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Jul 5, 2014

उदंती.com जून-जुलाई 2014

उदंती.com
जून-जुलाई 2014


पर्यावरण पर विशेष अंक


प्रकृति को बुरा-भला न कहो। 
उसने अपना कर्त्तव्य पूरा किया
तुम अपना करो।     

 - मिल्टन



  
       
आपके पत्र/ मेल बॉक्स   

शोर.. शोर.. सिर्फ शोर

शोर.. शोर.. सिर्फ शोर
                 - डॉ.रत्ना वर्मा


तेज ध्वनि जानलेवा भी हो सकती है इस ओर पहले किसी का ध्यान नहीं जाता था। लेकिन एक दुर्घटना के कारण 1943 में ब्रिटेन के वैज्ञानिकों का ध्यान पहली बार इस तरफ गया- ककार्ड जैट विमान लंदन हवाई अड्डे पर उतरने के लिए पार्लियामेन्ट हाउस के ऊपर से गुजरा तो उसकी खिड़कियों के काँच चटख कर जमीन पर बिखर गये। सेंटपाल चर्च की खिड़कियों को काँच भी उसी दिन टूट कर बिखर गये। जाँच के बाद विशेषज्ञों ने दोनों स्थानों की खिड़कियों के काँच टूटने का कारण जैट की तीव्र ध्वनि को माना।
तेज ध्वनि के नुकसान की मैं स्वयं भुक्त भोगी हूँ - मेरा घर बिल्कुल सड़क के किनारे है, जहाँ क्या दिन और क्या रात गाडिय़ों का रेला लगा रहता है। दोमंजिला इस घर में नीचली मंजिल पर रहने पर तो गाडिय़ों की आवाज का ज्यादा असर नहीं होता पर ऊपर रहने पर गाडिय़ों का हार्न सीधे कान के पर्दे फाड़ देने वाला होता है, सो खिड़की दरवाजे सब बंद रखने पड़ते हैं- इससे तेज आवाज से तो थोड़ी राहत मिलती है साथ ही रायपुर की धूल से भी कुछ बचाव हो जाता है, ताजी हवा तो वैसे भी नहीं बची है। यह सब विस्तार से बताने का तात्पर्य यह है कि एक दिन कोई टोली तेज आवाज वाले बाजे बजाते हुए (लाउडस्पीकर के साथ) सड़क से लिकल रही थी, उस दिन हवा कुछ ठंडी थी सो छत का दरवाजा खुला था ताकि कुछ ताजी हवा घर के भीतर आ सके। लेकिन गाजे- बाजे की आवाज ने एक सेकेंड में ही मेरे कान को सुन्न कर दिया। मुझे लगा मेरे कानों में आवाज भर गई है और कान के पर्दे फट जाएँगे। दूसरे दिन मुझे डॉक्टर के पास जाना पड़ा। कई दिन तक दवाई खानी पड़ी। डॉक्टर की सलाह पर उस दिन के बाद से जब भी घर से बाहर निकलती हूँ कानों में रूई (कपास) डाल कर निकलती हूँ। कभी भूल जाती हूँ तो सड़क पर चलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए अपने पर्स में कपास का एक टुकड़ा रखे रहती हूँ ताकि वक्त जरुरत काम आए।
आप सोच रहे होंगे यह क्या बात हुई यह तो आए दिन हम सबके साथ होता है- जी हाँ मैं इसीलिए तो यह सब कह रही हूँ कि यह सब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया है और हमने इसे स्वीकार कर लिया है। मैं सबसे पूछना चाहती हूँ - क्यों?
यह बात तो आप सब जान लीजिए कि ध्वनि या आवाज का हमारे जीवन में बहुत ज्यादा महत्त्व है। आवाज के कारण ही हम मनुष्य एक दूसरे की भावनाओं को समझ सकते हैं, जान सकते हैं। लेकिन विज्ञान ने जहाँ आवाज के महत्त्व को जान लिया  है वहीं वह यह भी कहता है कि 60 डेसिबल से ज्यादा ध्वनि हमारे कानों के लिए हानिकारक है। डॉक्टरों की मानें तो 70 से 80 डेसिबल के बीच रहने वाला व्यक्ति बहरेपन का शिकार हो जाता है, इतना ही नहीं यदि कोई गर्भवती महिला लगातार 120 डेसिबल ध्वनि के बीच लगातार चार माह तक रहे तो उसका शिशु बहरेपन का अभिशाप लेकर जन्म लेता है।
 वैज्ञानिकों के अनुसार ट्रेन, ट्रक, मोटर का हार्न और डिस्को संगीत 115 डेसिबल, सामान्य बातचीत और हल्के ट्रैफिक से 60 डेसिबल, चलती हुई इंजीनियरिंग वर्कशाप से 90 से 100 डेसिबल,  कारखानों से 110 डेसिबल तथा हैलीकाप्टर और हवाई जहाजों के इंजन से 140 डेसिबल तक की ध्वनि पैदा करते हैं। अब आप स्वयं ही अंदाजा लगा लीजिए कि आप कितने डेसिबल ध्वनि प्रदूषण वाले स्थान पर अपनी दिनचर्या का अधिकांश समय व्यतीत करते हैं?
इस तरह के अनेक तथ्यों को जानने के बाद भी हम लगातार बढ़ते जा रहे ध्वनि प्रदूषण के बीच रहने को बाध्य हैं। दुखद यह है कि पर्यावरण के प्रति चिंता व्यक्त करने वाले हमारे मनीषी अन्य सभी प्रदूषण की बात तो गंभीरता से करते हैं, सबके लिए तेजी से आवाज भी उठाई जाती है परंतु ध्वनि प्रदूषण को लेकर अनेक अध्ययन और इसके दुष्परिणामों को जानने के बाद भी इस समस्या को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता, जितना कि लिया जाना चाहिए।
जिस तरह से प्रदूषित वायु में साँस लेने से, प्रदूषित जल पीने से अनेक हानियाँ हैं उसी प्रकार से हम सबको यह जान लेना होगा कि अधिक ध्वनि प्रदूषण भी जानलेवा हो सकता है। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगरों में रहने वाले ही नहीं अब तो रायपुर जैसे शहरों में रहने वालों को भी यह जान लेना चाहिए कि वे 80 से 120 डेसिबल ध्वनि के बीच रहकर अपना जीवन गुजारते हैं।
पिछले माह का समाचार है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नोएडा में मानकों के विपरीत हो रहे ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए वहाँ के ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को फटकार लगाकर आवश्यक कार्रवाई का निर्देश दिया है। लेकिन देखा यह गया है कि इस तरह की फटकार सिर्फ फटकार ही बनकर रह जाती है, उसपर अमल होते दिखाई नहीं देता। शासन प्रशासन की उदासीनता और जनता में जागरुकता का अभाव ही इस तरह की तकलीफों को बढ़ाता है। पानी जब सर से ऊपर चला जाता है, तब बहुत देर हो चुकी होती है। गत वर्ष उत्तराखंड में प्रकृति ने कूपित होकर जो तांडव दिखाया है उसे लोग एक दुर्घटना मानकर भूलते जा रहे हैं, पर प्रकृति तो अपना रुप दिखाएगी। केदारनाथ की तबाही तो शुरुआत। हमने प्रकृति के विपरीत जा कर अपनी धरती के साथ जो अन्याय किया है उसका बदला प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया है। समय आ गया है कि हम चेत जाएँ। तरक्की की आड़ में कहीं इतना आगे न बढ़ जाएँ कि फिर लौटना मुश्किल हो।
बात ध्वनि प्रदूषण की हो रही थी- कहना यही है कि शासन प्रशासन को सचेत करने के लिए तो आवाज उठाएँ ही ताकि वह शोर प्रदूषण पर नियंत्रण रख पाए। पर साथ ही जरूरी है  कि हम स्वयं भी सुधर जाएँ। टे्फिक सिग्नल पर खड़े हैं- लाल से हरी बत्ती हुई नहीं कि पीछे वाली गाडिय़ाँ लगातार हार्न बजाना शुरु कर देती हैं , क्यों भई गाडिय़ाँ रुकी हुई थीं तो आगे बढऩे में समय तो लगेगा ही ना, तो थोड़ा सब्र तो रखिए। मोटर गाडिय़ाँ हमारे जीवन का हिस्सा हैं अत: गाडिय़ों से होने वाले शोर प्रदूषण में बेवजह हार्न बजाने को रोका जाना बेहद जरूरी है। दूसरे देशों में आपको हार्न की आवाज सुनाई नहीं देगी वहाँ तो कोई हार्न तब बजाता है। जब कोई ग्रीन सिगनल होने पर भी गाड़ी आगे नहीं बढ़ाता। हमें अच्छाईयों का तो अनुसरण करना ही चाहिए।
हमारे देश में शादियाँ तो बगैर बैंड- बाजा- बराती के पूरी नहीं होती,  देश जितनी तरक्की कर रहा है, शादियों पर उतनी ही तेजी से शोर- शराबा और आतिशबाजी होने लगी है। पारिवारिक खुशी है उसे सड़क पर उतार कर तमाशा करने की क्या जरुरत है। घर में पूजा है, सत्यनारायण की कथा करवा रहे हैं, पर पंडित जी कथा बाचेंगे तो पूरे मोहल्ले को सुनाएँगे, उसके बगैर कैसे पता चलेगा कि अमुक घर के लोग धर्म परायण लोग हैं। भले ही परीक्षाओं का मौसम हो आस-पास पढऩे वाले बच्चे हों किसी को कोई मतलब नहीं होता कि लाउडस्पीकर की आवाज से उन बच्चों की पढ़ाई में विघ्न हो रहा होगा। शादी हो तो पटाखे, बच्चा पैदा हो तो पटाखे, नेता जी चुनाव जीत गए है तो पटाखे, शहर आ रहे हैं तो स्वागत में पटाखे, मतलब चारो तरफ शोर ही शोर....
आइए विचार करें, बढ़ते शोर को कम करें,


