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Oct 22, 2013

उदंती.com - अक्टूबर- नवम्बर - 2013


उदंती.com - अक्टूबर- नवम्बर - 2013

जो दूसरों के जीवन के अँधकार में
सुख का प्रकाश पहुँचाते हैं
उनका इस संसार से कभी नाश न होगा
वे अमर हैं।      
                      -स्वेट मार्डेन 




 विज्ञान: टेस्ट ट्यूब शिशु...- डॉ. अरविन्द गुप्ते

आवरण चित्र- बसंत साहू
इस माह उदंती के मुख पृष्ठ पर प्रकाशित चित्र संवेदनशील कलाकार बसंत साहू के चित्र-संग्रह में से लिया गया है। लोक संस्कृति में रचे-बसे उनके कई चित्रों को आप उदंती के इस अंक में अन्य लेखों के साथ भी देख सकते हैं। पढिय़े उनकी चित्रकला और उनके जीवन से जुड़े संघर्षों की कथा यात्रा-
 कलाकार: जीवन में रंग भरते बसंत साहू के चित्र

आस्था का उजाला

आस्था का उजाला
 - रत्ना वर्मा
पर्व-त्योहार हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं जैसे दीपावली, दशहरा, गणेश चतुर्थी, नवरात्र आदि। जिसमें हमारी धार्मिक आस्था भी जुड़ी हुई है।  देवी- देवताओं वाले देश में उनके प्रति विश्वास ने गहरे तक हमारे दिलों में जड़ें जमा ली हैं, जिसके चलते भक्तजन अपने दुख -दर्द का निवारण करने और जीवन में सुख शांति की आशा लिये सिद्ध स्थलों के द्वार तक बड़ी संख्या में मत्था टेकने पहुँचते हैं। एक वह भी समय था ,जब हमारे देश में इसी आस्था के सहारे बड़ी -बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी गईं और जो भारत को गुलाम बनाने वालों के विरुद्ध जनता को एकजुट करने और जनजागृति फैलाने का बहुत बड़ा माध्यम बना। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव को ऐसा स्वरूप दिया जिससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गए। उन्होंने पूजा को केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का जरिया बनाया और एक  जन-आंदोलन का स्वरूप दिया। यही नहीं ,इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन आज इन धार्मिक आस्था वाले पर्वों ने व्यापार का रूप अख़्तियार कर लिया है, आस्था का पूर्णरूपेण बाजारीकरण हो गया है, जिसकी दुःखद परिणति मध्यप्रदेश दतिया के रतनगढ़ में हुए भयानक हादसे जैसी दुर्घटनाएँ हैं। पिछले दिनों नवरात्र के दिन यहाँ मंदिर के बाहर श्रद्धालुओं के बीच फैली अफवाह के बाद मची भगदड़ में लगभग 115 लोगों की मौत हो गई। नवरात्र या इसी तरह के अन्य धार्मिक अवसरों पर देश भर में हजारों, लाखों की भीड़ हर साल एक जगह इकट्ठा होती है।  यह कोई पहला हादसा नहीं है, इस तरह की घटनाएँ अब आम हो चुकी हैं, लेकिन उसके बाद भी इन हादसों से बचने के लिए कोई पुख़्ता इंतज़ाम नहीं किया जाना पूरी तरह से प्रशासकीय खामी को उजागर करता है। हर बार की तरह सरकार ने मुआवज़े की रकम की घोषणा करके और दुर्घटना के कारणों की जाँच का आदेश देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली है।
अब जरा दशहरे के एक दिन पहले उड़ीसा व आंध्रप्रदेश में आए चक्रवाती तूफान फेलिन की ओर  देखते हैं। फेलिन प्रकृति जनित आपदा थी, लेकिन मौसम विज्ञान की आधुनिक तकनीक के जरिए उसके आने का पूर्वानुमान होने से प्रशासन पूरी तरह से तैयार था ; जिसके कारण उतनी उतनी भारी तबाही का सामना नहीं पड़ा और सैकड़ों लोगों की जान बचाई जा सकी।
 रतनगढ़ का हादसा और चक्रवाती तूफान दोनों हादसों की प्रकृति भिन्न- भिन्न थी ;पर रतनगढ़ हादसे से भी बचा जा सकता था ; यदि प्रशासन अपनी ओर से चाक- चौबंद रहता। रतनगढ़ में इकट्ठा हुई भीड़ अचानक आई भीड़ नहीं थी। शासन प्रशासन दोनों को यह पहले से मालूम है कि हर साल नवरात्र में यहाँ लाखों श्रद्धालु देवी के दर्शन करने आते हैं।
 हमारी भारतीय आस्था का इससे बड़ सबूत और क्या हो सकता है कि पहले दिन रतनगढ़ के जिस मंदिर में यह भयंकर हादसा हुआ था, उसके निशान अभी मिटे भी न थे कि आस्था का सैलाब दूसरे दिन भी उतनी ही तेजी से फिर उमड़ पड़ा। भक्त यह कहते हुए पाए गए कि जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है ,पर हमें तो देवी के दर्शन हर हाल में करना ही है। तो ऐसी आस्था वाले देश के सभी धार्मिक स्थलों में विशेष अवसरों पर पहले से कोई व्यवस्था नहीं की जाती ,यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है।
