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Mar 14, 2014

उदंती.com, मार्च- 2014

उदंती.com, मार्च- 2014 
संसार रूपी कड़वे वृक्ष के दो फल अमृत के समान हैं। 
सरस तथा प्रिय वचन और सज्जनों की संगति।  -चाणक्य

आवरण चित्रः संवेदनशील कलाकार बसंत साहू ने हाल ही में इस चित्र को बनाया है और फेसबुक में साझा किया है। बसंत के चित्रों में छत्तीसगढ़ अंचल की लोक संस्कृति और परंपरा की झलक मिलती है। इस चित्र में उन्होंने माँ बेटी की भावनाओं को बड़ी खूबसूरती से उतारा है। उनका पता है- सरोजनी चौक, कुरुद, जिला- धमतरी (छ.ग.) मो. 990776583, Email- basantartist@gmail.com 


अनकही: ऐसी बानी बोलिए - डॉ. रत्ना वर्मा

ऐसी बानी बोलिए...

ऐसी बानी बोलिए...
  डॉ. रत्ना वर्मा

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।

कबीर जी ने इस दोहे में बहुत ही सरल शब्दों में समुचे मानव जगत के लिए वाणी की महत्ता को रेखांकति कर दिया है। सच है- एक मीठी बोली दुश्मन को भी दोस्त बनाने की ताकत रखती है। कबीर जी का यह दोहा जन जन में इतना अधिक प्रचलित है कि जब कोई व्यक्ति क्रोध में आकर अप-शब्द बोल देता है तो आस-पास के लोग तुरंत इस दोहे का प्रयोग करते हैं जिसका त्वरित प्रभाव भी दिखाई देता है, क्रोध में अप-शब्द बोलने वाला व्यक्ति कबीर की इस अमर वाणी को सुनते ही तुरंत शांत होते देखा गया है, उसे यह दोहा अहसास करा देता है कि उसने गलती की है।
यह तो हुई आमजन की बात जिनके लिए हमारे गुरूजन, ऋषि मुनि, ज्ञानी महापुरूषों- कबीर रहीम, रैदास, सूरदास आदि ने अपने दोहों और वचनों के माध्यम से समाज को संस्कारवान बनाने और सद्मार्ग पर चलने की राह दिखाई है।
लेकिन हमारे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इधर कुछ बरसों से हमारे जननेता अपनी वाणी पर से सयंम खो बैठे हैं। आज जिस प्रकार की भाषा शैली का प्रयोग हमारे नेता कर रहे हैं उसमें अहंकार, और दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ नजर आती है। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और छीछालेदर का ऐसा दौर चलने लगा है कि लगता है कि नेताओं के बीच कोई वाद- विवाद प्रतियोगिता चल रही है जिसमें वे दिखाना चाहते हैं कि देखो हम तुमसे ज्यादा अच्छा अपशब्द बोल सकते हैं। सोचने वाली बात यह है कि ऐसा आचरण करते समय वे भूल जाते हैं कि सार्वजनिक तौर पर इस तरह की भाषा का प्रयोग करने से समाज पर क्या असर पड़ेगा। यह समझ से परे है कि अपने प्रतिव्द्ंव्दी के विरूध्द अपशब्दों का प्रयोग करके वे जनता के सामने कौन सा आदर्श रखना चाहते हैं। मीडिया को भी नेताओं के इस वाक्युद्ध को खबर बनाकर परोसने में मजा आने लगा है। नेताओं की बयानबाजी पर बहस कराके एक तरह से मीडिया उन्हें बढ़ावा ही देती है।
इधर चुनाव के समय इस तरह के असंयमित भाषा के प्रयोग का चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। अपने विरोधी के प्रति अपशब्द या अभद्र बोली बोल कर राजनीतिक पार्टियाँ शायद यह सोचती हैं कि उन्होंने जनता का दिल जीत लिया है। वे चुनाव के मूल मुद्दे से ध्यान हटा कर जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश में लगे रहते हैं, पर क्या जनता इतनी मूर्ख है कि उनके इस बहकावे या इस वाक्युद्ध के भुलावे में आ जाएगी? वास्तविकता तो यह है कि जनता अब भोली नहीं है उनके  इस तरह के हथकंडों से वह वाकिफ है।
यह तो सभी जानते हैं कि व्यक्ति के आचार- विचार और संस्कार उसकी भाषा शैली के माध्यम से परिलक्षित होते हैं, संस्कारवान व्यक्ति अपनी भाषा शैली के माध्यम से भीड़ में अपनी अलग पहचान छोड़ जाता हैं। राजनैतिक इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पड़ें हैं जहाँ राजनेताओं ने अपनी सुगठित भाषा शैली के माध्यम से जनता के बीच अपनी विशिष्ट जगह बनाई है- एक वह भी समय था जब राममनोहर लोहिया, सरोजिनी नायडू, जयप्रकाश नारायण और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे राजनेताओं की चुनावी सभा में उन्हें सुनने के लिए भीड़ इकट्ठी करने की जरूरत नहीं होती थी, लोग स्वयमेव ही दूर-दूर से उन्हें सुनने के लिए लम्बी-लम्बी यात्रा करके चले आते थे। राजनेताओं के लिए जनता के मन में आदर और भक्ति का भाव होता था। वे जानते थे कि जिन नेता को वोट देकर उन्होंने उच्चासन पर बिठाया है वे उनके अपने हैं और उनकी भलाई के लिए ही काम करते हैं। उनकी जीत इस बात का सबूत है, वे जानते थे कि सुमधुर भाषा किस प्रकार से लोगों पर अपना असर दिखाती है, क्योंकि वे जो बोलते थे वैसा करके भी दिखाते थे। उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता था।
कोयल कासे लेत है, कागा काको देय ।
एक मीठी बोली ते, सबका मन हर लेय ॥
पर इन सबसे परे आज की राजनीति और नेताओं को अपनी कथनी और करनी से कोई मतलब नहीं है। साम दाम दंड भेद से चुनाव जीतना उनका एकमात्र उद्देश्य हो गया है। कटु भाषा बोलना आज के नेताओं की आदत में शुमार हो गया है। मीठी वाणी उनके शब्दकोश से गायब हो गई है। राजनीतिक गलियारे में असयंमित आचरण और अपशब्दों का चलन इतना आम हो चुका है कि चुनावी समर हो या संसद के भीतर किसी मुद्दे पर कोई बहस, वहाँ भी मर्यादा की सारी सीमाएँ लाँघी जाती हैं। जिस तरह के दृश्य इन दिनों संसद के सदन में नजर आते हैं उससे सिर शर्म से झुक जाता है। कुर्सी टेबल फेंकने से लेकर झुमा- झटकी के साथ जिन अप- शब्दों से हमारे सम्माननीय राजनेता एक दूसरे के साथ व्यवहार करते देखे जाते हैं वह अब मीडिया के माध्यम से सर्वविदित है।
इन सबको देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि अब वह समय आ गया है कि सभी दल इस विषय पर आत्मचिंतन करें। अपने-अपने गिरेबान में झाँककर देखें कि उन्होंने अपना समाज और जनता के चरित्र का कितना उत्थान किया। इसके साथ ही अब यह सोचने का समय भी आ गया है कि संसद की गरिमा और चुनावी समर को मर्यादित बनाए रखने के लिए एक गंभीर बहस की जरूरत को समझा जाए। यह तय करने की भी जरूरत है कि इस तरह के अमार्यादित आचरण पर कौन अंकुश लगायेगा? जिस तरह भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए अपराधी पृष्ठभूमि वालों को चुनाव में भाग लेने न दिया जाये, इस पर खुल कर चर्चा आरंभ हो गई है और सख्त नियम कानून बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है उसी तरह नेताओं की वाणी और आचरण पर लगाम लगाने के लिये भी बहस और चर्चा की आवश्यकता है।                                    