कुछ देर मौन रह कर, मन को शीतल करें।                              

बूढ़े पेड़ों को भी बचाना होगा


   बूढ़े पेड़ों को भी बचाना होगा

               - विनिता विश्वनाथन

हमारे मन में पुराने/बूढ़े पेड़ों की एक छवि बनी है। ऊँचेविशालहल्की से झुकती हुई डालें और उनके पत्तों की धीमी-सी सरसराहट। ये वयस्क जीव हमें बुढ़ापे की ओर धीरे-धीरे बढ़ते हुए समझ में आते हैं। इस छवि की एक वजह हमारी यह मान्यता है कि कुछ सालों की तेज़ वृद्धि के बाद जैसे-जैसे पेड़ों की उम्र बढ़ती हैउनकी वृद्धि दर कम होती जाती है। नेचर पत्रिका के 15 जनवरी के अंक में छपे शोध को पढ़कर लग रहा है कि हमारे इस नज़रिए को शायद बदलना पड़ेगा।
6 महाद्वीपों के उष्ण-कटिबंधी और समशीतोष्ण क्षेत्रों की 403 प्रजातियों के करीब 7 लाख पेड़ों के अध्ययन से यह पता चला है कि आकार (अर्थात उम्र) में जितना बड़ा पेड़उतनी ही अधिक उसकी वृद्धि दर होती है। यह शोध यू.एस. जिओलॉजिकल सर्वे के निक स्टीफेन्सन और साथियों ने 100 से भी ज़्यादा शोधकर्ताओं की मदद से किया है। उनके शोध से यह समझ में आता है कि सबसे ज़्यादा उम्र के पेड़ सबसे अधिक तेज़ी से और आश्चर्यजनक दर से बढ़ रहे हैं।  उदाहरण के लिए एक साल में किसी 100 से.मी. व्यास के पेड़ का द्रव्यमान उतना बढ़ जाता है जैसे कि 10-20 से.मी. व्यास का एक पूरा पेड़ उसमें जुड़ गया हो! और 100 से.मी. व्यास के पेड़ की वृद्धि दर 50 से.मी. व्यास के पेड़ से तीन गुना ज़्यादा पाई गई। इस अध्ययन के दौरान हुए विश्लेषण से यह भी पता चला है कि शोध के नतीजों पर न तो इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि पेड़ कहाँ का है और न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि वह पेड़ किस कुल का है।  
हम तो मानकर चल रहे थे कि पेड़ों की वृद्धि दर उम्र के साथ कम होती जाती है। तो पेड़ों की वृद्धि दर को लेकर हम इतना गलत क्यों निकलेकुछ लोग कह सकते हैं कि मनुष्य के रूप में हमारे अपने अनुभव की वजह से यह गलती हुई होगी। मनुष्यों में तो हम देखते आए हैं कि बुज़ुर्गों में वृद्धि धीमी हो जाती है। इसे परिस्थिति पर मनुष्यों के मानकों को थोपना अर्थात मानवीकरण कहते हैं। मगर अब लगता है कि पेड़ों को लेकर यह गलतफहमी केवल मानवीकरण का नतीजा नहीं थी।
दरअसलगलतफहमी का कारण इस विषय पर आज तक हुए कुछ शोध भी हैं। जैसे कि प्लान्टेशन (जिनमें एक ही प्रजाति के लगभग एक ही उम्र के पेड़ होते हैं) और कुछ जंगलों पर हुए शोध के आधार पर हमारा निष्कर्ष था कि बढ़ती उम्र के साथ उनकी वृद्धि कम हो जाती है। यह निष्कर्ष इसलिए निकला कि उनकी उत्पादकता या नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी कम हो जाती है। इसका मतलब है कि जैसे-जैसे किसी प्लान्टेशन के पेड़ बड़े होते हैंउनमें पहले से कम कार्बन जुड़ता जाता है। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया की वजह से कार्बोहाइड्रेट के निर्माण के चलते उनमें कार्बन जुड़ता जाता है। चूंकि बड़े पेड़ों की नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी कम होती हैइसलिए आज तक विश्व भर में वन अधिकारी और वन संवर्धकों ने जंगलों और प्लान्टेशन में कम उम्र के पेड़ों की संख्या को बनाए रखने पर ज़्यादा ध्यान दिया है।
बढ़ती उम्र के साथ कम उत्पादकता का एक कारण यह माना जाता है कि उम्र के साथ पत्तियों की कार्यक्षमताउनकी प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम होती जाती है। पत्ती के प्रति वर्ग से.मी. क्षेत्रफल में प्रकाश संश्लेषण के कारण जो कार्बोहाइड्रेट बनता हैवह पहले से कम हो जाता है। तो ऐसे में पेड़ की वृद्धि कम होना लाज़मी है। बढ़ती उम्र के साथ घटती वृद्धि का एक और कारण यह भी माना जाता है कि बड़े होने पर पेड़ों को अपनी ऊर्जा का उपयोग वृद्धि में कम और प्रजनन में ज़्यादा करना होता है।
ये शोध और उनके निष्कर्ष गलत नहीं हैंलेकिन इनमें कुछ कमियाँ  हैं। एक दिक्कत यह है कि ज़्यादातर शोध प्लान्टेशन में या समूचे जंगल के स्तर पर हुए हैं। अकेले पेड़ों पर काम कम हुआ है। जब पूरे जंगल या प्लान्टेशन को नापा जाता है तो मृत्यु दर अक्सर छिप जाती है। वृद्धि नापने के लिए एक बार पेड़ों को नापकर कुछ समय बाद उनको दोबारा नापा जाता है। तो इस अंतराल में प्लान्टेशन या जंगल के कुछ पेड़ों की मृत्यु तो हुई होगी। अगर आकलन में ये पेड़ छूट जाते हैंतो जंगल या प्लान्टेशन के स्तर पर वृद्धि कम ही दिखेगी। दूसरी बातअगर उम्र और वृद्धि के रिश्ते को समझने के लिए बराबर क्षेत्रफल के दो ऐसे प्लान्टेशन की तुलना करते हैं जिनमें सिर्फ पेड़ों की उम्र में फर्क है तो भी गड़बड़ हो सकती है। यह इसलिए कि बराबर क्षेत्रफल के होने के बावजूदअक्सर प्लान्टेशन में आप कम उम्र के छोटे पेड़ों को ज़्यादा संख्या में लगे पाएँगे और अधिक उम्र के कम पेड़ पाएँगे।
