उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jul 20, 2015

बहादुर कलारिन की शौर्यगाथा

बहादुर कलारिन की शौर्यगाथा
सात आगर सात कोरी
 - डी.पी. देशमुख
रानी दुर्गावती, लक्ष्मीबाई और रजिया सुल्तान भारत की वे वीरांगनाएँ हैं, जिनके शौर्य और साहस की गाथा विश्व इतिहास में अमर है। छत्तीसगढ़ में बहादुर कलारिन की गाथा-शौर्य और साहस का पाठ पढ़ाती है। आज विभिन्न मंचों के माध्यम से इस वीरांगना के साहस और त्याग की अभिव्यक्ति भी जनमानस में होने लगी है। नारी जाति पर हुए अत्याचार के लिए इस कलार जाति की महिला ने जिस साहस और त्याग का परिचय दिया था। उसका लेसमात्र भी आज की महिलाओं में होता तो पुरुषों में नारी के प्रति सम्मान की भावना अधिक होती। प्रस्तुत गाथा दुर्ग जिले के गुरूर से बाहर कि.मी. दूर पश्चिम में स्थित सोरर गाँव की है, जिसका प्राचीन नाम सरहगढ़ था। इसका एक नाम बुजुर्गो के अनुसार सोरढ़ भी है। यहाँ प्राप्त शिलालेख और प्राचीन मंदिर तथा अन्य अवशेष बरबस कलचुरी शासन की याद ताजा करते हैं। उपलब्ध सामग्रियों से ज्ञात होता है कि बहादुर कलारिन की स्मृतियाँ सोरर सरहरगढ़ के साथ जुड़ी हुई हैं।
एक बार रतनपुर का कलचुरी राजा शिकार करते सरहरगढ़ के बीहड़ जंगल में आया। कहा जाता है कि तब शिकार के लिए शिकारी अपने साथ एक बाज पक्षी रखा करता था और बाज की दिशा में शिकार तलाशते हुए राजा आगे बढ़ता था। जंगल इतना घना था कि राजा को बाज दिखाई नहीं दिया, एक तरह से वह दिशा भ्रमित हो गया। सैनिक पीछे रह गये। सूर्यास्त का समय था। जंगल की घनी छाया के कारण अँधेरा गहराने लगा था। रास्ते भी लुप्त प्राय हो गये। जंगल  में राजा को आश्रय की तलाश थी, तभी घने जंगल में कुछ दूरी पर एक टिमटिमाती हुई मशाल दिखाई दी। राजा के थके-हारे पाँव उस दिशा में चल पड़े।
घने जंगल के बीचों-बीच एक कुटिया थी, जहाँ कलारिन जाति की अति सुन्दर युवती अपनी वृद्ध माँ के साथ निवास करती थी। युवती प्रतिदिन मचौली में बैठकर जीवकोपार्जन के लिए शराब बेचती थी। उन दोनों के भरण-पोषण का वही एकमात्र साधन था। गाँव के बाहर खुले मैदान में स्थित पत्थरों की नक्काशीदार विशाल मचौली अतीत के साक्ष्य रुप में आज भी विद्यमान है। कुटिया पहुँचकर राजा ने अपना परिचय दिया और अन्य साथियों से बिछुड़ जाने की आप बीती सुनाई। रात्रि भर विश्राम के लिए उसने युवती से जगह माँगी। राजा को आश्रय मिल गया। राजा युवती के रूप सौन्दर्य को देख मंत्रमुग्ध हो गया। राजा अपना होशोहवाश खो बैठा और युवती को पाने की लालसा में उसने उसकी वृद्ध माँ के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। गंधर्व विवाह के साथ राजा व युवती दाम्पत्य सूत्र में बँध गये। एक सुबह राजा को अपने राज्य एवं परिवार की सुधि आई। राजपाट की मुश्किलें बताकर तथा पुन: वापस आने का बहाना कर राजा वहाँ से चला गया और फिर वह कभी सरहरगढ़ नहीं आया।
समय बीतता गया। कुछ महीनों के पश्चात् युवती ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। राजा की याद में बालक का नाम छछानछाडू रखा गया, जिसका शाब्दिक अर्थ है- बाज को छोड़ दिया। बाल्यकाल से छछानछाडू अन्य बालकों से भिन्न था। जिज्ञासावश कभी-कभी सोचता कि आखिर उसका पिता कौन है? कहाँ है? लेकिन माँ से पूछने  का साहस वह नहीं कर पाता था। धीरे-धीरे वह किशोरावस्था की सीमा लाँघने लगा। पिता को लेकर मित्रों में उसकी खिल्ली उड़ाई जाती। इसी बात पर एक हम उम्र साथी से झगड़ा हो गया। छछान बहुत दुखी हुआ और ठान लिया कि  घर जाकर माँ से सारी बातें पूछकर रहेगा। उसने माँ के आगे प्रश्नों की बौछार लगा दी। उसके तेवर देख विवश माँ ने सारी बातें सिलसिलेवार बता दीं। माँ पर हुए अत्याचार को सुन छछान क्रोधाग्नि में जल उठा। अपने पिता से तथा समस्त राज-परिवार से ही उसे घृणा हो गई। प्रतिशोध की अग्नि में वह जलने लगा। विद्रोही मन तरह-तरह की योजनाएँ बनाता। बलिष्ठ और ताकतवर तो वह था ही, बुद्धि से भी तेज था। योजनाबद्ध तरीके से हमउम्र युवाओं की उसने एक टोली बनायी। कलाबाजी और युद्ध कौशल के प्रशिक्षण द्वारा उसने एक सशक्त फौज भी तैयार कर ली। दिन-रात केवल एक ही बात वह सोचता कि माँ पर हुए अत्याचार का बदला कैसे लिया जाए? डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने छछानछाडू की इस स्थिति का जिक्र करते हुए लिखा है कि प्रकृति ने उसे पुरुषार्थ प्रदान किया, वहीं परिस्थिति ने उसे उद्दंड भी बनाया।
छछानछाडू ने सुनियोजित ढंग से अपनी फौज के साथ छत्तीसगढ़ एवं अन्य राज्यों के 147 राजकुमारियों का अपहरण किया। सरहरगढ़ में उन्हें बन्दी बनाकर रखा गया। उन्हें कू्रर यातनाएँ दी गई। उसने 147 ओखलियाँ बनाई और राजकुमारियों को धान कूटने की आज्ञा दी। गाँव में आज भी सात आगर सात कोरी अर्थात् 147 ओखलियों के अवशेष हैं। इस इलाके से सात आगर सात कोरी लोकोक्ति भी बहुत प्रचलित है। छछानछाडू  के आदेश पर राजकुमारियाँ महीनों-महीनों तक अनाज कूटती थीं। राजकुमारियों पर छछानछाडू का कठोर जुल्म माँ को अच्छा नहीं लगा। उसकी नजरों में यह नारी जाति का अपमान था। निरपराध राजकुमारियों को जुल्म से मुक्त कराने का उसने भरसक प्रयास किया, लेकिन छछानछाडू ने उसकी एक न सुनी और यातनाओं का क्रम चलता ही रहा। अंतत: बहादुर कलारिन ने अपने ही बेटे के लिए ऐसा कार्य किया जो सामान्यत: एक माँ के लिए असंभव था।
धूर का त्योहार था। सम्पूर्ण गाँव गुलालमय हो गया। नगाड़ों की थाप से गाँव गूँज रहा था। उस दिन घर में छछानछाडू के लिए छप्पन प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाये गये थे। छदान रंग-गुलाल से सराबोर और मदिरा में मदहोश होकर घर पहुँचा। भूखा तो था ही घर में तरह-तरह के पकवान देख उसकी भूख अधिक बढ़ गई। भोजन करने के बाद उसने माँ से पानी माँगा, लेकिन घर में पानी का एक बूँद भी न था। सुनियोजित ढंग से घर के नौकरों को छुट्टी दे दी गई थी। पास-पड़ोस के घरों के दरवाजे भी बंद थे। मिठाई खाने से छछानछाडू की प्यास और अधिक बढऩे लगी। माँ उसे पानी पिलाने बावली ले गई। छछान जैसे ही बावली में पानी निकालने को झुका, माँ ने धक्का दे उसे बावली में गिराकर मार डाला। उसकी मृत्यु के पश्चात् बंदी राजकुमारियों को छोड़ दिया गया और यातनाओं का क्रम समाप्त हुआ। लेकिन पुत्रमोह से वशीभूत माँ इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकी और पुत्र वियोग में बहादुर कलारिन ने एक धारदार कटारी से अपनी ही इहलीला समाप्त कर ली।
नारी अत्याचार के विरुद्ध किसी महिला द्वारा अपने ही बेटे के बलिदान की यह गाथा अपने आप में बेजोड़ है। जनमानस के बीच कलारिन के इस साहसिक कार्य ने उसे बहादुर कलारिन बना दिया। जिसकी गाथा सम्पूर्ण इलाके में मुँह-जबानी आज भी सुनने को मिलती है। कटार लिये वीरांगना की मूर्ति ग्राम सोरर के प्रांगण में आज भी स्थित है।

