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Nov 25, 2016

उदंती.com नवम्बर 2016

उदंती.com   नवम्बर 2016
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जीवन में किसी की निंदा मत कीजिए। अगर आप किसी की मदद कर सकते हैं, तो उसकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाइ। अगर आप किसी की मदद नहीं कर सकते तो अपने हाथ जोड़िए, शुभकामनाएँ दीजिए और उन्हें अपने लक्ष्य पर जाने दीजिए।                        - स्वामी विवेकानंद

नोटबंदी और आम आदमी...

            नोटबंदी और आम आदमी...
                                  - डॉ. रत्ना वर्मा
देश इस समय बेहद उतार- चढ़ाव के दौर से गुजर रहा है। नोटबंदी ने जैसे सबको हिला कर रख दिया है।  काला धन कमाने वाले तो अपना काला सफेद करने की जुगत में दिन रात एक किए हुए हैंपर जिनके पास न काला है, न सफेद। वे भौचक हो इस परिवर्तन के दौर को देख रहे हैं। बैंक के आगे लाइन में खड़े होकर वे सोच रहे हैं कि मेरे पास तो ये हजार पाँच सौ के कुछ नोट हैं, उन्हें बदल कर अपनी रोजी रोटी का इंतजाम तो कर लूँ। नगद बेचने और नगद खरीदने वालों की मुसीबत बढ़ गई है। बाजार में सन्नाटा-सा पसर गया है। लोग खर्च के मामले में किफ़ायत बरत रहे हैं। वहीं चीज़ें खरीद रहे हैंजो जीने के लिए ज़रूरी हैं। व्यापारियों के लिए बेहद मुश्किल का समय है।
कुल मिलाकर पिछले कुछ दिन से जैसे लोगों की दुनिया ही सिमटकर नोट तक आकर रुक गई है। पर जिंदगी फिर भी नहीं रुकी है। पैसा नहीं है, पर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तो किसी तरह हो ही जाता है। जिन्हें करोड़ों अरबों की शादी करनी है ; वे शादी भी कर रहे हैं। लेकिन मेहनत कर कमाने वाला आम आदमी, जिन्हें बेटी की शादी के लिए जेवर कपड़े लेने हैं, शादी की रस्में निभानी हैं ;वे चिंतित हैं कि जो पुराने नोट निकाल लिए हैं; उन्हें कैसे खर्च करें, जमा करने के लिए भी बैंक में लाइन लगाने का समय नहीं है और एक बार में दो- चार हजार निकालने से कैसे काम चलेगा, वह यह सोच- सोचकर वह कुढ़ रहा है कि फिर भी कुछ लोग कैसे अरबों -खरबों वाली शादी कर गए !!!
एक तरफ विपक्ष हल्ला मचा रहा है ;तो दूसरी तरफ काला धन छुपाकर रखने वाले बेचैन हैं कि कैसे सालों की इस मेहनत को पानी में बह जाने दें!!! चारो तरफ अफरा- तफरी मची है। काले को सफेद करने वाले, ऐसे लोगों को तलाश रहे हैं; जो उनका काला धन अपने अकाउण्ट में रख कर सफेद कर दें। खबर तो यह भी है कि इसके लिए वे तीस- पैतीस प्रतिशत तक कमीशन देने को तैयार हैं। नोटों से भरे ट्रक इधर से उधर दौड़ रहे हैं। ऐसे में कुछ ऐसे भी निकले ; जिन्होंने अपना काला धन चुपचाप सामने रख दिया कि टैक्स देने के बाद कम से कम आधा तो बचेगा। काश ऐसा सब कर पाते। 
आर्थिक विषयों के कुछ विशेषज्ञ ,जहाँ सरकार के इस कदम को शुभ संकेत मान रहे हैं; तो कुछ का मानना है कि फैसला सही है ;पर जल्दबाजी में बगैर तैयारी के ले लिया गया है, पहले जनता की परेशानियों से निपटने का इंतजाम कर लेना था, उसके बाद नोटबंदी जैसा कदम उठाना था। इसके साथ ही यह भी सवाल उठ रहा है कि हमारे देश में कैशलेस पेपेंट कितना सार्थक हो पागा। कितने लोग नेट बैंकिंग, वालेट मनी या ऑनलाइन पेमेंट कर पाएँगे। हिन्दुस्तान की सवा करोड़ जनता इसे कितनी जल्दी अपना पागी। तो एक जवाब इसका यह भी हो सकता है कि जब मोबाइल जैसा संचार साधन देखते- देखते देश के हर कोने में पहुँच गया है और क्या पढ़ा-लिखा आदमी ,क्या अनपढ़ सबको इसका इस्तेमाल करना आसानी से आ गया है, तो फिर कैशलेस पेमेंट तो पैसे का मामला है, इसे तो वह और भी जल्दी सीखेगा। भई मानव स्वभाव का विज्ञान तो यही कहता है!
तो सवाल तो कई उठ रहे हैं बावजूद इसके आम आदमी बैंकों में सुबह से शाम तक लाइन में खड़े होकर आपस में अपने आप को समझाने की कोशिश भी कर रहा है। सरकार ने यह बड़ा निर्णय लिया हैतो कुछ तो अच्छा ही होगा। कमा- कमाकर, गरीबों का खून चूसकर, जो धन्नासेठ बने बैठे हैं वे हमारी खून-पसीने की कमाई से ऐश कर रहे हैं। जरूर उनपर लगाम कसने की जुगत होगी यह सब कसरत। जाहिर है काले धन के कारण उनकी जिंदगी में जो कमियाँ उत्पन्न हो गईं हैं ,उनके सब दूर होने की एक उम्मीद बन गई है.... काला धन बाहर आगा ,तो जनता के हित में काम होंगे ,आम जनता की अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, उसके स्वास्थ्य में, उसके जीवन स्तर में, उसके बच्चों की शिक्षा में, उसके गाँव की गली- मोहल्लों में, सड़क में, पानी में, खेती में, रोजगार में, खान- पान की वस्तुओं में, क्या इन सबमें कुछ सुधार होगा? और सबसे बड़ी बात यह कि बात-बात में हर विभाग में चपरासी से लेकर बाबू तक और उससे भी ऊपर बैठे आकाओं तक घूस लेने की अघोषित परम्परा का अंत होगा? इसमें कोई दो मत नहीं कि देश की अर्थव्यवस्था में सुधार की दिशा में नोटबंदी एक सार्थक कदम हो सकता है यदि साथ- साथ कैंसर की तरह जड़ जमा चुके भष्टाचार को भी समाप्त किया जाए।
कुल मिलाकर हमें तो यही लगता है कि आम आदमी की यह सोच और सरकार की सोच यदि मिल जाए तो बदलाव आने में देर नहीं लगेगी। संभवत: इसी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर मोदी सरकार ने इतना बड़ा निर्णय लिया है।  यदि उसकी नियत में सच्चाई है, दम है तो जनता को थोड़ा सब्र से काम लेना होगा। इतिहास गवाह है कि जब भी कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करनी होती है तो इम्तिहान तो देना ही पड़ता है। यह हम सब के लिए इम्तिहान की घड़ी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार तो 80 प्रतिशत जनता नोटबंदी के पक्ष में बताई गई है।
फिर भी सवाल अभी भी वहीं का वहीं है  कि जो जनता हर प्रकार का कष्ट झेलती हुई उम्मीद की आस लगाए सरकार की ओर देख रही है, क्या उसके सपने साकार होंगे? क्या काला धन बाहर आएगा? क्या आम आदमी के शोषण से निचोड़ा गया धन जन-कल्याण कार्यों में लगेगा या फिर घूम-फिरकर कुबेरों के तहख़ाने में दफ़्न हो जाएगा ! जवाब तो एक ही होना चाहिए कि सरकार की भी मंशा अंतत: भ्रष्टाचार को नकेल डालने की ही होनी चाहिए उसे जनता के सपनों को साकार करना होगा, अन्यथा जनता को अपनी ताकत दिखाना आता है। 

