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Jul 10, 2020

पेट का कछुआ

पेट का कछुआ
- युगल
गरीब बन्ने का बारह साल का लड़का पेट दर्द से परेशान था और शरीर से बहुत कमज़ोर होता गया था। टोनाटोटका और घरेलू इलाज के बावजूद हालत बिगड़ती ग थी। दर्द उठता, तो लड़का चीखता और माँबाप की आँखों में आँसू आ जाते। एक रात जब लड़का ज्यादा बदहवास हुआ, तो माँ ने बन्ने को बच्चे का पेट दिखलाया। बन्ने ने देखा, छोटे कछुए के आकारसा कुछ पेट के अन्दर से थोड़ा उठा हुआ है और हिल रहा है। गाँव के डाक्टर ने भी हैरत से देखा और सलाह दी कि लड़के को शहर के अस्पताल में ले जाओ।
बन्ने पत्नी के जेवर बेच लड़के को शहर ले आया। अस्पताल के सर्जन का भी अचरज हुआपेट में कछुआ। सर्जन ने जब पेट को ऊपर से दबाया तो कछुएजैसी वह चीज इर होने लगी और लड़के के पेट का दर्द बर्दाश्त के बाहर हो गया। सर्जन ने बतलाया– ‘‘लड़के को बचाना है, तो प्राइवेट से आपरेशन के लिए दो हजार रुपये का इन्तज़ाम करो।’’
दो हजार! बन्ने की आँखें चौंधिया गईं । दो क्षण साँस ऊपर ही अटकी रह ग। न! लड़के को वह कभी नहीं बचा सकेगा। उसके जिस्म की ताकत चुकती लगी। वह बेटे को लेकर अस्पताल के बाहर आ गया और सड़क के किनारे बैठ गया।
लड़के को कराहता देखकर किसी ने सहानुभूति से पूछा– ‘‘क्या हुआ है?’’
बन्ने बोला – ‘‘ पेट  में कछुआ है साहब’’
‘‘पेट में कछुआ?’’ मुसाफिर को अचरज हुआ।
‘‘हाँ साहब! कई महीनों से है। और बन्ने ने लड़के का पेट दिखलाया। पेट पर उँगलियों का टहोका दिया, तो वह कछुएजैसी चीज ज़रा हिली। बन्ने का गला भर आया – ‘‘आपरेशन होगा साहब। डॉक्टर दो हजार माँगता है। मैं आदमी....’’ और वह रो पड़ा।
तब कई लोग वहाँ खड़े हो ग थे। उस मुसाफिर ने दो रुपये का नोट निकाला और कहा– ‘‘चन्दा इकट्ठा कर लो और लड़के का आपरेशन करा लो।’’
फिर कई लोगों ने एकएक दोदो रुपये और दिये। जो सुनता, टिक जातापेट में कछुआ? ..... हाँ जी चलता है.... चलाओ तो!
बन्ने लड़के के पेट पर उँगलियों से ठोकर देता। कछुआ हिलता। लड़के के पेट का दर्द आँखों में उभर आता। लोग एक, एक दो या पाँच के नोट उसकी ओर फेंकते–‘‘ऑपरेशन करा लो भाई। शायद लड़का बच जाए!’’
साँझ तक बन्ने के अधकुर्ते की जेब में नोट और आँखों में  आशा की चमक भर गई थी।
अगले दिन बन्ने उस बड़े शहर के दूसरे छोर पर चला गया। वह लड़के के पेट पर टकोरा मारता। पेट के अन्दर का कछुआ ज़रा हिलता। लोग प्रकृति के इस मखौल पर चमत्कृत होते और रुपये देते। बन्ने दस दिनों तक उस शहर के इस नुक्कड़ से उस नुक्कड़ पर पेट के कछुए का तमाशा दिखलाता रहा और लोग रुपये देते रहे। बीच में  लड़के की माँ बेटे को देखने आती। बन्ने उसे रुपये थमा देता।
लड़के ने पूछा –‘‘ बाबू आपरेसन कब होगा?’’
बन्ने बोला –‘‘ हम लोग दूसरे शहर में जाकर रुपये इकट्ठे करेंगे।’’ फिर कुछ सोचता हुआ बोला – ‘‘मुन्ने, तेरा क्या ख्याल है कि पेट चीरा जाकर भी तू बच जाएगा? डाक्टर भगवान तो नहीं। थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाशत करता चल। यों जिन्दा तो है। मरने में कित्ती देर लगती है? असल तो जीना है।’’
लड़का कराहने लगा। उसके पेट का कछुआ चलने लगा था।

2 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

सशक्त प्रतीकात्मक लघुकथा।बधाई युगल जी

Sudershan Ratnakar said...

सुंदर मर्मस्पर्शी लघुकथा ।बधाई