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Jan 16, 2019

उदंती.com जनवरी 2019

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संस्मरण विशेष

Jan 15, 2019

चुनाव और जनता की उम्मीदें

चुनाव और जनता की उम्मीदें 
डॉ. रत्ना वर्मा
 नये साल का स्वागत हम हर बार कुछ अच्छा करने का संकल्प लेकर करते हैं। इसी अच्छे की उम्मीद में जाते हुए साल के अंत में जनता ने छत्तीसगढ़ सहित तीन प्रदेशों में सरकारें बदल दीं। नववर्ष का सूरज सबके लिए उम्मीदों का परचम लहराते आया है। इस जीत से नई सरकार के हौसले बुलंद हैं और अब उनकी नज़र आसन्न लोकसभा चुनाव पर है। नई- नई घोषणाएँ, ढेर सारे वादे और बहुत सारे सपने...
 छत्तीसगढ़ राज्य की जनता ने पिछली सरकार को ज़रूरत से ज्यादा समय देकर कुछ ज्यादा ही पाने की उम्मीद कर ली थी। 15 साल का समय कम नहीं होता। पिछली सरकार चाहती, तो इन पन्द्रह सालों में राज्य को विकास की ऊँचाइयों पर ले जा सकती थी। जनता की उम्मीदों पर खरा उतर कर उनका विश्वास जीत सकती थी, परन्तु ऐसा हो नहीं पाया। अगर कुछ अच्छे काम हुए हों, तो भी बहुत सारे ऐसे काम जो होने थे, नहीं हुए। साल दर साल शासन-प्रशासन आकंठ भ्रष्ट्राचार में डूबता चला गया। अमीर और अमीर होते चले गए, गरीब और गरीब। जनता बस लोकलुभावन वादों में जीती रही और नेता अतिआत्मविश्वास के चलते दंभी होते चले गए। उन्हें लगने लगा- अब उन्हें कोई नहीं हरा सकता। जनता को बेवकूफ़ बनाते जाओ और अपनी तिजोरी भरते जाओ। नतीजा सबके सामने है।
प्रश्न यह उठता है कि प्रदेश की जनता अपनी चुनी हुई सरकार से क्या चाहती है- प्रदेश के समुचित विकास में उनका व्यक्तिगत विकास भी जुड़ा हुआ है, जिसमें उनकी वे मूलभूत आवश्यकताएँ आती हैं जिनपर उनका हक है- रोटी कपड़ा और मकान के साथ- साथ स्वच्छ पानी, पर्याप्त बिजली, सुविधाजनक सड़कें, साफ-सुथरा शहर। इसके साथ ही न्याय और कानून- व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, जो उनके जीवन को आसान और तनावमुक्त बनाए।
प्रदेशवासियों के लिए उनका प्रदेश उनकी आन-बान और शान होता है। छत्तीसगढ़ वह अभागा प्रदेश है, जो अलग राज्य बनने से पहले और राज्य बनने के बाद भी उपेक्षा ही झेलता आया है। भरपूर वन- सम्पदा और खनिज क्षेत्र में धनी होने के बाद भी उसका दोहन ही होता आया है। किसी ने नहीं सोचा कि इस सम्पदा से अपनी धरती को और सम्पन्न बनाते हुए अपनी जड़ों को और मजबूत करते हुए देशभर में एक अलग पहचान बनाई जाए। धान का कटोरा कहलाने वाले हमारे प्रदेश के किसान ही सबसे ज्यादा उपेक्षित और असहाय हो गए। इससे बड़ा दु:ख और क्या होगा कि पिछले कुछ सालों में यहाँ के किसान भी आत्महत्या करने को मजबूर हो गए हैं।  कृषि और कृषि आधारित व्यवसाय ही छत्तीसगढ़ की पहचान है और हम है कि अपनी पहचान को ही मिटाते चले जा रहे हैं। ऐसे में राज्य के विकास का दावा करना छत्तीसगढ़वासियों के साथ अन्याय होगा।
पुरातन जड़ों को अपनी धरती में समेटे हमारा प्रदेश कला और संस्कृति का गढ़ भी है। दु:ख की बात है कि  किसी समय में महाभारत जैसे महाकाव्य को पंडवानी लोक गाथा के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाने वाले हमारे प्रदेश की भव्यता कहीं गुम-सी होती चली जा रही है। जरूरत उस भव्यता को उसी शान-बान और आन के साथ लौटाने और सँजोकर रखने की है।
 इसमें कोई दो मत नहीं कि किसी भी सरकार का काम प्रदेश की जनता की खुशहाली और सम्पन्नता है। एक आम धारणा बन चली है कि सत्ता जिनके हाथों में होती है, उसे अपने कामों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित प्रसारित करने की लत लग जाती है और उनके मातहत सरकार को खुश करने के लिए ऐसा दिखावा भी करते हैं। यह धारणा टूटनी चाहिए। जमीनी हकीकत से न जुडऩे वाले तंत्र को लोकतंत्र नकार देती है। जनता को मुफ़्त में कितनी भी सुविधाएँ प्रदान कर दो, वे दो दिन में उडऩछू हो जाती हैं। मेहनत की कमाई में जो सुख और संतोष मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं।
  हकीकत तो यही है कि यदि विकास कहीं हुआ है ,तो वह दिखाई देता है। सड़कें यदि बनी हैं, तो उन,पर चलने वाली जानता को पता है कि सड़कें बनी हैं। गाँव -गाँव में बिजली पहुँची है, तो वह दिखाई देता है। कितने प्रतिशत औरतों के पास गैस सिलेंडर की सुविधा है ,ये वे औरते जानती हैं। किसानों को बीज, खाद, बिजली, पानी सही समय पर मिल रहा है या नहीं यह प्रत्येक किसान को पता है। कहने का मतलब यह कि सिर्फ पोस्टर में योजनाओं के पूरे होने और आँकड़ों को बढ़ा -चढ़ाकर दिखा देना सफलता या जीत की निशानी नहीं है।
 वैसे भी कागजी योजनाओं को जमीनी स्तर पर करके दिखाने के लिए किसी भी सरकार के पास पाँच साल का समय कम नहीं होता। यदि इरादे पक्के हों, तो हर काम मुमकिन है। सरकार चाहे जिसकी भी हो योजनाएँ प्रदेश के विकास और जनता की खुशहाली के लिए ही बनाई जाती हैं। फर्क उन योजनाओं को कार्यान्वित करने के तरीकों में होता है। इसके लिए दृढ़संकल्प की जरूरत होती है।
इस दिशा में सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने वीआईपी कल्चर का विरोध किरते हुए सादगी से जनसेवा करने की बात कही है, विश्वास है वे अपनी बात पर कायम रहेंगे और दिखावे की संस्कृति को अपनी सरकार से दूर रखेंगे। चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने की दिशा में भी भूपेश मंत्रिमंडल ने काम करना शुरू कर दिया है। ‘गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ के संकल्प के साथ शुरू हुआ नई सरकार का यह सफर उम्मीद है जनता की कसौटी पर खरा उतरेगा।
नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ-

यादें

भारत-म्याँमार सीमा क्षेत्र
अनाम सैनिक
- शशि पाधा