समाज

वे, जो आदि संस्कृति को बचाए हुए हैं...
- डॉ. आरती स्मित
भारतीय प्रायद्वीप के मूलनिवासी, जिन्हें आदिवासी/जनजाति के रूप में समाज रेखांकित करता है और संविधान अनुसूचित जनजाति/आदिम जनजाति के रूप में।  इनके प्रकृति-प्रेम, प्रकृति- साहचर्य और प्रकृति को जीवन मानने की बात जितनी प्राचीनकाल में सच थी, उतनी ही आज भी सच है। आज भी जो जनजातियाँ जल, जंगल और ज़मीन को अपना संबंधी मानती हैं और अपनी आदि संस्कृति को बचाए हुए हैं, सभ्य समाज उन्हें असभ्य, आदि मानव, जंगली, बर्बर आदि विशेषणों से अलंकृत करता है। गोंड जाति का इतिहास यह सिद्ध करता है कि वे अविभाजित धरा के मूलनिवासियों की संतति हैं।
   वैदिक व महाकाव्य साहित्य के साथ ही प्राचीन व मध्यकालीन साहित्य में भील, किरात, किन्नर, मत्स्य, निषाद, वानर आदि जनजातियों का वर्णन मिलता है। जनजाति एक सजातीय स्वावलंबी इकाई थी। सुरक्षा की दृष्टि से सबल और युद्ध - निपुण व्यक्ति मुखिया बनता था। इसी प्रक्रिया ने गणराज्यों एवं राज्यों की व्यवस्था को जन्म दिया।
   वर्ष 2011 की रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित आदिवासी जनजातियों की संख्या 583, अपरिगणित आदिवासी जनजातियों की संख्या 254, घुमंतू आदिवासी जनजातियों की संख्या 198 तथा अर्ध घुमंतू जनजातियों की संख्या 13 है। अर्ध घुमंतू जनजातियाँ केवल राजस्थान में पाई गईं। देश के आठ राज्यों के कुछ प्रमुख जिलों के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र रेखांकित किए गए हैं। राज्यों व जिलों के नाम निम्नोल्लिखित हैं -
 राज्य                      जिला         
आंध्र प्रदेश- महबूबनगर, आदिलाबाद, वारंगलविशाखापटनम,  पूर्वी गोदावरीपश्चिमी गोदावरी
बिहार- सिंहभूम, पलामू
झारखंड- राँची, संथाल परगना
गुजरात- सूरत, भड़ोच, डांग, वलसाड, पंचमहल, वडोदरा,  साबरकाँठा
हिमाचल प्रदेश- किन्नौर, लाहौल और स्पीति, चंबा
मध्य प्रदेश- झाबुआ, मंडला, सरगुजा, बस्तर, धार, खरगौन (पश्चिमी निमाड़),  खंडवा (पूर्वी निमाड़), रतलामबैतूल, सिवनी, बालाघाट, होशंगाबाद,   शहडोल, सीधी, मुरैनाछिंदवाड़ा
छत्तीसगढ़- रायगढ़, बिलासपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, रायपुर,
महाराष्ट्र- ठाणे, नासिक, धुलिया, अमरावती, चंद्रपुरजलगाँव  नांदेड़
उड़ीसा- मयूरभंज, सुंदरगढ़, कोरापुत, संबलपुर, केऊंझर, बौध-माल,  गंजामजिला, कालाहांडी, बालासोर
राजस्थान- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर
छठे अनुच्छेद में जिन राज्यों के जिन जि़लों को जनजातीय अनुसूचित क्षेत्रों के रूप में घोषित किया गया है, वे हैं -
असम- उत्तरी कछार पहाड़ी जिला, कर्वी आंगलोंग जिला
मेघालय- खासी, जयंतिया, गारो पहाड़ी जिला
मिजोरम- चकमा, लाई, मारा जिला
त्रिपुरा- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र (उत्तरी, दक्षिणी, पश्चिमी त्रिपुरा जिला) स्वायत्त जिला