फेलिन तूफान के कहर को बेअसर करने में मिली सफलता और रतनगढ़ के हादसे में सौ से अधिक मौतों ने राज्यों में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की अहमियत साबित कर दी है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के अधिकारी फेलिन से निपटने का बड़ा श्रेय ओडिशा और आंध्र प्रदेश के राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए) को देते हैं , जबकि मध्य प्रदेश सरकार ने एसडीएमए बनाने की जरूरत ही नहीं समझी। इस संदर्भ में अन्य राज्यों को यह जान लेना होगा कि ओडिशा और आंध्र प्रदेश में मौजूद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने अपने राज्यों के अधिकारियों को मौसम विभाग की चेतावनी को गंभीरता से लेते हुए आपदा से निपटने की पूरी तैयारी कर ली थी। परिणाम सामने है कि 14 साल पहले जहाँ ओडिशा में तूफान से 10 हजार लोगों की मौत हुई थी, इस बार केवल दो दर्जन लोग ही इसके शिकार हुए।
 जाहिर है कि जो राज्य राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण गठित नहीं कर पाए हैं वे ऐसे हादसों की परवाह नहीं करते। इसका एक ताजा उदाहरण सामने है- इसी साल मई में मौसम विभाग और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की पूर्व चेतावनी के बावजूद उत्तराखंड सरकार आने वाली आपदा को समझ नहीं पाई। यही नहीं इतना बड़ा हादसा झेलने के चार महीने बाद भी उत्तराखंड में एसडीएमए का गठन नहीं हो पाया है। यह बात सिर्फ उत्तराखंड और मध्य प्रदेश पर लागू नहीं होती -हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, हरियाणा, केरल और तमिलनाडु जैसे एक दर्जन से ज्यादा राज्यों ने एसडीएमए का गठन नहीं किया है। वहीं, बिहार, ओडिशा, असम और गुजरात में न सिर्फ एसडीएमए बन चुका है, बल्कि बेहतर तरीके से काम भी कर रहा है।
जाहिर है खामियाँ हमारे स्वयं के भीतर है। जरूरत अँधकार की इस काली छाया से निकल कर उजाला फैलाने की है। प्रत्येक राज्य में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण गठित करने के साथ- साथ अब यह भी जरूरी हो गया है कि इस तरह के धार्मिक आस्था वाले स्थानों को संचालित करने वाले न्यास, संगठन या ट्रस्ट जो भी हो की भी उतनी ही जिम्मेदारी बनती है ; जितनी शासन प्रशासन की। उनके भक्त इतना चढ़ावा चढ़ाते हैं, उन पर सोने- चाँदी की बरसात होती है,क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे अपने भक्तों की सुरक्षा के प्रति गंभीर बनें। यह शासन की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे मंदिर, मस्जिद, मठों के प्रबंधकों के साथ मिलकर इस समस्या का निराकरण करें।
इन दिनों भारत में मानों अंध आस्था की आँधी- सी चल पड़ी है लोग ढोंगी बाबाओं के पीछे ऐसे भागते हैं ,मानों वही इनके दु:खहर्ता हैं, जबकि उनके काले धंधे एक के बाद एक उजागर होते चले जा रहे हैं और वे जेल की चक्की पीस रहे हैं। हमारे देश के हजारों लाखों धार्मिक संगठन जो बड़े बड़े मंदिर- मठो का संचालन करते हैं, जिनपर आम जनता आँख मूँदकर विश्वास करती है, अगर वे चाहें तो क्या नहीं कर सकते। जनता की जैसी भीड़ इन हादसे वाली जगहों पर जाती है ,वे ज्यादातर गरीब तबके की होती है, रोजी -रोटी जिनकी दिनचर्या होती है और भगवान से अपने उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना करने वह ऐसे स्थानों पर श्रद्धा के साथ पहुँचती है। जिस तरह लोकमान्य तिलक ने समाज में फैले छूआछूत को दूर करने और आजादी के लिए एकजुट करने में जनता की इस भीड़ को संगठित किया था, उन्हें आज भी समाज की बुराइयों के खिलाफ जागृत किया जा सकता है। आस्था और उत्सव के इन स्थानों को यदि हम बाजारवाद बनाते चले जाएँगे तो अंध श्रद्धा का सैलाब ही बहेगा।
... तो आइये इस दीपावली पर ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाले गणेश जी और समृद्धि की ज्योति जलाने वाली लक्ष्मी जी की आराधना करते हुए यह संकल्प लें कि वे हमारे दिलों से अंधविश्वास के अंधकार को मिटाने में हमारी सहायता करेंगे और हमें उजाले की ओर ले जाएंगे।

आप सबको दीपावली की शुभकामनाएँ।

                                                                       