ऐसी परिस्थिति में पेड़ों को नापकर नतीजा सुनाना गलत साबित हो सकता है। अक्सर ऐसा भी होता है कि अध्ययन के लिए चुना गया प्लान्टेशन या जंगल बहुत ही विशाल है और नमूने के तौर पर कुछेक पेड़ों को नापा जाता है। ज़रूरी नहीं है कि जिन पेड़ों को पहले नापा थाउन्हीं पेड़ों को एक समय अंतराल के बाद फिर से नापा जाएउतनी ही संख्या के किन्हीं अन्य पेड़ों को नापा जा सकता है। कहने का मतलब है कि प्लान्टेशन या जंगल के स्तर पर शोध होता है तो दिक्कतें भी हो सकती हैं।
अब ऐसा भी नहीं था कि उम्र के साथ घटती वृद्धि पर पूरी सहमति थी। एक मुख्य सिद्धान्तजो मेटाबॉलिक स्केलिंग थ्योरी के नाम से जाना जाता हैके मुताबिक पेड़ों के द्रव्यमान में वृद्धि के साथ उनकी वृद्धि दर भी लगातार बढ़ती जानी चाहिए। और वृद्धि दर में यह बढ़ोतरी उम्र के साथ पेड़ों की घटती कार्यक्षमता के बावजूद संभव है। होता यह है कि उम्र के साथपत्तियों की मात्रा भी बढ़ जाती हैऔर इतनी बढ़ती है कि उस पेड़ की पत्तियों की सतह का कुल क्षेत्रफल उम्र के साथ बढ़ता है। पत्तियों का कुल क्षेत्रफल बढऩे के साथ ही बढ़ता है उनका प्रकाश संश्लेषणकार्बोहाइड्रेट का उत्पादन और द्रव्यमान में वृद्धि। तो इस विरोधाभास को सुलझाने की दृष्टि से स्टीफेन्सन और साथियों ने अपना शोध किया।
अपने शोध में स्टीफेन्सन और अन्य शोधकर्ताओं ने उन पेड़ों को चुना जो कम से कम 10 से.मी. के व्यास के थेऔर किसी भी जंगल में उन प्रजातियों के पेड़ों को नापा जिनके कम से कम 40 पेड़ उनको मिले। उन्होंने ज़मीन से ऊपर एक निर्धारित ऊँचाई पर तने पर पेड़ों के व्यास को दो बार नापाकम से कम एक साल के अंतराल में और कहीं कहीं पाँच से दस साल के अंतराल में। फिर सिद्ध समीकरणों के ज़रिए व्यास को लेकर हर प्रजाति के पेड़ों के सूखे द्रव्यमान (जैसे नेट प्रायमरी प्रोडक्टिविटी के लिए किया जाता है) का आकलन किया। इन आँकड़ों को लेकर फिर उन्होंने वृद्धि दर के आकलन किए। इस प्रकार 12 देशों के जंगली इलाकों से शोधकर्ताओं ने डैटा स्टीफेन्सन को भेजा और काफी विश्लेषण के बाद अपने नतीजों पर पहुँचे।
खैरअब तो कह सकते हैं कि कार्बन जोडऩे के लिए वयस्कविशाल पेड़ों को बचाने की भी ज़रूरत है। यह तो कहा नहीं जा सकता है कि जंगलों में छोटे पेड़ कम और बड़े पेड़ ज़्यादा होने चाहिएक्योंकि बराबर क्षेत्रफल में कार्बन जोडऩे में कम कुशल छोटे पेड़ बड़े पेड़ों की तुलना में काफी ज़्यादा लगाए जा सकते हैं। वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड के अवशोषण में बड़े पेड़ कहीं ज़्यादा अच्छा काम करते हैं और इस कारण इनको प्लान्टेशन और जंगलों में ज़्यादा सुरक्षा मिलनी चाहिए। ये बड़े पेड़ गिनती में तो जंगलों के कुल पेड़ों का 2 प्रतिशत होते हैंलेकिन जंगल के जीवित द्रव्यमान को देखें तो उसमें इन बड़े पेड़ों का योगदान 25 प्रतिशत तक होता है।
अलबत्ताबड़े पेड़ों को बचाए रखना आसान काम नहीं होगा क्योंकि जंगलों या प्राकृतवास का विखंडन (फॉरेस्ट या हैबिटैट फ्रैगमेन्टेशन)जो जंगलों और जैव विविधता के लिए कई दशकों से सबसे बड़े खतरों में से एक रहा हैइन पेड़ों को अनुपातहीन रूप से प्रभावित करता है। प्राकृतवास के विखंडन की बात को यूँ समझते हैं। किसी भी जंगल की परिधि पर कुछ पेड़ होंगे। बाहर के दबावजैसे हवा-आंधी का ज़ोररोगाणुलकड़ी का काटनामवेशियों का चरनाये सब अंदर के पेड़-पौधों-जीवों को कम और परिधि के पेड़ों को ज़्यादा प्रभावित करते हैं। यदि इसी जंगल को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट दिया जाएतो परिधि पर लगे पेड़ों की संख्या ज़्यादा हो जाएगी। अगर सारे खंडों का क्षेत्रफल कुल मिलाकर उस बड़े जंगल जितना भी हो (जो वास्तव में होता नहीं हैजंगल कम हो जाते हैं)तब भीसीमा पर रहने का प्रभाव तो दिखेगा। और विखंडित परिस्थिति में परिधि पर ज़्यादा पेड़ हैं। जितने ज़्यादा खंडउतना ज़्यादा दबाव पेड़ों और जंगल के अन्य जीवों पर। शोध से यह पता चला है कि ज़्यादा उम्र के पेड़ ऐसे दबावों से अधिक प्रभावित होते हैं।
स्टीफेन्सन और साथियों के इस शोध के कई निहितार्थ हैं। हमें एक और कारण तो मिलता है पुरानेबूढ़े पेड़ों को बचाकर रखने का। साथ में इस बहस को सुलझाने में यह शोध हमारी मदद कर सकता है कि बढ़ते कार्बन डाईऑक्साइड प्रदूषण के चलतेपेड़ों में अधिक कार्बन जोडऩे के लिए कम उम्र के पेड़ ज़्यादा मददगार हैं या बड़े पेड़। (स्रोत फीचर्स)  

