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Sep 15, 2019

उदंती.com सितम्बर 2019

उदंती.com, सितम्बर 2019

वर्ष-12 अंक- 2

प्रकृति गति का उन्मेष है, तो संस्कृति उस गति की मर्यादा। संस्कृति का सामूहिक चेतनाशिष्टाचार और मनोभावों से मौलिक संबंध होता है।   - जयशंकर प्रसाद

     पर्व -त्योहार विशेष
                                                                               (संकलन)

प्रकृति से जुड़े हमारे पर्वोत्सव

प्रकृति से जुड़े 

हमारे पर्वोत्सव

 - डॉ. रत्ना वर्मा
हमारे अधिकतर पर्व-त्योहार पर्यावरण और प्रकृति से जुड़े हुए हैं, जो देश के अलग अलग राज्यों में थोड़ी भिन्नता के साथ मनाए जाते हैं; पर जिनका मकसद एक ही होता है-अपनी संस्कृति से जुड़े रहना और प्रकृति को भगवान मानना। यह तो शाश्वत सत्य है कि बगैर प्रकृति की रक्षा के जीवन सम्भव नहीं है। भारत चूँकि कृषि प्रधान देश है इसलिए हमारे अधिकतर लोक-पर्व कृषक जीवन के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। बुवाई, रोपाई, जुताई और कटाई-मिंजाई के आसपास ही हमारे सारे पर्व-उत्सव मनाए जाते हैं। यही वे कुछ दिन होते हैं, जब कड़ी मेहनत के साथ- साथ किसान अपने परिवार के साथ आनन्दोल्लास के लिए समय निकालता है और फिर से दोगुने उत्साह के साथ अपने खेतों में काम के लिए चल पड़ता है।
साल भर अलग-अलग ऋतु विशेष में आने वाले इन लोक पर्वों में धरती को हरा- भरा बनाए रखने, नदी तालाबों को स्वच्छ रखने की सीख के साथ परिवार और बच्चों की सुरक्षा एवं खुशहाली का संदेश होता है। हमारे पूर्वजों ने इन सबके निमित्त ऐसे कर्मकांड निर्धारित कर दिए हैं, जिसका पालन करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जाता। दरअसल पुरातन काल से ही हमारे ज्ञानीजन ने मनुष्य को प्रकृति से प्रेम करने की सीख दी। नदी- तालाब, पशु- पक्षी, पेड़ पौधों की पूजा करने का विधान बनाकर उन्हें भगवान का दर्जा दिया। इन विशेष अवसरों पर व्रत उपवास तो किए ही जाते हैं, विशेष पकवान भी बनाए जाते हैं। क्षेत्र विशेष के पकवान भी वहाँ की संस्कृति और परंपरा को अलग पहचान दिलाते हैं। 
आधुनिकीकरण के दौर में बहुत से व्रत-त्योहार का महत्त्व अब बदल गया है। किसानों के मुख्य औजार हल, कुदाल, हँसियाँ तो अब संग्रहालय में सँजोने वाली चीजें बन गईं हैं। हम संग्रहालय इसीलिए तो बनाते हैं, ताकि लुप्त होती जा रही अपनी पहचान, संस्कृति, पर्व त्योहार आदि के महत्व को आने वाली पीढ़ी को बता सकें। 
कभी खेतों में हल चलाकर धरती माता को अन्न उपजाने लायक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बैलों की भूमिका अब नगण्य हो गई है। धान की कटाई, जुताई, बुवाई और मताई जैसे कामों को किसान परिवार कभी अपने हाथों से करता था अब ट्रेक्टर, हार्वेस्टर जैसी अत्याधुनिक मशीनों ने उनके हाथों का काम छीन लिया है। गाँव में अनाज ढोने के लिए तब बैलगाड़ी और भैंसागाड़ी ही सर्वसुलभ साधन होते थे; परन्तु किसान यदि इनके सहारे आगे बढ़ने की सोचेगा तो वह अन्यों से पिछड़ जाएगा। कभी गौवंश गाँव के प्रत्येक कृषक परिवार का आवश्यक अंग होता था। गौ माता की सेवा करके हर व्यक्ति अपने को धन्य मानता था। प्रत्येक कृषक परिवार में गाय होने का मतलब बच्चों के लिए आवश्यक पोषक पेय दूध उपलब्ध होने के साथ खेती के लिए जैविक खाद गोबर भी सहज ही उपलब्ध हो जाता था। ऐसे खाद से उपजे अन्न को खाने से  बीमारियाँ भी दूर भागती थीं। आज तो कीटनाशक दवाओं ने अन्न को भी ज़हर बना दिया है। अधिक उपज के लालच ने गोबर-खाद की अहमियत को घटा दिया है।  
इसके साथ एक और महत्त्वपूर्ण बात- इन सब संस्कारों परम्पराओं के  साथ गाँव वालों के रोजगार भी एक- दूसरे के साथ जुड़े होते थे। भारत के गाँव में परम्परात रूप से हर प्रकार के व्यवसाय करने वाले रहते थे। उन्हें कहीं बाहर से सामान लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लुहार, कुम्हार, बढ़ई, बुनकर सब एक गाँव में मिल जाते थे। कपड़ा, बर्तन और कृषि औजार जैसी आवश्यक चीजें सहज ही उपलब्ध हो जाया करती थीं। पहले गाँव के घर मिट्टी से बने होते थे, जिन्हें गोबर से लीपकर कीटाणु-मुक्त रखा जाता था।  मिट्टी के घर और गोबर से लिपा आँगन अब देखने को नहीं मिलते।  इसी प्रकार छप्पर वाले हवादार घर भी अब कहीं-कहीं ही देखने को मिलते हैं- जहाँ न पंखे की जरूरत होती थी न एसी की। अब तो गाँव भी शहरों की तरह कांक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं।
बात शुरू हुई थी हमारे पर्व त्योहार की, तो जीवनचर्या के साथ पर्व त्योहारों में भी इन सबको अतिरिक्त रोजगार मिलता था। जैसे पोला पर्व में मिट्टी से बने नंदी बैल की पूजा की जाती है साथ में बच्चों के लिए खिलौने की भी खूब बिक्री होती है। अत: कुम्हारों के लिए यह त्योहार उनके लिए अतिरिक्त रोजगार का साधन बन जाता है। पहले छप्पर वाले घर होते थे, तो कुम्हारों की अहमियत हमेशा बनी रहती थी।  छप्पर टूटते रहते थे, उन्हें साल में एक बार बदलना ही होता था। इसी प्रकार गर्मी के मौसम में पीने के ठंडे पानी के लिए घड़ा हर घर को चाहिए। आज तो गाँव के घर कांक्रीट के छत वाले बनते जा रहे हैं और सबको फ्रिज़ का ठंडा पानी पीने की आदत हो गई है। जाहिर है कुम्हारों की पूछ- परख कम होती जा रही है और वे दूसरे रोजगार की तलाश में गाँव से पलायन करते जा रहे हैं। इसी तरह लुहारों का भी हाल है- न अब हल की जरूरत होती न रॉपा और गैंती की, ऐसे में लुहार अपना घर लुहारी कला से कैसे चलाएगा। यही हाल लगभग सभी हस्तशिल्पियों का है। चाहे वे बुनकर हों, चाहे बाँस का काम करने वाले।
समाजशास्त्रीय नज़रिये से देखें तो समय के साथ बदलाव समाज का आवश्यक अंग है। अत: आधुनिकीकरण का प्रभाव गाँव पर भी पड़ा है। पर बदलाव और परिवर्तन तभी तक अच्छे होते हैं जब तक कि उसका दुष्प्रभाव सामाजिक जीवन पर न पड़े। यहाँ तो यह देखने को मिल रहा है कि आधुनिकीकरण के चक्कर में हम समूचि प्रकृति को ही नष्ट करते चले जा रहे हैं। परिणाम तो सबके सामने हैं- कभी बाढ़ तो कभी सूखा। इसीलिए अब कहा जा रहा है कि हमें अपनी पुरातन संस्कृति की ओर लौटना होगा। उन बातों को पुन: अपनाना होगा, जिनसे सामाजिक जीवन सहज सरल तो बने ही, साथ प्रकृति के लगातार होते दोहन को भी रोका जा सके। ऐसा करके सम्भवत: हम अपनी भावी पीढ़ी को एक भव्य सांस्कृतिक विरासत और एक साफ सुथरा पयार्वरण दे पाएँगे। जैसा कि हम, अपने पुरखों का नाम लेकर आज गर्व करते हैं, उनके दिए संस्कारों और परम्पराओं की दुहाई देते हैं। क्या हम अपने आगे आने वाली पीढ़़ी के लिए गर्व करने लायक कोई विरासत सौंप कर जा पाएँगे? या कि प्रदूषित पर्यावरण, आपदाएँ और मशीनी जीवन देकर हम अपने लिए गालियाँ इकट्ठी  करेंगे।
अब बात करें छत्तीसगढ़ की तो अलग राज्य बनने के बाद से ही छत्तीसगढ़ के किसान यहाँ के पारंपरिक पर्व त्योहारों पर छुट्टी के साथ भव्यता के साथ मनाए जाने की माँग करती रही है। बिहार के प्रमुख पर्व छठ पूजा पर यदि छत्तीसगढ़ में छुट्टी दी जा सकती है, तो यहाँ के स्थानीय पर्व जैसे- हरेली, तीजा, पोला, हलषष्ठी आदि पर तो छुट्टी मिलनी ही चाहिए। तो  इस दिशा में छत्तीसगढ़ की नई सरकार ने एक शुरुआत कर दी है। सरकार ने पहली बार हरेली त्योहार किसानों के साथ धूमधाम से मनाया और राज्य में छुट्टी की भी घोषणा की। हरेली के दिन जिलों में पारंपरिक खेल गेंड़ी, नारियल फेंक के साथ कई स्थानीय खेल आयोजित किए गए। इससे जनता को उम्मीद की एक किरण नज़र आई है कि आने वाले समय में अन्य प्रमुख पर्व-त्योहारों पर भी सरकार प्रदेश की जनता की खुशियों का ध्यान रखेगी।
इसमें कोई दो मत नहीं कि इस प्रकार के आयोजन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से लोगों को जोड़े रखने की दिशा में एक मजूबत कदम है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार आगे भी स्थानीय पर्व-संस्कृति को वृहद पैमाने पर महत्त्व देकर देश भर में अपनी एक अलग पहचान बनाएगी। यह प्रयास छत्तीसगढ़ के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी अच्छा कदम होगा। राजस्थान और गुजरात जैसे प्रदेशों ने अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ही आगे रखकर पर्यटन के क्षेत्र में एक अलग मुकाम हासिल किया है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और लोक परंपराएँ भी किसी से कम नहीं है, ज़रूरत है यहाँ की माटी में रचे बसे पारम्परिक लोक गीतों लोक गाथाओँ, लोक कथाओं और लोक कलाओँ को बढ़ावा देने की।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी सरकार को किसानों की सरकार कहा है और गरवा, घुरवा, बाड़ी जैसी कई योजनाओं के जरिए गाँवों की तस्वीर बदलने के प्रयास शुरू हो चुके हैं।  ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि ये सब आयोजन, और योजनाएँ केवल राजनैतिक लाभ-हानि तक सीमित न रहकर प्रदेश की परम्परा और संस्कृति को संरक्षित- संवर्धित करते हुए प्रकृति के हो रहे नुकसान को बचाने की दिशा में भी काम करेंगी; क्योंकि इन लोकपर्वों के बहाने ही सही प्रकृति के साथ संतुलन-बनाए रखने में बहुत सहायता मिलती है।           

