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Mar 24, 2018

उदंती.com मार्च 2018

उदंती.com मार्च 2018

क्षमा करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकि यह मनुष्य को बहुत बड़ा बना देती है। -स्वामी दयानंद सरस्वती

अनकहीः गुलाबी रंग बनाम 

महिला सशक्तीकरण -डॉ. रत्ना वर्मा

गुलाबी रंग बनाम महिला सशक्तीकरण

गुलाबी रंग बनाम महिला सशक्तीकरण  
- डॉ. रत्ना वर्मा
  इस बार २०१७-१८ के आर्थिक सर्वेक्षण की सबसे खास बात यह रही कि इसे गुलाबी रंग में पेश किया गया, जो महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को खत्म करने के लिए तेज हो रहे अभियानों को सरकार के समर्थन का प्रतीक है। इस आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, पूर्वोत्तर राज्यों ने लैंगिक समानता के क्षेत्र में बेहतरीन काम किया है, जो पूरे देश के लिए एक मॉडल हो सकता है। सर्वे में लैंगिक भेदभाव की बात जिन आयामों पर की गई है, उनमें महिला/पत्नी के प्रति हिंसाबेटों की तुलना में बेटियों की संख्या, प्रजनन, खुद पर और परिवार पर खर्च करने का फैसला लेने की क्षमता, आखिरी बच्चे के जन्म के आधार पर बेटा या बेटी को महत्त्व, महिलाओं के रोजगार, परिवार नियोजन के फैसले, शिक्षा का स्तर, शादी की आयु, पहले बच्चे के जन्म के समय महिला की उम्र आदि बातें शामिल हैं। सरकार ने इन संकेतकों के जरिए समाज में महिलाओं के सशक्तीकरण की पड़ताल की है।
 महिला सशक्तीकरण एवं लैंगिक समानता को समर्पित इस आर्थिक सर्वेक्षण में जितने भी मुद्दे उठाए गए हैं, वे एक ही बात की ओर संकेत करते हैं कि देश में स्त्रियों की स्थिति आज भी दोयम दर्जे की है। अन्यथा हर नागरिक को समानता का अधिकार वाले देश में आजादी के इतने बरस बाद भी लड़कियों को लेकर इतना भेदभाव क्यों। सर्वेक्षण का यह आँकड़ा चौंकाने वाला है कि वित्त वर्ष २००५-०६ में ३६ फीसदी महिलाएँ कामकाजी थीं, जिनका स्तर २०१५-१६ में घटकर २४फीसदी पर आ गया। भारत में अभी भी बेटों की चाहत ज्य़ादा है। आर्थिक सर्वेक्षण में इस ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि अधिकतर माता-पिता तब तक बच्चों की संख्या बढ़ाते रहते हैं, जब तक कि उनके यहाँ लड़के पैदा नहीं हो जाते। सर्वेक्षण में बालक-बालिका अनुपात के अपेक्षाकृत कम रहने का पता चलता है। २००१ में की गई गणना के अनुसार प्रति १००० लडक़ों की तुलना में ९२७ लड़कियाँ थी, जो २०१ में गिरकर ९१८ तक आ गया।
 गाँव हो या शहर महिला पुरूष भेदभाव की चुनौती लंबे समय से, कहना चाहिए सदियों से चली आ रही है। बेटे की चाह एक ओर जहाँ हमारे देश में जनसंख्या रोकने के उपायों में बाधक है, वहीं बेटे की कामना अवांछित बेटियों की बढ़ती संख्या को भी दर्शाता है। ऐसी कन्याओं की संख्या लगभग 21 मिलियन के लगभग आँकी गई है। पहली संतान यदि बेटी हुई, तो दूसरी संतान बेटे की उम्मीद में पैदा होती है और इस उम्मीद में अवांछित बेटियों की संख्या बढ़ती ही चली जाती है। इसका एक दूसरा पहलू कन्या- भ्रूणहत्या भी है। विज्ञान की तरक्की जहाँ एक ओर देश को विकास के रास्ते पर ले जाता है, तो वहीं दूसरी ओर विनाश की गर्त में भी धकेलता है। गर्भ में बच्चे के स्वास्थ्य का पता लगाते- लगाते लोग यह भी पता लगाने लगे कि आने वाला बच्चा लड़का है या लड़की? लड़की हुई तो उस भ्रूण को ही मार दिया जाता है और पैदा हो गई तो फिर तो वह जिंदगी भर के लिए एक बोझ बन जाती है।
 भारत ही नहीं पूरी दुनिया में में बेटियों को लेकर जो विसंगतियाँ हैं, वे किसी से छुपी नहीं हैं। बेटी को लेकर हो रहे भेदभाव को दूर करने के लिए हम न जानें कब से प्रयास करते आ रहे हैं पर बेटियाँ न जानें क्यों आज भी बेचारी ही बनी हुई हैं। हम यह कहते नहीं अघाते कि बेटियाँ हमारा मान, हमारा अभिमान, हमारी शान होती हैं। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता... जैसे बड़े- बड़े शब्द अब सिर्फ उद्धरण देने के लिए इस्तेमाल होते हैं, जबकि सच्चाई तो कुछ और ही रंग दिखाती है। अब नवरात्रि का पर्व शुरू हो गया है, जिसमें बेटियों को देवी के रूप में पूजा जाएगा। जबकि सच्चाई के धरातल पर इन्हीं बेटियों को भ्रूण में ही मार दिया जाता है, यही नन्हीं बच्चियाँ बलात्कार की शिकार होती हैं, लड़कियाँ पढ़-लिखकर क्या करेंगी, कहते हुए छोटे भाई-बहनों की देख-रेख में लगा दिया जाता है ,जिससे वे शिक्षा से वंचित हो जाती हैं। विभिन्न सर्वेक्षण इस बात के गवाह हैं कि प्रायमरी स्कूल के आते-आते लड़कियाँ स्कूल जाना बंद कर देती हैं । या तो वे घर के काम-काज में झोंक दी जाती हैं या फिर कम उम्र में ही ब्याह कर माता पिता बेटी के बोझ से मुक्ति पा जाते हैं।
इस लिंगभेद की असमानता को ही दूर करने के लिए सरकार ने बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ योजना की शुरूआत की है;लेकिन क्या योजना से हालात सुधर रहे हैं? कुछ स्थानों के कागज़ी आँकड़े भले ही सुधार का संकेत दे रहे हों ; पर हालात वैसे नहीं सुधरे हैं ,जिसकी हम उम्मीद करते हैं। अत: योजना मात्र बनाने से या गुलाबी रंग में सर्वेक्षण रिपोर्ट पेश कर देने से, बेटियों की स्थिति में सुधार नहीं होने वाला। बेटियों को लेकर समाज का नज़रिया जब तक नहीं बदलेगा, बेटियाँ यूँ ही मारी जाती रहेंगी। सदियों से स्थापित इन रुढ़िगत सोच को बदलने के लिए बड़े पैमाने पर काम करना होगा। सामाजिक जागरूकता के साथ-साथ लड़कियों को शिक्षा इस सोच को बदलने का सबसे बड़ा अस्त्र हो सकता है। लड़कियों की शिक्षा के स्तर में सुधार सरकार की किसी भी योजना को फलीभूत कर सकता है।