 भारत में ये आदिवासी जनजातियाँ तमाम कठिनाइयों के बावज़ूद जीवित हैं। इनमें से सात प्रमुख जनजातियाँ हैं जिनकी आबादी दस लाख या उससे अधिक है। ये हैं- भील, गोंड, संथाल, उरांव , मीणा, मुंडा और खोंड। 45 अन्य ऐसी जनजातियाँ हैं जिनकी आबादी एक से पाँच लाख के बीच है तथा 1991 की जनगणना के अनुसार 47 ऐसे आदिम जनजातीय समूह हैं, जिनकी आबादी लगभग तेईस लाख है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि वन और प्रकृति को जीवन-सहचर मानने वाली ये जनजातियाँ अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। कई जनजातियाँ विलुप्तप्राय हैं। कारण, कृषि- कार्य की पुरानी तकनीक और अशिक्षा।
   इतिहास कई स्थलों पर जनजातियों के प्रति चुप्पी साधे है। इतना स्पष्ट है कि आदिवासी सीधे- सादे, ईमानदार, कर्मठ और प्रकृति- प्रेमी रहे हैं। आक्रमणकारियों, आततायी शासकों, समाज के शोषक वर्गों  द्वारा निरंतर शोषित होने के बावज़ूद इन्होंने राष्ट्र का विखंडन कभी नहीं चाहा। आज भी इनकी अर्थव्यवस्था कृषि (झूम खेती/ परिवर्तनीय खेती व साधारण खेती), पशुपालन, लघु वनोपज, मछली पकडऩे एवं हथकरघा उद्योग पर आधारित है। 1981 के बाद आदिवासी कृषकों के प्रतिशत में तेजी से ह्रास हुआ है। उन्हें खेतिहर से मजदूर बनना पड़ा। महिलाएँ लघु वनोपज चुनने, कपड़े बुनने और मज़दूरी का कार्य करती हैं। वर्तमान में आबादी विस्फोट और पूँजीवादी नीतियों के कारण झूम खेती की पद्धति का लोप हो रहा है। बहु फसली प्रथा भी लोप पर है। नकदी फसल और बागवानी को प्राथमिकता दी जा रही है।
महिलाओं का हथकरघा कौशल अब बाजार के दबाव में दम तोडऩे लगा है। पूँजीपति व्यापारी प्रवासी स्त्रियों से कपड़ा बुनवा रहे हैं। कर्नाटक के राजगोंड आर्थिक रूप से विपन्न हैं, औषधीय पौधे उनके जीवनाधार हैं। वे विंध्य, सतपुड़ा आदि क्षेत्रों से अब जड़ी- बूटी / पौधे खरीदने को विवश हैं ,जिनकी दवाएँ बनाकर वे सड़क किनारे बेचते हैं, यही कारण है कि उनकी दवाओं का न तो सही मूल्य मिलता है, न उनके ज्ञान को महत्ता। इनके ज्ञान का लाभ उठाकर वन विभाग से मिले ठेकेदार इनसे संग्रह का काम करवाते हैं और आर्थिक लाभ उठाते है। इसी प्रकार, हैदराबाद, कर्नाटक के आदिवासी आज भी विभिन्न टुकड़ों में बँटे होने के कारण सरकारी सहायता और सुविधाओं से वंचित और उपेक्षित हैं। मुंडाओं में साक्षरता की प्रतिशतता अधिक है और उराँवों में इसका विकास हो रहा है। मीणा व पहाडिय़ा जनजाति का  शौर्यपूर्ण इतिहास आज धूल-धूसरित है। संथालों में साक्षरता की कमी रही, किन्तु अब उनमें जागरूकता बढ़ी है फिर भी स्थितियाँ संतोषजनक नहीं कही जा सकतीं। इन जनजातियों के पिछड़ेपन का मूल कारण इनकी सहजता और अशिक्षा है। बाहरी लोगों  द्वारा इनकी उपजाऊ जमीनों को धीरे -धीरे हड़पने की नीति, राज्य- सम्पदा के नाम पर वन विभाग एवं ठेकेदारों की मिलीभगत से लघु वनोपज को इनके अधिकारों से छीनना और इन्हें इनकी ही सम्पदा के भोग से वंचित रखना, औद्योगिक, बाँध, बिजली एवं अन्यान्य परियोजनाओं को लागू करने के नाम पर हजारों को विस्थापन का दंश देना, पुनर्वास में अनियमितता, अव्यवस्था, साहूकारों का शोषण, खनिज तत्वों का व्यापारिक लाभ पाने हेतु स्वार्थी तत्त्वों की घुसपैठ नीति आदि कई कारक तत्त्वों ने इनके जीवन में अँधेरा भरने का काम किया। भू-हस्तांतरण की प्रक्रिया से प्रभावित आदिवासियों की संख्या बड़ी है। भू- हस्तांतरण कानून होने के बावज़ूद आदिवासी भूमि का गैर- आदिवासियों को हस्तांतरण जारी है। ठेकेदारों द्वारा महिलाओं का यौन-शोषण आम बात है। देश- विकास के नाम पर आदिवासी समाज ने अपनी सामूहिक पहचान और ऐतिहासिक- सांस्कृतिक विरासत ही खोई है। गरीबी, कुपोषण, मृत्यु-दर में वृद्धि, अशिक्षा, बेरोजग़ारी ही उनके हिस्से में आई। वैश्वीकरण एवं निजीकरण ने उन्हें उनकी ज़मीनों से बेदखल किया। आदिवासी कल्याण एवं विकास हेतु निर्मित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य डॉ.डी.स्वामीनाथन द्वारा तैयार प्रारूप पत्र के आरम्भ में यह स्वीकारोक्ति है-  निश्चित रूप से विगत अर्से में आदिवासियों की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन गैर आदिवासियों की तुलना में इनकी हालत हर क्षेत्र में खराब ही हुई है। प्रख्यात विद्वान एवं चिन्तक लेवी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में इस संभावना से आशंकित और दु:खी थे कि - भूमंडलीकरण और सांस्कृतिक एकरूपीकरण का अजगर जल्द ही जनजातियों के छोटे- छोटे समुदायों को निगल जाएगा (ईश्वर दोस्त; जनसत्ता 2009)।
   