हरेलीः

किसानों के उत्सव 
का शुभारंभ

धान का कटोरा कहलाने वाले कृषि प्रधान छत्तीसगढ़ में अधिकतर लोकपर्व कृषि से ही जुड़े होते हैं। हरेली पर्व से छत्तीसगढ़ के किसानों के उत्सव का प्रारंभ होता है। सावन मास की अमावस्या तिथि को हरेली पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। आज के दिन किसान खेती में उपयोग होने वाले सभी औजारों जैसे नांगर, गैंती, कुदाली, फावड़ा, रापा, हँसिया आदि को स्वच्छ करके अच्छी फसल की कामना के साथ श्रद्धा पूर्वक उनकी पूजा करते हैं। कृषि कार्य की रीढ़ कहे जाने वाले गाय- बैल के साथ हरेली के दिन अपने कुलदेवता की पूजा करने की भी परंपरा है। इस दिन विशेष प्रकार के पकवान से हरेली का स्वागत होता है। छत्तीसगढ़ के किसान आज के दिन गुड़ का चीला और गुलगुल भजिया (मीठे पकौड़े) खाकर और अपने परिचितों को खिलाकर उत्सव मनाते हैं ।
प्रत्येक घर के प्रवेश द्वार नीम की पत्तियाँ लगाई जाती हैं तथा अपने जानवरों गाय, बैल, भैंस को बारिश की बीमारी और संक्रमण से बचाने के लिए बरगंडा और नमक खिलाया जाता हैं । दरवाजे की चौंखट पर लोहे की कील गड़ाने की भी परम्परा है। नीम की पत्ती और दरवाजे के चौखट पर कील ठोंकने वाला यह कहते हुए कि ये पत्तियाँ आपके घर को, घर के लोगों को और आपके पशु धन को बुरी बलाओं से बचाएगी। इसके बदले में नीम लगाने वाले और कील गाड़ने वाले को घर का मालिक उपहार में दाल, चावल, सब्जी, नमक, हल्दी अथवा पैसा अपनी इच्छानुसार दान में देते हैं।
गाँव में इस त्योहार को बैगाओं और तंत्र- मंत्र से जोड़ा जाता है। जो तंत्र विद्या को मानते हैं वे हरेली के दिन को शुभ मानते हैं, इसी दिन से तंत्र सिखना शुरू करते हैं। गाँव में आज भी इस दिन घर, गाय बैल, खेत सबकी रक्षा के उपाय के लिए टोना-टोटका करते हैं। एक समय था कि छत्तीसगढ़ में स्त्रियों पर टोहनी का आरोप लगने की अनेक घटनाएँ सुनाई देती थीं। यहाँ तक कि टोनही के संदेह में महिलाओँ को गाँव से बाहर कर दिया जाता था और कहीं कहीं तो उनकी हत्या भी कर दी जाती थी। लेकिन जब से कानून पास हुआ है ,तब से टोनही प्रताड़ना जैसी घटनाएँ अब सुनाई नहीं देतीं। एक लम्बे प्रयास के बाद छत्तीसगढ़ इस भयानक अंधविश्वास से मुक्त हो पाया है।
आज के समय में समाजशास्त्रीय दृष्टि से यदि हम पर्यावरण और मौसम से जुड़े इन पर्व त्योहारों की विवेचना करें तो यही समझ में आता है कि- प्राचीन समय में पेड़ों की पूजा, जानवरों की रक्षा के उपाय, परिवार के स्वास्थ्य की कामना हेतु जो भी उपाय किए जाते थे, उनका अध्ययन करने के बाद यही समझ में आता है कि ये सब बारिश में आने वाली बीमारियों से रक्षा करने के उपाय ही होते थे। फिर चाहे वह जानवरों के लिए हों या मानव के लिए अथवा फसल के लिए परन्तु धीरे-धीरे ये सारे उपाय अंधविश्वास में बदलते चले गए और सीधे साधे किसानों को तंत्र मंत्र और जादू -टोने के जाल में फँसाकर कुछ स्वार्थी तत्त्वों ने उनके मन में भय पैदा कर दिया ताकि वे डर कर रहें और उनकी बेतुकी माँगों को पूरा करते हुए हमेशा भयभीत रहें।  यद्यपि आज के दौर में यह सब लगभग खत्म हो चुका है। शिक्षा के प्रचार- प्रसार और विभिन्न समाज सेवी संस्थाओँ द्वार दशकों से जागरण अभियान चलाए जाने से इन तरह के अंधविश्वासों में कमी आई है। छत्तीसगढ़ में अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति ऐसे अंधविश्वासो को दूर करने के लिए पिछले कई वर्षों से जन जागरण अभियान चला रही है, जिसका काफी प्रभाव पड़ा है और जादू- टोना, टोनही और भूत प्रेत जैसी बातों पर से गाँववालों का विश्वास भी अब हटते जा रहा है।
अब नीम और लोहे के वैज्ञानिक पहलू को सामने लाने से गाँव के लोग भी इसके महत्त्व   को समझने लगे हैं। बारिश के दिनों में घर के आस-पास पानी भर जाने से बैक्टीरिया, कीट व अन्य हानिकारक वायरस पनपने का खतरा रहता है और दरवाज़े पर लगी नीम की पत्तियाँ और लोहा ऐसे हानिकारक वायरस को पनपने नहीं देती और बीमारियों से सबको दूर रखती हैं।
