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Nov 17, 2018

उदंती.com नवम्बर- दिसम्बर 2018

उदंती.com, नवम्बर- दिसम्बर 2018

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई...

कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई। 
- हरिवंश राय बच्चन



जीवन दर्शनः प्रेरणा लें हर एक से  -विजय जोशी

दिये की रोशनी और पटाखे...

दिये की रोशनी और पटाखे...
  -डॉ. रत्ना वर्मा
इन दिनों मेरी सुबह की सैर और चाय ,पक्षियों की चहचआहट के बीच होती है। मेरे घर के आस- पास अच्छी हरियाली है और वहाँ अनेक तरह के पक्षी, जिनमें गौरैया, मुनिया, बुलबुल, रॉबिन, हमिंग बर्ड, नीलकंठ, डव, कोयल, बया आदि यहाँ से वहाँ उड़ते दिखाई देते हैं, आसपास के पेड़ और झाड़ियों में इनका बसेरा है। गौरैया और मुनिया तो घर के बाहर चौबारे में प्रतिदिन दाना चुगने, पानी पीने आती हैं। सुबह इनसे बाते करके मेरा पूरा दिन खुशनुमा बीतता हैं। दीपावली के अवसर पर पक्षियों के बारे में बात करने के पीछे बहुत ही भावुकता भरा कारण है-  दीवाली का त्योहार मनाकर तीन दिन बाद जब मैं शहर लौटी ,तो अगली सुबह चाय के समय मुझे चिड़ियों की चहचआहट सुनाई नहीं दी। उनके लिए रखा गया दाना, जो वे पल भर में चट कर जाती थीं ,उस दिन भरा का भरा रह गया था। बहुत देर सोचने के बाद, बात समझ में आई कि लगातार देर रात तक पटाखों की आवाज से डरकर वे सब न जाने किधर उड़ गए हैं।  दो-तीन दिन बीतने के बाद धीरे- धीरे गौरैया और मुनिया डरते-डरते दाना खाने उतरने लगीं। पर कई दिन बीतने के बाद भी उनकी आवाजाही पहले की तरह उन्मुक्त नहीं हो पाई है। है न यह बात चिंतनीय....
दीपावली के दिन घर- आँगन को दिये जलाकर रोशन करने की परम्परा की शुरूआत कैसे हुई यह तो सबको पता है- भगवान राम जब लंका से रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे, तो अमावस की काली अँधियारी रात को घी के दीपक जलाकर राम का स्वागत किया गया था, जिसे हम आज तक निभाते चले आ रहे हैं, परंतु रोशनी के साथ पटाखे फोड़ने और आतिशबाजी करने की परम्परा क्यों और कैसे शुरू हो गई ,यह कोई नहीं जानता। खोजी लोगों ने खोज करने पर यही पाया कि कुछ व्यापारिक बुद्धि के लोगों ने धन कमाने के लिए दियों के साथ पटाखों को भी जोड़ दिया और खुशी प्रट करने का इसे भी एक माध्यम बना दिया, बगैर यह सोचे- समझे कि यह सब हमारी सेहत और हमारे पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है।
आरंभ में तो सिर्फ दीपावली के दिन ही पटाखे फोड़कर, फुलझड़ी चलाकर लोग आनंद मनाते थे लेकिन अब तो जैसे बिना पटाखों के कोई खुशी मनाई ही नहीं जा सकती। पिछले दिनों की बात है रात के बारह बजे पटाखों की लड़ियाँ फूटने की आवा से नींद खुल गई। दूसरे दिन पता पता चला पड़ोस में बेटे का जन्मदिन मनाया जा रहा था। कहने का तात्पर्य यही कि शादी, जन्मदिन जैसे व्यक्तिगत खुशी के मौकों पर भी लोग पटाखे फोड़ने लगे हैं। सड़क में हजारों- हजार पटाखों की लम्बी लड़ियाँ फोड़ना तो आज जैसे स्टेटस सिम्बल बन गया है। बड़े सार्वजनिक उत्सव जैसे गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव, दशहरा, ईद, क्रिसमस, नया वर्ष, आदि उत्सव और त्योहार भी अब बगैर पटाखों के नहीं मनते।
यूँ तो प्रदूषण के बढ़ते खतरों से सचेत रहने की बात बरसों से की जा रही है। पटाखों के नुकसान के लिए भी हमारे पर्यावरणविद् चेतावनी देते आ रहे हैं, आज जब पानी सिर से ऊपर पहुँच गया तब  सुप्रीम कोर्ट को भी कुछ फैसले लेने पर मजबूर होना पड़ा। यद्यपि फैसला प्रभावशाली नहीं बन पाया। दीपावली के कुछ दिन पहले कैसे यह निधारित होगा कि पटाखों पर हानिकारक केमिकल का इस्तेमाल नहीं हुआ है और कौन सा पटाखा कम प्रदूषण फैलाएगा। यही नहीं दीवाली पर रात आठ बजे से दस बजे तक ही पटाखे फोडऩे की अनुमति दी गई और इसके बाद जो भी पटाखें फोड़ेगा उनपर शिकायत करने पर कार्यवाही  होगी कहा गया। अब भला कौन शिकायत करके मुसीबत अपने सिर मोल लेता। आज तो स्थिति ऐसी है कि हम अपने पड़ोसी से भी यह कहने नहीं जा सकते कि कृपया देर रात पटाखें न फोड़े... बच्चों की परीक्षाएँ चल रहीं हैं या घर में बुजुर्ग बीमार हैं... डर लगता है कि वे उल्टे हमपर ही वार न कर दें यह कहकर कि आप हमारी खुशियों से जलते हैं... या आप दरवाजे खिड़की बंद करके अपने घर रहिए....
सच तो यह है कि इस तरह की जागरूकता पैदा करने के लिए भावी पीढ़ी के दिल में बचपन से ही यह बात बिठानी होगी कि हम सबके लिए कैसा वातावरण चाहिए अन्यथा इसके क्या दुरगामी दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इसका अच्छा उदाहरण मैं अपने घर का ही देती हूँ- प्रत्येक दीपावली पर मिट्टी के दियों से तो घर रोशन होता ही है- और दादा- परदादा के माने से चली आ रही यह परम्परा आज तक जारी है। घर के सब बच्चों के लिए पटाखे खरीदकर लाने और फोड़ने की परम्परा भी पिछले दो-तीन वर्ष पहले तक तो जारी ही थी। यद्यपि उसकी संख्या में क्रमश: कमी आती गई थी। लेकिन इस वर्ष बच्चों ने पटाखे नहीं फोड़ने का निश्चय करके बढ़ते प्रदूषण के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है। यही नहीं अड़ोस- पड़ोस में अपने घरों की दरो-दीवार को बिजली के लट्टुओं से रोशन करने और दीपावली के दो दिन पहले से ही देर रात तक पटाखें फोड़ने पर सबने अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी।
बच्चे बहुत संवेदनशील और सच्चे दिल वाले होते हैं, इंसानों पर होने वाले इस तरह के प्रदूषण का नुकसान चूँकि तुरंत दिखाई नहीं देता; इसलिए वे कच्ची उम्र में नफा-नुकसान को समझ नहीं पाते परंतु यदि पालतू जानवरों पर पटाखों से होने वाले दुष्मरिणाम को प्रत्यक्ष दिखाया जाए तो वे इस बात को बहुत जल्दी समझ सकते हैं। आपके घर यदि कुत्ता या तोता है, तो आप बहुत अच्छे से जानते होंगे कि पटाखा फूटने के बाद उनकी क्या स्थिति होती है। वे घर के किसी कोने में चुपचाप दुबक जाते हैं, डरे-सहमें से। इसी तरह यदि आपके घर के आसपास पेड़- पौधे हैं और प्रतिदिन उसमें पक्षी चहचहाते हैं, वे दीपावली के समय पटाखों की आवाज से इतना डर जाते हैं कि कुछ दिन तक उनकी चहचहाट आपको सुनाई नहीं देगी, आरंभ में पक्षियों वाली अपनी आपबीती सुना ही चुकी हूँ। बच्चे जब इस तरह प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे, देखेंगे, समझेंगे तो स्वयं ही उनके अंदर दया की भावना जाग्रत होगी। बाल साहित्य इस मामले में बहुत सहायता कर सकता है। जिसकी आज की शिक्षा व्यवस्था में बहुत कमी है। 
इन दिनों चुनाव का समय भी है, प्रचार-प्रसार का दौर है। कुछ दिन में हार- जीत का दौर भी आ जाएगा। जीत का जश्न मनाने फिर पटाखों की हजारों- लाखों लड़ियाँ सड़कों पर धाँय धाँय करती हुई बिखर जाएँगी। तब न सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ध्यान रखा जाएगा न उस जनता की सेहत का, जिन्होंने अपना कीमती वोट देकर उन्हें जश्न मनाने का यह मौका दिया है। क्या हम सब उनसे बहुत सारी उम्मीदों के साथ यह भी उम्मीद रख सकते हैं कि वे हमारे पर्यावरण की सुरक्षा का भी संकल्प लेंगे और पहले कदम के रूप में खुशियाँ मनाने के लिए पटाखे नहीं फोड़ेंगे।   