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जीवित पेड़ को तोला नहीं
 जा सकता मगर ...
नेट प्राइमेरी प्रोडक्टिविटी यानी कार्बन की वह मात्रा जो जीवित पेड़ों में एक नियमित अंतराल में जुड़ती है। इस अंतराल में पेड़ों के द्रव्यमान में बढ़ोतरी का मापन किया जाता है। वैसे तो इस उत्पादकता में लकड़ी (तनाडाल)फलपत्तोंफूलों और जड़ों का मापन होना चाहिए; लेकिन अक्सर जब नेट प्राइमेरी प्रोडक्टिविटी की बात होती है तो हम सिर्फ ज़मीन की सतह के ऊपर लकड़ी और पत्तियों के जीवित द्रव्यमान या वजऩ के बारे में बात करते हैं। अब किसी जीवित पेड़ को तो तोला नहीं जा सकता मगर पेड़ के व्यासऊँचाई और घनत्व से उसके द्रव्यमान का अनुमान लगाया जा सकता है। हर देश मेंविभिन्न परिस्थितियों में बढऩे वाले अनेक प्रजातियों के पेड़ों को हमने अपने उपयोग के लिए काटा है। अक्सर हम काफी व्यवस्थित रूप से इनकी कटाई करते हैं और कारखानों को बेचते हैं। तब से इनके वजऩ को नापते आ रहे हैं। साथ में इनके व्यासलम्बाई और उस प्रजाति की लकड़ी के घनत्व को भी नापा है। तो ऐसे करोड़ों पेड़ों से हमें यह पता चला है कि किसी एक पेड़ के व्यासघनत्वऊँचाई और वज़न या द्रव्यमान का क्या रिश्ता है। जीवित पेड़ के व्यास और ऊँचाई नापने के तरीके हमारे पास हैं। घनत्व अक्सर पहले से पता रहता है। तो अब एक बार नापकर अगर कुछ समय के अंतराल के बाद दोबारा पेड़ (या जंगल के सारे पेड़ों) को नापते हैं तो द्रव्यमान में हुई वृद्धि को ही नेट प्राइमेरी प्रोडक्टिविटी माना जाता है। इस तरीके से मिलने वाले आंकड़े अचूक तो नहींफिर भी काफी सही रहते हैं।   
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गंगा -तट से बोल रहा हूँ

