसी बात नहीं रही थी।

हरिशंकर परसाई जैसे उद्भट विद्वान विचारक भी बख्शी जी का लोहा मानते थेकहते थे- ‘बख्शी जी अत्यंत अध्ययनशील रचनाकार थे। विश्व कथा साहित्य का जितना अध्ययन और ज्ञान उन्हें था वह अन्यत्र दुर्लभ है।

पाश्चात्य प्रभाव और अपनी वैश्विक दृष्टि के बाद भी लेखक की स्थानीयता को लेकर प्रतिष्ठित आलोचक प्रमोद वर्मा जी की बख्शी जी जैसे निपट स्थानीयपन से भरे व्यक्तित्व पर यह टिप्पणी विचारणीय है- ‘स्थान और क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं को रेखांकित करने ओर माँगों की पूर्ति के लिए संगठित होने और आंदोलन करने के लिए तो हम आज झट से तैयार हो जाते हैं;  लेकिन स्थानीयता और क्षेत्रीयता की अपनी विशिष्ट पहचान को कायम रखने की भला कितनी चिन्ता करते हैंमध्यप्रदेश और उड़ीसा के सिवान पर स्थित बालपुर के लोचनप्रसाद और मुकुटधर पांडेय तथा खैरागढ़ के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पूरी तरह अपने गाँव घर के होने के कारण ही सम्पूर्ण हिन्दी भाषी क्षेत्र के हो सके थे। वे अपनी स्थानीयता और क्षेत्रीयता के प्रति बेहद सजग और क्षेत्रीय संस्कृति को लेकर बेहद गर्वित थे। अपनी क्षेत्रीयता और स्थानीयता को उन्होंने दुशाले की तरह नहीं वरन देह की तरह धारण करते हुए वे वस्तुतः सम्पूर्ण समाज और देश के थे। भाषा-भूषा और रहन-सहन इत्यादि से खाँटी देसी बल्कि देहाती लगते थे लेकिन सोच का क्षितिज उनका निश्चित रुप से हमसे बड़ा था। एकदम सार्वदेशिक और सार्वकालिक।

सम्पर्कः 9009884014

1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

एक मूक साहित्य साधक की जानकारी देता सुंदर आलेख।