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Aug 13, 2020

उदंती.com, अगस्त 2020

वर्ष १२, अंक १२


लोग चाहे मुट्ठी भर हों, लेकिन संकल्पवान होंअपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था हो
वे इतिहास को भी बदल सकते हैं। 
-महात्मा गाँधी


अनकहीः कोरोना समय में शिक्षा?- डॉ.रत्ना वर्मा

कोरोना समय में शिक्षा?

कोरोना समय में शिक्षा?
 - डॉ. रत्ना वर्मा
कोरोना संकट का यह समय हम सभी के लिए मुश्किल दौर लेकर आया है। आज़ादी के बाद स्वतंत्रता, समानता और एकता पर आधारित राष्ट्रीयता वाले हमारे देश में युवा वर्ग के भविष्य को लेकर बहुत बातें हो रही हैं। युवाओं के लिए बेरोगारी एक बड़ी समस्या तो है ही, साथ ही कोरोना काल में  शैक्षिक क्षेत्र में भी एक शून्यता भर गई है। इस शून्यता को भरने के लिए नए विकल्पों की तलाश की जा रही है।
देशभर में सामान्य काम-काज के लिए सभी प्रदेश लॉकडाउन हटाते चले जा रहे हैं तथा उद्योग- धंधों के साथ निजी और सरकारी स्तर पर सभी कार्यालयों में कार्य आरंभ हो चुका है । तो जाहिर है शिक्षण संस्थाओं को भी जल्द से जल्द पटरी पर लाने की जुगत बिठानी होगी। इन दिनों कोरोना के कारण स्कूल,  कॉलेज सब बंद है। शिक्षकों को अवश्य काम पर बुलाया जा रहा है , ऑनलाइन प्रवेश की प्रक्रिया भी चालू हैं ; पर इस वायरस के चलते स्कूल कॉलेज खोलने और विद्यार्थियों को बुलाने की हिम्मत अभी तक सरकार नहीं कर पाई है। लेकिन  यह सिलसिला कब तक चलेगा?  यह न तो निदान है और न अन्तिम समाधान।
अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी होगी, तो शिक्षण संस्थाओं को भी देर -सबेर आरंभ तो करना ही होगा।
विकल्प के रूप में ऑनलाइन कक्षाएँ भी आरंभ हो चुकी हैं। परंतु सफलता कितनी मिल रही है, इसका आंकलन होना अभी बाकी है। यह भी देखना होगा कि क्या सभी सरकारी और गैरसरकारी स्कूल तथा कॉलेज इसके लिए तैयार हैं ? क्या सभी छात्रों के अभिभावकों के पास ऑन लाइन की सुविधा उपलब्ध है? हमारे नीति निर्धारक इस शिक्षा पद्धति का पुरज़ोर समर्थन कर रहे हैं, लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी खड़े हो गए हैं-  क्या भारत इस समय ऑनलाइन शिक्षा देने के लिए तैयार है? और क्या इस सत्र में परीक्षाएँ भी ऑनलाइन संभव हो पाएँगी?
दूसरी ओर हमारे देश में बड़ी संख्या में कोचिंग कक्षाओं का जाल बिछा हुआ है। बच्चों से भारी फीस वसूल कर मेडिकल, इंजिनियरिंग, आईआईटी, पीएससी, यूपीएससी, जैसी कई अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाई जाती है। जिसको चलाने के लिए भी ढेर सारे नियम कायदे बनाए गए हैं – जैसे कमरे का क्षेत्रफल इतना होना चाहिए, विद्यार्थियों के बैठने के लिए टेबल कुर्सी व अन्य सुविधाएँ होनी चाहिए, दृश्य और श्रव्य माध्यम से पढ़ाने के साधन होने चाहिेए ....और भी अन्य कई खर्चीले साधन... जबकि एक योग्य शिक्षक अपने घर में रहकर भी बहुत कम सुविधाओं के माध्यम से ऑनलाइन इन परीक्षाओं की तैयारी बहुत अच्छे से करवा सकते हैं।  पर हमारे नीति निर्धारकों ने सभी का व्यवसायीकरण जो कर दिया है। अगर सब कुछ आसान और कम खर्च में उपलब्ध करा दिया जाएगा, तो उनकी झोली कैसे भरेगी। बात चुभने वाली है; पर शिक्षण-क्षेत्र में घुस आए भ्रष्टाचार से कोई इंकार नहीं कर सकता।
पूरे देश की किसी भी नई पद्धति को लागू करने करना,  शिक्षा व्यवस्था को एक ही सत्र में ऑनलाइन कर पाना आसान काम नहीं है। पूरी आधारिक संरचना तैयार करनी होगी। साथ ही हमारे  देश में जहाँ दूर- दराज गाँव में बहुत मुश्किल से स्कूलों का संचालन होता है , जहाँ शिक्षकों की कमी है , बच्चे नियमित स्कूल नहीं आते, वहाँ के बच्चों को ऑनलाइन पाँच- छह घंटे घर पर ही एक जगह मोबाइल या लेपटॉप देकर किस प्रकार से पढ़ाया जा सकेगा, यह सब सोचना होगा? कितने शिक्षक इस नई पद्धति से शिक्षण-कार्य करने में सक्षम हैं? खबरें तो यही कहती हैं कि स्कूल के शिक्षकों को इसके लिए ट्रेनिंग देने की प्रक्रिया भी आरंभ हो चुकी है, निजी स्कूलों ने ऑनलाइन पढ़ाना आरंभ भी कर दिया है , परंतु बच्चे इस नए माध्यम से कितना पढ़ और समझ पा रहे हैं इसकी समीक्षा अभी बाकी है,  इन सब प्रश्नों के साथ आज जबकि आधा सत्र खत्म ही होने को है; किस प्रकार सारी व्यवस्था हो सकेगी, यह चिंतनीय है।
आज चाहे अमीर हो या गरीब, प्रत्येक के घर में मोबाइल उपलब्ध है; परंतु उनके सभी बच्चों के पास अलग-अलग मोबाइल हो, यह रूरी नहीं है। शिक्षकों के पास भी पढ़ाने के लिए सभी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है, न उन्हें अभी इसकी आदत है, न कुछ शिक्षकों में इच्छा-शक्ति है।  यानी अभी बहुत सारी तैयारी बाकी है
चलिए मान लेते हैं कि  देर-सबेर किसी तरह यह व्यवस्था हो भी जाती है, तो क्या विद्यार्थियों को व्यस्त रखने के नाम पर या कहें साल खराब न हो इस नाते ऑनलाइन शिक्षा का यह विकल्प शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने में कामयाब हो पाएगा?
इसमें कोई दो राय नहीं  कि कोरोना संकट के इस मुश्किल दौर में शैक्षिक संस्थानों के आगे जो चुनौती है , उसमें ऑनलाइन शिक्षा एक अच्छा विकल्प हो सकता है। यदि पूरी निष्ठा के साथ इस पर काम किया जाए, तो क्या नहीं किया जा सकता; क्योंकि वर्क फ्रॉम होम यानी घर से काम करने के विकल्प के अच्छे नतीजें मिल रहे हैं और भविष्य में इसे जारी रखने पर विचार भी किया जा रहा है। परंतु इसके साथ साथ एक भय यह भी है कि जिस प्रकार आज शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण हो रहा है, ऐसे में कोरोना के बहाने शिक्षा व्यवस्था में किया जा रहा कोई भी परिवर्तन क्या रंग लेकर आएगा इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा।