अब पानी के लिए लड़ाई

 अब पानी के लिए लड़ाई  
- राजकुमार कुम्भज
दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन इस समय भीषण जल संकट से जूझ रहा है। हालात इतने भयानक हो चुके हैं कि यहाँ पानी का संकट अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया है। वैसे तो दक्षिण अफ्रीका का यह खूबसूरत शहर पिछले एक दशक से पानी की किल्लत भोग रहा है और समय रहते इसके समाधान हेतु कुछ भी नहीं किया जा सका। 
केपटाउन इस समय भयंकर सूखे की चपेट में है। तकरीबन एक पखवाड़े पहले तक प्रति व्यक्ति जहाँ 87 लीटर पानी जैसे-तैसे उपलब्ध करता जा रहा था, वहीं अब यह आपूर्ति प्रति व्यक्ति मात्र 25 लीटर पर सिमट गई है। हैरानी नहीं होना चाहिए कि जल-संकुचन के कारण पैदा हुआ जल-संकट केपटाउन में जल-दंगों की शक्ल ले ले क्योंकि जल-दंगों की आर्थिक से निपटने के लिए सरकार ने सेना और पुलिस को तैयार रहने का जारी आदेश भी दे दिया है।
केपटाउन में तरह-तरह की पाबन्दियाँ आजकल सामान्य हैं। वहाँ कम-से-कम पानी में ज्यादा-से-ज्यादा नहाना धोना निपटा लेना पड़ता है। दुनिया का कोई खूबसूरत शहर सूखे की वजह से सुर्खियों में आ जाए, यह दिलचस्प हो सकता है; किन्तु उससे कहीं अधिक यह खबर भयावह भी हैं। केपटाउन में घरेलू आपूर्ति लायक भी पानी शेष नहीं है। दरअसल केपटाउन दुनिया के नक्शे में उस स्थान पर स्थित है, जहाँ अटलांटिक और हिन्दमहासागर आपस में मिलते हैं। लेकिन यह पानी अत्यधिक खारा होने की वजह से पीने लायक नहीं हैं और दैनिक उपयोग के योग्य तो बिल्कुल भी नहीं। जिस पानी को यहाँ उपयोग के काबिल बनाया जाता है, उसकी बेहद कमी हो गई है। फिर डीसेलीनेशन (गैर-लवणीकृत) टेक्निक बहुत महँगी भी है।
विश्व बैंक के अनुसार डीसेलीनेशन तकनीक से मिलने वाले पानी की लागत तकरीबन 55 रुपया प्रति लीटर आती है। विश्व का एक फीसदी पेयजल इसी प्रक्रिया से उपलब्ध हो रहा है। सऊदी अरब जहाँ नदी व झील न के बराबर है, डीसेलीनेटेड वाटर का दुनिया में सबसे बड़ा स्रोत है। ये संसाधन (प्लांट) शहरों में इस्तेमाल होने वाला 70 फीसदी पानी उपलब्ध करवाते हैं साथ ही उद्योग धंधों में इस्तेमाल होने लायक जल की आपूर्ति भी करते हैं। सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन उन देशों में शामिल हैं जो डीसेलीनेटेड वाटर का इस्तेमाल करते हैं।
दुनिया के तकरीबन 120 देशों में समुद्री पानी को पीने योग्य बनाने वाली तकरीबन सत्रह हजार डीसेलीनेशन वॉटर प्लांट लगे हैं और करीब-करीब बीस करोड़ लोग इन्हीं प्लांट का बना पानी पी रहे हैं। सऊदी अरब एक्वीफर्स प्रक्रिया के जरिए जमीन के नीचे जल संग्रहण करके इस तकनीक का इस्तेमाल करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जाहिर हुआ है कि वर्ष 2050 तक चीन और भारत भी जल संकट से जूझा रहे होंगे तब समुद्री खारे पानी को पीने योग्य बनाना ही एकमात्र विकल्प होगा। भारत में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने भी डीसेलीनेशन तकनीक विकसित की है जिससे समुद्री पानी को पीने योग्य बनाया जा सकता है। इस तरह के कई प्लांट्स पंजाब, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में काम कर रहे हैं। भाभा के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई इस तकनीक से प्रतिदिन 63 लाख लीटर पानी पीने योग्य बनाया जा सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2030 तक दुनिया के तकरीबन चार अरब लोग पेयजल में परिवर्तित समुद्री खारा पानी इस्तेमाल करने लगेंगे।
पिछले दिनों भारत पहुँचे इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भारत को गल मोबाइल, नामक जो एक डीसेलीनेशन कार भेंट में दी थी, वह प्रतिदिन बीस हजार लीटर समुद्री खारा पानी पीने योग्य बनाती है। इस गल मोबाइल डीसेलीनेशन कार का इस्तेमाल कच्छ के रण में तैनात बीएसएफ के जवान करेंगे। यह कार नब्बे किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ सकती है, जिसका स्व-ऊर्जा स्रोत होता है।
दुनिया की चालीस फीसदी आबादी समुद्री किनारों पर बसती है। जबकि दुनिया के दस में से एक व्यक्ति को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं होता है। यहाँ तक कि बाजार में बिकने वाली बोतलबन्द मिनरल वॉटर भी सौ फीसदी स्वच्छ शुद्ध नहीं है। भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा तय किए चालीस से अधिक मानकों में से यहाँ कई नदारद है जिनसे कई तरह की परेशनियाँ पैदा होती हैं।
यहाँ यह जान लेना बेहद जरूरी हो जाता है कि बोतलबन्द पानी बेचने वाली कम्पनियों के उत्पादन भी भारतीय मानक ब्यूरो की अनिवार्य प्रमाणनता के अन्तर्गत आते हैं। अभी उपभोक्ता मंत्रालय के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान बी आई एस (भारतीय मानक ब्यूरो) ने पानी बेचने वाली पच्चीस कम्पनियों पर छापेमारी करते हुए जो नमूने एकत्रित किए थे, उनमें से ज्यादातर खरे नहीं रहे। कम-से-कम ग्यारह मामलों में अदालती फैसलों के बाद इस कम्पनियों पर कार्रवाई की गई और कम्पनियों से भारी जुर्माना भी वसूल किया गया। तात्पर्य यही है कि पानी अमूल्य है और पीने का पानी तो अद्वितीय है। पानी बचाना बेहद जरूरी है। पानी बचेगा तो जीवन बचेगा और जीवन बचेगा तो मनुष्य बचेगा। इसीलिए कहा गया है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा। इसका सबसे ताजा उदाहरण दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन है, जहाँ जल संकट से पैदा होने वाले जल-दंगों के लिए पुलिस और सेना को सतर्क कर दिया गया है।
जल संकट को लेकर दुनिया भर की हालत चिन्ताजनक है। दक्षिण अफ्रीका में एक लम्बे समय से बारिश नहीं हो रही है। इस वजह से केपटाउन को जल-आपूर्ति करने वाले संसाधन बेहद खराब स्थिति में पहुँच गए हैं। इस शहर को जल-आपूर्ति करने वाले नेशनल मंडेलाबे पर बने बाँध में लगभग तीस फीसदी से भी कुछ कम पानी ही अब शेष रह गया है और मौसम वैज्ञानिकों का आकलन है कि हाल फिलहाल यहाँ बारिश होने की कोई सम्भावना नहीं है। प्रबल आशंका बनी हुई है कि जल-आपूर्ति की तमाम पाबन्दियों के बावजूद उक्त बाँध तीन-चार माह में पूरी तरह से खाली हो जाएगा, अगर ऐसा हुआ तो हमारे देखते केपटाउन दुनिया का एकमात्र ऐसा पहला महानगर होगा, जिसके पास दैनिक उपयोग और प्यास बुझाने तक का दो बूँद पानी नहीं होगा।
केपटाउन की तरह सम्पूर्ण संयुक्त अरब अमीरात भी विकराल जल-संकट की चपेट में आ गया है। यहाँ जल-संकट से निपटने के लिए जो योजना बनाई गई है। वह बेहद ही अजीबो गरीब है। यहाँ अंटार्कटिका से समुद्र के रास्ते एक हिमखंड खींचकर लाने की कोशिश की जा रही है। हिमखण्ड को खींचकर लाने की जिम्मेदारी एक निजी कम्पनी का सौंपी जा रही है। इस योजना के तहत 8,800 किलोमीटर दूर यह हिमखण्ड यहाँ पहुँचेगा फिर उसके टुकड़े तोड़-तोडक़र संग्रह किए जाएँगे। अनुमान लगाया जा रहा है कि यह हिमखण्ड लगातार पाँच बरस तक यूएई के लोगों की प्यास बुझाएगा। संयुक्त अरब अमीरात की इस अजीबो गरीब योजना से यह अन्दाज लगाना कठिन होता जा रहा है।
माना कि शेष दुनिया में जल संकट की समस्या भले ही अभी इतनी विकराल नहीं हो किन्तु दुनिया की एक बड़ी आबादी पानी की विकरालता से परेशान तो हो रही है। एक आकलन के अनुसार दुनिया की एक अरब से अधिक आबादी को आज भी पीने का साफ पानी नहीं मिलता है जबकि तीन अरब लोग कम-से-कम एक महीना तो पानी की कमी का सामना करते ही हैं। खबरें बता रही हैं कि वर्ष 2025 तक दुनिया की दो तिहाई आबादी जलसंकट की गिरफ्त में आ जाएगी।
भारत की स्थितियाँ भी कोई कम दयनीय नहीं हैं। देश के अधिकतर कुओं, तालाबों बाँधों ने पिछले दो दशक में तेजी से पानी खोया है। दो दशक पूर्व तक जहाँ पानी 2530 फीट जमीन के नीचे पानी उपलब्ध था वहाँ वह 200-300 फीट तक नीचे उतर चुका है। कहीं-कहीं तो इस गहराई ने भी साथ छोड़ दिया है। देश की लगभग तीन सौ नदियाँ खतरे की सूचना दे चुकी हैं। हिमालय से निकलने वाली साठ फीसदी जलधाराएँ सूखने के कगार पर हैं जिनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियाँ शामिल हैं। वर्ष 2016 में देश के नौ राज्यों के तकरीबन पैंतीस करोड़ लोग जल संकट से प्रभावित हुए थे। आशंका है कि भारत में भी केपटाउन जैसे हालात हो सकते हैं।(सर्वोदय प्रेस सर्विस, इंडिया वाटर पोर्टल से)

