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May 22, 2013

उदंती .com,मई 2013

उदंतीः मई 2013

हर कोई इस संसार को बदल डालने के विषय में सोचता है; किन्तु स्वयं को बदल डालने के विषय में कोई भी नहीं सोचता।   
             - लियो टॉल्स्टाय





प्रेरकः एक बेमेल इंसान                        

क्या हवा बदलेगी...

क्या हवा बदलेगी...
मानव समाज में परिवार एक महत्वपूर्ण बुनियादी इकाई है। जिसके बगैर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य को अपने विकास के लिए समाज की आवश्यकता हुयी, इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए समाज की प्रथम इकाई के रूप में परिवार का उदय हुआ। परंतु वर्तमान आधुनिक समाज में परिवार नाम की यह इकाई बिखरती चली जा रही है। संयुक्त परिवार जो भारतीय समाज की रीढ़ हुआ करती थी अब एकल परिवारों में तब्दील होते जा रहे हैं। इस बिखराव को ही देखते हुए ही संभवत: संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 1994 को अंतर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष घोषित किया था। समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के लिए हर साल 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाने लगा है। अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस परिवारों से जुड़े मसलों के प्रति लोगों को जागरूक करने और परिवारों को प्रभावित करने वाले आर्थिक, सामाजिक दृष्टिकोणों के प्रति ध्यान आकर्षित करने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। इस तरह1995 से यह सिलसिला जारी है। प्रति वर्ष इस दिन को मनाने के लिए अलग-अलग विषय भी निर्धारित किया जाता है। 2013 के वर्ष को 'सामाजिक एकता और अंत: पीढ़ीगत एकजुटताके रूप में मनाने का निर्णय लिया गया है।
 इस मौके पर आज हम भारत में बुजुर्गों के साये से दूर होते एकल परिवार के बारे में बात करेंगे।  संयुक्त परिवार के विघटन ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित तो किया ही है परंतु इसका सबसे अधिक दुश्प्रभाव बच्चों पर पड़ा है। वर्तमान समय में जबकि माता-पिता दोनों ही कामकाजी हो गए हैं, घर में बुजुर्गों की और अधिक आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। परंतु अफसोस की बात है कि आधुनिक पीढ़ी; उनकी चाहे दूसरे शहर में नौकरी की मजबूरी हो या अपनी निजी स्वतंत्रता को बनाए रखने की मजबूरी, वे अपने माता-पिता से अलग परिवार बसा कर रहने लगे हैं। यह आने वाली पीढ़ी और हमारे परिवार के लिए सबसे खतरनाक है। ऐसे परिवारों में तीन-तीन पीढिय़ों का हस होता है- बच्चे तो उपेक्षित होते ही हैं, काम के बोझ और आधुनिक जीवन शैली की आपाधापी में नौकरीपेशा माता-पिता न अपने लिए सुकून के दो पल निकाल पाते न बच्चों की परवरिश ठीक से कर पाते और उनके बुजुर्ग माता-पिता एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त हो जाते हैं। यह स्थिति परिवार के विघटन का कारक तो बनती है इसके कारण समाज का विकास भी प्रभावित होता है।
संयुक्त परिवारों के बिखरते चले जाने का प्रमुखकारण है देश में बढ़ती आबादी तथा घटते रोजगार, जिसके कारण परिवार के सदस्य अपनी आजीविका की तलाश में अपने गाँव से शहर या छोटे शहर से बड़े शहरों की ओर पलायन करते हैं। शिक्षा के प्रचार प्रसार के कारण शिक्षित कहलाने वाले युवा अब अपने परंपरागत व्यवसाय या खेती बाड़ी को हेय नजरों से देखता है। बढ़ते उपभोक्तावाद के चलते बहुत से पढ़े-लिखे अतिमहत्वाकांक्षी युवा अपने परिवार और माता-पिता को छोड़ विदेश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। और वहीं अपना परिवार बसा लेते हैं। इस तरह परिवार या परिजनों से दूर होते जाने के कारण वे भावनात्मक रूप से असहाय होते जा रहे हैं। जबकि एक समय था जब अपने काम से छुट्टी मिलते ही वह सबसे पहले भाग कर अपने परिवार के बीच पहुँचता था क्योंकि असली खुशी उन्हें अपने परिवार के बीच ही मिलती थी।
लेकिन आज की आधुनिक जीवन शैली या अपने व्यक्तिगत सुख और स्वार्थ के कारण जो लोग अपने बूढ़े माता-पिता को अकेला छोड़ देते हैं वे भला अपने बच्चों को कैसा संस्कार दे पाएंगे? एक स्वस्थ समाज की संरचना तभी संभव है जब भावी पीढ़ी को परिवार में सुरक्षित वातावरण मिले। स्वास्थ्य पालन-पोषण से मानव का भविष्य सुरक्षित होता है उसके विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। पालन- पोषण और संस्कार के अलावा वर्तमान में बुजुर्गों का साथ रहना इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि अब बच्चों को घर में अकेले छोडऩा सुरक्षित नहीं रह गया है। दिन प्रतिदिन बढ़ते अपराध ने भय का वातावरण निर्मित कर दिया है। ऐसे में यदि घर में बुजुर्ग उपस्थित होंगे तो बच्चों को सुरक्षा तो मिलेगी ही साथ ही उनसे जो संस्कार उन्हें मिलेंगे वे माता-पिता के लिए भी सकारात्मक ऊर्जा का काम करेंगे।
अंत में-
'हवा बदलेगीस्लोगन के माध्यम से एक पंखे का विज्ञापन इन दिनों अपना ध्यान खींच रहा है- जिसमें दिखाया जाता है कि वृद्धाश्रम में एक युवा दम्पत्ति पंहुचता है, उनके संकोच को देखकर आश्रम की महिला कहती है कि आप निश्चिंत हो कर अपने माता-पिता को हमारे पास छोड़ दीजिए हम उनकी अच्छे से देखभाल करेंगे। यह सुनकर युवती आश्रम में दूर बैठे एक बुजुर्ग जोड़े की ओर देखती है और कहती है आप गलत समझ रही हैं मेम क्या हम यहाँ से अपने लिए मॉम-डैड घर ले जा सकते हैं... यह सुनकर आश्रम वाली महिला आश्चर्य और खुशी से मुस्कुरा उठती है। ... है तो यह एक पंखे को प्रचारित करने वाला विज्ञापन पर वह एक सामाजिक संदेश भी दे रहा है। काश सचमुच हवा बदल जाए....
                                          - डॉ. रत्ना वर्मा           