फागुनी गीत

मोपे रंग ना डारो साँवरिया...

- गोवर्धन यादव

फागुनी गीत लोक साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण गीत विधा है जो लोक हृदय में स्पंदन करने वाले भावों, सुर, लय, एवं ताल के साथ अभिव्यक्त होता है।  इसकी भाषा सरल सहज और जन जीवन के होंठो पर थिरकती रहती है। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है फागुन के माह में गाए जाने के कारण हम इसे फागुनी गीत कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।                      
वसंत पंचमी के पर्व को उल्लासपूर्वक मनाए जाने के साथ ही फागुनी गीत गाए जाने की शुरुआत हो जाती है। फागुन का अर्थ ही है मधुमास। मधुमास याने वह ऋतु जिसमें सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य हो। सौंदर्य ही सौंदर्य हो वृक्ष पर नए-नए पत्तों की झालरें सज गई हों कलिया चटक रही हों शीतल सुगंधित हवा प्रवहमान हो रही हो कोयल अपनी सुरीली तान छेड़ रही हो लोकमन के आल्हाद से मुखरित वसंत की महक और फागुनी बहक के स्वर ही जिसका लालित्य हो। ऐसी मदहोश कर देने वाली ऋतु में होरी धमार फाग की महफिलें जमने लगती है। रात्रि की शुरुआत के साथ ढोलक की थाप और झांझ-मंजिरों की झनझनाहट के साथ फ़ाग गायन का क्रम शुरूहो जाता है।              
वसंत मे सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है। फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु भी अमृतप्राणा हो जाती हैए इसलिए होली के पर्व को 'मन्वन्तरारम्भ'भी कहा गया है। मुक्त स्वच्छन्द परिहास का त्योहार है यह नाचने-गाने हँसी ठिठौली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी भी इसे कहा जा सकता है सुप्त मन की कन्दराओं में पड़े ईष्या-द्वेष राग-विराग जैसे निम्न विचारों को निकाल फ़ेकने का सुन्दर अवसर प्रदान करने वाला पर्व भी इसे हम कह सकते हैं।                  
रंग भरी होली जीवन की रंगीनी प्रकट करती है। होलिकोत्सव के मधुर मिलन पर मुँह को काला-पीला करने का जो उत्साह-उल्लास होता है रंग की भरी बाल्टी एक-दूसरे पर फेकने की जो उमंग होती है वे सब जीवन की सजीवता प्रकट करते है। वास्तव में होली का त्योहार व्यक्ति के तन को ही नहीं अपितु मन को भी प्रेम और उमंग से रंग देता है। फिर होली का उल्लेख हो तो बरसाना की होली को कैसे भूला जा सकता है जहाँ कृष्ण स्वयं राधा के संग होली खेलते हैं और उसी में सराबोर होकर अपने भक्तों को भी परमानंद प्रदान करते है।  
फाग में गाए जाने वाले गीतों में हल्के-फुल्के व्यंग्यों की बौछार होंठों पर मुस्कान ला देती है। यही इस पर्व की सार्थकता है। लोकसाहित्य में फाग गीतों का इतना विपुल भंडार है। लेकिन तेजी से बदलते परिवेश ने कफी कुछ लील लिया है। आज जरुरत है उन सब गीतों को सहेजने की और उन रसिक-गवैयों की जो इनको स्वर दे सकें।               
जैसा कि आप जानते ही हैं कि इस पर्व में हँसी-मजाक-ठिठौली और मौज-मस्ती का आलम सभी के सिर चढ़कर बोलता है। इसी के अनुरूप गीतों को पिरोया जाता है। फाग गीतों की कुछ बानगी देखिए-
मैं होली कैसे खेलूँगी या साँवरिया के संग                
कोरे-कोरे कलस मँगाए वामें घोरो रंग             
भर पिचकारी ऐसी मारी, सारी हो गई तंग/ मैं          
नैनन सुरमादान्तनमिस्सी  रंग होत बदरंग                     
मसक गुलाल मले मुख ऊपर ,बुरो कृष्ण को संग/मैं         
तबला बाजे-सारंगी बाजे और बाजे मिरदंग               
कान्हाजी की बंसी बाजे राधाजी के संग/मैं               
चुनरी भिगोये, लहंगा भिगोए, भिगोए किनारी रंग                 
सूरदास को कहाँ भिगोए काली कांवरी अंग/मैं            
2             
मोपे रंग ना डारो साँवरिया मैं तो पहले ही अतर में डूबी लला
कौन गाँव की तुम हो गोरी कौन के रंग में डूबी भला       
नदिया पार की रहने वाली कृष्ण के रंग में डूबी भला      
काहे को गोरी होरी में निकली काहे को रंग से भागो भला   
सैंया हमारे घर में नैइया, उन्हई को ढूँढ़न निकली भला
फ़ागुन महिना रंग रंगीलो , तन मन सब रंग डारो भला
भीगी चुनरिया सैंइयां जो देखे आवन न देहें देहरी लला     
जो तुम्हरे सैंया रुठ जाये, रंगों से तर कर दइयो भला       
      3
आज बिरज मे होरी रे रसिया             
होरि रे रसिया बर जोरि रे रसिया
     4
ब्रज में हरि होरि मचाई                 
होरि मचाई कैसे फाग मचाई
बिंदी भाल नयन बिच कजरा, नख बेसर पहनाई
छीन लई मुरली पितांबर, सिरपे चुनरी ओढाई 
लालजी को ललनी बनाईण्.; ब्रज में... 
हँसी-ठिठौली पर कुछ पारंपरिक रचनाएँ-                 
      1
मोती खोय गया नथ बेसर का, हरियाला मोती बेसर का     
अरी ऐरी ननदिया नाक का बेसर खोय गया              
मोहे सुबहा हुआ छोटे देवर का, हरियाला मोती बेसर का           
      2
अनबोलो रहो न जाए, ननद बाई, भैया तुम्हारे अनबोलना     
अरे हाँ... भौजी मेरी रसोई बनाए, नमक मत डारियो...
अरे आपहि बोले झकमार                            
अरे हाँ ननद बाई, अलोने-अलोने ही वे खाए...      
अरे मुख से न बोले बेईमान                          
      3
कहाँ बिताई सारी रात रे... बोलो बालम                 
मेरे आँगन में तुलसी को बिरवा,
खा लेवो ना तुलसी दुहाई रे  
काहे को खाऊँ तुलसी दुहाई,
मर जाए सौतन हरजाई रे...
सांची बोलो बालम...
                4
चुनरी बिन फाग न होय, राजा ले दे लहर की चुनरी...;
(आदि-आदि)                         
हँसी की यह खनक की गूँज पूरे देश में सुनी जा सकती है। इस छटा को देखकर यही कहा जा सकता है कि होली तो एक है। लेकिन उसके रंग अनेक हैं। ये सारे रंग चमकते रहें। दमकते रहें। और हम इसी तरह मौज-मस्ती मनाते रहें। लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि कोई कारण ऐसा उत्पन्न न हो जाये जिससे यह बदरंग हो जाए। याद रखें..इस सांस्कृतिक त्योहार की गरिमा जीवन की गरिमा में है। होली के इस अवसर पर इस तरह गुनगुना उठें।               
लाल-लाल टेसू फूल रहे फागुन संग              
होली के रंग-रंगे छटा-छिटकाए हैं।         
वहाँ मधुकाज आए बैठे मधुकर पुंज                    
मलय पवन उपवन वन छाए हैं।           
हँसी-ठिटौली करैं बूढ़े औ बारे सब   
देख-देखि इन्हैं कवित्त बनि आयो है।  
    
सम्पर्क- 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा  (म.प्र.) 480001, Email- goverdhanyadav44@gmail.com

