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Feb 12, 2020

उदंती.com, फरवरी 2020

उदंती.com
 वर्ष-12, अंक- 7, फरवरी 2020 


विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।    - रवींद्रनाथ ठाकुर

पक्षी विशेष

परहित सरिस धरम नहिं भाई।

परहित सरिस धरम नहिं भाई
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।
 - डॉ. रत्ना वर्मा
हमारी धरती बहुत खूबसूरत है। इस मौसम में तो प्रकृति अपने पूरे शबाब पर होती है। चारो तरफ बिखरी हरियाली, रंग-बिरंगे असंख्य फूल, तितलियाँ, भौरों का गुंजन, पंछियों का चहकना, ये सब मिलकर धरती को और निखार देती है। आप सुंदरता देखेंगे तो चारो ओर आपको सुंदरता ही नजऱ आएगी, अच्छाई देखेंगे, तो आपके आस-पास अच्छे और भले लोग नजर आएँगे। ...तो बात नज़रिये की है। दुनिया में एक ओर जहाँ अच्छाई है, भलाई है; तो दूसरी ओर बुराई भी भरी पड़ी है। परंतु गुणिजन कहते हैं- दुनिया कायम है इसका मतलब अच्छे लोग मौज़ूद हैं।  
धामिर्क आस्था वाले देश में आज देश में बहुत बड़े- बड़े भव्य मंदिर स्थापित हो गए हैं, जहाँ भक्तगण अपनी इच्छा से भरपूर दान देते हैं। जब तब समाचार भी मिलते रहते हैं कि अमुख मंदिर में इतने किलो सोना चढ़ावे में दिया गया या हीरे- मोती जड़ित करोड़ों रुपये के हार या मुकुट भगवान को चढ़ाया गया आदि आदि... इनके ट्रस्टी दान में मिले अरबों खरबों रुपयों के अलावा चढ़ावे में चढ़े सोना- चाँदी, हीरे मोती का कैसे हिसाब रखते हैं , यह सब धन कहाँ खर्च होता है ? जैसे अनेकों प्रश्न उठते रहे हैं और कई मामले समय- समय पर उजागर भी होते रहे हैं ; पर यह बहस का अलग ही मुद्दा है ।
 इस बार जो एक अच्छी बात, एक अच्छे परोपकारी काम के बारे में आप सबसे साझा करना है वह है-  पूणे का दगड़ू सेठ हलवाई गणपति मंदिर इस मंदिर की खास बात है कि यहाँ चढ़ने वाले चढ़ावे से कोई भंड़ारा या महाप्रसाद नहीं खिलाया जाता; बल्कि पूणे के ही एक सरकारी अस्पताल में प्रति दिन 1200 मरीजों को चाय, नाश्ता और खाना खिलाया जाता है। इतना ही नहीं उसी अस्पताल के गर्भवती महिला वार्ड का नवीनीकरण करवाने के साथ 70 शिशुओं की क्षमता वाला आईसीयू भी बनवाया है। इन सबके साथ- साथ मंदिर कई अन्य सामाजिक कार्यों से भी जुड़ा हुआ है। इन सबको मिलाकर मंदिर प्रति वर्ष लगभग 15 करोड़ रुपये के सामाजिक कार्य करता है।  इस मंदिर को दगड़ू सेठ हलवाई ने लगभग सवा सौ साल पहले बनवाया था। संभवतः देश में यह पहला एक ऐसा मंदिर है, जिसे इसके बनवाने वाले के नाम से जाना जाता है।
बिना लाभ- हानि के जनहित में,  सेवा के इस प्रकार के कई कार्य देश के अनेक व्यक्ति और अनेक संस्थाएँ करती हैं। जिनके बारे में कभी- कभी मीडिया खबरें दे देती हैं , कई लोगों को सरकार भी सम्मानित कर देती है। जैसे इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार पाने वालों में एक नाम है ओडिसा के डी प्रकाश राव का। झुग्गी बस्ती में चाय बेचकर गुजारा करने वाले प्रकाश राव को यह सम्मान शिक्षा के क्षेत्र सेवा करने के कारण मिला है। राव पिछले कई सालों से कटक शहर में झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चों के लिए एक स्कूल चला रहे हैं। राव का बचपन काफी गरीबी में गुजरा है। पढ़ाई में अच्छे होने के बावजूद गरीबी की वजह से उन्हें 5 साल की उम्र में स्कूल छोड़ना पड़ा था। बड़े होने के बाद उन्हें लगा कि जिस तरह गरीबी की वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़ना पड़ी ,ऐसा किसी और बच्चे के साथ ना हो, यही कारण है कि राव को  चाय बेचकर जो भी कमाई होती है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा वे गरीब बच्चों की पढ़ाई में लगा देते हैं। सन् 2000 में उन्होंने गरीब बच्चो के  लिए स्कूल बनवाया। शुरू में स्कूल का सारा खर्च वे स्वयं ही उठाते थे फिर बाद में जैसे जैसे लोगों को उनके नेक काम के बारे में पता चलता गया लोग उनके साथ जुड़ते चले गए।
देश और दुनिया में ऐसे अनगिनत लोग हैं जो अपने- अपने क्षेत्र में देश की भलाई का काम बिना किसी उम्मीद के बस करते चले जा रहे हैं। उन सबको तहेदिल से सलाम।
देश की समस्याओं का रोना तो हम हमेशा रोते हैं जीवन में हम सब अनगिनत परेशानियों से भी जब- तब रूबरू भी होते रहते हैं ; परंतु जीवन तब भी चलते रहता है। इन सबसे जूझते हुए, लड़ते हुए हम आगे बढ़ने का रास्ता तलाशते रहते हैं । आगे बढ़ने के लिए  सकारात्मक ऊर्जा मिलती रहे इसके लिए ज़रूरत है, ऐसे काम करने वालों के कामों की सराहना करने की,  इस तरह के कामों को बढ़ावा देने की है; ताकि अच्छे -अच्छे काम होते रहें और हम अपनी धरती की खूबसूरती का, यहाँ के लोगों के परोपकार का गुणगान दुनिया भर में गर्व से कर सकें।
नकारात्मक सोच भीड़ को भेड़चाल की तरफ़ मोड़ता है, जिससे समाज का अहित ही होता है। यदि हम टी वी पर होने वाली परिचर्चाओं को ध्यान से सुनें, तो लोग दिनभर चीख-चीखकर फेफड़े कमज़ोर करते रहते हैं । उससे किसी का रत्तीभर भी भला नहीं होता। ठीक इसके विपरीत परोपकार का कार्य करने वाले ,  बातों के वितण्डे में न पड़कर, सामाजिक हित के कार्य चुपचाप करते रहते हैं। इस धरती को सुखमय बनाने का यही एकमात्र उपाय है। तुलसीदास जी ने भी कहा है-
‘परहित सरिस धरम नहिं भाईपरपीड़ा सम नहिं अधमाई’।। 

