- विजय जोशी
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
जब राम, सीता और लक्ष्मण सहित चौदह वर्षो के लिये वन जाने लगे तथा सबसे विदा ले चुके तो अंत में वे आर्शीवाद लेने के लिये गुरू वशिष्ठ के पास गए।
वशिष्ठ ने कहा - राम यदि वन जाने के लिये तुम्हारा मन न हो तो मुझे नि:संकोच कह दो। मैं अभी यह आज्ञा रद्द करवा दूँगा।
राम की आँखें छलछला आईं। उन्होंने माता को कहे वचन एक बार दोहरा दिये-
धरन धुरीन धरम गति जानी,
कहेउ मातु सन अति मृदु बानी
पितां दीन्ह मोहि कानन राजु,
कहं सब भाँति मोर बड़ काजु
गुरुदेव माता- पिता ने मुझे वन का राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकार से मेरा बड़ा काम बनने वाला है। और यह कहते हुए तत्काल वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाकर वह बोले - क्षमा करें, भगवन ! राम को सुख नहीं चाहिये। सुख के लिये मेरा जन्म नहीं हुआ। राम तो आज आपसे दुःख माँगने आया है। मुझे आशीर्वाद दें, गुरुदेव, दुःख का आशीर्वाद।
दुःख क्यों वत्स - वशिष्ठ ने अचरज में भरकर पूछा।
राम ने झुके नेत्रों से वशिष्ठ के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा - देव ! इन श्रीचरणों की ही तो शिक्षा है कि सुख का देश केवल योजन भर का है, लेकिन दुःख का देश आकाश की तरह निस्सीम। मुझे योजन भर के देश का राजा बनना मान्य नहीं है। मैं आर्य हूँ, पराक्रमी हूँ और आपका शिष्य हूँ। मुझे नि:सीम देश का राज्य चाहिए। प्रभु ! राम को सीमा मत दीजिए, विस्तार दीजिए।
राम की लगन में देश की सनातन साधना को इस प्रकार फलीभूत होते देख मुनि वशिष्ठ का ह्दय आनंद विभोर हो उठा। उन्होंने राम को ह्दय से लगा लिया- जाओ वत्स! दुःख की खोज में जाओ। सीमाएँ ही नहीं, काल भी तुम्हें शीश नवाएगा।
याद रहे दुःख की घड़ी में ही हम आत्मचिंतन तथा अंतस् का विश्लेषण कर पाते हैं। स्वयं से साक्षात्कार का यही अवसर है। सुख में सुमिरन की किसे चिंता रहती है। आदमी यदि वही कर ले तो फिर दुःख ही क्यों उपजे।
मानस के मैनेजमेंट मंत्र
1. मूल्य : मूल्य, सिद्धांत एवं मर्यादापूर्ण आचरण का व्यक्तित्व में समावेश। एक संपूर्ण जीवन संहिता
2. नेतृत्व : विकेंद्रित। समूह में हर एक को अपनी प्रतिभा तथा क्षमता के अनुसार योगदान का अवसर। उदाहरण हनुमान, जामवंत, नल, नील।
3. अंत्योदय : समाज में अंतिम छोर पर बैठे आदमी के हित को ध्यान में रखते हुए संवेदनशीलता सहित कार्य। उदाहरण शबरी, केवट।
4. न्यायप्रियता : लोभरहित सत्य परायणता। विस्तारवादी भाव से सर्वथा परे सुग्रीव एवं विभीषण को किष्किन्धा तथा लंका के राज्य सौंपे।
5. त्यागयुक्त आदर भाव : गुरु एवं गुणीजन का आदर। पिता की आज्ञा पर तुरंत राजपद का त्याग। इसी प्रकार अयोध्या लौटने पर लंका विजय का सारा श्रेय दिया अपने गुरु को ।
गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे,
तिनकी कृपा दनुज रन मारे।
सम्पर्क : 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com
Lord Rama knew that in order to expand, one needs to leave the comfort zone. Therefore he decided to forgo all his comforts and thus expanded himself limitlessly.
ReplyDeleteVery beautifully explained
Jai Shri Ram!!
विजेंद्र, हार्दिक धन्यवाद. आप भी आचरण से राम ही हैं.
ReplyDeleteBlessings in disguise, always exist...ATI Utam👍👍
ReplyDeleteVery well scripted.Blessings in disguise, always exist...
ReplyDeleteDear Sorabh,I'm aware about Your passion for reading. Thanks very much
Deleteहमेशा गुणीजनों का आदर करना चाहिए
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