सरकारी दफ़्तर का गणित

सरकारी दफ़्तर 
का गणित
-संगीता गाँधी
"भाई ये बिजली के गलत बिल कौन साहब ठीक करते हैं?"
क्या काम है?”
मैं एक किराए के कमरे में रहता हूँ ।कमरे में बिजली के नाम पर एक पंखा और एक बल्ब है। इन दो चीजों का बिल इस महीने ' दस हज़ार ' आया ! इसी सिलसिले में साहब से मिलना है।
 
चपरासी ने उसे सुधीर साहब के पास भेजा ।
"
साहब मेरा बिजली का बिल बहुत ज्यादा  आया है ,इसे कृपया ठीक कर दीजिए।"
साहब ने सिर से पाँव तक दीनू को देखा !
"
जितनी जलाते हो उतना ही आएगा न!
"
साहब, एक पंखे, बल्ब का दस हज़ार?"
"
हाँ, तो खाना बिजली के हीटर पर पकाते होंगे? तुम  लोग कटिया डाल बिजली की  चोरी करते हो । इस बार कटिया सही से डली न होगी,  तो ज्यादा बिल आ गया।"
"
साहब, मैं कोई कटिया नहीं डालता। साथ ही खाना भी ढाबे पर खाता हूँ, कमरे में नहीं पकाता।"
"
अरे जाओ, जो आ गया वो तो देना होगा।"
दीनू हैरान, परेशान खड़ा था। तभी  सुधीर साहब ने एक आदमी को आवाज़ दी-"  रमेश, इधर आना।
हाँ बोलो सुधीर।
"
यार घर नया बनवाया है, ऊपर की मंज़िल पर तीन नए ए सी लगवाए हैं, पहले के भी नीचे की मंज़िल पर चल रहे हैं। बाकी बिजली का सामान भी चलता है। तुम देख लेना मेरा बिल ,मेरे एरिया की रीडिंग तो तुम ही करते हो न । मेरा बिल 500 -1000 के बीच ही रखना! " --सुधीर ने आँख मारते हुए रमेश से कहा।
रमेश ने भी उसी अंदाज़ में जवाब दिया-" तुम टेंशन न लो, मैं सब एडजस्ट कर दूँगा। "
चल फिर रात को अपनी तरह की पार्टी में मिलते हैं। दोनों ज़ोर से हँसने लगे।
दीनू एक कोने में खड़ा- एक कमरे के' एक बल्ब, पंखे के दस हज़ार औऱ एक दो मंजिला बड़े मकान के तीन- चार ए सी व बाकी लाइट का 500 -1000 ' - ये गणित समझने की कोशिश कर रहा था ।
email- rozybeta@gmail.com