आदिवासी समाज देश के तथाकथित रक्षक खाकी वर्दीधारी से अधिक त्रस्त है, चाहे वह झारखंड, बुंदेलखंड, मणिपुर का जनजातीय समाज हो या किसी अन्य राज्य का। इनके लिए खाकी वर्दीधारी का अर्थ है - अराजक और शोषक तत्त्व। जिन्होंने आवाज बुलंद की वह सरकारी हथकंडे में उलझकर तबाह हो गया। कई बार तो निरीह ग्रामीण इन सुरक्षाकर्मियों की नृशंस क्रूरता के शिकार होते हैं। कोई सुनवाई नहीं होती, झारखंड की सोनी सूरी पर हुए खाकी वर्दीधारियों के ज़ुल्म और मणिपुर की 15 वर्ष पहले हुए  अत्याचार के विरुद्ध आज तक न्याय माँगती इरोम चानु शर्मिला के संघर्ष को हमारा देश अभी भूला तो न होगा। राम दयाल मुंडा लिखते हैं - अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जब भी आदिवासी खड़ा हुआ तो देश ने उसे विकास विरोधी करार दिया। किसी देश के उस समुदाय को, जो अपने को देश का प्रथम नागरिक और देश-रक्षा में खड़ा होनेवाला प्रथम सैनिक मानता है, जब देश- विरोधी करार दिया जाता है तो उस समुदाय के लिए इससे बड़ी अपमानजनक और कष्टदायक बात क्या हो सकती है!  डॉ. केदार प्रसाद मीणा मानते हैं, - आज़ादी के बाद सरकारों ने आदिवासियों को ख़ास सहूलियतें नहीं दी हैं- सिवाय आरक्षण की संवैधानिक सुविधा के, और इस सुविधा का लाभ भी कितने आदिवासी समुदायों को मिला है, यह भी सोचे जाने वाली बात है। अधिकांश आदिवासी समुदाय अपनी मेहनत से ही अबतक अपना अस्तित्व बचाए रख सका है। भारत के ताकतवर समुदायों ने, जिनमें कुछ आदिवासी समुदाय भी कुछ हद तक शामिल हुए हैं, ने आदिवासी संसाधनों को हमेशा लूटा और इनके समर्थन से बनी सरकारों ने ऐसे लुटेरे समुदायों का ही हमेशा साथ दिया है।
   आए दिन की खबरों से उजागर है कि किस तरह कुछ आदिवासी नेताओं ने कॉर्पोरेट के साथ मिलकर अपनी ही जनजाति को बदहाली में धकेला। झारखंडप्राकृतिक संपदा और उद्योगों से समृद्ध होते हुए भी, वहाँ के मूलनिवासियों की स्थिति नारकीय बनी हुई है। लड़कियाँ दलाल के हाथ पड़कर बेची जा रही हैं; भाषाएँ, कलाएँ, प्रकृति से सम्बद्ध ज्ञान लोप की कगार पर है और ये दुर्दशा महज झारखंड ही नहीं अन्य कई राज्यों की भी हैअनुसूचित जनजाति के आम लोग आज भी पीड़ा के दलदल में धँसे हैं। आदिवासी कवि जवाहर लाल बाकरा की पंक्तियाँ क्या कुछ नहीं कहतीं -
   हालात ने किया है कितना क्रूर मजाक
   अपनी ही जमीन पर तू रह गया कितना अकेला,
   कहाँ गए बंदोबस्ती के कानून
   और वो धाराएँ संविधान की!
   आज समय आ गया है उन कानून को लागू कराने की एक सार्थक मुहिम शुरू होनी चाहिए।    
कविता की ये पंक्तियाँ इस ओर भी इंगित करती है कि सोई चेतना अब जगने लगी है, मुट्ठी भर ही सही, लोग अब अपनी पीड़ा को शब्द देने लगे हैं। जहाँ जागरण हो ,वहाँ विकास सुनिश्चित है। पहले से जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्षरत ये जनजातियाँ अब संविधान में वर्णित, सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के कार्यान्वयन की माँग को लेकर उठ खड़ी होती दिख रही हैं - यह अलख वहीं जगा, जहाँ शिक्षा की ज्योत जली। शिक्षित आदिवासियों ने अपने आसपास की बदहाली देखी, महसूसा, उसे अभिव्यंजित कर दिया- कभी साहित्य को माध्यम बनाकर तो कभी जन आन्दोलन छेड़कर। वर्तमान आदिवासी साहित्य में, युगों से आजीवन झेली गई उपेक्षाओं के दंश की मार्मिक व्यंजना हुई है, वह चाहे निर्मला पुतुल की रचना हो या ग्रेस कुजूर की। सभ्य समाज के बर्ताव के प्रति आक्रोश और तथाकथित विकास के प्रति असहमति के स्वर ही फूटे हैं।
विकास की अनिवार्य सीढ़ी है - विविध विषयों का शैक्षिक व व्यावहारिक ज्ञान। और आरम्भिक शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए, फिर क्षेत्रीय या प्रान्तीय भाषा में। विद्यालय आदिवासी क्षेत्रों में हो, शिक्षक उनके बीच का शिक्षित व्यक्ति या उनकी भाषा- संस्कृति को अच्छी तरह जानने वाला हो। बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की यथासंभव व्यवस्था हो; इन क्षेत्रों में शिशु-सदन, शिशु केंद्र, बालवाड़ी की उत्तम व्यवस्था जरूरी है ताकि गरीब मजदूर माँ- बाप के बच्चे अपने छोटे भाई- बहनों की देखरेख के लिए घर पर रुके रहने को विवश न हों। कई भाषाओं की अपनी लिपि नहीं, ऐसे में मौखिक एवं लिखित- भाषा के दोनों रूपों की सुरक्षा पर ध्यान देना अनिवार्य है। भाषा उनकी परंपरा, उनकी लोक- संस्कृति की वाहक है। भाषा नष्ट होती गई तो धीरे- धीरे वे अपनी पहचान खो देंगे, जैसा कि चाय बागानों में काम करने वाली उरांव जनजाति के साथ हो रहा है। यों भी विस्थापन की प्रक्रिया ने उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति से भी विस्थापित करने का कार्य किया है।
  यह बेहतर संकेत है कि अब सैंकड़ों आदिवासी लेखक/कवि अपनी मातृभाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं और अपनी पीड़ा -अपने आक्रोश को वाणी दे रहे हैं। खासी जनजाति की भाषा के पास अपनी लिपि हाल के वर्षों में ही आई; मलतो, असुर, बिरहोर आदि की मातृभाषाएँ विलुप्ति की कगार पर है। स्थानीय भाषा में शिक्षा के प्रचार- प्रसार से ही उन भाषाओं की रक्षा संभव है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 पर तब प्रश्नचिह्न लगता है जब उसके लागू होने के इतने वर्षों बाद भी स्थितियाँ मुँह चिढ़ा रही होती हैं, यदि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सुव्यवस्था होती ; तो उनका लोप क्योंकर होता? शहरीकरण और औद्योगीकरण की आँधी में उखड़ी जनजातियाँ अपनी संस्कृति से कटती जा रही हैं, लड़कियाँ अधिक संख्या में अशिक्षित हैं। आर्थिक,पारिवारिक और सामाजिक दबाव में इनका सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा। विगत कई वर्षों से आदिवासी भाषा और उनकी लोक कला, पुरातन संस्कृति, व कला- कौशल को बचाने हेतु राज्य एवं केंद्र सरकार के अतिरिक्त प्रथम बुक्स, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी, रमणिका फाउंडेशन आदि कई संस्थाएँ इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही हैं।
भारत के संविधान में अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक एवं आर्थिक हित तथा सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषणों से उसकी रक्षा के लिए विशेष प्रावधान है। इनमें भू-हस्तांतरण कानून, लघु वनोपज पर अधिकार एवं साहूकारी/ ऋण माफी पर कानून/ विनियमन पारित किए गए, जिनसे आदिवासी जनजातियों/ घोषित अनुसूचित जनजातियों को आम नागरिक की अपेक्षा विशेषाधिकार दिए गए। किन्तु वस्तुस्थिति कुछ और है। जमीनें परियोजनाओं के नाम पर तो कभी अस्थायी रिहायशी मकान के नाम पर आज भी छीनी जा रही हैं। आज भी कम मजदूरी पर ये महिलाएँ काम कर रही हैं और शोषण की शिकार हो रही हैं, कहाँ जाएँ, किनसे फरियाद करे! कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यास अल्मा कबूतरीमें कबूतरा समाज की जीवन-व्यथा को उजागर किया है।
    कुछ क्षेत्रों में आदिवासी स्त्रियाँ सशक्त रूप में नजर आने लगी हैं, जैसे नोंगपोह, मिजोरम में स्त्रियाँ बड़ी दुकानें और कारोबार संभालती दिख सकती हैं। कुछ स्थलों पर पंचायतों में भी उन्हें स्थान दिया जाने लगा किंतु आमतौर पर ये स्त्रियाँ अपने पति या रिश्तेदार के निर्णय पर ही मुहर लगाती हैं, अपवाद में केवल एक नाम उभरता है - समाज कल्याण मंत्री अगाथा संगमा का। एक उम्मीद जगी है लेकिन अब भी उनमें जागरूकता लाना शेष है। पारंपरिक ज्ञान- कौशल एवं आधुनिक समाज से सामंजस्य की स्थिति ही जनजातीय सशक्तीकरण को सही रूप में परिभाषित करेगी।
    आवश्यकता भाषण या आश्वासन का नहीं, नींव से सुधार का है और इसके लिए जनजातियों को उनके मूल से जोडऩा, अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करना, शिक्षा का प्रचार - प्रसार और उनके जीवन को प्रकृति के साथ जुड़ा रखते हुए आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक से जोडऩा है; भाषा, परंपरा और लोक -संस्कृति की रक्षा करती है - उनकी कार्यकुशलता को महत्त्व देते हुए उन्हें देश के विकास से जोडऩा है, तभी देश वास्तव में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र कहलाने का हकदार होगा।
संदर्भ -       
1 भारतीय जनजातियाँ -रूपचंद्र वर्मा, प्रकाशन विभाग
2 भारतीय आदिवासी जीवन- निर्मल कुमार बोस, अनुवादक- श्याम परमार; राष्ट्रीय पुस्तक न्यास 
3 आदिवासी लोक -संपा. रमणिका गुप्ता
4 भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास - मोहनदास नैमिशराय
5 दलित अल्पसंख्यक सशक्तिकरण- संपा. संतोष भारतीय
6 कृति कल्प - आदिवासी विशेषांक, वॉल्यूम 3, जनवरी- जून 2015
सम्पर्क: डी -136, तीसरा तल, गली न. 5, गणेशनगर पांडवनगर कॉम्प्लेक्स, दिल्ली - 110092, email- dr.artismit@gmail.com