गंगा -तट से बोल रहा हूँ

 - अरुण तिवारी











गंगा तट पर देखा मैंने
साधना में मातृ के
सानिध्य बैठा इक संन्यासी
मृत्यु को ललकारता
सानंद समय का लेख बनकर
लिख रहा इक अमिट पन्ना
न कोई निगमानंद मरा है,
नहीं मरेगा जी डी अपना
मर जाएँगे जीते जी हम सब सिकंदर
नहीं जिएगा सुपना निर्मल गंगा जी का
प्राणवायु नहीं बचेगी
बाँधों के बंधन में बँधकर
खण्ड हो खण्ड हो जाएगा
उत्तर का आँचल
मल के दलदल में फँसकर
यू पी से बंगाल देश तक
डूब मरेंगे गौरव सारे।
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूँ......

लिख जाएगा हत्यारों में नाम हमारा
पड़ जाएँगे वादे झूठे गंगाजी से
पुत जाएगी कालिख हम पर
मूँड मुँडाकर बैठे जो हम गंग किनारे।
गंगा को हम धर्म में बाँटें
या फाँसें दल के दलदल में
या माँ को बेच मुनाफा खाएँ
या अनन्य गंग की खातिर
मुट्ठी बाँध खड़े हो जाएँ
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूँ....

गौ-गंगा-गायत्री गाने वालेकहाँ गए?
इस दरिया को पाक बताने वालेकहाँ गए?
कहाँ गएनदियों को जीवित करने का दम भरने वाले?
कहाँ गए,गंगा का झंडा लेकर चलने वाले?
धर्मसत्ता के शीर्ष का दंभ जो भरते हैंवे कहाँ गए?
कहाँ गएउत्तर-पूरब काशी पटना वाले?
कहाँ गए गंगा के ससुरे वालेकहाँ गये?
'साथ में खेलेंसाथ में खाएँसाथ करें हम सच्चे काम'
कहने वाले कहाँ गए?
अरुणअब उत्तर चाहे जो भी दे लो
जीवित नदियाँ  या मुर्दा तन
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूँ....
हो सके ललकार बनकर
या बनें स्याही अनोखी
दे सके न गर चुनौती,
डट सकें न गंग खातिर
अश्रु बनकर ही बहें हम,
उठ खड़ा हो इक बवंडर
अश्रु बन जाएँ चुनौती,
तोड़ जाएँ बाँध-बंधन
देखते हैं कौन सत्ता
फिर रहेगी चूर मद में
लोभ के व्यापार में
कब तक करेगी
मात पर आघातगंगा
गिर गई सत्ता गिरे,
मूक बनकर हम गिरेंगे या उठेंगे
अन्याय के संग चलेंगे
या उसकी छाती मूँग दलेंगे
तय अब हमको ही करना है,                                             गंगा तट से बोल रहा हूँ......