चंद्रशेखर आजाद के इकलौते चित्र की अंत:कथा (जयन्ती पर विशेष)

चंद्रशेखर आजाद के इकलौते चित्र की अंत:कथा
-डॉ. शिवजी श्रीवास्तव
       चंद्रशेखर आजाद भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास के एक ऐसे चमकदार नक्षत्र हैं ,जिनके प्रकाश से युगों-युगों तक क्रांतिचेता युवक प्रकाश ग्रहण करते रहेंगे। 23 जुलाई 1906 को म.प्र. के झाबुआ जिले के भाबरा में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे चंद्रशेखर अपनी किशोरावस्था से ही भारतीय स्वतंत्रता के महासमर में कूद गए थे। उनके शौर्य की गाथाएँ आज भी प्रत्येक देशभक्त के अंदर ऊर्जा का संचार करती हैं। चंद्रशेखर आजाद का नाम लेते ही आँखों के सामने एक छवि उभरती है, नंगे बदन,कमर पर धोती बाँधे हुए, कंधे पर जनेऊ और बाएँ हाथ से दाहिनी ओर की मूँछ उमेठते हुए एक बलिष्ठ देहयष्टि वाले तेजस्वी नवयुवक की।... जहाँ कहीं उनकी मूर्ति भी स्थापित है, वहाँ भी उनकी इसी छवि को मूर्तिमान किया गया है। वस्तुतः चंद्रशेखर आजाद की यही एकमात्र उपलब्ध तस्वीर है, जो उनके जीवन काल मे खींची गई थी; और इस तस्वीर की भी एक कहानी है।
     इंटरनेट पर इस तस्वीर के संदर्भ में अनेक विवरण उपलब्ध है;  किंतु वे पूरा सच बयान नहीं कर रहे। इस तस्वीर के पीछे का सच आजाद जी के अभिन्न साथी रहे प्रसिद्ध क्रांतिकारी डॉ. भगवान दास माहौर जी से मुझे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था डॉ. माहौर भी प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे, साण्डर्स के वध में वे आजाद जी के सहयोगी रहे थे, भुसावल बमकाण्ड में उन्हें जेल में भी रहना पड़ा था, आजादी के बाद उन्होंने छूटी हुई पढ़ाई को पुनः प्रारम्भ किया तथा हिन्दी विषय से एम.ए.,पी-एच.डी, वं डी. लिट्. तक की उपाधियाँ अर्जित करके बुंदेलखंड महाविद्यालय झाँसी में हिन्दी के प्रोफेसर हो ग थेजिस वर्ष मैं एम.ए. का विद्यार्थी था ,वे सेवानिवृत्ति के पश्चात् अतिथि प्राध्यापक के रूप में पढा रहे थेमुझे भी एक वर्ष उनसे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वे मेरे पिता के अच्छे मित्र भी थे; अतः मेरे घर भी उनका प्रायः आगमन होता था हम लोगों के अनुरोध पर वे आजाद जी से जुड़े संस्मरण अकसर सुनाया करते थे एक बार इस चित्र का रहस्य भी उन्होंने ही बतलाया था।
 झाँसी में मास्टर रुद्रनारायण का घर क्रांतिकारियों की शरणस्थली था, वहाँ क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकें भी हुआ करती थीं। काकोरी-काण्ड के पश्चात् फरारी के दिनों में चंद्रशेखर आजाद लंबे समय तक झाँसी में मास्टर रुद्रनारायण के घर पर रहे माहौर जी की आजाद जी से यहीं भेंट हुई थी, फिर धीरे-धीरे वे आजाद जी के विश्वस्त साथी बन गए। आजाद जी झाँसी-ओरछा मार्ग पर सातार के जंगलों में  एक संन्यासी के रूप में अज्ञातवास में भी रहे। उस अज्ञातवास हेतु मास्टर रुद्रनारायण ने उन्हें हरिशंकर नाम दिया था। लगभग डेढ़ वर्ष आजाद जी वहाँ साधु बनकर एक कुटिया बनाकर रहे, उन्होंने वहाँ के गाँव के बच्चों को शिक्षा भी दी, इन जंगलों में चंद्रशेखर आजाद ,भगवान दास माहौर, सदाशिवराव मलकापुरकर आदि के साथ निशानेबाजी एवं  गुरिल्ला युद्ध का अभ्यास भी करते रहे; किंतु किसी को ये ज्ञात नहीं हो सका कि साधु हरिशंकर वही आजाद जी हैं ,जिन्हें पूरी ब्रिटिश पुलिस पागलों की तरह  तलाश कर रही है।
    इस दौरान मास्टर रुद्रनारायण के घर पर भी उनका आना जाना रहा। रुद्रनारायण बहुत अच्छे चित्रकार, मूर्तिकार एवम फोटोग्राफर थे। उन दिनों तक आजाद जी की कोई तस्वीर थी ही नहीं, इसीलिवे पुलिस की नरों से भी बचे रहते थे, उन्हें कोई पहचानता नहीं था। आजाद जी अपनी फोटो खिंचवाते भी नहीं थे, मास्टर रुद्रनारायण एवं उनकी पत्नी ने कई बार उनसे फ़ोटो खिंचवाने का आग्रह किया; पर उन्होंने हमेशा इनकार कर दिया। आजाद जी को आशंका थी कि अगर कभी भी फ़ोटो किसी प्रकार पुलिस के हाथ लगा, तो उन्हें पहचाना जा सकता है।
    एक दिन आजाद जी मास्टर रुद्रनारायण के घर पर थे, सुबह स्नान करके वे स्नानागार से बाहर आए, तो श्वेत धोती कमर से लपेटी हुई थी, कंधे पर जनेऊ था ही, वे अपने बाल काढ़ते हुए कोई देशभक्ति का तराना गुनगुना रहे थे, मास्टर रुद्रनारायण ने अचानक कैमरा उठाया और बोले-पंडिज्जी, आजआपकी छवि बिल्कुल अलग लग रही है एक फोटो खींच लूँआजाद जी ने टालते हुए कहा-अरे, नहीं, ऐसे नंगे बदन... रुको मैं कुर्ता तो पहन लूँ... मास्टर रुद्रनारायण रुकना नही चाहते थे, उन्होंने कहा-ऐसे ही अच्छे लग रहे हो, कुर्ता रहने दो।'....आजाद जी बोले- अच्छा नहाने से मूँछें बेतरतीब हो गई हैं, इन्हें तो ठीक कर लूँ- कहते हुए उन्होंने एक ओर मूँछ ठीक करके दूसरी मूँछ उमेठना शुरू की... मास्टर रुद्रनारायण सशंकित थे कि कहीं आजाद जी का मन अचानक बदल न जाए, उन्होंने चट से उस क्षण की मुद्रा को ही कैमरे में कैद कर लिया....
बस वही आजाद जी की एकमात्र अकेली तस्वीर थी, जो उनके जीवन काल मे खींची गई थी। मास्टर रुद्रनारायण जी ने आजाद जी के इस चित्र को उनके जीवन काल मे किसी को नहीं दिखलाया, उनके बलिदान के बाद ही इसे सार्वजनिक किया। ...यतस्वीर इतिहास की महत्त्वपूर्ण धरोहर बनी। उसके बाद उनकी जितनी तस्वीरें या मूर्तियाँ बनाई गईं , सब इसी के आधार पर बनाई गईं। आजाद जी की एक और दुर्लभ तस्वीर भी प्राप्त होती है ,जिसमें वह मास्टर रुद्रनारायण की पत्नी और उनकी दो बेटियों के साथ बैठे हैं, यह एक पारिवारिक चित्र हैवह मास्टर रुद्रनारायण ने कब और किन स्थितियों में खींचा, इसका विवरण नहीं मिलता, किंतु आजाद जी की पहचान के रूप में वही इकलौता चित्र अमर हो गया, जिसकी चर्चा माहौर जी ने की।
      आजाद जी की जयंती पर उनके उसी चित्र को सामने रखकर उनका भावपूर्ण स्मरण करते हुए उनके एक पसंदीदा शेर के साथ ही उन्हें नमन करता हूँ-
‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे।
  आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे।’
     उनके साथ ही उनकी छवि को जन-जन तक पहुँचाने वाले मास्टर रुद्रनारायण को नमन, अपने गुरु डॉ. भगवानदास माहौर को नमन।