शब्दों की जगह लेते भावचित्र

शब्दों की जगह लेते भावचित्र 
 - संध्या राय चौधरी
 शब्दों और भाषा की दुनिया में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी को काफी मान्यता और प्रतिष्ठा हासिल है। दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रचलित और इस्तेमाल होने वाले कुछ नए-नए शब्द इस डिक्शनरी में हर साल जोड़े जाते हैं, फिर चाहे वे विश्व की किसी भी भाषा के क्यों न हों। डिक्शनरी में जोड़े जाने वाले शब्द की चर्चा भी बहुत होती है, लेकिन वर्ष 2015 में डिक्शनरी में किसी नए शब्द को शामिल न करके जब एक इमोजी को स्थान दिया गया, तो तहलका मच गया था। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में स्थान पाने वाला यह इमोजी है 'फेस विथ टियर्स ऑफ जॉय
और अब खबर यह है कि यह प्रतिष्ठित डिक्शनरी शायद इस साल भी कोई शब्द न चुनकर किसी ग्राफिक या अन्य किसी माध्यम को चुन सकती है। वैज्ञानिकों के अध्ययन के मुताबिक लोगों को शब्द से ज़्यादा लगाव किसी संकेत, भाव या चित्र से होता है।

दरअसल, 2015 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने शब्द के स्थान पर एक चित्र (चित्र समूह) को जगह दी थी और उसे वर्ड ऑफ द ईयरभी घोषित किया था। यह चित्र एक इमोजी था। इमोजी वास्तव में जापान में प्रचलित हँसते हुए स्माइली में से एक है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ऐसे इमोजी का उल्लेख किया है, जिसमें हँसते हुए स्माइली की आँखों से आँसू निकल रहे हैं। इस इमोजी को वर्ड ऑफ द ईयरघोषित करते हुए डिक्शनरी के प्रकाशकों ने कहा था कि यह इमोजी वर्ष 2015 में दुनिया के लोगों के मूड को बेहतर ढंग से व्यक्त करता है, इसीलिए इसे डिक्शनरी में शामिल किया गया है। एक इमोजी को विश्व की सबसे लोकप्रिय डिक्शनरी में शामिल करने पर लोग अचम्भित हुए थे। ऑक्सफोर्ड ने 2014 में अंग्रेजी के चार अक्षरों से बने शब्द वेप’ (VAPE) को चुना था।
शब्दचित्र की नई कड़ी
कहने को तो इमोजी एक जापानी शब्दचित्र है। यह मनुष्य की भावनाओं को व्यक्त करने वाले इमोटिकॉन्स की तरह का ही एक चित्र है। जिस तरह स्माइली का ज़्यादातर इस्तेमाल मोबाइल फोन और इंटरनेट पर किया जाता है, उसी तरह इमोजी जापानी फोन से निकल कर अब पूरी दुनिया में छा गए हैं। इमोजी का एक शाब्दिक अर्थ भी है। इस में प्रयुक्त का मतलब है इमेज यानी चित्र और मोजीका मतलब है लिपि-संकेत। इस प्रकार इमोजी वास्तव में एक चित्रलिपि है।
जिस दौर में दुनिया में स्माइली का प्रचलन शुरू हो रहा था, लगभग उसी दौर में एक जापानी इंजीनियर शिगेताका कुरीता ने कई लोगों की भावनाओं को व्यक्त करते हुए करीब 180 अलग-अलग इमोजी बनाए थे। वर्ष 1998-99 की बात है जब कुरीता और उनकी टीम ने एक दूरसंचार कंपनी एनटीटी डोकोमो की मोबाइल व इंटरनेट सेवाओं के लिए खास तरह के संकेतों के आविष्कार का काम हाथ में लिया था। इमोजी को ईजाद करते समय उनकी टीम ने मौसम की भविष्यवाणी करने वाले संकेतों और शेयर बाज़ार के भावों को प्रकट करने वाले संकेतों पर विचार किया। जैसे मौसम की भविष्यवाणी करते समय बादलों, बारिश, बर्फबारी या सूर्य का चित्र बनाया जाता है, उसी तरह उन्होंने इंसान के मूड यानी हंसी, खुशी, क्रोध आदि भावों को व्यक्त करने वाले इमोजी बनाए।
नए किस्म के इमोटिकॉन्स
जिस प्रकार इमोजी दो शब्दों और मोजीसे मिल कर बना है, उसी प्रकार इमोटिकॉन्स भी इमोशन (भावना) और आइकन (चित्र-संकेत) से मिल कर बना है। इमोटिकॉन्स की तरह इमोजी भी भाव संकेत हैं। वैसे इमोटिकॉन्स दुनिया में डेढ़ सदी से प्रयोग में आ रहे हैं। बताते हैं कि पहली बार न्यूयार्क टाइम्स ने वर्ष 1862 में अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का भाषण छापते समय स्माइली का प्रयोग किया था। इसके बाद पत्र-पत्रिकाओं में स्माइली का इस्तेमाल होने लगा। कंप्यूटर के साथ स्माइली ज़्यादा प्रचलन में आए।
कंप्यूटरों पर स्माइली लाने का श्रेय अमेरिका की कार्नेगी मिलान युनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्कॉट फालमैन को जाता है। 1982 में उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक संकेतों के रूप में कुछ स्माइली बनाए थे। इसके बाद सैकड़ों स्माइली बनाए गए - चिढ़ाते, मुस्कराते, गुदगुदाते, रोते चेहरों वाले स्माइली का आज पूरी दुनिया में स्मार्टफोन्स और कंप्यूटर पर इंटरनेट के ज़रिए इस्तेमाल हो रहा है।
फैलता जापानी इमोजी
इमोजी को 1997 में जापानी शब्दकोशों में पहली बार जगह दी गई थी। पर ये तब ज़्यादा मशहूर हुए ,जब जापान की डोकोमो कंपनी ने इमोजी को टेक्स्ट मेसेज में इस्तेमाल करने की सहूलियत दी थी।
हाल ही में एपल द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक एपल के आईफोन में ही दो करोड़ बार ये इमोजीस डाउनलोड किए गए। अन्य कई स्मार्टफोन्स में तकरीबन 720 स्माइली आईकॉन उपलब्ध हैं। इनमें स्वीट स्माइली फेस वाले सिंबल से लेकर डरावने और चुलबुले फेस सिंबल तक मौजूद हैं। ऐसे ही इमोजी को स्कैन करने वाली साइट emoji-scanner-wird हर ट्वीट का इमोजी स्कैन करती है। इसके मुताबिक रेड हार्ट यानी लाल दिल वाला सिंबल पहले पायदान पर है जिसका इस्तेमाल ट्वीट्स के दौरान 24 करोड़ 20 लाख बार हुआ है। दूसरे स्थान पर हैप्पी क्राइंग सिंबल यानी खुशी के आँसुओं वाला सिंबल (15 करोड़ 30 लाख बार) और तीसरे स्थान पर माईलिंगस सिंबल है (8 करोड़ 60 लाख बार)।
1998 तक स्माइली वेब जगत में शामिल हो चुके थे। फिर इन्हें फ्री में डाउनलोड करने की सुविधा भी वर्ष 2000 में शुरू कर दी गई और इन पर एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई। लगभग 1000 इमोजी ऐसे हैं; जिन्हें लगभग सभी डिजिटल माध्यमों में इस्तेमाल किया जा सकता है। वैसे यह पता नहीं है कि कुल कितने इमोजीस हैं; क्योंकि हर दिन नए-नए इमोजीस जुड़ते रहते हैं। पहले इमोजी किसी वाक्य में 1-2 जगह पर इस्तेमाल होता था पर धीरे-धीरे अलग-अलग इमोजी जोड़ कर पूरे-पूरे वाक्य बनाए जाने लगे। जापान में तो इमोजी का प्रयोग कई रूपों में हो रहा है। जापानी नूडल्स, डैंगो, ओनिगिरि, जापानी करी या खुशी को व्यक्त करने वाले इमोजी भी वहाँ प्रचलित हैं।
इमोजी उपन्यास और फिल्में