सुरंग के रास्ते पानी


       कन्नाडा के किसान ए महालिंगा नाईकपोथी 

   सुरंग के रास्ते पानी

     - श्री पद्रे


  दक्षिण कन्नाडा के किसान ए महालिंगा नाईकपोथी की इकाई-दहाई नहीं जानते लेकिन उन्हें पता है कि बूँदों की इकाई-दहाई सैकड़ा हजार और फिर लाख-करोड़ में कैसे बदल जाती है।
58 साल के अमई महालिंगा नाईक कभी स्कूल नहीं गए। उनकी शिक्षा दीक्षा और समझ खेतों में रहते हुए ही विकसित हुई। इसलिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली के वे घोषित निरक्षर हैं। लेकिन दक्षिण कन्नडा जिले के अडयानडका में पहाड़ी पर 2 एकड़ की जमीन पर जब कोई उनके पानी के काम को देखता है तो यह बताने की जरूरत नहीं रह जाती कि केवल गिटपिट रंटत विद्या ही साक्षरता नहीं होती। असली साक्षरता को प्रकृति के गोद में प्राप्त होती है जिसमें महालिंगा नाईक पीएचडी है। पानी का जो काम उन्होंने अपने खेतों के लिए किया है ,उसमें कठिन श्रम के साथ-साथ दूरदृष्टि और पर्यावरण का दर्शन साफ झलकता है।
महालिंगा नाईक बताते हैं कि पहले इस पहाड़ी पर केवल सूखी घास दिखाई देती थी। उनकी बात में कुछ भी अतिरेक नहीं है। आस पास के इलाकों में फैली सूखी घास उनकी बात की तस्दीक करती है। महालिंगा तो किसान भी नहीं थे। जबसे होश सँभाला नारियल और सुपारी के बगीचों में मजदूरी करते थे। मेहनती थे और ईमानदार भी । किसी ने प्रसन्न होकर कहा कि यह लो 2 एकड़ जमीन और इस पर अपना खुद का कुछ काम करो। यह सत्तर के दशक की बात होगी। उन्होंने सबसे पहले एक झोपड़ी बनाई और बीबी बच्चों के साथ वहाँ रहना शुरू कर दिया। यह जमीन पहाड़ी पर थी और मुश्किल में बडी मुश्किल यह कि ढलान पर थी। एक तो पानी नहीं था और पानी आये भी तो रुकने की कोई गुंजाईश नहीं थी। फसल के लिए इस जमीन पर पानी रोकना बहुत जरूरी था।
पानी रुके इसके लिए पानी का होना जरूरी था। अब मुश्किल यह थी कि पानी यहाँ तक लाया कैसे जाएकुँआ खोदना हो तो उसके लिए बहुत पैसे चाहिए थे। क्योंकि यहाँ से पानी निकालने के लिए गहरे कुएँ की खुदाई करनी पड़ती। फिर खतरा यह भी था कि इतनी गहरी खुदाई करने के बाद वह कुँआ पानी निकलने से पहले ही बैठ भी सकता था। इसलिए कुएँ की बात सोचना संभव नहीं था। तभी अचानक उन्हें पानी की सुरंग का ख्याल आया।
असफलताओं के बीच पानी की सुरंग
अब यही एक रास्ता था कि सुरंग के रास्ते पानी को यहाँ तक लाया जाए। पानी की सुरंग बनाने के लिए बहुत श्रम और समय चाहिए । दूसरा कोई होता तो शायद हाथ खड़े कर देता लेकिन महालिंगा नाईक ने अपनी मजदूरी भी जारी रखी और सुरंग खोदने के काम पर लग गए। वे किसी भी तरह पानी को अपने खेतों तक लाना चाहते थे ;क्योंकि उनका सपना था कि उनके पास जमीन का ऐसा हरा-भरा टुकड़ा हो जिस पर वे अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकें और इस काम में अकेले ही जुट गए। काम चल पड़ा लेकिन अभी भी उन्हें नहीं पता था कि पानी मिलेगा या नहीं?
गाँववाले कहते थे महालिंगा व्यर्थ की मेहनत कर रहा है। लेकिन महालिंगा को उस समय न गाँव के लोगों की आलोचना सुनाई देती थी और न ही वे असफल होने के डर से चुप बैठनेवाले थे। चार बार असफल रहे सुरंग बनाई; लेकिन पानी नहीं मिला। सालों की मेहनत बेकार चली गई; लेकिन महालिंगा ने हार नहीं मानी। एक के बाद असफलताओं ने उन्हें निराश नहीं किया। वे लोगों से कहते रहे कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं यहीं इसी जगह इतना पानी ले आऊँगा कि यहाँ हरियाली का वास होगा और नियति ने उनका साथ दिया।
पाँचवी बार वे पानी लाने में सफल हो गए. पानी तो आ गया। अब अगली जरूरत थी जमीन को समतल करने की। उनकी पत्नी नीता उनका बहुत साथ नहीं दे सकती थी ;इसलिए यह काम भी उन्होंने अपने दम अकेले ही किया। उनकी इस मेहनत और जीवट का परिणाम है कि आज वे 300 पेड़ सुपारी और 40 पेड़ नारियल के मालिक है। उस जमीन को उन्होंने हरा-भरा किया जो उन्हें सत्तर के दशक में मिली थी। समय लगाश्रम लगा लेकिन परिणाम न केवल उनके लिए सुखद है बल्कि पूरे समाज के लिए भी प्रेरणा है।
पाँचवी सुरंग की सफलता के बाद उन्होंने एक और सुरंग बनाई ,जिससे मिलनेवाले पानी का उपयोग घर-बार के काम के लिए होता है। सुरंग के पानी को सँभालकर रखने के लिए उन्होंने तीन हौदियाँ  बना रखी हैं जहाँ यह पानी इकट्ठा होता है। सिंचाईं में पानी का व्यवस्थित उपयोग करने के लिए वे स्प्रिंकलर्स और पाइपों की मदद लेते हैं।
रोज एक पाथर
नाईक ने माटी के रखरखाव के पत्थरों का जो काम अकेले किया है ,उसे करने के लिए आज के समय में कम से कम 200 आदमी चाहिए। एक बार खेत को समतल करने के बाद उस माटी को रोकना बहुत जरूरी था। इस काम के लिए पत्थर चाहिए । आसपास आधे किलोमीटर में कहीं पत्थर नहीं था। घाटी से काम करके लौटते समय वे प्रतिदिन अपने सिर पर एक पत्थर लेकर लौटते थे। रोज एक-एक पत्थरों को जोड़-जोड़ उन्होंने अपने सारे खेतों की ऐसी मेड़बंदी कर दी माटी के बहाव का खतरा खत्म हो गया। आज अगर मजदूरों से यह काम करवाना हो तो खर्च कम से कम 25 हजार रुपये आएगा।
अपने खेतों के लिए इतना सब करने वाले महालिंगा नाईक आज स्थानीय लोगों के लिए हीरो और प्रेरणास्रोत हैं। लोग उन्हें सफल इंसान मानते हैं। लेकिन खुद महालिंगा नाईक अपने से कुछ भी कहने में सकुचाते हैं। कम बोलते हैं और अपने काम में लगे रहते हैं। दूसरों के लिए उदाहरण बन चुके महालिंगा नाईक कर्ज लेने में विश्वास नहीं करते। वे मानते हैं कि जितना है उतने में ही संयमित रूप से गुजारा करना चाहिए। आज तक खुद उन्होंने किसी से कोई कर्ज नहीं लिया सिवाय एक बार जब वे अपना घर बना रहे थे तब बैंक से 1,000 रूपये कर्ज लिया था। दक्षिण में कर्ज लेकर अमीर बनने का सपना पालते किसानों के लिए महलिंगा चुपचाप बहुत कुछ कह रहे हैं। अगर लोग सुनना चाहें तो। (साभार- विस्फोट) इंडिया वाटर पोर्टल से

