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Mar 16, 2016

उदंती.com फरवरी- मार्च- 2016


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फरवरी- मार्च- 2016
ईश्वर की कोई बौद्धिक 
परिभाषा नहीं दी जा सकती। 
हाँ, उसका आत्मा के सहारे 
अनुभव किया जा सकता है |
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन


Mar 15, 2016

आलेखः संस्कृत काव्य धारा में प्रकृति की आदिम सुवास

               
                                    - गोवर्धन यादव

संस्कृत साहित्य में, विषेशकर उसकी काव्य परम्परा में वेदव्यास, वाल्मिकि, भवभूति, भारवि, श्रीहर्ष, बाणभट्ट, कालिदास आदि महाकवियों ने प्रकृति की जो रसमयी झाँकी प्रस्तुत की है, वह अनुपम-अतुलनीय तथा अलौकिक है। उसकी पोर-पोर में कुदरत की आदिम सुवास है- मधुर संस्पर्श है और अमृतपायी जीवन दृष्टि है । प्रकृति में इसका लालित्य पूरी निखार के साथ निखरा और आज यह विश्व का अनमोल खजाना बन चुका है। सच माना जाय तो प्रकृति, संस्कृत काव्य की आत्मा है, चेतना है और उसकी जीवन शक्ति है। काव्यधारा की इस अलौकिक चेतना के पीछे जिस शक्ति का हाथ है, उसका नाम ही प्रकृति है।
पृथ्वी से लेकर आकाश तक तथा सृष्टि के पाँचों तत्व निर्मल और पवित्र रहें, वे जीव-जगत के लिए हितकर बने रहें, इसी दिव्य संदेश की गूँज हमें पढऩे-सुनने को मिलती है। महाभारत में हमें अनेक स्थलों पर प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम छटा देखाने को मिलती है। महाभारत के आरण्यक पर्व 39/19 की एक बानगी देखिए-
मनोहर अनोपेता स्तस्मिन्नतिरथोर्जुन: 
पुण्य शीतमलजला: पश्यन्प्रीत मनाभवत 
कलकल के स्वर निनादित कर बहती नदियाँ, नदियों में बहता शीतल स्वच्छ जल, जल में तैरते-अलौकिक आनन्द मे डूबे हंस, नदी के पावन पट पर अठखेलियाँ करते सारस, क्रौंच, कोकिला, मयूर, हवा से होड़ लेते मृग, आकाश को छूती पर्वत श्रेणियाँ, सघन वन, वृक्षों की डालियों पर धमाचौकड़ी मचाते शाखामृग, चिंचिंयाते रंग-बिरंगे पंछी, जलाशयों में पूरे निखार के साथ खिले कमल-दल, कमल के अप्रतिम सौंदर्य पर मंडराते आसक्त भौंरों के समूह, तितलियों का फुदकना आदि को पढ़कर आदिकवि के काव्य कौशल को देखा जा सकता है।
तो पश्य मानौ विविधञ्च शैल प्रस्थान्वनानिच
नदीश्च विविध रम्या जग्मतु: सह सीतभा
सार सांश्चक्रवाकांश्च नदी पुलिन चारिण:
सरांसि च सपद्मानि युतानी जलजै खगै:
यूथ बंधाश्च पृषतां मद्धोन्मत्तान्विषाणि न:
महिषांश्च वराहंश्च गजांश्च द्रुमवैरिण:
 (रामायण- अरण्यकांड सर्ग 11 (2-4)
 राम अपने बनवास के समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो मार्ग मे अनेक पर्वत प्रदेश, घने जंगल, रम्य नदियाँ, और उनके किनारों पर रमण करते हुए सारस और चक्रवाक जैसे पक्षी, खिले -खिले कमलदल वाले जलाशय और अपने-अपने जलचर, मस्ती मे डोलते हिरणों के झुण्ड, मदमस्त गैंडे, भैंसे, वराह, हाथी, न सुरक्षा की चिन्ता, न किसी को किसी का भय, वाल्मिकी ने रामायण में जगह-जगह प्रकृति के मधुरिम संसार का वर्णण किया है।
भवभूति के काव्य में प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। लताएँ जिन पर तरह-तरह के खिले हुए पुष्प सुवास फैला रहे हैं। शीतल और स्वच्छ जल की निर्झरियाँ बह रही है। भवभूति ने एक ही श्लोक में जल, पवन, वनस्पति एवं पक्षियों का सुंदर वर्णण प्रस्तुत किया है।
माघ के काव्य में तीन विशिष्ठ गुण है। उसमें उपमाएँ हैं। अर्थ गांभीर्य है और सौंदर्य सृष्टि भी। कहा जाए तो वे उपमाओं के राजा हैं। विशेष बात यह है कि उन्होंने अधिकांश उपमाएँ प्रकृति के खजाने से ही ली है।
शिशुपाल वध में अनेक ऐसे स्थल हैं जिनमें प्राकृतिक सौंदर्य और स्वच्छ पर्यावरण का उल्लेख मिलता है। काली रात के बाद भला प्रकाश आ रहा है। उसके गोरे-गोरे हाथ-पाँव ऐसे लगते हैं मानो अरुण कमल हों। भौंरे ऐसे हैं जैसे प्रभात के नीलकमल नेत्रों के कज्जल की रेखाएं हों। सांध्य पक्षियों के कलरव में मस्त हुई यह भोली बालिका (प्रभात) रात के पीछे-पीछे चलकर आ रही है (शिशुपाल वध 6/28)
महाकवि भारवि के ग्रंथ किरातार्जुनीय में अनेक उपमाएँ, शृंगार प्रधान व सौंदर्यपरक रुपक है। वन में प्रवाहित नव पवन कदम्ब के पुष्पों की रेणु द्वारा आकाश को लाल कर रहा है। उधर पृथ्वी, कन्दली के फू लों के स्पर्श से सुगन्धित हो रही है। ये दोनों दृष्य अभिलाषी पुरुष के मन को का-मनियों के प्रति आशक्त करने वाले हैं। नवीन वनवायु अपने आप ही शुद्ध वायु की ओर संकेत कराने वाला शब्द है। उधर धरती सुगंधित है, मन चंचल हो रहा है। (9)
(9) नवकदम्ब जोरुणिताम्बैर रधि पुरन्ध्रि शिलान्ध्र सुगन्धिभि:
मानसि राग वतामनु रागिता नवनवा वनवायु भिरादे धे !!
 प्रकृति के लाडले कवि कुमारदास द्वारा रचित जानकी हरण प्राकृतिक सौंदर्य एवं उपमाओं के भण्डार से भरा हुआ है। अतीत की निष्कलंक एवं पवित्र प्राकृतिक, प्राय: सभी जगह बिखरी पड़ी है. कई स्थान पर मार्मिक मानवीकरण भी है।