कितने आजाद महिलाओं के सपने

आज-कल-और कल

कितने आजाद महिलाओं के सपने

                            - पद्मा मिश्रा

दहलीज पर खड़ी औरत क्या सोचती है? नम आँखों से निहारती, आकाश का  कोना-कोना  उडऩे को आकुल, व्याकुल पंख तौलती है। तलाशती है राहें मुक्ति के द्वार की मुक्ति के द्वार की तलाश आज भी जारी है। वह कभी मुक्त नहीं हो सकी रुढिय़ों से,परम्पराओं से, सामाजिक विसंगतियों से, अपनी ही कारा में कैद, भारत की नारी आज भी अपने जीवन संघर्षों की लड़ाई लड़ रही है सदियों की गुलामी से उत्पीडि़त-प्रताडि़त, रुढिय़ों की शृंखलाओं में बंदी उसकी आँखों ने एक सपना जरुर देखा था। -जब देश आजाद होगा अपनी धरती, अपना आकाश अपने सामाजिक  दायरों  में वह  भी सम्मानित होगी, उसके भी सपनों, उम्मीदों को नए पंख मिलेंगे, पर उनका यह सपना कभी साकार नहीं हो पाया, अपने अधूरे सपनो के सच होने की उम्मीद लिए महिलाएँ देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में भी भागीदार  बन जूझती रहीं सामाजिक, राजनीतिक, चुनौतियों से, अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिवेदी पर चढ़ मृत्यु को भी गले लगाया पर हतभाग्य! देश को  आजादी  तो मिली  पर राजनीतिक आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी मिला,पर अधूरा, नियमो कानूनों, में लिपटा हुआ हजारों लाखों सपनो के बीच नारी मुक्ति का सपना भी सच होने की आशा जागी थी, शांति घोष, दुर्गा भाभी, अजीजन बाई, इंदिरा, कमला नेहरु, जैसे अनगिनत नाम जिनमे शामिल थे। पर नारी मुक्ति के सपने कभी साकार नहीं हो पाए, उनकी स्थिति  में कोई  परिवर्तन नहीं आया, वे पहले भी सामाजिक, वर्जनाओं के भँवर में कैद थीं आज भी हैं, पहले सती प्रथा के नाम पर पति के साथ जला  दिए जाने की कू्रर परंपरा थी, आज भी महिलाएँ जलाई जाती हैं कभी दहेज़ के नाम पर, तो कभी  पुरुष प्रधान  सामाजिक  प्रताडऩा का शिकार होकर, बालिका विवाह की अमानवीय प्रथा में  कितनी ही नन्हीं, मासूम बालिकाएँ बलिदान हो जाती थीं। आज भी अबोध, मासूम, नाबालिग बच्चियाँ दुष्कर्म और दुर्वव्यवहार का शिकार होती हैं। बेमौत मारी जाती हैं, भ्रूण हत्याएँ भी इसी कू्र, नृशंस, गुलाम मानसिकता का सजीव उदाहरण हैं। कभी महिलाओं ने सोचा था की जब उन्हें  आजादी मिलेगी उनकी भी आवाज सुनी जाएगी, वे भी विकास की मुख्य धारा में शामिल होकर अपनी मंजिल प्राप्त कर पाएँगी, पर आज वे अपने ही देश में सुरक्षित नहीं हैं, पहले भी घर व समाज की चार दीवारों  में आकुल-व्याकुल छटपटाती थीं। और आज भी स्वतंत्रता के 66 वर्षों के बाद भी वे चार दीवारों में बंदी रहने  को विवश हैं क्योंकि  बाहर  की दुनियाँ उनके लिए निरापद नहीं है, यह कैसी बिडम्बना है! कैसी स्वतंत्रता है! जो मिल कर भी कभी फलीभूत नहीं हो सकी।
जो रही भाल का तिलक उसे, देते फांसी के फंदे क्यों?
जो घर आंगन का मान बनी, उससे नफरत के धंधे क्यों?
फिर क्यों दहेज़ की बेदी पर, बेटियाँ जलाई जाती है,
मुट्ठीभर सिक्कों की खातिर, छत से फिंकवाई जाती हैं?
आज महिलाएँ शिक्षित हैं। जागरूक हैं। सपने देखती हैं तो उन्हें सच करना भी जानती हैं लेकिन कुछ  मुट्ठीभर  रेत से घरौंदे नहीं बना जा सकते, देश की स्वतंत्रता का सूर्य जब प्रज्वलित हुआ। आशा की किरणें महिलाओं के दामन में भी झिलमिलाई थीं परन्तु उसी आँचल को दागदार बनते देर नहीं लगी, वे अपने ही परिवेश, समाज, घर की सीमाओं में शोषित होती चली गईं यह मानते हुए भी की वे माँ हैं, बहन हैं, बेटी हैं, कितने रूपों और रिश्तों में जीती हैं वह- त्याग का  प्रतिरूप  बन कर, पर उन्ही  रिश्तों ने उसे कलंकित भी किया यह हमारे आजाद देश की विकृत  मानसिकता का घृणित परिणाम है दामिनी, गुडिय़ा जैसी मासूमों का बलिदान देश भूला नहीं है। अगर उनके विरोध में कहीं कोई दबी आवाज उभरी भी तो कुछ दिनों तक प्रेस में, मीडिया और मुट्ठीभर बुद्धिजीवियों के बीच विमर्श का मुद्दा बनी बेटियाँ आँसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं कर पातीं। और सरकार कुछ मुआवजा या दोषियों को दो तीन महीनो की सजा दे अपने कर्त्तव्य से मुक्त हो जाती है। और फिर एक नई यातना की कहानी का जन्म होता है। आखिर कब तक? और कितनी बेटियों की बलि चढ़ेगी? क्या हमारा समाज कभी