लेखक के बारे में- पानी और पर्यावरण के पत्रकार श्री 70 के दशक से गाँव और खेत की रिपोर्टिंग कर रहे हैं। 20 साल तक अदिके पत्रिका के मानद संपादक रहे। श्री पानी की रिपोर्टिंग करते हैं और लोग श्री के जरिए पानीदार भारत को समझते हैं।

अपनी परंपराओं से फिर जुडऩा होगा

अपनी परंपराओं से

 फिर जुडऩा होगा

  - कृष्ण कुमार यादव


  मानव सभ्यता के आरंभ से ही प्रकृति के आगोश में पला और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सचेत रहा। पर जैसे-जैसे विकास के सोपानों को मानव पार करता गयाप्रकृति का दोहन व पर्यावरण से खिलवाड़ रोजमर्रा की चीज हो गई। ऐसे में आज समग्र विश्व में पर्यावरण असंतुलन चर्चा व चिंता का विषय बना हुआ है।जलवायु परिवर्तनभूस्खलनभूकंपबाढ़सूखा इत्यादि आपदाओं के कारण तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हो रहा है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण सारी दुनिया आज पर्यावरण के बढ़ते खतरे से जूझ रही है। मनुष्य और पर्यावरण का सम्बन्ध काफी पुरानी और गहरा है। प्रकृति और पर्यावरणहम सभी को बहुत कुछ देते हैंपर बदले में कभी कुछ माँगते नहीं। पर इसके बावजूद हम रोज प्रकृति व पर्यावरण से खिलवाड़ किये जा रहे हैं और उनका ही शोषण करने लगते हैं। हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत हैपर प्रकृति और पर्यावरण के बारे में नहीं। प्रकृति को हमने भोग की वस्तु समझ लिया है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण के अस्तित्व पर जब खतरा आता है तो उसका खामियाजा मानव को ही भुगतना पड़ता है।
पर्यावरण असंतुलन के प्रति चेतना जाग्रत करने एवं धरती पर पर्यावरण को समृद्ध बनानेपर्यावरण संरक्षण और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को मानवीय रूप प्रदान करने हेतु संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में हर वर्ष 5 जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य विभिन्न देशों के बीच पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा देना एवं पर्यावरण के प्रति राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक जागरूकता लाते हुए सभी को इसके प्रति सचेत व शिक्षित करना एवं पर्यावरण-संरक्षण के प्रति प्रेरित करना है। इस दिवस की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा के द्वारा वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर आयोजित कांफ्रेंस में की गई थी। विश्व भर में इस दिन सतत् विकास की प्रक्रिया में आम लोगों को शामिल करने के मद्देनजर विश्व पर्यावरण दिवस पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैंजिनका मुख्य उद्देश्य विश्व समुदाय का ध्यान पर्यावरण और उससे जुड़ी राजनीति की ओर आकृष्ट करना होता है। 1972 में ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का भी आरम्भ किया गया। गौरतलब है कि यह पहला ऐसा मौका थाजब विश्व पर्यावरण और उससे जुड़ी राजनीतिआर्थिक और सामाजिक समस्याओं पर इतने बड़े मंच पर चर्चा हुई थी। विश्व पर्यावरण दिवस पर विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से इस बात पर खास जोर दिया जाता है कि पर्यावरण और उससे जुड़े मुद्दों के प्रति आम धारणा बदलने में समुदाय महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा प्रतिवर्ष विभिन्न थीमों पर विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन किया जाता है।
बदलती जीवनशैलीउपभोग के तरीके एवं सीमित प्राकृतिक संसाधनों और पारस्थितिकी तंत्र पर बढऩे वाला दबाव - प्राकृतिक असंतुलन के ये सबसे बड़े कारण हैं। विकास की अंधी दौड़ में समाज पंरपराओं से कटता जा रहा है। एक समय हम नदियों को माँ समझते थे किंतु आज भावनाएँ बदल गई हैं। खुद के लाभ के लिए मानव पर्यावरण का दोहन कर रहा है। यहाँ तक कि प्रदूषण से कई जीवों का अस्तित्व संकट में है। हम नित धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं। जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता हैउनका खात्मा किये जा रहे हैं। वृक्ष न सिर्फ हमारे पर्यावरण को शुद्ध करते हैंबल्कि जीवन के लिए उपयोगी प्राणवायु उपलब्ध कराते है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि पेड़-पौधों और वनस्पतियों के कारण ही हम जीवित हैं। वृक्ष शिव का काम भी करते हैंवे वायुमंडल की घातक जहरीली गैसों को स्वयं पी जाते हैं और हमें जीवन-वायु प्रदान करते है। सभी जानते हैं कि जिन देशों ने प्रकृति और पर्यावरण का अत्यधिक दुरुयोग व दोहन कियाउन्हें आपदाओं के रूप में प्रकृति का कोपभाजन भी बनना पड़ा। फिर भी विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं।
आबादी बढऩे से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्त्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएँ बढ़ी हैं। इसके बावजूद हमने अंधाधुंध विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है। वैश्वीकरण की नव उदारवादी नीति ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैंजिससे आर्थिक विकास के मॉडल लडख़ड़ाने लगे हैंं। खाद्य असुरक्षा ने न केवल गरीब देशोंबल्कि संपन्न देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। जैव-विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विकास पर असर दिखाया है। आज हमारे सामने विकास बनाम पर्यावरण का मुद्दा है। हमारे लिए दोनों जरूरी हैंइसलिए समन्वित दृष्टिकोण के साथ विकास कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना चाहिए। 