माँ का आँचल

खेलमखेल
माँ का आँचल 
-सुधा भार्गव
मैं जब छोटी थी मुझे खेलने का बड़ा शौक था। यह  निश्चित था कि हम भाई -बहन शाम को एक घंटे जरूर खेलने जायेंगे पर एक घंटे से क्या होता है। हम खींचतान कर उसे डेढ़ घंटा तो कर ही देते थे। वैसे तो घर में हमें फाँसने के लिए बहुत से खेल थे- लूडो, कैरम, व्यापार, साँप सीढ़ी आदि। पर जो बाहर दौड़ा- दौड़ी में आनंद था वह घर में कहाँ!
इतवार की इतवार घर से बाहर छोटे से मैदान में क्रिकेट खेला जाता था। चाचा जी पिता जी और उनके दोस्त खेला करते थे। मुझे तो खेलने का कोई मौका ही नहीं देता था, बस दूर -दूर से गेंद उठाकर लाने का काम था। मैं तो हाँफ जाती थी; मगर खड़ी रहती शायद चांस दे दें। जिस दिन चांस मिल जाता ,खुशी से जमीन पर पैर नहीं पड़ते थे।
मुझे तो लट्टू घूमता बहुत अच्छा लगता था। मानो वह कह रहा हो -देखो -देखो एक पैर पर कैसा नाच रहा हूँ , तुम भी मुझे नचाओ। मेरी तरह से तुम्हें भी खुशी मिलेगी। बस मैंने भी सोच लिया लट्टू घुमाना सीख कर ही रहूँगी। किसी तरह से बाजार से तो ले आई पर दिमाग में खलबली मच गई सीखूँ किस्से? दोस्तों से सीखने को कहती तो हँसी उड़ाते -लो इसे इतना भी नहीं आता..। भाई की 2-3 दिनों तक खुशामद की तब उसने मुझे सिखाया। लट्टू तो मेरा गोल -गोल जमीन पर घूमने लगा पर उसे हथेली पर कभी न उठा सकी। इसका अफसोस आज भी है।
गोल -गोल चमकती -लुढक़ती काँच की गोलियों की तरफ मैं खिंची चली जाती। उनसे मैं खेलती तो नहीं थी पर वे मुझे बहुत सुंदर लगती थीं। उन्हें कंचे कहते थे। एक लडक़ा अपने कंचे से दूसरे लडक़े के कंचे में उँगलियों के सहारे निशाना लगाता। कामयाब होने से निशाना लगाने वाले का कंचा हो जाता।  एक दिन छोटे भाई की जेब में कंचे खनखनाते हुए सुन समझ गई -वह बाहर उनसे  खेलने जाने वाला है। मैं  भी उसके साथ हो ली। मगर वह अड़ गया -आप नहीं जाओगी, किसी की बहन खेलने नहीं आती ।
- अरे मैं खेलूँगी नहीं..। बस देखूँगी ।
- नहीं..। मैं नहीं ले जाऊँगा ।
- तब मैं पिता जी से तेरी शिकायत लगा दूँगी ।
पिता जी इस खेल के सख्त खिलाफ थे इसलिए मेरी  धमकी  काम कर गई। पर उसका मुँह फूला ही रहा जितनी देर खेला।
घर से बाहर हमारे खेलने को- इप्पल -दुपपल, कीलम काटी झर्रबिल्इया, चूहा भाग बिल्ली आई, घोड़ा है जमालशाही पीछे देखो मार खाई न जाने कितने खेल थे पर गिल्ली -डंडे में खूब मन लगता था। मेरा एक थैला गिल्लियों से भरा रहता । बढ़ई काका खूब बना-बना कर देते। एक खो जाय तो दूसरी हाजिर। अक्सर छोटे डंडे से गिल्लियाँ उड़ जाती जो मिलती नहीं थीं। कभी -कभी अपने साथियों को भी गिल्ली दे देती, फिर वे मेरी बात बहुत मानते ।
 इस खेल पर कोई पाबंदी भी नहीं थी, पिताजी ताऊ जी तो खुद खेलते थे। एक बार  ताऊ जी गिल्ली खेल रहे थे। काफी दूर पर उनकी बेटी खड़ी तमाशा देख रही थी। ताऊ जी ने ज़ोर से गिल्ली को डंडे से उछालकर उसमें ज़ोर से ऐसा छक्का मारा कि उसकी नोंक दीदी की आँख में चुभ गई और ले बैठी उनकी आँख की रोशनी। तब से थोड़े सावधान हो गए  पर गिल्ली खेलनी नहीं छोड़ी ।
ठंड  में दिन छोटे होने के कारण हमें शाम को खेलने का मौका कम मिलता। पर  उसकी कसर स्कूल की छुट्टी के दिन खूब निकालते।
छुट्टी के दिन सबसे आनंद दायक हमारा इकलौता खेल होता -कूदमकूद। एक कमरे में दो बड़े -बड़े अलम्यूनियम बॉक्स  थे जिनमें गद्दे -लिहाफ रखे जाते थे। वे केवल सर्दियों में खुलते थे। सर्दी की एक सुबह नौकर ने बिस्तरे ठीक किए और लिहाफों की तह करके उन्हें बक्सों पर रख दिए। दोपहर को खाना खाने के बाद हम भाई -बहन उस कमरे में घुस गए। हमारे बाद अम्मा ने खाना खाया। छोटे भाई को सुलाते वे भी सो गईं। हमें धींगामस्ती का समय मिल गया। और तो और अंदर से कमरे की कुंडी भी लगा ली, ताकि कोई नौकर शिकायत न कर दे। हम भाई -बहनों ने छोटे -छोटे हाथों से बड़े-बड़े लिहाफ नीचे खींच लिये, फिर उन पर खूब कूदे -उछले। कोई कहीं गिरा कोई कहीं लुढक़ा।  अम्मा ने हमारे लिए अलग से तकिये बनाए थे हम छोटे थे तो हमारे तकिये भी छोटे थे। उन्हें एक दूसरे पर पूरी ताकत लगाकर फेंकने लगे। जब वह किसी  के सिर या मुँह से टकराता तो खूब हँसतेइतना हँसते कि पेट में बल पड़ जाते। कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला पर अम्मा की नींद टूट गई ।
हममें से किसी को आसपास न देख खोज-ख़बर लेने में जुट गईं। दरवाजा बंद देख अम्मा को हमारी शैतानी का अंदाजा लग गया और कुंडी खटखटा दी। एक मिनट को हम सब बुत बन गए। उपद्रव करने वाले हाथ रुक गए। डाँट के डर से समझ नहीं पाए क्या करें। लिहाफों की तह करके उन्हें बाक्स पर रख नहीं सकते थे, माँ का सामना करने से बच नहीं सकते थे।
मैंने दरवाजा खोला, अम्मा ने जोर से मेरा कान ऐंठ दिया। समझ गईं -यह किसके दिमाग की उपज  है। दोनों भाई छिपने की कोशिश करने लगे कोई दरवाजे के पीछे, कोई पलंग के नीचे। अम्मा को ज्यादा गुस्सा नहीं आता था पर उस दिन तो मेरी बांह में चिकौटी भी काटी थी लगा जैसे लाल चींटी ने काट खाया हो ।
इतने में पिता जी न जाने से कहाँ से आ गए और दहाडऩे लगे -तुमने इन बच्चों को बिगाड़ दिया है। निकालो इन्हें कमरे से -अभी सबक सिखाता हूँ।
माँ का गुस्सा कपूर की तरह उडऩ छू हो गया। हमें अपने स्नेही आँचल में छिपाकर पिता जी की लाल पीली आँखों से दूर ले गईं ।
काश! आज भी वह स्नेह कवच मेरे इर्द गिर्द लिपटा होता।
email- subharga@gmail.com