इमोजी कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, इसकी एक मिसाल यह है कि एक उपन्यास मोबी डिक का तो इमोजी में ही अनुवाद किया गया है। असल में एक-एक इमोजी को जोड़कर पूरा वाक्य बनाया जाता है और जो लोग इमोजी में अपनी बात कहने-सुनने के आदी हैं, वे बड़ी आसानी से इमोजी जोड़ कर बनाए गए वाक्य का अर्थ समझ जाते हैं। सिर्फ उपन्यास ही नहीं, अब तो इस पर पूरी फिल्म बनाने की बात भी हो रही है। हॉलीवुड की कंपनी सोनी पिक्चर्स एनिमेशन ने यह घोषणा की है कि वह इमोजी पर आधारित एक एनिमेशन फिल्म बनाने की योजना पर काम कर रही है।
नया ज़माना, नई भाषा
वैसे तो शब्दों के समर्थक कह रहे हैं कि चित्रों को भाषा का माध्यम बनाना गलत है, पर यह एक सच्चाई है कि जिस तरह से स्मार्टफोन पर शब्दों की बजाय कोई बात चित्रों के ज़रिए कह दी जाती है, उसमें भाषा का खो जाना स्वाभाविक है। कोई बात कहने के लिए अब यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि एक लंबा वाक्य ही कहा जाए। जैसे धन्यवाद कहने या आभार प्रकट करने के लिए उठा हुआ अँगूठा बना दिया जाता है या शाबाशी देने के लिए ताली बजाते हाथों का संकेत बना दिया जाता है। अन्य भाव भी चित्रों से आसानी से व्यक्त हो जाते हैं। इसलिए पूरी संभावना है कि निकट भविष्य में स्माइली की तरह इमोजी भी पूरी दुनिया पर छा जाएँगे। जैसे ऑक्सफोर्ड और एक अन्य कंपनी स्विफ्टकी ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर आकलन किया है कि इमोजी का ब्रिटेन में 20 फीसदी और अमेरिका में 17 फीसदी मेसेजिंग में इस्तेमाल हो रहा है। यही नहीं, 2014 के मुकाबले 2015 में इमोजी का तीन गुना ज़्यादा इस्तेमाल हुआ और अनुमान है कि 2016-17 में पूरे विश्व में

लगभग 42 फीसदी मेसेजों में इनका इस्तेमाल होगा। हो सकता है कि जल्द ही इमोजी मनोरंजन की भाषा न रह कर कामकाज की भाषा भी बन जाए। वॉट्सएप, स्नैपचैट, फेसबुक ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सैकड़ों इमोजीस हर जगह मौजूद हैं। इंटरनेट, नॉर्मल टेक्स्ट मेसेजिंग अथवा चैटएप्स पर चैटिंग के दौरान इन इमोजीस का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है। यहाँ तक कि फेसबुक, ट्विटर पर कमेंट के रूप में भी इनका इस्तेमाल किया जाता है। यानी औपचारिक भाषा के शब्दों के बगैर लोग केवल एक इमोजी पर ही पूरा संदेश लिखने लगे हैं।
टीयर्स ऑफ जॉय का चयन
सैकड़ों इमोजीस में सिर्फ टीयर्स ऑफ जॉय चुनने की वजह बताई गई थी इसका ज़्यादा लोकप्रिय होना। एक रिसर्च के मुताबिक अमेरिका में इस्तेमाल होने वाले सारे इमोजीस में से 20 फीसदी इस इमोजी का प्रयोग किया जाता है। यूके में 17 फीसदी लोग इसका प्रयोग करते हैं। इसी आधार पर इसे वर्ड ऑफ द ईयर का खिताब दिया गया है।
अन्य लोकप्रिय इमोजीस में हैप्पी क्राइंग फेस, बीटिंग हार्ट, किसिंग फेस, झूमता और बंद आंखों वाला चेहरा, स्लीपी फेस, स्माइलिंग फेस विथ ओपन माउथ, परियां, चाँ, हैमबर्गर, केक, कैंडल, और नमस्कार की मुद्रा वाले इमोजीस का भी भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है।
बनाएँ अपना इमोजी
अब आप चाहें, तो अपनी शक्ल को भी इमोजी में चेंज कर सकते हैं। इसके लिए ऑनलाइन सॉफ्टवेयर मौजूद हैं। ऐसी कुछ वेबसाइट्स भी हैं जो आपकी शक्ल को इमोजी में बदल देंगी और आप इन्हें ट्विटर या फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर शेयर भी कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