एक पक्षी की डेढ़ हज़ार साल की संगीत परंपरा

एक पक्षी की डेढ़ हज़ार साल की संगीत परंपरा
नुष्यों की संगीत परंपरा सदियों पुरानी है। मगर नेचर कम्यूनिकेशन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक दलदली गोरैया (Melospiza georgiana) नामक एक पक्षी ने अपने गीत को डेढ़ हज़ार सालों से सहेजकर रखा है और आज भी वही गीत गाते हैं।
यह निष्कर्ष लंदन के क्वीन मैरी विश्वविद्यालय के रॉबर्ट लेकलान और उनके साथियों ने इन गौरैया के गीतों के विश्लेषण के आधार पर निकाला है। यह अध्ययन करने के लिए टीम ने उत्तर-पूर्वी यू.एस. के 6 घनी आबादी वाले स्थानों से 615 नर गौरैयों के गीत रिकॉर्ड किए। गौरतलब है कि गीत गाने का काम नर पक्षी ही करते हैं। इसके बाद प्रत्येक पक्षी के गीत का विश्लेषण किया गया।
गीतों के विश्लेषण से पता चला कि सारे नमूनों में कुल मिलाकर 160 अलग-अलग सिलेबल्स का उपयोग किया गया था। सारे दलदली गौरैया एक -सी धुन गाते हैं हालाँकि हर आबादी में एकाध अपवाद देखा गया। विश्लेषण के लिए एक सांख्यिकीय विधि का इस्तेमाल किया गया था। इसे बेशियन सनिन्कटन विधि कहते हैं। इसके साथ एक ऐसे मॉडल का उपयोग किया गया था जो यह पता लगता है कि किसी आबादी के गीतों में कितने सिलेबल्स का उपयोग हो रहा है। इसके आधार पर वैज्ञानिक यह गणना करने में कामयाब रहे कि प्रत्येक नर पक्षी का गाना समय के साथ कितना बदला है। उन्हें यह भी समझ में आया कि 1970 के दशक में किए गए एक अध्ययन और 2009 के गीतों के उनके नमूने में दो को छोड़कर शेष सिलेबल्स वही थे।
अध्ययन का सबसे रोचक नतीजा यह है कि सबसे पुराने गीत की औसत उम्र करीब 1500 वर्ष है। यानी ये पक्षी डेढ़ हज़ार सालों से वही गीत गा रहे हैं। वैज्ञानिकों को लगता है कि संभवत: यही स्थिति अन्य जंतुओं में भी पाई जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