आँगन का पंछी

आँगन का पंछी 
- विद्यानिवास मिश्र
गाँवों में कहा जाता है- जिस घर में गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती, वह घर निर्वंश से हो जाता है। एक तरह से घर के आँगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुनकर मुंडेरी पर बैठना, हर साँझ, हर सुबह, हर कहीं तिनके बिखेरना और घूम-फिरकर फिर रात में घर ही में बस जाना अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्थ के लिए बच्चों की किलकारी, मीठी शरारत और निर्भय उच्छलता का प्रतीक है। फूल तो बहुत- से होते हैं, एक से-एक चटकीले, एक से-एक खुशबूवाले, एक से-एक कँटीले, पर बेला, गुलाब, जूही, चमेली, कुमुद, कमल बहुत कम आँगनों में मिलते हैं और अकिंचन से अकिंचन आँगन में भी तुलसी की वेदी जरूर मिलती है और उस वेदी पर, तुलसी की मंजरी जरूर खिलती है। जिस तरह गौरैये में कोई रूप- रंग की विशेषता नहीं, कंठ में कोई विशेष प्रकार की विह्वलता नहीं, उड़ान भरने की भी कोई विशेष क्षमता नहीं, महज आँगन में फुदकने का उछाह है; उसी प्रकार तुलसी के पौधे में न तो सघन छाँह की शीतलता है,न गंध का जादू, न रूप का शृंगार, केवल आँगन का दुख-दर्द बाँटने में मन में बड़ी उत्कंठा है। तुलसी की पूजा के लिए तो खैर शास्त्रीय आधार है, पर गौरैया के लिए मात्र जनविश्वास का यह उपहार-भर है कि वह पक्षियों में ब्राह्मण है, इसीलिए इतनी ढीठ, इतनी निर्भय, इतनी आत्मीय और इतनी मंगलास्पद है। जो लोग चिड़ियों का शिकार करते भी हैं, वे गौरैया नहीं मारते। गौरैया मारना पाप समझते हैं। मैंने अपनी ससुराल के बड़े आँगन में देखा है कि वहाँ गौरैयों के लिए धानों की मोजर आँगन के चारों ओर ओरियों के नीचे बराबर लटकाई  रहती हैं और धान की मंजरियों की यह पंक्ति रीतती नहीं। शायद इसलिए कि गौरैयों को भी इनके प्रति मोह हो। बहरहाल उस बड़े आँगन में बराबर धान सुखाया जाता है और उस पर बराबर गौरैयों के दल के दल आते रहते हैं, जरा-सी देर में जरा से इशारे से यह दल तितर-बितर हो जाते हैं। पर जरा-सी आँख ओझल होते ही फिर वही जम जाते हैं। घर में रहते हुए भी ये स्वच्छंद रहते हैं। वह आँगन बड़ा तो है; पर भरा नहीं है। साल में केवल कभी-कभी वह आँगन मेहमान की तरह आए हुए बच्चों से भरता है, पर आँगन उनसे भरने वाला है या उनसे भर चुका है, मानो इसी आशा और इसी स्मृति में गौरैयों को ऐसा प्यार दिया जाता है।
एक दिन मैं वहीं था, जबकि किसी अखबार में पढ़ा कि चीन में एक नया पुरुषार्थ जागा है। वहाँ की उत्साही सरकार ने गौरैयों को खेती का शत्रु मानकर उनके खिलाफ सामूहिक अभियान शुरू किया है। खैर चीन में अभियान हो और वह सामूहिक ना हो; तो यह अनहोनी बात होगी, पर जब यह पढ़ा कि कुछ लाखों की तादाद में वहाँ के तरुण सैनिक बंदूक लेकर गौरैयों के शिकार के लिए निकल पड़े हैं, तो हँसी भी आई और रोना भी पड़ा। हँसी इसलिए कि गौरैयों पर वीरता का अपव्यय हो रहा है और रोना इसलिए कि जिस तरीके से और जिस पैमाने पर गौरैयों के वध की योजना बनाई गई है, वह कितना अमानवीय है। उसी अखबार में पढ़ा कि  बंदूक दाग-दाग कर झुंड के-झुंड इन गौरैयों को खदेड़ते हैं और खदेड़ते ही रहते हैं ,ताकि यह कहीं बैठने को ठौर ना पा सके और अंत में बेदम होकर जमीन पर आ गिरें। ऐसे मासूम और मनुष्य के प्रति सहज विश्वास रखने वाले पक्षी को इस प्रकार निर्मूल करने की योजना सचमुच उन्माद में प्रेरित नहीं है तो क्या है? मैंने भी बुद्धिवादी कविताएँ पढ़ी हैं, जिनमें ताजमहल के निर्माण पर शोक प्रकट किया गया है। जबकि मनुष्य का शव कन के लिए भी तरस रहा है; जहाँ  चींटियों के लिए आटा छीटने और मछलियों के लिए आटे की गोली फेंकने पर व्यंग्य कसा गया है, जबकि मनुष्य भूखों मर रहे हैं; जहाँ कि गुलाब की क्यारियों पर तरस खाया गया है, क्योंकि गेहूँ की देश में कमी है और जहाँ कि कला की उपासना को ऐश समझा गया है, जबकि मनुष्य अभाव से ग्रस्त है। मैंने इन अभियान की सफाई के लिए उन कविताओं को एक-एक करके याद किया, पर मुझे लगा कि यह तो अभाव की पूर्ति की योजना नहीं है, यह तो पूँजीवाद को समाप्त करने का भी आयोजन नहीं है, और यह मनुष्य कि सत्ता सृष्टि में सर्वोपरि मानने का कोई नया तरीका भी नहीं हो सकता है। गौरैया दाना चुगती है; पर शायद जिस मात्रा में दाना चुगती है, उससे कहीं अधिक लाभ व खेत का इस प्रकार करती है कि अनाज में लगने वाले कीड़ों को साफ करती रहती है। थोड़ी देर के लिए माना कि वह दाना देती नहीं;  केवल लेती भर है, तो भी क्या इस प्रकार समूची सृष्टि की समरसता के साथ खिलवाड़ करना उचित है? मनुष्य को इस प्रकार लाभ की आशा से नहीं मात्र अपनी प्रति हिंसा की भावना से निरीह और अपने ही साथ अपने बच्चों की तरह निर्भय विचरने वालों को इस प्रकार थका-थका के सता-सता के मारना कहीं न्याय है? यह कौन-सा पंचशील का उदाहरण है। शायद जितना अनाज गौरैयों ने खाया ना होगा , उससे कहीं अधिक दाम की गोलियाँ  उन्हें सताने में बर्बाद हो गई होंगी। माना कि मनुष्य को अपने ही समान बुद्धि बल वाले दूसरे देशवासी मनुष्य के साथ प्रति हिंसा करने का सहज अधिकार थोड़ी देर के लिए हो भी और वह अपने निर्माण से अधिक अपने तुल्यबल भाई के विध्वंस पर खर्च करने के लिए पागल हो जाएँ, तो अनुचित नहीं; परंतु मनुष्य जिस उत्फुल्लता के लिए, जिस मुक्ति के लिए जिस राहत के लिए इस गला-काट व्यापार में लगा हुआ है, उसी उत्फुल्लता, मुक्ति और राहत के इन जीते-जागते प्रतिबिम्बों को इस प्रकार नष्ट करने पर उतारू हो जाए, यह किस प्रकार समझ में आए?
हमारे देश में भी ऐसे सयाने लोग हैं, जो अपने नाच की अयोग्यता आँगन के टेढ़ेपन के ऊपर थोपने के लिए ऐसे-ऐसे सुझाव देते हैं कि अन्न इसलिए कम पैदा हो रहा है कि चिड़िया उन्हें खा जाती हैं। बंदर उन्हें तहस-नहस कर जाते हैं। चूहे उन्हें कुतर जाते हैं और धूप उन्हें सुखा जाती है। इसलिए पहले इनके ऊपर नियंत्रण होना चाहिए; ताकि खेती अपने-आप बिना मनुष्य के परिश्रम के अधिक उपजाऊ हो जाए। पर चीन के सयाने तो इस मात्र नियंत्रण तक संतुष्ट नहीं हैं। वे निर्मूलन में विश्वास करते हैं। सृष्टि के संतुलन बनें-बिगड़े, यहाँ तक कि मनुष्य जिसलिए यह कर रहा है, वह भी उसे मिले ना मिले, पहले वह अपने दिल का गुबार तो उतार ले, और चीन प्रज्ञा पारमिता का देश है। बुद्ध की मैत्री का देश है, नए युग में मनुष्य के उद्धार का दावा करने वाला देश है और है सह-अस्तित्व, परस्पर सहयोग और प्रेम की कसम खाने वाला देश! लगता यह है कि चीन में जैसे कोई घर में रह गया हो, कोई आँगन न रह गया हो, किसी घर और किसी आँगन के लिए कोई मोहब्बत न रह गई हो, किसी घर और किसी आँगन में मुक्त हँसी न रह गई हो, उसमें बच्चे न रह गए हों और अगर रह भी गए हों, तो किसी बच्चे के चेहरे पर विश्वास की चमक न रह गई हो। तभी तो इन गौरैयों के साथ नादिरशाह बदला लिया जा रहा है। उनका अपराध केवल यही है कि वे निशंक हैं और निःशंक होकर वे हर घर में आनंद के दाने बिखेर जाती हैं, जितने दाने लेती हैं, उन्हें चौगुना करके आँगन में परिवर्तित कर हर आँगन में मुक्त-हस्त हो कर लुटा जाती हैं। उनका अपराध है कि गमगीन नहीं है; उनका अपराध है कि वे कबूतर की तरह दूर तक गले में पाती बाँधकर पहुँचा नहीं सकती; उनका अपराध है कि तोते की तरह हर एक स्तुति और हर एक गाली दुहरा नहीं सकती; उनका अपराध है कि वे अपने पंखों में सुर्खी नहीं लगा सकती, उनका अपराध है कि उनके पास वह लाल कगी नहीं है, जिसको सिर में लगाकर कूड़े की ढेरी पर खड़े होकर रात के धुँधलके में बाँग दे सकें कि अरुणोदय होने वाला है; उनका अपराध है कि वह सुबह के साथी नहीं है; दोपहर की साथी हैं, वे गगन की पक्षी नहीं, आँगन की पंछी हैं।