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों
-  शशि पाधा
सैनिक पत्नी होने के नाते मुझे लगभग तीन वर्ष फ़िरोज़पुर छावनी में रहने का अवसर मिला। वहाँ रहते हुए जो अनुभव मेरे मन मस्तिष्क में अमिट चिह्न छोड़ गए हैं, उनमें से सबसे अनमोल था मेरा बार-बार शहीद भगत  सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि पर जाकर पुष्पांजलि अर्पित करना। जो भी मित्र, पारिवारिक सदस्य, वरिष्ठ सैनिक परिवार फ़िरोज़पुर आता, हम उन्हें इस समाधि स्थल पर अवश्य ले जाते। पंजाब राज्य में बहने वाली  पाँच नदियों में से सतलुज नदी के किनारे बसे हुसैनीवाला गाँव में बनी झील के किनारे समाधि बनी हुई है । इस स्थान से भारत-पाक सीमा एक किलोमीटर दूर भी नहीं है। जो भी लोग हुसैनीवाला सीमा पर भारत-पाक की परेड देखने आते हैं , वे इस महत्त्वपूर्ण  समाधि-स्थल पर अवश्य आकर पुष्प आदि चढ़ाते हैं।




मैं  कई बार शाम को वहाँ जाकर उन्हें मौन श्रद्धांजलि देती थी; लेकिन एक दिन का अनुभव मुझे आज तक  कँपा देता है। मेरे वृद्ध माता-पिता कुछ दिनों के लिए मेरे पास फिरोजपुर में रहने के लिए आए थे। उन्हें मैं एक दिन शाम के समय इस समाधि स्थल पर ले गई। जैसा कि हर बार होता था, हमारे घर में रहने वाले सहायक भैया ने हमारी गाड़ी में कुछ पुष्पहार और कुछ पुष्प रख दिए थे। मैं अपने माता -पिता को लेकर समाधि- स्थल पर पहुँची, तो उन दोनों ने वे पुष्पहार तीनों शहीदों की प्रस्तर मूर्तियों पर चढ़ाए और हाथ जोड़कर नमन की मुद्रा में खड़े रहे। पास ही हमारी सेना की छोटी- सी पोस्ट है। उसमें धीमा-धीमा संगीत चल रहा था। गाना था– कर चले हम फिदा जानो-

तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। हम सब की आँखें बंद थी और हम उस अलौकिक पल में पूरी तरह डूबे थे।

अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे पिता की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी और वो गीता के किसी मन्त्र का जाप कर रहे थे।  यह मेरे लिए अभूतपूर्व अनुभव था। मैंने अपने धीर, मितभाषी पिता को कभी रोते हुए नहीं देखा था। ऐसा क्या हुआ होगा कि वो इस समाधि स्थल पर खड़े होकर इतने विचलित हो गए। जब थोड़े संयत हुए, तो स्वयं ही हमसे बोले, ‘लगभग मेरी ही उम्र के थे शहीद  भगत सिंह। मुझे एक बार इनसे मिलने का अवसर भी मिला था। वो बहुत ही सौम्य नौजवान था। देश -प्रेम की भावना उसके रोम- रोम से प्रकट हो रही थी। आज इन वीरों की समाधि देख कर मैं गर्वित भी हो रहा हूँ और ग्लानि भी हो रही है कि हम देशवासी इन्हें बचा नहीं सके। क्या 23 वर्ष भी उम्र होती है किसी नौजवान के जाने की? थोड़ी देर बाद फिर हाथ जोड़कर वे इस त्रिमूर्ति के सामने सिर झुकाकर खड़े रहे। जाते समय बोले-कृतज्ञ हूँ, अभिभूत हूँ। उन्होंने वहाँ चढ़ाए फूलों में से कुछ फूल उठाए और अपने रूमाल में बाँध कर रख लिये