अस्सी के दशक की बात है, भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में बहुत तनाव की स्थिति थी। मणिपुर–नागालैंड के जंगली प्रदेशों में उग्रवादियों ने आतंक फैला रखा था। देश में अराजकता और अशांति फैलाने के उद्देश्य से चीन और पाकिस्तान इन्हें प्रशिक्षित भी कर रहे थे और घातक हथियारों से लैस भी। हर दिन सुरक्षा बलों पर घातक प्रहार या किसी को अगुआ करने की घटनाएँ घट रही थी। ये उग्रवादी थे तो इन्हीं प्रदेशों के निवासी लेकिन आतंक फैला कर ये कुछ दिनों के लिए म्याँमार (बर्मा) के बीहड़ जंगलों में छिप जाते थे। वे यह जानते थे कि म्यांमार (बर्मा) दूसरा देश है और भारतीय सेना सीमा का उल्लंघन कर के उनके कैम्पों में जाकर कोई कार्रवाही नहीं कर सकती। नागालैंड –बर्मा के उस सीमा क्षेत्र में उनके कैम्प भी स्थापित थे, जिनमें उन्हें लगातार अस्त्र –शस्त्र चलाने का प्रशिक्ष्ण मिलता था।
खैर, एक दिन भारत के सारे समाचार पत्र एक दु:खद समाचार की सुर्ख़ियों से भर गए। इन उग्रवादियों ने भारतीय सुरक्षा बलों की गाड़ियों पर घात लगाकर हमला किया, जिसमें सेना के 22 सैनिक शहीद हो गए। बस अब और नहीं, वाद-संवाद का समय नहीं - यही सोचकर भारत सरकार ने इनसे निपटने के लिए भारतीय सेना की एक महत्त्वपूर्ण यूनिट ‘प्रथम पैरा स्पेशल फोर्सेस’ को इनके कैम्प नष्ट करने तथा इन क्षेत्रो में अमन चैन स्थापित करने का निर्देश दिया। मेरे पति उन दिनों इस यूनिट के कमान अधिकारी का पदभार सम्भाले हुए थे। बिना समय गँवाए इस पलटन की एक टुकड़ी को हवाई जहाजों द्वारा मणिपुर –नागालैंड के क्षेत्र में उतार दिया गया।
जंगलों में छिपे उग्रवादियों को ढूँढना और उनके कैम्प नष्ट करना दुरूह कार्य था। इस इलाके में पहुँचते ही हमारी यूनिट की कमांडो टीम छोटी –छोटी टुकड़ियों में विभाजित कर दी गई थी। किसी टुकड़ी को हैलीकॉप्टर की सहयता से जंगलों में उतारा जाता था और कोई टुकड़ी पैदल चलते हुए छिपे इन उग्रवादियों को नष्ट करने में लगी रहती थी।  ऐसे दुर्गम क्षेत्र में भी हमारे बहादुर कमांडो सैनिक बड़ी मात्रा में उग्रवादियों के अस्त्र-शस्त्र और जान को हानि पहुँचाने में सफल हुए। इस अभियान में सैनिकों को कई बार अपने मुख्य कैम्प से दूर-सुदूर जंगलों में रैन बसेरा करना पड़ता था।
 एक बार भारत और म्याँमार के सीमा क्षेत्र में शत्रु की टोह लेते-लेते रात हो गई और हमारे सैनिकों ने एक पहाड़ी टीले पर अपना विश्राम स्थल बनाने का निश्चय लिया। इस के लिए सैनिकों की इस टुकड़ी ने उस जगह पर मोर्चे  खोदने आरम्भ किये। ज़मीन खोदते –खोदते उन्हें लगा कि टीले के एक ऊँचे स्थान पर मिट्टी में कुछ धातु की चीज़ें दबी हुई हैं। सैनिकों की उत्सुकता बढ़ी ,तो उन्होंने और गहरा खोदना शुरू किया। खुदाई करते करते उन्हें वहाँ दबी दो हैलमेट मिली। कुछ अधिक गहरा खोदने पर जंग लगी दो रायफलें और कुछ अस्थि अवशेष भी मिले। सैनिक अचम्भे में थे कि यह किसके हथियार हैं और किसके अस्थि अवशेष। सैनिकों ने रेडियो सेट के द्वारा बेस कैम्प में इन दबे हुए हथियारों और अस्थि अवशेषों के मिलने की सूचना दी। चूँकि रात बहुत अंधियारी थी और राइफलों पर इतना जंग लग चुका था कि इनकी पहचान असम्भव थी।
  अगली सुबह इन हथियारों और दोनों हेलमेट को बेस कैम्प तक पहुँच दिया गया । उनकी सफाई के बाद जब उनका जंग हटाया गया ,तो सेना अधिकारियों ने देखा कि उन पर जापानी भाषा में कुछ लिखा था। बहुत सोच –विचार के बाद ऐसा अनुमान लगाया गया कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय कोई दो जापानी सैनिक इस मोर्चे पर हुई शत्रु की बमबारी में मारे गए होंगे और वर्षों तक इसी में दबे रह गए होंगे। और ये अस्थि अवशेष भी उन्हीं गुमनाम सैनिकों के ही थे।
सैनिक धर्म के अनुसार मृत सैनिक चाहे किसी पक्ष का हो, किसी देश का हो उसका अंतिम संस्कार पूरी सैनिक रीति के अनुसार किया जाता है। हमारी यूनिट के अधिकारियों ने भी इन अज्ञात जापानी सैनिकों का वहीं पर अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया। यूनिट के धर्म गुरु की सहायता से उन गुमनाम सैनिकों को वहीं पहाड़ी के टीले पर दफनाया गया जहाँ वर्षों पहले विदेशी धरती पर उन्होंने अंतिम साँसें ली होंगी। उनकी हेलमेट को भी उनके अवशेषों के साथ वहीं पर दबा दिया और उस जगह एक चिह्न लगाया—‘विश्व युद्ध में शहीद हुए दो गुमनाम जापानी सैनिकों का स्मृति स्थल ।’ उनके हथियारों की सफाई के बाद उन्हें यूनिट में स्मृति चिह्न के रूप में रखा गया।
आज कश्मीर में हो रहे आतंकी हमलों की, उड़ी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के जीवित जलाए जाने की या कश्मीर में सुरक्षा बलों पर वहाँ के निवासियों द्वारा पत्थर फेंकने की तस्वीरें देखती हूँ मन बहुत क्षुब्ध होता है । आज बरबस मुझे लगभग 33 वर्ष पुरानी यह घटना याद आ रही है, जो मेरे पति ने नागालैंड – मणिपुर में किए गए हमारे सैनिकों के इस महत्त्वपूर्ण अभियान की तस्वीरें दिखाते हुए सुनाई थी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सैनिक केवल घातक प्रहार करने के लिए ही प्रशिक्षित नहीं होते। निष्काम भाव से राष्ट्र रक्षा के संकल्प के साथ-साथ मानवता की सेवा का भाव उनके कर्म और आचरण में सदैव विद्यमान रहता है।

आयो वसंता... सखी बन फूले रे ...

ॠतु–गीत की खामोशी
आयो वसंता... सखी बन फूले रे ...
कमला निखुर्पा
उत्तरांचल की हरी–भरी पहाड़ियों में धीरे–धीरे सुबह का उजाला फैलने लगा। मां ने मुझे जगाया और खिड़की खोल दी। धूप की किरणें मेरे घर की खिड़की से अंदर प्रवेश करने लगी। अलसाकर मैंने आंखें खोली। गुलाबी ठंड के मौसम में खिड़की से छनकर आती धूप की गर्माहट से मैं फिर से नींद के आगोश में चली गई।
चिड़ियों की चहचहाहट, गाय का अंबे–अंबे कहकर रँभाना सुनकर मैं जाग गई, देखा कि बाहर आंगन के कोने में स्थित शिलींग का विशाल पेड़ पीले फूलों से लद गया है। उसकी महकती खुशबू पूरे वातावरण को सुवासित कर रही है। अपने घर के सामने छोटे–छोटे सीढ़ीदार खेतों के किनारे रंग–बिरंगे फूलों से ढंक गये हैं। पीले–पीले प्योंली के नाजुक फूल मानो मुस्कराकर मुझे शुभ प्रभात कह रहे थे। प्रकृति के मनमोहक रूप को देखकर मैं ठगी सी रह गई।
अचानक मधुर स्वर लहरी गूँज उठी।
आयो बसंता...........
सखी बन फूले रे.............