लोक नृत्य और शास्त्र की कसौटी पर सुआ नृत्य

लोक नृत्य और शास्त्र की कसौटी पर  सुआ नृत्य   
-      श्यामलाल चतुर्वेदी
भारत में लोक साहित्य की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। आदि काल में जब प्रकृति के पालने में मनु के वंशजों ने, पुचकारने दुलारने के सिवाय अस्तित्व बनाए रखने के लिए जिन उपक्रमों को किया होगा ,तब से ही लोक साहित्य ग्रन्थों में लोक जीवन का वर्णन मिलना स्वयं सिद्ध करता है कि यह उनका अग्रज है। श्रुति और स्मृति ने लोक जीवन की चिरन्तन धारा को समय की सपाट मैदानी भूमि दी और व्यापक बनाया। मसि और कागद ने उसे बाद में सम्पादित किया और भावी पीढ़ियों के लिए पृष्ठ प्रदान किया। पृष्ठांकित पोथियों को पृष्ठभूमि प्रदान करने वाले लोक जीवन के अंगभूत ये लोक साहित्य, पर्वतों के सरिताओं के मानों समकालीन सहोदर हैं।
जन जीवन के दर्पण लोक साहित्य को गीत, कथा, नाट्य, नृत्य की प्राचीनता और अधिक मानी गई है। कहते हैं कि मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य में प्रकाशन के लिए शरीर के हाव -भाव का आश्रय लिया होगा। भाव -प्रकाशन की इन्हीं चेष्ठाओं के सार्थक मुद्राओं को भाषा ने नृत्य की संज्ञा दी है।
नृत्य के आदि देव देवाधिदेव शंकर कहे जाते हैं। किंवदन्ती है कि त्रिपुरासुर-वध करने के पश्चात् शिवजी नाचने लगे इसी से नृत्य कला की सृष्टि हुई। कैलाश पर्वत पर वास करना पसन्द करने वाले शिव पार्वती के इन अनुयायी वनवासियों के जीवन में फक्कड़पन, अल्पसंतोषी वृत्ति, निर्जन निवास, आशु तोषी स्वभाव, गम गलत करने के चाव के सिवाय नृत्यप्रियता सर्व विदित है।
मानव हृदय की, प्रकृत भावनात्मक तन्मयता की, तीव्रतम अवस्था को अभिव्यक्त करने में,लोक नृत्य का अपना विशिष्ट स्थान है। साधारणीकरण करने में इतना व्यापक है कि उसे समझने के लिए किसी बौद्धिक यत्न की आवश्यकता नहीं होती। इस साधारणीकरण का कारण मनुष्य के हृदय की रागात्मक प्रवृत्तियाँ है।
लोक नृत्य में वासना भी साधना बन जाती है। वासना को साधना में परिवर्तित करना, उसकी जीवन-गति और निश्छल-हृदय का द्योतक है। यह, प्रसिद्धि प्राप्त करने या धनापार्जन का जरिया नहीं, वरन् जीवन के आनन्द को बनाए रखने का साधन है इससे लोक-जीवन की निष्काम प्रवृत्ति का परिचय मिलता है।
भारत की विविधता में एकता के दर्शन कहीं के भी अबूझें स्वरों में मार्मिक स्पर्शन, अनजाने होते हुए भी अपनत्व के आकर्षण ये सब लोक संगीत के प्रिय प्रसाद है। इस प्रसाद से आत्मतुष्ट छत्तीसगढ़ भी संजीवनी थाती से अपनी पहचान बनाये रखने का सामर्थ्य सँजोए, विस्तीर्ण अंचल में कोकिल कंठ -स्वरों मांदर के मदिर निनादों के साथ मस्ती में होने वाले झंकारों से गुंजित रहता है।
छत्तीसगढ़ भारत के हृदय-स्थल के विस्तीर्ण वनांचल में स्थित, अनेक नद-नदियों के कल-कल ध्वनियों से निनादित अपनी लोक परम्परा से आपूरित आदिवासियों की भूमि है जहाँ ऐतिहासिक घटनाओं के साक्ष्य स्वरूप अनेक अवशेष अभी भी विद्यमान हैं। वनवासी बहुल इस अंचल में अपने आराध्य भोलेनाथ की अर्चना में अंगीकृत सुआ नृत्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह गउरा का एक अंग है।
गउरा याने गौरी और गौरा के विवाह का आयोजन प्रतिवर्ष किये जाने वाले इस समारोह के माध्यम से इन्होंने अपने आराध्य का मानवीकरण कर डाला है और सब मिलकर जैसे अपने किसी परिजन परन्तु पूज्य का वैवाहिक संस्करण कर पूजा में प्रसन्नता को पा लेते हैं। भोले के भक्तों को इसी में आनन्द है।