उस शाम हम अपने माता -पिता के साथ बहुत देर तक हुसैनीवाला झील पर नौका विहार करते रहे। मेरे पिता स्वतन्त्रता संग्राम की बातें सुनाते रहे और मैं धनी होती रही। जब भी 23 मार्च का दिन आता है, मैं शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धा सुमन तो अर्पित करती ही हूँ; किन्तु पर्वत जैसा हौसला रखने वाले अपने धीर  पिता के साथ बिताए इन अनमोल पलों को याद करते हुए अंदर तक भीग जाती हूँ।

भारत माँ ने आँखें खोलीं

चौपाई -भारत माँ ने आँखें खोलीं
- ज्योत्स्ना प्रदीप
भारत माँ ने आँखें खोलीं,
देखो वो भी कुछ तो बोली।
बालक मेरे  हैं अवसादित,
पथ ना जानें क्यों हैं बाधित।

वसुधा वीरों की मुनियों की,
ज्ञान कोष थामें गुनियों की।
कोई तो था प्रभु का साया,
कोई गंगा भू पर लाया।

संतानें अब बदल गई हैं,
माँ की आँखें सजल भई हैं।
निकलो अपनी हर पीड़ा से,
खुद को सुख दे हर क्रीडा से।

कुटिया चाहे ठौर बनाना ,
घी का चाहे कौर न खाना।
पावनता  को अपनाना है,
नवयुग सुख का फिर लाना है।

किरणें थामे नैन कोर हो,
सबकीअपनी सुखद भोर हो।
बनना  खुद के भाग्य विधाता,
आस लगाये भारत माता।

सम्पर्कः प्रदीप कुमार शर्मा (CRPF), मकान 32,गली न – 9, न्यू गुरुनानक नगर , गुलाब देवी हॉस्पिटल रोड, जालंधर -पंजाब-144013