फैशन

आँखों में रंगीन टैटू
कॉन्टेक्ट लैंस की परेशानियों से तो पार भी नहीं पाए थे कि अब आंखों में टैटू कराने का फैशन चल पड़ा है और एक साल में ही इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं।
आंखों में टैटू बनाने के लिए आंखों की सबसे ऊपरी दो परतों के बीच में रंगीन स्याही इंजेक्ट की जाती है। आंखों के सफेद हिस्से को रंगीन बनाने के लिए इंजेक्शन में इंक भरकर डाली जाती है। टैटू के लिए चटख नारंगी, जामुनी, हरा, लाल और यहां तक कि काला रंग पसंद किए जा रहे हैं जो सफेद आंख को हमेशा के लिए रंगीन बना दे।
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इस तरह खूबसूरत दिखने की चाहत में जऱा-सी गलती आपको भयानक परेशानी में डाल सकती है। इसके अलावा इस प्रक्रिया में सूजन और संक्रमण भी हो सकता है और यदि यह संक्रमण बढ़ता है, तो हो सकता है आप हमेशा के लिए दृष्टि सम्बंधी परेशानियों से घिर जाएँ।


इसे समझने के लिए आंख की बनावट की बात करते हैं। आंखों का बाहर से दिखने वाला पटल सफेद दिखता है। वैसे कई लोग यह नहीं जानते कि इसमें दो झिल्लियां होती हैं। एक तो अंदर वाली झिल्ली होती है जिसे स्क्लेरा कहते हैं। स्क्लेरा को ढके हुए एक और झिल्ली होती है जिसे कंजक्टाइवा कहते हैं। आम तौर पर इन दो झिल्लियों के बीच केवल रक्त वाहिकाएँ और सीरम तरल होता है जिसके कारण हमारी आंखें चमकदार और सफेद दिखाई देती हैं। अपवाद स्वरूप कुछ अन्य पदार्थ इनके बीच जमा हो सकते हैं। जैसे कुछ मामलों में रक्त वाहिकाओं में क्षति के कारण रक्त का थक्का या लाल रंग जमा हो जाता है। इसके अलावा पैदाइशी निशान के रूप में मेलेनिन रंजक या काला धब्बा और पीलिया के मामले में पीला पदार्थ इन दो झिल्लियों के बीच में जमा हो जाते हैं। इनकी वजह से सफेद दिखने वाला भाग लाल, भूरा या पीला हो जाता है।
हमारी आंखें बहुत ही अद्भुत और नाज़ुक अंग है। ये त्वचा की तरह नहीं हैं कि इनमें टैटू गोदा जाए। गौरतलब है कि त्वचा पर टैटू गुदवाने के मामलों में भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन कई मामलों में आंखों में टैटू करवाना बहुत ही खतरनाक हो सकता है।
पहली दिक्कत तो यह हो सकती है कि इंजेक्शन की सुई आँख में छेद कर दे। कभी-कभी आँखों में ऐसी क्षति हो सकती है कि मोतियाबिंद विकसित होने लगे या रेटिना अपनी जगह से हट जाए। और संक्रमण का खतरा तो है ही। टैटू के लिए जो स्याही इस्तेमाल की जाती है, उसकी वजह से एलर्जी पैदा हो सकती है। हाल ही में अमेरिकन जर्नल ऑफ ऑफ्थेल्मोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र में आँखों के टैटू के खतरों के प्रति आगाह किया गया है। आँखों में इस तरह की क्षति को चिकित्सा सहायता के द्वारा पूरी तरह से ठीक भी नहीं किया जा सकता है। इसलिए आँखों को टैटू करवाने से पहले उसके दुष्परिणामों की तरफ भी नजऱ डाल लेना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

सेल्युलर जेल

क्रान्तिकारियों के बलिदान का साक्षी 
सेल्युलर जेल 
- कृष्ण कुमार यादव
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी सरकार को चैकन्ना कर दिया। व्यापार के बहाने भारत आए अंग्रेजों को भारतीय जनमानस द्वारा यह पहली कड़ी चुनौती थी जिसमें समाज के लगभग सभी वर्ग शामिल थे। जिस अंग्रेजी साम्राज्य के बारे में ब्रिटेन के मजदूर नेता अर्नेस्ट जोंस का दावा था कि-अंग्रेजी राज्य में सूरज कभी डूबता नहीं और खून कभी सूखता नहीं’, उस दावे पर ग्रहण लगता नजर आया। दिल्ली में हुए युद्ध पर अंग्रेज हड्सन के शब्द गौर करने लायक हैं-शहर की सीमा पर जबरदस्त विरोध का सामना करने के बाद हमारी फौजें शहर में दाखिल हुईं, तो जिस हिम्मत और दृढ़ता के साथ विद्रोहियों और हथियारबंद योद्धाओं ने जंग लड़ी, वह सब हमारी सोच से बाहर था।स्पष्ट है कि अंग्रेजों को आभास हो चुका था कि उन्होंने युद्ध अपनी बहादुरी व रणकौशलता की वजह से नहीं बल्कि षडयंत्रों, जासूसों, गद्दारी और कुछेक भारतीय राजाओं के सहयोग से जीता था। अपनी इन कमजोरियों को छुपाने के लिए जहाँ अंग्रेजी इतिहासकारों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सैनिक गदर मात्र कहकर इसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की, वहीं इस संग्राम को कुचलने के लिए भारतीयों को असहनीय व अस्मरणीय यातनाएँ दी गई। एक तरफ लोगों को फाँसी दी गयी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया गया व तोपों से बांधकर दागा गया वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी सरकार को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें ऐसी जगह भेजा गया, जहाँ से जीवित वापस आने की बात तो दूर किसी अपने-पराए की खबर तक मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते थे। अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अंग्रेजी सरकार ने रंगून भेज दिया, जबकि इसमें भाग लेने वाले अन्य क्रान्तिकारियों को काले पानी की सजा बतौर अण्डमान भेज दिया।