दिवाली या देवउठनी को प्राय: यह आयोजन किया जाता है। सात दिन पहले फूल कूचने की विधि होती है जिसमें सात प्रकार के फूलों को कुमार और कुमारी के हाथों कुचवा कर विवाह समारोह का शुभारंभ करते हैं। रात में  एकत्र  होकर होम धूप देते और गौरा गीत गाते हैं। मांदर के मदिर स्वराधान में शिव स्तवन श्रवणीय होता है जिसमें गउरी- गउरा का मानवीकरण उनकी आत्मीयता की प्रेमिल अभिव्यक्ति के निदर्शक है।
गउरा सहकारी संस्करण का सांस्कृतिक स्वरूप है। परिवार जाति समाज तथा गाँव की स्त्रियाँ स्वेच्छा से एक में सुआ (तोता) मृण्मयी मूर्ति लेकर अपने टोली में सुआ नाचने निकल पड़ती हैं। बनाव-सिंगार कुछ खास नहीं, धान की बालियाँ या गेंदे के फूलों को कानों में खोंस लिया, बहुत हुआ तो अपने पास नहीं होने पर पास पड़ोसिन की ककनी, कड़ा  रूपिया, करधनी लेकर घर जानकर आँगन के बीच सुआ को रखकर मँडलाकार हो गीत के साथ ताली बजाती हुए नाचने लगती हैं। नृत्य के उपलक्ष्य में उस घर से चावल, तेल और यथाशक्ति कुछ पैसा प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया जाता है। संगृहीत इन वस्तुओं का उपयोग गउरा में किया जाता है। 'एक सबके लिए और सब एक के लिए´  इस बोध वाक्य का अनादिकालीन आचरण गौरा में देखने को मिलता है।
सुआ गीतों में विविध भावों की मर्मस्पर्शी महक मिलती है। नारी जीवन की विवशताएँ, सास -ससुर के प्रताडऩा, ननद के नखरे, हिंसक पशु के हृदय -परिवर्तन,पति -वियोग की व्यथा, राजा का भगवान का मानवीकरण पक्षियों के कलरव, मायके जाने की आतुरता आदि अगणित पहलुओं के वर्णन से इसका अगाध भंडार भरपूर है। कितना है कौन कह सकता है?
सुआ को सम्बोधित कर ये नर्तकियाँ या गायिकाएँ कहिए अपने मन के मलाल को बखान देती हैं। सुअना से संदेश भिजवाने की प्राचीन परम्परा रही है। चन्दा ग्वालिन मुगल बादशाह के बन्दीगृह से अपने शरीर के मैल से सुआ बनाकर संदेश भिजवाती है और लोरिक सन्देश पाकर शीघ्र पहुँचकर बादशाह को अपने शौर्य से ठिकाने लगाता है। छत्तीसगढ़ की लोक भावना को प्रसारित कराने में सुआ का सहयोग सदा से रहता आया है यो तो सुआ सार्वदेशिक संदेशिया है।
इस नृत्यु-गीत में किसी वाद्य का प्रयोग नहीं किया जाता। आश्चर्य है गीत सब तालबद्ध हैं दीपचन्दी कहरवा और दादरा में न जाने कैसे बँध गये हैं निरक्षर भट्टाचार्य के अनगढ़न चाल में यह तालबद्धता? क्या खूब है।
हाँ तो आइए सुआ गीतों में वर्णित भावनाओं की रस धारा का आस्वादन करें और देखें कि कितनी गहराइयों तक इनकी पैठ है?
एक गीत में नारी जीवन की व्यथा -कथा, उनकी ही बोली में:
पइयां मैं लागौं चन्दा सुरूज के रे सुअना।
तिरिया जनम झनि देय।
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर
जहँ पठवय तहँ जाय।
अंगठिन मोरि -मोरि घर लिपवावँय
फेर ननंद के मन नहि आय।
बाँह पकड़ के सइयाँ घर लानय
फेर ससुर हर सटका बताय।
भाई ल दे हे रंगमहल दुमंजला
हमला तैं दिहे रे विदेस
पहली गवन करै डेहरी बइठारे
छोड़ि के चलय बनिजार।।
तुहूँ धनी जा था अनिज बनिज बर
कइसे के रइहौं ससुरार
सासे संग खाई बे ननद संग सोई बे
के लहुरा देवर मन भाय।
सासे डोकरिया मर हरजाही,
ननंद पठोबौ ससुरार
लहुरा देवर मोर बेटवा बरोबर
कइसे रइहौं मन बाँध।
दिन के देवता सूरज और राज के देव चन्द्रमा से तिरिया जन्म न देने की अत्यन्त दीनता से प्रार्थना करते हुए गाय जैसे परवशता की उपमा सांगोपांग है।
हरही के संग मा कपिला के विनाश इस लोकोक्ति की अन्तरकथा भारत के अनेक भाषाओं में वर्णित है। लोक धारा के अन्तर्प्रान्तीय प्रवाह में यह मिलता है जो कि भारतीय एकात्मता का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिंसक व्याघ्र के हृदय परिवर्तन की प्रेरक पंक्तियाँ इस प्रकार है:
आगू -आगू हरही पाछू-पाछू सुरही रे सुअना।
चले जाथें कदली कछार
एक बन जइहें दुसर बन जइहें
तीसरे म सगरी के पार।
एक मुँह चरिन दुसर मुँह चरिन
के बघवा उठे घहराय
रहा- रहा सिंघ मोर रहा- रहा बघवा
पिलवा गोरस देहे जाँव।
कोन तोर सखी, कोन तोर सुमित्रा
कउन ला देबे तैं रे गवाह।
चंदा मोर सखी, सुरूज मोर सुमित्रा
धरती ल दे हौ रे गवाह।
एक बन अइहें दुसर बन अइहें
तिसरे म गाँवे के तीर।
एक गली नाहकै दुसर गली नाहकै
तिसरे म जाइ औल्हियाय।
पिले रे पिले रे मोर भाँवर लेवाई
मोर दुधवा दुलम होइ जाय
आन दिन अवास दाई होंकरन चोकरत
आज दाई बदन मलीन।
आन दिन भेटौं में गाँवे गँवरसा म
आज भेटेंव कदली कछार
हरही के संग मा कपिला बिनासे
आज मोर होइस नास।
आगू -आगू हरही पाछू-पाछू सुरही
माँझे म पिलवा हर जाय।
एक बन नहक दुसर बन नहकैं
तिसर मा सगरी के पार।
सगरी के पारे म चन्दन के बिरछा
ओही मेर रहै रखवार।
रामे राम ममा जोहार मोर भाँचा
कइसे के मोर बहिनी खाँव।
इस अखिल भारत प्रचलित कथा को भादों बदि चौथ जिसे बहुला चौथ कहते हैं उस दिन उपवास करके श्रवण किया जाता हैं। उसमें यह भी उल्लेख मिलता है कि गाय के पीछे मालकिन मालिक अपने को गाय के साथ खा लेने की प्रार्थना करने वहाँ पहुँचते हैं। व्याघ्र के मन में गाय के वचन पालन की अनुपम घटना का गहरा प्रभाव पड़ता है कि ऐसे पुण्यात्माओं की अपनी पिपासा के लिए हत्या करना, महान पाप होगा। हिंसक पशु का हृदय परिवर्तन होता है और भाँजा बछड़े को अपने प्राण हरण का अनुरोध कर जीवन्मुक्त हो जाता है।
बुंदेलखंड में प्रचलित इस गाथा के पद इन शब्दों में बहुश्रुत है:
घरई से निकरी सुरहन गइया
चरन नंदन बन जायें हो माय
एक बन तांकी दुइज बन तांकी
तिज बन पोंची जाय।
चम्पा हो चरलई चमेली चरलई
चरलई सब फुलबार हो माय
जब मुख डारे नंदन बन बिरछा
सिंगा उठे हो गुंजारे हो माय
मोये जिन भकिये, सिंघ के बारे,
बछवा घर नादान हो माय
ओरी मैया, बछले दूध दिवांव हो माय।
इस कथा का कन्नड़ भाषा से प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक श्री राजाराव ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था जिसका पद्यानुवाद हिन्दी में करके श्री प्रभाकर माचवे ने महात्मा गाँधी को समर्पित किया। साने गुरुजी ने मराठी में इसके प्रचलन का उल्लेख सहायाद्रि में किया था। कथा-यात्रा की भारतीय व्यापकता, एकत्व का सत्यं शिवं सुन्दरं स्वरूप है।
एक पद्यांश देखिए:
सोने के मचिया म बइठे राजा दशरथ
कतर थे बंगला के पान।
कतरत -कतरत अँगुरी कटागे।
बोहिगे रकत के धार
क्या कमाल है राजा दशरथ से पान कतर गाने का काम आखिर लोकाभिव्यक्ति के सिवाय और कौन करा सकता है? उनके जो हैं न?
दूसरे एक गीत में बहू द्वारा पानी भरते समय पैर फिसलने से गगरी फूटने पर ननंद नमक मिर्च लगाकर अपने माँ -बाप और भाई से लिगरी लगाती है। पिटवाने में असफल रहने पर गेहूँ -चना पीसने को देती है। उलझने से हार टूटने की बात को बढ़ाकर कितना निर्दय प्रयास है। ननंद के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया हैं।
सीता स्वयंवर के गीत में बाइस कोस ले मंड़वा छवाने एक हजार कदली खंभ लगाने  के सिवाय लक्ष्मण का यह कथन-  सिव के धनुस ला माखुर कस मलिहौं, दिलस्चप है।
कतिपय गीतों में ऐतिहासिक घटनाओं की झलक भी मिलती है। सुआ नाचने वाली टोली, बिदाई देने के बाद आशीर्वाद इन पंक्तियों में देती है-
जइसे ओ मइला लिहे दिहे आना रे सुअना।
तइसे न दे बो असीस
अन धन लछमी म तोरे घर भरै रे सुअना
जियो जुग लाख बरीस।।