ढोलक की थाप और मधुर कंठ स्वर सुनते ही मानो मन–मयूर नृत्य करने लगा, पैरों को पंख लग गये। आहा! वसंत आ गयाआज रूक्मा और देबू ऋतुगीत गाने के लिए आ रहे हैं।
रूक्मा–दुबली–पतली मंझोले कद और सांवले रंग की युवती है। ढेर सारा तेल लगाकर चोटी बांधती है। गुस्याणी (मालकिन) से माँगी हुई धोती पहनकर दुग्ध धवल दंतपंक्ति को चमकाती हुई सजी–धजी हमारे आंगन में आकर खड़ी हो गई। हम बच्चों की बानरसेना देखकर उसने अपनी धोती के पल्लू को कमर में खोंस लिया और बड़े नाज से पैरों में घुँघरू बाँधने लगी। सीधा–सामग्री रखने के लिए वह हमेशा अपने साथ सूप रखती थी जिसमें गृहस्वामिनी द्वारा दी गई सामग्री यथा चावल, आटा, तेल और पहनने के कपड़े रखे रहते थे।
रूक्मा का पति देबू अपने चितपरिचित अंदाज में बीड़ी फूँकने और खांसने में व्यस्त है। बीड़ी का एक कश लेता फिर खांसता, जैसे ही खाँसी रुकती फिर दूसरा कश लेता हुआ वह बीड़ी के टुकड़े को पूर्णत: समाप्त करने में जुटा है। रुक्मा इशारा करती है कि बस करो, बीड़ी को छोड़ो और ढोलक उठाओ। देबू बेमन से बीड़ी के ठूँठ को फेंककर ढोलक की रस्सियों को कसने लगता है। ढोलक की थाप के साथ एक गुरु गंभीर आवाज गूँज उठती है–
 चाँदी की दवात..........सोने की कलम...........
साथ ही थिरक उठते हैं रुक्मा के पैर और बज उठती हैं घुँघरू की झनकार । एक मीठी स्वर लहरी आसपास की पहाड़ियों से गूँजती हुई हर घर को ॠतुराज वसंत के आगमन की सूचना दे देती है।  राह चलता राहगीर ठिठक जाता और मंत्रमुग्ध होकर गीत सुनने के लिए दौड़ा चला आता। छोटे–छोटे बच्चे भी खेलना भूलकर रुक्मा के गीत की मिठास और घुंघरू की झनकार में खो जाते। कुमाऊं का प्रसिद्ध ऋतुगीत रुक्मा  के सुरीले कंठ से  झरने के कलकल की तरह फूटकर ऋतुराज वसन्त को अर्ध्य देकर स्वागत करता है। आंगन में रुक्मा और देबू नाचते गाते, ढोलक बजाते आशा भरी दृष्टि से घर के अंदर देख रहे हैं।
तभी अंदर से गृहस्वामिनी परात भरकर सीधा सामग्री (चावल,दाल,तेल,गुड़ आटा आदि) लाकर रूक्मा के सूप में डालती है। देबू ढोलक की थाप के साथ आशीषों की झड़ी लगा देता है। वापस जाती गृहस्वामिनी को रोक कर रूक्मा उनसे पुरानी साड़ी के लिए मनुहार करती है, साड़ी मिलते ही उसका उत्साह दुगुना हो जाता है। साड़ी को बडे़ प्यार से समेटकर अपने सूप के किनारे सजा देती है फिर सूप को सिर पर उठाकर छम–छम करती अगले घर की तरफ चल देती। हम सभी बच्चे भी उसके साथ–साथ चलते रहते।
वसंत ऋतु में पूरे सप्ताह भर रूक्मा के गीतों से घाटियाँ, पहाडि़याँ गूँजती रहती, उसके घुंघरू छम–छम करते रहते। चारों ओर खिले प्योंली के फूल, शिलींग के फूलों की सुगंधित बयार, घुघूती (पहाड़ी कबूतर) की घुर–घुर, न्योली पंछी की नीहू–नीहू वसंत ऋतु को और मादक बना देती। ऐसा लगता कि प्रकृति भी सरसों के फ़ूलों की धानी पीली चूनर ओढ़कर रूक्मा के साथ गा रही है, नृत्य कर रही है।
हर दूसरे दिन हमारे घर आना और कुछ न कुछ माँगना रूक्मा का नियम सा था। कभी तेल, कभी मिर्च, कभी पैसा। मेरी दादी अक्सर उसे देखकर भी अनदेखा कर देती। वह उपेक्षित सी दरवाजे पर बैठी इंतजार करती रहती, चीज मिलने पर ही जाती। मैं दादी से चाय बनाने की जिद करती ताकि रूक्मा को भी चाय मिल जाए। मुझ पर उसका विशेष स्नेह था क्योंकि मैं उसके ऋतुगीतों की श्रोता और उसके मधुर कंठ की प्रशंसक जो थी। खेतों में, बगीचे में, पानी के धारे में जहां भी वह मिलती, मैं उसे गीत सुनाने की जिद करती। वह मेरा आग्रह कभी नहीं टालती।
एक बार की बात है काफी दिनों तक वह नजर नहीं आई मैंने उसके चारों बच्चों को पूछा, कि रूक्मा कहां गई ? पता लगा कि वह एस.एस. बी की ट्रेनिंग के लिए गढ़वाल गई है। मैं उसके आने का व्यग्रता से इंतजार करने लगी। जिस दिन वह आई दूर से तो  मैं उसे पहचान ही नहीं पाई । नीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी, स्लेटी रंग का स्वेटर पहने वह पूरी मास्टरनी  लग रही थी। हमारे घर पर काफी देर तक बैठी रही और ट्रेनिंग कैम्प की बातें बताती रही। बड़े उत्साह से उसने बताया कि विदाई समारोह में उसके गीत को सुनकर सी.ओ. साहब रो पड़े। लोगों के अनुरोध पर उसने एक के बाद एक चार गीत सुनाए। उसे काफी सर्टिफिकेट भी मिले थे। रूक्मा को मलाल था कि इन सर्टिफिकेटों में क्या लिखा है उसे नहीं पता। उसका कहना था कि इसकी जगह एक सिलाई मशीन मिल जाती तो अच्छा रहता। लोगों के कपड़े सिलकर वह अपने बच्चों का पेट भर लेती।
समय धीरे धीरे गुजरता रहा। हम आठवीं पास कर गाँव के स्कूल से राजकीय इंटर कॉलेज में पढ़ने के लिए जाने लगे। मेरे कॉलेज का रास्ता उनके घर के पास से होकर जाता था। रोज कॉलेज जाते समय मैं उनके घर की ओर जरूर देखती थी। कैसी विडम्बना ! सुरों की स्वामिनी के घर से कभी संगीत की ध्वनि नहीं सुनाई देती थी। राग मल्हार , मालकोंस राग के स्थान पर चीख–पुकार और रोने–पीटने की आवाजें सुनाई देती थी। पीली मिट्टी और गोबर से लिपे–पुते उस जर्जर घर में रहने वाले जीवों का रुदन और खीज भरी आवाजें उनके अभावों और दुखों की दास्तान सुनाती थी। चाहते हुए भी कभी उस घर में जाने का साहस नहीं हुआ क्योंकि दादी माँ की छड़ी के मार का भय हरदम मन में समाया रहता था।
इस बार भी हर साल की तरह आम के वृक्षों में बौर आ गए हैं। आँगन में खड़ा शिलींग का रूख फिर से फूलों से लदकर खु्शबू फैलाने लगा है। हमारे आँगन और चबूतरे में पीले –पीले फूल बिखर गए हैं। शीतल मंद सुगंधित वासंती बयार बहने लगी है। पहाड़ियों में न्योली पंछी नीहू–नीहू की बेचैन रट लगाने लगी है। शिलींग के पेड़ के नीचे बच्चे फूल चुन रहे हैं। सभी के चेहरों में एक प्रश्न है, जिज्ञासा है। इस बार बसंत पंचमी का दिन भी बीत गया पर ढोलक की थाप नहीं सुनाई दी। कोकिल कंठी रुक्मा की सुरीली तान पहाड़ियों , घाटियों में नहीं गूंजी। आखिर क्या बात है ? क्या कारण है ? सभी चकित स्वर में एक ही प्रश्न कर रहे हैं–रुक्मा ऋतु गीत गाने  नहीं आई, देबू नहीं आया। हम अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाते , तेजी से दौड़ पड़ते हैं पहाड़ी के उस छोर की ओर जहाँ गाँव से हटकर एक अलग ही बस्ती है।  एक अलग ही दुनिया है, पहाड़ी ॠतुगीत की गायिका रुक्मा की दुनिया। डरते –डरते घर के अंदर जाकर देखा तो पाया कि सदैव कोहराम मचे रहने वाले रुक्मा के घर में आज मरघट की -सी शांति छाई हुई थी। अँधेरी कोठरी में बैठी रुक्मा बुझ चुके चूल्हे की राख कुरेद रही थी। हमें देखकर भी कुछ नहीं बोली चुपचाप सिर झुका लिया। बहुत पूछने पर उसने बताया कि वह अब कभी नहीं गाएगी।
रुक्मा क्यों नहीं गाओगी, बताओ ना ?