भारत में गिनती के रह गए हैं बाघ

भारत में गिनती के रह गए हैं बाघ
प्रमोद भार्गव
 भारत में इस समय 21 राज्यों के 30,000 बाघ के रहवासी क्षेत्रों में गिनती का काम चल रहा है। 2018 में प्रथम चरण की हुई इस गिनती के आंकड़े बढ़ते क्रम में आ रहे है। यह गिनती चार चरणों में पूरी होगी। बाघ गणना बाघ की जंगल में प्रत्यक्ष उपस्थिति की बजाय, उसकी कथित मौजूदगी के प्रमाणों के आधार पर की जा रही है। इसलिए इनकी गिनती पर विश्वसनीयता के सवाल उठने लगे हैं। वनाधिकारी बाघों की संख्या बढ़-चढ़कर बताकर एक तो अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं, दूसरे उसी अनुपात में धनराशि भी बाघों के सरंक्षण हेतु बढ़ाने की मांग करने लगते हैं।
 केंद्र सरकार के 2010 के आकलन के अनुसार यह संख्या 2226 हैं। जबकि 2006 की गणना में 1411 बाघ थे। इस गिनती में सुंदर वन के वे 70 बाघ शामिल नहीं थे, जो 2010 की गणना में शामिल कर लिए गए हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड और असम में सबसे ज्यादा बाघ हैं। कर्नाटक में 400, उत्तराखंड में 340 और मध्य-प्रदेश में 308 बाघ हैं। एक समय टाइगर स्टेट का दर्जा पाने वाले मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या निरंतर घट रही है। मध्य-प्रदेश में साल 2017 में 11 महीने के भीतर 23 बाघ विभिन्न कारणों से मारे भी गए हैं, इनमें 11 शावक थे। दुनिया भर में इस समय 3890 बाघ हैं, इनमें से 2226 भारत में बताए जाते हैं। जबकि विज्ञान-सम्मत की गई गणनाओं का अंदाजा है कि यह संख्या 1500 से 3000 के बीच हो सकती है। इतने अधिक अंतर ने प्रोजेक्ट टाइगरजैसी विश्व विख्यात परियोजना पर कई संदेह के सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे यह भी अशंका उत्पन्न हुई है कि क्या वाकई यह परियोजना सफल है भी अथवा नहीं ?
 फिलहाल वन्य जीव विशेषज्ञ 2226 के आंकड़े पर सहमत नहीं है। दरअसल बाघों की संख्या की गणना के लिए अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल होता है। भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून के विशेषज्ञों का कहना है कि मध्य भारत में बाघों के आवास के लिहाज से सबसे उचित स्थान कन्हा राष्ट्रीय उद्यान है। यहाँ नई तकनीक से गणना की जाए तो मौजूदा संख्या में 30 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। डब्ल्यूआईआई के जाने-माने बाघ शोधकर्ता यादवेंद्र देवझाला ने एक शोध पत्र में लिखा है कि डी.एन.. फिंगर प्रिंट की तकनीक का इस्तेमाल करने वाले विशेषज्ञों ने आकलन किया है कि कान्हा में बाघों की संख्या 89 है। वहीं कैमरा ट्रेप पर आधारित एक अन्य वैज्ञानिक तकनीक यह संख्या 60 के करीब बताती हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बाघ एकांत पसंद करने वाले दुर्लभ प्राणी हैं। लिहाजा इनकी गणना करना आसान नहीं है। लेकिन गणना में इतना अधिक अंतर दोनों ही तकनीकों के प्रति संदेह पैदा करता है।
भारत में 1973 में टाइगर प्रोजेक्ट परियोजना की शुरूआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने की थी। शुरूआत में इसका कार्य क्षेत्र 9 बाघ संरक्षण वनों में शुरू हुआ। बाद में इसका क्षेत्र विस्तार 49 उद्यानों में कर दिया गया। बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है। संवेदना और सह-अस्तित्व के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत ने बाघ परियोजना की सफलता में अहम् भूमिका निभाई है। इन साझा प्रयासों का ही परिणाम है कि बाघों की संख्या 30 प्रतिशत तक ही बढ़ी हैं। 2010 में यह संख्या 1706 थी, जो 2014 में बढ़कर 2226 हो गई हैं। लेकिन 2011 में जारी हुई इस बाघ गणना को तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने इस गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसमें भ्रामक तथ्य पेश आए थे।
 जयराम रमेश ने अखिल भारतीय बाघ गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसी का गंभीरता से आकलन करें तो पता चलता है कि यह गणना भ्रामक थी। इस गणना के अनुसार 2006 में बाघों की जो संख्या 1411 थी, वह 2010 में 1706 हो गई। जबकि 2006 की गणना में सुंदरवन के बाघ शामिल नहीं थे, वहीं 2010 की गणना में इनकी संख्या 70 बताई गई। दुसरे, बाघों की बढ़ी संख्या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आई थी। इसमें नक्सली भय से वन अमले का प्रवेश वर्जित हैं। जब वन अमला दूराचंल और बियावान जंगलों में पहुँचा ही नहीं तो गणना कैसे संभव हुई ? जाहिर है यह गिनती अनुमान आधारित थी। हालाँकि यह तय हैं कि नक्सली वर्चस्व वाले भूखण्डो में बाघों की ही नहीं अन्य दुर्लभ वन्य जीवों की भी संख्या बढ़ी होगी ? क्योकि इन मुश्किल इलाको में बाघ के अभ्यस्त शिकारी भी नक्सलियों से भय खाते हैं। लिहाजा इन क्षेत्रों में बाघ बढ़े भी हैं तो इसका श्रेय वन विभाग को क्यों ? इस रपट को जारी करते हुए खुद जयराम रमेश ने माना था कि 2009-2010 में बड़ी संख्या में बाघ मारे गए थे, इसके बावजूद शिकारी और तस्कारों के समूहों को हिरासत में लिया जा सका और न ही शिकार की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सका। ऐसे में सवाल उठता है कि जब शिकारी उन्मुक्त रहे तो बाघों का शिकार बाधित कहाँ हुआ ? इस गिनती में आघुनिक तकनीक से महज 615 बाघों के छायाचित्र लेकर गिनती की गई थी। बाकी बाघों की गिनती पंरपरागत पद्धतियों और रेडियो पट्टेधारी तकनीक से की गई थी। जबकि पदचिन्ह गिनती की वैज्ञानिक प्रामाणिकता पर खुद जयराम रमेश ने प्रश्न चिह्न लगा दिया था। ऐसे में यहाँ सवाल यह भी उठता हैं कि क्या बाघों की जान-बूझकर गिनती बढ़ाकर इसलिए बताई गई? जिससे वन विभाग की साख बची रहे और बाघ सरंक्षण के उपक्रमों के बहाने आवंटन के रूप में बढ़ी धन राशि मिलती रहे ?
 बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को शुरूआती मान्यता दी गई थी। ऐसा माना जाता है कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्र कर बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। कान्हा के निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब साइंस इन एशियाके मौजूदा निदेशक के उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्य जीव सरंक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागार हो गई और इसे नकार दिया गया।
 इसके बाद कैमरा ट्रैपिंगका एक नया तरीका पेश आया। जिसे कारंत की टीम ने शुरूआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के शरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते है। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी। पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी। इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिष्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की शुरूआत हुई। इस तकनीक द्वारा गिनती सामने आने पर बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई। इसी गणना से यह आशंका सामने आई कि इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त हो जाएँगे।
 राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण के प्रमुख राजेश गोपाल ने तब कैमरा ट्रैप पद्धति को ही सही मरीका मानते हुए बाघों की गिनती और निगरानी के बाबत यहाँ दो बातें और भी उल्लेखनीय हैं। गौरतलब है जब 2009-10 में पन्ना बाघ परियोजना से बाघों के गायब होने की खबरें आ रही थीं तब 2008 में वन विभाग ने बताया था कि पन्ना में 16 से लेकर 32 बाघ हैं। इस गणना में 50 प्रतिशत का लोच है। जबकि यह गणना आधुनिकतम तकनीकी तरकीब से की गई थी। मसलन जब हम एक उद्यान की सटीक गिनती नहीं कर सकते तो देश के जंगलों में रह रहे बाघों की सटीक गिनती कैसे कर पांएगे? बाघों की मौजूदा गिनती को यदि पन्ना की बाघ गणना से तुलना करें तो देश में बाघों की अनुमानित संख्या 853 से लेकर 1706 तक भी हो सकती है। बाघों की हाल में हुई गिनती में तकनीक भले ही नई रही है, लेकिन गिनती करने वाला अमला वही था, जिसने 2008 में पन्ना क्षेत्र में बाघों की गिनती की थी। कमोबेश इसी मनोवृत्ति का वन अमला पूरे देश में कार्यरत है, जिसकी कार्यप्रणाली निरापद नहीं मानी जा सकती।
 नवंबर-दिसंबर 2010 में श्योपुर-मुरैना की जंगली पट्टी में एक बाघ की आमद दर्ज की गई थी। इसने कई गाय-भैंसों का शिकार किया और करीब दर्जन भर ग्रामीणों ने इसे देखने की तसदीक भी की। वन अमले ने दावा किया था कि यह बाघ राजस्थान के राष्ट्रीय उद्यान से भटक कर अथवा मादा की तलाश में श्योपुर-मुरैना के जंगलों में चला आया है। इस बाघ को खोजने में पूरे दो माह ग्वालियर अंचल का वन अमला इसके पीछे लगा रहा। इसके छायाँ कन के लिए संवेदनशील कैमरे और कैमरा टेप पद्धतियों का भी इस्तेमाल किया गया। लेकिन इसके फोटो नहीं लिए जा सके। आखिर पंजे के निशान और शिकार के तरीके से प्रमाणित किया गया कि कोई नर बाघ ने ही श्योपुर-मुरैना में धमाल मचाया हुआ है। यह बाघ वाकई में एक निश्चित क्षेत्र में था, इसके बावजूद इसे ट्रेस करने में दो माह कोशिश में लगे रहने के बाद भी नाकाम रहे। तब एक पखवाड़े के भीतर 1706 बाघों की गिनती कैसे कर ली ?
 बढ़ते क्रम में बाघों की गणना इसलिए भी नामुमकिन व अविश्वश्नीय है क्योंकि आर्थिक उदारवाद के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघ के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हो रहे हैं। खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाओं ने बाघों की वंश वृद्धि पर अंकुश लगाया है। इन परियोजनाओं को प्रचलन में लाने के लिए चार गुना मानव बसाहटें बाघ आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की नीतियाँ  भी खनन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं। पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग तड़ोबा में कोयला खनन और उत्तर-प्रदेश के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी माफिया बाघों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं। इसके बावजूद खनिज परियोजनाओं के विरुद्ध बुलंदी से आवाज न राजनीतिकों की ओर से उठ रही और न ही वन अमले की तरफ से? हाँ  वन अमले की बर्बरता और गोपनीयता जरुर वैसी ही बनी चली आ रही है जो फिरंगी हुकूमत के जमाने में थी। अंग्रेजों से विरासत में मिली इस शैली में बदलाव अभी तक वन अमला लाया नहीं है। यही कारण है कि बाघों की संख्या में लगातार कमी आ रही है जबकि राष्ट्रीय उद्यानों, वनकर्मियों और वन आंवटन में निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रत्येक आरक्षित उद्यान को 20 से 26 करोड़ रुपए दिए जाते हैं। आशंकाएँ तो यहाँ  तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाही का हिस्सा बनती रहे। बीते चार सालों में एक अरब 96 करोड़ का पैकिज बाघों के संरक्षण हेतु जारी किया जा चुका है। बाघ- गणना के जो वर्तमान परिणाम सामने आए हैं, केवल इसी गिनती पर 9 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं।
 अप्रत्यक्ष व अप्रामाणिक तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी को वन्यप्राणी संरक्षण से जोड़ने की कोशिश करने की बजाय भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य उनका प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों का सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकता है। बाघों की गणना के ताजा व पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह तय हुआ है कि 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं ? इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुँच से बाहर हैं। लिहाजा वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रुप में देखा जाए तो संभव है वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक सहभागितामूलक मार्ग प्रशस्त हो।
सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मोबाइल. 09981061100, 09425488224

