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Oct 20, 2014

मुमकिन है....स्वच्छ भारत का सपना

मुमकिन है....स्वच्छ भारत का सपना
     -डॉ. रत्ना वर्मा
सपना देखना अच्छा होता है डॉ. अब्दुल कलाम कहते भी हैं कि जो सपने देखते हैं वही उसे पूरा करने का प्रयास करते हैं। ऐसा ही एक सपना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों को दिखाया है- उन्होंने 2 अक्टूबर गाँधी जी की जयंती के दिन स्वच्छ भारत का अभियान छेड़कर एक नई मुहिम की शुरूआत कर दी है। गाँधी जी स्वच्छता को भगवान की पूजा की तरह मानते थे और वे चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति स्वच्छता को उसी तरह अपने जीवन का हिस्सा बनाए.... अब मोदी जी किस तरह भारतवासियों के मन में स्वच्छता को भगवान की तरह पूजना सिखा पाएँगे, यह आगे उनकी बनाई जा रही योजनाओँ पर निर्भर करेगा कि वे 2019 तक गाँधी जी की 150 वीं जंयती पर भारत को स्वच्छ भारत बना पाते हैं या नहीं ।
पर उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए,खासकर जब कोई मिशन देश की भलाई के लिए हो- हाँ इसके लिए यह जरूरी है कि सरकार और प्रशासन को कई स्तरों पर बहुत ज्यादा प्रयास करना होगा ; क्योंकि भारत स्वच्छता के मामले में आजादी के बाद से अब तक कभी भी गंभीर नहीं हो पाया, न सरकार , न जनता। अब यदि मोदी जी के आह्वान पर देश जागता है तथा निजी और सरकारी स्तर पर सफाई की दिशा में हम भारतवासी गम्भीर होते हैं ; तो हमारे देश की बहुत सारी समस्याओं का समाधान निकल आएगा।
अब नरेन्द्र मोदी यदि विदेशों की सफाई व्यवस्था को भारत में लागू करना चाहते हैं , तो सबसे पहले उन्हें यहाँ के सफाई प्रबन्धन को भी विदेशों की तरह बदलना होगा। जो यहाँ के हालात के आधार पर फिलहाल तो संभव नहीं है ; क्योंकि एक अमीर देश और एक गरीब देश की सफाई प्रबन्धन व्यवस्था में जमीन आसमान का अन्तर होता है- वहाँ भारत की तरह झोपड़पट्टी में रहने वाले गरीब नहीं होते ,न वहाँ रेलवे प्लेटफार्म और बस अड्डे को, अपना घर छोड़कर दो जून की रोटी कमाने आए लोग रात्रि विश्राम का आशियाना बनाते, और न ही वहाँ सिवरेज व्यवस्था ऐसी होती कि एक बारिश में नालियों का गंदा पानी सड़क पर आ जाए। विकसित देशों की सफाई व्यवस्था की बात करें , तो वहाँ प्रत्येक सावर्जनिक स्थल पर जगह- जगह डस्टबि होते हैं। सड़कों पर कोई कचरा नहीं फेंकता, यदि कोई भारतीय भी वहाँ जाता है ,तो उसकी भी हिम्मत नहीं होती कि कहीँ भी वह थूक दे या कागज का कोई टुकड़ा इधर- उधर डाल दे। वहाँ के घरों का कचरा उठाने की साप्ताहिक व्यवस्था होती है। घर का कचरा प्रतिदिन बाहर रखे दो बड़े डस्टबिमें इकट्ठा किया जाता है एक में रिसाइकिल होने वाला कचरा और दूसरे में सब्जी भाजी और अन्य घरेलू कचरा।  फिर निर्धारित दिन उन दोनों डस्टबि का कचरा प्रति सप्ताह कचरा उठाने वाली गाड़ी ले जाती है।
यहीं पर मैं भारत में सफाई व्यवस्था को लागू नहीं कर सकते, कहने वालों से पूछना चाहती हूँ कि अब भारतीय भी मॉल संस्कृति के आदी हो गए हैं और आप सब जानते हैं कि हम मॉल में पहुँचकर एक अलग ही प्रकार के भारतवासी और सड़क या रेलवे स्टेशन में पहुँच कर अलग ही नागरिक क्यों बन जाते हैं? मानों हम भारत नहीं विदेश की धरती पर पहुँगएमॉल में पहुँच कर यदि हमें कुछ फेंकना होता है, तो डस्टबि ढूँढ़ते हैं। यही नहीं मॉल में 24 सो घंटे सफाई कर्मी आगे पीछे घूमते रहते हैं कहीं कचरे का टुकड़ा दिखा नहीं कि तुरंत कचरा उठाया और गायब। और हम शर्मिन्दा होते हैं कि हमसे कचरा गिराने की गल्ती हुई तो कैसे हुई। यह शर्मिंदगी सड़क पर कचरा फैलाते समय नहीं आती क्यों? प्रश्न यह उठता है कि कि यह दोहरी मानसिकता क्यों? हम यही मानसिकता सड़कों पर चलते समय, बस स्टेंड में, रेल्वे स्टेशन में, सरकारी अस्पताल में या सरकारी दफ्तरों में क्यों नहीं अपनाते?
यह अलग बात है  कि हमारे देश में भी चाहे गरीब हो या अमीर अपनी  और अपने घर की  स्वच्छता को सब गंभीरता से लेते हैं। पर यह भी सत्य है कि जिस कचरे को हम भारतवासी घर में एक दिन भी रखना पसंद नहीं करते, उसे सड़क के किनारे या नालियों में डाल कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं।  शासकीय कार्यालय हो, सार्वजनिक जगह हो, बाजार हो, अस्पताल हो, रेलवे स्टेशन हो या बस स्टैंड, इन जगहों को गंदा करना, इनके हर कोने में पान की पीक थूकना या कूड़ा फेंकना हम अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।
भारत में भी अधिकतर मेट्रो शहर में घरों से कचरा उठाने की व्यवस्था रहती है- नगर निकाय यह व्यवस्था करता है। कहीं- कहीं निजी कम्पनियों को कचरा प्रबन्धन का ठेका दिया जाता है। लेकिन पूरे शहर का कचरा तब भी वह नियमित नहीं उठा पाते। नतीजा नालियाँ पॉलीथीन से पट जाती हैं सड़कों के किनारे रखे डस्टबि इतने ओवरलोड हो जाते हैं कि चलने के लिए जगह ही नहीं बचती। कर्मचारियों की हड़ताल है तो घरों का कचरा सड़क किनारे आ जाता है ; क्योंकि घर के अंदर सड़ा हुआ कचरा कोई कब तक रख पाएगा। यानी कि समस्या ही समस्या... जिसका कोई अंत नहीं।
अब चूँकि ऐसी ही समस्याओं का अंत करने के लिए पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने मुहिम छेड़ी है, तो उम्मीद की किरण तो नजर आती है। मोदी जी ने प्रत्येक व्यक्ति को हर वर्ष 100 घंटे यानी हर सप्ताह 2 घंटे श्रमदान करने के लिए के लिए कहा है। हर भारतीय नागरिक चाहेगा कि भारत को भी स्वच्छ देश की श्रेणी में रखा जाए। वह श्रमदान करने को भी तैयार है ,बस हमें सिस्टम को सुधारना होगा। देश से कचरा साफ करने के साथ साथ देश से भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद तथा और कई वादों को भी साफ करना होगा.. और 2019 तक इसका हल निकाल कर दिखा देना है कि हमारा देश सभी मामलों में एक स्वच्छ देश है। सत्यमेव जयते में आमीर खान की तरह हम सबको अब हर दिन कहना होगा मुमकिन है....
हम भी थोड़े प्रयास से अपने शहर को, अपने अस्पताल को, अपने रेल्वे स्टेशन को स्वच्छ रख सकते हैं। जब भारत के मॉल स्वच्छ रह सकते हैं, निजी अस्पताल और निजी कम्पनियाँ अपने फिस को स्वच्छ रख सकते हैं, निजी स्कूल साफ सुथरे हो सकते हैं, तो सरकारी दफ्तर, सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल को साफ क्यों नहीं रखा जा सकता।यह सब कैसे मुमकिन हो यही हल तो ढूँढ़ना है- प्लास्टिक की बोतल, पॉलीथीन, जो हमारे पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह है, उसकी व्यवस्था करनी होगी। अभी अभी हमने गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा का पर्व मनाया है – पर पूजा के नाम पर मंदिर परिसर में पॉलीथीन का जाल फैला दिया, इकोफ्रेन्डली गणेशोत्सव और दुर्गा उत्सव मनाने की बात तो हम करते है; पर कथनी और करनी में कितना अंतर है ,यह उन नदियों में जाकर देख सकते हैं; जहाँ इन मूर्तियों को विसर्जित किया गया है। ऐसी बहुत सारी बातें हैं, जो हम बरसों से कहते चले आ रहे हैं कि हमें ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए, पर स्थितियाँ सुधरने की बजाय बिगड़ती ही चली जा रहीं हैं। इस बार जो बात हुई है वह हर बार से अलग हुई है और वह है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 2 अक्टूबर गाँधी जयंती के दिन हाथ में झाड़ू लेकर सड़कों पर निकल आना और देशवासियों से स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने के लिए आह्वान करना... दीपावली का समय है ही सब अपने अपने घरों को तो साफ सुथरा बनाने में लगे ही हुए हैं क्यों न इसी के साथ देश को भी स्वच्छ रखने का संकल्प लें।
तो आइये सब अपना पहला कदम पढ़ाएँ नामुमकिन को मुमकिन करने की दिशा में...