कुदरत की मादक गोद में विचरण करते राजा दशरथ की मन:स्थिति का वर्णन करते हुए कवि लिखता है- राजा ने नदी के उस तट पर विश्राम किया, जहाँ मंद पवन बेंत की लताओं को चंचल कर रहा था। सुखद पवन गंधी की दुकान की सुगंध जैसा सुगंधित था। वह सारस के नाद को आकर्षित करने वाला था। नीलकमल के पराग को उड़ा-उड़ाकर उसने राजा के शरीर को पीला कर दिया, यह पढ़कर लगता है कि हम किसी चित्र-संसार की सलोनी घटना को प्रत्यक्ष देख रहे हैं।
श्रीहर्ष ने अपनी कृति नैषधिय में प्रकृति के सलोने रुप का वर्णन किया है। इस दृष्य को उन्होंने राजा नल की आँखों के माध्यम से देखा था। नल ने भय और उत्सुकता से देखा। क्या देखता है कि जल में सुगंध फैलाने वाला पवन जिस लता को चूम-चूम कर आनन्द लेता है, वही लता (मकरन्द के कण से युक्त है) आज अपनी ही कलियों में मुस्कुरा रही है। एक चित्र और देखिए--
फ लानि पुष्पानि च पल्ल्वे करे क्योतिपातोद गत वातवेपिते
वृक्षों ने अपने हाथों में पुष्प और फ ल लेकर राजा का स्वागत किया। ऊपर की ओर पक्षियों की फड़- फड़ाहट से हवा में होने वाले कम्पन से शाखाएँ हिल रही थीं। पढ़कर ऐसा लगता है कि वृक्षों ने अपने इन्ही हाथों (शाखाओं) में पुष्प और फल लेकर राजा का स्वागत किया हो।
वाणभट्ट ने अपनी कृति कादम्बरी में अगस्त्य मुनि के आश्रम के पास, पम्पा सरोवर का वर्णन करते हुए लिखा ह- सरोवर में कई प्रकार के पुष्प हैं जैसे- कुसुम, कुवलय और कलहार। कमल इतने प्रमुदित हंै कि उसमें मधु की बूंदे टपक रही है। और इस तरह कमल-पत्रों पर चन्द्र की आकृतियाँ बन रही है। सफेद कमलों पर काले भवरों का मंडराना अंधकार का आभास देता है। सारस मस्त हैं। मस्ती में कलरव कर रहे हैं। उधर कमल रस का पान करके तृप्त हुई कलहंस भी मस्ती का स्वारालाप कर रही है। जलचरों के इधर से उधर डोलने से तरंगे उत्पन्न हो रही है। मानो मालाएँ हों। हवा के साथ नृत्य करती हुई तरंगे  वर्षा ऋ तु का सा दृष्य उत्पन्न कर रही है।
सुंदर लवंग लता की शीतलता लिए हुए कोमल और मृदु मलय पवन चलता है। मस्त भौंरों और कोयल वृंदो के कलरव से कुंज- कुटीर निनादित है। युवतियाँ अपने प्रेमियों के साथ मस्त होकर नृत्य करती हैं। स्वयं हरि विचरण करते हैं- ऐसी वसन्त ऋतु, विरहणियों को दु:ख देने वाली है।
वसंत ऋ तु का ऐसा सजीव चित्रण जो मस्ती से लेकर, संताप की एक साथ यात्रा करवाता है।
कालिदास ने कवि और नाटककर दोनों रूपों में अद्भुत प्रतिष्ठा प्राप्त की। उन्होंने प्रकृति के अद्भुत रुपों का चित्रण किया है। सरस्वती के इस वरद-पुत्र ने भारतीय वाड्यगमय को अलौकिक काव्य रत्नों एवं दिव्य कृतियों से भरकर उसकी श्रीवृद्धि की है।
रघुवंश के सोलहवें सर्ग में प्राकृतिक छटा का जो श्लोक है उसका भावार्थ यह है कि वनों में चमेली खिल गई है जिसकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है। भौंरे एक-एक फू ल पर बैठकर मानों फू लों की गिनती कर रहे हैं। वसन्त का चित्रण करते हुए एक कवि ने सजीव एवं बिम्बात्मक वर्णन किया है- लताएँ पुष्पों से युक्त हैं, जल में कमल खिले हैं, कामनियाँ आसक्ति से भरी है, पवन सुगन्धित है, संध्याएँ मनोरम एवं दिवस रम्य है, वसन्त में सब कुछ अच्छा लगता है।
शकुन्तला के बिदाई के समय के चित्र को देखिए- हे वन देवताओं से भरे तपोवन के वृक्षों! आज शकुन्तला अपने पति के घर जा रही है। तुम उसे बिदाई दो। शकुन्तला पहले तुम्हें पिलाए बिना खुद पानी नहीं पीती थी, आभूषणों और शृंगार की इच्छा होते हुए भी तुम्हारे कोमल पत्तों को हाथ नहीं लगाती थी, तुम्हारी फूली कलियों को देखकर खुद भी खुशी से फूल जाती थी, आज वही शकुन्तला अपने पतिगृह जा रही है. तुम उसे बिदाई दो।
संस्कृत काव्यधारा में फूलों की आदिम सुवास का अनमोल खजाना, अपने पूरे लालित्य के साथ समाया हुआ है। प्रकृति के इन विभिन्न आयामों की रचना करने का उद्देश्य ही पर्यावरण संरक्षण रहा है। आज स्थितियाँ एकदम विपरीत है। जंगलों का सफाया तेजी से हो रहा है। विकास के नाम पर पहाड़ का भी अस्तित्व दांव पर लग चुका है। प्रकृति हमारे लिए सदैव पुज्यनीय रही है। भारतीय मुल्य प्रकृति के पोषण और दोहन करने का है, न कि शोषण करने का। वनों ने सदा से ही संस्कृति की रक्षा की है।
पूरे पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्य इस बात के साक्षी हैं कि जब तक हमनें वन को अपने जीवन का एक अंग माना, तब तक हमें कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ा। आज वनों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है। विभिन्न विभाग तथा संस्थाएँ इस प्रयास में लगी तो हैं लेकिन उनमें समन्वय की कमी दिखलाई पड़ती है। काफी प्रचार-प्रसार के बाद भी इच्छित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। यदि हम पर्यावरण को जन-जन से जोडऩा चाहते हैं तो आवश्कता इस बात की है कि हमें इसे पाठ्यक्रम में उचित स्थान देना होगा।

