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Nov 25, 2016

कहाँ गए माँजरी और बिन्ने बुनने वाले हाथ

         कहाँ गए माँजरी 
        और बिन्ने बुनने वाले हाथ
                        - पवन चौहान
आधुनिक जीवन शैली बहुत-सी पारंपरिक चीजों को काफी पीछे छोड़ आई है। मशीनीकरण के इस युग ने आज हर वस्तु को नए अंदाज, नए फैशन और चमक-दमक व सस्ते दाम में पेश करके हाथ से बनी वस्तुओं का जैसे वजूद ही मिटाकर रख दिया है। इसी चकाचौंध में दम तोड़ चुका है हमारे हाथों का हुनर दर्शाने वाले पारंपरिक बिन्ने’ (बैठकु) और माँजरी’ (चटाई)।
बिन्ने का प्रयोग सिर्फ एक व्यक्ति के बैठने के लिए होता है जबकि मांजरी (जिसे कई जगह पंदके नाम से भी जाना जाता है) का प्रयोग एक से अधिक लोग बैठने या फिर सोने के लिए करते है। बिन्ना बनाने के लिए मुख्यतया कोके’ (मक्की का बाहरी छिलका) का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इसके अलावा बिन्ने को बनाने के लिए हल्दी के पत्ते या पराली का इस्तेमाल भी किया जाता है। बिन्ने को आमतौर पर गोल आकार दिया जाता है। लेकिन इसे और आकर्षक और फैशनेबल बनाने के लिए चौरस, तिकोना या अन्य आकार में भी ढाला जाता है। एक बिन्ने को बनाने में लगभग चार से पाँच घंटे तक का समय लग जाता है। बिन्ने को सुंदर व आकर्षक बनाने के लिए इसमें लगने वाली सामग्री को अलग-अलग प्रकार के रंगों में रंगकर इस्तेमाल किया जाता है। यदि कोके को रंगना न हो तो इसके बदले रंग-बिरंगे प्लास्टिक को कोके के ऊपर लपेटकर इसे तैयार किया जाता है।

माँजरी को बनाने के लिए मुख्यतया पराली, हल्दी के पत्ते तथा खजूर के पत्तों (पाठे) का इस्तेमाल किया जाता है। माँजरी के लिए कोके का प्रयोग नहीं किया जाता। माँजरी लंबी और चौरस होती है। पाठे की माँजरी में पहले पाठे के पत्तों को एक विशेष तकनीक से आपस में हाथ से बुनकर कम चौड़ी लेकिन एक माँजरी के आकार के अनुसार बराबर लम्बी पट्टी तैयार की जाती है। पराली की माँजरी को समतल जमीन पर चार खूंटियाँ गाड़ कर और उनमें सेबे या प्लास्टिक की पतली डोरियों को समान दूरी में बाँधकर फिर थोड़ी-थोड़ी पराली लेकर सेबे या प्लास्टिक की डोरी से गाँठे देकर तैयार किया जाता है। आजकल बनने वाली माँजरियों में महिलाएँ रंग-बिरंगे प्लास्टिक के रैपर लगाकर उन्हे एक नए रुप में पेश कर रही हैं। ये माँजरियाँ लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। पराली की माँजरी को बनाने में पाँच से छ घंटे तक का समय लग जाता है। पाठे की माँजरी के लिए पहले पाठे की लगभग चार ईंच चौड़ी लेकिन कई मीटर लम्बी (माँजरी के साइज के अनुसार) पट्टी एक विशेष तकनीक द्वारा पाठों को आपस में बुनकर तैयार की जाती है। फि र इस पट्टी को माँजरी के आकार के अनुरूप पाठे से ही सीकर जोड़ा जाता है। पाठे की माँजरी बनाने के लिए लगभग एक सप्ताह तक का समय आराम से लग जाता है। पाठे की माँजरी पतली लेकिन पराली की माँजरी मोटी व नरम होती है। हिमाचली लोकगीतों में माँजरी का बखान बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। जो इस तरह से है-
आया हो नंलारिआ, जाया हो नंलारिआ
बैठणे जो देंदीओ तिजो पंद, पंद ओ नंलारिआ हो।
इस गीत के जरिए नंलारी की अमर प्रेम कहानी का बखान लोगों की जुबानी किया जाता है।
इस तरह से बने बिन्ने व माँजरी आज सिर्फ गाँव में ही देखे जा सकते हैं। लेकिन इस आधुनिक युग के आरामपरस्त माहौल के चलते इसे बनाने वाले हुनरमंद हाथ भी अब पीछे सरकने लगे हैं। वे अब इसके बजाय रेडीमेड बैठकु या कुर्सियाँ आदि खरीदना ही ज्यादा पसंद करने लगे हैं। गाँव में पहले बिन्ना व माँजरी बुनने का हुनर हर परिवार की औरतें जानती थींलेकिन अब यह हुनर कुछ एक औरतों तक ही सीमित रह गया है। जो इन चीजों के ज्यादा इस्तेमाल न होने के कारण जंग खाता-सा प्रतीत होता है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, पर बिन्ना व माँजरी बनाने में जिस मेहनत, प्यार, लगन और अपनेपन का अहसास झलकता है वह बाजार से खरीदी चीजों में कहाँ। गाँव में आज भी लड़की की शादी में घर की अन्य चीजों के साथ बिन्ने और मांजरी अवश्य ही दी जाती है।
महादेव गाँव की सौजी देवी आज भी अपने घर के लिए अपने हाथ से हर बर्ष बिन्ने व माँजरियाँ तैयार करती है। वह कहती हैं-  ‘हम चाहे मशीनों से बनी साजो-समान व आराम की कितनी भी चीजें घर में सजा लें ; लेकिन अपने हाथों से बनाई गई चीजों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। इन चीजों को बनाने से जहाँ खाली समय आराम से कट जाता है , वहीं अपने हुनर की क्रियाशीलता भी बनी रहती है। इस तरह की चीजों से दूर होने का साफ मतलब यह है कि हम अपनेपन से दूर भाग रहे हैं।
यह बात काफी हद तक सही भी है। पहले जब भी कोई मेहमान घर आता था तो उसे बिन्ने या माँजरी पर बिठाया जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में इन चीजों का स्थान धरती से दो फुट ऊँची कुर्सी, बैठकु या फिर अन्य चीजों ने ले लिया है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो बिन्ना या माँजरी में बैठकर खाने से या बैठने-उठने से शारीरिक व्यायाम हो जाता है जो स्वास्थ्य की दृश्टि से लाभदायक है। यूँ भी धरती पर भोजन करना मेज पर या खड़े होकर भोजन करने से ज्यादा बेहतर माना जाता है। तो आइए चलें, बिन्ने और माँजरी के दौर में एक बार फिर से वापिस ताकि हमारा हुनर जिंदा रह सके, स्वास्थ्य बना रहे और बची रह सकें हमारी पीढिय़ों की यादें। 
सम्पर्क: तहसील- सुन्दरनगर, जिला-मण्डीहिमाचल प्रदेश- 175018,  
मो. 098054 02242, 094185 82242, Email: chauhanpawan78@gmail.com

1 comment:

Unknown said...

शुक्रिया मैम मेरे आर्टिकल को पत्रिका में शामिल करने के लिए...