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Nov 3, 2020

दो ग़ज़लें

- डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल


1. नन्ही-सी लौ

न हो दुख-दर्द का साथी तो तन्हा काट देता है
मुसीबत में भी इंसाँ वक़्त अपना काट देता है


नहीं होती है ताक़त जिनमें तूफ़ानों से लड़ने की
उन्हीं शाखाओं को आँधी का झोंका काट देता है


अगर फैलाव में पानी के बाधा बनने लगता है
ख़ुद अपना ही किनारा आप दरिया काट देता है


मजा ये है कि सबके साथ हँसते-खेलते गुज़रे
वो जीवन क्याजिसे इंसाँ अकेला काट देता है


बहुत नन्ही-सी लौ दीपक की हैलेकिन ये कहती है
अँधेरी रात का परदा उजाला काट देता है




2. ओस की बूँदों में

धूप बनकर फैल जाओचाँदनी बनकर जियो
घुप अँधेरा छा न जाएरोशनी बनकर जियो


फूल बन-बनकर बिखरती हैतपन देती नहीं आग
बनकर ख़ाक जीनाफुलझड़ी बनकर जियो


आज तक जीते रहे होअपनी-अपनी जिदगी
दोस्तो! इक-दूसरे की जिंदगी बनकर जियो


ओस की बूँदों में ढलकर तुम अगर बिखरे तो क्या
दूर तक बहती हुई शीतल नदी बनकर जियो


आदमी के रूप में पैदा हुए तो क्या हुआ?
बात तो तब है कि सचमुच आदमी बनकर जियो

 

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