कहाँ गए माँजरी और बिन्ने बुनने वाले हाथ

         कहाँ गए माँजरी 
        और बिन्ने बुनने वाले हाथ
                        - पवन चौहान
आधुनिक जीवन शैली बहुत-सी पारंपरिक चीजों को काफी पीछे छोड़ आई है। मशीनीकरण के इस युग ने आज हर वस्तु को नए अंदाज, नए फैशन और चमक-दमक व सस्ते दाम में पेश करके हाथ से बनी वस्तुओं का जैसे वजूद ही मिटाकर रख दिया है। इसी चकाचौंध में दम तोड़ चुका है हमारे हाथों का हुनर दर्शाने वाले पारंपरिक बिन्ने’ (बैठकु) और माँजरी’ (चटाई)।
बिन्ने का प्रयोग सिर्फ एक व्यक्ति के बैठने के लिए होता है जबकि मांजरी (जिसे कई जगह पंदके नाम से भी जाना जाता है) का प्रयोग एक से अधिक लोग बैठने या फिर सोने के लिए करते है। बिन्ना बनाने के लिए मुख्यतया कोके’ (मक्की का बाहरी छिलका) का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इसके अलावा बिन्ने को बनाने के लिए हल्दी के पत्ते या पराली का इस्तेमाल भी किया जाता है। बिन्ने को आमतौर पर गोल आकार दिया जाता है। लेकिन इसे और आकर्षक और फैशनेबल बनाने के लिए चौरस, तिकोना या अन्य आकार में भी ढाला जाता है। एक बिन्ने को बनाने में लगभग चार से पाँच घंटे तक का समय लग जाता है। बिन्ने को सुंदर व आकर्षक बनाने के लिए इसमें लगने वाली सामग्री को अलग-अलग प्रकार के रंगों में रंगकर इस्तेमाल किया जाता है। यदि कोके को रंगना न हो तो इसके बदले रंग-बिरंगे प्लास्टिक को कोके के ऊपर लपेटकर इसे तैयार किया जाता है।

माँजरी को बनाने के लिए मुख्यतया पराली, हल्दी के पत्ते तथा खजूर के पत्तों (पाठे) का इस्तेमाल किया जाता है। माँजरी के लिए कोके का प्रयोग नहीं किया जाता। माँजरी लंबी और चौरस होती है। पाठे की माँजरी में पहले पाठे के पत्तों को एक विशेष तकनीक से आपस में हाथ से बुनकर कम चौड़ी लेकिन एक माँजरी के आकार के अनुसार बराबर लम्बी पट्टी तैयार की जाती है। पराली की माँजरी को समतल जमीन पर चार खूंटियाँ गाड़ कर और उनमें सेबे या प्लास्टिक की पतली डोरियों को समान दूरी में बाँधकर फिर थोड़ी-थोड़ी पराली लेकर सेबे या प्लास्टिक की डोरी से गाँठे देकर तैयार किया जाता है। आजकल बनने वाली माँजरियों में महिलाएँ रंग-बिरंगे प्लास्टिक के रैपर लगाकर उन्हे एक नए रुप में पेश कर रही हैं। ये माँजरियाँ लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। पराली की माँजरी को बनाने में पाँच से छ घंटे तक का समय लग जाता है। पाठे की माँजरी के लिए पहले पाठे की लगभग चार ईंच चौड़ी लेकिन कई मीटर लम्बी (माँजरी के साइज के अनुसार) पट्टी एक विशेष तकनीक द्वारा पाठों को आपस में बुनकर तैयार की जाती है। फि र इस पट्टी को माँजरी के आकार के अनुरूप पाठे से ही सीकर जोड़ा जाता है। पाठे की माँजरी बनाने के लिए लगभग एक सप्ताह तक का समय आराम से लग जाता है। पाठे की माँजरी पतली लेकिन पराली की माँजरी मोटी व नरम होती है। हिमाचली लोकगीतों में माँजरी का बखान बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। जो इस तरह से है-
आया हो नंलारिआ, जाया हो नंलारिआ
बैठणे जो देंदीओ तिजो पंद, पंद ओ नंलारिआ हो।
इस गीत के जरिए नंलारी की अमर प्रेम कहानी का बखान लोगों की जुबानी किया जाता है।
इस तरह से बने बिन्ने व माँजरी आज सिर्फ गाँव में ही देखे जा सकते हैं। लेकिन इस आधुनिक युग के आरामपरस्त माहौल के चलते इसे बनाने वाले हुनरमंद हाथ भी अब पीछे सरकने लगे हैं। वे अब इसके बजाय रेडीमेड बैठकु या कुर्सियाँ आदि खरीदना ही ज्यादा पसंद करने लगे हैं। गाँव में पहले बिन्ना व माँजरी बुनने का हुनर हर परिवार की औरतें जानती थींलेकिन अब यह हुनर कुछ एक औरतों तक ही सीमित रह गया है। जो इन चीजों के ज्यादा इस्तेमाल न होने के कारण जंग खाता-सा प्रतीत होता है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, पर बिन्ना व माँजरी बनाने में जिस मेहनत, प्यार, लगन और अपनेपन का अहसास झलकता है वह बाजार से खरीदी चीजों में कहाँ। गाँव में आज भी लड़की की शादी में घर की अन्य चीजों के साथ बिन्ने और मांजरी अवश्य ही दी जाती है।
महादेव गाँव की सौजी देवी आज भी अपने घर के लिए अपने हाथ से हर बर्ष बिन्ने व माँजरियाँ तैयार करती है। वह कहती हैं-  ‘हम चाहे मशीनों से बनी साजो-समान व आराम की कितनी भी चीजें घर में सजा लें ; लेकिन अपने हाथों से बनाई गई चीजों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। इन चीजों को बनाने से जहाँ खाली समय आराम से कट जाता है , वहीं अपने हुनर की क्रियाशीलता भी बनी रहती है। इस तरह की चीजों से दूर होने का साफ मतलब यह है कि हम अपनेपन से दूर भाग रहे हैं।
यह बात काफी हद तक सही भी है। पहले जब भी कोई मेहमान घर आता था तो उसे बिन्ने या माँजरी पर बिठाया जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में इन चीजों का स्थान धरती से दो फुट ऊँची कुर्सी, बैठकु या फिर अन्य चीजों ने ले लिया है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो बिन्ना या माँजरी में बैठकर खाने से या बैठने-उठने से शारीरिक व्यायाम हो जाता है जो स्वास्थ्य की दृश्टि से लाभदायक है। यूँ भी धरती पर भोजन करना मेज पर या खड़े होकर भोजन करने से ज्यादा बेहतर माना जाता है। तो आइए चलें, बिन्ने और माँजरी के दौर में एक बार फिर से वापिस ताकि हमारा हुनर जिंदा रह सके, स्वास्थ्य बना रहे और बची रह सकें हमारी पीढिय़ों की यादें। 
सम्पर्क: तहसील- सुन्दरनगर, जिला-मण्डीहिमाचल प्रदेश- 175018,  
मो. 098054 02242, 094185 82242, Email: chauhanpawan78@gmail.com