अपनी सोच बदलेगा? बेटियाँ जो किसी का अभिमान, किसी के माथे का तिलक बन गौरव व साहस का नया इतिहास लिख सकती हैं,उन्हें प्रताडऩाओं के दौर से कब तक गुजरना पड़ेगा। उन्हें ईमानदारी, और दृढ़ संकल्पों के साथ शिक्षित और जागरूक बनाने की ठोस कोशिश क्यों नहीं होती? कितने ही बलिदानों, संघर्षों, से प्राप्त आजादी को हमने कुछ सत्ता लोलुपों के हाथ का खिलौना बना दिया, वे देश के भविष्य से खेलते रहे। संविधानो कानूनों, न्याय और प्रगति के नाम पर आधी आबादी के भाग्य का फैसला सुनाते  रहे, परदे के पीछे से घिनौना खेल खेलते रहे पूरा देश देखता रह गया। न्याय की लम्बी लड़ाई और दोषियों को सजा दिलाने के लिए सविधान के पृष्ठ खँगाले जाते रहे। महिलाओं ने खुद को ठगा सा महसूस किया लेकिन उन नर पिशाचों का हृदय न पसीजना था न पसीजा, क्या हम आदिम युग की और बढ़ रहे हैं? आजादी मिले वर्षों बीत गए समय बदला युग बदले कामना तो यही की थी मनुष्यता के पक्षधरों से उनकी सोच। विवेक, बुद्धि का विकास होगा। मानवता के नये आयाम स्थापित होंगे। शिक्षा होगी तो अन्तश्चेतना का भी उत्कर्ष होगा। पर कितना दु:ख होता है ये पंक्तियाँ लिखते हुए की परिवर्तनों के दौर से गुजर कर भी शिक्षित होते हुए भी हमने कू्ररता संवेदना और नृशंसता  की सारी  वर्जनाएँ सीमाएँ तोड़ दी हैं। महिलाओं के साथ पशुओं जैसा आचरण करने वाले  जरा अपनी भावी पीढ़ी के विषय में भी सोचें उनका कल क्या होगा? उनकी बहू - बेटियाँ भी यदि इन दुष्कृत्यों का शिकार हुईं तो उनके आँसुओं का वे क्या जवाब देंगे, हर महिला माँ है, बेटी है, बस एक बार सोच कर देखें हम आवाज उठाते रहे जुल्म के खिलाफ नारी अस्मिता के लिए पर कहाँ  खो हो जाती हैं वे आवाजें? सत्ता बहरी है या समाज? कहाँ जाएँ महिलाएँ -बेटियाँ,! क्या एक बार फिर विध्वंशकारी क्रांति की प्रतीक्षा है। समाज को जब सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो केवल मौन ही शेष  रह जायेगा! पहले विदेशियों, अंग्रेजों से संघर्ष था, पर आज अपनों से है, अपनों से अपनों का यह युद्ध ज्यादा कठिन है, शक्ति की नियंता रही है। नारी जीवन के संघर्षों में आज भी भारतीय नारी ने हार नहीं मानी है। अपनी प्रगति के रास्ते  खुद तलाशे हैं, भारतीय नारी ने सपने भी देखें हैं तो अपने नीद की सुख छाँव में, अपनों के बीच न की उसे तोड़ कर, विच्छिन्न कर, वही हमारी संस्कृति की पहचान है। यदि वही पुन्य सलिला नारी हमारे समाज में पद दलित होती है तो यह लज्जाजनक और हमारी संस्कृति का अपमान है। और एक पददलित संस्कृति कभी किसी समाज को विकास का मार्ग नहीं दिखा सकती। हमें अपनी सोच को उदार बनाना होगा, दहेज, हत्या, भ्रूण-हत्या जैसी बुरायों को जड़ से मिटा कर एक नया आसमान बनाना होगा। जो हमें सुख की छाँह दे सके।
आज के सामाजिक परिवेश और पुराने, रुढिय़ों में जकड़े गुलाम मानसिकता वाले चंद मठाधीशों के बीच की सामाजिक स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं है, बस संघर्ष के दायरे बदल गए हैं, अब वह घर आँगन से निकल कर विभिन्न क्षेत्रों, महत्वाकांक्षाओं, बौद्धिक धरातलों तक फैल गया है, चुनौतियाँ बड़ी हैं, पीढिय़ों की सोच को बदलने के लिए बहुत कुछ अभी किया जाना, लिखा जाना बाकी है, प्रयास करते रहना है कि हम उनके साथ न्याय कर सकें, आजादी के वास्तविक अर्थ को समझने की जरूरत है, आजादी सबके हित में हो, समान वर्ग, लिंग, जाति  की विभिन्नताओं से परे हो। लेकिन महिलाओं की आजादी का अर्थ उन्मुक्तता नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना हो  तभी वह अपना आसमान खुद बना पायेगी हम सभी जानते हैं की  जीवन के अरण्य  में नारी शीतल सुखद मलय बयार है जो संघर्षों, मुश्किलों, पीड़ा व वेदना के अनगिनत थपेड़े सहकर भी जीती है तो परिवार के लिए, घर आँगन की मंगल कामना में ही जीवन का सार समझती है। वह कभी अलग नहीं होती अपनी पारिवारिक धुरी से पर जब चुनौतियाँ सामने हों तो वह न हारती है न झुकती है। पर जब टूटी है तो प्रलय ही आई  है, वह ममता है, मान है, शृंगार है, प्रेम है, क्या-क्या न कहें। बस थोड़ा सा स्नेह दें और अमृत की मिठास जीवन को सुरभित बना जाएगी, हम नारी के सम्मान की रक्षा करें तभी हमारी विश्व प्रसिद्ध संस्कृति जीवित रह पागी।