धनुवा ने मना किया है, अगर मैंने गीत गाए तो वह घर छोड़कर चला जाएगा। बच्चे जवान हो रहे हैं ; उन्हें मेरा नाचना गाना अच्छा नहीं लगता। आँसू पोंछकर बोली , तुम लोग जाओ अपने घरमैं अब कभी नहीं गाऊँगी।” हम सब उदास मन से घर लौट आए, ऐसा लगा कि कोई प्यारी -सी चीज खो गई हो, जैसे किसी अपने की मौत हो गई हो। सच में मौत ही तो हो गई थी । पारंपरिक वासंती ऋतुगीत की मौत – सुरीले पहाड़ी संगीत की मौत।
समय का चक्र अनवरत चलता रहा। दिन, महीने , साल बीतते गए। बचपन के सभी संगी–साथी अपने–अपने जीवन में ऐसे रमे कि सब कुछ भूल गए । भूल गए कि सुदूर उत्तर में पहाड़ी पर बसा एक सुंदर गाँव है, जहाँ आम के बगीचे में कोयल कूकती है, चीड़ के जंगलों, नदी की घाटियों में न्योली पक्षी की करुण पुकार सुन घास काटती पहाड़ी युवती, सीमा पर तैनात अपने फौजी पति को याद करके रो पड़ती है। जहां बसंत पंचमी के दिन से ऋतुगीत गूँजने लगते थे।
लंबे अरसे के बाद उस कोकिल कंठी रुक्मा से बाजार में मुलाकात हुई तो देखा कि वह सड़क के किनारे बोरी बिछाकर बैठी चूडि़याँ बेच रही थी। मुझे देखकर वह खुशी से भावविभोर हो गई। कु्शल–क्षेम पूछने पर बताया कि लंबी बीमारी के बाद उसके पति देबू की मृत्यु हो गई । पति की मौत के बाद गाँव छोड़ दिया, अब तो गांव का मकान भी खंडहर हो गया है। बहू से उसकी नहीं बनती इसलिए बेटे–बहू से अलग रहकर चूड़ियाँ बेचकर वह अपने दिन काट रही हैं। उसकी दुखभरी दास्तान सुनकर मैंने उसे कुछ दिन के लिए अपने साथ गाँव चलने के लिए कहा। हम दोनों गाँव की तरफ चल पड़े।
वही सर्पीली पगडंडियाँ, हरे–भरे सीढ़ीदार खेतों और बगीचों से गुजरते हुए जब हम पानी के धारे (पनघट)पर पहुँचे तो थककर चूर हो गए और बैठ गए। धारे का ठंडा पानी पीकर मैंने रुक्मा से कहा–“रुक्मा बुआ कुछ सुनाओ ना।”
चेली (बेटी) क्या सुनाऊँ ? सालों बीत गए गीत सुनाए हुए । सब भूल गए, गीत के बोल, सुर, लय सब भूल गई।”

ने जिद की – “मैं तो जरूर सुनूँगी। ऋतुगीत गाओ ना, वही वाला – आयो वसंता ....सखी बन फूले रे पिया............अपने को मना…”
मेरे बहुत आग्रह करने पर उसने ऋतुगीत की भूली–बिसरी पंक्ति को गाकर सुनाया। गीत सुनकर हमेशा की तरह मैं रुक्मा को दाद नहीं दे पाई, मेरे मुँह से तारीफ़ के बोल नही फ़ूटे। हैरान होकर मैं उसे देखती रह गयी, मानो मूक हो गई। रुक्मा की फटी–फटी सी आवाज, रुँधा- सा गला, आँखों से छ्लकते आँसू, अपनी पारंपरिक कला से विछोह की पीड़ा को व्यक्त कर रहे थे। थोड़ा सा गाने पर ही वह हाँफने लगी थी, सुनकर लगा समय की निर्मम चोट ने कोकिल कंठी के कोमल  कंठस्वर को सपाट कर दिया है। कहाँ गुम हो गई वह आवाज की मिठास ? स्वर का वह उतार–चढ़ाव जिसे सुनकर राह चलता पथिक भी राह भूल जाता था। गाँव के बड़े–बूढ़े मंत्रमुग्ध हो जाते।  यही नहीं छोटे–छोटे बच्चे भी खेलना भूल जाते थे। कहां खो गए परंपरा और संस्कृति के ॠतुगीतों के स्वर?
अब भी मैं कभी–कभी गाँव जाती हूँ तो एक अजीब सी उदासी मुझे घेर लेती है। अब ढोलक की थाप सुनाई नहीं देती। घुँघरू की रुनझुन खामोश हो गई है। मधुर स्वर लहरी अब घाटियों में नहीं गूँजती। कटते जंगलों से पंछियों के घोंसले उजड़ रहे हैं। अब सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुनाई देती। सुनाई देते हैं तो बस लाउडस्पीकर पर बजते फिल्मी गीतों का शोर, टीवी पर मार–काट के समाचार, विज्ञापनों की न खत्म होने वाली झड़ी और मोबाइल के बेसुरे रिंगटोन।
वसंत आज भी आता है, उदास होकर चला जाता है। टीवी को छोड़कर कोई पंछियों के गीत नहीं सुनना चाहता। आंगन में अब कोई भी शिलींग के फूल चुनने नहीं आता। शिलींग का वह सदाबहार वृक्ष भी अब उदास और बूढ़ा सा दिखाई देने लगा है। खेतों के किनारे खिले ओस से भीगे प्योंली के नाजुक पीले फूल भी रोकर मुरझा जाते हैं।सम्पर्कः प्राचार्या , केन्द्रीय विद्यालय पिथौरागढ़ ( उत्तराखण्ड)

बनारस की गलियाँ और पान की मिठास

बनारस की गलियाँ 
और पान की मिठास
डॉ. रत्ना वर्मा
बीते साल 2018  के अंतिम सप्ताह बहनों के साथ मैं बनारस की यात्रा पर थी। बहाना था बी.एच. यू .में भतीजी का दीक्षांत समारोह। चित्रों और फिल्मों में बनारस के घाटों और विशाल गंगा के तो खूब दर्शन किए थे पर घाट की इन सीढ़ियों पर यर्थाथ में चलने का आनंद तो वहाँ जा कर ही लिया जा सकता है। दरअसल धनुषाकार में बसे बनारस के इन घाटों के बारे में इतना कुछ पढ़ चुकी हूँ और न जाने कितनी फिल्मों में इसे देख चुकी हूँ कि मन में भ्रम सा होता है कि क्या में यहाँ आ चुकी हूँ... वरुणा और असी नदियों के संगम के किनारे बसे इस ऐतिहासिक-सांस्कृतिक और पौराणिक नगरी में घूमने की इच्छा बरसों से मन में दबी थी, जो अब जाकर पूरी हुई।
हमारा सफर शुरू हुआ पर कुछ विलम्ब से...रायपुर से रात बारह बजकर ग्यारह मिनट में छूटने वाली हमारी ट्रेन छह घंटे देरी से यानी सुबह छह बजे रवाना हुई। इस तरह रात दो बजे हम बनारस पहुँचे। रात के सन्नाटे में बनारस जैसे गहरी नींद में हो, खाली सड़कें और कँपकँपा देने वाली ठंड... 