कोविड-19 से उत्पन्न छह संकट

आजादी के बाद
कोविड-19 से उत्पन्न छ संकट
-रामचंद्र गुहा
ज़ादी के बाद से ही भारत कई मुश्किल दौर से गुज़रा है। भारत ने विभाजन की पीड़ा; 1960 के दशक का अकाल और युद्ध; 1970 के दशक में इंदिरा गांधी का आपातकाल; और 1980 के दशक के अंत एवं 1990 की शुरुआत में सांप्रदायिक दंगों का दर्द झेला है। हमारा देश एक बार फिर अब तक के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रहा है। कारण यह है कि कोविड-19 महामारी ने कम से कम छह अलग-अलग संकटों को जन्म दिया है।
सबसे पहला और सबसे प्रत्यक्ष संकट चिकित्सा सम्बंधी है। जैसे-जैसे वायरस संक्रमण के मामले बढ़ेंगे, हमारे पहले से कमज़ोर और अति-व्यस्त स्वास्थ्य तंत्र पर और अधिक दबाव पड़ेगा। ऐसे समय में, महामारी से निपटने के प्रबंधन पर अत्यधिक ध्यान देने का मतलब होगा कि अन्य प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएँ उपेक्षित रह जाएँगी। टीबी, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप और कई अन्य रोगों से पीड़ित करोड़ों भारतीयों को पता चल रहा है कि इलाज के लिए डॉक्टर व अस्पताल मिलना मुश्किल है, जो पहले उपलब्ध थे। इससे अधिक चिंता तो भारत में हर माह पैदा होने वाले लाखों शिशुओं की है। कई वर्षों की मेहनत से इन नवजात शिशुओं को खसरा, मम्स, पोलियो, डिप्थीरिया जैसी घातक बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण का एक संस्थागत ढांचा तैयार किया गया था। लेकिन हालिया ज़मीनी रिपोर्ट्स से पता चला है कि कोविड-19 की ओर अधिक ध्यान होने से राज्य सरकारें बच्चों के टीकाकरण कार्यक्रमों में पिछड़ रही हैं।        
 दूसरा और स्पष्ट संकट आर्थिक संकट है। महामारी ने कपड़ा, एयरलाइन्स, पर्यटन और आतिथ्य उद्यमों जैसे रोज़गार पैदा करने वाले उद्योगों को गंभीर नुकसान पहुँचाया है। इस तालाबंदी का अनौपचारिक क्षेत्र पर और भी अधिक प्रभाव पड़ा होगा। कई हज़ारों लाखों मज़दूरों, पथ-विक्रेताओं और दस्तकारों का रोज़गार छिन गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी का अनुमान है कि मार्च की शुरुआत में जो बेरोज़गारी दर 7 फीसदी थी वह अब 27 फीसदी से अधिक हो गई है। पश्चिमी युरोप के अमीर और बेहतर प्रबंधित देशों में बेरोज़गार लोगों को इस संकट से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय राहत प्रदान की जा रही है। वहीं दूसरी ओर, हमारे गरीब और खराब ढंग प्रबंधित गणराज्य में राज्य द्वारा निराश्रित लोगों की थोड़ी ही सहायता की जाती है।
हमारे सामने तीसरा सबसे बड़ा संकट मानवीय संकट है। इस महामारी को परिभाषित करने वाली छवियाँ वे फोटो और वीडियो होंगे जिनमें प्रवासी मज़दूर अपने पैतृक गांव या कस्बों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की दूरी पैदल तय करते दिख रहे हैं। महामारी की गंभीरता को देखते हुए शायद एक अस्थायी राष्ट्रव्यापी तालाबंदी तो अनिवार्य थी लेकिन इसकी योजना ज़्यादा अकलमंदी से बनाई जानी थी। हालात की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि लाखों भारतीय प्रवासी कामगार हैं, जो एक बेहतर ज़िंदगी के लिए अपने परिवारों से दूर रहकर काम कर रहे हैं। पता नहीं यह तथ्य प्रधानमंत्री या उनके सलाहकारों की नज़रों में क्यों नहीं आया। यदि देश के नागरिकों को ट्रेनों और बसों की मौजूदा सुव्यवस्थित प्रणाली के साथ एक हफ्ते (न कि 4 घंटे) का समय दिया जाता तो वे सुरक्षा और सहजता से अपने घर पहुँच जाते।        
जैसा कि विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है, तालाबंदी की उपयुक्त योजना बनाने में विफलता ने जन स्वास्थ्य संकट को बढ़ाया है। बेरोज़गार श्रमिकों को मार्च के शुरू में ही अपने-अपने घर लौटने की अनुमति दी जानी थी। उस समय वायरस के वाहकों की संख्या बहुत कम थी; लेकिन अब दो महीने के बाद केंद्र सरकार द्वारा ट्रेनों को दोबारा से शुरू करने से हज़ारों वायरस-वाहक अपने गृह-ज़िलों में वायरस ले जाएँगे।
वास्तव में यह मानवीय संकट एक व्यापक सामाजिक संकट का हिस्सा है ,जिसका देश आज सामना कर रहा है। कोविड-19 से काफी पहले से ही भारतीय समाज वर्ग और जाति के आधार पर बंटा ही था, धर्म को लेकर भी काफी पूर्वाग्रह से ग्रस्त था। महामारी और इसके कुप्रबंधन ने इन विभाजनों को और बढ़ावा दिया है। पहले से ही आर्थिक रूप से वंचित लोगों पर इन कष्टों का बोझ अनुपात से अधिक पड़ा है। इसी दौरान, सत्तारूढ़ दल के सांसदों (और चिंताजनक रूप से वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों) द्वारा कोविड-19 मामलों का धार्मिक चित्रण करने से भारत के पहले से ही कमज़ोर मुस्लिम अल्पसंख्यक और भी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। एक ओर तो मुसलमानों पर दोषारोपण बेरोकटोक चलता रहा और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री चुप रहे। खाड़ी देशों की तीखी आलोचना के बाद ही उन्होंने एक बयान जारी कर कहा कि यह वायरस किसी धर्म के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन उस समय तक सत्तारूढ़ दल और उसके ‘पालतू मीडिया’ द्वारा फैलाया गया ज़हर आम भारतीयों की चेतना में गहराई से घर बना चुका था।            