मई दिवस

मजदूर महिलाएँ मूल्यहीन श्रम

- डॉ जेन्नी शबनम


उन दिनों सोचती थी कि आखिर मेहनत तो सभी करते हैं, फिर कौन किससे हिस्सा माँग रहा? ये दुनिया आखिर है किसकी? दुनिया है किसके पास? कोई एक जब पूरी दुनिया ले लेगा तो बाकी लोग कहाँ जाएँगे? अजीब-अजीब-से सवाल...पर सब मन में ही इकट्ठे होते रहे।
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जब से होश सँभाला तब से फैज़ की यह नज़्म सुनती और गुनगुनाती रही हूँ...
'हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे...
उन दिनों सोचती थी कि आखिर मेहनत तो सभी करते हैं, फिर कौन किससे हिस्सा माँग रहा? ये दुनिया आखिर है किसकी? दुनिया है किसके पास? कोई एक जब पूरी दुनिया ले लेगा तो बाकी लोग कहाँ जाएँगे? अजीब-अजीब-से सवाल...पर सब मन में ही इकट्ठे होते रहे।
 मई दिवस पर बैठक होती थी, मैं भी शामिल होती थी अपने माता-पिता के साथ। गोष्ठियाँ होती थी, बड़ी-बड़ी रैली होती थी जिसमें शहर के साथ ही गाँव के किसान और श्रमिक भी शामिल होते थे। झंडे, पोस्टर, बैनर आदि होते थे। पुरजोर नारे लगाए जाते थे- 'दुनिया के मजदूरों एक हो’  'जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ 'इन्कलाब जिंदाबाद पूँजीवाद मुर्दाबादआदि। उन दिनों मई दिवस जैसे जश्न का दिन होता था ।
 समय के साथ जब जि़न्दगी की परिभाषाएँ समझ में आई और अपने सवालों के जवाब, तब खुद पर हँसी आई और ढेरों सवाल उगाने लगे जिनके जवाब भी मुझे मालूम होते हैं। मेरे पैदा होने से बहुत पहले जब ये दुनिया बनी होगी तब स्त्री और पुरुष दो जाति रही होगी। श्रम के आधार पर पुरुषों की स्वत: ही दो जातियाँ बन गई होंगी। एक जो श्रम करते होंगे और एक जो श्रम नहीं करते होंगे। जो श्रम नहीं करते होंगे वे जीवन यापन के लिए बल प्रयोग के द्वारा जर, जोरू और ज़मीन हथियाने लगे होंगे। बाद में इनके ही हिस्से में शिक्षा आई, सुविधा और सहूलियत भी। और ये कुलीन वर्ग कहलाने लगे। स्त्री को पुरुषों ने अपने अधीन कर लिया क्योंकि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर होती है। धीरे-धीरे स्त्री ने भी अधीनता स्वीकार कर ली, क्योंकि इसमें जोखिम कम था और सुरक्षा ज्यादा थी। कितना वक्त लगा, कितने अ$फसाने बने, कितनी जि़न्दगी इन सब में मिट गई, कितनी जानें गई, कितनों ने खुद को मिटा दिया! और अंतत: सारी शक्तियाँ कुछ $खास के पास चली गईं। स्त्रियाँ और कामगार श्रमिक कमजोर होते गए और सताए जाने लगे, बँधुआ बन गए, उत्पादन करके भी वंचित रहे। वो वर्ग जिसके बल पर दुनिया के सभी कार्य होते थे सर्वहारा बन गए। इस व्यवस्था परिवर्तन ने सर्वहारा वर्ग को तोड़ दिया। धीरे-धीरे हक के लिए आवाजें उठने लगी, सर्वहारा के अधिकारों के लिए क्रांतियाँ होने लगी। मज़दूर-किसान और स्त्रियों के अधिकार के लिए हुई क्रांतियों ने कानूनी अधिकार दे दिए लेकिन सामाजिक ढाँचे में $खास बदलाव नहीं आया। आज भी मनुष्य को मापने के दोहरे माप दंड हैं।
 पुरुषों के दो वर्ग हैं शासक और शोषित लेकिन स्त्रियों का सिर्फ एक वर्ग है शोषित। दुनिया की तमाम स्त्रियाँ आज भी अपने अधिकार से वंचित है, भले ही कई देशों ने बराबरी का अधिकार दिया हो। कोई भी स्त्री हो उत्पादन का कार्य करती ही है। चाहे खेत में अनाज उपजाए या पेट में बच्चा। शिक्षित हो या अशिक्षित; घरेलू कार्य की जवाबदेही स्त्री की ही होती है। फिर भी स्त्री को कामगार या श्रमिक नहीं माना जाता है। खेत, दिहाड़ी, चौका-बर्तन, या अन्य जगह काम करने वाली स्त्रियों को पारिश्रमिक मिलता है; भले पुरुषों से कम। लेकिन एक आम घरेलू स्त्री जो सारा दिन घर का काम करती है, संतति के साथ ही आर्थिक उपार्जन में मदद करती है; परन्तु उसके काम को न सिर्फ नज़रंदाज़ किया जाता है बल्कि एक सिरे से यह कह कर खारिज कर दिया जाता है कि 'घर पर सारा दिन आराम करती है, खाना पका दिया तो कौन-सा बड़ा काम किया, बच्चे पालना तो उसकी प्रकृति है, यह भी कोई काम है।एक आम स्त्री के श्रम को कार्य की श्रेणी में रखा ही नहीं जाता है; जबकि सत्य है कि दुनिया की सारी स्त्री श्रमिक है, जिसे उसके श्रम के लिए कभी कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है।
 मजदूर दिवस आते ही मजदूरों, श्रमिकों या कामगारों की जो छवि आँखों में तैरती है उनमें खेतों में काम करने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, रिक्शा-ऑटो चालाक, कुली, सरकारी गैर सरकारी संस्था में कार्यरत चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी आदि होते हैं। हर वो श्रमिक है जो दूसरे के लिए श्रमदान करता है और बदले में पारिश्रमिक का हकदार होता है। लेकिन एक आम स्त्री को श्रमिक अब तक नहीं माना गया है और न श्रमिक कहने से घर में घरेलू काम-काज करती बच्चे पालती स्त्री की छवि आँखों में उभरती है।
 मई दिवस आज भी वैसे ही मनेगा जैसे बचपन से देखती आई हूँ। कई सारे औपचारिक कार्यक्रम होंगे, बड़े-बड़े भाषण होंगे,
उद्घोषणाएँ की जाएँगी, आश्वासन दिए जाएँगे, बड़े-बड़े सपने दिखाए जाएँगे। कल का अखबार नहीं आएगा। और इन सबके बीच श्रमिक स्त्री हमेशा की तरह आज भी गूँगी बहरी बनी रहेगी, क्योंकि माना जाता है कि यही उसकी प्रकृति और नियति है।
 समय आ गया है कि स्त्रियों के श्रम को मान्यता मिले और इसके लिए संगठित प्रयास आवश्यक है। इसमें हर उस इंसान की भागीदारी आवश्यक है; जो स्त्रियों को इंसान समझते हैं, चाहे वो किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत के हों। स्त्रियों के द्वारा किए गए कार्य का पारिश्रमिक देना तो मुमकिन नहीं है और न यह उचित है; क्योंकि फिर स्त्री अपने ही घर में श्रमिक और उसका पिता या पति मालिक बन जाएगा। अत: स्त्री के कार्य को श्रम की श्रेणी में रखा जाए और उसके कार्य की अवधि की समय सीमा तय की जाए। स्त्री को उसके श्रम के हिसाब से सुविधा मिले और आराम का समय सुनिश्चित किया जाए। स्त्री को उसके अपने लिए अपना वक्त मिले; जब वो अपनी मर्जी से जी सके और अपने समय का अपने मन माफिक उपयोग सिर्फ अपने लिए कर सके। शायद फिर हर स्त्री को उसके श्रमिक होने पर गर्व होगा और कह पाएगी 'मजदूर दिवस मुबारक हो’!
संपर्क: द्वारा/श्री राजेश कुमार श्रीवास्तव द्वितीय तल, 5/7 सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली 110016,फोन नं.-011-26520303