भतीजी ने आॉनलाइन होटल बुक किया था, जो वैसा बिल्कुल भी नहीं था जैसा बताया या दिखाया गया था। हम तीन थे सो एक एक्स्ट्रा बेड लगाने की बात हुई थी। पर जो कमरा हमें दिया गया वह इतना छोटा था कि हम तीनों के बैग ही बमुश्किल कमरे में आ पाए थे। बाथरुम भी कुछ ठीक नहीं लगा।  खैर... थके थे तो किसी तरह चार घंटे उस दड़बेनुमा होटल में नींद लेकर सुबह उठते ही हमने होटल ही बदल लिया। दिन भर भले ही बाहर घूमना हो पर रात को तो सुकून की नींद चाहिए। हमें असी घाट के पास ही एक बिढ़िया सर्वसुविधा युक्त होटल मिल गया। वहाँ से जब चाहे तब पैदल ही घाट तक चले जाओ और गंगा की लहरों का आनंद लो। सुबह सूर्योदय देख लो शाम सूर्यास्त और चाहिए भी क्या था।
रात में बनारस की जो सड़कें सन्नाटे से बातें कर रहीं थीं, सुबह होते ही मंदिर की घंटियों और मस्जि़द से अजान की आवाज़ से गूँज उठा पूरा शहर... सूर्योदय के साथ ही बनारस की गलियाँ भी जैसे नींद से जाग जाती हैं। सड़क के किनारे गरम कुल्हड़ वाली चाय और गरमागरम नाश्ते की खूशबू... वड़ा पाव, दोसा, फ्राइड इडली और उत्पम....
होटल में सामान रख, घाट जाने से पहले सड़क किनारे ठेलों में बनते गरमागरम नाश्ते का मजा लिया। तय हुआ कि आज चप्पू वाली नाव में बैठकर गंगा की लहरों के साथ घाटों के दर्शन करेंगे। असी घाट पँहुच कर घाट की सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते हुए घाट पर बने भव्य महलों का स्थापत्य देखने ही लायक है। विभिन्न राजा महाराजाओं ने यहाँ अपने घाट बनवाए, मंदिर बनवाए और अपने महल भी बनवाए। प्रत्येक घाट, प्रत्येक महल और मंदिर की एक अलग ही कथा। तुलसीदास, रविदास, रामानन्द जैसे अनेक महान मनीषियों ने काशी में आश्रय लिया था। घाट पहुँचकर एक अलग ही तरह का रोमांच हो आया... और मैं सोचने लगी कि भ्रम नहीं, मैं यहाँ सचमुच हूँ... दूर तक गंगा मैया की शांत संगीत सी स्वरलहरियाँ हमें अपने पास आने का आमंत्रण दे रही थीं...
घाट पर देसी- विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी। ज्यादातर विदेशी, जो घाट के किनारे चलते हुए कभी ऊपर चढ़कर तो कभी सीढ़ियों पर बैठकर फोटो खिंचवाने में लगे थे। शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र होने के कारण स्कूल और कॉलेज के युवा भी बड़ी संख्या में नज़र आ रहे थे। गंगा में डुबकी लगाने वालों श्रद्धालुओं की भी कमी नहीं थी। जैसे ही हम असी घाट की सीढ़ियाँ उतरे हमने देखा एक दुबली पतली साँवली -सी तीखे नैन-नख्श वाली खूबसूरत सी लड़की बेहद चटकीले रंगों वाला लहँगा- चुनरी पहन कर फोटो शूट करवा रही है। हमें लगा शायद क्षेत्रीय फिल्म की शूटिंग चल रही है। हम थोड़ी देर उस सेट के पास खड़े हो कुछ समझने का प्रयास करते रहे । जब वह लड़की दूसरे कपड़े बदलने एक तरफ गई तो मौका देखकर हमने भी रंग बिरंगे उसके सेट के पास खड़े हो फोटो खींच लिया। क्या शूट किया जा रहा है पूछने पर उनकी टीम के एक लड़के ने कुछ उपेक्षा भाव से बताया एक एलबम के लिए शूट कर रहे हैं। हम भी उसी तरह का उपेक्षा का भाव दिखा कर आगे बढ़ गए।
दीदी ने नाव वाले को फोन पहले ही किया कर दिया था। नाव वाला दीदी का पूर्व परिचित था, वे पिछले साल कार्तिक पूर्णिमा में अपने दोस्तों के साथ बनारस आ चुकी थीं। अनिल नाम था नाव वाले का। उसने दीदी को अपना मोबाइल नम्बर देकर रखा था। वह समय पर आ गया उसने हमें फोन करके तुलसी घाट पर आने के लिए कहा। उसकी नाव तुलसी घाट पर लगती थी। सब नाव वालों की अपनी जगह निर्धारित थी। उसने हम तीनों को सावधानी से अपनी नाव पर बिठाया और चप्पू चलाते हुए गंगा की लहरों के साथ एक घाट से दूसरे घाट अपनी नाव बढ़ाते चले गया।
चप्पू वाली असंख्य नावों के बीच एक दो मंजिला स्टीमर था और कुछ मध्यम आकार के मोटर बोट, जिनमें बड़ी संख्या में पर्यटक बैठ सकते हैं। वैसे अनिल ने भी अपनी नाव में मोटर फिट करके रखा था। चप्पू से नाव चलाने का अलग किराया और मोटर से चलाने का अलग। बड़े मोटरबोट को लेकर उसकी नाराजगी साफ दिखी। उसने कहा पीढ़ी दर पीढ़ी हम नाव वाले गंगा मैया की सेवा करते आ रहे हैं सरकार बड़े- बड़े मोटर बोट लाकर हम चप्पू चलाने वालों के पेट पर लात मार रही है। उसकी नाराजगी अपनी जगह सही थी।
यद्यपि उसने गंगा की सफाई को लेकर अच्छी बातें कही कि अब घाट भी साफ सुथरे हैं और गंगा का पानी भी, पर अभी सफाई पूरी नहीं हुई है, आज भी बड़ी बड़ी फैक्टरी का काला पानी गंगा में ही आकर मिलता है, उसे रोकना ज्यादा जरूरी है। इसके बाद अपने असली रोल में आ गया अनिल। फिल्म गाइड के राजू गाइड के देवानंद की तरह हमारा अनिल गाइड भी घाटों से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक कथाओं को बताने में जरा भी कमजोर नहीं पड़ रहा था। उसने हरिश्चन्द्र घाट की कथा सुनाई, तिरछे हो चुके मंदिर की कथा बताई, साथ में और भी कई किस्से कहानियाँ पूरे रास्ते भर चलते रहे... अनिल के पास एक और खूबी थी वह बहुत अच्छी तस्वीरें भी उतारता था। बीच बीच में वह नाव को गंगा की लहरों के हवाले कर देता और हमारी मोबाइल ले तस्वीर उतार देता। नाव पर उसने हम तीनों बहनों की कई अच्छी तस्वीरें उतारी।
अस्सी घाट से तुलसी घाट तक तो हम पैदल ही आ गए थे उसके आगे के घाटों को नाव में बैठकर पार करते हुए दशाश्ववमेध घाट और उससे भी आगे नये बने विशाल पुल के करीब तक गंगा की लहरों के बीच तीन चार घंटे घूमते हुए हम तीनों बहनों ने बहुत आनंद उठाया। बीच में प्रवासी पक्षियों को दाना खिलाते हुए पक्षियों को एकदम पास से देखना और उनके साथ फोटो खिंचवाने में बड़ा मजा आया। पक्षियों को पास बुलाने के लिए नमकीन के पैकेट बेचने का व्यापार भी नाव वालों के बीच खूब फल- फूल रहा है। 