चौथा संकट पहले के तीन संकटों की तरह स्पष्ट तो नहीं है फिर भी यह काफी गंभीर हो सकता है। यह एक उभरता हुआ मनोवैज्ञानिक संकट है। बेरोज़गार और अपने घरों के लिए पैदल निकलने के लिए मजबूर लोगों में शायद ही छोड़े गए शहरों में वापस जाने का हौसला पैदा हो पाए। एक बड़ी चिंता स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव की है, जिनका सामना आने वाले महीनों में उनको स्वयं करना है। आर्थिक असुरक्षा के कारण वयस्कों में भी अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों में वृद्धि हो सकती है। इसके परिणाम स्वयं उनके लिए और उनके परिवार के लिए काफी गंभीर हो सकते हैं।   पाँचवाँ संकट भारत के संघीय ढांचे का कमज़ोर होना है। आपदा प्रबंधन अधिनियम के आधार पर केंद्र को स्वयं में अत्यधिक शक्तियों को केंद्रित करने की अनुमति मिल गई है। कम से कम महामारी के शुरुआती महीनों में, राज्यों को इतनी ज़रूरी स्वायत्तता भी नहीं दी गई कि अपने स्थानीय संदर्भों के अनुकूल सर्वोत्तम तरीकों से चुनौतियों से निपट सकें। केंद्र ऊपर से एक के बाद एक मनमाने और परस्पर विरोधी निर्देश जारी करता रहा। इस बीच, केंद्र द्वारा राज्यों को वित्तीय संसाधनों से वंचित रखा गया; यहाँ तक कि उनके हिस्से के जीएसटी संग्रहण के उनके हिस्से का भुगतान भी नहीं किया गया। 
छठा संकट, जो पाँचवे संकट से जुड़ा है, भारतीय लोकतंत्र का कमज़ोर होना है। इस महामारी की आड़ में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे निष्ठुर कानूनों के तहत हिरासत में लिया जा रहा है। कई अध्यादेश पारित किए जा रहे हैं और संसद में चर्चा किए बिना ही महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिए जा रहे हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के मालिकों पर सरकार की आलोचना न करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी बीच, राज्य और सत्तारूढ़ दल प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को चमकाने में लगे हैं। आपात्काकाल के दौरान, एक अकेले देवकांत बरुआ ने कहा था कि ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा है’; लेकिन अब तो चाटुकारिता की होड़ लगी है।   
भारतीय चिकित्सा तंत्र अत्यंत दबाव में रहा है; भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर स्थिति में है; भारतीय समाज विभाजित और नाज़ुक है; भारत का संघीय ढाँचा पहले से कहीं अधिक कमज़ोर है। भारतीय राज्य तेज़ी से सत्तावादी बन रहा है। इन सबका मिला-जुला प्रभाव ही इसे देश के विभाजन के बाद का सबसे बड़ा संकट बना देता है। 
एक देश के रूप में हम कैसे अपनी अर्थव्यवस्था, समाज और राजतंत्र के लिए इस कठिन समय में से बगैर किसी बड़े नुकसान के उबर सकते हैं? सबसे पहले तो, सरकार को उन समस्याओं के विभिन्न (और परस्पर सम्बंधित) आयामों को पहचानना होगा, जिनका सामना वर्तमान में हमारा राष्ट्र कर रहा है। दूसरा, सरकार को 1947 में जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल द्वारा लिए गए फैसलों से कुछ सीख लेना चाहिए। उन्होंने उस समय की चुनौतियों की गंभीरता को पहचानते हुए अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रखकर बी. आर. अंबेडकर जैसे भूतपूर्व विरोधियों को भी कैबिनेट में शामिल किया था। इस तरह की एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तो अब संभव नहीं है; लेकिन प्रधानमंत्री जानकार और समझदार विपक्षी नेताओं से सक्रिय परामर्श तो ले ही सकते हैं। तीसरा, प्रधानमंत्री को बिना सोचे-विचारे लिये गए नाटकीय असर वाले आकस्मिक फैसले लेने की बजाय अर्थशास्त्र, विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का सम्मान करना चाहिए और उन पर भरोसा करना सीखना चाहिए। चौथा, केंद्र और सत्तारूढ़ दल को उन राज्यों को परेशान करने की अपनी इच्छा को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए जहाँ उनका शासन नहीं है। पाँचवाँ, केंद्र को सिविल सेवाओं, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और जाँच एजेंसियों को सत्ता का हथियार बनाने के बजाय पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।  
यह हमारे अतीत और वर्तमान पर एक व्यक्ति की समझ पर आधारित सुझावों की एक आंशिक सूची है। यह कोई साधारण संकट नहीं है, बल्कि शायद गणतंत्र के इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटने के लिए हमारे सारे संसाधनों और संवेदना की आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