 मुझे लगता है कि गौरैयों के खिलाफ यह अभियान जिन राहगीरों ने चलाया है, उनको अपने राह की मंजिल नहीं मालूम। वे बिल्कुल नहीं जानते कि आखिर इस राह का अंत कहाँ है। आज यह गौरैया है, कल घर की बिल्ली हो सकती है। परसों घर का दूसरा पशु हो सकता है और फिर चौथे दिन घर के प्राणी भी हो सकते हैं। यह आक्रोश असीम है, उसका अंत नहीं है। संतोष की बात इतनी ही है कि भारत में ऊपर चाहे जो हो, भीतर एक दूसरी ही शक्ति का प्रवाह है, जो मनुष्य को सृष्टि से ऊँचा बनाने पर बल नहीं देती बल्कि मनुष्य को सृष्टि के साथ एकरस बनाने में ही उसका गौरव मानती है। गौरैया के प्रति हमारी प्रीति हमारे निजी स्वार्थ से प्रेरित है। हम उस गौरैया की उच्छलता अपनी संतान में पाना चाहते हैं। उस गौरैया का सहज विश्वास अपनी आने वाली पीढ़ी को देना चाहते हैं, जो हमसे ढिठाई के साथ हमारी विरासत छीन कर हँसते-हँसते और हँसाते-हँसाते हमसे आगे बढ़ जाएगी। हम तुलसी का पौधा इसलिए नहीं लगाते कि तुलसी को वन में कहीं जगह नहीं है और सबसे पहले दिया तुलसी की वेदी पर इसलिए नहीं जलाते कि उस दिए की लौ के बिना तुलसी को अपने जीवन में कोई गर्मी नहीं मिलेगी; बल्कि हम तुलसी की खेती अपने दर्द के निवेदन के लिए रचाते हैं। और तुलसी को दीप अपने सर्द दिल को गरमी पहुँचाने के लिए जलाते हैं। हम जिस पारिवारिक जीवन के अभ्यस्त हैं उसमें राग-रंग और तड़क-भड़क के लिए कोई स्थान नहीं है। केवल एक -दूसरे से मिल-जुलकर एक- दूसरे के प्रति बिना किसी अभिमान की तीव्रता के सहज भाव से समर्पित होने ही में हम जीवन की अखंडता मानते हैं। हमारा सांस्कृतिक जीवन भी इस पारिवारिक प्रेम से आप्लावित है, देवी-देवताओं की कल्पना, कुल-पर्वतों, कुल-नदियों की कल्पना, तीर्थ-धाम की कल्पना और आचार्यों-मठों की कल्पना पारिवारिक विस्तार के ही विविध रूपांतर हैं। यही नहीं पारिवारिक साहचर्य भाव ही हमारे साहित्य की सबसे बड़ी थाती है। यह कुटुंब-भाव ही हमें चर-अचर, चेतन-जगत् के साथ कर्तव्य-शील बनाता है। हम इसी से देश-काल की सीमाओं की तनिक भी परवाह न करके, अरबों प्रकाश वर्ष दूर नक्षत्रों से और युगों दूर उज्ज्वल चरित्रों से उसी प्रकार अपनापा जोड़ते हैं, जिस प्रकार अपने घर के किसी व्यक्ति से। ग्रहों की गति से अपने जीवन को परखने का विश्वास कोई अर्थ-शून्य और अंधविश्वास नहीं है, वह कुटुंब-भावना का ही हमारे विराटदर्शी भाव-जगत पर प्रतिक्षेप है। जैसे परिवार में छोटे से-छोटा और बड़े से-बड़ा एक सा ही समझा जाता है, वैसे ही सृष्टि में हम अणोरणीयान्और महतो महीयान को एक-सी नजर से देखने के आदी हैं।
 गौरैया मेरे लिए छोटी नहीं है, बहुत बड़ी है, वैसे ही जैसे मेरी दो साल की मिनी छोटी होती हुई भी मेरे लिए बहुत बड़ी है। ‘बालसखा’ के संपादक मित्रवर सोहनलाल द्विवेदी ने एक बार मुझसे बालोपयोगी रचना माँगी। मैंने उन्हें मिनी का फोटोग्राफ भेज दिया और लिखा कि इससे बड़ी रचना मैं आज तक नहीं कर पाया हूँ। मिनी बड़ी है, मेरे अर्जित परिष्कार से, मेरे अर्जित विद्या से और मेरे अर्जित कीर्ति से, क्योंकि उसकी मुक्त हँसी में जो मोगरे बिखर जाते हैं, उनकी सूरभि से बड़ी कोई परिस्कृति, सिद्ध या कीर्ति क्या होगी? वही मिनी जब गौरैयों को देख कर नाचती है, उन्हें बुलाती है, उनके पास आते ही खुशी से ताली बजाती है, उन्हें धमकाती है, फिर मनाती है, तब मुझे लगता है कि सृष्टि के दो चरम आनंदमयी अभिव्यक्तियाँ ओत-प्रोत हो गई हैं। गीता की ब्राह्मी स्थितियाँ एकाकार हो गई  हैं और मुक्ति की दो धाराएँ मिल गई  हैं। इसीलिए गौरैयों के विरुद्ध अभियान मुझे लगता है- मेरी और न जाने कितनों की मिनियों के विरुद्ध अभियान है। गौरैये और मिनियाँ राजनीति से कोई सरोकार नहीं रखतीं, सो मैं राजनीति की सतह पर इनके बारे में नहीं सोचता। परन्तु मनुष्य की राजनीति का जो चरम ध्येय है उसको जरूर सामने रखना पड़ता है और तब मुझे बहुत आक्रोश होता है कि भले आदमी मनुष्य बनने चले हो तो पहले मनुष्य के विश्वास की रक्षा तो करो। बंधुता बाँधने चले हो पर ममताओं के बाँध तो बने रहने दो। मुक्ति पर्व मनाओ बड़ा अच्छा है, पर मुक्ति कि जीती-जागती तस्वीरें क्यों फाड़ते हो। इनका आर्थिक और नैतिक अभ्युदय चाहते हो, ठीक है, पर उसके सहज आनंद का क्षण क्यों छीनते हो? अपनी चित्रकला में बांस के झुरमुट बनाकर उस पर चिड़ियों को बिठलाने वाले चितेरे, उन चिड़ियों को उनके बसेरों से क्यों उजाड़ते हो? चिड़ियों से चहचहाती लोक-कथाओं के रंग-बिरंगे अनुवाद छपवाते हो, छपवा, पर उन चिड़ियों की चहचहा हमेशा के लिए क्यों खत्म किए दे रहे हो? तुम अपने घर आने वाली खुशी के लिए फरमान निकाल कर गमी मनाओ, पर तुम मेरे घर की खुशी, मेरी मिनी और उसकी सहेली गौरैयों की खुशी पर गमी की गैस क्यों छिड़क रहे हो?
 मन में यह आक्रोश आता है पर फिर सोचता हूँ यह आक्रोश प्रतिगामिता है। मुझे धरती और धरती की परम्परा की बात-भर करनी चाहिए, धरती के आनंद के उत्तराधिकारीयों की बात करने पर आनंदवादी कहा जाता हूँ। मेरे एक मार्क्सवादी मित्र ने मुझे यही संज्ञा दे रखी है। पर क्या करूँ, गँवार आदमी हूँ, क्या कहने से क्या समझा जाएगा, यह जानता ही नहीं, केवल जब कहे बिना रहा नहीं जाता, तभी कहता हूँ। गौरैयों ने विवश किया, तुलसी ने विवश किया, मिनी ने विवश किया, तब मुझे कहना पड़ा। इन तीनों में मुझे सीता की सुधि आती है। इन तीनों में मुझे धरती का दुलार छलकता नर आता है। इसलिए मुझे उस दुलार के नाम पर यह गुहार लगानी पड़ती है कि धरतीवासियों, धरती वही नहीं है, जो तुम्हारे पैरों के नीचे है। धरती तुम्हें अपने और असंख्य शिशुओं के साथ अपनी गोद में भरने वाली व्यापक सत्ता है। धरती की विरासत सँभालना आसान नहीं, उस विरासत के असंख्य साझीदारों को मिला बिना तुम घर के कर्ता नहीं बन सकते। यह गौरैया, यह तुलसी, यह मेरी- और यह मेरी ही नहीं, तुम्हारी भी- मिनी तो उस विरासत की असली मालिक हैं, यही है कि वे बिना माँगे अपनी मिल्कियत लुटा देती हैं। उनके प्रति कृतज्ञ बनों, अपने आप तुम्हारी बढ़ती होगी। क्योंकि-
अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घ्य सतां मार्गं यत्स्वल्पमपि तद् बहु।।”