खरोंच

खरोंच

-सुकेश साहनी

फैक्ट्री में असेम्ब्ली लाइनों और कन्वेयर बेल्टों के माध्यम से हज़ारों चूज़ों को मांस के लिए रोज़ मारा जाता था। इस काम को करने में दूसरे वर्कर कतराते थे, पर मास्टर इसे 'मोगैम्बो खुश हुआ' की तर्ज़ पर करने को हरदम तैयार रहता था।
गोदाम में चूज़ों को पंक्तिबद्ध क्रेटों में जिस तरह ठूंस–ठूंसकर रखा जाता था, उसमें उनके एक–दूसरे को चोंच मार–मारकर मार डालने का खतरा बना रहता था। इस समस्या के समाधान के लिए चूज़ों के पैदा होते ही उनकी चोचों को गर्म ब्लेड वाली मशीन (डिबीकर) से काट दिया जाता था। यह काम भी मास्टर के ज़िम्मे था। चोचें काटने का काम वह इतनी तेजी से करता था कि देखने वाले दंग रह जाते थे। यह काम करते हुए उसके होठों पर सदैव एक क्रूर मुस्कान चिपकी रहती थी।
पिछले हफ्ते मास्टर को मालिकों के आदेश पर अंडों से लदे ट्रकों के साथ लखनऊ जाना पड़ा था। वहाँ से लौटने के बाद वह काफ़ी बदला–बदला नज़र आने लगा था। रात की महफ़िलों में उसकी रुचि खत्म हो गई थी। ब्लेड़ से चूज़ों की चोंचें काटते हुए उसके होठों पर रेंगने वाली चिरपरिचित क्रूर मुस्कान नदाराद थी, हाथ काँपने लगे थे। उसकी इस कमज़ोरी की वजह से बहुत से चूज़ों के मुँह में फफोले पड़ गए थे, जीभें कट गई थीं। इस घटना ने उसे इतना विचलित कर दिया था कि वह घंटों गुमसुम–सा बैठा रहा था। इसी घटना के बाद उसने इस्तीफा दे दिया था।
बेसमेंट में जलते बल्ब की रोशनी सीधे मास्टर के चेहरे पर पड़ रही थी। साथियों ने उसे घेर रखा था। वे सब उससे इस्तीफ़े की वजह जानना चाहते थे। पहले मास्टर टाल–मटोल करता रहा था, पर अँत में उनकी ज़िद के आगे उसने हथियार डाल दिए थे। उसकी आँखें बंद थीं, माथे पर बल पड़े हुए थे, मानो समझ न पा रहा हो कि अपनी बात कहाँ से शुरू करे।
बाहर शाम से ही तेज़ हवाएँ चल रही थीं, अब आँधी चलने लगी थी। एकाएक बत्ती गुल हो गई और वहाँ घुप्प अँधेरा छा गया। मास्टर को अपनी राम–कहानी सुनाने के लिए जैसे अँधेरे का सहारा चाहिए था। उसका गंभीर स्वर बेसमेंट में गूँजने लगा।
सालों पहले एक मामूली–सी बात पर नाराज़ होकर मैं घर से भाग आया था। उस समय घरवालों के प्रति मन में इतना गुस्सा भरा हुआ था कि मैंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा था। शुरू–शुरू में अक्सर माँ की याद आती थी, तब मैं खुद को काम में इस कदर झोंक देता था कि उसके बारे में सोचने की कोई गुँजाइश ही नहीं बचती थी। इस तरह मैंने कोशिश कर उनकी याद को पूरी तरह दिल से बाहर निकाल फेंका था। अगर मैनेजर साहब उस दिन मुझे अंडों की सप्लाई के साथ लखनऊ न भेजते तो शायद जीते–जी मेरे मन में नौकरी से इस्तीफ़ा देकर घर लौट जाने की बात कभी न आती।
ट्रकों के काफ़िले के साथ लखनऊ रवाना होते ही मैं घरवालों के बारे में सोचने लगा था . . .माँ और बाबूजी कैसे होंगे? माँ तो अक्सर बीमार रहती थीं, कहीं उन्हें कुछ हो न गया हो? . . .चमकती आँखों वाला मेरा भाई! अब तो उसकी शादी भी हो गई होगी . . .यादों की रीलें दिमाग में सरपट दौड़े जा रही थी।
कैसरबाग गोदाम पर ट्रकों को अनलोडिंग के लिए छोड़ने के बाद मेरे पास एक दिन का समय था। घर जाऊँ कि न जाऊँ, यही मेरे भीतर चल रहा था। माँ की ममतामयी सूरत याद कर जो उत्साह मन में पैदा होता था, बाबूजी की याद आते ही ठंडा पड़ जाता था। अंत में मैंने यही फैसला किया कि दूर से ही उन्हें देखकर लौट आऊँगा, भीतर नहीं जाऊँगा।
मोहल्ला ठीक वैसा ही था, जैसा मेरे बचपन के दिनों में था। बस, सड़क पहले से कुछ तंग (संकरी) मालूम हो रही थी। कई परिचित चेहरे दिखाई देने लगे थे, किसी ने मुझे नहीं पहचाना। वहाँ की एकमात्र जनरल मर्चेण्ट की दुकान पर मेरे बचपन का दोस्त बैठा हुआ था। दुकान के सामने मैं एक पल के लिए ठिठका, उसने उचटती–सी नज़र मुझ पर डाली और काम में लग गया। मतलब साफ़ था इन बीस वर्षों में मैं अपनी पहचान खो बैठा था।
तिमंज़िले पर स्थित घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं बुरी तरह हाँफने लगा था। ये वही सीढ़ियाँ थी, जिन्हें मैं एक साँस में दौड़ते हुए तय कर लेता था।
मैं सोच में पड़ गया था – माँ और बाबूजी ये सीढ़ियाँ कैसे चढ़ते–उतरते होंगे?
भीतर से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी। मैं बहुत देर तक असमंजस की स्थिति में दरवाज़े के बाहर खड़ा रहा। फिर यह सोचकर कि मुझे वैसे भी कोई नहीं पहचानेगा, मैंने दरवाज़ा खटखटा दिया था।
अब बाहर आँधी तो नहीं चल रही थी, पर पानी बरसने लगा था। मास्टर ने थोड़ी देर की चुप्पी के बाद एक सिगरेट सुलगाई और जोरों का कश खींचा।
"फिर क्या हुआ?" अँधेरे में से कोई बोला।
"मास्टर, तुम किस बात पर नाराज़ होकर घर से भागे थे?" किसी दूसरे ने पूछा। वे अब आगे की कहानी सुनने को अधीर हो रहे थे।
मास्टर के हाथ में सुलगती सिगरेट का सिरा अँधेरे में चमक रहा था। उसने उन्हें शांत करते हुए कहा, "भाइयों, मैं उसी बात पर आ रहा हूँ – ये सब बताए बगैर बात पूरी नहीं होगी। हाँ, तो मैं दरवाज़े के बाहर चुपचाप खड़ा था, दिल तेजी से धड़क रहा था। सोच रहा था कि इतने बरसों बाद पहले किसे देखूँगा? मगर दरवाज़ा माँ ने खोला था। मेरी नज़र उनकी ठुड्डी पर ठहर गई थी। दाँत गिर जाने से वह भाग कुछ अलग–सा लग रहा था। वह पहले से काफ़ी बूढ़ी लगने लगी थी।
माँ को मुझे पहचानने में एक क्षण भी नहीं लगा था। उनके लिए मैं अभी भी बच्चा था। वह मुझसे लिपटकर रोने लगी थी। उनके पास से वैसी खुशबू आ रही थी, जिससे मैं रजाइयों के ढ़ेर में से माँ की रजाई को सूँघकर पहचान लिया करता था।
"कहाँ रहा इतने बरस?"


