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Jan 27, 2018

घटते जीवन मूल्य...

 घटते जीवन मूल्य...
- डॉ. रत्ना वर्मा
 साल दर साल बीतते चले जा रहे हैं .... और ज़िन्दगी है कि बहुत ही मुश्किल होती चली जा रही है- लोग जैसे भागे चले जा रहे हैं। किसके पीछे भाग रहे हैं, पूछो तो कहते हैं- ज़िन्दगी को आसान, आरामदायक, खुशहाल और बच्चों के अच्छे भविष्य के के लिए ही तो भाग रहे हैं।  हँसी तो आती है- ऐसी आपाधापी वाली ज़िन्दगी के भरोसे हम आने वाली पीढ़ी को खुशहाल ज़िन्दगी कैसे दे सकते है? क्या किसी चीज के पीछे भागते रहने से हमारे बच्चों की जिन्दगी की राह आसान हो सकती है?
पिछले दिनों घट रही घटनाओं के संदर्भ में देखें तो बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतन करने की आवश्यकता है। स्कूली बच्चों द्वारा स्कूल परिसर में दिन पर दिन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। आप सब गुडग़ाँव के रेयन स्कूल के ग्यारहवीं क्लास के एक छात्र द्वारा अपने ही स्कूल के दूसरी कक्षा में पढऩे वाले एक बच्चे प्रद्मुम्न ठाकुर की हत्या के मामले को भूले नहीं होंगे। आरोपी बच्चे ने स्कूल में छुट्टी कराने और टर्म एग्जाम को टालने के लिए इस वारदात को अंजाम दिया था।
 देश इस घटना के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की जाँच- पड़ताल करने का प्रयास कर ही रहा था कि दूसरी सन्न कर देने वाली घटना हरियाणा के यमुनानगर में एक निजी स्कूल परिसर में घट गई,जहाँ 12वीं में पढ़ऩे वाले एक छात्र ने स्कूल से निष्कासित किए जाने से नाराज होकर अपनी प्रिंसिपल की ही गोली मारकर हत्या कर दी। उस दिन स्कूल में पैरेंट्स मीटिंग थी। आरोपी छात्र शिवांश, पैरेंट्स मीटिंग में अपने पिता की रिवॉल्वर लेकर पहुँचा था। उसने प्रिंसिपल ऋतु छाबड़ा पर अपने पिता की रिवॉल्वर से ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी। इसके बाद तीसरा मामला आया- लखनऊ के ब्राइटलैंड स्कूल का, जब एक छात्रा ने स्कूल में महज छुट्टी कराने की मंशा से पहली कक्षा के एक मासूम छात्र को चाकू मारकर घायल कर दिया। 7वीं कक्षा में पढऩे वाली आरोपी छात्रा ने कबूल किया कि वह स्कूल में छुट्टी कराना चाहती थी, इसलिए प्रिंसिपल से मिलने के बहाने वह छात्र को टॉयलेट में ले गई, वहाँ उसके मुँह में कपड़ा ठूँसकर उसे चाकुओं से गोद दिया।
झकझोर देने वाली इन घटनाओं ने सबको सोचने पर बाध्य कर दिया है कि बच्चे आखिर इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं? आखिर हमारी परवरिश में कहाँ चूक हो रही है? यह चिंतन का विषय है। उपर्युक्त तीनों मामलों में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने के साथ साथ बदल रहे पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों पर भी नज़र डालने की ज़रूरत है। 