दीपावली की शुभ मंगल कामनाओं के साथ...

2 comments:

Subhash Chandra Lakhera said...

महोदया,
नमस्कार !
आपकी सम्मानित मासिक पत्रिका " उदंती " के सितंबर -अक्तूबर,
2014 अंक में ' अनकही ' के अंतर्गत आपका
संपादकीय " मुमकिन है.......स्वच्छ भारत का सपना " सामयिक है और आपने पाठकों के सामने इस विषय के महत्त्व को सरल शब्दों में प्रस्तुत किया है ये कैसा विकास है ! " इस अंक में प्रकाशित अन्य सभी रचनाएं भी इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि आप रचनाओं का चयन देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार करती हैं। " बेअसर होती एंटीबायोटिक दवाएँ ",
" बचपन और बालिका शिक्षा के लिए नोबेल ", लोक साहित्य में पर्यावरण चेतना " तथा दीप पर्व से जुड़ी सभी रचनाएं समयानुकूल हैं। हाइकु में दीपावली से जुड़ी मेरी रचनाओं को स्थान मिला है। मुझे अच्छा लगा। आशा है आपके मार्गदर्शन
में ' उदंती ' इसी प्रकार से पाठकों के लिए उपयोगी और रोचक बनी रहेगी।

सादर,
सुभाष लखेड़ा
पता : सी - 180 , सिद्धार्थ कुंज, सेक्टर - 7, प्लाट नंबर - 17 ,
द्वारका, नई दिल्ली - 110075 .

baliram singh said...

sabhi apni duty samjhe, to sakar ho jayega ye sapna