हरेली का एक प्रमुख आकर्षण गेंड़ी का खेल होता है। यह बाँस से बना चलने का साधन होता है जिसके बीच में पैर रखने के लिए खाँचा बनाया जाता है। गेड़ी की ऊँचाई हर कोई अपने हिसाब बना सकता है। लोग तो ऊँची से ऊँची गेड़ी बनाकर उसपर चलने की प्रतियोगिता भी रखते हैं। बाँस से निर्मित इस खेल के माध्यम से विशेष समारोह में गेड़ी नृत्य का भी आयोजन किया जाता है। बाँस की गेड़ी को रंगों से सजाया जाता है। यह गाँव के कीचड़ भरे रास्तों में चलने वाली एक तरह की गाड़ी है। बाँस से निर्मित इस खेल की उत्पत्ति संभवतः बारिश के मौसम को ध्यान में रख कर की गई रही होगी। पहले पक्की सड़कें तो होती नहीं थीं सो कीचड़ में चलना या कोई खेल खेलना मुश्किल ही रहा होगा पर गेड़ी एक ऐसा साधन है जिसमें चलते हुए कीचड़ वाले रास्ते पर आसानी से चला जा सकता है। गेड़ी के साथ कई अन्य पारंपरिक खेल भी हरेली के मुख्य आकर्षण होते हैं जैसे- कबड्डी, फुगड़ी... नारियल फोड़ आदि। गेड़ी का यह खेल सावन की अमावस को हरेली के दिन से प्रारम्भ होकर भादों में तीजा- पोला के समय फलाहार करने के दिन समाप्त होता है। (उदंती फीचर्स)

पोलाः



नंदी बैल की पूजा का पर्व

छत्तीसगढ़ राज्य भारत देश का एक मात्र ऐसा राज्य है जो पूर्णतः कृषिप्रधान राज्य है। धान की खेती यहाँ की प्रमुख फसल है। चूंकि कृषि कार्य में पशुओं का विशेष योगदान रहता है इसलिए पशुओं को पूजने की परम्परा हमारी संस्कृति में पुरातन काल से ही रही है। पोला भी हमारे किसानों से जुड़ा पर्व है, इस दिन बैलों की पूजा का विधान है। पोला त्योहार किसानों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। किसान पोला के दिन तक धान की बोआई कर चुके होते हैं और अपनी फसल की अच्छी उपज की कामना में वे पोला के दिन खुशियाँ बनाते हैं।
छत्तीसगढ़ में मनाया जाने वाला पोला पर्व भादो माह की अमावस्या तिथि को खरीफ फसल के दूसरे चरण का कार्य (निंदाई गुड़ाई) पूरा हो जाने के बाद मनाते हैं। पोला त्योहार मनाने के पीछे जो परम्परा प्रचलित है उसके अनुसार इसी समय अन्नमाता गर्भ धारण करती है अर्थात् धान के पौधों में इस दिन दूध भरता है, जिसे यहाँ  'पोठरी पान" कहते हैं। पोला को छत्तीसगढ़ी बोली में पोरा कहते हैं। अपने लहलहाते फसलों को बढ़ता देख किसान खुशी से फूला नहीं समाता और इसी खुशी में वह अपने बैलों की पूजा कर यह पर्व मनाता है।
छत्तीसगढ़ के प्रत्येक किसान परिवार में मनाए जाने वाले इस पर्व में कुम्हार द्वारा बनाए मिट्टी बनाए नंदी बैलों की पूजा होती है और पारंपरिक व्यजंनों का भोग लगता है। इस दिन हर घर में विशेष पकवान बनाये जाते हैं जैसे ठेठरी, खुर्मी, देहरौरी, चीला। इन पकवानों को मिट्टी के खिलौनों वाले बर्तन में पूजा करते समय भरकर रखते हैं।  घर में सुख-समृद्धि हमेशा बनी रहे और उनके खेतों की फसल बहुत अच्छी हो यही कामना मन में लिए उत्साह के साथ यह पर्व मनाया जाता है।
पूजा के बाद बच्चे मिट्टी के बने खिलौनों से खेलते है। पूजा के लिए जो मिट्टी का नंदी बैल लाया जाता है उसमें मिट्टी के ही चक्के अलग से बनाए जाते हैं जिसे पूजा के बाद बाँस की खपच्चियों से बाँधा जाता है और फिर उसके गले में रस्सी डालकर बच्चे उसे गाँव में दौड़ाते हुए खेलते हैं। लड़के जहाँ पोला के दिन नांदी बैल चलाते है तो वहीं लड़कियाँ मिट्टी के जाता पोरा और रसोई में उपयोग होने वाले बर्तनों से खेलती हैं।
शाम के समय गाँव की युवतियाँ अपनी सहेलियों के साथ गाँव के बाहर मैदान या चौराहों पर (जहाँ नंदी बैल या साहडा देव की प्रतिमा स्थापित रहती है) पोरा पटकने जाते हैं। इस परम्परा मे सभी अपने-अपने घरों से एक-एक मिट्टी के खिलौने को एक निर्धारित स्थान पर पटककर-फोड़ते हैं। यह परम्परा नंदी बैल के प्रति आस्था प्रकट करने की परम्परा है। मिट्टी के खिलौने में ठेठरी खुर्मी भर देते हैं जिसे वहाँ उपस्थित लड़कों में उसे लूटने के लिए होड़ मची होती है। यहाँ इस समय उत्सव सा माहौल बन जाता है।
पोला के दिन विभिन्न खेलों का भी आयोजन किया जाता है। कबड्डी, खो-खो, लँगड़ी-फुगड़ी दौड़, गेड़ी दौड़, गिल्ली डण्डा, खो-खो आदि। शाम को बैलगाड़ी वाले अपने बैलों की जोड़ियाँ सजाकर प्रतिस्पर्धा में भाग लेते हैं। बैलों के बीच दौड़ भी आयोजित की जाती है। विजयी बैल जोड़ी एवं मालिक को पुरस्कृत किया जाता है। हरेली के दिन बनाई गई गेड़ी का पोला के दिन विर्सजन किया जाता है।
पोला पर्व के कुछ ही दिनों बाद ही महिलाओं का पर्व तीजा मनाया जाता है। अपने पति की दीर्घायु की कामना में निर्जला व्रत रखने वाली महिलाएँ यह व्रत मायके आकर ही करती हैं।  पोला के दिन बेटियाँ अपने मायके आती हैं या इस भाई अपनी बहनों को लिवाने जाते हैं।
खास बात यह है कि पोला छत्तीसगढ़ के साथ-साथ महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम, सिक्किम तथा पड़ोसी देश नेपाल में भी मनाया जाता है। वहाँ इसे कुशोत्पाटिनी या कुशग्रहणी अमावस्या, अघोरा चतुर्दशी व स्थानीय भाषा में डगयाली के नाम से मनाया जाता है। (उदंती फीचर्स)