डिस्पोज़ेबल वस्तुओं से फैलता संक्रमण

डिस्पोज़ेबल वस्तुओं से फैलता संक्रमण

-नरेन्द्र देवांगन

 प्लास्टिक के बर्तनों में खाद्य पदार्थ तो आम बात है। प्लास्टिक से निर्मित थैलियों, बर्तनों, कंटेनरों, बोतलों में औषधियाँ तक पैक की जाती हैं। यहाँ तक कि खून की बोतलें भी प्लास्टिक की बनी होती हैं। दावा किया जाता है कि यह प्लास्टिक विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी नियमों के अनुसार मेडिकल तौर से जीवाणुरहित है। किंतु चूक हर कहीं होती है।
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संयुक्त राष्ट्र एड्स विरोधी अभियान में एड्स से बचने के लिए जीवाणु मुक्त सुई का प्रयोग करने की सलाह दी गई है। आजकल डॉक्टर इंजेक्शन लगाने के लिए डिस्पोज़ेबल सिरिंज का ही उपयोग करते हैं। सिरिंज प्लास्टिक की बनी होती है तथा सुई स्टेनलेस स्टील की बनी होती है। इसका दोबारा उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति को लगाने के बाद इसे तोड़कर फेंक देना चाहिए। इससे संक्रमण नहीं फैलता।
दो-तीन दशक पहले सभी चीज़ें पुन: उपयोग की जाती थीं। परंतु आज कई ऐसी वस्तुएं पुन: उपयोग की जा रही हैं, जिन्हें दोबारा उपयोग नहीं करना चाहिए। वैसे तो आज हर प्रकार के डिस्पोज़ेबल उपलब्ध हैं। जैसे ग्लास, चम्मच, प्लेट, कप, दस्ताने, सिरिंज व सुई। दो दशक पहले इंजेक्शन लगाने के लिए बहुत सारे झंझट करने पड़ते थे। जैसे सिरिंज एवं सुई को उबालना, चिमटी से पकडऩा ताकि संक्रमण न हो। उस समय ये सिरिंज काँच की एवं सुई धातु की बनी होती थी। धीरे-धीरे जीवाणुरहित डिस्पोज़ेबल प्लास्टिक सिरिंज एवं सुई का आगमन हुआ।
शुरुआती दौर में ये महंगी होने की वजह से बहुत कम उपयोग की जाती थीं। परंतु प्रतिस्पर्धा के चलते इनके दाम कम होने तथा चिकित्सक व मरीज़ दोनों के लिए सुविधाजनक होने से धड़ल्ले से उपयोग में लाई जाने लगी हैं। फिर इन डिस्पोज़ेबल वस्तुओं का दोबारा, तिबारा एवं निरंतर उपयोग होने लगा।
जैसा कि सभी जानते हैं, प्लास्टिक की चीज़ों को नष्ट करना आसान नहीं है। मगर इन सिरिंजों का भी पुन: चक्रण किया जाता है। कबाडिय़ों के भंडार से प्लास्टिक, लोहा, काँच, कागज़ आदि वस्तुएं विभिन्न कारखानों में पहुँच जाती हैं, जहाँ उनका पुन: चक्रण किया जाता है। लोहा आदि धातुओं को तो फिर से उच्च ताप पर पिघलाकर पुन: उपयोग किया जाता है, जिससे इनमें विषाणु के रहने की आशंका नगण्य ही होती है। लेकिन प्लास्टिक कूड़े को अल्प ताप पर पिघलाकर पुन: उपयोगी बनाया जाता है, जिसमें जीवाणुओं के मौजूद रहने का खतरा भरपूर रहता है। इससे अधिक ताप पर प्लास्टिक जल जाता है। जलकर प्लास्टिक भयंकर विषैली गैस में बदलता है जो वातावरण के लिए अत्यंत हानिकारक है। दूरदर्शन पर इन सिरिंजों तथा सुइयों के व्यापार पर एक कार्यक्रम में दिखाया गया था कि इन्हें खरीदकर फिर से पैक करके बेच दिया जाता है। यहीं से शुरुआत होती है इन डिस्पोज़ेबल वस्तुओं द्वारा आपको डिस्पोज़-ऑफ (नष्ट) करने की।
उबालकर जीवाणुमुक्त करने की प्रक्रिया अत्यंत प्राचीन एवं वैज्ञानिक है। यह शताब्दियों से आज तक प्रचलित है तथा श्रेष्ठ है। इन काँच की सिरिंजों एवं धातु की सुइयों को मात्र कुछ मिनट उबाल लेने से ही ये पूर्णत: जीवाणु एवं विषाणु रहित हो जाती हैं। यहाँ तक कि जानलेवा एड्स वायरस एवं खतरनाक हेपेटाइटिस-बी वायरस भी इससे नष्ट हो जाते हैं। डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं सुई के साथ यह स्थिति नहीं होती। विशेषत: जब ये दोबारा उपयोग में लाई जाती हैं।
प्लास्टिक के बर्तनों में खाद्य पदार्थ तो आम बात है। प्लास्टिक से निर्मित थैलियों, बर्तनों, कंटेनरों, बोतलों में औषधियाँ तक पैक की जाती हैं। यहाँ तक कि खून की बोतलें भी प्लास्टिक की बनी होती हैं। दावा किया जाता है कि यह प्लास्टिक विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी नियमों के अनुसार मेडिकल तौर से जीवाणुरहित है। किंतु चूक हर कहीं होती है। अनेक मामलों में अधिकांश सप्लायर्स द्वारा इनमें प्रयोग किया जाने वाला प्लास्टिक भी पुन: चक्रित होता है।
सामान्यत: तो डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं सुई दोबारा उपयोग नहीं की जानी चाहिए। यदि किसी कारणवश की भी जाती है, तो उन्हें गामा किरणों के द्वारा पूर्णत: जीवाणुमुक्त करना चाहिए। इन प्लास्टिक सिरिंजों को उबालने पर प्लास्टिक पिघलता है तथा इन पर कई प्रकार के पदार्थ चिपक जाते हैं। यदि ये किसी संक्रामक रोगी के लिए इस्तेमाल की गई हों तो उसका संक्रमण दोबारा उपयोग के वक्त दूसरे मरीज़ में प्रवेश कर सकता है, जिसकी वजह से एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाता है। यह खतरा उन नशेडिय़ों में और भी अधिक हो गया है, जो इंजेक्शन द्वारा नशा लेते हैं तथा एक ही इंजेक्शन एवं सुई को कई व्यक्ति उपयोग में लाते हैं।
इन डिस्पोज़ेबल वस्तुओं से बीमारियों के फैलने का खतरा इसलिए भी बढ़ता जा रहा है क्योंकि इन डिस्पोज़ेबल्स को डिस्पोज़ (नष्ट) करने का आसान तरीका उपलब्ध नहीं है और न ही इन्हें नष्ट करने के लिए चिकित्सक, नर्सिंग होम एवं स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कोई ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। आज अधिकतर शासकीय एवं अशासकीय अस्पतालों में इन डिस्पोज़ेबल उपकरणों एवं अन्य संक्रामक पदार्थों जैसे टी.बी. मरीज़ का बलगम, उनके फेफड़ों से निकाला गया संक्रमित पानी, हैज़े के मरीज़ का मल एवं संक्रमित ड्रेसिंग नष्ट करने की कोई स्थाई व्यवस्था, जैसे इन्सीनरेटर (जिसमें यह सब उच्च तापमान पर नष्ट हो जाएँ) नहीं है। व्यवस्था है तो बस इतनी कि इन्हें या तो दूर फेंक दिया जाता है या फिर नाली में बहा दिया जाता है, जहाँ से ये नए संक्रमणों को जन्म देते हैं। कोई अति उत्साही हुआ, तो इन्हें जला देता है।
डिस्पोज़ेबल्स एवं संक्रमित वस्तुओं को नष्ट करने के लिए जल्दी ही ठोस कदम नहीं उठाए गए तो एड्स एवं हेपेटाइटिस बी जैसी बीमारियों के द्वारा ये डिस्पोज़ेेबल पलटवार करेंगे। इन बीमारियों का फैलाव रोकने एवं डिस्पोज़ेेबल के बारे में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं:
- डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं सुई का दोबारा उपयोग न करें। उपयोग के बाद इन्हें नष्ट कर दें।
- उबालकर किया गया स्टरलाइज़ेशन आज भी श्रेष्ठ है। इसी का उपयोग करें।
- प्रत्येक नर्सिंग होम या चिकित्सालय में इनको नष्ट करने के लिए इन्सीनरेटर या अन्य वैकल्पिक व्यवस्था हो।
- डिस्पोज़ेबल एक वरदान है, सुविधा है। इसका दुरुपयोग कर इसे अभिशाप न बनाएँ। (स्रोत फीचर्स)