रक्षा में हत्या

प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य
(प्रेमचंद के जीवन-काल में उनकी अनेक कहानियों का अनुवाद जापानी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में तो हुआ ही, अनेक भारतीय भाषाओं में भी उनकी कहानियाँ अनूदित होकर प्रकाशित हुईं।
प्रेमचंद ने 1928 में नागपुर (महाराष्‍ट्र) के श्री आनंदराव जोशी को अपनी कहानियों का मराठी अनुवाद पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराने की अनुमति प्रदान की थी। प्रेमचंद के देहावसान के पश्‍चात'हंस' का मई 1937 का अंक 'प्रेमचंद स्‍मृति अंक' के रूप में बाबूराव विष्‍णुपराड़कर के संपादन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें आनंदराव जोशी का लेख 'प्रेमचंदजी की सर्वोत्‍तम कहानियाँ' (पृष्‍ठ927-929) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लेख में प्रस्‍तुत विवरण से स्‍पष्‍ट है कि अनुवाद हेतु कहानियों का चयन करने के लिए प्रेमचंद और आनंदराव जोशी के बीच लंबा पत्राचार हुआ था और प्रेमचंद ने अपने पत्रों में अपनी लोकप्रिय कहानियों के शीर्षक एवं स्रोत की स्‍पष्‍ट सूचना आनंदराव जोशी को उपलब्‍ध कराई थी। परिणाम स्‍वरूप आनंदराव जोशी ने प्रेमचंद की 14 कहानियों को मराठी में अनूदित करके जून 1929 में पूना के सुप्रसिद्ध चित्रशाला प्रेस से 'प्रेमचंदाच्‍या गोष्‍ठी, भाग-1' शीर्षक से प्रकाशित कराया था, जिसमें सम्मिलित कहानियाँ इस प्रकार हैं : 1. राजा हरदौल, 2. रानी सारंधा, 3. मंदिर और मस्जिद, 4. एक्‍ट्रेस, 5. अग्नि समाधि, 6. विनोद, 7. आत्‍माराम, 8. सुजान भगत, 9. बूढ़ी काकी, 10. दुर्गा का मंदिर, 11. शतरंज के खिलाड़ी, 12. पंच परमेश्‍वर, 13. बड़े घर की बेटी और 14. विध्‍वंस।
'हंस' के प्रेमचंद स्‍मृति अंक में प्रकाशित आनंदराव जोशी के उपर्युक्‍त संदर्भित लेख में उद्धृत प्रेमचंद के पत्रांशों से सुस्‍पष्‍ट है कि 'प्रेमचंदाच्‍या गोष्‍ठी, भाग-1' के प्रकाशनोपरांत आनंदराव जोशी इस संकलन के द्वितीय भाग के लिए प्रेमचंद की कतिपय अन्‍य कहानियों के मराठी अनुवाद करने की दिशा में सक्रिय हो गए थे। इसके लिए कहानियों का चयन करने के लिए प्रेमचंद से उनका पत्राचार होता रहा था। इसी क्रम में आनंदराव जोशी ने अपने 14 मई, 1930 के पत्र में प्रेमचंद को लिखा - 'I have already translated 'पश्‍चात्ताप' and 'पाप का अग्निकुंड' From 'नवनिधि'. I also wish to include two stories meant for children 'रक्षा में हत्‍या', and 'सच्‍चाई का उपहार'. The first one was already published in 'आलाप अंक', but it could not be included in part 1 for want of space.' (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्‍य, भाग 2, पृ.141)
उपर्युक्‍त उदाहरण से स्‍पष्‍ट है कि प्रेमचंद की एक कहानी 'रक्षा में हत्‍या' का मराठी अनुवाद कर आनंदरावजोशी ने 'प्रेमचंद गोष्‍ठी, भाग-1' के प्रकाशन से पूर्व अर्थात जून 1929 से पूर्व ही 'आलाप' अंक में प्रकाशित करा दिया था। इसका सीधा-सा अर्थ है कि 'रक्षा में हत्‍या' शीर्षक कहानी जून 1929 से पूर्व ही हिंदी में प्रकाशित हो चुकी थी, परंतु आश्‍चर्य का विषय है कि आनंदराव जोशी के प्रेमचंद के नाम लिखे उपर्युक्‍त संदर्भित पत्र को 'प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्‍य' में संकलित करते समय डॉ. कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद की इस कहानी को खोजने की दिशा में प्रवृत्त होने के स्‍थान पर कहानी पर मात्र निम्‍नांकित पाद टिप्‍पणी प्रकाशित कराकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री मान लेते हैं - 'इस नाम की कोई कहानी उपलब्‍ध नहीं है - डॉ. गोयनका' (प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य, भाग 2, पृ. 141)
वास्‍तविकता यह है कि हिंदी पुस्‍तक भंडार, लहेरिया सराय (बिहार) से श्री रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी के संपादन में प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र 'बालक' के माघ 1983 (जनवरी, 1927) के अंक में प्रेमचंद की यह कहानी पृष्‍ठ संख्‍या 2 से 8 तक प्रकाशित हुई थी। विगत 85 वर्षों से 'बालक' के पृष्‍ठों में अचीन्‍ही पड़ी, यह दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी 'रक्षा में हत्या' प्रेमचंद की दुर्लभ रचनाओं की खोज के प्रति विद्वानों एवं प्रेमचंद विशेषज्ञों की घोर अपेक्षा का ज्‍वलंत प्रमाण है। - प्रदीप जैन)