विकास व प्रगति के नाम पर जिस तरह से पर्यावरण को हानि पहुँचाई जा रही हैवह बेहद शर्मनाक है। हम जिस धरती की छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैंउसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं। हम कभी साँस लेना नहीं भूलतेपर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरूर भूल गए हैं। यही कारण है कि नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैंपर अपने पर्यावरण को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वनस्पतियों का सिर्फ रंग ही हरा नहीं होताउन्हीं से हमारा जीवन भी हरा-भरा है। हमारे जीवन-दर्शन में प्राचीन काल से इनकी व्यापक उपस्थिति दर्ज है। अथर्ववेद औषधीय दृष्टि से जड़ी-बूटियों की महत्ता के बहाने वनस्पतियों की अनिवार्यता को स्थापित करता है तो श्रीराम की कथा में वनों और वहाँ के जीवों के माध्यम से अद्भुत दर्शन निर्मित हुआ है। इसी तरह श्रीकृष्ण तो कदंब की डालों पर ही नहीं विराजतेबल्कि बांसुरी के रूप में वनस्पति की महत्ता बताते हैं। वट सावित्री की कथा से लेकर तमाम धार्मिक-सांस्कृतिक आख्यान तक हमें पर्यावरण-संरक्षण की शिक्षा देते हैं और हमारे भीतर इसकी एक दृढ़ मनोभूमि भी रचते चलते हैं।
भारतीय परम्परा में पेड़-पौधों को परमात्मा का प्रतीक मान कर उनकी पूजा का विधान बनाया गया है। वैदिक ऋचाओं में इनके महत्त्व को बताया गया है। शास्त्रों में पृथ्वीआकाशजलवनस्पति एवं औषधि को शांत रखने को कहा गया है। इसका आशय यह है कि इन्हें प्रदूषण से बचाया जाए। यदि ये सब संरक्षित व सुरक्षित होंगे तो निश्चित रूप से जीवन और जगत भी सुरक्षित व सुखी रह सकेगा। वृक्ष न सिर्फ धरती के आभूषण हैं बल्कि मानवीय जीवन का आधार भी हैं। वृक्ष हमें प्रत्यक्ष रूप से फल-फूलचाराकोयलादवातेल इमारती लकड़ी के साथ जलाने की लकड़ी इत्यादि प्रदान करते हैं। वृक्ष से हमें वायु शुद्धीकरणछायापशु प्रोटीनआक्सीजन के अलावा भी कुछ ऐसी चीजें मिलती हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए हमें लाखों रूपये खर्च करने पड़ते। एक सर्वे के अनुसार एक वृक्ष अपने जीवनकाल में जितनी वायु को शुद्ध करता है उतनी वायु को अप्राकृतिक रूप अर्थात मशीन से शुद्ध किया जाय तो लगभग 5 लाख रूपये खर्च करना पड़ेगा। इसी तरह वृक्ष छाया के रूप में 50 हजारपशु-प्रोटीन चारा के रूप में 20 हजारआक्सीजन के रूप में 2.5 लाखजल सुरक्षा चक्र के रूप में 5 लाख एवं भूमि सुरक्षा के रूप में 2.5 लाख के साथ हमारे स्वस्थ जीवन के लिए कुल 15 लाख 70 हजार रुपये का लाभ पहुँचाता है। पर आज का मानव इतना निष्ठुर हो चुका है कि वृक्षों के इतने उपयोगी होने के बाद भी थोड़े से स्वार्थ व लालच में उन्हें बेरहमी से काट डालता है। जरूरत है कि लोग इस मामले पर गम्भीरता से सोचें एवं संकल्प लें कि किसी भी शुभ अवसर पर वे वृक्षारोपण अवश्य करेंगे अन्यथा वृक्षों के साथ-साथ मानव-जीवन भी खतरे में पड़ जायेगा।
विश्व पर्यावरण दिवस पर लम्बे-लम्बे भाषणदफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे,पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम.... अखबारों में पर्यावरण दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे। एक दिन बिटिया अक्षिता बता रही थी कि स्कूल में टीचर ने पर्यावरण असंतुलन के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होतीबारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होतीखूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं। इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगे कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगेपर्यावरण की रक्षा करेंगेअपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे। अक्षिता के नन्हे मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं। आखिर हम बच्चों में प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते। मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से पर्यावरण का उद्धार संभव नहीं है। इस ओर सभी को संजीदगी से सोचना होगा। निश्चितत: भारत समेत पूरे विश्व को इस दिवस को एक पवित्र अभियान से जोड़ते हुए न सिर्फ वृक्षारोपण की तरफ अग्रसर होना चाहिए बल्कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की दिशा में भी प्रभावी कदम उठाने होंगे।
पर्यावरण का मतलब केवल पेड़-पौधे लगाना ही नहीं हैबल्कि भूमि प्रदूषणवायु प्रदूषणजल प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण को भी रोकना है। हम प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम दोहन करें और प्रकृति के साथ खिलवाड़ न करें। हर इंसान को धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझनी होगीतभी पर्यावरण संतुलन की दिशा में कुछ ठोस किया जा सकता है। जिस प्रकार से हम औद्योगिक विकास और भौतिक समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं वह पर्यावरण संतुलन के लिए खतरनाक है। पर्यावरण असंतुलन के कारण ही सुनामी और भंयकर आँधी-तूफान आते हैं। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा हैजिसके कारण पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं। इनकी घटती संख्या पर्यावरण के लिए घातक है।
स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है और इसके बिना जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। पर्यावरण जीवन के प्रत्येक पक्ष से जुड़ा हुआ हैइसीलिए यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे। वास्तव में देखा जाय तो पर्यावरण शुद्ध रहेगा तो आचरण भी शुद्ध रहेगा। लोग निरोगी होंगे और औसत आयु भी बढ़ेगी। दुर्भाग्यवश पृथ्वीपर्यावरणपेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं। ऐसे में यदि मनुष्य ने अपनी दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप नहीं बनाया और प्रदूषण इसी तरह बढ़ता रहा तो तमाम सभ्यताओं का अस्तित्व खत्म होने में देर नहीं लगेगी।

सम्पर्क: निदेशक डाक सेवाएँ इलाहाबाद परिक्षेत्र,  इलाहाबाद (उ. प्र.) 211001 मो. 08004928599