भोजन की रफ्तार और आपका वजन

भोजन की रफ्तार और आपका वजन
क्या आपने कभी अपने खाने की रफ्तार पर ध्यान दिया है? अगर नहीं तो सजग हो जाइए। एक अध्ययन की मानें तो महिलाओं का वजन इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस रफ्तार से भोजन करती हैं। ओटागो यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए शोध के मुताबिक अधेड़ उम्र की वे महिलाएं जो धीरे-धीरे भोजन करती हैं उनके शरीर का वजन बढऩे की संभावना उन महिलाओं की अपेक्षा कम होती है जो तेज गति से भोजन करती हैं। यह शोध जर्नल ऑफ द अमेरिकन डाइटेटिक एसोसिएशन में प्रकाशित हुआ है। शोध के लिए न्यूजीलैंड की 40 से 50 वर्ष की 1,500 से ज्यादा महिलाओं के भोजन करने की गति और उनके बॉडी मॉस इंडेक्स (वजन और लंबाई के हिसाब से चर्बी को मापना) पर अध्ययन किया गया। प्रमुख शोधकर्ता डॉ. कैरोलीन हॉरवैथ ने कहा कि उम्र, नस्ल, धूमपान, और रजोनिवृत्ति जैसी कई चीजों पर ध्यान देने के बाद पाया गया कि जो महिलाएँ तेजी से खाना खाती हैं उनका बीएमआई उतना ही ज्यादा होता है। अध्ययन में पाया गया कि तेजी से भोजन करने वाली महिलाओं का बीएमआई 2.8 प्रतिशत तक बढ़ गया, जो 1.95 किलोग्राम वजन के बराबर है।