 (छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री श्यामलाल चतुर्वेदी के निबंध संग्रह मेरे निबन्ध से साभार)
सभी चित्र- बसंत साहू 

मूर्ति विसर्जन से प्रदूषित होते हमारे जल स्रोत

मूर्ति विसर्जन से प्रदूषित होते हमारे जल स्रोत
- नरेन्द्र देवांगन
 आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन अब पर्यावरण पर भारी पड़ रहा है। हर साल हमारे देश में कई स्थानों पर ज़ोर-शोर से गणेशोत्सव मनाया जाता है और उसके बाद जगह-जगह दुर्गा -पूजा का आयोजन होता है। एक अनुमान के मुताबिक हर साल लगभग दस लाख मूर्तियाँ नदी, तालाबों और झीलों के पानी के हवाले की जाती हैं और उन पर लगे वस्त्र, आभूषण भी पानी में चले जाते हैं। ज़्यादातर मूर्तियाँ पानी में अघुलनशील प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती हैं और उन्हें विषैले एवं अघुलनशील नॉन बॉयोडिग्रेडेबल रंगों से रंगा जाता है। इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की जैविक ऑक्सीजन माँग तेज़ी से बढ़ जाती है जो जलचर जीवों के लिए कहर बनता है। चंद साल पहले मुंबई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था कि मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद जुहू तट पर लाखों की तादाद में मरी मछलियाँ पाई गई थीं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा दिल्ली में यमुना नदी का अध्ययन इस सम्बन्ध में आँखें खोलने वाला रहा है कि किस तरह नदी का पानी प्रदूषित हो रहा है। बोर्ड के मुताबिक नदी के पानी में पारा, निकल, जस्ता, लोहा, आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का अनुपात दिनोंदिन बढ़ रहा है। दिल्ली के जिन-जिन इलाकों में मूर्तियाँ बहाई जाती हैं वहाँ के पानी के सैंपल्स के अध्ययन में बोर्ड ने पाया कि मूर्तियाँ बहाने से पानी की चालकता, ठोस पदार्थों की मौज़ूदगी और जैव रासायनिक ऑक्सीजन माँग बढ़ जाती है और घुलित ऑक्सीजन कम हो जाती है। पाँच साल पहले बोर्ड ने अनुमान लगाया था कि हर साल लगभग 1800 बड़ी मूर्तियाँ दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में बहाई जाती हैं और उसका निष्कर्ष था कि इस कर्मकाण्ड से नदी की अपूरणीय क्षति हो रही है और प्रदूषण फैल रहा है।
सबसे ज़्यादा जल प्रदूषण प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों के विसर्जन से होता है। इन मूर्तियों में प्रयुक्त हुए रासायनिक रंगों से भी जल प्रदूषण होता है। पूजा के दौरान उत्पन्न ऐसा कचरा, जिसकी रिसाइकलिंग नहीं की जा सकती है, उससे भी जल प्रदूषण होता है।
पिछले कई सालों से यह बात प्रकाश में आई है कि जल प्रदूषण सबसे ज़्यादा प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों के विसर्जन से होता है। ये सभी मूर्तियाँ झीलों, नदियों एवं समुद्रों में बहाई जाती है, जिससे जलीय वातावरण में समस्या सामने आती है। प्लास्टर ऑफ पेरिस ऐसा पदार्थ है जो नष्ट नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण की मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है। प्लास्टर ऑफ पेरिस दरअसल कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है। दूसरी ओर, ईकोफ्रेण्डली मूर्तियाँ चिकनी मिट्टी से बनती हैं, जिन्हें विसर्जित करने पर वे आसानी से पानी में घुल जाती हैं। लेकिन जब इन्हीं मूर्तियों को रासायनिक रंगों से रंगा जाता है तो ये रंग जल -प्रदूषण को बढ़ाते हैं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस सम्बन्ध में मार्गदर्शिका तैयार की है,जिसके अनुसार मूर्तियों का निर्माण प्राकृतिक पदार्थों से किया जाना चाहिए। इनमें प्राकृतिक मिट्टी के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। मूर्तियों पर विषैले एवं जैविक रूप से नष्ट न होने वाले रंगों एवं पेंटों का उपयोग प्रतिबंधित है। प्राकृतिक, अविषाक्त एवं जल में घुलनशील रंगों का उपयोग किया जाना चाहिए। प्रतिमाओं को सुशोभित करने वाले गहने, फूल, वस्त्र एवं अन्य सजावटी वस्तुओं को विसर्जन के पूर्व हटा लेना चाहिए। इनमें से फूल आदि जैविक रूप से नष्ट होने वाले पदार्थों की कंपोस्टिंग की जानी चाहिए एवं अन्य सामग्री जैसे प्लास्टिक, थर्मोकोल आदि का पुनर्चक्रण किया जाना चाहिए। फल, नारियल, वस्त्र आदि को गरीबों में बाँट दिया जाना चाहिए जबकि अनुपयोगी सामग्री को लैंडफिल के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में व्यापक जन जागरूकता की आवश्यकता है, ताकि लोग पवित्र जल स्त्रोतों को प्रदूषण से बचा सकें।
जिन स्रोतों पर प्रतिमा विसर्जन किया जा रहा है वहाँ विसर्जन के पूर्व संश्लेषित शीट्स बिछा कर, विसर्जन के पश्चात शेष बचे हुए पदार्थों को किनारों पर ला कर उनका आवश्यकतानुसार उपयोग या निपटान किया जाना चाहिए।
स्थानीय निकायों और जि़ला प्रशासन के सहयोग से नदियों एवं अन्य जल स्रोतों में विसर्जन बिंदुओं को चिह्नांकित किया जाना चाहिए तथा वहाँ अनावश्यक भीड़ जमा न हो, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। इन स्रोतों के किनारे विसर्जन के दौरान उत्पन्न ठोस अपशिष्ट को जलाने पर प्रतिबंध होना चाहिए। विसर्जन के 48 घंटे के भीतर समस्त सामग्री, मलबे आदि को किनारे ला कर उसका उचित निष्पादन किया जाए।
नदियों, तालाबों या झीलों में प्रतिमा विसर्जन के पूर्व इनके किनारे अस्थायी सीमांकित पोखर बनाए जाएँ जिनमें 'संश्लेषित लाइनिंग बिछाई जाए  एवं इनमें प्रतिमाओं का विसर्जन करवाया जाए। इन अस्थायी पोखरों के ऊपरी पानी को आंशिक रूप से उपचारित करने के लिए चूना मिलाया जा सकता है ताकि पानी में उपस्थित गंदगी को अवक्षेपित किया जा सके एवं उसकी उदासीनता बनाए रखी जा सके। इस आंशिक उपचार के उपरांत ऊपरी जल को जल स्रोतों में बहने दिया जा सकता है तथा मलबे एवं गंदगी को पृथक् कर सम्पूर्ण जल स्त्रोत को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में मूर्ति निर्माण से लेकर विसर्जन तक की गतिविधियों में संलग्न लोगों को जागरूक करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना है ,ताकि हम वांछित लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

प्रतिमा निर्माण एवं विसर्जन के समय थोड़ी-सी सावधानी रखकर अपने पवित्र जल स्रोतों को, जो वास्तव में हमारे जीवन का आधार भी हैं, प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। रीति-रिवाज़ों, मान्यताओं, का पालन करें, शास्त्र -सम्मत विधि से प्रतिमाओं की स्थापना और पूजा-अर्चना करें तथा साथ ही पर्यावरण के प्रति सजगता के साथ समस्त विधान सम्पन्न करें ताकि ये खूबसूरत धरती और इसके संसाधन चिरकाल तक हमें प्राकृतिक और स्वच्छ रूप में उपलब्ध होते रहें। जल अमृत है इसे किसी भी प्रकार से प्रदूषित न होने दें। स्रोत फीचर्स)