सम्पर्क:103,कावेरीनगर, छिन्दवाड़ा, (म.प्र) 480001,फोन- 07162-246651, मो. 09424356400, Email- goverdhanyadav44@gmail.com

मिलावट के दौर में...

मिलावट के दौर में...

- डॉ. रत्ना वर्मा

खानपान की बात निकलते ही आजकल मन में जो सबसे पहला प्रश्न कौंधता है कि हम जो कुछ आज खा रहे हैं ,वह कितना शुद्ध हैशुद्ध और पौष्टिक खाने की बात पर बरबस गाँव की याद आती है। चाहे बात दूध, दही, मक्खन या घी की हो या फिर साग- सब्जी की। यही नहीं घर की चक्की से पीसा गया गेहूँ का आटा और बिना पालिश वाले चावल और दाल की बात ही कुछ और होती थी। अब तो आलम यह है कि नदी किनारे पैदा होने वाले तरबूज और खरबूजे खाते हुए भी डर लगता है, क्योंकि जो मीठा खरबूज हम खा रहे होते हैं, उसकी मिठास अब नकली हो गई है। जहरीला रंग और केमिकल इंजेक्ट करके उसे मीठा और लाल बनाया जाता है।
सब्जी खरीदते समय हमें पता होता है कि परवल, कुंदरू, लौकी, भिंडी खीरे के ऊपर जो हरापन नज़र आ रहा है वह खतरनाक जहरीला रंग है, जिससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियाँ हो रहीं हैं,पर हम यह ज़हर खाने को मज़बूर हैं ;क्योंकि हमारे पास और कोई विकल्प बचा ही नहीं है। मिलावटी वस्तु बेचने वालों को लेकर मेरे मन में अक्सर एक विचार आता है कि खाद्य पदार्थों में मिलावट करके बेचने वाला भी तो अंततः वही सब खाकर जिंदा रहता है, जो हम सब खाते हैं। मान लेते हैं कि अगर वह दूध या तेल का व्यापार करता है और दूध या तेल में मिलावट कर मुनाफा कमाता है, तब वह अपने और अपने परिवार के लिए शुद्ध दूध या बिना मिलावट वाला तेल बचाकर रख लेता है, पर साग- सब्जी,  अनाज जैसे अन्य खाद्य पदार्थों में भी तो मिलावट है, तब वह किस-किस चीज़ की शुद्धता की जाँच कर पाता होगा, वह क्या जान पाता होगा कि उसके बच्चे वह दूध या तेल नहीं ले रहे हैं, जिसमें उसने ज़हर मिलाया है। क्या मुनाफ़ा अपने और अपने परिवार के जीवन से भी ऊपर होता है? खैर... यह तो भावनात्मक सवाल हो गया और व्यापार में भावनाओं का क्या काम....
किसी भी खाद्य पदार्थ में मिलावट से स्वास्थ्य के लिएगम्भीर समस्या हो सकती हैं। कुछ का असर तुरन्त, तो कुछ का बहुत धीमी गति से होता है जिसकी जानकारी बहुत समय बाद होती है या कभी- कभी तो इनका पता ही नहीं चलता। अब प्रश्न यह उठता है कि इसका इलाज क्यों नहीं हो पा रहा है। खाने में मिलावट को रोकने के लिए एक कानून है, फूड एण्ड ड्रग नामक कमीशन भी है। शहरों में म्युनिसिपल अधिकारी यह कानून लागू करते हैं। गाँव में राज्य सरकार द्वारा नियुक्त फूड इन्सपैक्टर यह काम करते हैं। परन्तु इस कानून का क्रियान्वन इतना ढीला है कि बहुत ही कम मामलों में ऐसा हो पाता है। दूसरी और यह कानून छोटे दुकानदारों को परेशान किए जाने का एक जरिया भी बन गया है और बड़े पैमाने पर जो मिलावट करतेहैं, वे घूस देकर बचने का तरीका अपना लेते हैं।
हालाँकि पिछले कुछ सालों में दोषसिद्धि दरों में कुछ सुधार देखने ज़रूर मिला है। साल 2008-09 में येआँकंड़े 16 फीसदी थे , जबकि साल 2014-15 में यह 45 फीसदी दर्ज कि गए हैं। इन आँकड़ों में तेजी से वृद्धि होने का एक कारण, फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई ) की स्थापना होना भी है। एफएसएसएआई की स्थापना अगस्त 2011 में की गई है। खाद्य अपमिश्रण अधिनियम, 1954 , और कई नियमों के बदले खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू किया गया है। इसका कार्यान्वयन राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है।
इन सबके बावजूद मिलावट का बाजार कितनी तेजी से फल-फूल रहा है यह इसी से साबित होता है कि पिछले पाँच सालों में सरकार द्वारा किए गए खाद्य सुरक्षा परीक्षण में मिलावटी दरों में खासी वृद्धि दर्ज की गई है। 2008 में यह आँकड़े 8 प्रतिशत थे जबकि 2014 में 18 प्रतिशत दर्ज की गई है।
सबसे खतरनाक है देश में बच्चों को दूध के नाम पर सफेद जहर परोसा जाना।  फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के सर्वे में जो खुलासा हुआ है ,वह यह कि दिल्ली समेत देश के सभी 33 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में दूध के 68 सैंपल्स मिलावटी पाए गए हैं। केवल गोवा और पांडीचेरी में दूध के सैंपल्स शुद्ध मिले हैं। संस्था के मुताबिक खुले और पैक्ड, दोनों तरह के दूध में मिलावट मिली है। दूध में यूरिया, स्टार्च, खाने का सोडा और डिटर्जेंट मिलाए जाने की बात सामने आई है।
तो अब सोचना यही है कि अगर अपने बच्चों के स्वास्थ्य को बेहतर रखना है, गम्भीर बीमारियों से बचाना है तो हमें जागरूक बनना होगा। जीवित रहने के लिए हवा पानी और भोजन तीनों ज़रूरी है। हवा तो प्रदूषित हो ही गई है, पानी भी शुद्ध नहीं रहा। रही बात भोजन की ,तो यहाँ तो हम जो खा रहे हैं उसमें कौन सा खतरनाक केमिकल घुला है ,यह पता ही नहीं चल पाता और हम यह सोच कर खुश रहते हैं कि हम तो घर का बना हुआ शुद्ध खाना खा रहे हैं, हमें क्यों कोई बीमारी लगेगी।
पर वास्तविकता क्या है अब सब जान गए हैं इसलिए दोषियों को सजा मिले और खाने की चीज़ों में मिलावट की समस्या से निपटा जा सके इसके लिए बड़े स्तर पर लोगों को जागरूक होने की ज़रूरत है। मामला उजागर होने पर शासन प्रशासन को सख्त से सख्त कार्यवाही करना होगा। नियम कानून का सख्ती से लागू किया जाना ,शासन प्रशासन की सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। सरकार जनता को फील गुड करवाना चाहती है ; पर जनता यदि बीमार रहेगी तो वह फील गुड कैसे महसूस कर पायेगी, तो सरकार से गुजारिश है कि वह युद्ध स्तर पर इस तरह के मिलावटखोरों के विरुद्ध मुहिम चलाए और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाए ,ताकि दोबारा फिर कोई जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने की हिम्मत न कर पाए। 
इस मामले में हमें अपनी जिम्मेदारी को भी बखूबी निभाना होगा- अगर आपको कभी भी खाने में मिलावट का वहम हो तो आप फूड इन्सपैक्टर को इसकी सूचना दे सकते हैं। आप जिला स्वास्थ्य प्रयोगशालाएँ या तहसीलदार से अपने क्षेत्र के फूड इन्सपैक्टर का पता लगा सकते हैं। आप निजी स्वास्थ्य केन्द्रों को भी इनकी जानकारी दे सकते हैं। और अब तो मिलावट की जाँच के नए नए तरीके इज़ाद हो चुके हैं, जिसके जरिए आप स्वयं घर पर ही जाँच च करके पता लगा सकते हैं कि दूध में मिलावट है या तेल नकली है। तो जाग जाइए। जिस दिन जागरूक जनता कमर कस लेगी, उस दिन मिलावट करने वाले पकड़े ही जाएँगे। 

तीन नवगीत

                           
  -रमेश गौतम 

1
हमारे गाँव में
कब से
ठगों के काफिले ठहरे

नमन कर सूर्य को
जब भी
शुरू यात्राएँ  करते हैं
अजब दुर्भाग्य है
अपना
अँधेरे साथ चलते हैं