महिमा महानदी और इंद्रावती की

महिमा महानदी और इंद्रावती की
- डॉ. परदेशीराम वर्मा
 राज्य निर्माण के बारहवें वर्ष में नया रायपुर में आयोजित राज्योत्सव में छत्तीसगढ़ प्रदेश के नवनिर्मित मंत्रालय भवन का नामकरण सभ्यता और संस्कृति को सिंचित करने वाली जीवनदायिनी महानदी के नाम पर हुआ है। यह एक चिंतनशील एवं दूरगामी परिणामों के लिए विचारशील मुखिया डॉ. रमन सिंह का बेहद प्रभावशाली निर्णय है। उन्होंने 2009 में कहा था- स्वर्गीय डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा लिखित छत्तीसगढ़ वंदना सचमुच अद्भुत है। तब डॉ. रमन सिंह ने राज्योत्सव में उस गीत की प्रस्तुति का भी निर्देश भी दिया था। इस लोकप्रिय गीत की प्रस्तुति से राज्योत्सव की गरिमा बढ़ी।
इस बीच प्रदेश की नई राजधानी के रूप में आकार ले रहे नया रायपुर में नये मंत्रालय भवन के नामकरण के लिए भिन्न-भिन्न चिंतकों, समाजसेवियों ने अपना आग्रह भी रखा। लेकिन अंतत: संत कवि पवन दीवान तथा स्वर्गीय डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा सहित छत्तीसगढ़ के अन्य प्रतिभाशाली कवियों की कविताओं के केन्द्र में सदा प्रवाहमान महानदी की पावन धारा सभी आग्रहों को समेट ले गई। स्वर्गीय डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा ने छत्तीसगढ़ वंदना में महानदी और इन्द्रावती की स्तुति की है। उन्होंने इस कविता  का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। उन्होंने 'माई मदरशीर्षक से अंग्रेजी में कविता लिखकर अपनी अपूर्व भाषा सिद्धि को तो प्रमाणित किया ही साथ ही वे यह भी रेखांकित कर गए कि वे इन दोनों नदियों को छत्तीसगढ़ की महिमा के अंतर्गत अंतरधारा भी मानते थे। इसीलिए उन्होंने महतारी छत्तीसगढ़ में लिखा है-
अरपा पइरी के धार महानदी हे अपार।
            इंद्रावती ह पखारय
            तोर पइंया, जय हो जय हो
            छत्तीसगढ़ मइंया।
वहीं उन्होंने अपनी एक दूसरी कविता में इन नदियों की वंदना कुछ इस तरह से की है-
            महानदी चित्रोत्पला गंगा
            सागर अस हे लहर तुरंगा,
            सुघर सिहावा अबड़ सुहावय,
            कोरा उदवत धार बोहावय।
            पानी नोहय बूंद ये गुरतुर,
            इंद्रावती के अमृत धारा,
            बस्तर फिलय न पावय पारा।
महानदी के उद्ग्म स्थल सिहावा का उल्लेख कवि ने किया है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने नया रायपुर में विभाग प्रमुखों के लिए निर्मित भवन का नाम जिस पवित्र नदी इंद्रावती के नाम पर किया है, उसके संबंध में डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने बहुत पहले लिखा था-
  अंते कहां नहाये जाबो,
  गंगा जमुना इंहचे पाबो।
गंगा और जमुना में नहाने हम दूर क्यों जाये। जबकि महानदी और इंद्रवती गंगा और जमुना की तरह छत्तीसगढ़ की पावन धरती पर बहती है।
संत कवि पवन दीवान ने भी अपनी प्रभावी कविताओं में बार बार महानदी की महिमा का बखान किया है-
महानदी के पावन धारा,
हसदो का सुविशाल किनारा,
हरे भरे तेरे वृक्षों ने
निराश्रितों को दिया सहारा।
यह पवन दीवान की बेहद लोकप्रिय कविता 'जय जय छत्तीसगढ़ महतारी' की पंक्तियाँ है। संयोग ही है कि इन  दोनों श्रद्धेय कवियों ने छत्तीसगढ़ महतारी की स्तुति में जब भी लिखा तो इन प्रार्थना तुल्य कविताओं में महानदी और इंद्रावती के नाम से उनके द्वारा छत्तीसगढ़ की भावपूर्ण आरती उतारी गई। महानदी और इंद्रवती के नाम से छत्तीसगढ़ राज्य और शांति की ताकत के बल पर विकास और समृद्धि के लिए जूझता हुआ और आगे बढ़ता यह सिरमौर प्रदेश भी बनेगा। महानदी और इंद्रावती नदियों की तरह सतत अपनी महिमा का विस्तार छत्तीसगढ़ महतारी ने भी किया है। देश में यह अकेला प्रदेश है, जिसे महतारी कहकर सम्बोधित किया जाता है। संत पवन दीवान ने क्या खूब लिखा है...
 भारत माँ की प्यारी बेटी,
 सबकी बनी दुलारी,
 जय जय छत्तीसगढ़ महतारी।
महानदी सिहावा पर्वत से निकलती है। सिहावा ही वह स्थान है, जहाँ ऋषि श्रृंगी जी का आश्रम था। उनके आशीर्वाद से दशरथ जी तथा माता कौशल्या के आंगन में चार पुत्र खेले। छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्री राम की माता कौशिल्या जी छत्तीसगढ़ की बेटी है। छत्तीसगढ़ के ऋषि श्रृंगी को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए अयोध्या नरेश ने निवेदन किया। सिहावा से निकलने वाली महानदी, धमतरी राजिम चम्पारण्य से होकर माता कौशिल्या के जन्म स्थान आरंग को स्पर्श करती है। सिरपुर, शिवरीनारायण,चन्द्रपुरा, रायगढ़ होकर यह ओडि़शा में प्रवेश करती है।   
 भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने छह नवम्बर 2012 को नया रायपुर में आयोजित राज्योत्सव में दिए अपने प्रभावी भाषण में छत्तीसगढ़ की बेटी, मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम की माता कौशिल्याजी को नमन किया। जगतगुरू शंकराचार्य श्री स्वरूपा नन्द जी महाराज तथा दिव्यचक्षुवान महापंडित श्री रामभद्राचार्य ने सदैव छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्रीराम की जननी माता कौशल्या की वंदना करते हुए छत्तीसगढ़ की महत्ता को रेखांकित किया है। उसका यश गायन किया है। उन्होंने इस तरह हम सबको हमारे गौरवशाली इतिहास की दीक्षा दी है।