भौगोलिक रूप से कोलकाता के दक्षिण में लगभग 1200 किलोमीटर की दूरी पर बंगाल की खाड़ी में प्रकृति के खूबसूरत आगोश में 8249 वर्ग कि.मी. में विस्तृत 572 द्वीपों (अंडमान-550, निकोबार-22) के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भले ही मात्र 38 द्वीपों (अंडमान-28, निकोबार-10) पर जन-जीवन है, पर इसका यही अनछुआपन ही आज इसे प्रकृति के स्वर्ग रूप में परिभाषित करता है। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर, जो कि यहाँ का प्रमुख बन्दरगाह भी है, पर सेल्युलर जेल अवस्थित है। 1789 में यहाँ कब्जा करने वाले ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लेफ्टिनेंट लॉर्ड आर्किबल्ड पोर्ट ब्लेयर के नाम पर इसका नामकरण पोर्टब्लेयर किया गया। वनाच्छादित इन जंगलों में दुनिया की सबसे प्राचीन जनजाति शोम्पेन और जारवा बसी हुई हैं। इसी द्वीप पर 1857 के संग्राम पश्चात जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने पुन: कब्जा कर स्वाधीनता सेनानियों के निष्कासन के लिए चुना, जिसे दण्डी बस्तीकहा गया। इसी दण्ड को जनभाषा में काला पानीकी सजा कहा गया। 10 मार्च 1858 को पहली बार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले 200 लोगों के जत्थे को लेकर जेम्स पेरिकन वाकर जहाज से अण्डमान पहुँचा, तो अप्रैल 1868 में 737 स्वतंत्रता सेनानियों का दूसरा जत्था कराची से यहाँ लाया गया। इन सभी को आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया। अंग्रेजी सरकार को लगा कि सुदूर निर्वासन व यातनाओं के बाद ये स्वाधीनता सेनानी स्वत: निष्क्रिय व खत्म हो जायेंगे पर दण्डी बस्ती में यह निर्वासन भी इन सेनानियों की गतिविधियों को नहीं रोक पाया। वे तो पहले से ही जान हथेली पर लेकर निकले थे, फिर भय किस बात का। अपने विद्रोही तेवरों के लिए मशहूर प्रथम जत्थे के 200 पंजाबी सेनानियों ने 1 अप्रैल 1859 को सुपरिन्टेण्डेण्ट वाकर को मारने का प्रयास किया, पर किसी तरह वाकर ने वहाँ से भागकर अपनी जान बचायी। इस विद्रोह में इन बन्दी सेनानियों ने बन्दूकों, चाकुओं व कुल्हाड़ियों की मदद से नौसैनिक प्रहरियों की हत्या कर बस्ती के गोदाम और प्रहरी नौकाओं पर कब्जा कर लिया था। बन्दी सेनानियों का यह प्रथम संगठित प्रयास था पर इससे पूर्व भी कई बन्दी सेनानियों ने विद्रोह कर भागने का प्रयास किया था।
दीनापुर कैण्टोनमेण्ट के सेनानी नारायण ने पहले जत्थे में अण्डमान पहुँचने के दिन से ही कैदी सेनानियों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया और चौथे दिन ही चैथम द्वीप से पलायन करने का प्रयास किया। वह चैथम द्वीप से तैरकर मुख्य द्वीप पहुँचने ही वाला था कि उस पर गोली चलाकर वापस आने के लिए मजबूर कर दिया गया एवं तत्पश्चात मुकदमा चलाकर उसे मृत्यु दण्ड दे दिया गया। इसी प्रकार एक बन्दी सेनानी निर्गुण सिंह ने रॉस द्वीप पर आत्महत्या कर ली। 18 मार्च 1858 को रॉस द्वीप से 21 बन्दी सेनानी पलायन कर गए पर अन्तत: 30 मार्च को उन्हें चैथम द्वीप पर आत्मसमर्पण करना पड़ा। रॉस द्वीप से ही 23 मार्च को 11 कैदी पलायन कर गए, जिनका अन्त तक कोई पता नहीं चला। मात्र 2 महीनों के भीतर मार्च व अप्रैल 1858 में कुल 251 बन्दी सेनानियों ने वहाँ से पलायन करने का प्रयास किया, जिसमें 88 पकड़े गए और उनमें से 46 को सुपरिण्टेन्डेन्ट वाकर ने मृत्यु दण्ड दे दिया। पलायन करने वाले शेष बन्दी सेनानी या तो कबिलाइयों के हाथ मारे गए अथवा भूख-प्यास से ग्रस्त होकर खत्म हो गए। इसी प्रकार अंग्रेजी सरकार ने न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानियों को अण्डमान निर्वासित करके भेजा पर इन सेनानियों ने हिम्मत नहीं हारी। 1868 में 238 बन्दी सेनानियों ने पलायन करने का प्रयास किया पर अन्तत: सभी पकड़ लिये गए। इनमें से 187 को सुपरिण्टेन्डेन्ट वाकर ने फाँसी पर लटका दिया और एक ने आत्महत्या कर ली।


8 फरवरी 1872 को वहाबी आन्दोलन से जुड़े भोरअली ने भारत के वायसराय लार्ड मेयो की हत्या कर दी। अंग्रेजी सरकार ने घबराकर भोरअली को मृत्युदण्ड की सजा देते हुए वाइपर नामक द्वीप पर फाँसी पर लटका दिया। इस घटना ने अंग्रेजी सरकार को हिला कर रख दिया और अंतत: अंग्रेजी सरकार ने दण्डी बस्ती को कारागार में बदलने का कठोर निर्णय लिया। बन्दी सेनानी से द्वीपों में जंगलों की सफाई, पेड़ काटने व पत्थर तोड़ने जैसे कार्य करवाए गए, ताकि कारागार का निर्माण हो सके। 1890 में सर चाल्र्स जे. लायल एवं ए. एस. लेथ पोर्टब्लेयर आए तथा कारागार निर्माण की अनुमति दी। पर यह निर्माण कार्य 6 साल बाद 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ। सेलुलर  जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं। सेलुलर जेल के निर्माण के बाद यहाँ दिए जाने वाले दण्डों की भयावहता और भी बढ़ गयी। इस दौरान न सिर्फ वहाबी आन्दोलन (1830-1869), बल्कि मोपला आन्दोलन (1792-1947), प्रथम रम्पा आन्दोलन (1878-1879), द्वितीय रम्पा आन्दोलन (1922-1924), तरा़वड़ी किसान आन्दोलन, बर्मा आन्दोलन (1930) इत्यादि में भाग लेने वाले स्वाधीनता सेनानियों को काले पानी का आजीवन कारावास भोगने के लिए इस सेलुलर जेल में भेजा गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पश्चात क्रान्तिकारियों को स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रियता से भाग लेने के कारण चार वर्ष की अवधि में ही 488 क्रान्तिकारी कालापानी की सजा हेतु सेलुलर जेल भेज दिए गए। इन क्रान्तिकारियों का मनोबल तोडऩे और उनके उत्पीडऩ हेतु यहाँ पर तमाम रास्ते अख्तियार किए गए। स्वाधीनता सेनानियों और क्रातिकारियों को राजनैतिक बंदी मानने की बजाय उन्हें एक सामान्य कैदी माना गया। यही कारण था कि उन्हें लोहे के कोल्हू चलाने हेतु बैल की जगह जोता गया और प्रतिदिन 15 सेर तेल निकालने की सजा दी गयी। यह अलग बात है कि सौ में एकाध ही ऐसा होता जो दिन-भर कोल्हू में जुतकर 15 सेर तेल निकाल पाता। तेल पूरा न होने पर थप्पड़ पड़ते, और बेतें बरसतीं। इतिहास गवाह है कि अलीपुर षडयंत्र से जुड़े क्रान्तिकारी उल्लासकर इसी प्रकार की सजा के चलते अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और 14 साल तक मद्रास के मानसिक चिकित्सालय में भर्ती रहे। बन्दी सेनानियों को खाने के लिए दी जाने वाली रोटी में कचरे के साथ कीड़ों-मकोड़ों का मिश्रण होता, सब्जी में उन्हें जंगली घास उबाल कर दी जाती, पहनने हेतु मोटे खुरदुरे टाट के कपड़े दिए जाते, जो कोड़ों से छिले बदन पर सुई की भाँति चुभते और ये कपड़ा न पहनने पर नंगे छिले बदन को समुद्री पानी की नमकीन वायु की तीक्ष्ण जलन सहनी पड़ती थी। बेंत की मार, एकांतवास की सजा, कोल्हू में जुतना इत्यादि के साथ मल-मूत्र करने पर भी रोक-टोक थी। सुबह-शाम व दोपहर को छोडक़र अन्य समय शौच जाना अपराध माना जाता था। कोठरी में रात को एक ही कैदी रहता था तथा पेशाब करने के लिए एक मटका कोठरी में रहता। रात के बारह घंटों में कोई शौच न कर पाता था। यदि किसी को शौच लगता तो उसे डॉक्टर से कहकर बारी से आज्ञा लेनी पड़ती। उस पर भी यदि कोई बन्दी कमरे में ही शौच कर देता तो उसे तीन-चार दिन तक दिन-भर खड़े रहने की सज़ा दी जाती। उस हालत में सबेरे छ: से दस और दोपहर को बारह से पाँच बजे तक हथकड़ी में खड़ा होना पड़ता और उस समय शौच तो क्या पेशाब पर प्रतिबन्ध होता।


