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Jul 10, 2020

छड़ी

छड़ी         
-डॉ.आरती स्मित
डूबती आँखों में तैरती है
छड़ी
उसी ने तो थामा था तुम्हें
जब-जब तुम लडख़ड़ाए थे
और मैं
पाँच छड़ियों का गुमाँ करती रही।
कितना समझाया था तुमने
कि
अपना लूँ उसे
सौंप दूँ काँपते तन का भार
कि
बड़ी वफ़ादार होती है छड़ी
... ...
नहीं मानी मैंने बात तुम्हारी
नहीं समझा तुम्हारा इशारा
कि
छड़ी के बहाने
तुम सौंपना चाहते थे
स्पर्श का एहसास
देना चाहते थे
साथ का भरोसा
अपनी ग़ैर मौजूदगी में

मैं कमअक्ल
तुम्हारे कहे को
अनसुना करती रही
तुम्हारी मौजूदगी के
आखिऱी लम्हे तक
... ... ...
आज
न तुम साथ हो
न ही छड़ी में बसा
तुम्हारे स्पर्श का एहसास
न ही वे
जिन्हें बुढापे की छड़ी समझ
इतराती रही थी अब तक...

dr.artismit@gmail.com

9 comments:

डॉ भावना शुक्ल said...

मार्मिक

Sudershan Ratnakar said...

मर्मस्पर्शी,भावपूर्ण कविता।बधाई आरती जी ।

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बहुत भावुक कविता।

एक आदिवासी said...

बहुत दिलकश बहुत प्यारी दीदी

Unknown said...

बहुत सुंदर कविता। मैम

मनोज अबोध said...

वाह वाह बेहतरीन कविता

प्रीति अग्रवाल said...

मर्मस्पर्शी सुंदर कविता, आपको बधाई आरती जी!

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Harish Naval said...

मैं हरीश नवल कहना चाहता हूँ कि छड़ी घड़ी ऊँगली और पग पग पर आशीर्वाद ये याद आते हैं बार बार ....भावपूर्ण उत्कृष्ट कविता