रक्षा में हत्या  

-मुंशी प्रेमचंद
केशव के घर में एक कार्निस के ऊपर एक पंडुक ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्‍यामा दोनों बड़े गौर से पंडुक को वहाँ आते-जाते देखा करते। प्रात:काल दोनों आँखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और पंडुक या पंडुकी या दोनों को वहाँ बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बालकों को न जाने क्‍या मजा मिलता था। दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के मन में भाँति-भाँति के प्रश्‍न उठते - अंडे कितने बड़े होंगे, किस रंग के होंगे, कितने होंगे, क्‍या खाते होंगे, उनमें से बच्‍चे कैसे निकल आवेंगे, बच्‍चों के पंख कैसे निकलेंगे, घोंसला कैसा है, पर इन प्रश्‍नों का उत्‍तर देनेवाला कोई न था। अम्मा को घर के काम-धंधों से फुरसत न थी - बाबूजी को पढ़ने-लिखने से। दोनों आपस ही में प्रश्‍नोत्‍तर करके अपने मन को संतुष्‍ट कर लिया करते थे।
श्‍यामा कहती - क्‍यों भैया, बच्‍चे निकल कर फुर्र से उड़ जाएँगे? केशव पंडिताई भरे अभिमान से कहता - नहीं री पगली, पहले पंख निकलेंगे। बिना परों के बिचारे कैसे उड़ेंगे।
श्‍यामा - बच्‍चों को क्‍या खिलाएगी बिचारी?
केशव इस जटिल प्रश्‍न का उत्‍तर कुछ न दे सकता।
इस भाँति तीन-चार दिन बीत गए। दोनों बालकों की जिज्ञासा दिन-दिन प्रबल होती जाती थी। अंडों को देखने के लिए वे अधीर हो उठते थे। उन्‍होंने अनुमान किया, अब अवश्‍य बच्‍चे निकल आए होंगे। बच्‍चों के चारे की समस्‍या अब उनके सामने आ खड़ी हुई। पंडुकी बिचारी इतना दाना कहाँ पावेगी कि सारे बच्‍चों का पेट भरे। गरीब बच्‍चे भूख के मारे चूँ-चूँ कर मर जाएँगे।
इस विपत्ति की कल्‍पना करके दोनों व्‍याकुल हो गए। दोनों ने निश्‍चय किया कि कार्निस पर थोड़ा-सा दाना रख दिया जाए। श्‍यामा प्रसन्‍न होकर बोली - तब तो चिडि़यों को चारे के लिए कहीं उड़ कर न जाना पड़ेगा न?
केशव - नहीं, तब क्‍यों जाएगी।
श्‍यामा - क्‍यों भैया, बच्‍चों को धूप न लगती होगी?
केशव का ध्‍यान इस कष्‍ट की ओर न गया था – अवश्‍य कष्‍ट हो रहा होगा। बिचारे प्‍यास के मारे तड़पते होंगे, ऊपर कोई साया भी तो नहीं।
आखिर यही निश्‍चय हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देना चाहिए। पानी की प्‍याली और थोड़ा-सा चावल रख देने का प्रस्‍ताव भी पास हुआ।
दोनों बालक बड़े उत्‍साह से काम करने लगे। श्‍यामा माता की आँख बचा कर मटके से चावल निकाल लाई। केशव ने पत्‍थर की प्‍याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ करके उसमें पानी भरा।
अब चाँदनी के लिए कपड़ा कहाँ से आए? फिर, ऊपर बिना तीलियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और तीलियाँ खड़ी कैसे होंगी?
केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। अंत को उसने यह समस्‍या भी हल कर ली। श्‍यामा से बोला - जा कर कूड़ा फेंकने वाली टोकरी उठा ला। अम्माजी को मत दिखाना।
श्‍यामा - वह तो बीच से फटी हुई है, उसमें से धूप न जाएगी?
केशव ने झुँझला कर कहा - तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बंद करने की कोई हिकमत निकालूँगा न।
श्‍यामा दौड़ कर टोकरी उठा लाई। केशव ने उसके सूराख में थोड़ा-सा कागज ठूँस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला - देख, ऐसे ही घोंसले पर इसकी आड़ कर दूँगा। तब कैसे धूप जाएगी? श्‍यामा ने मन में सोचा - भैया कितने चतुर हैं!
गर्मी के दिन थे। बाबूजी दफ़्तर गए हुए थे। माता दोनों बालकों को कमरे में सुला कर खुद सो गई थी, पर बालकों की आँखों में आज नींद कहाँ? अम्माजी को बहलाने के लिए दोनों दम साधे, आँखें बंद किए, मौके का इंतज़ार कर रहे थे। ज्‍यों ही मालूम हुआ कि अम्माजी अच्‍छी तरह सो गईं, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से द्वार की सिटकनी खोल कर बाहर निकल आए। अंडों की रक्षा करने की तैयारियाँ होने लगीं।
केशव कमरे से एक स्‍टूल उठा लाया, पर जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी ला कर स्‍टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्‍टूल पर चढ़ा। श्‍यामा दोनों हाथों से स्‍टूल को पकड़े हुई थी। स्‍टूल चारों पाए बराबर न होने के कारण, जिस ओर ज्‍यादा दबाव पाता था, जरा-सा हिल जाता था। उस समय केशव को कितना संयम करना पड़ता था, यह उसी का दिल जानता थ। दोनों हाथों से कार्निस पकड़ लेता और श्‍यामा को दबी आवाज से डाँटता - अच्‍छी तरह पकड़, नहीं उतर कर बहुत मारूँगा। मगर बिचारी श्‍यामा का मन तो ऊपर कार्निस पर था, बार-बार उसका ध्‍यान इधर चला जाता और हाथ ढीले पड़ जाते। केशव ने ज्‍यों ही कार्निस पर हाथ रखा, दोनों पंडुक उड़ गए। केशव ने देखा कि कार्निस पर थोड़े-से तिनके बिछे हुए हैं और उस पर तीन अंडे पड़े हैं। जैसे घोंसले पर देखे थे, ऐसा कोई घोंसला नहीं है।
श्‍यामा ने नीचे से पूछा – कै बच्‍चे हैं भैया?
केशव - तीन अंडे हैं। अभी बच्‍चे नहीं निकले।
श्‍यामा - जरा हमें दिखा दो भैया, कितने बड़े हैं?
केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा चीथड़े ले आ, नीचे बिछा दूँ। बिचारे अंडे तिनकों पर पड़े हुए हैं।