देवारी के गउरा परब

देवारी के गउरा परब
- संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ में भारत के अन्या प्रदेशो की भाँति दीपावली का त्योहार बड़े उत्साह एवं धूम धाम से मनाया जाता है। अलग अलग प्रदेशों में त्योहारों को मनाने की अपनी अलग-अलग लोक परम्परा है। छत्तीसगढ़ में भी इस त्योहार को मनाने की अपनी एक विशिष्ठ परम्परा है जो इस प्रदेश के कृषि आधारित जीवन को प्रदर्शित करता है। श्रम के प्रतिफल स्वरूप प्राप्त धन-धान्य रूपी लक्ष्मी के घर में आने का उत्साह, लोक मानस को स्वाभाविक रूप से उत्सव मनाने के लिए विवश करता है। यही भाव लोक आराधना का दीपोत्सव बनता है जो छत्तीसगढ़ में  राउत नाच एवं गौरा उत्सव के रूप में सामने आता है। यह धान्य देवी के घर में आने का समय होता है अत: गाँव वाले अपने घरों को लीपते- पोतते हैं और रात्रि में एकाधिक दीप जलाते हैं।  धनतेरस यानी सुरहुत्ती के दिन से दीपावली यानी देवारी तक घरों, गौठानों, खलिहानों में दीप आलोक फैलाते हैं। 
छत्तीसगढ़ में राउत नाच के गुडदुम और दोहों के स्वर दशहरा के बाद से ही सुनाई देनें लगते हैं जो यादवों का प्रमुख लोक नृत्य है। इन्हीं  स्वहर लहरियों के साथ ही रात में महिलाओं के सामूहिक स्वर में गौरा गीतों की गूँज भी बिखरती है। कार्तिक मास में  छत्तीसगढ़ के प्रत्येक गाँव में गउरा पूजा की परम्परा है, मान्यता है कि आरंभिक अवस्था  में यह गोंडों के द्वारा मनाया जाता था, कुछ लोग इसे सारथी जाति के लोगों के द्वारा आरंभ किया हुआ मानते हैं। वर्तमान स्वरूप में गउरा पूजा की इस परम्परा को सामूहिक रूप से प्रत्येक जाति और धर्म के लोग मना रहे हैं। यद्यपि गउरा पूजा के मूल विधि विधानों का दायित्व, अब भी अधिकाशंत: गाँवों में गोंड या सारथी लोग ही निभाते हैं। भारत के अन्यध क्षेत्रों में राजस्थान के मीणा समुदाय के लोगों के द्वारा लगभग इसी प्रकार से गउरा उत्सव मनाये जाने की परम्परा है।
छत्तीसगढ़ में गउरा पूजा का आरंभ दशहरे के दिन से आरंभ होता है। इस दिन गाँव के बीच में बने चबूतरे जिसे सामान्य गउरा चौंरा कहते हैंएक छोटा गड्ढा खोदकर मुर्गी का अण्डा, तांबें का सिक्का व सात प्रकार के फूल को सात महिलाएँ मूसल से कुचलती हैं। इस परम्परा को 'फूल कुचरना´  कहा जाता है और इसी के साथ 'गउरा पूजा´ आरंभ हो जाता है। चबूतरे पर फूल कुचले गए गड्ढे को बेर की कँटीली डंगाल से ढककर उस पर एक पत्थर रख दिया जाता है ताकि  इस स्थान को कोई अपवित्र ना करे।
इस दिन से दीपावली तक प्रत्येक संध्या उक्त स्थान पर महिलाओं के द्वारा गौरा गीत गाए जाते हैं। दीपावली के दिन, गाँव के किसी पवित्र स्थान से मिट्टी खोदकर लाई जाती है और बढ़ई के द्वारा बनाएँ गए लकड़ी पर गाँव के किसी व्यक्ति के घर में शिव व पार्वती की प्रतिमा बनाई जाती है। शिव का वाहन बैल और पार्वती का वाहन कछुआ बनाया जाता है। दोनों का शृंगार चमकीले कागजों और धान की बालियों से की जाती है। प्रतिमा- निर्माण के बाद दोनों का विवाह पारम्परिक रूप से आरम्भ करने के पूर्व गाँव के बइगा, प्रतिष्ठित जन आदि को बुलाने के लिए बाजे-गाजे के साथ लोग उनके घरों में जाते हैं-
 'भड़-भड़ बोकरा, तोर दुवारे तोर अटारे.... गाते हुए उन्हें लेकर पूजा स्थल में आते हैं।
गउरा पूजा के इस लोक परम्पंरा में जो 'गउरा गीत  गाए जाते हैं उन्हें महिलाएँ ही गाती हैं। गीत में संगत गाँव के सहज उपलब्ध वाद्य मोहरी, सींग बाजा, दफड़ा, झांझ, मजीरा और मांदर आदि होते हैं। गउरा गीतों में मुख्यतया शिव पार्वती के शृंगार वर्णन, देवी देवताओं का आह्वान, पूजा और विवाह से संबंधित व्यक्तियों से सहयोग की प्रार्थना, महादेव की बारात का वर्णन आदि  आता है। यह गीत, नृत्य प्रधान लोक गीत नहीं है ;किन्तु इन गीतों में वाद्य के साथ जो आध्यात्मिक प्रभाव उत्पन्न होता है,उससे नृत्यन स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाता है। कहते हैं कि नृत्य उत्साह के क्षणों को व्यक्त करने का भाव है, तो इस लोक गीत में गौरा-गौरी के विवाह का उत्साह समय-समय पर नृत्य में बदलता है।