तीजाः

 सुहाग की दीर्घायु
 के लिए निर्जलाव्रत
 भादो के अमावस्या में पोला तिहार मनाए जाने के बाद भादो के शुल्क पक्ष तृतीया को हरतालिका का लोकपर्व मनाया जाता है जिसे छत्तीसगढ़ में तीजा कहते हैं। पोला के दिन भाई अपनी बहनों को लाने जाते हैं।
पूरे देश में मनाए जाने वाले व्रत पर्व में छत्तीसगढ़ का यह एकमात्र ऐसा पर्व है जिसमें सुहागिनें मायके जाकर यह निर्जला व्रत रखती है। प्रतिवर्ष बेटियों और बहनों को ससुराल जाकर लिवाने की यह परम्परा भी अपने आप में एक उदाहरण हैं। बदलते सामाजिक परिवेश के बाद भी यह परम्परा आज भी छत्तीसगढ़ में कायम है, जो इस बात को इंगित करता है कि विवाह के बाद बेटियों का रिश्ता मायके से मजबूती से बंधा होता है और जहाँ बेटियों को विदा करने के बाद पराये धन की तरह भूला नहीं दिया जाता, बल्कि जीवन भर माँ के घर में उसका सम्मानजनक स्थान है बना रहता है। समय बदल गया है बेटियाँ छत्तीसगढ़ से बाहर भी चली गईं हैं ; परंतु तीजा का यह लोक रूप उसी रूप में आज तक कायम है। किसी कारण से यदि बेटी इस समय मायके नहीं आ पाती, तब भी मायके वाले अपनी बेटी, बहन को लेने जाने की रस्म अवश्य निभाते हैं। 
शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को देवी पार्वती ने महादेव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया था, उनकी मनोकामना पूर्ण होने के प्रतीक स्वरूप तीजा का यह पर्व मनाया जाता है।  व्रत के दूसरे दिन अर्थात् चतुर्थी को गणनायक गणेश जी के जन्मोत्सव का पर्व मनाया जाता है. तीजहारिन महिलाएँ गणेश चतुर्थी के दिन ही अपना व्रत तोड़ती हैं। 
सुहागिन स्त्रियाँ एक ओर जहाँ यह व्रत अपने सुहाग की दीर्घायु की कामना में करती हैं वही कुँआरी लड़कियाँ अच्छे वर की चाह में। यही नहीं पति की मृत्यु के बाद भी महिलाएँ इस व्रत को जारी रखती हैं। क्योंकि जिनके लिए उन्होंने इतने बरसों तक व्रत रखा वही हर जन्म में उनका सुहाग बने यही कामना करते हुए वे मृत्यु पर्यन्त उनके नाम का व्रत रखती हैं।
विवाह के बाद का पहला तीजा बेटियों के लिए खास मायने रखता है। अपने पति के लिए पहला व्रत रखने वाली बेटी के लिए मायके में विशेष तैयारी की जाती है। माता पिता अपनी हैसियत के अनुसार बेटी को नई साड़ी, जेवर तथा शृंगार का पूरा सामान देते हैं। मायके में सात प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। ये सात पकवान छत्तीसगढ़ के विशिष्ठ पारंपरिक व्यंजन होते हैं जिनमें- गुझिया, पपची, ठेठरी- खुर्मी, खाजा, अनर्सा, देहरौरी आदि शामिल होती हैं। सात प्रकार के इन सभी व्यंजनों की सात टोकरी बनाई जाती है, जिन्हें सात सुहागिनों को आलता, बिंदी, सिंदुर और कपड़ों के साथ भेंट स्वरूप बेटी के हाथों दिलवाया जाता है। उपवास के दूसरे दिन उन सात सुहागिनों को भोजन कराया जाता है। 
    तीन दिन तक चलने वाले इस लोक पर्व में पहले दिन करू भात खाने की परम्परा है। यानी करेले की सब्जी इस दिन के भोजन में आवश्यक होता है।भरवा मसाले वाली करेले की सब्जी के साथ चावल खा कर ही दूसरे दिन निर्जला व्रत रखा जाता है। इस दिन अपने रिश्तेदारों व पारिवारिक मित्रों को रात के भोजन के लिए बुलाया जाता है। इस तरह सब एक दूसरे के घर जा- जाकर करु भात खाती हैं। करू भात खाने के पीछे भी स्वास्थ्य- जनित कारण नर आता है। करेले को पेट के लिए बहुत अच्छा, पाचक और बीमारियों को मुक्त करने वाला माना जाता है अतः निर्जला व्रत के पहले दिन इसे खाने का कारण इसका पित्त नाशक होना साथ ही पेट में गैस बनने से रोकना माना जाता है। तभी तो बिना किसी तकलीफ से महिलाएँ दूसरे दिन यह निर्जलाव्रत रख पाती हैं।
दूसरे दिन प्रातः नीम की लकड़ी से दाँत साफ कर स्नान कर पूजा की तैयारी करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर फूलों से फुलेरा तैयार करती हैं। फुलेरा के बीच में लकड़ी का पट्टा रखकर बालू से शिवलिंग स्थापित करती है। पार्वती जी को सुहाग का पूरा सामान साड़ी, चूड़ी, बिंदी, सिंदूर आदि चढ़ा जाते हैं। मान्यता और विश्वास के चलते व्रत करने वाली महिलाएँ रात्रि जागरण करती हैं, इसलिए भजन- कीर्तन करते हुए रात बिताती हैं। हाथों में मेहँदी पैरो में आलता लगाती हैं। व्रत वाले दिन शंकर भगवान्  की तीन बार पूजा- आरती करती हैं और शिव पार्वती के विवाह की कथा सुनती और सुनाती हैं। तीज की कथाओं में इस बात का उल्लेख होता है कि इस व्रत को करने से सुहागिन स्त्रियों को शिव पार्वती अखंड सौभाग्य का वरदान देते हैं, वहीं कुँवारी लड़कियों को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है।
इसके साथ- साथ फलाहार की तैयारी भी आज ही करती हैं। पूड़ी, सब्जी और दाल चावल तो बनता ही है साथ ही सिंघाड़ा और और तिखूर का कतरा बनता है, जिसे दिन भर उपवास रखने वाली महिलाओं के पेट के लिए पाचक माना जाता है।
तीसरे दिन प्रातः स्नान कर मायके से मिली साड़ी पहन और सोलह शृंगार कर पूजा करती हैं। सभी महिलाएँ  एकत्र होकर बालू के शिवलिंग, फुलेरी आदि को नदी या तालाब में जाकर ठंड़ा करती हैं। सुहाग का सामान सुहागिन स्त्री को दान करने के साथ वस्त्र, दाल-चावल, सब्जी- फल, मिष्ठान्न आदि पंडित को भी दान करती हैं. तदुपरांत पूरा परिवार एक साथ बैठकर पूर्व रात्रि बनाए गए पकवान से व्रत तोड़ती हैं। जिस प्रकार पारिवारिक मित्र महिलाएँ पहले दिन एक दूसरे के घर जाकर करू भात खाने जाती हैं उसी तरह तीसरे दिन भी वे सब एक दूसरे के घर फलाहार के लिए जाती हैं।
इस प्रकार तीन दिनों का यह उत्सव समाप्त होता है। बेटियाँ प्रतिवर्ष इस पर्व का बेसब्री से इंतजार इसीलिए करती हैं क्योंकि यही एक अवसर होता है जब में अपने मायके में अधिक समय तक भाई बहनों और माता- पिता के साथ समय व्यतीत कर पाती हैं। बेटियों को मायके से विभिन्न प्रकार के उपहार, साड़ी और मिठाई आदि देकर विदा किया जाता है और वे अगले तीजा में वापिस मायके आने का सोचती हुई ससुराल चली जाती हैं।