श्‍यामा दौड़ कर अपनी पुरानी धोती फाड़ कर एक टुकड़ा लाई और केशव ने झुक कर कपड़ा ले लिया। उसके कई तह करके उसने एक गद्दी बनाई और उसे तिनकों पर बिछा कर तीनों अंडे धीरे से उस पर रख दिए।
श्‍यामा ने फिर कहा - हमको भी दिखा दो भैया?
केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा वह टोकरी तो दे दो, ऊपर साया कर दूँ।
श्‍यामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली - अब तुम उतर आओ, तो मैं भी देखूँ। केशव ने टोकरी को एक टहनी से टिकाकर कहा - जा दाना और पानी की प्‍याली ले आ। मैं उतर जाऊँ, तो तुझे दिखा दूँगा।
श्‍यामा प्‍याली और चावल भी लाई। केशव ने टोकरी के नीचे दोनों चीजें रख दीं और धीरे से उतर आया।
श्‍यामा ने गिड़गिड़ाकर कहा - अब हमको भी चढ़ा दो भैया।
केशव - तू गिर पड़ेगी।
श्‍यामा - न गिरूँगी भैया, तुम नीचे से पकड़े रहना।
केशव - ना भैया, कहीं तू गिर-गिरा पड़े, तो अम्माजी मेरी चटनी ही बना डालें कि तूने ही चढ़ाया था। क्‍या करेगी देख कर? अब अंडे बड़े आराम से हैं। जब बच्‍चे निकलेंगे, तो उनको पालेंगे।
दोनों पक्षी बार-बार कार्निस पर आते थे और बिना बैठे ही उड़ जाते थे। केशव ने सोचा, हम लोगों के भय से यह नहीं बैठते। स्‍टूल उठा कर कमरे में रख आया। चौकी जहाँ-की-तहाँ रख दी।
श्‍यामा ने आँखों में आँसू भर कर कहा - तुमने मुझे नहीं दिखाया, मैं अम्माजी से कह दूँगी।
केशव - अम्माजी से कहेगी, तो बहुत मारूँगा, कहे देता हूँ।
श्‍यामा - तो तुमने मुझे दिखाया क्‍यों नहीं?
केशव - और गिर पड़ती तो चार सिर न हो जाते?
श्‍यामा - हो जाते, हो जाते। देख लेना, मैं कह दूँगी।
इतने में कोठरी का द्वार खुला और माता ने धूप से आँखों को बचाते हुए कहा - तुम दोनों बाहर कब निकल आए? मैंने मना किया था कि दोपहर को न निकलना, किसने किवाड़ खोला?
किवाड़ केशव ने खोला था, पर श्‍यामा ने माता से यह बात नहीं की। उसे भय हुआ भैया पिट जाएँगे। केशव दिल में काँप रहा था कि कहीं श्‍यामा कह न दे। अंडे न दिखाए थे, इससे अब इसको श्‍यामा पर विश्‍वास न था। श्‍यामा केवल प्रेमवश चुप थी या इस अपराध में सहयोग के कारण, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। शायद दोनों ही बातें थीं।
माता ने दोनों बालकों को डाँट-डपटकर फिर कमरे में बंद कर दिया और आप धीरे-धीरे उन्‍हें पंखा झलने लगी। अभी केवल दो बजे थे। तेज लू चल रही थी। अबकी दोनों बालकों को नींद आ गई।
चार बजे एकाएक श्‍यामा की नींद खुली। किवाड़ खुले हुए थे। वह दौड़ी हुई कार्निस के पास आई और ऊपर की ओर ताकने लगी। पंडुकों का पता न था। सहसा उसकी निगाह नीचे गई और वह उलटे पाँव बेतहाशा दौड़ती हुई कमरे में जा कर जोर से बोली - भैया, अंडे तो नीचे पड़े हैं। बच्‍चे उड़ गए?
केशव घबरा कर उठा और दौड़ा हुआ बाहर आया, तो क्‍या देखता है कि तीनों अंडे नीचे टूटे पड़े हैं और उनमें से कोई चूने की-सी चीज बाहर निकल आई है। पानी की प्‍याली भी एक तरफ टूटी पड़ी है।
उसके चेहरे का रंग उड़ गया। डरे हुए नेत्रों से भूमि की ओर ताकने लगा। श्‍यामा ने पूछा - बच्‍चे कहाँ उड़ गए भैया?
केशव ने रुँधे स्‍वर में कहा - अंडे तो फूट गए!
श्‍यामा - और बच्‍चे कहाँ गए?
केशव - तेरे सिर में। देखती नहीं है, अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है! वही तो दो-चार दिन में बच्‍चे बन जाते।
माता ने सुई हाथ में लिए हुए पूछा - तुम दोनों वहाँ धूप में क्‍या कर रहे हो?
श्‍यामा ने कहा - अम्माजी, चिड़िया के अंडे टूटे पड़े हैं।
माता ने आ कर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्‍से से बोली - तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।
अबकी श्‍यामा को भैया पर जरा भी दया न आई - उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वे नीचे गिर पड़े, इसका उसे दंड मिलना चाहिए। बोली - इन्‍हीं ने अंडों को छेड़ा था अम्माजी।
माता ने केशव से पूछा- क्‍यों रे?
केशव भीगी बिल्‍ली बना खड़ा रहा।
माता - तो वहाँ पहुँचा कैसे?
श्‍यामा - चौकी पर स्‍टूल रख कर चढ़े थे अम्माजी।
माता - इसीलिए तुम दोनों दोपहर को निकले थे।
श्‍यामा - यही ऊपर चढ़े थे अम्माजी।
केशव - तू स्‍टूल थामे नहीं खड़ी थी।
श्‍याम - तुम्‍हीं ने तो कहा था।
माता - तू इतना बड़ा हुआ, तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिडि़यों के अंडे गंदे हो जाते हैं – चिड़िया फिर उन्‍हें नहीं सेतीं।
श्‍यामा ने डरते-डरते पूछा - तो क्‍या इसीलिए चिड़िया ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माजी?
माता - और क्‍या करती। केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हाँ-हाँ तीन जानें ले लीं दुष्‍ट ने!
केशव रुआँसा होकर बोला - मैंने तो केवल अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्माजी!
माता को हँसी आ गई।
मगर केशव को कई दिनों तक अपनी भूल पर पश्‍चात्ताप होता रहा। अंडों की रक्षा करने के भ्रम में, उसने उनका सर्वनाश कर डाला था। इसे याद करके वह कभी-कभी रो पड़ता था।
दोनों चिड़ियाँ वहाँ फिर न दिखाई दीं!