लेखक के बारे में- शिक्षा- एम.ए- हिंदी प्रकाशन- कादम्बिनी, परिकथा, वर्तमान साहित्य, जटायु, स्वर मंजरी हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, दैनिक भास्कर आदि अनेक राष्ट्रीय  व स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, कहानी संग्रह- साँझ का सूरज, काव्य संग्रह- सपनों के वातायन कहानी संकलन -पठार  की खुशबू झारखण्ड की पच्चीस महिला साहित्यकारों की कहानियाँ, काव्य संकलन जोदिल में है- झारखण्ड की पच्चीस महिला कवयित्रियों  की कविताएँ, साहित्यिक सम्बन्ध- बहुभाषीय साहित्यिक संस्था- सहयोग एवं अक्षर कुम्भ से सम्बद्ध
सम्पर्क: जमशेदपुर-झारखण्ड, Email- padmasahyog@gmail.com

बेटियाँ

बेटियाँ

- संजय वर्मा

नन्ही हथेली में
पकडऩा चाहती है चाँद को।
जिद्दी करके
पाना चाहती है चाँद को।
छुप जाता है जब
माँ को पुकारती पाने चाँद को।
थाली में पानी भरकर
परछाई से बुलाती माँ चाँद को।
छपाक से पानी में
हाथ डाल पकडऩा चाहती चाँद को।
छुपा-छाई खेलते हुए
बिटियाँ पा जाती है चाँद को।
चाँद तो अब भी है आकाश में
बिटियाए कम हो गई पाने चाँद को।
खो गई है बेटियाँ
माँ कैसे कहे ये बात चाँद को।


सम्पर्क-125, शहीद भगत सिंग मार्ग
मनावर जिला -धार (म.प्र.)
Email- antriksh.sanjay@gmail.com