जिस बावली में छछानछाडू की मृत्यु हुई थी कलांतर में वहाँ एक विचित्र वृक्ष उगा। कहते हैं उस वृक्ष में प्रतिदिन सात रंग के फूल खिलते थे। आज से तीन-चार दशक पूर्व इस सत्य को वहाँ के लोगों ने देखा भी है। छछानछाडू ने परिस्थितिवश अपहृत राजकुमारियों को बदनियती का शिकार बनाया, उन्हें शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ दीं। इसे नैसर्गिक नियति की परिणति मानकर आसपास के ग्रामवासी आज भी माँ-बेटे की स्मृतियों को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। कहा जाता है कि छछानछाडू की पुण्य स्मृति को आदर देते हुए गाँव सोरर में आज भी धूर का त्योहार प्रतिबंधित है।

3 comments:

बृजलाल दावना said...

बहुत ही बेहतरीन ऐतिहासिक जानकारी दी है आपने सर जी
जय मां बहादुर कलारिन

Unknown said...

बहुत ही सुन्दर एवं प्रेरणादायक एतिहासिक जानकारी मिला बहुत बहुत बधाई।

Anonymous said...

Mujhe aaj hi puri jankari mili mai bahut abhibhut hu ki pass mai ranker jankari nahi le saka mai gram arjuna say hu mera education sorar say hi hua hai aur mai shree jivan lal bhardwaj ji ka chota pura hu