हार नहीं मानती है चिड़िया


1. हार नहीं मानती  है चिड़िया
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु

तिनका तिनका चुनकर
नीड़ बनाती है चिड़िया
घोर  एकांत में
अपनी चहचाहट से
किसी के होने का
आभास कराती 
द्वार खुलने के इंतज़ार में
सुबह से
खिड़की के पास वैठकर
मधुरता बिखेरती है
पंखे की हवा से
उड़ जाते सब तिनके
बैठकर पल भर गुमसुम
निहारती है चिड़िया ।
दूसरे ही पल फुर्र से उड़  जाती
फिर  कहीं से
तिनके उठा  लाती है चिड़िया
एक भी पल
हीं गवाँती है चिड़िया
वार-बार हारकर भी
हार नहीं पाती है
नीड़ बनाती  है चिड़िया !
2. बीते पल  
मन की मुँडेर पर  बैठ गया
जो पंछी चुपके से आकर
बैठे रहने दो बस यूँ ही
पछताओगे उड़े उड़ाकर।
     यह वह पंछी नहीं बाग़ का
     डाल-डाल जो गीत  सुनाए,
     यह वह पंछी नहीं द्वार का
      दुत्कारो वापस आ जाए।
दर्पण में जब रूप निहारो
छाया आँखों में उतरेगी
     बाँधो काजल -रेख सजाकर ।
बीते पल हैं  रेत नदी का
बन्द मुट्ठी से बिखर गए गए हैं
किए आचमन खारे आँसू
सुधियों के रंग निखर गए हैं ।
      सात जनम की पूँजी हमको
      बिना तुम्हारे धूल पाँव की
      बात सही यह आखर-आखर।
जो भी पाती मिली तुम्हारी
छाती से हम रहे लगाए,
शायद जो हो मन की धड़कन
इस मन में भी आज समाए ।
       छुए पोर से हमने सारे
       गीले वे सन्देश तुम्हारे
        जो हमको भी रहे रुलाकर।

