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Nov 19, 2017

मेहंदी रंजित पाँव धरे

 मेहंदी रंजित पाँव धरे 
शशि पाधा
प्रकृति कितनी दयालु है, कितनी ममतामयी। हर मौसम में, हर ऋतु में वो धरती के लिए नये-उपहार, नए–नए परिधान लेकर आती है। हर मौसम का अपना एक भिन्न रूप, भिन्न रंग होता है। अब देखिए न, वसंत ऋतु में धरती अपने पूरे यौवन पर होती है, नई-नवेली दुल्हन की तरह हरी चूड़ियाँ, धानी चुनरी, सतरंगी फूलों का घाघरा, बेल बूटों के आभूषण। धरती का यह रूप कवियों को, रचनाकारों को, चित्रकारों को बहुत लुभाता है। धरती के इस अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन करते हुए अनेक रचनाएँ लिखी गई  हैं और अनेक चित्र बनाए गए है। विभिन्न देशों में वसंत ऋतु से जुड़े कई  त्योहार मनाए जाते हैं। और गीतों में भी तो उस सौन्दर्य को शब्दबद्ध किया गया है। यानी जितनी भी कलाएँ हैं उनमें किसी न किसी रूप में वसंत के सौन्दर्य का  वर्णन मिलता है। संगीत के रागों में भी राग वसंत, राग बहार नाम के राग हैं। तो यह कोई हैरान कर देने की बात नहीं है कि वसंत ऋतु अपने इस अनुपम, अप्रतिम सौन्दर्य वाली रूप राशि को देख कर इठलाती भी है और गर्वित भी होती है। सृष्टि का एक नियम है। कोई भी चीज़ शाश्वत नही हो सकती । कहीं न कहीं हर वस्तु का अवसान होता है। वैसे ही ऋतुएँ भी बदलती हैं। इस नियम से वसंत ऋतु भी नहीं बचती और उसका भी अवसान होता है।
किन्तु, दानवीरा–ममतामयी प्रकृति की गठरी में उपहारों की, सौन्दर्य प्रसाधनों की, आभूषणों की कोई कमी नहीं रहती। जैसे ही धरती का वासन्ती रूप क्षीण होने लगता है, प्रकृति घोलने लगती है नए रंग, गढ़ने लगती है नए गहने, सीने लगती है नए रंगों के घाघरे, बुनने लगती है नए रंगों की चुनरी। और, अपनी पिटारी में सब कुछ बांध कर ले आती है अपनी प्रिय पुत्री धरती के लिए। अब वो अपनी बेटी को जिस रूप में सजाती है, उसे एक नया नाम भी देती है –पतझड़।
आ---SSSS, आप नाम पर मत जाइए। नाम से लगेगा ‘झरते हुए पत्ते’। है न? नहीं, अगर आप इसे मेरी आँखों से देखें तो धरती का पतझड़ी रूप और भी लुभावना, और भी सुंदर होता है। दुनिया के बहुत से देशों में पतझड़ की छटा निराली होती है। अमेरिका में इस के रूप-सौन्दर्य की जो आकृति मेरी आँखों में बसती है आज मैं आप सब को उससे परिचित कराती हूँ।
वसंत ऋतु के जाते ही केवल कुछ दिन ही यहाँ ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। लेकिन शीघ्र ही पतझड़ अपने रूप सोंदर्य की पिटारी ले कर आ जाती है। इस ऋतु में यहाँ का मौसम अपना चोला बदलने लगता है। यानी धूप थोड़ी-थोड़ी ठंडी होने लगती है, दिन भी सिकुड़ने लगते हैं और रातों का कद बढ़ने लगता है। बसंत ऋतु की भरमाई अल्हड़ योवना हवा अब प्रोढ़ा स्त्री के समान कुछ गर्व से चलने लगती है। क्या आपने पतझड़ की हवा का गान सुना है? वृक्षों की पीली-पीली डालियाँ धीमे-धीमे नृत्य करती हुई आने वाली शिशिर ऋतु के स्वागत में मधुर गीत गाती हैं। उनके गीतों में ग्रीष्म ऋतु के अवसान की पीड़ा भी है और शिशिर के आने की झंकार भी है । वास्तव में यह मौसम न सर्द है न गर्म। यह तो गुनगुनी धूप और सरसराती हवाओं का मौसम है। सुनहरी धूप कभी पेड़ों के शिखरों पर देर तक सुस्ताती है और कभी नीचे उतर कर आँख- मिचौली खेल लेती है। धरती की हथेलियों में रच जाती है मेहंदी और पाँव में महावर। यानी प्रकृति अपनी स्वर्ण पिटारी बस यहीं पर उढ़ेल देती है । जीवन के चार दशक पार करती हुई बेटी को वो निराश नहीं होने देती। उसे नए रूप में, नए रंगों में सजाती है।