महानदी के किनारे स्थित आरंग में माता कौशल्या जन्मी। इस तरह मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने महानदी के नाम पर नए मंत्रालय भवन का नामकरण करके छत्तीसगढ़ की सुख-समृद्धि और सफलता के लिए माता कौशल्या से भी आशीर्वाद माँगा है। इसी तरह इन्द्रावती के नाम पर विभाग प्रमुखों के भवन का नामकरण करके राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़ के मूल निवासी आदिवासियों के अपूर्व योगदान एवं अनुकरणीय आचरण की महत्ता को हृदय से स्वीकारा है। इन दोनों नदियों में बेहद समानता भी है। इसलिए श्री पवन दीवान और स्वर्गीय डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने अपनी कई लोकप्रिय कविताओं में बार-बार इनका यशगान किया है। न केवल छत्तीसगढ़ के कवियों ने, बल्कि देश की अन्य भाषाओं के कवियों ने भी हमारी इन दोनों नदियों का स्तुति गायन किया है। अनेक मंत्रों, सूत्रों और श्लोकों में इन नंदियों का उल्लेख आता है। महानदी छत्तीसगढ़ और ओडि़शा को एक सूत्र में बाँधती है। दोनों का अभिसिंचन करती है। महानदी पर ही ओडि़शा में हीराकुण्ड बाँध है जिसका विश्व में अपना महत्व है। इधर हमारे छत्तीसगढ़ में इस नदी पर विशाल गंगरेल बाँध (रविशंकर सागर) ने हरित क्राँति का विस्तार किया है और लाखों किसानों के जीवन में खुशहाली का माध्यम बनी है।
महानदी के किनारे राजिम के ब्रम्हचर्य आश्रम के प्रमुख रहे प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाजसेवी और साहित्यकार पं. सुन्दरलाल शर्मा ने कई बार राजिम से पैदल जगन्नाथपुरी की यात्रा की थी। उसी ब्रम्हचर्य आश्रम के सर्वराकार हैं प्रदेश के लोकप्रिय संत कवि पवन दीवान, जिन्होंने महानदी की स्तुति में लगातार कविताओं का सृजन किया। पैरी, सोन्ढूर और महानदी का संगम राजिम में उनके आश्रम के बहुत करीब स्थित कुलेश्वर मंदिर के पास होता है, जहाँ प्रतिवर्ष विराट मेला लगता है। राजिम मेला छत्तीसगढ़ में मेल-मिलाप की परम्परा का प्रमुख केन्द्र कहलाता है। विगत कुछ वर्षो में राज्य सरकार के सहयोग से वहाँ कुम्भ का भी सफल आयोजन हो रहा है। राजिम कुम्भ की सफलता के लिए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और संस्कृति मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल बधाई के पात्र है। प्रतिवर्ष इस राजिम मेले में साहित्य, धर्म, लोकमंच एवं समरत समाज के भिन्न-भिन्न अभिव्यक्ति माध्यमों का मेल देखते ही बनता है।
इसी तरह इन्द्रावती नदी की अपार महिमा को बस्तर में ही उसकी लम्बी यात्रा के संबंध में जानकर समझ सकते हैं। इन्द्रावती कालाहाँडी से निकलती है मगर बस्तर उसे कुछ तरह भा गया कि वहाँ 370 किलोमीटर की यात्रा के द्वारा की गयी यह छत्तीसगढ़ महतारी की विलक्षण परिक्रमा है।
महानदी 891 किलोमीटर लम्बी है। छत्तीसगढ़ में उसका बहाव 286 किलोमीटर है। यह एक प्रेरक लेकिन दुर्लभ संयोग है। छत्तीसगढ़ में जन्मी महानदी पर उड़ीसा में हीराकुण्ड बाँध बना और हीरों की धरती छत्तीसगढ़ में उड़ीसा के कालाहाँडी से निकली इन्द्रावती ने 370 किलोमीटर की यात्रा केवल अपने वनवासी बेटे-बेटियों के बस्तर में की। इन नदियों ने अपनी यात्रा और महिमा की कथा से छत्तीसगढ़ सहित देश और दुनिया को यही सिखाया है कि सबको समान मानकर ही महत्ता अर्जित की जा सकती है। शिवरीनारायण में श्रीराम की भक्तिन शबरी दाई ने तप किया तो चम्पारण्य में श्रीकृष्ण के परम भक्त महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म हुआ। अष्टछाप के महाकवि सूरदास में दीनता त्यागकर वीरता का भाव जगाने वाले गुरु वल्लभाचार्य जी ने महानदी का जल पिया। माता कौशल्या ने कार्तिक स्नान के बाद छत्तीसगढ़ के माटी से बने दीयों से महानदी का वंदन कर उनसे आशीर्वाद लिया होगा। छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय जन-कवि स्वर्गीय भगवती सेन ने लिखा है ...
 महतारी कोरा बड़ सुघ्घर,
 कुधरी महानदी के उज्जर।
संत पवन दीवान ने भी महानदी की रेत में सोना मिलने का प्रमाण दिया है...
    चमचम चमचम सोना चमकय,
    महानदी के रेत मा
    थपड़ी देके हांस ले भइया,
    हरियर हरियर खेत मां।
छत्तीसगढ़ के पास सब कुछ है। देश में अव्वल कहलाने की सारी क्षमता है। उदगम से निकली नदियाँ बहुत दूर तक व्यवधानों से टकराती हैं, फिर अपना विस्तार करती है। विस्तार कुछ इस तरह कि उनमें जहाज चलते हैं और दुनिया भर की नेमते नदियाँ सौंपने लगती हैं। यह छत्तीसगढ़ भी अभी अपनी यात्रा पर निकला ही है। इसके सामने भी व्यवधान आते दिखे। नक्सल समस्या उनमें से एक है। नदी के नाम से राज्य सरकार के दो सबसे बड़े प्रशासनिक भवनों के नामकरण से यह भी ध्वनित होता है कि नदियों की तरह यह नया छत्तीसगढ़ प्रान्त भी अपने यात्रा-पथ पर आये व्यवधानों को सबक सिखाते हुए विकास की नित नई मंजिलों की ओर निरन्तर गतिमान रहेगा। दोनों भवनों के नामकरण में सुचिन्तन और व्यापक सोच को प्रदर्शित करने वालों को बधाई देते हुए इस प्रसंग में छत्तीसगढ़ के ही एक और लोकप्रिय कवि स्वर्गीय श्री कोदूराम दलित की पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं-
    रह जाना है नाम ही, इस दुनिया में यार।
    अत: सभी का कर भला, है इसमें ही सार।।
    कायारूपी महल एक दिन ढह जाना है।
    किन्तु सुनाम सदा दुनिया में रह जाना है।।