आलेख

महिला प्रधान थारू समाज
अब सत्ता पुरुषों के हाथ

-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र

भारत-नेपाल सीमा पर उत्तर प्रदे के दुधवा नेनल पार्क के सघन वन आगो में आबाद आदिवासी जनजाति थारू का समाज कहने के लिए महिला प्रधान है, किन्तु हकीकत में पितृ प्रधानता के कारण सत्ता पुरुषों के हाथों में रहती है, और वह अपनी हुकूमत चलाते हैं। इसके कारण थारू महिलाएँ हाड़तोड़ मेहनती कृषि कार्यो को करने के साथ ही पारिवारिक जीवन-निर्वहन के लिए घरेलू कार्य भी करती हैं। इसका मुख्य कारण है अशिक्षा और जागरूकता का अभाव। महिला उत्थान के लिए चलाई जाने वाली सरकारी योजनाएँ कागजों में सिमटती रही हैं। इसके कारण उनका समुचित लाभ न मिलने से थारू समाज की महिलाओं की स्थिति दयनीय ही बनी हुई है, और प्रथम पायदान पर होने के बाद भी वह दोयम दर्जे का नारकीय जीवन गुजार रही हैं।
भारत-नेपाल सीमा पर तराई के जनपद लखीमपुर के दुधवा नेशनल पार्क के सघन वन क्षेत्र के लगभग चार दर्जन छोटे-बड़े गाँवो के साथ ही उत्तर प्रदे के जिला बलरामपुर एवं गोंडा और उत्तराखंड के कई जिलों में भी आदिवासी जनजाति थारू निवास करते हैं। भारत का तराई क्षेत्र मित्र देश नेपाल की सीमा से सटा होने के कारण नेपाल के सीमावर्ती इलाका में भी थारू जनजाति निवास करती है। इससे इनके बीच में बना बेटी और रोटी का सामाजिक रिश्ता अनादि काल से चला आ रहा है। भारत-नेपाल सीमा पर रहने वाले यह आदिवासी जनजाति थारू अपने को राजस्थान के मेवाड़ शासक महाराणा प्रताप सिंह का वंशज बताते हैं। थारू महिलाओं के कपड़ों, उनकी भेषभूषा एवं जेवरात की बनावट और पहनावा से राजस्थानी संस्कृति की झलक उनमें मिलती जुलती है।  आदिवासी जनजाति थारूओं में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार वर्षों पूर्व महाराणा प्रताप सिंह और मुगल बादशाह औरंगजेब से कई महीनों तक घमासान युद्ध हुआ था। इस लड़ाई के दैारान महाराणा प्रताप सिंह को जब अपनी पराजय का एहसास होने लगा था, तब उन्होंने मुगल सैनिकों के जुल्मों से बचाने के लिए रानियों समेत राजघराने की महिलाओं और बच्चों को सेवकों के साथ किले से सुरक्षित रवाना कर दिया था। महाराणा प्रताप सिंह की मौत के बाद असहाय रानियाँ और सेवक भटकते हुए नेपाल और भारत के इस तराई क्षेत्र में आ गए और घने जंगलों में आशियाना बनाकर आबाद हो गए। कालान्तर में इनके बीच हुए सम्बन्धों से जनसंख्या और आबादी का विस्तार होता चला गया। इन महिलाओं का वंशज राजघराना होने से शायद यही कारण है कि थारू समाज में महिला को रानियों वाला उच्च स्थान प्राप्त है। एक प्रचलित प्रथा के अनुसार पुरुषों को रसोई की सीमा में आना या भीतर घुसना वर्जित है, वह भोजन करने के लिए थाली लेकर रसोईघर के बाहर बैठ जाते हैं। स्त्रियाँ रोटी बनाती हैं और अंदर से रोटी फेंककर उन्हें देती हैं। इस तरह का भोजन करने से थारू पुरुष किसी प्रकार का अपमान नहीं मानते हैं। रसोईघर के बाहर बैठकर भोजन करना और रोटी फेंककर क्यों दी जाती है, यह भी उनको नहीं मालूम है। ग्राम गोलबोझी की किरन देवी ने कारण पूछने पर मासूमियत से बताया कि हमने तो अपनी माँ से इसी तरह रोटी फेंककर देते देखा था। हम भी उसी तरह रोटी फेंककर देते हैं।
थारू समाज की महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अत्यधिक मेहनती और कर्मठ होती हैं। पारिवारिक जीवन में बच्चों का पालन पोषण करना, खाना पकाने के साथ-साथ जंगल से लकड़ी लाना, पालतू पशुओं के लिए चारा की व्यवस्था करना एवं खेतों में मेहनत से काम करना इनके जिम्मे होता है। और यह सभी काम पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाती भी हैं। इस बीच मौका लगने पर तालाब से मछली का शिकार करना थारू महिलाओं का प्रिय शौक है जिसे पूरा करने के लिए यह दिन में समय निकाल ही लेती है। थारू समाज के पुरुषों में शराब पीने की आदत इनको आलसी और कामचोर बनाती है, ये अपना अधिकांश समय इधर-उधर घूमने या शराब पीने अथवा मटरगश्ती करने में व्यतीत करते हैं। बदल रहे समय के साथ थारू समाज में भी बदलाव आया है, इसके बाद