सामाजिक नज़रिए से देखें तो घूम-फिर कर बात एक ही मुद्दे पर आकर टिक जाती है कि सयुंक्त परिवार बिखर गए हैं, एकल परिवार और माता- पिता दोनों का नौकरी करना एक गंभीर मुद्दा है, ऐसे में  माता- पिता के पास बच्चे के लिए समय ही नहीं होता। घर और स्कूल में उन्हें भौतिक सुख- सुविधाएँ तो पूरी मिल जाती है पर अपनापन, स्नेह, दुलार और प्यार नहीं मिल पाता।
 स्कूल में भी गुरु- शिष्य के बीच रिश्तों में व्यावसायीकरण के चलते आ रहे निरंतर बदलाव ने पढ़ाई- लिखाई के माहौल को भी एक नया मोड़ दे दिया है। आज शिक्षा प्राप्त करना यानी बड़ी कम्पनी, बड़ा ओहदा, बड़ा पैसा....  बचपन से ही बच्चों पर मानसिक दबाव होता है कि उन्हें तो सबसे अच्छा सबसे आगे रहना है। इन सबके बाद टीवी, कम्प्यूटर और मोबाइल ने बचपन को बचपन नहीं रहने दिया। दादी नानी के किस्से तो गुज़रे ज़माने की बात हो गई है। अब जब घर में दादीनानी ही नहीं, तो किस्से कहानी कौन सुनाएगा? बच्चे टीवी, मोबाइल में जो देखते हैं, सुनते है, जिस तरह के गेम खेलते हैं उसके बाद उनकी मानसिक स्थिति को समझ पाना मुश्किल होते जा रहा है। बच्चे मैदानी खेल और किताबों से दूर होते चले जा रहे हैं। अकेले होते बच्चे नशे के शिकार हो रहे हैं। एकाकीपन और अवसाद (डिप्रेशन) उन्हें हिंसक बना रहा है।
तकनीकी तरक्की ने विकास के नए रास्ते जरूर खोल दिए हैं पर मानवीय रिश्ते इन सबके बीच कहीं गुम होते जा रहे हैं। तभी तो आजकल निजी स्कूलों में बच्चों की मानसिकता समझने के लिए अलग से मनोवैज्ञानिक शिक्षक रखे जाते हैं। बच्चों में बदल रहे व्यवहार को देखते हुए समय-समय पर माता-पिता उनके पास जा कर सलाह- मशविरा करते हैं। सवाल यही उठता है कि आखिर इस तरह के काउंसलर की जरूरत क्यों पड़ी?
मानव का यह स्वभाव है कि वह खुशियों का स्वागत करता है और दु:खोंको दूर भगाने का प्रयास करता है। पर कहीं ऐसा तो नहीं कि इस प्रयास में हम अपने जीवन-मूल्य ही खोते जा रहे हैं। कारण है-बच्चों को समय न दे पाना जिसका दुष्परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ी पर पड़ रहा है। देर रात तक फ़िल्म देखने का समय है। मॉल में जाकर पिज्जा-बर्गर खाने का समय है। वाट्सएप पर अनजाने लोगों से गप्प लड़ाने का समय है। दुनिया के मुद्दों पर झख मारने का समय है। अगर नहीं है, तो भावी पीढ़ी से बात करने का समय नहीं है। वे रूखे-सूखे पाठ्यक्रम के अलावा जीवन मूल्य की बातें कहाँ से सीखें, इसकी चिन्ता नहीं। वे क्या सोचते हैं, क्या चाहते हैं, इसको जानने का समय नहीं है। हम सबके लिए इन मुद्दों पर बिना समय गँवाए गंभीरता से चिंतन करने का समय है, ताकि आने वाली पीढ़ी को हम एक खुशहाल ज़िन्दगी दे सकें।                                    

1 comment:

प्रियंका गुप्ता said...

बहुत सार्थक और चिंतनीय मुद्दा उठाया है आपने...| संयुक्त परिवारों से टूट कर हम एकल परिवार में आए और धीरे धीरे उस एकल परिवार का हर सदस्य इतना एकाकी हो गया कि अब तो जैसे समझ ही नहीं आता कि ये अकेलापन हमें और हमारी भावी पीढ़ी को किस गर्त में ले जाकर छोड़ेगा...| काश ! वक़्त रहते चेत जाएँ हम सब...वरना आँसुओं के सिवा और कुछ भी नहीं आएगा हमारे हिस्से...|