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Nov 13, 2015

एक छोटी सी पहल...

एक छोटी सी पहल...
                        - डॉ. रत्ना वर्मा
उदंती का पिछला अंक छत्तीसगढ़ के लोक जीवन से जुड़े पर्व-संस्कृति विशेष पर केन्द्रित था। यह अंक उसी कड़ी में दूसरा अंक है।
पर्व- त्योहारों के इस मौसम में लोक जीवन में उल्लास और उत्साह का माहौल होता है, क्योंकि धान की फसल पक चुकी होती है और किसान उनकी मिंजाई कर खलिहानों में रख चुका होता है। किसी भी क्षेत्र की लोक संस्कृति उस क्षेत्र विशेष की पहचान होती है और हमारी संस्कृति को जीवंत बनाए रखने में हमारे पर्व त्योहारों की विशेष भूमिका होती है।
छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान प्रदेश है , तो यहाँ के पर्व उत्सव भी अधिकांशत: कृषि से जुड़े होते हैं।  थके -हारे किसान को तब अपने मेहनती जीवन को जीवंत बनाए रखने के लिए रोज की दिनचर्या से हट कर बदलाव भी जरूरी है, फिरवह बदलाव चाहे पर्व त्योहार के रूप में हो या नाच गाने के रूप में हो। छत्तीसगढ़में मेले- मड़ई की अपनी एक अलग ही परम्परा है। लोक जीवन में इस मेले मड़ई का इंतजार लोग साल भर करते हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में मेले मड़ई की धूम होती है, जिनका अपना एक विशिष्ट महत्त्व होता है।
                ऐसा ही एक मेला मेरे अपने गाँव पलारी के सिद्धेश्वर मंदिर में भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन भरता है। आस- पास के गाँव के लोग इस मेले में कार्तिक स्नान के बाद दिन भर मेले का आंनद लेते है। उदंती के सितम्बर 2015 के धरोहर अंक में केन्द्र सरकार भारत द्वारा देश के बहुमूल्य सांस्कृतिक विरासतों के संरक्षण हेतु आरंभ की गई हृदय नामक योजना का उल्लेख मैंने किया था। 'हृदयनामक इस योजना में यह कहा गया है  कि हमारी धरोहरों की रक्षा का दायित्व सिर्फ पुरातत्त्व विभाग के पास नहीं होगा, बल्कि धरोहरों से प्रेम करने वाले लोग भी इन्हें बचाने में सक्रिय भागीदारी निभा सकेंगे। इस योजना ने सरकारी स्तर पर कितना काम शुरू किया है, अभी इसकी जानकारी तो नहीं है परंतु इस योजना के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए पलारी के इस ऐतिहासिक धरोहर सिद्धेश्वर मंदिर में मेले के अवसर पर माटी समाज सेवी संस्था ने मंदिर की सुरक्षा के साथ मंदिर परिसर की स्वच्छता का अभियान चलाकर एक छोटा-सा प्रयास जरूर किया।
प्रति वर्ष होता यह था कि मेले के दिन प्रात: काल से ही श्रद्धालु स्नान के बाद शिव मंदिर में पूजा - अर्चना करने के बाद श्रद्धापूर्वक नारियल तो चढ़ाते थे, पर प्रसाद के रूप में नारियल वहीं मंदिर परिसर में फोड़कर कच्चे नारियल का पानी और उसका छिलका जहाँ -तहाँ बिखराकर चला जाते थे, इतना ही नहीं नारियल भगवान के पास ही तोडऩे की होड़ में लोग मुख्य मंदिर के सामने बैठे नंदी के ऊपर ही नारियल तोड़ कर अपनी भक्ति का परिचय देते नजऱ आते थे, और तो और मंदिर की परिक्रमा करतेसमय 9वीं सदी में ईंटों से बने इस ऐतिहासिक धरोहर के ऊपर ही नारियल तोड़कर अपनी पूजा सम्पन्न करते थे।
मंदिर परिसर के भीतर पॉलीथीन की थैलिया न फैलें, इसके लिए नारियल बेचने वालों से भी अनुरोध किया गया कि वे नारियल, फूल और अगरबत्ती हाथ में ही दें, और भक्तों से भी निवेदन किया कि कृपया वे सिर्फ नारियल और और फूल ही चढ़ाएँ, पॉलीथीन कचरे के डब्बे में डालें, पर जब इसमें सफलता नहीं मिली, तो संस्था के सदस्य मंदिर के मुख्य द्वार के पास खड़े हो गए और नारियल चढ़ाने वालों से वापसी में पॉलीथीन माँगकर स्वयं ही उसे कचरे के डब्बे में डालने लगे। यह देख कर बहुतों ने पॉलीथीन इधर- उधर फेंकना बंद किया।
लेकिन इस वर्ष माटी समाज सेवी संस्था द्वारा मंदिर परिसर में जगह -जगह स्वच्छता बनाए रखने की अपील करते हुए कुछ पोस्टर लगा कर लोगों को जहाँ -तहाँ नारियल तोडऩे से मना करने की अपील की गई थी। यद्यपि श्रद्धालुओं की भीड़ जैसे -जैसे बढ़ती गई वैसे -वैसे इन पोस्टरों की ओर लोगों का ध्यान ही नहीं गया और लोगों ने तालाब की सीढिय़ों से लेकर चारो तरफ नारियल तोडऩा और कचरा फैलाना शुरू कर दिया था, परंतु संस्था के सदस्यों की सक्रियता से इस पर भी नियंत्रण कर लिया गया। साथ ही बढ़ती भीड़ में सबको आराम से पूजा- अर्चना करने का अवसर मिले ; इसके लिए लाइन लगाकर उन्हें भीतर जाने का अनुरोध किया गयायह प्रयास भी सफल रहा। प्रशासन की ओर से तैनात पुलिस विभाग का भी इसमें पूरा सहयोग मिला और बगैर धक्का-मुक्की के बहुत आराम से सबने पूजा की। अगर इसी तरह का सहयोग स्थानीय नगर पालिका का भी मिले, तो मंदिर परिसर के बाहर जहाँ मेला भरता , उसे भी साफ सुथरा रखा जा सकता है। इससे होगा यह कि तालाब तो गंदा होने से बचेगा ही ,पॉलीथीन तथा अन्य कचरों से मंदिर के आस- पास जो गंदगी फैलती है उसे भी रोका जा सकेगा। जब तीन- चार लोग मिलकर, चार-छह पोस्टर लगा कर मंदिर परिसर को मेला खत्म होते तक साफ - सुथरा रख  सकते है ; तो पूरे मेले वाले स्थान में भी सफाई रखी जा सकती है। इस तरह हम मेले- मड़ई वाले पर्व-उत्सव के अवसर पर जागरूक रहकर अपनी संस्कृति और परम्परा का भी सम्मान रख सकेंगे और अपनी अमूल्य धरोहरों को भी नष्ट होने से बचा पाएँगे।
जरूरत सिर्फ कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति और दृढ़ निश्चय की है। हर कोई यदि इसी तरह सजग रहकर अपने अपने आस-पास के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों की स्वच्छता का ध्यान रखने लगे ,तो स्वच्छ भारत के सपने को पूरा होने से कोई नहीं रोक सकता। 

2 comments:

Unknown said...

Sunder ank...maati samaj sevi santha ko badhai.

Unknown said...

Sarahaniya karya kiya maati samaj sevi santha ne.anukarniy hai