विसंगति सुन
नहीं सकते
यहाँ सब कान हैं बहरे

चिरागों से
खुली रिश्वत
हवाएँ रोज लेती हैं
सभाएँ रात की
दिन को
सजा-ए-मौत देती हैं

यहाँ दफ़ना
दिए जाते
उज़ाले अब बहुत गहरे

हथेली देखकर
कहना
बहुत टेढ़ी लकीरे हैं
सुना तक़दीर
के किस्से
कलेज़े रोज़ चीरे हैं

निकल सकते
नहीं बाहर
बड़े संगीन हैं पहरे।

2

देवदूत
कैसे उपलब्ध हो
छाँव तनिक
राजा के छत्र की
जप-तप-व्रत

मंत्र-तंत्र
पूजागृह- प्रार्थना
माथे न टाँक सके
उज्ज्वल संभावना
अधरों न धर पाईं
सीपियाँ
एक बूँद स्वाति नक्षत्र की

भूल गए कच्चे घर
गाँव, गली-गलियारे
बूढ़ी परछाईं के
साँझ ढले
तन हारे
एक-एक साँस
तके आहटें
परदेसी बेटे के पत्र की ।

फूल नहीं
खिलते हैं परजीवी बेल में
टूटी मर्यादाएँ
चौसर के खेल में

कौरव कुल समझेगा
क्या, भला
परिभाषा नारी के वस्त्र की।

चुन-चुनकर भेजा था
खोटे दिन जाएँगे
मरुथल की
गोदी में
बादल कुछ आएँगे
देख-देख टूटीं
सब भ्रांतियाँ
दृश्यकथा
संसद के सत्र की।

3
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन

बादलों को कब
भला पी पाएगा
एक चातक
आग में
जल जाएगा
दूर तक वन
और ढोता धूप
फिर भी तन

मानते
उस पार तेरी हीर है
यह नदी
जादू भरी ज़ंज़ीर है

तोड़ दे
प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन

मर्मभेदी यातना में
रोज मरना
स्वर्णमृग का
मत कभी
आखेट करना
मौन क्रंदन
साथ होंगे
बस विरह के क्षण।


लेखक के बारे में- शिक्षा- एम. ए. हिन्दी साहित्य, जन्म- 28 सितम्बर 1948, जन्म: जनपद पीलीभीत (उ.प्र.),अध्यापक पद से सेवा निवृत्त।  लेखन/ प्रकाशन: नवगीत, लघुकथा, बाल कविताएँ, विविध विषयों पर लेख, समीक्षा व पत्रकारिता लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन जिनमें उल्लेखनीय कथादृष्टि, लघुकथा फोल्डर अन्वेषण कविता फोल्डर, माया भारती पत्रिका, तितली (बालपत्रिका) आर्यपुत्र आदि। अनेक सम्मान एवं पुरस्कार। स्थायी निवास: रंगभूमि, 78- बी, संजय नगर, बाईपास, बरेली- 243005 (उ.प्र.) दूरभाष- 0581- 2303312, मो.- 09411470604