मन तो नहीं भरा था पर शाम को गंगा आरती में भी शामिल होना था सो अनिल ने अपना चप्पू छोड़कर मोटर चालू कर दिया। उसने कहा यदि चप्पू चलाते हुए लौटेंगे तो आप शाम की आरती नहीं देख पायेंगी। चालाकी तो की उसने पैसा चप्पू वाले नाव का लिया और वापसी में मोटर चला लिया। पर हमारे पास दूसरा रास्ता नहीं था। हमें उसकी बात माननी पड़ी। वापस उसने हमें तुलसी घाट पर ही उतारा और कहा साढ़े पाँच बजे यहीं आ जाइएगा। तीन बज चुके थे अतः हमने घाट के पास ही एक जगह खाना खाया और होटल लौट गए। आधा घंटा आराम कर फिर वापस तुलसी घाट पहुँच गए। अनिल हमारा इंतजार ही कर रहा था। बोला जल्दी बैठिए भीड़ बढ़ रही है। हम नाव की ओर जैसे ही बढ़े एक छोटा, पाँच छह साल का बच्चा हरे पत्तों के दोने में फूल और दिया रखे हमारे पास आ गया। बच्चे का भोला चेहरा और गंगा में दीपदान करने की चाह में हमने उससे पूछ लिया- कितने का है। उसे कहा दस रुपये। तब अनिल बोला ये तो साथ ही जाएगा। आरती के बाद वापसी में जहाँ आप दीये गंगा मैया में छोड़ेंगी तब पैसे दे दीजिएगा। और वह हम लोगों के साथ हो लिया। तुलसी घाट से दशाश्वमेध घाट तक पहुँचते-पहुँचते छह बज गए। अंधेरा घिर आया था। घाट की फ्लड लाइटें जल गईं थी जो गंगा की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रही थीं। यद्यपि वे तेज लाइट हमारी आँखों को चौधिंया रही थीं। मन में तो यही आया ये न होती तो गंगा आरती का मंजर कुछ और ही होता।
अनिल ने नाव एक जगह लगा दी। चारो तरफ नाव ही नाव सैकड़ों की तादाद में लोग आरती देखने आए थे। समाने घाट पर भी भारी संख्या में पर्यटकों और श्रद्धालुओं की भीड़। दो जगह आरती की तैयारी दिखाई दी। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद आरती शुरू हुई। चारो तरफ से आरती के फोटो लेने मोबाइल के कैमरे चमक उठे। गंगा आरती का अपना एक अलग ही ओज है, जो कई चरणों में सम्पन्न होती है।
गंगा आरती को देखने दूर- दूर से लोग आते है। विदेशी सैलानी तो बनारस की गलियों की संस्कृति और गंगा घाट के साथ आरती की इस भव्यता को आश्चर्य के साथ देखते हैं। इस तरह हमने ठिठुरती ठंड में लगभग एक – ढेड़ घंटे नाव में बैठे- बैठे गंगा आरती की भव्यता के दर्शन किएl वापसी में जब नाव की भीड़ थोड़ी छँटी तो साथ बैठे बच्चे से तीन दोने लेकर दीपक जलाए और गंगा की लहरों में अर्पित कर दिए। इस तरह गंगा मैया को प्रणाम कर हर- हर गंगे कहते हुए वापस लौट गए। अनिल को हिदायत भी देते आए कि कल अलसुबह गंगा के उस पार जाएँगे और डुबकी भी लगाएँगे। अनिल ने हाँ तो कहा फिर शंका भी जाहिर की कि कल से हम नाव वाले अपनी माँगों को लेकर हड़ताल पर जाने वाले हैं, इसलिए कल सुबह ही बता पाऊँगा कि उसपार जाना हो पाएगा या नहीं।
अब रात के खाने के पहले हमारे पास फिर काफी समय था। दीदी ने बताया कि आस-पास के प्रसिद्ध मंदिर चलते हैं देर रात तक यहाँ दर्शन होते हैं। यद्यपि सब बहुत ही पास- पास थे पर समय बचाने के लिए हमने आटो ले लिया। सबसे पहले जानकी कुंड होते हुए दुर्गा मंदिर, फिर मानस मंदिर और अंत में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा बनवाया गया संकटमोचन मंदिर। रात में भीड़ कम थी अतः दर्शन जल्दी- जल्दी और बहुत आराम से हो गए।  मानस मंदिर की दीवारों पर सम्पूर्ण तुलसी चरित मानस उकेरा गया है, दो मंजिले इस मंदिर के प्रत्येक दीवार पर तुलसीदास की चौपाइयों को बड़े-बड़े अक्षरों में बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया है। मानस मंदिर की इन दीवारों को देखना अद्भुत अनुभव रहा। तो इस तरह घाट और गंगा की लहरों के साथ बीता हमारा पहला दिन।
दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के दर्शन के लिए अस्सी घाट जाना था। पर हम सुबह जल्दी उठ नहीं पाए। जब उठे तो पता चला कि कोहरा इतना घना है कि सूर्य देवता तो देर से ही दर्शन देंगे। अनिल से पता चला नाव वालों की हड़ताल भी शुरू हो गई है। सो गंगा पार जाना भी स्थगित करना पड़ा। इसलिए तीनों तैयार हुए और बाहर गरमागरम दोसा खाकर सारनाथ के लिए निकल पड़े।
पता चला सारनाथ यहाँ से मात्र 13 किलोमीटर दूर है। अतः होटल वाले की सलाह पर आटो लेकर ही जाना तय हुआ। आटो में बैठने से पहले हमने उससे कहा रास्ते में कहीं ओस वाली मलैया मिले तो खिलाते हुए चलियेगा। थोड़ी ही दूर चलने पर बनारस की प्रसिद्ध ओस मलैया की एक दुकान मिल गई। आटो वाले ने हमें कहाँ जाइये मलैया खा आइये हम यहीं इंतजार कर रहे हैं। मलैया वास्तव में बेहद स्वादिष्ट थी । वहाँ रुक कर मलैया खाई बहुत ही स्वादिष्ट मुँह में डालते ही घुलने वाली। आनंद आ गया।
सुबह बहुत भीड़ नहीं था हम जल्दी ही सारनाथ पहुँच गए। सारनाथ वह प्रसिद्ध स्थल है जहाँ गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। वहाँ सारनाथ की प्राचीनता का बोध कराता धमेख स्तूप है। साथ ही खुदाई में प्राप्त अनेक छोटे बड़े स्तूप के साथ बौद्धविहार और मंदिरों के इस विशान परिसर में वह मूल अशोक स्तंभ भी है जो तुर्की आक्रमण के दौरान टूट गया था। 1950 में राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकार किए गए इस स्तंभ के ऊपर का मुख्य हिस्सा संग्रहालय में रखा है बाकी स्तंभ के नीचे के दो टूटे हुए हिस्से परिसर में सुरक्षित रखे गए हैं। पर शुक्रवार होने के कारण हम संग्रहालय देखने से वंचित हो गए।
सारनाथ में तीन- चार घंटे बीताकर और किनारे लगे दुकानों से कुछ बनारसी बैग लेते हुए लौटते समय एक  कपड़े की लूम भी देखने गए, खट- खट करते लूम की बुनाई भी देखी। वहाँ से कुछ कपड़े भी खरीदे। सुबह रास्ते में लमही छह किलोमीटर का बोर्ड देखकर सोचा सारनाथ से वापसी में लमही भी जाएँगे पर शाम हो जाने के कारण लमही जाना स्थगित करना पड़ा। शुक्रवार होने के कारण सारनाथ का संग्रहालय भी बंद था उसका रंज तो था ही और अब लमही भी छूट रहा था। एक कसक तो रह ही गई कि न जाने अब बनारस आना भी होगा या नहीं। खैर... जितना देखा उतने में ही खुश हो कर हम वापस शहर की ओर लौट आए। 
अँधेरा घिर रहा था पर अब भी हमारे पास फिर कुछ समय था। होटल जाने की बजाय हमने सोचा यहाँ का मुख्य बाजार गदौलिया हो आएँ  और वहाँ की कुछ चटपटी चीजें खाई जाएँ। सो पहुँच गए बनारस के काशी चाट भंडार में। वहाँ टमाटर चाट और कुछ और चटपटी चीजों का स्वाद चखा फिर पैदल- पैदल लोगों की भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ने लगे।