भी आदिवासी जनजाति थारू क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है, इसीलिए थारूओं में तमाम कुरीतियाँ भी मौजूद हैं। इनमें मुख्य है दहेज प्रथा, पहले कभी यह कुरीति नाममात्र को ही दिखाई देती थी; परन्तु आधुनिकता की बयार ने दहेज को स्टेटस सिंवल बना दिया है, थारू परिवार अब बढ़ चढ़कर दहेज लेने देने लगे हैं। जनजाति क्षेत्र में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण परम्परागत ढंग से पुरखों से मिली झाड़-फूँक की तंत्रविद्या से बीमारियों का इलाज करते हैं। इसके लिए बाकायदा गाँव में लोगों का झाड़-फूँक से इलाज करने वाला एक भर्रा भी रहता है, जो अपनी सिद्धि और मंत्रों से सामान्य के साथ गंभीर लाइलाज बीमारियों का इलाज टोना टोटका से करता है। समाज में फैले इस अंधविश्वास के कारण अक्सर गंभीर बीमारियों से ग्रस्त महिलाओं और बच्चों की असमय मौत तक हो जाती है।
आदिवासी जनजाति की महिलाओं को समाज में उच्च स्थान हासिल होने के बाद भी सत्ता पुरुष के हाथों में रहती है और वह अपने परिवार पर हुकूमत अपनी चलाते हैं। आजाद भारत में थारू समाज की न्याय व्यवस्था में सामाजिक फैसले गाँव की पंचायत में होते हैं। थारूओं में प्रेम विवाह करने का प्रचलन है। थारू युवती को मनचाहे युवक से विवाह करने की आजादी हासिल है। लेकिन गैर थारू युवक के साथ थारू युवती को प्रेम करना वर्जित माना जाता है। इसके अतिरिक्त शादीशुदा महिला अगर किसी अन्य युवक से प्रेम करती है और इसकी जानकारी परिजनों को हो जाती है तो पंचायत में महिला के प्रेमी पर सामाजिक तौर पर आर्थिक दण्ड लगाकर उससे जुर्माना लिया जाता है। इस व्यवस्था में तलाक की गुंजाइश बहुत कम होती है, इसके बाद भी अगर महिला का पति जिद्द करके तलाक यानी छुड़ौती करना ही चाहता है, तो पंचायत उस महिला का उसके प्रेमी के साथ विवाह करा देती है। इसके एवज में विवाह करने वाला व्यक्ति इससे पहले महिला की शादी में हुआ पूरा खर्च महिला के पूर्व पति को देना होता है। उन्नति और विकास की फैली किरणों के कारण अब आदिवासी जनजाति थारू क्षेत्रों में जागरूकता बढ़ी है। सामाजिक फैसलों के अलावा पंचायत में होने वाले जमीनी विवाद आदि मामलों के फैसले अब पुलिस और कोर्ट में होने लगे हैं। इसके बाद भी यह थारू समाज की एक अच्छाई ही कही जाएगी कि गंभीर अपराधों की संख्या लगभग नगण्य ही है।
महिला सशक्तीकरण के दावे थारू समाज की महिलाओं के लिए बेमानी हैं। और अशिक्षित महिलाओं की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। महिलाएँ पूरी तरह से अपने हक और अधिकारों से परिचित नहीं हैं, इसके कारण घर की चहारदीवारी के अंदर वह अपना परम्परागत घरेलू जीवन गुजारती हैं। इससे महिलाओं की स्थिति दयनीय बनी हुई है। यद्यपि आरक्षण के चलते थारू महिलाएँ ग्राम प्रधान के साथ क्षेत्र और जिला पंचायत की सदस्य भी बन रही हैं, लेकिन प्रधानी की बागडोर महिलाओं के पति के हाथ में रहती है अथवा उनके करीबी नाते रिश्तेदार गाँव की प्रधानी चलाते हैं। इस तरह कठपुतली बनी थारू महिला प्रधान अपना सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन का बखूबी निर्वाहन करती हैं। हालाँकि थारू समाज की तमाम युवतियाँ पढ़-लिखकर शिक्षामित्र और टीचर भी बन गई हैं यहाँ तक अब वह सरकारी नौकरियाँ कर रही हैं। इसके बाद भी वह अथवा उनके परिवार की युवतियाँ प्राचीन परम्पराओं की वर्जनाओं को तोडऩे में अक्षम हैं। इन सबके बीच में तमाम गरीब थारू परिवार ऐसे भी हैं जो चाहते हुए भी अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने में असहाय हैं। इन गरीब परिवारों की लड़कियाँ और महिलाएँ आज भी खेतों में मेहनत मशक्कत वाला कमरतोड़ काम करने को विवश हैं और घर की चाहरदीवारी के पीछे सामाजिक परम्पराओं की डोर में बँधकर रहने के लिए मजबूर हैं। इनके लिए सरकार द्वारा उच्च शिक्षा की व्यवस्था उनके घर के आस-पास ही करा दी जाए और उनकी जागरूकता के गम्भीर सार्थक प्रयास किए जाएँ तो शायद तमाम गरीब थारू परिवार की युवतियाँ प्रगति की मुख्य धारा में शामिल होकर अपना भविष्य सँवार सकती हैं।