गौर पुनर्वास पर बनी फिल्म

टर्निंग दी क्लॉक बैक

दी बांधवगढ़ गौर

   - प्रमोद भार्गव
हमारे देश में यह पहली बार सम्भव हुआ है कि किसी वन्य जीव का सफल पुनर्वास हुआ है, वह भी बड़ी संख्या में! और तो और इस पुनर्वास की हरेक गतिविधि का फिल्म के रूप में दस्तावेज़ीकरण किया गया है। श्टर्निंग दी क्लॉक बैक- दी बांधवगढ़ गौर्य शीर्षक से बनाई गई इस डॉक्यूमेंट्री का निर्माण व निर्देशन अनिल यादव ने किया है। अनिल मध्यप्रदेश के विदिशा जिले की तहसील गंज बसौदा के एक कस्बाई पत्रकार हैं। यह फिल्म बन तो 2014 में ही गई थी, लेकिन वह महत्त्व नहीं मिला, जो ऐसे साहसिक कार्य को मिलना था। अलबत्ता अब ज़रूर यह चर्चा में है ;क्योंकि 39 मिनट की इस फिल्म को दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म मेला में शामिल कर लिया गया है। इस मेले में 68 देशों की 221 फिल्में दिखाई गईं। यह शायद पहला अवसर था, जब एक नितांत गैरव्यावसायिक और अंग्रेज़ी नहीं जानने वाले कस्बाई पत्रकार द्वारा वन्य प्राणी पर निर्मित फिल्म को इस आयोजन की प्रतिस्पर्धा में भागीदारी का अवसर मिला। वैसे पूरी तरह स्थानीय स्तर पर तैयार इस फिल्म की स्क्रीनिंग गत वर्ष सिंतबर माह में दिल्ली में आयोजित श्वुडपैकर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म मेले में भी की गई थी। इसमें अनिल यादव वुडपैकर अचीवर अवॉर्ड से सम्मानित किए गए थे।
वन्य-जीवों का पुनर्वास जितना जटिल व जोखिम भरा काम है, उतना ही कठिन काम प्राकृतिक रूप में अठखेलियाँ कर रहे किसी वन्य प्राणी पर फिल्म बनाना भी है। हमारे यहाँ अब तक इस काम को गैरव्यावसायिक रहते हुए रोमेश बेदी और उनके पुत्र नरेश व राजेश बेदी ने किया है। गंगा के घडिय़ालों से लेकर हिमालय की शिखर गुहाओं में रहने वाले हिम चीता पर फिल्में पहले-पहल उन्होंने ही बनाई हैं। जंगल की दुनिया पर हिन्दी में विपुल व रोचक लेखन रोमेश बेदी ने ही किया है। पाँच खंडों में सचित्र प्रकाशित उनका वनस्पति कोश एक उपयोगी ग्रंथ है।
देश में अब तक दुर्लभ वन्य प्राणियों के सरंक्षण की दृष्टि से जो भी प्रयोग हुए हैं, वे असफल ही रहे हैं। पुनर्वास के क्रम में एक बड़ी कोशिश मध्य प्रदेश के ही शिवपुरी में स्थित माधव राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की हुई थी। 1989 में स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के विशेष प्रयासों से उद्यान के 10 हैक्टर क्षेत्र में तारों की बाड़ लगाकर टायगर सफारी बनाई गई थी। इसमें तारा और पेटू नाम के मादा व नर बाघ छोड़े गए थे। आरंभ में तो यह प्रयोग सफल रहा, क्योंकि बाघों के लिए अनुकूल आवास, आहार व प्रजनन की प्राकृतिक सुविधाएँ मिल जाने के कारण इनके वंश में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही; किंतु जब बाघों की संख्या बढ़कर 13 हो गई तो वन प्रबंधन संकट में आ गया। तारा जो इस कुटुम्ब की जननी थी, नरभक्षी हो गई और उसने उद्यान में काम करने वाली दो महिलाओं का शिकार कर लिया। इन घटनाओं से अन्य बाघों के भी आदमखोर हो जाने की आशंका बढ़ गई। नतीजतन वन प्रबंधन के हाथ पैर फूल गए और सफारी के बाघ देश के चिडिय़ाघरों में भेजकर इन्हें हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्वास का दूसरा प्रयास सोनचिडिय़ा अभयारण्य, करैरा के कृष्ण मृगों का हुआ था। इस हेतु अमेरिका के वन्य प्राणी विशेषज्ञों की देखरेख में इन काले हिरणों का पुनर्वास करैरा से शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान में किया जाना था। हिरणों को पकडऩे के लिए अभरायण्य क्षेत्र में अनेक तकनीकी रूप से सक्षम जाल बिछाए गए थे। लेकिन हिरणों को शायद पूर्वाभास हो गया कि ये जाल उनके जीवन के लिए संकट का सबब हैं। तीन दिन की मशक्कत के बावजूद एक सैकड़ा से भी ज़्यादा देशी-विदेशी प्राणी विशेषज्ञों का  समूह एक भी हिरण नहीं पकड़ पाया। तकनीकी प्रबंध और किताबी ज्ञान धरे के धरे रह गए। हिरण जालों के समीप तक नहीं आए। पुनर्वास की इस प्रक्रिया का गवाह यह लेखक स्वयं भी रहा है। तब मैंने पत्रकार राजेश बादल के सहयोग से समाचार स्टोरी बनाई थी। जिसका प्रसारण दूरदर्शन के परख प्रकरण में मृग प्रसंग शीर्षक से हुआ था।
पुनर्वास की तीसरी बड़ी कोशिश राष्ट्रीय स्तर पर गिर के सिंहों को श्योपुर जिले के कूनो-पालपुर अभयारण्य में बसाने की चल रही है। आज़ादी के पहले इन्हीं सिंहों को इसी वन प्रांतर में बसाने की पहल ग्वालियर स्टेट के महाराजा माधवराव सिंधिया ने 1905 में की थी। तब गिर के जंगल जूनागढ़ के नवाबों के अधीन थे। उन्होंने सिंह देने से साफ इन्कार कर दिया था। दरअसल 1904 के आसपास लॉर्ड कर्जन शिवपुरी, श्योपुर व मोहना के जंगलों में सिंह व बाघ का शिकार करने आए थे। परंतु उस समय तक इन वनखंडों से सिंह पूरी तरह लुप्त हो चुके थे। लिहाज़ा कर्जन की शिकार की मंशा पूरी नहीं हो पाई थी। तब कर्जन ने ही इथोपिया के शासक को सिंह देने बाबत एक सिफारिशी पत्र लिखा, जिसे वन्य जीवन के पारखी जानकर डी.एम. जाल लेकर इथोपिया गए और वहाँ से जहाज़ के जरिए 10 सिंह शावक  मुम्बई  लेकर आए। हालांकि इनमें से तीन रास्ते में ही मर गए थे। बचे सात में तीन सिंह और चार सिंहनियां थीं। इनकी अगवानी के लिए स्वयं ग्वालियर महाराज  मुम्बई पहुँचे थे।
इन शावकों का पहले ग्वालियर के चिडिय़ाघर में लालन-पालन किया गया। जब ये  वयस्क  हो गए तो दो मादाओं ने गर्भधारण किया और पाँच शावक जने। इन सिंहों के बड़े होने के बाद इन्हें शिवपुरी व श्योपुर के जंगलों में स्वच्छंद विचरण के लिए छोड़ दिया गया। किंतु जल्दी ही ये सिंह नरभक्षी हो गए और इन्होंने दर्जन भर लोगों को मार गिराया। प्रजा में हाहाकार मचने के बाद इन्हें पकड़वा लिया गया।