बालकथा

दो गौरैया
-भीष्म साहनी
घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं- माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।
आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाडिय़ों-घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुँच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहाँ कभी तोते पहुँच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैया। वह शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएँ, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!
घर के अंदर भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात-भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते फिरते हैं। वह धमा-चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अँगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गर्मी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झाँक जाती है। मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही 'फिर आऊँगीकहकर चली जाती है। शाम पड़ते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार पर फैलाए कसरत करने लगते हैं। घर में कबूतर भी हैं। दिन-भर 'गुटर-गूँ, गुटर-गूँका संगीत सुनाई देता रहता है। इतने पर ही बस नहीं, घर में छिपकलियाँ भी हैं और बर्रे भी हैं और चींटियों की तो जैसे फ़ौज ही छावनी डाले हुए है।
अब एक दिन दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे उड़-उड़कर मकान देखने लगीं। पिताजी कहने लगे कि मकान का निरीक्षण कर रही हैं कि उनके रहने योग्य है या नहीं। कभी वे किसी रोशनदान पर जा बैठतीं, तो कभी खिड़की पर। फिर जैसे आईं थीं वैसे ही उड़ भी गईं। पर दो दिन बाद हमने क्या देखा कि बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन्होंने अपना बिछावन बिछा लिया है और सामान भी ले आईं हैं और मजे से दोनों बैठी गाना गा रही हैं। जाहिर है, उन्हें घर पसंद आ गया था।
माँ और पिताजी दोनों सोफे पर बैठे उनकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माँ सिर हिलाकर बोलीं, 'अब तो ये नहीं उड़ेंगी। पहले इन्हें उड़ा देते, तो उड़ जातीं। अब तो इन्होंने यहाँ घोंसला बना लिया है।
इस पर पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और बोले, 'देखता हूँ ये कैसे यहाँ रहती हैं! गौरैयाँ मेरे आगे क्या चीज हैं! मैं अभी निकाल बाहर करता हूँ।
'छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिडिय़ों को निकालेंगे!माँ ने व्यंग्य से कहा।
माँ कोई बात व्यंग्य में कहें, तो पिताजी उबल पड़ते हैं वह समझते हैं कि माँ उनका मजाक उड़ा रही हैं। वह फौरन उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर जोर से ताली बजाई और मुँह से 'श...शू...कहा, बाहें झुलाईं, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाहें झुलाते, कभी 'श...शू...’  करते।
गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर नीचे की ओर झाँककर देखा और दोनों एक साथ 'चीं-चीं करने लगीं।माँ खिलखिलाकर हँसने लगीं।
पिताजी को गुस्सा आ गया, इसमें हँसने की क्या बात है?
माँ को ऐसे मौकों पर हमेशा मजाक सूझता है। हँसकर बोली,'चिडिय़ा एक दूसरे से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है?’
तब पिताजी को और भी ज़्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज़्यादा ऊँचा कूदने लगे। गौरैया घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के डैने पर जा बैठीं। उन्हें पिताजी का नाचना जैसे बहुत पसंद आ रहा था। माँ फिर हँसने लगीं, 'ये निकलेंगी नहीं, जी। अब इन्होंने अंडे दे दिए होंगे।
'निकलेंगी कैसे नहीं?’ पिताजी बोले और बाहर से लाठी उठा लाए। इसी बीच गौरैयाँ फिर घोंसले में जा बैठी थीं। उन्होंने लाठी ऊँची उठाकर पंखे के गोले को ठकोरा। 'चीं-चींकरती गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं।
'इतनी तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी। पंखा चला देते तो ये उड़ जातीं।माँ ने हँसकर कहा।
पिताजी लाठी उठाए पर्दे के डंडे की ओर लपके। एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाज़े पर जा बैठी। दूसरी सीढिय़ों वाले दरवाज़े पर। 
माँ फिर हँस दी। 'तुम तो बड़े समझदार हो जी, सभी दरवाज़े खुले हैं और तुम गौरैयों को बाहर निकाल रहे हो। एक दरवाज़ा खुला छोड़ो, बाकी दरवाज़े बंद कर दो। तभी ये निकलेंगी।
अब पिताजी ने मुझे झिड़ककर कहा, 'तू खड़ा क्या देख रहा है? जा, दोनों दरवाज़े बंद कर दे!
मैंने भागकर दोनों दरवाज़े बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाज़ा खुला रहा।
पिताजी ने फिर लाठी उठाई और गौरैयों पर हमला बोल दिया। एक बार तो झूलती लाठी माँ के सिर पर लगते-लगते बची। चीं-चीं करती चिडिय़ा कभी एक जगह, तो कभी दूसरी जगह जा बैठतीं। आखिर दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाज़े में से बाहर निकल गईं। माँ तालियाँ बजाने लगीं। पिताजी ने लाठी दीवार के साथ टिकाकर रख दी और छाती फैलाए कुर्सी पर आ बैठे।
'आज दरवाज़े बंद रखो उन्होंने हुक्म दिया। 'एक दिन अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो घर छोड़ देंगी।
तभी पंखे के ऊपर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी और माँ खिलखिलाकर हँस दीं। मैंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, दोनों गौरैया फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं।
'दरवाज़े के नीचे से आ गई हैं,’ माँ बोलीं।
मैंने दरवाज़े के नीचे देखा। सचमुच दरवाज़ों के नीचे थोड़ी-थोड़ी जगह खाली थी।
पिताजी को फिर गुस्सा आ गया। माँ मदद तो करती नहीं थीं, बैठी हँसे जा रही थी।
अब तो पिताजी गौरैयों पर पिल पड़े। उन्होंने दरवाज़ों के नीचे कपड़े ठूँस दिए, ताकि कहीं कोई छेद बचा नहीं रह जाए और फिर लाठी झुलाते हुए उन पर टूट पड़े। चिडिय़ाँ चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गईं। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर कमरे में मौजूद थीं। अबकी बार वे रोशनदान में से आ गई थीं, जिसका एक शीशा टूटा हुआ था।
'देखो-जी, चिडिय़ों को मत निकालोमाँ ने अबकी बार गंभीरता से कहा, 'अब तो इन्होंने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये यहाँ से नहीं जाएँगी।
क्या मतलब? मैं कालीन बरबाद करवा लूँ? पिताजी बोले और कुर्सी पर चढ़कर रोशनदान में कपड़ा ठूँस दिया और फिर लाठी झुलाकर एक बार फिर चिडिय़ों को खदेड़ दिया। दोनों पिछले आँगन की दीवार पर जा बैठीं।
इतने में रात पड़ गई। हम खाना खाकर ऊपर जाकर सो गए। जाने से पहले मैंने आँगन में झाँककर देखा, चिडिय़ा वहाँ पर नहीं थीं। मैंने समझ लिया कि उन्हें अक्ल आ गई होगी। अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी।
दूसरे दिन इतवार था। जब हम लोग नीचे उतरकर आए तो वे फिर से मौजूद थीं और मजे से बैठी मल्हार गा रही थीं। पिताजी ने फिर लाठी उठा ली। उस दिन उन्हें गौरैयों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी।
अब तो रोज़ यही कुछ होने लगा। दिन में तो वे बाहर निकाल दी जातीं; पर रात के वक्त जब हम सो रहे होते, तो न जाने किस रास्ते से वे अंदर घुस आतीं।
पिताजी परेशान हो उठे। आखिर कोई कहाँ तक लाठी झुला सकता है? पिताजी बार-बार कहें, 'मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूँ।पर आखिर वह भी तंग आ गए थे। आखिर जब उनकी सहनशीलता चुक गई, तो वह कहने लगे कि वह गौरैयों का घोंसला नोचकर निकाल देंगे।
और वह फ़ौरन ही बाहर से एक स्टूल उठा लाए।
घोंसला तोडऩा कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और लाठी लेकर स्टूल पर चढ़ गए। 'किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए,’ उन्होंने गुस्से से कहा।
घोंसले में से अनेक तिनके बाहर की ओर लटक रहे थे, गौरैयों ने सजावट के लिए मानो झालर टाँग रखी हो। पिताजी ने लाठी का सिरा सूखी घास के तिनकों पर जमाया और दाईं ओर को खींचा। दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए और फरफराते हुए नीचे उतरने लगे।
'चलो, दो तिनके तो निकल गए,’ माँ हँसकर बोलीं, 'अब बाकी दो हजार भी निकल जाएँगे!
तभी मैंने बाहर आँगन की ओर देखा और मुझे दोनों गौरैयाँ नजर आईं। दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी थीं। इस बीच दोनों कुछ-कुछ दुबला गई थीं, कुछ-कुछ काली पड़ गई थीं। अब वे चहक भी नहीं रही थीं।
अब पिताजी लाठी का सिरा घास के तिनकों के ऊपर रखकर वहीं रखे-रखे घुमाने लगे। इससे घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए और घोंसला लाठी के इर्द-गिर्द खिंचता चला आने लगा। फिर वह खींच-खींचकर लाठी के सिरे के इर्द-गिर्द लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रूई के फाहे और धागे और थिगलियाँ लाठी के सिरे पर लिपटने लगीं। तभी सहसा जोर की आवाज आई, 'चीं-चीं, चीं-चीं!
पिताजी के हाथ ठिठक गए। यह क्या? क्या गौरैयाँ लौट आईं हैं? मैंने झट से बाहर की ओर देखा। नहीं, दोनों गौरैया बाहर दीवार पर गुमसुम बैठी थीं।
'चीं-चीं, चीं-चीं! फिर आवाज आई। मैंने ऊपर देखा। पंखे के गोले के ऊपर से नन्ही-नन्ही गौरैया सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। अभी भी पिताजी के हाथ में लाठी थी और उस पर लिपटा घोंसले का बहुत-सा हिस्सा था। नन्हीं-नन्हीं दो गौरैया! वे अभी भी झाँके जा रही थीं और चीं-चीं करके मानो अपना परिचय दे रही थीं, हम आ गई हैं। हमारे माँ-बाप कहाँ हैं?
मैं अवाक् उनकी ओर देखता रहा। फिर मैंने देखा, पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए हैं और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर उन्होंने लाठी को एक ओर रख दिया है और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए हैं। इस बीच माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्ही चिड़िया अभी भी हाँफ-हाँफकर चिल्लाए जा रही थीं और अपने माँ-बाप को बुला रही थीं।
उनके माँ-बाप झट-से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते उनसे जा मिले और उनकी नन्ही-नन्ही चोंचों  में चुग्गा डालने लगे। माँ-पिताजी और मैं उनकी ओर देखते रह गए। कमरे में फिर से शोर होने लगा था, पर अबकी बार पिताजी उनकी ओर देख-देखकर केवल मुस्कुराते रहे।