हरतालिका तीज व्रत कथा -पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव जी ने माता पार्वती को इस व्रत के बारे में विस्तार पूर्वक बताया था। शिव भगवान् ने इस कथा में माँ पार्वती को उनका पिछला जन्म याद दिलाया था-
'हे गौरा, पिछले जन्म में तुमने मुझे पाने के लिए बहुत छोटी उम्र में क‍ठोर तप और घोर तपस्या की थी। तुमने ना तो कुछ खाया और ना ही पीया बस हवा और सूखे पत्ते चबाए। जला देने वाली गर्मी हो या कंपा देने वाली ठंड तुम नहीं हटीं। डटी रहीं। बारिश में भी तुमने जल नहीं पिया। तुम्हें इस हालत में देखकर तुम्हारे पिता दु:खी थे। उनको दु:खी देखकर नारदमुनि आए और कहा कि मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। वह आपकी कन्या की से विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ।
नारदजी की बात सुनकर आपके पिता बोले अगर भगवान्  विष्णु यह चाहते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं।
परन्तु जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला , तो तुम दुःखी हो गईं। तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछा तो तुमने कहा कि मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा।
तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी। उसने कहा-प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए। भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवन पर्यन्त उसी से निर्वाह करें। मैं तुम्हें घनघोर वन में ले चलती हूँ, जो साधना स्थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी नहीं पाएँगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे...
तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया। तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर माँगने को कहा ,तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा, ' मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं ,तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए। तब 'तथास्तु' कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया।
उसी समय गिरिराज अपने बंधु-बांधवों के साथ तुम्हें खोजते हुए वहाँ पहुँचे। तुमने सारा वृतांत बताया और कहा कि मैं घर तभी जाऊँगी अगर आप महादेव से मेरा विवाह करेंगे। तुम्हारे पिता मान गए औऱ उन्होंने हमारा विवाह करवाया। इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मनवांछित फल देता हूँ। इस पूरे प्रकरण में तुम्हारी सखी ने तुम्हारा हरण किया था इसलिए इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत हो गया।
हरतालिका तीज शब्द इसी किदवंती पर आधारित है जिसमें हरत का अर्थ अपहरणतथा आलिका का अर्थ सहेलीहोता है। हस्त नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ल तृतीया का वह दिन था। जब माता पार्वती ने शिवलिंग की स्थापना की तथा इस दिन निर्जला उपवास उखते हुए उन्होंने रात्रि में जागरण भी किया। जिसके कारण महिलाएँ दिन भर निराहार निर्जला उपवास रखती हैं तथा रात्रि में भजन कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करती हैं। (उदंती फीचर्स)

नागपंचमीः


खेतों के रक्षक देवता
हर साल सावन के महीने में शुक्ल पक्ष की पंचम तिथि को नागपंचमी को त्‍योहार मनाया जाता है। इस दिन नाग देवता की पूजा की जाती है। नाग पंचमी का त्योहार पूरे भारत में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध त्योहार है। नाग हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है। इस दिन नाग देवता की पूजा कर भक्त अपने लिए सुख, समृद्धि और सुरक्षा का वरदान मांगते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो नाग हमारी कृषि-संपदा की कृषिनाशक जीवों व कीटों से रक्षा करते हैं। पर्यावरण के संतुलन में नागों की  महत्त्वपूर्ण  होती है। अतः छत्तीसगढ़ सहित देश के अन्य प्रदेशों में नागपंचमी का पर्व कृषक जीवन से भी जुड़ा हुआ है। नागों की सुरक्षा करना यानी अपनी कृषि-संपदा और समृद्धि को सुरक्षित करना है। यही वजह है कि जब किसी को सार्वजनिक जगह में साँप दिखाई देता है, तो उसे मारने के लिए मना किया जाता है जहरीला जीव होने की बाद भी इसे इसीलिए जीवित रखा जाता है; क्योंकि ये हमारे खेतों में खड़ी फसल को चूहों व अन्य विनाशकारी जंतुओँ से रक्षा करते हैं।
छत्तीसगढ़ में आज के दिन घर की दीवार पर साँप का चित्र बनाकर उसकी पूजा करते हैं। छोटे बच्चे अपनी स्कूल की स्लेट में साँप बनाकर पूजा करते हैं। प्रतिबंध के कारण अब सपेरे अपनी टोकरी में साँप लेकर नहीं घूमते ,अन्यथा एक समय था जब नागपंचमी के दिन घर-घर घूम कर वे दान प्राप्त करते थे। घरों में भी गृहणियाँ उनके लिए कच्चा दूध अलग से रखती थी और कटोरी में रखकर साँप को पिलाती थी। यदि किसी सर्प ने अपनी जीभ निकालकर दूध पी लिया तो वे अपनी पूजा को सार्थक मानती थीं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार नाग देवता को पाताल लोक का स्‍वामी कहा गया है। भगवान्  शंकर को नागों, सर्पों की माला को आभूषण की तरह धारण करते, शिवपुत्र गणेश को नाग को यज्ञोपवीत की भाँति पहनते, भगवान्  शिव के आशीर्वाद स्‍वरूप नाग पृथ्‍वी को संतुलित करते हुए मानव जीवन की रक्षा करते दिखाया गया है, इसी तरह भगवान्  विष्णु शेष नाग पर शयन करते हुए नजर आते हैं। इन सब  मान्‍यताओं के साथ भी यह पर्व मनाया जाता है। समुद्र मंथन के समय वासुकि नाग की ही रस्सी बनाई गई थी। यही कारण है कि आदि ग्रंथ वेदों में भी नमोस्तु सर्पेभ्य: ऋचा द्वारा सर्पो अर्थात नागों को नमन किया गया है। आमतौर पर नगापंचमी के दिन साँपों को दूध पिलाए जाने की प्रथा है। यद्यपि पूर्व में नागों को दूध से स्नान कराने की परम्परा का उल्लेख मिलता है संभवतः बाद में यह नाग को दूध पिलाने के रुप में बदल गई होगी। (उदंती फीचर्स)