आधुनिकता की बयार ने बदल दी थारूओं की होली
उत्तर प्रदेश के भारत-नेपाल सीमा पर आबाद आदिवासी जनजाति थारू क्षेत्र में भी आधुनिकता की चल रही बयार की छाप थारू संस्कृति पर भी पड़ गई है। इसके चलते भोले-भाले एवं सरल स्वभाव के लिए मशहूर थारूओं के परिवारों में भी विघटन की खाइयाँ पडऩे लगी हैं। परिणाम स्वरूप आपसी प्रेम, भाईचारा व सौहार्द के साथ थारूओं में पंद्रह दिनों तक मनाया जाने वाला होली का त्योहार धीरे-धीरे औपचारिकता का चोला धारण करने लगा है। बुजुर्ग थारू अपने जमाने की होली के किस्से कहानियाँ सुनाते हुए नहीं थकते हैं।
भारत नेपाल सीमा पर दुधवा नेशनल पार्क के सघन वनक्षेत्र में रहने वाले आदिवासी जनजाति के थारूजन अपने को महाराजा राणा प्रताप सिंह का वंशज बताते हैं। थारूओं में रंगों का त्यौहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। होली से सात दिन पहले पूजा करने के साथ होलिका की स्थापना कर दी जाती है। इसके बाद से प्रतिदिन युवक युवतियाँ ग्राम प्रधान या भलमानसा के घर आँगन में होली लोकगीतों को गाते हुए सामूहिक नृत्य करते हैं। उधर थारूक्षेत्र में पहुँचने वाले सरकारी अमले समेत नागरिकों को रोककर मनुहार के साथ फगुवा मांगते हैं तथा प्रेम के साथ रंग डालकर होली का प्रचलन होली के बाद तक भी है। होली के दिन पूरा गांव एक स्थान पर एकत्र होता है परंपरागत ढंग से सभी देवी देवताओं का आवाहन करके होली की पूजा करने के बाद होलिका को जलाया जाता है। कीचड़, गोबर के साथ रंगों से होली खेली जाती है। शाम को ग्राम प्रधान सभी को गांव के दक्षिण लगभग एक किमी दूर ले जाता है यहाँ पूजा होती है फिर पीछे घूमकर न देखने की हिदायत देता है। माना जाता है कि दौड़कर गाँव जाते समय पीछे घूमकर देख लेने से बलाएँ साथ-साथ घर पहुँच जाती है। थारूओं में होली के दिन साली अपने जीजा के घर जाकर फगुवा माँगती है तथा परम्परा के अनुसार जीजा को अपने घर आने का न्योता भी देती है। होली मिलन का कार्यक्रम सात दिन तक मौज मस्ती के साथ चलता रहता है।
आधुनिकता की दौड़ में चल रही बदलाव की बयार ने अब बदल रहे जमाने के साथ ही थारूओं में भी उनकी संस्कृति की प्रचीन परम्पराएँ टूटने लगी हैं। आपसी भाईचारा और परस्पर प्रेम के बीच खाइयाँ बढ़ी हैं और परिवारों में विघटन की दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। सीधे-साधे सरल थारूओं के स्वभाव में परिवर्तन आ गया है तथा खेती किसानी करके जीविका चलाने वाले थारूजन उन्नति के पायदान पर चढ़ते हुए बिजनेसमैन बन ही गए हैं साथ में अच्छे पदों की सरकारी नौकरियाँ भी कर रहे हैं। आधुनिकता की चल रही बयार की चपेट में आ जाने से होली जैसे पावन त्योहार के भी मायने बदल गए हैं। इससे होली भी अब औपचारिक ढंग से मनाई जा रही है साथ ही बढ़ती महँगाई ने भी होली के त्योहार पर बुरी तरह से असर डाला है। परिणाम स्वरूप पुरानी मान्यताएँ तथा परम्पराएँ इतिहास बनने की कगार पर पहुँच गई हैं। बदले परिवेश की चर्चा करने पर बुजुर्गवान थारू अपने जमाने को होली के रंग बिरंगे किस्से कहानियाँ अतीत से ढूँढकर सुनाते हैं और मायूसी में वह कहते हैं कि भया सबकुछ बदल गया है नई पीढ़ी परम्पराओं पर चलने को तैयार नहीं है आने वाले दिनों में हमारे साथ ही थारू संस्कृति के पुराने रीति रिवाज भी दफन हो जाएँगे।

सम्पर्क-  नगर पालिका काम्पलेक्स पलियाकलाँ, लखीमपुर-खीरी (उ,प्र,)
262902, मो.9415166103, Email- dpmishra7@gmail.com