कालापानी की सजा कोई साधारण सजा नहीं होती थी। कितने ही कैदी उस सजा से घबराकर आत्महत्या कर लेते थे, तो वहाँ की खराब आबोहवा व तकलीफों के चलते कई लोग बीच में ही दम तोड़ देते थे। अरविन्द घोष, वीरेन्द्र घोष, आशुतोष लाहिड़ी, पृथ्वी सिंह, भाई परमानन्द और पंडित परमानन्द झाँसीवाले जैसे अनेक क्रान्तिकारियों को अंडमान में कालापानी की सजा दी गई। अलीपुर शड्यंत्र (1908) के मामले में 1909 में बरिन घोष, उल्लास्कर दत्त, उपेन्द्र नाथ बनर्जी व हेमचन्द्र दास सहित 34 क्रान्तिकारियों को, नासिक षड्यंत्र मामले में 7 अप्रैल 1911 को सावरकर को, गदर पार्टी से जुड़े क्रान्तिकारियों को 1914 में, लाहौर षड्यंत्र मामले में 1930 में बटुकेश्वर दत्त, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, महावीर सिंह, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी, डॉ. गया प्रसाद को, चटगाँव विद्रोह (1930) में 1934 में अम्बिका चक्रवर्ती, अनन्त सिंह, गणेश घोष, आनन्द गुप्ता, लोकनाथ बल, फकीर सेन, रणधीर दास गुप्ता इत्यादि को आजीवन करावास सहित अंडमान में कालापानी की सजा दी गई। काकोरी काण्ड में शचीन्द्र नाथ सान्याल व शचीन्द्र बख्शी को कालापानी की सजा हुई तो योगेश चन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लालजी, गोविन्दचरण कार, राजकुमार सिंह व रामकृष्ण खत्री, जिन्हें काकोरी काण्ड में 10 साल की सजा हुई थी, को भी बढ़ाकर कालापानी में तब्दील कर दिया गया। गौरतलब है कि चीन और रूस की सफल क्रान्ति पश्चात भारत में इससे प्रेरणा लेकर तमाम आन्दोलन आरम्भ हुए। बंगाल में बंगाल रिवोल्यूशनरी पार्टी, अनुशीलन समिति, युगान्तर, तो उत्तर प्रदेश व पंजाब में नौजवान भारत सभा व हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी जैसे क्रांन्तिकारी संगठनों से जुड़े तमाम लोगों को 1921 के बाद काला पानी की सजा देकर अण्डमान भेजा गया।


सावरकर ने अपनी आत्मकथा में कालापानी के दिनों का वर्णन किया है, जिन्हें पढक़र अहसास होता है कि आजादी के दीवाने गुलामी के दंश को खत्म करने हेतु किस हद तक  यातनाएँ और कष्ट झेलते रहे। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- हमें तेल का कोल्हू चलाने का काम सौंपा गया, जो बैल के ही योग्य काम माना जाता है। जेल में सबसे कठिन काम कोल्हू चलाना है-सबेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बन्द होना तथा शाम तक कोल्हू का डंडा हाथ से घुमाते रहना। कोल्हू में घानी के पड़ते ही वह इतना भारी चलने लगता कि हृष्ट-पुष्ट शरीर के व्यक्ति भी उसकी बीस फेरियाँ करके रोने लग जाते। राजनैतिक कैदियों का स्वास्थ्य खराब हो या अच्छा, ये सब सख्त काम उन्हें दिए ही जाते थे। सवेरे से दस बजे तक लगातार चक्कर लगाने से साँस लेना भारी हो जाता और प्राय: सभी को चक्कर आ जाता और कुछ तो बेहोश भी हो जाते। दोपहर को भोजन आते ही दरवाजा खुल पड़ता, कैदी थाली भर लेता और अन्दर जाता कि दरवाजा बन्द। यदि इस बीच कोई अभागा कैदी यह कोशिश करता कि हाथ-पैर धो ले या बदन पर थोड़ी धूप लगा ले, तो नंबरदार का पारा चढ़ जाता था। वह माँ-बहन की सैकड़ों गालियाँ देना शुरू कर देता। हाथ धोने को पानी नहीं मिलता था। कोल्हू चलाते-चलाते पसीने से तर हो जाते, प्यास लग आती और पानी माँगते तो पानी वाला पानी नहीं देता था। नंबरदार को यदि कहीं से इन्तज़ाम कर एकाध चुटकी तम्बाकू की दे दी तो अच्छी बात, नहीं तो उल्टे शिकायत कर दी जाती कि ये पानी बेकार बहाते हैं। पानी बेकार खर्च करना जेल में एक भारी जुर्म है। यदि किसी ने जमादार से शिकायत की तो वह गुस्से में कह उठा-दो कटोरी का हुक्म है, तुम तो तीन पी गया, और पानी क्या तुम्हारे बाप के यहाँ से आएगा।नहाने की तो कल्पना ही अपराध था। हाँ, वर्षा हो तो भले ही नहा लो। भोजन की स्थिति तो और भी बुरी थी। बाजरे की बेकार-सी रोटी, न मालूम कैसी खट्टी तरकारी कि मुँह में रखना भी कठिन। रोटी का एक टुकड़ा काटा, थोड़ा चबाया, ऊपर घूँट-भर पानी पिया और उसी के साथ कौर निगल लिया। बहुत से ऐसा करते कि मुँह में कौर रख लिया और कोल्हू में चलने लगे। कोल्हू पेरते-पेरते, थालियों में पसीना टपकाते-टपकाते उसी कौर को उठा-उठाकर मुँह में भरकर निगलते-निगलते ही कोल्हू पेरते रहते।