बहुला चौथः


गौ माता की सत्यनिष्ठा का पर्व

भादो महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को बहुला चतुर्थी व्रत स्त्रियाँ करती हैं जिसे छत्तीसगढ़ में बहुला चौथ के नाम से जाना जाता है। यह चतुर्थी वर्ष की प्रमुख चार चतुर्थियों में से एक। इस दिन व्रत रखकर माताएँ अपने संतान की रक्षा हेतु कामना करती हैं। व्रत रखने वाली स्त्री पूजा के लिए तालाब से काली मिट्टी मँगाकर गाय, बछड़ा, शेर, पहाड़ तथा वन में पाए जाने वाले अन्य जीव-जंतु तथा बच्चों के लिए छोटे- छोटे खिलौने जैसे कंचे, भँवरा आदि बनाती है। इस दिन चन्द्रमा के उदय होने तक बहुला चतुर्थी का व्रत करने का विशेष महत्त्व माना जाता है। रात में चाँद निकलने के बाद विधि विधान से पूजा करते हैं। पूजा करके एक कथा कही जाती है जो गाय और शेर की होती है। कथा के बाद महिलाएँ अपना व्रत तोड़ती हैं। दूसरे दिन मिट्टी से बने गाय और शेर को तालाब में ठंडा कर देते हैं और खिलौनों को बच्चों को खेलने के लिए दे दिया जाता है।
इस व्रत में गाय के दूध का सेवन निषेध माना गया है। जौ के आटे का फलाहार करते हैं और पूजन के समय बहुला गाय की कथा कही जाती है।
 छत्तीसगढ़ में गाए जाने वाले एक सुआगीत में भी बहुला गाय का वर्णन है जो बहुला चतुर्थी के व्रत के समय कही जाने वाली कथा से बिल्कुल मिलती जुलती है।  छत्तीसगढ़ के सुआ नाच में यह इस प्रकार गाया जाता है-
आगू-आगू हरही, पीछू-पीछू सुरही
चले जाथे कदली कछार।
एक बन जइहे, दूसर बन जइहै
तीसर म सगरी के पार॥
एक मुँह चरिन, दूसर मुँह चरिन,
के बघवा उठय घहराय।
रहा-रहा सिंघमोर, रहा-रहा बघवा,
पिलवा गोरस देहे जाव॥
कोन तोर सखी, कोन तोर सुमित्रा
कउन ला देवे तै गवाह।
चंदा मोर सखी, सुरूज मोर सुमित्रा
धरती ला देहौं रे गवाह॥
एक बन अइहै, दूसर बन अइहै
तीसर म गाँव के तीर।
एक गली नाहकै, दूसर गली नाहकै,
तीसर म जाइ ओल्हियाय॥
अर्थात् हरही गाय के कुसंग में सुरही गाय चरने जाती है, वन में सिंह से भेंट होने पर वह खाने को उद्यत होता है। तब सुरही निवेदन करती है कि मैं अपने बछडे़ को दूध पिलाकर लौट आऊँ तब मुझे खा लेना। सिंह साक्षी माँगता है। गाय, चंद्र, सूर्य और धरती का विश्वास बताकर लौटती है। घर पहुँचने पर बछड़ा आशंकित होकर प्रश्न करता है, ‘माँ अन्य दिनों की तरह प्रसन्न न रहकर आज उदास क्यों हो?’ गाय कहती है, ‘अभी दूध पी ले, अब यह दूध तुमको दुबारा मिलने वाला नहीं, क्योंकि मैं हरही के संग में गई और मेरा विनाश हो गया। आज सिंह से सामना हो गया है। अभी दूध पिलाकर उसके भक्षणार्थ लौटना है। पर दूध पीने के बाद गाय के साथ बछड़ा भी सिंह के समक्ष जाता है और जाते ही सिंह को मामाम्बोधित कर राम-राम करता है। मामा सम्बोधन से सिंह स्नेहार्द्र होकर गाय को बहन मानकर खाने का विचार त्याग देता है। यह भी वर्णन मिलता है कि सिंह आगे चलकर अपने भानजे बछड़े से प्रार्थना करता है कि तुम मुझे मार डालो, भानजे के हाथों मरकर मुक्ति पा जाऊँगा।
इस प्राचीन धार्मिक कथा को छत्तीसगढ़ में लोकोक्ति बनाकर हरही के संग मा, कपिला के विनाश कहते हुए सारांश में बहुत कुछ कह दिया गया है। कम शब्दों में बड़ी बात कहना ही तो लोकोक्तियों का काम है।  यह कथा अन्य प्रांतों में भी लोकगीत के रूप में प्रचलित है, जो सामान्य जन के जीवन में रचबस गई है। इस कथा की लोकप्रियता इसी से स्पष्ट है कि बड़े बुजुर्ग बच्चों को बहुला गाय की कथा सुनाते हुए हिंसक पशु के मन में पारिवारिक प्रेम उत्पन्न करने का आदर्श प्रस्तुत कर मानवता का संदेश देते हैं।
पौराणिक कथाओँ में सिंह के हृदय-परिवर्तन में गाय की प्राणोत्सर्गी वचनबद्धता के साथ उसका पूर्व जन्म में गंधर्व होना, शापवश पशु-योनि पाना और बहुला गौ के दर्शन से शाप- मुक्त होना वर्णित है। पूजा के समय बछड़े द्वारा लात से सिंह को मारने की रस्म भी की जाती है। चाँदी की गौ बनाकर दान भी करते हैं। पूजा का फल मनोकामना पूर्ण करनेवाला, पुत्र-प्राप्ति करानेवाला कहा गया है।
कुछ लोग इस कथा को भगवान्  कृष्ण से जोड़कर सुनाते है- जब भगवान्  विष्णु ने कृष्ण रूप में अवतार लिया तब इनकी लीला में शामिल होने के लिए देवी-देवताओं ने भी गोप-गोपियों का रूप लेकर अवतार लिया। कामधेनु गाय भी कृष्ण के साथ रहने के विचार से बहुला नाम की गाय बनकर नंद बाबा की गौशाला में आ गई। भगवान्  श्रीकृष्ण का बहुला गाय से बड़ा स्नेह था। एक बार उनके मन में बहुला की परीक्षा लेने का विचार आया, और जब बहुला वन में चर रही थी तब वे सिंह रूप में प्रकट हो गए। सिंह को देखकर बहुला भयभीत हो गई। लेकिन हिम्मत करके बोली कि हे वनराज मेरा बछड़ा भूखा है। बछड़े को दूध पिलाकर मैं आपका आहार बनने वापस आ जाऊंगी। इस पर सिंह ने कहा कि मैं तुम्हें कैसे जाने दूँ, यदि तुम वापस नहीं आई तो मैं भूखा ही रह जाऊँगा। बहुला ने सत्य और धर्म की शपथ लेकर कहा कि मैं अवश्य वापस आऊँगी। बहुला की शपथ से प्रभावित होकर सिंह बने श्रीकृष्ण ने बहुला को जाने दिया। बहुला अपने बछड़े को दूध पिलाकर वापस वन में आ गई। बहुला की सत्यनिष्ठा देखकर श्रीकृष्ण अत्यंत प्रसन्न हुए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर कहा कि बहुला, तुम परीक्षा में सफल हुई, इसलिए अब से भाद्रपद चतुर्थी के दिन गौ-माता के रूप में तुम्हारी पूजा होगी। तुम्हारी पूजा करने वाले को धन और संतान का सुख मिलेगा। तभी से बहुला चौथ की परम्परा शुरू हुर्इ।
इस प्रकार बहुला चतुर्थी व्रत के पालन से सभी मनोकामनाएँ पूरी होने के साथ ही व्रत करने वाले मनुष्य के व्यावहारिक व मानसिक जीवन से जुड़े सभी संकट दूर हो जाते हैं। (उदंती फीचर्स)