बनारस जाओ और बनारस का पान न खाओ ये कैसे हो सकता था। पर हमें पता नहीं था कि कहाँ बढ़िया पान मिलेगा। चलते हुए एक पान की दुकान के पास रुक गए। थोड़ी देर उसके पास आने जाने वालों खरीददारों को देखते रहे, लगा स्थानीय लोग आ जा रहे हैं जरूर अच्छा पान बनाता होगा।
थोड़ा झिझकते हुए पास पहुँचे। जैसे हम पान खाने के आदी हों वैसे तीन पान का आर्डर दे दिया और एक तरफ किनारे खड़े होकर इंतजार करने लगे। हमें क्या पता था कि तीन पान बनाने में 10 मिनट से भी ज्यादा समय लग जाएगा। हम थोड़ा परेशान भी ही गए। पान वाले ने तीन मीठे पान के पत्ते सामने रखे और एक के बाद एक न जाने कितने प्रकार के  मसाले डाले उसके हाथ लगातार कुछ न कुछ डालते हुए तेजी से चलते ही रहे। हम तीनों चकित होकर एक दूसरे का चेहरा ताकते रहे की ये हमें एक  पान खिलाएगा या पूरी पान की दुकान। गजब तो यह कि हमारे तीन पान बनाते- बनाते उसने आठ दस ग्राहकों को भी निपटा दिया था। एक रहस्य जरूर था वे सब पान तो नहीं ही ले रहें थे, हाँ किसी एक को हाफ सिगरेट माँगते जरूर सुना, पान वाला डब्बों से कुछ निकालता इतनी सफाई से उनकी माँगी हुई वस्तु उनके हाथ में थमाता और पैसे लेता की हम समझ ही नहीं पाते किसने क्या माँगा और क्या ले गया। खैर हमारा पान 15- 20 मसाले डलने के बाद हमारे हाथ में आ ही गया। हमने पहले पैसा तो पूछा नहीं था  पान मुँह में डालने के बाद ही पूछा कितना? उसने 60रु .कहा। हमने पैसा चुकाया यह सोचते हुए कि इतने स्वादिष्ट पान मात्र 20रु..। पान के स्वाद का आंनद लेते हुए खुश- खुश हम दो कदम चले ही थे कि पान मुँह में घुल गया। हम चकित एक दूसरे को देखते रहे। मेरा मन किया एक साथ दो- चार पान और बँधवा लेना था। पर वहाँ 10-15 मिनट खड़े होकर पान बँधवाना नहीं थी। सोचा -कल फिर खा लेंगे, लेकिन वह कल आया नहीं। हम पान के लिए वक्त नहीं निकाल पाए। पान तो कई बार खाने को मिले पर मेरी याददाश्त में मैंने वैसा पान तो इससे पहले कभी नहीं खाया था। इस तरह पान की मिठास के आनंद में डूबे थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद ई-रिक्शा ले हम होटल लौट आए।
तीसरे दिन सुबह मेरी नींद जल्दी खुल गई। बनारस के घाट का सूर्योदय जो देखना था। पहले दिन तो हम उठ नहीं पाए थे। मैं सोचकर सोई थी कि आज तो सूर्योदय के लिए घाट जाना ही है। दीदी के सिर में दर्द था तो, उसे सोता छोड़ हम दोनों बहने गरम कपड़ों से लैस हो असी घाट की ओर चल पड़े। सुबह के असी घाट की गली का नजारा भी देखने लायक था। किनारे दाढ़ी बनाने वाले सामने पत्थर रखकर बैठे ग्राहक का इंतजार कर रहे थे। पहले पत्थर में एक व्यक्ति ही अभी दाढ़ी बनवाने पहुँच पाया था। एक किनारे प्लास्टिक के कैन की दुकान थी, जिसमें श्रद्धालु गंगा का पानी भरकर लाते हैं। घाट के आस पास चाय वाले चाय की केतली लिए घूम रहे थे। असी घाट में बोधिवृक्ष के नीचे साधु धुनी रमाए बैठे थे। साथ में एक कुत्ता भी स्वेटर पहने उनका साथ दे रहा था। मैंने मोबाइल से एक- एक यादगार तस्वीर उतार और घाट से नीचे उतर स्टीमर में चढ़ने के लिए बनाए पाथ तक पहुँचे। हमारी तरह काफी लोग वहाँ सूर्योदय का इंतजार करते मिले। प्रवासी पक्षियों को नमकीन दाना खिलाने का दौर यहाँ भी चल रहा था। धुंध छटी और सूर्य देवता ने दर्शन दिए। कुछ फोटो खींच और घाट में थोड़ी देर चाय पीते हुए बैठ कर वापस लौट आए।
आज का दिन महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा 1116 में स्थापित बनारस हिन्दू  विश्वविद्यालय में भतीजी के दीक्षांत समारोह के लिए था। भतीजी अपने दोस्तों के साथ हॉस्टल में रुकी थी, पर सुबह तैयार होने हमारे पास होटल आ गई थी। हम सब तैयार होकर ओला लेकर लगभग 11 बजे विश्वविद्यालय पहुँच गए। वहाँ पता चला भतीजी को डिग्री लंच के बाद प्रदान किया जाएगा। तब तक हम विश्वविद्यालय के विशाल परिसर में घुमते रहे।
बी.एच.यू. परिसर इतना बड़ा है कि पैदल तो घुमा ही नहीं जा सकता। भतीजी के विभाग तक पैदल आने- जाने में ही लंच का समय हो गया। लंच लेकर हाल में पहुँचे जहाँ डिग्री दी जानी थी। सबने अपना स्थान ग्रहण किया और कार्यक्रम शुरू हुआ। तालियों के बीच भतीजी को भी डिग्री प्रदान की गई। सेरेमनी के बाद वह ग्रुप फोटो खिंचवाने वहीं रुक गई तब तक हम परिसर में स्थित विश्वनाथ मंदिर देखने बाहर आ गए। इतना भव्य और बड़ा परिसर कि समारोह स्थल से मंदिर तक जाने के लिए भी हमें रिक्शा लेना पड़ा था।
दर्शन करके वापस होटल पहुँचे तो रोज की तरह वह एजेंट आज भी हमारा इंतजार कर रहा था। पहले दिन से ही उसने हमें कह रखा था कि वह हमें बनारस की सिल्क साड़ियों की एक दुकान में ले जाएगा। उसने हमें देखते ही नमस्ते किया और पूछा भोलेनाथ के दर्शन हो गए। हमने कहाँ वहाँ तो कई घंटे लाइन में खड़ा होना पड़ता है और हमारे पास इतना समय नहीं है। तब वह बोला आप सुबह छह बजे वहाँ चलिए बहुत आराम से दर्शन हो जाएँगे। हमने उसे सुबह आने को कह दिया। इस तरह सुबह का कार्यक्रम बना कमरे में थोड़ी देर रुक कर रात का खाना खाने फिर निकल पढ़े बनारस की गलियों में पैदल पैदल।
बनारस में हमारा आखिरी दिन। वह एजेंट सुबह आ गया था उसने एक आटो बुला दिया और हमें बारह ज्योर्तिलिंगों में एक काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के लिए ले गया। गलियों को पार करते हुए जब सुरक्षा गार्ड की चेकिंग के पश्चात मंदिर परिसर में पहुँचे तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी पतली गलियों के बीच इतना भव्य मंदिर होगा। एजेंट के बताए अनुसार हमने बहुत अच्छे से दर्शन किए और पूरा मंदिर परिसर भी बड़े आराम से घूमे। मंदिर परिसर में सुरक्षा के इंतजाम देखकर समझ में आ गया कि यह पूरा क्षेत्र कितना संवेदनशील है। एक तरफ मंदिर एक तरफ मस्जिद बीच में काँटों के तार से घिरी मोटी दीवार ।