आजादी की बुनियाद रखने वाली रानी लक्ष्मीबाई ( मिसाल)

आजादी की बुनियाद रखने वाली रानी लक्ष्मीबाई
 -डॉ. नीलम महेन्द्र 
आसान नहीं होता एक महिला होने के बावजूद पुरूष प्रधान समाज में विद्रोही बनकर अमर हो जाना। आसान नहीं होता एक महिला के लिए एक साम्राज्य के खिलाफ खड़ा हो जाना।
आज हम जिस रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा पुष्प अर्पित कर रहे हैं वो उस वीरता शौर्य साहस और पराक्रम का नाम है जिसने अपने छोटे से जीवन काल में वो मुकाम हासिल किया जिसकी मिसाल आज भी दुर्लभ है। ऐसे तो बहुत लोग होते हैं जिनके जीवन को या फिर जिनकी उपलब्धियों को उनके जीवन काल के बाद सम्मान मिलता है लेकिन अपने जीवन काल में ही अपने चाहने वाले ही नहीं बल्कि अपने विरोधियों के दिल में भी एक सम्मानित जगह बनाने वाली विभूतियाँ बहुत कम होती हैं। रानी लक्ष्मीबाई ऐसी ही एक शख्सियत थीं जिन्होंने ना सिर्फ अपने जीवन काल में लोगों को प्रेरित किया बल्कि आज तक वो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। 
एक महिला जो मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने पति और पुत्र को खोने के बाद भी अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारने का जज्बा रखती हो वो निसंदेह हर मानव के लिए प्रेरणास्रोत रहेगी। वो भी उस समय जब 1857 की क्रांति से घायल अंग्रेजों ने भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने शुरू कर दिए थे और बड़े से बड़े राजा भी अंग्रेजों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे समय में एक महिला की दहाड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई की इस दहाड़ की गूँज झाँसी तक सीमित नहीं रही, वो पूरे देश में न सिर्फ सुनाई दीबल्कि उस दहाड़ ने देश के बच्चे बच्चे को हिम्मत से भर दियाजिसके परिणाम स्वरूप धीरे- धीरे देश भर के अलग अलग हिस्सों में होने वाले विद्रोह सामने आने लगे। दरअसल झाँसी के लिए, अपनी भूमि की स्वतंत्रता के लिए, अपनी प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के  दिल में जो आग  धधक रही थी वो 1858 में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे कर पूरे भारत में फैला दी। उन्होंने अपनी स्वयं की आहुति से उस यज्ञ अग्नि को प्रज्वलित कर दिया था जिसकी पूर्ण आहुति 15 अगस्त1947 को डली। हालाँकि 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई अकेले होने के कारण अपनी झाँसी नहीं बचा पाईं ; लेकिन देश को बचाने की बुनियाद खड़ी कर गईं एक मार्ग दिखा गईं। निडरता का पाठ पढ़ा गईंअमरत्व की राह दिखा गईं। उनके साहस और पराक्रम का अंदाजा जनरल ह्यूरोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि अगर भारत की एक फीसदी महिलाएँ इस लड़की की तरह आज़ादी की दीवानी हो गईं तो हम सब को यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा।
कल्पना कीजिए एक महिला की जिसकी पीठ पर नन्हा बालक हो उसके मुँह में घोड़े की लगाम हो और उसके दोनों हाथों में  तलवार!!  शायद हाँ हमारे लिए यह कल्पना करना इतना मुश्किल भी नहीं है ;क्योंकि हमने उनकी मूर्तियाँ देखीं  हैं, उनकी ऐसी तस्वीरें देखी हैं;  लेकिन ये औरत कोई मूर्ति नही हैकोई तस्वीर नहीं है किसी वीर रस के कवि की कल्पना भी नहीं हैयह हकीकत है। शायद इसलिए वो आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगी  हाँ वो अमर है और सदियों तक रहेगी। जानते हैं क्योंक्योंकि वो केवल इस देश के लोगों के दिलों में ही जिंदा नहीं हैवो आज भी जिंदा है अपने दुश्मनों के दिल में,  अपने विरोधियों के दिलों में, उन अंग्रेजों के दिलोदिमाग में जिनसे उन्होंने लोहा लिया था। हाँ यह सच है कि अंग्रेज रानी लक्ष्मीबाई से  जीत गए थे;  लेकिन वो जानते थे कि वो इस लड़ाई को जीत कर भी हार गए थे। वो एक महिला के उस पराक्रम से हार गए थे, जो एक ऐसे युद्ध का नेतृत्व निडरता से कर रही थी जिसका परिणाम वो जानती थी। वे एक महिला के उस जज़्बे से हार गए थे जो अपने दूध पीते बच्चे को कंधे पर लादकर रणभूमि का बिगुल बजाने का साहस रखती थी। शायद इसलिए वो उनका सम्मान भी करते थे। उस दौर के कई ब्रिटिश अफसर बेहिचक स्वीकार करते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई बहादुरी बुद्धि  दृढ़ निश्चय और प्रशासनिक क्षमता का दुर्लभ मेल हैं और उन्हें अपना सबसे खतरनाक शत्रु मानते थे। जिस शख्शियत की तारीफ करने के लिए शत्रु भी मजबूर हो जाए, तो किरदार का अंदाज़ा खुद ब खुद लगाया जा सकता है। 
आज जब 21 वीं सदी में हम 19 वीं सदी की एक महिला की बात कर रहे हैं उन्हें याद कर रहे हैं उनके बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं, तो मेरा मानना है कि यह सिर्फ एक रस्म अदायगी नहीं होनी चाहिए। केवल एक कार्यक्रम नहीं होना चाहिए; बल्कि एक अवसर होना चाहिए। ऐसा अवसर जिससे हम कुछ सीख सकें। तो कुछ बातें जिनकी प्रेरणा हम रानी लक्ष्मीबाई के जीवन से ले सकते हैं-
1. हर कीमत पर आत्मसम्मान स्वाभिमान की रक्षा। जब आपके पास दो विकल्प हो आत्मसमपर्ण या लड़ाई सरल शब्दों में कहें तो जीवन या स्वाभिमान में से चुनना तो उन्होंने स्वाभिमान को चुना।
2. ‘आत्मविश्वासअंग्रेजों के मुकाबले संसाधनों और सैनिकों की कमी ने उनके हौसले को डिगाने के बजाए और मजबूत कर दिया और व दहाड़ पाईं कि जीते जी अपनी झाँसी नहीं दूँगी 
3. ‘लक्ष्य के प्रति दृढ़अपनी झाँसी को बचाना ही उनका लक्ष्य था जिसके वो अपनी जान देकर अमर हो गईं।
4. ‘अपने अधिकारों के लिए लड़ना’ केवल 25 वर्ष की आयु में अपने राज्य की रक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से विद्रोह हमें सिखाता है कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है।
5. ‘अन्याय के खिलाफ आवाज उठानाउन्होंने अंग्रेजों के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर न्याय के लिए लड़कर गीता का ज्ञान चरितार्थ करके दिखाया।
6. और अंत में जो सबसे महत्त्वपूर्ण और व्यवहारिक शिक्षा जो उनके जीवन से हमें मिलती है , कि शस्त्र और शास्त्र विद्या, तार्किक बुद्धि, युद्ध कौशल, और ज्ञान किसी औपचारिक शिक्षा की मोहताज नहीं है। रानी लक्ष्मीबाई ने कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी लेकिन उनकी युद्ध क्षमता ने ब्रिटिश साम्राज्य को भी अचंभे में डाल दिया था।
शायद इसलिए व आज भी हमारे बीच जीवित हैं फिल्मों में टीवी सीरियल में किस्सों में कहानियों में लोक गीतों में कविताओं में उनके नाम पर यूनिवर्सिटी का नामकरण करके उनके पुतले बनाकर। लेकिन इतना काफी नहीं है प्रयास कीजिए उनका थोड़ा सा अंश हमारे भीतर भी जीवित हो उठे।
सम्पर्कः Jari patka no 2, Phalka Bazar, Lashkar, Gwalior, MP- 474001, Mob - 9200050232, Email - drneelammahendra@gmail.com