संपर्क: एल.आई.जी.-18, आमदी नगर, हुडको
भिलाई नगर (छत्तीसगढ़)  मो. 9827993494

बडविग प्रोटोकोल

कैंसर रोधी आहार-विहारः अलसी तेल का जादुई असर
-डॉ. ओ. पी. वर्मा
डॉ. योहाना बडविग (जन्म 30 सितम्बर, 1908 -मृत्यु 19 मई 2003) विश्व विख्यात जर्मन जीव रसायन विशेषज्ञ और चिकित्सक थी। उन्होंने भौतिक, जीवरसायन तथा भेषज विज्ञान में मास्टर की डिग्री हासिल की थी और प्राकृतिक-चिकित्सा विज्ञान में पी.एच.डी. भी की थी। वे जर्मन सरकार के खाद्य और भेषज विभाग में सर्वोच्च पद पर कार्यरत  थीं। उन्होंने वसा, तेल तथा कैंसर के उपचार के लिए बहुत शोध किये थे। वे आजीवन शाकाहारी रहीं। जीवन के अंतिम दिनों में भी वे सुंदर, स्वस्थ और युवा दिखती थीं।
1923 में डॉ. ओटो वारबर्ग ने कैंसर के मुख्य कारण की खोज कर ली थी, जिसके लिये उन्हें 1931 में नोबल पुरस्कार दिया गया था। उन्होंने पता लगाया था कि कैंसर का मुख्य कारण कोशिकाओं में होने वाली श्वसन क्रिया का बाधित होना है और कैंसर कोशिकाऐं ऑक्सीजन के अभाव और अम्लीय माध्यम में ही फलती-फूलती है। कैंसर कोशिकायें ऑक्सीजन द्वारा श्वसन क्रिया नहीं करती हैं और वे ग्लूकोज को फर्मेंट करके ऊर्जा प्राप्त करती है, जिसमें लेक्टिक एसिड बनता है और शरीर में अम्लता बढ़ती है। यदि कोशिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे तो कैंसर का अस्तित्व संभव ही नहीं है। वारबर्ग ने कैंसर कोशिकाओं में ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कुछ परीक्षण किये थे परन्तु वे असफल रहे।
डॉ. योहाना ने वारबर्ग के शोध को जारी रखा। वर्षों तक शोध करके पता लगाया कि इलेक्ट्रोन युक्त, अत्यन्त असंतृप्त ओमेगा-3 वसा से भरपूर अलसी, जिसे अंग्रेजी में Linseed या Flaxseed कहते हैं, का तेल कोशिकाओं में नई ऊर्जा भरता है, उनकी स्वस्थ भित्तियों का निर्माण करता है और कोशिकाओं में ऑक्सीजन को आकर्षित करता है। परंतु इनके सामने मुख्य समस्या यह थी की अलसी के तेल, जो रक्त में नहीं घुलता है, को कोशिकाओं तक कैसे पहुँचाया जाये? वर्षो तक कई परीक्षण करने के बाद डॉ. योहाना ने पाया कि अलसी के तेल को सल्फर युक्त प्रोटीन जैसे पनीर के साथ मिलाने पर अलसी का तेल पानी में घुलनशील बन जाता है और तेल को सीधा कोशिकाओं तक पहुँचाता है। इसलिए उन्होंने सीधे बीमार लोगों के रक्त के परीक्षण किये और उनको अलसी का तेल तथा पनीर मिला कर देना शुरू कर दिया। तीन महीने बाद फिर उनके रक्त के नमूने लिये गये। नतीजे चौंका देने वाले थे। उन्होंने अलसी के तेल और पनीर के जादुई और आश्चर्यजनक प्रभाव दुनिया के सामने सिद्ध कर दिये थे। 
इस तरह 1952 में डॉ. योहाना ने अलसी के तेल और पनीर के मिश्रण तथा कैंसर रोधी फलों व सब्जियों के साथ कैंसर के उपचार का तरीका विकसित किया था,जो बडविग प्रोटोकोल के नाम से विख्यात हुआ। वे 1952 से 2002 तक कैंसर के हजारों रोगियों का उपचार करती रहीं। उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी थी जिनमें 'फैट सिंड्रोम’, 'डैथ आफ ए ट्यूमर’, 'फ्लेक्स आयल- ए ट्रू एड अगेन्स्ट आर्थाइटिस, हार्ट इन्फार्कशन, कैंसर एण्ड अदर डिजीज़ेज’, 'आयल प्रोटीन कुक बुक’, 'कैंसर- द प्रोबलम एण्ड सोल्यूशनआदि मुख्य हैं। उन्होंने अपनी आखिरी पुस्तक 2002 में लिखी थी।
कैंसर रोधी योहाना बडविग आहार विहार
डॉ. बडविग आहार में प्रयुक्त खाद्य पदार्थ ताजा, इलेक्ट्रोन युक्त और जैविक होने चाहिए। इस आहार में अधिकांश खाद्य पदार्थ सलाद और रसों के रूप में लिये जाते है, जिन्हें ताजा तैयार किया जाना चाहिए ताकि रोगी को भरपूर इलेक्ट्रोन्स मिले। डॉ. बडविग ने इलेक्ट्रोन्स पर बहुत जोर दिया है।
अंतरिम या ट्रांजीशन आहार
कई रोगी विशेष तौर पर जिन्हें यकृत और अग्न्याशय का कैंसर होता हैशुरू में सम्पूर्ण बडविग आहार पचा नहीं पाते हैं। ऐसी स्थिति में डॉ. बडविग कुछ दिनों तक रोगियों को अंतरिम या ट्रांजीशन आहार लेने की सलाह देती थी। अंतरिम आहार में रोज 250 ग्राम अलसी दी जाती है। कुछ दिनों तक रोगी को ओटमील के सूप में ताजा पिसी हुई अलसी मिला कर दिन में कई बार दी जाती है। इस सूप को बनाने के लिए एक पतीली में 250 एम एल पानी लें और तीन बड़ी चम्मच ओटमीन डाल कर पकायें। ओट पक जाने पर उसमें बड़ी तीन चम्मच ताजा पिसी अलसी मिलायें और एक उबाल आने दें। फिर गैस बंद कर दे और दस मिनट तक ढक कर रख दें।  अलसी मिले इस सूप को खूब चबा-चबा कर लार में अच्छी तरह मिला कर खाना चाहिये क्योंकि पाचन क्रिया मुँह में ही शुरू हो जाती है। इस सूप में दूध या संतरा, चेरी, अंगूर, ब्लूबेरी आदि फलों के रस भी मिलाये जा सकते हैं, जो पाचन- शक्ति बढ़ाते हैं। इसके डेढ़- दो घंटे बाद पपीते का रस, दिन में तीन बार हरी या हर्बल चाय और अन्य फलों के रस दिये जाते हैं। अंतरिम आहार में पपीता खूब खिलाना चाहिये। जैसे ही रोगी की पाचन शक्ति ठीक होने लगती है उसे अलसी के तेल और पनीर से बने ओम-खण्ड की कम मात्रा देना शुरू करते हैं। और धीरे-धीरे सम्पूर्ण बडविग आहार शुरू कर दिया जाता है।  
 प्रात:
इस उपचार में सुबह सबसे पहले एक ग्लास सॉवरक्रॉट (खमीर की हुई पत्ता गोभी) का रस लेना चाहिये। इसमें भरपूर एंजाइम्स और विटामिन-सी होते हैं। सॉवरक्रॉट हमारे देश में उपलब्ध नहीं है परन्तु इसे घर पर पत्ता गोभी को ख़मीर करके बनाया जा सकता है। हाँ इसे घर पर बनाना थोड़ा मुश्किल अवश्य है। इसलिए डॉ. बडविग ने भी लिखा है कि सॉवरक्रॉट उपलब्ध न हो तो रोगी एक ग्लास छाछ पी सकता है। छाछ भी घर पर मलाई-रहित दूध से बननी चाहिये। यह अवश्य ध्यान में रखें कि छाछ सॉवरक्रॉट जितनी गुणकारी नहीं है। इसके थोड़ी देर बाद कुछ रोगी गेहूँ के ज्वारे का रस भी पीते हैं। 
नाश्ता:
नाश्ते से आधा घंटा पहले बिना चीनी की गर्म हर्बल या हरी चाय लें। मीठा करने के लिए एक चम्मच शहद या स्टेविया (जो डॉ. स्वीट के नाम से बाजार में उपलब्ध है) का प्रयोग कर सकते हैं। यह नाश्ते में दिये जाने वाले अलसी मिले ओम-खण्ड के फूलने हेतु गर्म और तरल माध्यम प्रदान करती है।
ओम-खण्ड
इस आहार का सबसे मुख्य व्जंजन सूर्य की अपार ऊर्जा और इलेक्ट्रोन्स से भरपूर ओम-खंड है जो अलसी के तेल और घर पर बने वसा रहित पनीर या दही से बने पनीर को मिला कर बनाया जाता है । पनीर बनाने के लिए गाय या बकरी का दूध सर्वोत्तम रहता है। इसे एकदम ताज़ा बनायें और ध्यान रखें कि बनने के 15 मिनट के भीतर रोगी खूब चबा-चबा कर आनंद लेते हुए इसका सेवन करें। ओम-खण्ड बनाने की विधि इस प्रकार है।