यहाँ पर इस मौसम का प्रभाव अधिकतर वृक्षों पर दिखाई देता है। पेड़ों के पत्ते हरे से पीले हो जाते हैं, कहीं कहीं तो सुर्ख भी। डालियाँ सोने की चूड़ियाँ पहन कर डोलती हैं। अमेरिका में पतझड़ का सोने जैसा रंग सैलानियों को भाव विभोर कर देता है । ‘मेपल’वृक्षों पर पत्ते कुछ दिन तो सुनहरे-पीले होते हैं, और फिर धीरे-धीरे सुर्ख होने लगते हैं। सड़कों के दोनों ओर पेड़ों की कतारें केवल लाल-पीले रंगों की छटा ओढ़े दिखाई देती हैं। मीलों तक सड़क पर और कोई रंग दिखाई नहीं देता। लोग दूर-दूर तक इस सौन्दर्य को निहारने अपनी-अपनी गाड़ियों में निकल जाते हैं । एक उत्सव का वातावरण-सा बन जाता है। कोई चित्रकारी करने बैठ जाता है और कोई फोटोग्राफ़ी। कहीं किसी एकांत स्थान पर बैठा कोई कवि रचना लिखने लगता है और बच्चे अभी अभी झरे पीले पत्तों को एकत्र करने में जुट जाते हैं।
अमेरिका में पतझड़ के दो महीनों में दो मुख्य त्योहार बड़े उत्साह और उल्लास से मनाए जाते हैं। दोनों ही त्योहार फसलों की कटाई से सम्बन्धित हैं।  खेतों से उस वर्ष की फसल की कटाई के बाद लोग अब चैन से, आराम से वर्ष के आने वाले शीत केमहीने बिताने की तैयारी करते हैं। अक्टूबर माह के अंतिम शुक्रवार को ‘हेलोवीन’ का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। लोग अपने घरों के आगे कद्दू की कतारें सजा देते हैं। उन्हें काट कर भी विभिन्न रूप दिए जाते हैं। हर स्टोर में कद्दू ऐसे बिकते हैं जैसे और कुछ बचा ही न हो। कद्दू के कई प्रकार के व्यंजन भी बनते हैं और पड़ोसी आपस में इन व्यंजनों का आदान-प्रदान करते हैं।
पतझड़ की लाल-पीली, सुनहरी छटा के उल्लास में यहाँ के विभिन्न नगरों में सामूहिकत्योहारों का आयोजन किया जाता है जिसे ‘फेस्टिवल ऑफ़ ग्लोरी ऑफ़ फॉल’ का नाम दिया गया है। यानी ‘शरद ऋतु की महिमा त्योहार’। जिस क्षेत्र में पतझड़ अपने पूरे यौवन पर हो उस क्षेत्र के किसी मैदान में इस महासंगम का आयोजन किया जाता है। कई प्रकार की नुमाइशें लगाई जाती हैं, विभिन्न बैंड समूह अपनी गायन शैली का प्रदर्शन करते हैं। देर शाम तक सामूहिक नृत्य का आयोजन भी किया जाता है। कला और संस्कृति के इस महासमागम का उत्सव लगभग चार दिन तक चलता रहता है। स्थानीय सड़कों पर रंग- बिरंगी पोशाक पहने दूर-दूर से आए विभिन्न बैंड के सदस्य अपनीं वाद्य कला का प्रदर्शन करके लोगों का मनोरंजन करते हैं। खाद्य पदार्थों से भरी दुकानों पर भीड़ लगी रहती है। ऐसा अनुभव होता है जैसे जितने रंगों में पेड़ और पत्ते रंगे हैं उतने ही रंगों में लोगों के मन और परिधान भी उस सौन्दर्य को और बढ़ा देते हैं। पतझड़ को विदा करने की यह रीत अन्य देशों के लिए भी अनुकरणीय है।
पतझड़ का अंत आते-आते यानी नवम्बर के अंतिम सप्ताह के गुरूवार को ‘थैंक्स गिविंग’ का त्योहार भी मनाया जाता है। यह एक सामजिक एवं पारिवारिक त्योहार है जिसमें सभी परिवार –सम्बन्धी मिल कर भोजन करते हैं। भगवान को धन्यवाद देते हुए वे सब परस्पर भी धन्यवाद देते हैं। इन दिनों यहाँ के निवासी अपने आप को सर्दी और बर्फबारी के लिए तैयार करने लग जाते हैं।
धरती की यह अलौकिक छटा लगभग दो महीने रहती है और फिर प्रकृति पुन: अपनी छड़ी घुमाती हुई आती है। जीवन के चार दशक पार करती हुई बेटी को वो निराश नहीं होने देती। दूर से उसका सौन्दर्य निहारती है और चली जाती है क्षितिज के उस पार चाँदी बटोरने। क्यों कि फिर भी तो उसे आना है अपनी बेटी के लिए चाँदी जड़े गहने लेकर, शीत ऋतु में।
 कुछ भी तो शाश्वत नहीं होता किन्तु कुछ तो है जो चिर स्मरणीय है।  जैसे धरती की यह स्वर्णिम आभ।

1 comment:

Prerana Sharma said...

आपको बहुत -बहुत बधाई !
बहुत ख़ूबसूरती से प्रकृति के अनूठे रूप को शब्दों के आभूषणों से सजाया है आपने।
विदेश में पतझड़ का मौसम भारत के पतझड़ से अलग है । इस मौसम में वहाँ मनाए जाने वाले त्योंहारों के विषय में ज्ञानवर्धक आलेख बहुत सकारात्मक व भावपूर्ण है।
परिवर्तन नव-आशा का संदेश लिए है तथा 'शाश्वत कुछ भी नहीं ' ����
शब्द-संयोजन और प्रकृति का मानवीकरण ����
मौसम की विदाई के समय के दृश्य बेटी की विदाई के दृश्यसमान ही चित्रित किया है ।जिसमें कुछ परिजन विदाई के वक़्त गले मिल रहे होते है और विदा होती बेटी के उज्ज्वल भविष्य की कामना में ख़ुशी -ख़ुशी उसे निहार रहे होते हैं ।आशीर्वचन सरसराती हवाओं की गुनगुन जैसे ही तो होते है ।
बहुत ही सुंदर आलेख!