अब फिर, ढाई दशक से भी ज़्यादा समय से सिंहों के पुनर्वास की कोशिश चल रही है, किंतु गुजरात सरकार सिंह नहीं दे रही है,जबकि इस परियोजना के क्रियान्वयन के चलते 22 आदिवासी ग्राम उजाड़े जा चुके हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाने के बावजूद, सिंहों के पुनर्वास की कवायद किसी मंज़िल पर नहीं पहुँची है।
सफेद शेरों की भी अपने आदिम क्षेत्रों में पुनर्वास की कोशिश चल रही है। एक समय रीवा, सीधी एवं शडहोल के जंगलों में इनका नैसर्गिक रहवास था। 27 मई 1951 को पहली बार रीवा के महाराज गुलाब सिंह ने एक पीले रंग की काली पट्टी वाली शेरनी को चार शावकों के साथ देखा था। इनमें तीन पीले और एक सफेद था। रीवा महाराज ने इस अद्भुत शावक को पकड़वा लिया। इसका नाम मोहन रखा गया।  वयस्क  होने पर इसका राधा नाम की शेरनी के साथ संगम कराया गया। अक्टूबर 1958 में राधा ने चार सफेद शावकों को जन्म दिया। आज देश-दुनिया में जहां भी सफेद बाघ हैं वे इसी राधा-मोहन जोड़ी के वंशज हैं।
ये बाघ दुनिया में तो अपनी वंश वृद्धि करते रहे, लेकिन अपने मूल आवास स्थल सीधी ज़िले की गोपद-बनास तहसील से पूरी तरह लुप्त हो गए। अब इनके पुनर्वास की पहल युद्धस्तर पर चल रही है। जहां इन्हें फिर से आबाद किया जा रहा है, उसे मुकुंदपुर चिडिय़ाघर नाम दिया गया है। यहां फिलहाल रेस्क्यू सेंटर और सफेद बाघ सफारी प्रजनन केंद्र विकसित कर दिए गए हैं, लेकिन अभी बाघों का जोड़ा आना बाकी है। यह प्रयोग गौर के पुनर्वास की तरह सफल हो जाता है ,तो एक बार फिर से कैमूर विंध्याचल क्षेत्र में सफेद शेर की दहाड़  गूँजने लगेगी।
अब गौर के पुनर्वास से जुड़े सफल प्रयास और इस गतिविधि पर बनी फिल्म की बात करते हैं। एक समय मध्यप्रदेश के ही बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में भारी-भरकम वन्य जीव गौरों की खूब आबादी थी। आठ से नौ क्विंटल वज़नी गौर गौवंशीय प्रजाति है। जंगली भैंसा, याक, वान्टेंग, मिथुन और गायल भी इसी श्रेणी में आते हैं। भारत के अलावा गौर अमेरिका और जंगली भैंसा अफ्रीका में भी पाए जाते हैं। अभी तक याक, वान्टेंग, मिथुन और गायल को तो मवेशियों की तरह पालतू बनाया जा चुका है, लेकिन गौर पूरी तरह जंगली जीव है। 1998 तक बांधवगढ़ में गौर पूरी तरह विलुप्त हो गए थे। जबकि यहाँ इन्हें अनुकूल परिवेश मिल रहा था और जंगल में चारा-पानी की कोई कमी नहीं थी।
बहरहाल यह संयोग ही था कि 2005 में दक्षिण अफ्रीका की एक बड़ी कम्पनी ‘एण्ड बियॉन्ड’ ने भारत में कारोबार करने का निर्णय लिया। इस मकसद की पूर्ति के लिए कम्पनी के प्रमुख और प्रकृति विज्ञानी सरत चंपाति ने म.प्र. के प्रधान मुख्य वन सरंक्षक (वन्य प्राणी) डॉ. एच.एस. पावला से मुलाकत की। यह कम्पनी वन्य प्राणियों को पकडऩे, उनका परिवहन करने और फिर उनके पुनर्वास में दक्ष है। पावला ने पहले माधव राष्ट्रीय उद्यान में बाघों के पुनर्वास का प्रस्ताव रखा। किंतु चंपाति ने कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से बांधवगढ़ में गौरों के पुनर्वास का सुझाव दिया। विचार-विमर्श के बाद सहमति बन गई। पावला की मंशा थी कि एक बार यदि इस विशालकाय जीव के विस्थापन व पुनर्वास की तकनीक समझ आ जाती है, तो फिर अन्य जीवों का पुनर्वास अपने ही स्तर पर  सम्भव  है। भारतीय वन्य जीव संस्थान, देहरादून ने भी इस परियोजना को स्वीकृति दे दी। परियोजना पर करीब दो करोड़ रुपये खर्च होने थे। इसमें 60 लाख रुपये का सहयोग एण्ड बियॉन्ड और ताज सफारी ने किया। शेष राशि कान्हा और बांधवगढ़ आने वाले पर्यटकों से प्राप्त आय से जुटाई गई।
विस्थापन और पुनर्वास की कार्रवाई के फिल्मांकन के लिए अखबारों में विज्ञप्ति दी गई। लेकिन दुर्लभ, अनिश्चय और लंबी कालावधि का काम होने के कारण टेंडर नहीं आए।
अन्तत: पावला ने अनिल यादव से सम्पर्क साधा। अनिल इसके पहले वन्य जीवन से सम्बंधित सात डॉक्यूमेंट्री बना चुके थे। पारदीज़- दी अनटोल्ड स्टोरी, पारदीज़- दी अन्हर्ड स्टोरी और गौरैया व अजगर पर बनी उनकी चर्चित डॉक्यूमेंट्री रही हैं।  इन फिल्मों के निर्माण की जानकारी पावला को थी। बहरहाल संवाद कायमी के बाद अनिल नि:शुल्क फिल्म बनाने के लिए तैयार हो गए। आखिरकार मध्यप्रदेश पारिस्थितिकी एवं पर्यटन विकास मंडल के साथ गौर के पुनर्वास पर फिल्म के निर्माण की रूपरेखा बन गई।
इस बीच कान्हा से 50 गौरों के विस्थापन व बांधवगढ़ में पुनर्वास का सिलसिला शुरू हो गया। दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञों ने ट्रेंक्वीलाइज़र (निद्रादायक  औषधि) के मार्फत गौर बेहोश किए। बेहोशी के लिए 19 जनवरी 2011 को अफ्रीकी दल ने जंगल के हालात को समझा और फिर अगले दिन एक मादा के पुट्ठे में डार्ट दाग कर उसे नीम-बेहोश कर दिया गया। ट्रेंक्वीलाइज़र के बाद किसी अप्रत्याशित स्थिति का सामना न करना पड़े, इसलिए सात हाथियों पर सवार विशेषज्ञों ने गौरों के समूह पर नजऱ रखी। इस तरह एक-एक कर पाँच गौरों को बेहोश किया गया। इन्हें प्रशिक्षित वनकर्मियों ने स्ट्रेचर पर डालकर ट्रक में लादा। इनके लिए तीन खानों वाले ट्रक तैयार किए गए थे। वनकर्मियों ने बोरों में रेत भरकर लादने का अभ्यास किया था।
कान्हा से बांधवगढ़ की दूरी करीब 200 किमी है। यहाँ 100 हैक्टर क्षेत्र में एक बाड़ा तैयार किया गया था। इस क्षेत्र में पानी एवं बिजली की व्यवस्था नहीं थी। लिहाज़ा सौर ऊर्जा के पैनल लगाए गए और एक नलकूप का खनन किया गया। 22 जनवरी 2011 की रात को बांधवगढ़ में गौरों की पहली खेप का सफल पुनर्वास कर दिया गया। इसके बाद 14 गौर और बांधवगढ़ लाए गए। 9 मार्च 2011 को अच्छी खबर यह आई कि एक मादा ने बछड़े को जन्म दिया है। इससे सुनिश्चित हुआ कि मादा के गर्भस्थ शिशु पर बेहोशी की दवा का असर नहीं पड़ा था। मार्च 2012 में दूसरे चरण की शुरुआत की गई, जिसके अंतर्गत 31 गौरों का पुनर्वास हुआ। इस प्रक्रिया में केवल एक गौर की अकाल मृत्यु हुई।