3 बड़ी चम्मच यानी 45 एम.एल. अलसी का तेल और 6 बड़ी चम्मच यानी लगभग 100 ग्राम पनीर को बिजली से चलने वाले हेन्ड ब्लेंडर द्वारा एक मिनट तक अच्छी तरह मिक्स करें। तेल और पनीर का मिश्रण क्रीम की तरह हो जाना चाहिये और तेल दिखाई देना नहीं चाहिये। तेल और पनीर को ब्लेंड करते समय यदि मिश्रण गाढ़ा लगे तो पतला करने के लिए 1 या 2 चम्मच दूध मिला लें। पानी या किसी फल का रस नहीं मिलायें। अब मिश्रण में 2 बड़ी चम्मच अलसी ताज़ा मोटी-मोटी पीस कर मिलायें।
इसके बाद मिश्रण में आधा या एक कप कटे हुए स्ट्रॉबेरी, रसबेरी, ब्लूबेरी, चेरी, जामुन आदि फल मिलायें। बेरों में शक्तिशाली कैंसर रोधी में एलेजिक एसिड होता है। ये फल हमारे देश में हमेशा उपलब्ध नहीं होते हैं। इस स्थिति में आप अपने शहर में मिलने वाले अन्य फलों का प्रयोग कर सकते हैं। 
इस ओम-खण्ड को आप कटे हुए मेवे जैसे खुबानी, बादाम, अखरोट, काजू, किशमिश, मुनक्के आदि सूखे मेवों से सजायें। ध्यान रहे मूंगफली वर्जित है। मेवों में सल्फर युक्त प्रोटीन, आवश्यक वसा और विटामिन होते हैं। रोगी को खुबानी के 6-8 बीज रोज खाना ही चाहिये। इसमें महान विटामिन बी-17 और बी-15 होते हैं जो कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करते हैं। स्वाद के लिए काली मिर्च, सैंधा नमक, ताजा वनीला, दाल चीनी, ताजा काकाओ, कसा नारियल, सेब का सिरका या नींबू का रस मिला सकते हैं। मसालों और फलों को बदल-बदल कर आप स्वाद में विविधता और नवीनता ला सकते हैं।
डॉ. बडविग ने चाय और ओम-खण्ड को मीठा करने के लिए प्राकृतिक और मिलावट रहित शहद को प्रयोग करने की सलाह दी है। लेकिन ध्यान रहे कि प्रोसेस्ड यानी डिब्बा बन्द शहद प्रयोग कभी नहीं करें और यह भी सुनिश्चित करलें कि बेचने वाले ने शहद में चाशनी की मिलावट तो नहीं की है। दिन भर में 5 चम्मच शहद लिया जा सकता है। ओम खण्ड को बनाने के दस मिनट के भीतर रोगी को ग्रहण कर लेना चाहिए।
सामान्यत: ओम-खण्ड लेने के बाद रोगी को कुछ और लेने की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन यदि रोगी चाहे तो फल, सलाद, सूप, एक या दो मिश्रित आटे की रोटी, ओट मील या का दलिया ले सकता है।  
10 बजे
नाश्ते के एक घंटे बाद रोगी को गाजर, मूली, लौकी, मेथी, पालक, करेला, टमाटर, करेला, शलगम, चुकंदर आदि सब्जियों का रस ताजा निकाल कर पिलायें। सब्जियों को पहले साफ करें, अच्छी तरह धोयें, छीलें फिर घर पर ही अच्छे ज्यूसर से रस निकालें। गाजर और चुकंदर यकृत को ताकत देते हैं और अत्यंत कैंसर रोधी होते हैं। चुकंदर का रस हमेशा किसी दूसरे रस में मिला कर देना चाहिये। ज्यूसर खरीदते समय ध्यान रखें कि ज्यूसर चर्वण (masticating) विधि द्वारा रस निकाले न कि अपकेंद्री (Centrifugal) विधि द्वारा। 
दोपहर का खाना
नाश्ते की तरह दोपहर के खाने के आधा घंटा पहले भी एक गर्म हर्बल चाय लें। दिन भर में रोगी पांच हर्बल चाय पी सकता है। कच्ची या भाप में पकी सब्जियाँ जैसे चुकंदर, शलगम, खीरा, ककड़ी, मूली, पालक, भिंडी, बैंगन, गाजर, बंद गोभी, गोभी, मटर, शिमला मिर्च, ब्रोकोली, हाथीचाक, प्याज, टमाटर, शतावर आदि के सलाद को घर पर बनी सलाद ड्रेसिंगऑलियोलक्स या सिर्फ अलसी के तेल के साथ लें। हरा धनिया, करी पत्ता, जीरा, हरी मिर्च, दालचीनी, कलौंजी, अजवायन, तेजपत्ता, सैंधा नमक और अन्य मसाले डाले जा सकते हैं। ड्रेसिंग बनाने के लिए 2 चम्मच अलसी के तेल व 2 चम्मच पनीर के मिश्रण में एक चम्मच सेब का सिरका या नीबू के रस और मसाले डाल कर अच्छी तरह ब्लैंडर से मिलायें।  विविधता बनाये रखने के लिए आप कई तरह से ड्रेसिंग बना सकते हैं। हर बार पनीर मिलाना भी जरूरी नहीं है। दही या ठंडी विधि से निकला सूर्यमुखी का तेल भी काम में लिया जा सकता है। अलसी के तेल में अंगूर, संतरे या सेब का रस या शहद मिला कर मीठी सलाद ड्रेसिंग बनाई जा सकती है।
साथ में चटनी (हरा धनिया, पुदीना या नारियल की), भूरे चावल, दलिया, खिचड़ी, इडली, सांभर, कढ़ी, उपमा या मिश्रित आटे की रोटी ली जा सकती है। रोटी चुपडऩे के लिए ऑलियोलक्स प्रयोग करें। मसाले, सब्जियाँ और फल बदल-बदल कर प्रयोग करें। रोज एक चम्मच कलौंजी का तेल भी लें। भोजन तनाव रहित होकर खूब चबा-चबा कर करें।
ओम-खंड की दूसरी खुराक
रोगी को नाश्ते की तरह ही ओम-खण्ड की एक खुराक दिन के भोजन के साथ देना अत्यंत आवश्यक है। यदि रोगी को शुरू में अलसी के तेल की इतनी ज्यादा मात्रा पचाने में दिक्कत हो तो कम मात्रा से शुरू करें और धीरे-धीरे बढ़ा कर पूरी मात्रा देने लगें। 
दोपहर बाद
दोपहर बाद अन्नानस, संतरा, मौसम्मी, अनार, चीकू, नाशपाती, चेरी या अंगूर के ताजा निकले रस में एक या दो चम्मच अलसी को ताजा पीस कर मिलायें और रोगी को पिलायें। यदि रस ज्यादा बन जाये और रोगी उसे पीना चाहे तो पिला दें। रोगी चाहें तो आधा घंटे बाद एक गिलास रस और पी सकता है।
तीसरे पहर
पपीते के एक ग्लास रस में एक या दो चम्मच अलसी को ताजा पीस कर डालें और रोगी को पिलायें। पपीता और अन्नानास के ताजा रस में भरपूर एंज़ाइम होते हैं जो पाचन शक्ति को बढ़ाते हैं।
सायंकालीन भोजन
शाम के भोजन के आधा घन्टा पहले भी रोगी को एक कप हरी या हर्बल चाय पिलायें। सब्जियों का शोरबा या सूप, दालें, मसूर, राजमा, चावल, कूटू, मिश्रित और साबुत आटे की रोटी सायंकालीन भोजन का मुख्य आकर्षण है। सब्जियों का शोरबा, सूप, दालें, राजमा या पुलाव बिना तेल डाले बनायें। मसाले, प्याज, लहसुन, हरा धनिया, करी पत्ता आदि का प्रयोग कर सकते हैं। पकने के बाद ईस्ट फ्लेक्स और ऑलियोलक्स डाल सकते हैं। ईस्ट फ्लेक्स में विटामिन-बी होते हैं जो शरीर को ताकत देते हैं। टमाटर, गाजर, चुकंदर, प्याज, शतावर, शिमला मिर्च, पालक, पत्ता गोभी, गोभी, आलू, अरबी, ब्रोकोली आदि सभी सब्जियों का सेवन कर सकते हैं। दालें और चावल बिना पॉलिश वाले काम में लें। डॉ. बडविग ने सबसे अच्छा अन्न कूटू (buckwheat)  का माना है। इसके बाद बाजरा, रागी, भूरे चावल, गैहूँ आते हैं। मक्का खाने के लिए उन्होंने मना किया है। 
 
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