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Jul 12, 2018

बैरन वर्षा

बैरन वर्षा
- डॉज्योत्स्ना शर्मा
1
नींव मुस्काई
उसने जो घर की
देखी ऊँचाई.
2
सजाये सदा
हिल-मिल सपने
प्यारा वह घर।
3
गाँव, शहर
टुकड़ों में बँटता
रोया है घर।
4
नेह की डोर
खींच लिये जाए है
छूटे घर।
5
देखे, सँजोए
तार-तार सपने
बेचैन घर।
6
रिसते जख्म
पर्त-पर्त उघड़े
सिसका घर।
7
महका घर
आने की आहट से,
तेरे इधर!
8
बैरन वर्षा
ले गई सारे रंग
बेरंग घर।
9
थके नयन
जोहे बाट किसकी
ये खण्डहर।
10
होने दूँगी
नीलाम, सपनों का-
ये प्यारा घर!

उलझन !
1
रस्मों के गाँव
उलझ गए मेरे
भावों के पाँव।
2
उलझे मिले-
लालच की चादर
रिश्तों के तार।
3
किरन सखी
खोले है उलझन
नन्ही कली की।
4
प्रेम की डोर
उलझा मन, जाए-
तेरी ही ओर!
5
यूँ लुटाना,
धीरज से सीपी में
मोती छुपाना।
6
यादों के मेले
सजाते रहो मन !
कहाँ अकेले?
7
कैसा मंजर!
अपनों के हाथों में
मिले खंजर!
8
खाली हाथों में
तन्हाई की लकीर
क्या तकदीर!
9
तुम मुस्काओ,
जले दीप मन के
आओ आओ!
10
दे गए पीर
चाहत के बदले
बातों के तीर!

चोका
हरित परिधान
देता ही रहा
सागर तो जी भर
धूप तपाए
तो बादल बनाए
खूब बरसे
यूँ धरा सींच आए
महका जग
खिले फूल-कलियाँ
धरा ने धरा
हरित परिधान
लगता प्यारा
खूबसूरत नज़ारा !...
मन के मथे
दुनिया को दे रहा
रत्नों के ढेर
मोती-भरी सीपियाँ
भरी-भरी हैं
लहरों की वीथियाँ
नहीं अघाया
जो डूबा, वो हीपाया
दिया अमृत
सबको तूने सारा
क्यों रहा आप खारा !!

सम्पर्कः  H-604 , Pramukh Hills, Chharawada Road, Vapi-396191,
 District-Valsad (Gujarat), email- jyotsna.asharma@yahoo.co.in

1 comment:

ज्योति-कलश said...

साहित्य के प्रति आपके समर्पण और लगन को नमन रत्ना जी !
मेरी रचनाओं को पत्रिका में स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद !!

सादर
ज्योत्स्ना शर्मा