मुझे कुछ कहते नहीं बना।
"कितना पक्का दिल है तेरा।"
मैं चुप रहा।
"तुझे हमारी जरा भी याद नहीं आई?"
मैंने थूक गटका।
इतने बरसों में एक बार भी माँ की सुध लेने का ख्याल नहीं आया। माँ से तो मेरी कोई नाराज़गी भी नहीं थी। मैं खुद को धिक्कारने लगा था। माँ सवाल पर सवाल किए जा रही थी, मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। मैं उन दिनों में पहुँच गया था, जब मैं मुँह में अँगूठा डाल माँ की गोद में लेटा रहता था।
"कौन आया है?" डयोढ़ी के उस पार से बाबूजी की आवाज़ सुनाई दी, इतने बरसों बाद भी पीठ में झुरझुरी–सी दौड़ गई। बाबूजी का गुस्सा बहुत तेज़ था। उनके डर से पेड़ों पर बैठे पक्षी तक ख़ामोश हो जाते थे। उन दिनों वह जितनी देर तक घर में रहते थे, हम दोनों भाई चूहों की मानिंद अपने–अपने बिलों में दुबके रहते थे। उनके सामने तो साँस भी सोच–समझकर लेनी पड़ती थी।
माँ के साथ कमरे में आया तो उन्हें देखता ही रह गया . . .बूढ़ा चेहरा . . .भीगी आँखें . . .काँपता स्वर . . .। कहाँ गया उनका तेज़–तर्रार, दबंग व्यक्तित्व।
मैंने आगे बढ़कर उनके पाँव छुए। उन्होंने दोनों हाथों से टटोलकर मुझे महसूस किया, होठों में कुछ बुदबुदाए, जो मेरी समझ में नहीं आया। शून्य में ताकती उनकी आँखें भर आई थी। वे बहुत असहाय–से लग रहे थे। वह अभी भी अपने आप से बातें किए जा रहे थे। मैंने हैरानी से माँ की ओर देखा . . .।
"बेटा, इनकी आँखों की रोशनी चली गई है," माँ ने बताया, "तेरे जाने के बाद हम पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था।"
माँ सिसकने लगी थी।
"थका होगा, आराम करने दो।" बाबूजी के स्वर की कोमलता पर मैं दंग था . . .क्या यह वही बाबूजी है, जिनकी डाँट से ही मेरी पैंट गीली हो जाया करती थी?
घर की हालत खस्ता नज़र आ रही थी। हर चीज़ से आर्थिक संकट जैसे बाहर झाँक रहा था। मेरी नज़र छोटे भाई पर पड़ी। वह अपने बेटे को चुप कराने में लगा हुआ था, जो न जाने कब से रोए जा रहा था। भाई की आँखों में पहले जैसी चमक दिखाई नहीं दे रही थी। मुझे देखकर उसके चेहरे पर खुशी का कोई चिह्न नज़र नहीं आया। एकबारगी मुझे लगा उसकी आँखें अपनी बेरोज़गारी के लिए मुझे उलाहना दे रही हैं। उसने मुझसे बात नहीं की। थोड़ी–थोड़ी देर बाद बुझी–बुझी आँखों से मेरी ओर देख लेता था, बस।
"चिड़िया! . . .मेरी चिड़िया!!"
बच्चा रोते–रोते कहे जा रहा था।
इसी बीच भाई की पत्नी ने आकर मेरे पाँव छुए। पति की बेरोज़गारी ने उसे भी निचोड़कर रख दिया था।
सबका ध्यान बच्चे की तरफ था।
"अच्छे बच्चे रोते नहीं है, अभी मिल जाएगी तुम्हारी चिड़िया।"  भाई ने कहा।
"कहीं बक्सो के नीचे न चली गई हो?" माँ ने संभावना व्यक्त की।
"एक बार सारा सामान हटाकर देख तो लो।" बाबूजी ने सुझाया।
"हर कहीं देख लिया है, बाबूजी।" भाई ने बताया।
"थोड़ी देर पहले मैंने उसे यही दरवाज़े के पास पानी पिलाया था।" बबलू ने रोते हुए बताया।
हुआ ये था कि बबलू को पड़ोस के मंदिर में चिड़िया का बच्चा पड़ा मिला था। बच्चे ने अभी उड़ना नहीं सीखा था। कोई कुत्ता–बिल्ली उसे खा न जाए, इसलिए वह उसे घर ले आया था। पिछले दो दिनों से उसकी सारी दुनिया चिड़िया के उस बच्चे के इर्द–गिर्द ही सिमट आई थी। थोड़ी देर पहले अचानक वह कहीं गुम हो गया था। इसी वजह से बबलू रोए जा रहा था।
अब पूरा घर उस चिड़िया के बच्चे को लेकर परेशान था।
अँधेरे में कोई खी–खी कर हँसने लगा।
"एक चिड़िया के बच्चे के लिए . . .वाह!" दूसरा हँसा।
"मास्टर! हमें भी बच्चा समझा है क्या?" किसी और ने खिल्ली उड़ाई।
"चुप रहो!" चौथे ने सबको डाँटा, "इसका भी कोई मतलब होगा। मास्टर तुम आगे कहो, हम सुन रहे हैं।"
मास्टर ने उसकी हँसी की परवाह किए बिना अपनी बात जारी रखी। हम यहाँ सैकड़ों चूज़ों को रोज़ मार देते हैं। उन सबको वहाँ एक चिड़िया के बच्चे के लिए परेशान देखकर मुझे भी हैरानी हुई थी। लगा था, वे सब अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। वर्षों बाद मैं घर लौटा था और वे सब मुझे भूलकर एक चिड़िया को ढूँढ़ रहे थे . . .।
"हम अपने बेटे को दूसरी चिड़िया ला देंगे।" बहू ने बबलू को बहलाया।"
"नहीं!" वह बोला, "मुझे वही चिड़िया चाहिए।"
"चलो, एक बार फिर स्टोर में देख लेते हैं।" भाई ने कहा।
भाई उसे स्टोर में ले गया।
"थोड़ी देर पहले मैंने यहाँ एक बिल्ली को घूमते देखा था।" माँ ने उनके जाते ही बाबूजी के कान में धीरे से कहा।
"क्या कहती हो?" बाबूजी बेचैन हो उठे थे, "यह बात बबलू को मत बताना।"
मैं हैरान था, क्या ये वही बाबूजी है, जिनकी दहशत से घर में चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी।