पर्यावरण को सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी है

      पर्यावरण को सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी है
     कोई और इसे बचाने नहीं आगा
                         - वैभव अग्रवाल  
राबर्ट स्वान ने कभी कहा था कि हमारे ग्रह (पृथ्वी) को सबसे बड़ा खतरा, हमारी इस मानसिकता से है कि कोई और इसे बचा लेगा। ये कथन हमारे लिए चेतावनी के साथ साथ सलाह भी है कि हम सब मिल कर ही अपने ग्रह पृथ्वी को बचा सकते है। ये हम सब का दायित्व है कि पृथ्वी के वातावरण को बचाने में हम सब सहयोग दे, चाहे छोटा सहयोग या बड़ा। क्योंकि कहा भी गया है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
जैसा सुकरात ने कहा है कि वो ही अमीर है जो प्रकृति के संसाधनों का कम से कम उपयोग करता हैअर्थात हमें अपनी आवश्यकता अनुसार ही प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। जैसे कि हम व्यर्थ में पेड़ ना काटें, जल व्यर्थ ना करें, वायु को कम से कम प्रदूषित करें, विद्युत् का उपयोग आवश्यकता अनुसार करे। वैसे भी कहा गया है कि प्रकृति हमार। हमारे प्राचीन ऋषि- मुनियों ने प्रकृति के महत्त्व को समझा था इसी लिए हमारे भारत में नदियों, वृक्षों, पर्वतों को देवता स्वरुप मानकर उनकी पूजा करते थे ताकि हम उन्हें गन्दा एवं अपवित्र ना करें।
आजकल हम देख रहे है कि पृथ्वी के संसाधनों का बहुत दुरुपयोग हो रहा है। आजकल दिखावे की प्रथा दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। जहाँ हम एक कार में  5-6 लोग जा सकते है ; वहीं पर हर आदमी शान के लिए अलग गाड़ी का प्रयोग कर रहा है। और तो और शहरों में लोग सैर के लिए भी शहर से दूर गाडिय़ों में जाते हैं ; क्योंकि अंधाधुँध आधुनिकरण ने शहरों में स्वच्छ वायु वाला स्थान ही नहीं छोड़ा। ज्यादा मोटर गाडिय़ों से सड़क पर यातायात अवरुद्ध हो जाता है और दुर्घटनाओं की संख्या में बहुत बढ़ोतरी हो रही हैं। पेट्रोल की खपत दिन- पर- दिन  बढ़ रही है जिससे वायू प्रदूषण बढ़ रहा है। पर्यावरण खऱाब हो रहा है जिसके कारण तरह तरह के रोग बढ़ रहे हैं ।
आजकल हम देख रहे है कि विवाह, जन्मदिन आदि समारोह में भी खाने कि बहुत ज्यादा बरबादी हो रही है। एक ही समारोह में 10-15 तरह के व्यंजन बनते है और अंतत: बहुत ज्यादा अन्न व्यर्थ जाता है। अन्न को उगाने में कितनी मेहनत, खाद, पानी, समय और बिजली आदि लगते हैं, तो किसान ही जानता है और हम उसको कितनी आसानी से बरबाद कर देते हैं। एक तरफ तो विश्व में अनेकों लोग भूख से मर रहे हैंं और एक तरफ अन्न की बरबादी बहुत ही तकलीफदेह है। भगवान कृष्ण ने भी दौपदी को अक्षय पात्र के एक चावल के दाने से अन्न का महत्त्व समझाया था। अत: हम सबको अन्न व्यर्थ ना करके उसका सदुपयोग करना चाहिए ; जिससे हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।
अभी कुछ समय पहले भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत की योजना चलाई है। स्वच्छ भारत की योजना केवल सरकार के प्रयासों से सफल नहीं हो सकती। जब तक प्रत्येक नागरिक इसमें अपना सहयोग नहीं देगा तब तक ये योजना सफल नहीं हो सकती। स्वच्छता से ही हम पृथ्वी को बचा सकते है। स्वच्छता होगी तो कई बीमारियाँ तो वैसे ही समाप्त हो जाएगी जिन पर हमें और सरकार को बहुत सा धन खर्च करना पड़ता। वो ही धन अगर देश के विकास में लगे तो कितना अच्छा हो। सभी नीरोग जीवन जिएँ। स्वच्छता तब ही होगी , जब हम ठीक से कचरे का प्रबन्धन रेंगे। कम से कम कचरा पैदा करेंगे और उस कचरे का दोबारा अन्य कामों में प्रयोग करेगे। इससे हमारे पर्यावरण की सुरक्षा होगी और हमारी पृथ्वी सुन्दर होगी।
आजकल विभिन्न देशों में हथियारों की होड़ लगी हुई है। ऐसे ऐसे घातक हथियार विकसित किए जा रहे है जो पृथ्वी को नष्ट कर सकते है। एक तरफ तो हम दूसरे ग्रहों पर जीवन की संभावना तलाशते हुए घूम रहे हैं और दूसरी तरफ हम अपनी स्वर्ग से भी सुन्दर पृथ्वी को बरबाद करने पर तुले हुए हैं जो हम सबको जीवन देती है। ये कैसी विडम्बना है?
अभी पिछले दिनों देश में सूखे जैसे हालत हुए, हमने देखा कि महाराष्ट्र, बुंदेलखंड आदि जगहों पर लोगों के लिए पीने तक का पानी नहीं था और दूसरी तरफ हम पानी को व्यर्थ करते रहते हैं। ये हम सबका कर्तव्य है कि हम पानी का संरक्षण करे और उसका सदुपयोग करे;क्योकि जल ही जीवन है।
जैसे जैसे द्योगीकरण हो रहा है वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, नदियों का पानी दूषित हो रहा है, जंगल के जंगल काटे जा रहे है। जिससे पर्यावरण को भयंकर नुकसान हो रहा है। इसका एकमात्र विकल्प है कि हम ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाये।
अंधाधुध द्योगीकरण से विश्व का तापमान साल दर साल बढ़ रहा है जिसके कारण ग्लेशियर पिघल रहे है। समुद्र का जल स्तर बढ़ता जा रहा है जिससे कई द्वीप तो समुद्र में पहले ही  समा चुके है। कई जीव जंतु विलुप्त हो चुके हैं।
कुल मिलाकर देखा जाये तो स्थिति बहुत भयावह है।  अगर हम अभी भी सचेत नहीं हुए तो हमारा भविष्य अंधकारमय ही है। हम अपने ग्रह पृथ्वी को तब ही बचा सकेगे; जब हर व्यक्ति अपना कर्तव्य समझकर तथा छोटी- छोटी बातों पर ध्यान देकर प्रकृति के स्रोतों की रक्षा करेगा और उनका सदुपयोग करेगा। ऐसे समय में राबर्ट स्वान का ये कथन कि हमारे ग्रह (पृथ्वी) को सबसे बड़ा खतरा, हमारी इस मानसिकता से है कि कोई और इसे बचा लेगाबहुत सार्थक लगता है। हम सबको मिलजुल कर अपने ग्रह पृथ्वी को बचाना है कोई दूसरा इसे बचाने नहीं आयेगा।
सम्पर्क- 181/ lll स ला ई ट, लोंगोवाल जिला संगरूर, 148106, Email- aggarwalramnik@gmail.com