मिट्टी से मूर्ति का निर्माण होता रहता है, गीत वाद्य के साथ गाए जा रहे हैं और अचानक मूर्ति के आकार लेते ही लोक को ज्ञात होता है कि यह तो हमारे ईश्वर शिव हैं, इनका अवतार हो गया। बढ़ई के द्वारा लकड़ी को खराद कर बनाये गए साँचे के सहयोग से  बाम्बीक की मिट्टी से शिव प्रकट होते हैं और लोक कंठ से स्वर फूटता है। 
धिमिक-धिमिक बाजा बाजे, कहंवा के बाजा बाजे
 राजा हो मोर इसर देव, लेवत हे अवतारे
कहंवा के बाजा आए कहंवा के इसर मोर जती
 जनामना कहंवा लिए अवतार
 कै तोला कून्दे  कुन्दकरवा,
 के सच्चाय ढारे हे सोनार
 भिंभोरा माटी मोर बहिनी जनामना,
बढ़ई घर लेहेंव अवतार ........
शिव की मूर्ति के निर्माण के बाद उसका शृंगार किया जा रहा है, मूर्ति के साथ साथ एक मंडप का भी निर्माण किया जा रहा है जिसमें हंस, कबूतर आदि पक्षी सज रहे हैं ऊपर में हनुमान झूल रहा है। मिट्टी आकार ले रही है और लोक स्वर  में अपने ठाकुर देव को निरंतर जोहार रही है-
 जोहार-जोहार मोर ठाकुर देवता
जोहार लागेन तुंहार 
ठाकुर देवता के मढ़ी लता छवावै
 ढूलेवा परेवा हंसा
 तरी झूले हंसा परेवा
उपर झूले हनुमान
हंसा ला देबो हम मूंगा मोती
परेवा ला चना के दार
जोहार-जोहार मोर ठाकुर देवता ........ 
मिट्टी के मूर्ति को सजाने के बाद विवाह आरंभ हो गया है कुछ वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न हो गए है। रात भी आधी हो गई है, गाँव वालों के साथ ही गउरा गउरी ऊँघ रहे हैं। लोकगीत सभी को चैतन्य करने के लिए स्फुटित होता है -
एक पतरी रैनी झैनी
राय रतन दुरगा देबी
तोर सीतल छाँव माय
 जागो गउरी जागो गउरा 
जागो सहर के लोग
झाँई झूँई फूले झरे सेजरी बिछाए
सुनव-सुनव मोर ढोलिया बजनिया
सुनव-सुनव मोर गाँव के गौंटिया
सुनव-सुनव सहर के लोग  
जागो गउरी जागो गउरा.........
बारात आ गई, शिव के औघढ़ रूप और विचित्र बरातियों को देखकर पार्वती की माता मैना रोने लगी। गीत गाती महिलाएँ प्रश्नोत्तर शैली में गउरा गीत गाते हुए मैना और  शिव के बीच हो रही बातों को पदों में ढालती हैं - 
हो महादेव दुलरू बन अइस,
 धियरी गउरा हासिन वो
मैंना रानी रोए लागिस,
 भूत परेतवा नाचिन वो
कइसे पायेंव माथ के चंदा,
गंगा कइसे पायेंव हो
तन में साँप लगायेव कइसे,
 काबर भभूत रमायेंव हो
गउरा बर हम जोगी बन गेन,
अंग भभूत रमायेन वो
नांदी बइला चढ़के बन बन,
 अड़बड़ अलख जगाएन वो
आँवर होगे भाँवर होगे,
खाएन बरा सोंहारी वो
गउरा महादेव इसर हमारे,
हमर बाप महतारी वो .......
इसी तरह के बीसियों पारंपरिक गउरा गीतों के साथ गउरा गउरी का विवाह सूर्योदय तक संपन्न होता है। उसके उपरांत जूलूस के रूप में गौरा-गौरी को महिलाएँ सिर में उठा कर नदी या तालाब की ओर विसर्जन के लिए निकलती हैं। इस जूलूस में गौरा गीत दैवीय उत्तेजना को बढ़ाता है और साथ चलने वाले भावातिरेक में नाचने लगते हैं जिसे गउरा चढ़ना कहते हैं। महिलाएँ अपने बालों को खुला करके झूमने लगती हैं, पुरुष भी नृत्य करने लगते हैं। इन्हें  शांत करने के लिए साथ चल रहा बइगा इन्हें वनस्पत्तियों की बेल से बने सोंटे से मारता है। जुलूस आगे बढ़ता है और गाँव के लोग इसके साथ हो लेते हैं। नदी या तालाब में गउरा-गउरी का विर्सजन होता है और गाँव के लोग अपने गाँव में खुशहाली के लिए प्रार्थना करते हुए अपने अपने घर की ओर प्रस्थान करते हैं। प्रतीकात्मक रूप से शिव आराधना के उद्देश्य से, सम्पूर्ण दीपावली की रात उत्साह और उमंग में, जागते लोग  शिवपद प्राप्त होने की संतुष्टि के साथ अगले त्योहार के इंतजार में जुट जाते हैं।
आवत देवारी लहुर लउहा,
जावत देवारी बड़ दूर,
जा जा देवारी अपन घर,
फागुन उड़ावै धूर।

संपर्क: सूर्योदय नगर, खण्डेलवाल कालोनी, दुर्ग (छ.ग.) मो. 09926615707