"मिल गया!" तभी बबलू खुशी से चिल्लाया।
"शुक्र है भगवान का।" बाबूजी बुदबुदाए।
"कहाँ मिला?" भाई ने पूछा।
"यहाँ चौखट के नीचे खोखल में।"
"मुझे पता था, यही कहीं होगा।" माँ हँसी।
"मैंने कहा था, मिल जाएगा!" बाबूजी चहके।
पूरा घर खुशी से झूमने लगा था।
सब चौखट के पास जमा हो गए थे। बच्चा खोखली जगह में काफ़ी पीछे की ओर चला गया था। उसकी हल्की चीं–चीं की आवाज़ सुनकर बबलू ने उसे ढूँ लिया था। वे उसे सुरक्षित बाहर निकालने की तरकीबें सोच रहे थे। मुझे हँसी आ रही थी, मेरे लिए तो यह चुटकियों का काम था। मैंने कहा भी – "रसोई से चिमटा ला दो, मैं अभी बाहर निकाले देता हूँ।" पर बाबूजी को मेरा तरीका पसंद नहीं आया, उन्हें इसमें चिड़िया को चोट–चपेट लगने का खतरा दिखाई दे रहा था। उनका मानना था कि बच्चा अपने आप खाने–पीने के लिए कोटर से बाहर ज़रूर आएगा। यदि नहीं आएगा, तो बढ़ई को बुलाकर चौखट काटकर उसे बाहर निकाल लिया जाएगा। वे चिड़िया को बाहर निकालने के मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। बाबूजी के इस रूप की मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक बाबूजी मोम की तरह मुलायम कैसे हो गए . . .।
रात को मेरा बिस्तर वहीं लगा दिया गया था, जहाँ मैं बचपन में सोया करता था। बिस्तर पर लेटते ही मेरी नज़र बगल की दीवार पर पड़ी, फिर वही गड़ी रह गई। आँखों के आगे चिंगारियाँ छूटने लगीं। बात थी ही ऐसी। बीस साल पहले की वो घटना आँखों के आगे कौंध गईं, जिसकी वजह से मैं घर से भागा था। उस दिन बाबूजी ने मुझे दीवार को लोहे के तार से खरोंचते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था। उन्होंने मुझे इतनी बुरी तरह पीटा था कि मैं इसी बात पर नाराज़ होकर घर से भाग आया था।
नहीं, कुछ नहीं बदला था . . .दीवार पर की वो बरसों पहले की खरोंच ज्यों की त्यों थी। हालाँकि, इन बीस बरसों में घर की कई बार पुताई और मरम्मत हुई थी, पर मेरे द्वारा खरोंचा गया दीवार का वह हिस्सा हर बार बिना पोते छोड़ दिया गया था। खरोंच वाला भाग चिकना और मैला हो गया था, जैसे कोई उस पर अँगुलियाँ फेरता रहा हो . . .
मैं स्तब्ध था। खरोंच पर मेरी आँखें बर्फ की तरह जमी हुई थीं। पिछले बीस साल अचानक मेरी मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल गए। उस खरोंच के एक ओर गर्म ब्लेड से चूज़ों की चोंच काटता मैं था, तो दूसरी ओर बूढ़ी अँगुलियों के पोरों से खरोंच को टटोलते अँधे बाबूजी थे . . .
इतना कहकर मास्टर खामोश हो गया था। बाहर बारिश तो थम गई थी, पर पेड़ों के पत्तों पर ठहरा पानी अभी भी टपक रहा था। सुनने वाले एकदम चुप थे। कोई कुछ नहीं पूछ रहा था। नहीं, उनमें से कोई भी नहीं सोया था। दरअसल, मास्टर की कहानी की उस खरोंच को सभी अपने दिलों पर महसूस कर रहे थे।