भोजलीः


अच्छी फसल की कामना

 और मित्रता का पर्व
 छत्तीसगढ़ के पर्व त्योहारों में भोजली एक और कृषि पर्व है। श्रावण शुक्ल पंचमी से लेकर पूर्णिमा तक यह पर्व मनाया जाता है। सावन में नागपंचमी के दिन भोजली बोया जाता है। नवरात्र के अवसर पर जिस तरह से ज्वार (जवारा) बोने का रिवाज है, उसी तरह श्रावण माह में नागपंचमी के दिन भोजली बोया जाता है ज्वार को पुरुषों द्वारा जबकि भोजली महिलाओं द्वारा बोया जाता है और सेवा भी महिलाओं द्वारा ही की जाती है।
सुहागिन महिलाएँ व कुँआरी कन्या बाँस की छोटी- बड़ी टोकनी में मिट्टी भर कर धान, जौं, उड़द मिलाकर बोती हैं। पूर्व में इसके लिए अखाड़े से मिट्टी लाकर बोया जाता था। इसके बाद इन टोकरियों को छायेदार स्थान  में रखा जाता है। इसमें प्रतिदिन हल्दी पानी का छिड़काव करते हैं तथा विसर्जन तक रोज पूजा करते हैं। महिलाएँ प्रतिदिन भोजली गीत गाकर भोजली की सेवा करती हैं। भोजली का विसर्जन पूर्णिमा या उसके दूसरे दिन किया जाता है। लड़कियाँ और महिलाएँ सिर पर भोजली लेकर सरोने (विसर्जन) के लिए लोकगीत गाते हुए निकलती हैं।
देवी गंगा
देवी गंगा लहर तुरंगा
हमरो भोजली दाई के
भीजे आठो अंगा।
माड़ी भर जोंधरी
पोरिस भर कुसियारे
जल्दी जल्दी बाढ़व भोजली
हो वौ हुसियारे।
गीत में कहा जा हा है कि भोजली अंकुरित होकर मिट्टी से बाहर आ गई है ,पर उसके बढ़ने की गति कम है। अतः इससे अनुरोध करते हुए कहा जा रहा है  कि भुट्टा (जोंधरा) घुटने से ऊँचा हो गया और गन्ना (कुसियार) तो बहुत तेजी से बढ़ रहा है, सिर से ऊँचा हो गया है। तो हे भोजली जल्दी जल्दी बढ़ो और गन्ने के बराबर हो जाओ। इस तरह भोजली गीतों की लम्बी शृंखला है।
सावन की पूर्णिमा तक इनमें 4 से 6 इंच तक के पौधे निकल आते हैं। रक्षाबंधन की पूजा में इसको भी पूजा जाता है और धान के कुछ हरे पौधे भाई को दिए जाते हैं या उसके कान में लगाए जाते हैं। भोजली नई फ़सल की प्रतीक होती है और विसर्जित करते समय अच्छी फ़सल की कामना की जाती है। बहन और बेटियाँ भोजली की टोकनी अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए एक के पीछे एक चलती हुई बाजे-गाजे के साथ भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब की ओर प्रस्थान करती हैं।
भोजली ठंडा करते समय इसे पूरे गाँव में घुमाया जाता है जब गाँव के घरों के सामने से गुजरते हैं, तो गाँव की अन्य महिलाएँ भी भोजली की पूजा करती हैं। तालाब पहुँचकर भोजली की टोकरियाँ घाट में रखकर फिर भोजली की पूजा की जाती है। भोजली की सेवा करते- करते उससे इतना लगाव हो जाता है कि सेवा करने वाली महिलाएँ आँखो में आँसू भरकर उसकी बिदाई करती हैं।
कौशल्या माँ के मइके म
भोजली सेराबो हो,
भोजली सेराबो,
सिया राम के सँगे सँग तोला परघाबो,
अहो देवी गंगा । 
भोजली के पर्व को धान- बोनी के पर्व के रूप में भी देखा जाता है । खेत में धान बोने से पहले यहाँ का किसान छोटी छोटी टोकनी में विभिन्न किस्म के धान को अलग अलग टोकनी में बोता है , उसकी देखभाल करता है । इससे उन्हें यह अनुमान लगाने में आसानी हो जाती है कि किस धान की फसल कैसी होगी ।
भोजली को अलग-अलग राज्यों में  अलग-अलग नामों से जाना जाता है। मध्यप्रदेश, ब्रज और उसके निकटवर्ती प्रान्तों में में इसे भोजलियाकहते हैं। कहीं पर कजरी कहते हैं ,तो कहीं 'फुलरिया`, 'धुधिया`, 'धैंगा` और 'जवारा` (मालवा)।  इसे गढ़वाल में भी मनाते हैं, पर वह सावन में ही खत्मम हो जाता है। वहाँ पर इसे भाइयों के लिए बहने बोती हैं।