इन चार वर्षों के दौरान गौर की संख्या 49 से बढ़कर 121 तक पहुँच गई थी। इनमें से 19 का बाघों ने शिकार कर लिया और दो की असमय मौत हो गई। वर्तमान में बांधवगढ़ में 17 नर, 39 मादा और डेढ़ साल से कम उम्र के गौरों की संख्या 27 है। यह खुशी की बात है कि इस बाघ संरक्षित उद्यान के कलवाह, मगधी और ताला वन परिक्षेत्रों में गौर की संख्या लगातार बढ़ रही है। बांधवगढ़ में विलुप्त प्राणी गौर के इस विस्थापन और पुनर्वास की गाथा को अनिल यादव ने श्टर्निंग दी क्लॉक बैक- दी बांधवगढ़ गौर्य फिल्म में बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से छायांकित किया है। (स्रोत फीचर्स)





फेल न किया तो क्या किया?

        फेल न किया तो क्या किया?

                                     - सी. एन. सुब्रह्मण्यम

शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार कक्षा 8 तक छात्रों को फेल नहीं किया जा सकता है। आम तौर पर इसका यह अर्थ लगाया जाता है कि विद्यार्थियों का मूल्यांकन ही नहीं किया जा सकता है। दरअसल, शिक्षा अधिकार अधिनियम में दो अलग-अलग तरह के प्रावधान हैं ,जिन्हें साथ में रखकर समझना होगा - पहला प्रावधान विद्यार्थियों को किसी कक्षा में रोकने (फेल करने) पर प्रतिबंध लगाता है और दूसरा प्रावधान उनके सतत और समग्र मूल्यांकन को अनिवार्य बनाता है।
इन प्रावधानों के पीछे दशकों से चल रहा मंथन और देश-विदेश के अनुभव हैं। अनुभव यह है कि बच्चों का सीखना पास-फेल रूपी बंदूक की नोक पर नहीं होता है, न ही न सीखने के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। बच्चों को पास फेल करना वास्तव में व्यवस्थागत विफलताओं को बच्चे के सिर पर मढ़ना है। विश्व भर के अनुभव बताते हैं कि गरीब और वंचित समुदायों के विद्यार्थियों द्वारा शाला त्यागने के पीछे उन्हें फेल करना सबसे बड़ा कारण रहा है। 
आज इस कानून के बनने के पाँच साल के अन्दर इन प्रावधानों, विशेषकर फेल न करने सम्बन्धी प्रावधान को हटाने के प्रयास युद्ध स्तर पर चल रहे हैं। आम पालक व शिक्षक भी यह मानने लगे हैं कि इस प्रावधान के कारण देश में शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है। और तो और, कई विद्यार्थी भी यह मानने लगे हैं कि फेल न किए जाने के कारण ही वे सीख नहीं पा रहे हैं। न सीख पाने वाले बच्चों को फेल करने के पक्ष में दो तरह की दलीलें दी जाती हैं- एक छात्र-केंद्रित और दूसरी व्यवस्था केंद्रित।
छात्र-केन्द्रित दलील
यह कहा जाता है कि फेल न किए जाने के कारण बच्चों में पढ़ाई के प्रति विरक्ति हो जाती है और वे प्रयास करना छोड़ देते हैं। दूसरा यह कि जब कोई विद्यार्थी पिछली कक्षा की बातों को न सीखकर अगली कक्षा में पहुँचता है तो उसे अगली कक्षा की विषयवस्तु समझने में कठिनाई होती है। अत: उन्हें उसी कक्षा में रोककर सिखाना बेहतर है।
चलिए इन दो दलीलों का परीक्षण करते हैं। क्या परीक्षा और फेल हो जाने का डर वास्तव में बच्चों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकता है? पढ़ाई के प्रति श्रद्धा या इच्छा विषयवस्तु की रोचकता तथा शिक्षण विधि पर निर्भर होना चाहिए न कि किसी दण्ड के डर पर। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि सभी बच्चे हर विषय में समान रूप से सीखना नहीं चाहेंगे। इस कारण पाठ्यक्रम में विविधता और बहुआयामिता की ज़रूरत है। पढऩा-लिखना, तार्किक सोच, सामाजिक समानता और न्याय, पर्यावरण बोध तथा सौन्दर्यबोध जैसे कुछ बुनियादी शैक्षणिक उद्देश्यों को हर विधा में पिरोने की ज़रूरत है ताकि जिस विधा में बालक रुचि ले, उसके माध्यम से वह ये बातें सीख सके।
जो हम पढ़ाना चाहते हैं, वह बच्चे के लिए रोचक न हो, या हम सही तरीके से सिखा न पाएँ, तो इसका दोष किसका है? क्या यह विद्यार्थी का दोष है, कि उस विधा का है, या उस शिक्षक का या उस शैक्षणिक व्यवस्था का है? इनमें से हम किसे फेल मानें?
बच्चे तब सीखते हैं जब उनमें उस विषयवस्तु के प्रति कोई आकर्षण बने और उसे सीखने के लिए तीव्र इच्छा व उत्साह जागृत हो - जैसे वे रोटी बनाना, सायकिल चलाना या फिर नए मोबाइल फोन इस्तेमाल करना सीखते हैं। क्या इस तरह का उत्साह फेल होने के डर से उत्पन्न हो सकता है?
नि:संदेह किसी गंभीर शैक्षणिक व्यवस्था में मूल्यांकन की अहम भूमिका होती है। हमारा प्रयास सही दिशा में अग्रसर है कि नहीं यह जानने के लिए मूल्यांकन ज़रूरी है। अगर यह लगे कि हम अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं, तो हमें शिक्षण के उद्देश्य या तरीकों को बदलना होगा, लेकिन मूल्यांकन करना और बच्चों को फेल करना समानार्थी नहीं हैं। मूल्यांकन करके यह समझा जा सकता है कि बच्चे कितना सीखे हैं, मगर न सीखने पर बच्चों को प्रताडि़त करना अलग बात है।
अगली दलील है कि जो बच्चे पिछली कक्षा की बात नहीं सीखे हैं वे अगली कक्षा में और पिछड़ जाएँगे। अत: उसी कक्षा में रोकने से उन्हें फायदा होगा। यहाँ मान्यता यह है कि उसी तरीके से वही विषयवस्तु दोहराकर विद्यार्थी सीख जाएँगे। इस पहलू को लेकर कई देशों में विस्तृत अध्ययन हुए हैं। इनके नतीजों का निष्कर्ष यही है कि बच्चे जो किसी कक्षा में सीख नहीं पाते हैं, उन्हें फेल करके रोकने से भी सीखते नहीं हैं। उनकी विशिष्ट समस्या को पहचानकर विशेष शिक्षण देने से वे ज़रूरी समझ के साथ अगली कक्षा में प्रवेश कर सकेंगे।
आम तौर पर एक कक्षा में हम जो सीखते हैं उसके बहुत कम अंश अगली कक्षा के लिए अनिवार्य बुनियाद होते हैं।  कई अवधारणाएँ व कुशलताएँ ऐसी होती हैं जो एकमुश्त आत्मसात् नहीं होती हैं और बार-बार लौटकर पुख्ता करना पड़ता है। अत: बच्चों को किन्हीं अवधारणाओं को न सीखने के कारण फेल करके रोकना अनुचित है। लेकिन यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि अपने आप को बेहिचक व्यक्त कर पाना, पढऩा-लिखना व कुछ बुनियादी गणितीय कौशल कक्षा 4 से अनिवार्य हो जाते हैं और जो बच्चे इन कौशलों को हासिल नहीं कर पाते हैं वे कक्षा गतिविधियों में पिछड़ने लगते हैं। अत: यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि चौथी कक्षा तक सभी बच्चे पढऩा-लिखना आदि सीख जाएँ।
कई शिक्षा प्रशासक यह दलील भी देते हैं कि परीक्षा होने पर ही शिक्षक अपने शैक्षणिक कार्य के प्रति गंभीर होंगे। लेकिन ज़ाहिर है कि अगर शिक्षक खुद ही परीक्षा लेते हैं और बच्चों के फेल होने पर उनसे जवाबतलब किया जाएगा, तो शिक्षक सारे बच्चों को पास करवा देंगे। यह बाह्य बोर्ड परीक्षा का बहाना बन जाता है। आजकल कई राज्यों के प्रशासक और राज नेता यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि आठवीं और पाँचवीं में बोर्ड परीक्षा होनी चाहिए और बच्चों को फेल करने का प्रावधान होना चाहिए। इस नौकरशाही मानसिकता की बुनियाद में गहरा अविश्वास है- शिक्षकों के प्रति और अपने द्वारा संचालित पूरे तंत्र के प्रति। इसके लिए वही तंत्र काफी हद तक ज़िम्मेदार है ;क्योंकि शिक्षकों को समय-समय पर कई प्रकार के गैर-शैक्षणिक काम में उलझा कर रखा जाता है। इस कारण पूरे शिक्षा तंत्र में यह विचार व्याप्त है कि शिक्षक बच्चों को सामान्यतया तो पढ़ाएंगे नहीं, केवल विशेष परिस्थितियों में (जैसे बोर्ड परीक्षा) में पढ़ाएंगे। आम अनुभव है कि बाह्य परीक्षाओं को गंभीरता से लिया जाता है, मगर उतनी ही गंभीरता के साथ उनके तोड़ भी निकाले जाते हैं। ट्वन्टी क्वेश्चन, कुंजियाँ, पास बुक, कोचिंग क्लास, प्रश्न पत्र आउट करना, नकल कराना, सामूहिक नकल, बोर्ड पर उत्तर लिखवाकर बोर्ड परीक्षा करवाना, उत्तर पुस्तिकाओं की जंचाई में हस्तक्षेप आदि इसी के विभिन्न रूप हैं।