हमने मोबाइल पहले ही होटल में रख दिया था इसलिए बस चप्पल रखने एक दुकान में रुकना पड़ा और उसी दुकान से फूल और भोले बाबा को चढ़ाने के लिए दूध भी लेना पड़ा। चढ़ावे के लिए ५० रु. से लेकर १५० रु. की थाली। खैर हमें लम्बी लाइन लगाकर गलियों में दूर तक चलना नहीं पड़ा यह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि थी। क्योंकि पिछले साल दीदी को चार घंटे लाइन में लगकर भोले बाबा के दर्शन मिले थे। इसलिए हमने तो वहाँ जाना स्थगित ही कर दिया था।  पर काशी नगरी आकर भोले बाबा हमें खाली हाथ कैसे लौटाते...  इस तरह हमें भोले बाबा के दर्शन हो ही गए। जबकि हम तो बीएचयू के विश्वनाथ मंदिर के दर्शन पाकर ही खुश थे।
रविवार का दिन था इसलिए बनारस की दुकाने लगभग बंद थी। पर एजेंट ने हमारे लिए एक बनारसी साड़ी की एक दुकान खुलवा ही दी। बनारस तो गलियों का शहर है । वह बुनकरों के जिस दुकान में ले गया वह भी कई गलियों को पार करने के बाद ही आया। उसने कुछ लूम भी दिखाए जो छुट्टी का दिन होने के कारण बंद थे। सिल्क की साड़ियाँ कितनी असली थी ,कितनी नकली यह तो समझ नहीं आया ;इसलिए हमनें साड़ियाँ खरीदीं कमदेखीं ज्यादा।

आज रात हमारी वापसी थी। भतीजी भी हमसे मिलने आ गई थी। उसकी दिल्ली वापसी दो दिन बाद थी वह अपने दोस्तों के साथ नया साल बीएचयू में ही मनाना चाहती थी। वह हमें अपने कॉलेज के दिनों के वे अड्डे दिखाने ले गई जहाँ वह अपने दोस्तों के साथ बनारस की गलियों में कुछ खास पकवान खाया करती थी। पहले हम गए दशाश्वमेध घाट की एक गली में पिजारिया रेस्तराँ, जहाँ उसने हमें अपनी पसंद का खास पिज्जा खिलाया। खासियत यह कि यहाँ विदेशी पर्यटक भी पिजारिया का पिज्जा खाने आते हैं। एक छोटे से घर में चलाए जा रहे इस रेस्तराँ को केवल पति पत्नी ही चलाते हैं। पति आर्डर लेते हैं और भीतर छोटे से किचन में पत्नी एकदम ताजा डिश तैयार करके देती है। जितना आर्डर उतनी तैयारी...
भतीजी ने पहले ही पिजारिया से सफर के लिए उपमा पैक भी करा दिया था। इन तीन दिनों में हम ब्लू लस्सी नहीं पी पाए थे, बहुत तारीफ सुनी थी, सुने थे बनारस की ब्लू लस्सी की । सो कई गलियाँ पार कराके वह हमें ब्लू लस्सी पिलाने ले गई।  ब्लू लस्सी की दुकान तक पहुँचना किसी टास्क से कम नहीं था, पर हमने वह भी पूरा किया। कई गलियों से वापस भी लौटे, लोगों ने कहा आगे रास्ता बंद है क्यों, क्योंकि वहाँ भूकंप आया है। हम समझ नहीं पाए कि यहाँ भूकंप कब आ गया, तो बताया गया कि बनारस के अन्य भव्य मंदिरों के आस-पास हुए एनक्रोचमेंट को हटाने के लिए वहाँ काफी तोड़-फोड़ की गई है। जिसे बनारस वासियों ने भूकंप का नाम दिया है। लेकिन ये बात तो सत्य है कि मंदिरों के इस शहर में अनेक भव्य मंदिर गलियों के संकरेपन में कहीं गुम से हो गए हैं। न जाने कितने भूकंप यहाँ लाने पड़ेंगे, तब कहीं जाकर यहाँ मंदिर बाहर आ पाएँगे। 
किसी तरह हम ब्लू लस्सी की उस छोटी सी दुकान में पहुँचते हैं। दुकान पूरा नीले रंग से रंगा हुआ और उसकी दीवारों पर चारो तरफ ग्राहकों के फोटो ही फोटो साथ में लिखे मेसेज। हमने भी आर्डर दिया। अभी हम अपनी लस्सी समाप्त भी नहीं कर पाए थे कि वहाँ विदेशी सैलानियों की भीड़ बढ़ जाती है। हम अपनी लस्सी समाप्त करते- करते नीचे आ जाते हैं और विदेशी मेहमानों के लिए दुकान खाली कर देते हैं। एक ही व्यक्ति के लिए चलने वाली इस गली में अचानक भीड़ का एक रेला आ जाता है और हमें लगभग गली की दीवार से चिपकते हुए उन्हें जगह देनी पड़ती है। एक साँड भी दौड़ते हुए आता है। हम थोड़ा डर जाते हैं, पर वहाँ के लोग बड़े आराम से उसे जगह देते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
ब्लू लस्सी पीते हुए, कहना चाहिए खाते हुए हम दुकानदार को मलाईदार लस्सी बनाते हुए देख रहे थे कि हमें ‘राम नाम सत्य’ है कहते हुए घाट की ओर ले जाते शव के लिए भी जगह बनानी पड़ती है। मैं कुछ असहज हो जाती हूँ कि बहन ने यह कहते हुए शांत किया कि बनारस आकर मृत देह ले जाते हुए देखना शुभ माना जाता है। यही बात मणिकर्णिका घाट में जलते हुए शव देखने पर भी कही गई थी। हरिश्चन्द्र घाट के सामने तो हमने मृत देह को गंगा स्नान कराते हुए भी देखा थाजबकि सामान्यत: महिलाओं को इन सब कर्मकांडों से दूर रहने की सलाह दी जाती है। जबकि बनारस के घाटों में तो हर घड़ी मृत्यु से सामना होता है। दरअसल जीवन और मृत्यु दिनचर्या का अंग है, जिसे स्वीकार करके चलो तो जीवन की राहें आसान हो जाती हैं।
तो इस तरह घाटों की नगरी काशी में चार दिवसीय हमारी यात्रा पूरी हुई।  पर पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त की तर्ज पर हमारी भी यात्रा का अंतिम दृश्य अभी बाकी है....  रात में होटल से हमने सामान उठाया और चल पड़े रेल्वे स्टेशन की ओर... ओला वाले को भतीजी ने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि वह हमें एक नम्बर प्लेटफार्म पर ही उतारे। पर ओला वाला चालाक था वह जान गया था हम बनारस की गलियों से वाकिफ़ नहीं हैं सो उसने बड़ी चालाकी से हमें नौ नम्बर प्लेटफार्म में उतार दिया। हमारे पास उसकी शिकायत करने का समय नहीं था, क्योंकि इस बार हमारी ट्रेन सही समय पर चल रही थी। हम चाहते, तो भतीजी से कहकर ओला वाले की शिकायत कर सकते थे, क्योंकि उसने अपने मोबाइल से बुकिंग की थी और उसके पास उसका फोन नम्बर, नाम अता- पता सब कुछ मिल जाता ,पर हम कड़ुआहट लेकर यहाँ से वापस जाना नहीं चाहते थे। सामान उठाने एक कुली तय किया उसे एक नम्बर प्लेटफार्म पर चलने के लिए फिर दो सौ रुपये दिए। समय पर ट्रेन आ गई थी, हमने अपनी सीट पर बैठकर ही चैन की साँस ली और टेक्सी वाले की दगाबाजी भूल बिस्तर लगा लेट गए।...सपनों के लिए यादों में सँजोकर लाए थे बनारस के खूबसूरत घाट, बनारस की गलियाँ, सारनाथ के स्तूप, विहार और साथ में मीठी मलैया, ब्लू लस्सी, टमाटर चाट और बनारसी पान की मिठास....