छत्तीसगढ़ में भोजली का एक और महत्त्व   है यहाँ यह इसे मितान  (मित्रता) के प्रतीक के रुप में भी मनाया जाता है। महिलाएँ भोजली विसर्जन के बाद थोड़ी सी भोजली अलग रख लेती हैं और वे एक दूसरे को भोजली देकर या उसके कान के पीछे डालकर मितानिन बदती (दोस्त बनाती) हैं। इस तरह उनकी दोस्ती का रिश्ता और मज़बूत हो जाता है जिसे वे जीवन भर निभाती हैं। भोजली बदने के बाद का यह रिश्ता इतना मजबूत होता है कि छत्तीसगढ़ में इसे खून के रिश्तों से भी बढ़कर माना जाता हैइतना कि तीन पीढ़ियों के बाद भी दोस्ती का यह रिश्ता प्रगाढ़ बना रहता है। जिस प्रकार जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे पारिवारिक कार्यक्रम में अपने रिश्तेदारों और परिचितों को आमंत्रित किया जाता है उसी तरह भोजली बदने के बाद मित्र और उसके परिवार को भी आमंत्रित किया जाता है। (उदंती फीचर्स)

हलषष्ठीः

संतान सुख की कामना का व्रत
हलषष्ठी का यह पर्व माताओँ द्वारा संतान प्राप्ति तथा संतान की दीर्घायु एवं उनकी सुख समृद्धि के लिए किया जानेवाला एक ऐसा पर्व है जिसे इस राज्य के हर वर्ग हर जाति की माताएँ करती हैं। 
छत्तीसगढ़ में हलषष्ठी को हलछठ, कमरछठ या खमरछठ भी कहा जाता है। यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। इस व्रत में विशेष प्रकार की पूजन सामग्री का उपयोग किया जाता है। लाल चावल जिसे पचहर चाँउर कहते हैं (बिना हल जुते हुए जमीन से उगा हुआ धान का चावल), महुआ के पत्ते, धान की लाई, भैस का दूध-दही व घी। इस व्रत-पूजन में छह की संख्या का अधिक महत्त्व है। जैसे- भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष का छठा दिन, छह प्रकार की भाजी, छह प्रकार के खिलौने, छह प्रकार के अन्नवाला प्रसाद जिसमें धान की लाई, भुना हुआ महुआ तथा चना, गेहूँअरहर आदि छह प्रकार के अन्न होते हैं को मिलाकर प्रसाद के रुप में बाँटा जाता है। 
व्रत वाले दिन दोपहर के बाद घर के आँगन में, मंदिर-देवालय या गाँव के चौपाल आदि में बनावटी तालाब (सगरी) बनाते हैं तथा उसके चारो ओर बेर, पलाश, गूलर आदि पेड़ों की टहनियों के साथ काशी के फूलों से सजाते हैं। नए कपड़े से रंग-बिरंगे झंडे बनाकर लगाते हैं। सामने एक चौकी या पाटे पर गौरी-गणेश और कलश रखकर हलषष्ठी देवी की पूजा करते हैं। पूजा में साड़ी तथा सुहाग की सामग्री भी चढ़ाते हैं। अधिकांशतः यह पूजा महिलाएँ समूह में करती हैं। गाँव में तो एक जगह सगरी बनाकर गाँव की सभी व्रत रखने वाली महिलाएँ एक साथ पूजा करती हैं। पूजा के बाद हलषष्ठी माता की छह कथा कहने का विधान है, जिसे पूजा करने वाली सभी महिलाएँ पूजा वाली जगह पर बैठकर सुनाती हैं। कई जगह पंडित बुलाकर भी पूजा करवाया जाता है और वही कथा भी सुनाते हैं।
चूँकि यह व्रत बच्चों के लिए है, अतः सगरी के आस-पास बच्चों के खिलौनों जैसे- भौंरा, बाटी गेड़ी आदि भी रखा जाता है। बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में गेड़ी (हरेली त्योहार के दिन बच्चों के चढ़ने के लिए बनाया जाता है) को भी सगरी में रखकर पूजा करते हैं। पूजन के बाद माताएँ अपनी संतान का पीठ में पोता (नए कपड़ों का टुकड़ा - जिसे हल्दी पानी से भिगाया जाता है) मारकर अपने आँचल से पोछती हैं जो कि माता के द्वारा दिया गया रक्षा कवच का प्रतीक होता है।
इस पर्व की खास बात यह भी है कि व्रती महिलाएँ पचहर चावल खा कर ही अपना व्रत तोड़ती हैं। साथ में भैंस का दूध दही व घी लेती हैं। पचहर चावल के साथ छह प्रकार की भाजी (साग) भी बनाती हैं, जिसमें कुम्हड़ा, मुनगा (सहजन), सेमी, तोरई आदि सब्जियों की भाजी, सेन्धा नमक तथा हरी मिर्च शामिल होती हैं। खाने के लिए थाली नहीं बल्कि महुआ पेड़ के पत्ते का दोना- पत्तल का ही उपयोग किया जाता है।
इस व्रत के बारे में पौराणिक कथा यह है कि वसुदेव-देवकी के 6 बेटों को एक-एक कर कंस ने कारागार में मार डाला। जब सातवें बच्चे के जन्म का समय नजदीक आया तो देवर्षि नारद जी ने देवकी को हलषष्ठी देवी के व्रत रखने की सलाह दी थी। देवकी ने इस व्रत को सबसे पहले किया जिसके प्रभाव से उनके आने वाले संतान की रक्षा हुई। सातवीं संतान का जन्म समय जानकर भगवान्  श्री कृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया कि माता देवकी के इस गर्भस्थ शिशु को खींचकर वसुदेव की बड़ी रानी रोहिणी के गर्भ में पहुँचा देना, जो कि इस समय गोकुल में नंद-यशोदा के यहाँ रह रही है तथा तुम स्वयं माता यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। योगमाया ने भगवान्  के आदेश का पालन किया जिससे देवकी के गर्भ से संकर्षण होकर रोहणी के गर्भ से संतान के रूप में बलराम का जन्म हुआ। उसके बाद देवकी की आठवीं संतान के रूप में साक्षात भगवान्  श्री कृष्ण प्रकट हुए। इस तरह हलषष्ठी देवी के व्रत-पूजन से देवकी के दोनों संतानों की रक्षा हुई।
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ कई तरह की लोक कथाएँ सुनाती हैं जैसे एक कथा में गाँव के तालाब में पानी न आने पर राजा द्वारा तालाब में पुत्र दान करने वाली कथा। पुत्र दान कर देने के बाद पुत्र के वापस आ जाने की बात होती है। एक और कथा में देवरानी के बच्चों को देखकर जेठानी उससे र्ष्या करती है, और उसके बच्चों को छल से मार देती है। परन्तु देवरानी द्वारा हलषष्टी देवी की विधिपूर्वक पूजा करने से उसके बच्चे वापस आ जाते हैं। इस तरह सभी कथाओँ में संतान के सुरक्षित लौट आने की बात होती हैं।
हलषष्ठी का पर्व भगवान्  कृष्ण व भैया बलराम से सम्बन्धित है। हल कृषि कार्य एक एक औजार है जो बलरामजी का प्रमुख हथियार भी है। बलदाऊ भैया कृषि कर्म को महत्त्व देते थे, वहीं भगवान्  कृष्ण गौ पालन को। इसलिए इस व्रत में हल से जुते हुए जगहों का कोई भी अन्न आदि व गौ माता के दूध, दही, घी आदि का उपयोग वर्जित है। इस दिन उपवास रखनेवाली माताएँ हल चलने वाली जगहों पर भी नहीं जाती हैं। (उदंती फीचर्स)