जब तक शाला और शिक्षकों को ज़िम्मेदारी नहीं सौपेंगे और उन पर भरोसा नहीं करेंगे तब तक बाह्य हस्तक्षेप, बोर्ड परीक्षा आदि का ढोंग ही कर सकते हैं। ज़ाहिर है कि जिस व्यवस्था में शिक्षकों के सशक्तीकरण, उचित शिक्षक प्रशिक्षण आदि में पर्याप्त निवेश नहीं होगा उसमें शिक्षकों पर भरोसा करने या उन पर ज़िम्मेदारी छोडऩा भी  सम्भव  नहीं होगा। बोर्ड परीक्षा तो पूरी व्यवस्था को विकृत कर देती है। जहाँ भी बोर्ड परीक्षा की व्यवस्था है वहाँ के लोग यह बखूबी जानते हैं कि बोर्ड क्लास में ही पढ़ाई करवाई जाती है और अन्य कक्षाओं में लापरवाही बरती जाती है। बोर्ड कक्षाओं में भी पढ़ाई मात्र परीक्षा की तैयारी के लिए होती है, न कि विषयवस्तु की समझ या उपयोग पर। इस पूरे प्रकरण में बच्चों पर जो असर होता है वह एक राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है।
फेल न करने के पक्ष में
पहली बात तो यह है कि किसी बच्चे के सीखने या न सीखने में उसके प्रयास से कहीं अधिक ज़िम्मेदारी शिक्षक और शैक्षिक व्यवस्था की है, क्योंकि पाठ्यक्रम निर्धारण वे ही करते हैं। ऐसे में न सीखने का पूरा दोष बच्चे पर मढ़कर बाकी सब बरी हो जाते हैं। जब हम किसी बच्चे को फेल करते हैं तो इसे उसकी विफलता के लिए मिले दण्ड के रूप में देखा जाता है। अगर वे किन्हीं कारणों से निर्धारित शैक्षणिक उपलब्धि हासिल नहीं करते तो उन्हें दण्डित करना सर्वथा अन्यायपूर्ण है।
यह दलील दी जा सकती है कि स्कूल में फेल करना दण्ड नहीं, सीखने का एक और मौका है। लेकिन हम सब जानते हैं कि सच्चाई क्या है। फेल होने के कई निहितार्थ हैं- बच्चे को नाकामयाब और निकम्मा माना जाता है, उसे अपने हमउम्र साथियों से अलग करके कम उम्र के बच्चों के साथ पढऩे के लिए विवश किया जाता है। कक्षा में उसे लगातार दूसरे बच्चों व शिक्षकों व रिश्तेदारों के तानों का सामना करना पड़ता है, जो हीन भावना पैदा करता है। और तो और, उसे शिक्षा में एक अतिरिक्त वर्ष बिताना पड़ता है। माथे पर फेल होने का कलंक और एक साल खोने पर हम यह अपेक्षा कैसे करें कि वे श्रद्धा और उत्साह के साथ सीखेंगे। ऐसे ज़्यादातर बच्चे अन्त में शाला ही त्याग देते हैं। पाँचवीं और आठवीं में ज़्यादातर बच्चों के शाला त्यागने के पीछे यह एक बहुत बड़ा कारण रहा है।
बच्चे तब सीखते हैं जब उनमें उत्साह और आत्मविश्वास होता है। सीखना दरअसल हर बच्चे के ज़ेहन में ज्ञान के निर्माण से होता है जो ज़ोर- जबरदस्ती से नहीं, स्वेच्छा और विश्वास से होता है। जब हम बच्चों को फेल करते हैं तो उनका यह उत्साह और मनोबल टूटता है और बच्चे यह मानने लगते हैं कि वे सीख ही नहीं सकते हैं।
फेल करने का एक सामाजिक पक्ष भी होता है। क्या हर सामाजिक वर्ग के बच्चे एक से अनुपात में फेल होते हैं? फेल होने वाले बच्चे आम तौर पर अपेक्षाकृत कमज़ोर सामाजिक वर्ग के ही होते हैं। अगर हम अपने ही समाज में यह जांचें कि कौन-से बच्चे किसी कक्षा के सीखने के स्तर पर नहीं पहुँच पाए हैं ,तब हम पाएँगे कि वे अधिकतर दलित, आदिवासी, गरीब होंगे या फिर भिन्न-सक्षम होंगे। हमारी पाठ्यचर्या यह मानकर बनाई जाती है कि सभी बच्चों को वह सांस्कृतिक पूँजी उपलब्ध है जो मध्य वर्ग के बच्चों के पास है। लेकिन ऐसा नहीं है। हमारे देश में सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले अधिकतर बच्चे बिलकुल गरीब तबके के हैं, सुदूर अंचल के हैं और निरक्षर परिवारों से हैं - उन्हें कितनी शिद्दत से हमारे स्कूलों में पढ़ाया जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है; लेकिन उन्हें फेल करने को सब आतुर हैं। ऐसा क्यों?
हमारे संवैधानिक ढांचे में सब को समान अवसर दिलाना एक बुनियादी वादा है। समान अवसर का मतलब है कि किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि में जन्मे व्यक्ति, चाहे वह महिला हो या पुरुष या ट्रांस जेन्डर या भिन्न-सक्षम हो, उसे समाज के किसी पद या हैसियत पाने की अर्हता होगी; लेकिन ये पद आदि प्राप्त करने के लिए कुछ शैक्षणिक उपाधियों व उपलब्धियों की ज़रूरत होती है। जब गरीब व वंचित तबके के बच्चों को फेल किया जाता है, तो उनके लिए ये दरवाज़े बन्द हो जाते हैं। फेल-पास व्यवस्था की एक खूबी यह है कि समाज इसकी जिम्मेदारी से अपने आपको बचा लेता है- जो बच्चे फेल घोषित किए जाते हैं, यह दोष उन्हीं के सर पर मढ़ा जाता है।
अगर विद्यार्थियों को पास फेल नहीं करना है तो मूल्यांकन की क्या भूमिका होगी? शिक्षा अधिकार अधिनियम में सतत और समग्र मूल्यांकन की बात की गई है। सतत मूल्यांकन का तात्पर्य यह नहीं है कि बच्चों को आए दिन टेस्ट दिए जाएँ। इसका वास्तविक आशय है -कक्षा में बच्चों की भागीदारी और प्रगति पर सतत नज़र रखना। अगर उन्हें सीखने में कठिनाई हो रही हो ,तो उसे पहचानना और समय रहते उसका निराकरण खोजना। सतत मूल्यांकन शिक्षकों के लिए है, ताकि वे अपने शैक्षणिक प्रयासों के प्रभाव को देख सकें और ज़रूरत पडऩे पर उपचारात्मक कदम उठाएं। इसका उपयोग शिक्षक की स्वतंत्रता को बढ़ाने के लिए है, उसे नष्ट करने के लिए नहीं। इसी तरह इसका उपयोग बच्चों के न सीखने पर उसे प्रताड़ित करने के लिए नहीं ;बल्कि वे जो सीख पाते हैं उसे सराहने के लिए है।
बच्चों को साल के अंत में एक मुश्त जाँचकर उन्हें पास-फेल करने की जगह लगातार उनके सीखने पर नज़र रखकर उनकी मदद करना इसका उद्देश्य है। यह शिक्षक द्वारा किया जाना है ,जो हरेक बच्चे और उसकी निजी परिस्थिति को समझता है और यह समझ पाता है कि अगर बच्चे ने कोई नया प्रयास किया तो वह किन कठिनाइयों के बीच।
सतत आकलन समग्र ही हो सकता है, वह संकीर्ण नहीं हो सकता है क्योंकि शिक्षा केवल चंद अक्षरों को लिखने की क्षमता हासिल करना नहीं है। समग्र से तात्पर्य है कि यह कुछ सीमित शैक्षणिक उद्देश्यों का नहीं बल्कि बच्चों के हर तरह के प्रयासों का आकलन है। बच्चे कक्षा में कैसे बैठते हैं, कब, कैसे और कितना बोलते हैं, कितने लोगों से दोस्ती करते हैं, खेलते कैसे हैं, से लेकर वे पढऩे-लिखने, या जोड़ने-घटाने या चित्र बनाने में, कविता या गीत गाने में, अभिनय में, प्रयोग करने में क्या करते हैं। यह सब तब तक सम्भव नहीं है जब तक हम हर शाला में पर्याप्त शिक्षकों की व्यवस्था न करें और शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन और काम की शर्त उपलब्ध न कराएँ। परीक्षा और पास-फेल शिक्षकों के सशक्तीकरण का विकल्प कतई नहीं बन सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)