काला पानी की अमानवीय यातनाओं के बीच भी ये बन्दी सेनानी अपना उल्लास नहीं खोते थे। 16 वर्षीय किशोर बेनी गोपाल मुखर्जी तो अण्डमान आते ही जेल में चल रही भूख हड़ताल में शामिल हो गया। क्रान्तिकारी पत्र स्वराजके सम्पादक नन्द गोपाल चोपड़ा ने तो अपनी हाज़िरजवाबी से वहाँ के स्टाफ को खूब परेशान किया। उन्होंने कोल्हू में चलने से इनकार कर दिया और जब जोर-जबरदस्ती की गई तो खूब धीमे-धीमे चलते रहे। नतीजन खाने के समय तक अपने हिस्से का एक तिहाई तेल ही निकाल पाए। जब खाने की बारी आई तो जमादार ने उनसे जल्दी खाकर काम में जुटने को कहा तो मुस्कराते हुए उन्होंने जमादार को जल्दी-जल्दी खाने से होने वाले पेट के विकारों पर लम्बा भाषण दे डाला। खीझकर जमादार जेलर को बुला लाया और जब जेलर ने उन्हें कोड़े लगाने की धमकी दी ,तो सम्पादक जी ने बड़ी मासूमियत से जेलर साहब को याद दिलाया कि  खाने का समय 10 से 12 बजे तक नियत है और उन्हें इस सम्बन्ध में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। खाना खाकर नन्द गोपाल चोपड़ा ने एक लम्बी नींद ली। अनुशासन भंग के कारण जेलर ने उन्हें एकान्तवास की सजा दी, पर इसी बहाने वे कोल्हू में जुतने से बच गए। देशभक्ति के जज्बे से भरे इन देशभक्तों ने सेल्युलर जेल की दीवारों पर भी अपने शब्द चित्र अंकित किए हैं।
सेल्युलर जेल में कैद राजनैतिक बन्दियों ने 12 मई 1933 को यातनाओं के विरोध में प्रथम बार सामूहिक रूप से आमरण अनशन शुरू कर दिया। उन्होंने उन सभी सुविधाओं, मसलन-अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ और कोठरियों में बिजली इत्यादि की व्यवस्था की माँग की, जो भारत की अन्य जेलों में दी जा रही थीं। पंजाब का जेलर वाकर, जो अपनी क्रूरता के लिए जाना जाता था, इस भूख हड़ताल को तोडऩे के लिए तत्काल बुलवाया गया। वाकर ने बन्दी सेनानियों पर दबाव डालने के लिए उन्हें पानी से भी वंचित कर दिया। इस दौरान उत्तर प्रदेश के महावीर सिंह और बंगाल के मोहन किशोर, नामोदास और मोहित मित्र की मृत्यु हो गयी। मामला ज्यादा तूल न पकड़े, इसलिए उनकी लाशों को पत्थर से बाँधकर रातों-रात समुद्र में फिंकवा दिया गया। इसके बावजूद बन्दी सेनानी अडिग रहे और पूरे 46 दिनों तक यह हड़ताल चली। अन्तत:, अंग्रेजी सरकार को बन्दी सेनानियों की माँगों को मानना पड़ा व तब जाकर 26 जून 1933 को भूख हड़ताल खत्म हुई और उन्हें एक-दूसरे से मिलने जुलने की अनुमति प्रदान की गई।
 इस बीच द्वितीय विश्व युद्ध की आहट सुनाई देने लगी थी। 26 अप्रैल 1935 को 39 बन्दियों का एक दल गठित हुआ जिसकी संख्या बाद में बढक़र 200 तक हो गयी। सेल्युलर जेल के राजनैतिक बंदियों ने 9 जुलाई 1937 को  अंग्रेजी सरकार को एक याचिका भेजकर समस्त राजनैतिक कैदियों को अबिलम्ब रिहा कर स्वदेश वापसी की माँग की। यही नहीं, अपनी माँग मनवाने के लिए बन्दी सेनानियों ने 25 जुलाई 1937 को सामूहिक रूप से भूख हड़ताल भी आरम्भ कर दी। अंडमान में कैद इन बन्दियों के समर्थन में भारत में भी देशव्यापी प्रदर्शन आरम्भ हो गए तथा अन्य बन्दीगृहों में कैद राजनैतिक बन्दियों ने भी उनके समर्थन में भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। उस समय चुनाव पश्चात् तमाम प्रान्तों में कांग्रेस मंत्रिमण्डल गठित था और ज्यों-ज्यों इस हड़ताल का दायरा बढ़ता गया तो सारे राष्ट्रीय नेता चिन्तित हो उठे।
गाँधीजी, नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि ने बंदियों से भूख हड़ताल खत्म करने का आग्रह किया। 28 अगस्त 1937 को इन नेताओं द्वारा तार भेजे गए कि -सम्पूर्ण राष्ट्र आप लोगों से भूख हड़ताल खत्म करने की अपील करता है तथा आपको आश्वस्त करता है कि आपकी माँगों को पूरा कराया जाएगा।अन्तत:  36 दिन की भूख हड़ताल और भारत में अंग्रेजी सरकार पर राष्ट्रीय नेताओं के पड़ते दबाव से अंग्रेजी सरकार झुकने को मजबूर हो गयी व बंदियों की सभी माँगों को मान लिया। काला पानी की सजा झेल रहे बन्दी सेनानियों और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के राष्ट्रीय नेताओं हेतु यह एक बड़ी विजय थी। इसके पश्चात सितम्बर 1937 से अंडमान की सेल्युलर जेल से बन्दी सेनानियों के वापस आने का सिलसिला आरम्भ हुआ। उस समय कुल 385 बन्दी सेनानियों में से बंगाल के 339, बिहार के 19, उत्तर प्रदेश के 11, असम से 5, पंजाब से 3 एवं दिल्ली व मद्रास से 2-2 स्वतंत्रता सेनानी थे। 1937 के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाले किसी भी सेनानी को काले पानी का मुँह नहीं देखना पड़ा और सेल्युलर जेल एक इतिहास बन गया।
कहा जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 23 मार्च 1942 को जब अंडमान जापानियों के कब्जे में था, उस दौरान  वहाँ के सभी दस्तावेज जला दिए गए। यह एक रहस्य ही है कि यह किसके निर्देश पर व क्यों जलाया गया ? 1943 में आजाद हिन्द फौज ने पोर्टब्लेयर पर पदार्पण किया और सुभाषचन्द्र बोस ने 30 दिसम्बर 1943 को वहाँ तिरंगा झण्डा फहरा दिया और सेल्युलर जेल में यातना पा रहे क्रान्तिकारियों की तुलना फ्रांसीसी क्रान्ति के सजायाफ़्ता कैदियों से की। 1945 में अंग्रेजों ने अंडमान व निकोबार द्वीप समूहों पर पुन: कब्जा कर लिया। 1906 में निर्मित  सेल्यूलर जेल की शताब्दी पर 10 मार्च 2006 को अंडमान व निकोबार द्वीप पर सेल्यूलर जेल का शताब्दी उत्सव मनाया गया, जिसमें काला पानी की सजा भुगत चुके तीन जीवित बन्दी सेनानी-अधीर नाग, कार्तिक सरकार व विमल भौमिक भी सम्मिलित हुए। कार्तिक सरकार ने इस अवसर पर इच्छा व्यक्त की कि देश के हरेक व्यक्ति विशेषकर बच्चों को सेल्युलर जेल के दर्शन करने चाहिए ,ताकि आजादी की कीमत का अहसास उन्हें भी हो सके। इस शताब्दी उत्सव में शामिल अधिकतर लोगों ने सेल्युलर जेल को एक ऐसा तीर्थ माना जो मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे से भी ज्यादा महान व विलक्षण हैं। बदलते वक्त के साथ सेल्युलर जेल इतिहास की चीज बन गया है पर क्रान्तिकारियों के संघर्ष, बलिदान एवं यातनाओं का साक्षी यह स्थल हमेशा याद दिलाता रहेगा कि स्वतंत्रता यूँ ही नहीं मिली है, बल्कि इसके पीछे क्रान्तिकारियों के संघर्ष, त्याग व बलिदान की गाथा है। 
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राक्षसी शक्तियों के दहन का पर्व