बहुत- सा पैसा आपको किसी क्लास तक नहीं पहुँचा सकता

बहुत- सा पैसा आपको 
किसी क्लास तक नहीं पहुँचा सकता
सुधा मूर्ति
आप वहाँ जाकर कोनॉमी क्लास की लाइन में खड़े होइए। यह लाइन बिजनेस क्लास ट्रेवलर्स की है,’ हाई-हील की सैंडल पहनी एक युवती ने सुधा मूर्ति से लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर कहा।
सुधा मूर्ति के बारे में आपको पता ही होगा। वे इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरमेन और प्रसिद्ध लेखिका हैं।
इस घटना का वृत्तांत उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Three Thousand Stitches’ में किया है।
प्रस्तुत है उनकी पुस्तक से यह अंशः
पिछले साल मैं लंदन के हीथ्रो इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट में चढ़ने का इंतजार कर रही थी। आमतौर से मैं विदेश यात्रा में साड़ी पहनती हूँ; लेकिन सफर के दौरान मैं सलवार-कुर्ता पहनना पसंद करती हूँ। तो उस दिन भी एक सीनियर सिटीज़न- सी दिखती मैं टिपिकल भारतीय परिधान सलवार-कुर्ता में टर्मिनल के गेट पर खड़ी थी।
बोर्डिंग शुरू नहीं हुई थी; इसलिए मैं कहीं बैठकर आसपास का परिदृश्य देख रही थी। यह फ्लाइट बैंगलोर जा रही थी; इसलिए आसपास बहुत से लोग कन्नड़ में बात कर रहे थे। मेरी उम्र के बहुत से बुजुर्ग लोग वहाँ थे; जो शायद अमेरिका या ब्रिटेन में अपने बच्चों के नया घर खरीदने या बच्चों का जन्म होने से जुड़ी सहायता करने के बाद भारत लौट रहे थे। कुछ बिजनेस एक्ज़ीक्यूटिव भी थे, जो भारत में हो रही प्रगति के बारे में बात कर रहे थे। टीनेजर्स अपने फैंसी गेजेट्स के साथ व्यस्त थे और छोटे बच्चे या तो यहाँ-वहाँ भाग-दौड़ कर रहे थे या रो रहे थे।
कुछ मिनटों के बाद बोर्डिंग की घोषणा हुई और मैं अपनी लाइन में खड़ी हो गई। मेरे सामने एक बहुत स्टाइलिश महिला खड़ी थी, जिसने सिल्क का इंडो-वेस्टर्न आउटफ़िट पहना था, हाथ में गुच्ची का बैग था और हाई हील्स। उसके बालों का एक-एक रेशा बिल्कुल सधा हुआ था और उसके साथ एक मित्र भी खड़ी थी, जिसने सिल्क की महँगी साड़ी पहनी थी, मोतियों का नेकलेस, मैचिंग इयररिंग और हीरे जड़े कंगन हाथों में थे।
मैंने पास लगी वेंडिंग मशीन को देखा और सोचा कि मुझे लाइन से निकलकर पानी ले लेना चाहिए।
अचानक से ही मेरे सामने वाली महिला ने कुछ किनारे होकर मुझे इस तरह से देखा, जैसे उसे मुझ पर तरस आ रहा हो। अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए उसने मुझसे पूछा, ‘क्या मैं आपका बोर्डिंग पास देख सकती हूँ?’ मैं अपना बोर्डिंग पास दिखाने ही वाली थी; लेकिन मुझे लगा कि वह एयरलाइन की इंप्लॉई नहीं है, इसलिए मैंने पूछा, ‘क्यों?’
वेलयह लाइन सिर्फ बिजनेस क्लास ट्रैवलर्स के लिए है,’ उसने बहुत रौब से कहा और उँगली के इशारे से इकोनॉमी क्लास की लाइन दिखाते हुए बोली, ‘आप वहाँ उस लाइन में जाकर खड़े होइए
मैं उसे बताने वाली ही थी कि मेरे पास भी बिजनेस क्लास का टिकट है;  लेकिन कुछ सोचकर मैं रुक गई। मैं यह जानना चाहती थी कि उसे यह क्यों लगा कि मैं बिजनेस क्लास में सफर करने के लायक नहीं थी। मैंने उससे पूछा, ‘मुझे इस लाइन में क्यों नहीं लगना चाहिए?’
उसने गहरी साँस भरते हुए कहा, ‘देखिए… इकोनॉमी क्लास और बिजनेस क्लास की टिकटों की कीमत में बहुत अंतर होता है। बिजनेस क्लास की टिकटें लगभग दो-तीन गुना महँगी होती हैं… ’
सही कहा,’ दूसरी महिला ने कहा, ‘बिजनेस क्लास की टिकटों के साथ ट्रेवलर को कुछ खास सहूलियतें या प्रिविलेज मिलती हैं।
अच्छा?’ मैंने मन-ही-मन शरारती इरादे से कहा, जैसे मैं कुछ जानती ही नहीं। आप किस तरह की प्रिविलेज की बात कर रही हैं?’
उसे कुछ चिढ़ -सी आने लगी। हम अपने साथ दो बैग लेकर चल सकते हैं, जबकि आपको एक बैग की ही परमीशन है। हम फ्लाइट में कम भीड़ वाली लाइन और आगे के दरवाजे से एंट्री कर सकते हैं। हमारी सीट्स आगे और बड़ी होती हैं और हमें शानदार फ़ूड सर्व किया जाता है। हम अपनी सीटों को बहुत पीछे झुकाकर लेट भी सकते हैं। हमारे सामने एक टीवी स्क्रीन होती है और थोड़े से बिजनेस क्लास वालों के लिए चार वॉशरूम्स होते हैं।
उसकी मित्र ने जोड़ते हुए कहा, ‘हमारे लगेज के लिए प्रॉयोरिटी चैक-इन फैसिलिटी मिलती है और वे फ्लाइट लैंड होने पर सबसे पहले बाहर निकाले जाते हैं। हमें सेम फ्लाइट से ट्रेवल करते रहने पर ज्यादा पॉइंट भी मिलते हैं।
अब जबकि आपको ईकोनॉमी क्लास और बिजनेस क्लास का अंतर पता चल गया है, तो आप वहाँ जाकर अपनी लाइन में लगिएउसने बहुत आग्रहपूर्वक कहा।
लेकिन मुझे वहाँ नहीं जाना।मैं वहाँ से हिलने को तैयार नहीं थी।
वह महिला अपनी मित्र की ओर मुड़ी। इन कैटल-क्लास (cattle class) लोगों के साथ बात करना बहुत मुश्किल है। अब कोई स्टाफ़ वाला ही आकर इन्हें इनकी जगह बताएगा। इन्हें हमारी बातें समझ में नहीं आ रहीं।
मैं नाराज़ नहीं थी। कैटल-क्लास शब्द से जुड़ी अतीत की एक घटना मुझे याद आ गई।
एक दिन मैं बैंगलोर में एक हाइ-सोसायटी डिनर पार्टी में गई थी। बहुत से लोकल सेलेब्रिटी और सोशलाइट्स भी वहाँ मौजूद थे। मैं किसी गेस्ट से कन्नड़ में बातें कर रही थी तभी एक आदमी हमारे पास आया और बहुत धीरे से अंग्रेजी में बोला, ‘May I introduce myself ? I am… ’
यह साफ दिख रहा था कि उसे यह लग रहा था कि मुझे धाराप्रवाह अंग्रेजी समझने में दिक्कत होगी।
मैंने मुस्कुराते हुए अंग्रेजी में कहा, ‘आप मुझसे अंग्रेजी में बात कर सकते हैं।
ओह,’ उसने थोड़ी हैरत से कहा, ‘माफ़ कीजिए। मुझे लगा कि आपको अंग्रेजी में बात करने में असुविधा होगी; क्योंकि मैंने आपको कन्नड़ में बातें करते सुना।
अपनी मातृभाषा में बात करने में शर्म कैसी? यह तो मेरा अधिकार और प्रिविलेज है। मैं अंग्रेजी में तभी बात करती हूँ जब किसी को कन्नड़ समझ नहीं आती हो।
एयरपोर्ट पर मेरी लाइन आगे बढ़ने लगी और मैं अपने स्मृतिलोक से बाहर आ गई। मेरे सामनेवाली वे दोनों महिलाएँ आपस में मंद स्वर में बातें कर रही थीं, ‘अब वे इसे दूसरी लाइन में भेज देंगे। कुछ लोग समझने को तैयार ही नहीं होते। हमने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश करके देख ली।
जब अटेंडेंट को मेरा बोर्डिंग पास दिखाने का वक्त आया, तो मैंने देखा कि वे दोनों महिलाएँ रुककर यह देख रही थीं कि मेरे साथ क्या होगा। अटेंडेंट ने मेरा बोर्डिंग पास लिया और प्रफुल्लित होते हुए कहा, ‘आपका स्वागत है, मैडम! हम पिछले हफ्ते भी मिले थे न?’
हाँ,’ मैंने कहा।
अटेंडेंट मुस्कुराई और दूसरे यात्री को अटेंड करने लगी।
मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं करने का विचार करके उन दोनों महिलाओं के करीब से गुजरते हुए आगे बढ़ गई थी;  लेकिन मेरा मन बदल गया और मैं पीछे पलटी।
प्लीज़ मुझे बताइए –  आपको यह क्यों लगा कि मैं बिजनेस क्लास का टिकट अफ़ोर्ड नहीं कर सकती? यदि वाकई ऐसा ही होता, तो भी आपका यह अधिकार नहीं बनता कि आप मुझे यह बताएँ कि मेरा स्थान कहाँ होना चाहिए? क्या मैंने आपसे कुछ पूछा था?’
वे दोनों स्तब्ध होकर मुझे देखती रहीं।
आपने मुझे कैटल-क्लास का व्यक्ति कहा। क्लास इससे नहीं बनती कि आपके पास कितनी संपत्ति है,’ मैंने कहा। मेरे भीतर इतना कुछ चल रहा था कि मैं खुद को कुछ कहने से रोक नहीं पा रही थी।
इस दुनिया में पैसा बहुत से गलत तरीकों से कमाया जा सकता है। हो सकता है कि आपके पास बहुत सी सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिए पर्याप्त पैसा हो; लेकिन आपका पैसा आपको यह हक नहीं देता कि आप दूसरों की हैसियत या उनकी क्रयशक्ति का निर्णय करती फिरें। मदर टेरेसा बहुत क्लासी महिला थीं। भारतीय मूल की गणितज्ञ मंजुल भार्गव भी बहुत क्लासी महिला हैं। यह विचार बहुत ही बेबुनियाद है कि बहुत -सा पैसा आपको किसी क्लास तक पहुँचा सकता है।
मैं किसी उत्तर का इंतज़ार किए बिना आगे बढ़ गई। (हिन्दी ज़ेन से)