राक्षसी शक्तियों के दहन का पर्व 
- प्रमोद भार्गव
होली एक प्राचीन त्योहार है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मुख्य रुप से यह बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है। भारत और चीन में इसे, इसी परिप्रेक्ष्य में मनाने की परंपरा है। आज इस पर्व को मूल-अर्थों में मनाना ज्यादा प्रासंगिक है। क्योंकि नैतिकता-अनैतिकता के सभी मानदण्ड खोटे होते जा रहे हैं। समाज में जिसकी लाठी, उसकी भैंस का कानून प्रभावी बढ़ता जा रहा है। साधन और साध्य का अंतर खत्म हो रहा है। गलत साधनों से कमाई संपत्ति और बाहुबल का बोलबाला हर जगह बढ़ रहा है। ऐसी राक्षसी शक्तियों के समक्ष, नियंत्रक मसलन कानूनी ताकतें बौनी साबित हो रही हैं। हिंसा और आतंक से भयभीत वातावरण में हम भयमुक्त होकर नहीं जी पा रहे हैं। दुविधा के इसी संक्रमण काल में होलिका को मिले वरदान आग में न जलने की कथा की अपनी प्रासंगिकता है। क्योंकि अंतत: बुराई का जलना और अत्याचारी व दुराचारी ताकतों का ढहना तय है।
सम्राट हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को आग में न जलने का वरदान था अथवा हम कह सकते हैं, उसके पास कोई ऐसी वैज्ञानिक तकनीक थी, जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी। लेकिन जब वह अपने भतीजे प्रहलाद का अंत करने की क्रूर मानसिकता के साथ उसे गोद में लेकर प्रज्वलित अग्नि में प्रविष्ट हुई, तो प्रहलाद तो बच गए, किंतु होलिका जल कर मर गई। उसे मिला वरदान काम नहीं आया। क्योंकि वह असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी। वह अंहकारी भाई के दुराचारों में भागीदार हो गई थी। इस लिहाज से कोई स्त्री नहीं बल्कि दुष्ट और दानवी प्रवृत्तियों का साथ देने वाली एक बुराई जलकर खाक हुई थी। लेकिन इस बुराई का नाश तब हुआ, जब नैतिक साहस का परिचय देते हुए एक अबोध बालक अन्याय और उत्पीड़न के विरोध में दृढ़ता से खड़ा हुआ।
इसी कथा से मिलती-जुलती चीन में एक कथा प्रचलित है, जो होली पर्व मनाने का कारण बनी है। चीन में भी इस दिन पानी में रंग घोलकर लोगों को बहुरंगों से भिगोया जाता है। चीनी कथा भारतीय कथा से भिन्न जरूर है, लेकिन आखिर में वह भी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। चीन में होली का नाम है, ‘फोश्वेई च्येअर्थात रंग और पानी से सराबोर होने का पर्व। यह त्योहार चीन के युतांन जाति की अल्पसंख्यक ताएँनामक जाति का मुख्य त्योहार माना जाता है। इसे वे नए वर्ष की शुरुआत के रुप में भी मनाते हैं।
इस पर्व से जुड़ी कहानी है कि प्राचीन समय में एक दुर्दांत अग्नि-राक्षस ने चिंग हुगनाम के गाँव की उपजाऊ कृषि भूमि पर कब्जा कर लिया। राक्षस विलासी और भोगी प्रवृत्ति का था। उसकी छह सुंदर पत्नियाँ थीं। इसके बाद भी उसने चिंग हुग गाँव की ही एक खूबसूरत युवती का अपहरण करके उसे सातवीं पत्नी बना लिया। यह लडक़ी सुंदर होने के साथ वाक्पटु और बुद्धिमती थी। उसने अपने रूप-जाल के मोह-पाश में राक्षस को ऐसा बाँधा कि उससे उसी की मृत्यु का रहस्य जान लिया।
राज यह था कि यदि राक्षस की गर्दन से उसके लंबे-लंबे बाल लपेट दिए जाएँ, तो वह मृत्यु का प्राप्त हो जाएगा। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर युवती ने ऐसा ही किया। राक्षस की गर्दन उसी के बालों से सोते में बाँध दी। इन्हीं बालों से उसकी गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दी। लेकिन वह अग्नि-राक्षस था, इसलिए गर्दन कटते ही उसके सिर में आग प्रज्वलित हो उठी और सिर धरती पर लुढक़ने लगा। यह सिर लुढक़ता हुआ जहाँ-जहाँ से गुजरता वहाँ-वहाँ आग प्रज्वलित हो उठती। इस समय साहसी और बुद्धिमान लड़की ने हिम्मत से काम लिया और ग्रामीणों की मदद लेकर पानी से आग बुझाने में जुट गई। आखिरकार बार-बार प्रज्वलित हो जाने वाली अग्नि का क्षरण हुआ और धरती पर लगने वाली आग भी बुझ गई। इस राक्षसी आतंक के अंत की खुशी में ताएँ जाति के लोग आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे थे, उसे एक-दूसरे पर उड़ेल कर झूमने लगे। और फिर हर
साल इस दिन होली मनाने का सिलसिला चल निकला।
ये दोनों प्राचीन कथाएँ हमें राक्षसी ताकतों से लड़ने की प्रेरणा देती हैं। हालाँकि आज प्रतीक बदल गए हैं। मानदंड बदल गए हैं। पूंजीवादी शोषण का चक्र भूमण्डलीय हो गया है। आज समाज में सत्ता की कमान संभालने वाले संपत्ति और प्राकृतिक संपदा का अमर्यादित क्रेन्द्रीयकरण और दोहन करने में लगे हैं। यह पक्षपात केवल राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रह गया है, इसका विस्तार धार्मिक, सांस्कृतिक प्रशासनिक क्षेत्रों में भी है। नतीजतन हम सरकारी कार्यालय में हों, किसी औद्योगिक कंपनी की चमचमाती बहुमंजिला इमारत में हों अथवा किसी भी धर्म-परिसर में हों, ऐसा आभास जरूर होता है कि हम अंतत: लूट-तंत्र के षड्यंत्रों के बीच खड़े हैं। जाहिर है, ‘शासक वर्ग लोकहित के दावे चाहे जितने करे, अंतत: उनका सामंती चरित्र ही उभरकर समाज में विस्तारित हो रहा है। आम आदमी पर शोषण का शिकंजा कसता जा रहा है। आर्थिक उदारीकरण न तो समावेशी विकास का आधार बन पाया और न ही अन्याय से मुक्ति का उपाय साबित हुआ ? इसके उलट उसे अंतरराष्ट्रीय पूँजीवाद से जोडक़र व्यक्ति को अपनी सनातन ज्ञान परम्पराओं से काटने का कुचक्र रचा और जो ग्रामीण समाज लघु उद्योगों में स्वयं के उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ा था, उसे नगरीय व्यवस्था का घरेलू नौकर बना दिया। जाहिर है, ‘शासक दल लोक को हाशिये पर डालकर लोकहित का प्रपंच-गान करने में लगे हैं। लोक का विश्वास तोड़ कर लोकवादी या जनवादी कैसे हुआ जा सकता है ?
       हकीकत तो यह है कि कथनी और करनी के भेद सार्वजनिक होने लगे हैं। जिस शासन-प्रशासन तंत्र को राष्ट्रीय व संवैधानिक आदर्शों के अनुरूप ढालने की जरूरत थी, वे संहिताओं और आदर्शों को खंडित करके उनकी परिभाषाएँ अपनी राजनीतिक व अर्थ लिप्साओं के अनुरूप गढ़ऩे में लगे हैं। बाजार को मजबूत बनाने के लिए विधेयक लाए जा रहे हैं। परिवार को व्यक्तिगत इकाई मानकर और स्त्री शरीर को केवल देह मानकर कौटुम्बिक व्यवस्था को खंडित और स्त्री-देह को भोग का उपाय बनाने के प्रपंच किए जा रहे हैं।
दरअसल बाज़ारवादी ताकतें शोषण के जिस दुष्चक्र को लेकर आ रही हैं, उससे केवल नैतिक साहस से ही निपटा जा सकता है। इन शक्तियों की मंशा है कि भारतीयों को संजीवनी देने वाली नैतिकता के तकाजे को नष्ट-भ्रष्ट्र कर दिया जाए। इसीलिए निजी नैतिकता को अनैतिकता में बदलने के नीतिगत उपाय हो रहे हैं। जब कि नैतिक मूल्यों का वास्तविक उद्देश्य मानव जीवन को पतन के मार्ग से दूर रखते हुए उसे उदात्त बनाना है। यही कारण रहा है कि जब होलिका सत्य, न्याय और नैतिक बल के प्रतीक प्रहलाद को भस्मीभूत करने के लिए आगे आई तो वह खुद जलकर राख हो गई। उसकी वरदान रूपी तकनीक उसके काम नहीं आई। क्योंकि उसने वरदान की पवित्रता को नष्ट किया था। वह शासक दल के शोषण चक्र में साझीदार हो गई थी। चीनी राक्षस का भी यही हश्र युवती के एकांगी साहस ने किया।
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हम संग मुस्काएँगे!

हम संग मुस्काएँगे! 
- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

कितनी बरसात हुई
वीर शहीदों से
सपने में बात हुई। 1

बोला इक मत रोना
दिल के ज़ख्मों को
आँसू से मत धोना। 2

थोड़ा समझा देना
संदेशा मेरा
घर तक पहुँचा देना। 3

माँ! सुत था अलबेला
वैरी की गोली
छाती पर हँस झेला। 4

बाबा कब हारे हैं
ये मेरे साथी
सब पुत्र तुम्हारे हैं। 5

गुड़िया से कहना है
तू मजबूर नहीं
वीरे की बहना है। 6

कहना ना हरजाई
लिपट तिरंगे में
जब घर लौटे भाई। 7

हाँ फ़र्ज़ निभाया है
माटी का हमने
बस क़र्ज़ चुकाया है। 8

कह देना प्यारी से
राह तके मेरी
इकटक सुकुमारी से। 9

क्या पूछो कैसी है
वो मेरी चाहत
फूलों के जैसी है। 10

हाथों भर हो चूड़ा
सिन्दूरी बिंदी
महके गजरा जूड़ा। 11

वादा ना निभ पाया
कहकर भी मिलने
मैं लौट नहीं आया। 12

थोड़ी मजबूरी थी
सीमा की रक्षा
भी बहुत ज़रूरी थी। 13

विनती है, सुन लेना
साँसों की डोरी
ख़ुशियों को चुन लेना। 14

है उम्र अभी छोटी
मुश्किल है सहना
जग की नज़रें खोटी। 15

काँटो पर मत चलना
जीवन की भट्टी
यूँ ठीक नहीं जलना। 16

होनी से खुद लड़कर
चुन लेना साथी
कोई आगे बढ़कर। 17

तड़पी,फिर बोल गई
मन की सब पीड़ा
रो-रो कर खोल गई। 18

कैसे कायर माना
क्यों, मनमीत कहो
मुझको ना पहचाना। 19

पूरी तैयारी है
तेरा क़र्ज़ चुका
अब मेरी बारी है ।20

पीछे तो आना था
नन्हे को लेकिन
फ़ौलाद बनाना था। 21

मैं वचन निभाऊँगी
माँ-बाबा मेरे
हर सुख पहुँचाऊँगी। 22

बहना का ज़िक्र करो
ख़ूब सजे डोली
उसकी मत फ़िक्र करो। 23

पक्की है नींव बड़ी
सुन लेना, प्यारी
सरहद पर आन लड़ी। 24

जब लाल बड़ा होगा
बन दीवार अटल
सरहद पे खड़ा होगा। 25

वो पल भी आएँगे
नभ के तारों में
हम संग मुस्काएँगे। 26

सुनकर मन डोल गया
जय उन वीरों की
सारा जग बोल गया। 27

सम्पर्क: एच-604प्रमुख हिल्स, छरवाडा रोड, वापी, जिला- वलसाडगुजरात, Mo. 9824321053,