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Dec 14, 2013

एक मानवीय फैसला


      एक मानवीय फैसला

                          - डॉ. रत्ना वर्मा 

 “ मैंने सोचा कि मैं एक जज की तरह नहीं बल्कि मानवता की खातिर उसके लिए क्या कर सकता हूँ। वही मैंने किया। यदि तेजाब हमले की जगह मेरी बहन या बेटी होती तो मैं क्या करता, यही सोच कर मैं आगे बढ़ा
उक्त कथन जस्टिस कुरियन जोसेफ के हैं जो उन्होंने पिछले दिनों तेजाब पीडि़ता पर फैसला सुनाते हुए कहा है। दिल्ली सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुरियन जोसेफ ने तेजाब हमले में अपनी आँखें गवा चुकी 33 वर्षीय अनु मुखर्जी को जूनियर कोट अटेडेंट की नौकरी का ऑफर दिया है। ताकि वह सम्मान से जी सके। जस्टिस ने तेजाब पीडि़त युवती को सम्मानजनक नौकरी देकर मानवता का परिचय दिया है। उनका यह कदम प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। इस तरह के अन्य मामलों में उनके इस कदम को हमेशा उदाहरण के रूप में सामने रखा जाना चाहिए।
इस मानवीय फैसले से शासन प्रशासन, पुलिस और कानून बनाने वालों  को सीख लेनी चाहिए कि मानवता हर मामले में बड़ी है।

 तेजाब से हमला महिलाओं पर किये गए वीभत्सतम अपराधों में सबसे ज्यादा वीभत्स है। यह बहुत दु:ख की बात है कि हमारे देश में लड़कियों के शरीर और चेहरे पर तेजाब फेंक कर उसकी जिंदगी को नरक बना देने वाली घटनाएँ दिन--दिन बढ़ती ही चली जा रही है। भारत में इस तरह का पहला मामला 1967 में सामने आया था। परंतु आज स्थिति भयानक हो चुकी है। प्रति वर्ष लगभग 1000 लड़कियों पर तेजाब फेंके जाने की घटनाएँ हो रही हैं। सबसे निराशाजनक पहलू इसका यह है कि इस तरह के अधिकतर मामलों में साक्ष्य के अभाव में दोषी को सजा हो ही नहीं पाती और लड़की जीवन भर कुरूपता का अभिशाप झेलने के लिए छोड़ दी जाती है।

लड़कियों के चेहरे पर तेजाब फेंक कर उन्हें कुरूप बना देने की पुरुष मानसिकता दरअसल उसी पुरातन सोच का नतीजा है, जहाँ स्त्री को भोग्या और एक वस्तु के रूप में देखा जाता है। आज भी हमारे समाज में लड़कियों का जिस तरह से पालन-पोषण  होता है वहाँ उसे अपना निर्णय लेने का अधिकार भी नहीं होता और यदि कोई लड़की इन सबसे अलग अपना निर्णय खुद लेती है या किसी बात से इन्का करती है अथवा असहमति जताती है तो पुरुष अपने अहंकार के चलते उससे प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से उस पर तेजाब फेंककर, बलात्कार करके या उसके साथ हिंसात्मक बर्ताव करके अपने अहं को तुष्ट करता है।

अफसोसनाक बात है कि आज इतनी तरक्की के बाद भी महिलाओं पर होने वाले इन अत्याचारों में कमी नहीं आई है। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा जैसी घटनाओं के आँकड़ें, तरक्की पसंद इस देश में कम होने की बजाय बढ़ते ही चले जा रहे हैं। आँकड़ों के बढऩे का एक कारण अवश्य ही महिलाओं का अपने अधिकारों के प्रति पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक होना भी है। जिसके कारण वे अपने विरुद्ध होने वाले अत्याचार का विरोध करती हैं और उनके विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कराने में शर्म महसूस नहीं करती, अन्यथा पहले तो सामाजिक उपेक्षा के भय से न केवल पीडि़ता बल्कि परिवार वाले ही बलात्कार जैसे मामलों को इसलिए दबा देते थे कि इससे परिवार की बदनामी होगी और लड़की का जीवन खराब हो जाएगा।
ऐसे में वे महिलाएँ जिनपर तेजाब फेंककर चेहरा खराब कर दिया जाता है, खुद को समाज से अलग कर लेती हैं। तेजाब पीड़िताओं के लिए कोई नीति न होने के कारण, और लम्बे समय तक चलने वाले चिकित्सा उपचार तथा न्यायिक प्रक्रिया से हताश होकर वे घर में चुपचाप बैठे रहना उचित समझती हैं। अधिकतर मामलों में देखा यही गया है कि पीडि़त, मानसिक विकृतियों का शिकार हो जाती हैं।

कहने का तात्पर्य यही है कि किसी भी सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए सामाजिक सोच में परिवर्तन के साथ इस तरह के अपराधों के लिए कानून और सजा का सख्त प्रावधान होना भी बहुत जरूरी है।  पिछले साल दिसम्बर में दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में हुए गैंग रेप के बाद बने यौन उत्पीडऩ कानून में ही तेजाब से हमलों को अंजाम देने वालों की सजा भी तय कर दी गई थी। ऐसे दोषियों को दस साल का कारावास और अधिकतम उम्रकैद तक की सजा मुकर्रर की गई है।

2008 में ला कमीशन आफ इंडिया ने, सुप्रीम कोर्ट को अपने सुझाव में तेजाब हमलों से निपटने के लिये भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में अगल सेक्शन जोडऩे की सिफारि की थी। तेजाब की खुलेआम बिक्री पर अंकुश लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इस दिशा में सरकार की ओर से कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया है। पड़ोसी देश बांग्लादेश ने ऐसे अपराधों से निपटने के लिये 2002 में ही आवश्यक कदम उठा लिये थे। पाकिस्तान  एक अलग बिल संसद में पास हो गया था। इन देशों में तेजाब हमलों के पीडि़तों के पुनर्वास के भी नियम भी बनाए गए हैं, जबकि भारत में लगातार बढ़ते जा रहे तेजाब हमलों के बावजूद अब भी इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।

  कानून को सख्त बनाए जाने के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता और मानसिक सोच में बदलाव भी जरूरी है। लड़कियों को पुरुष से कमजोर मानने और अपने पैर की जूती समझने जैसी सोच को बदलने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ समाज में लड़कियों को सम्मानजनक स्थान दिया जाना आवश्यक है। जिसकी शुरूआत हम अपने-अपने परिवार से करें तो यह बात पूरे समाज तक पहुँचेगी।

परन्तु और एक बात ऐसे मामलों में जरूरी है – पिड़िता लड़की चाहे वह तेजाब से ग्रसित हो चाहे बलात्कार की शिकार हो, का भविष्य! उसे मानसिक सम्बल देने के साथ-साथ उसके उसे दिए गए कुरूपमय जीवन को जीने लायक भी बनाना होगा। घर-परिवार के सहयोग के साथ साथ उसे सामाज में सम्मानजनक स्थान दिलाना भी शासन, प्रशासन, समाज, न्याययिक व्यवस्था, कानून और कानून के रक्षकों का भी उत्तरदायित्व होना चाहिए।
जस्टिस कुरियन जोसेफ द्वारा दिया गया उपर्युक्त फैसला इस दिशा में एक अनुकरणीय कदम कहा जाएगा। उनके इस कदम से पिड़िता लड़की आर्थिक रुप से सक्षम तो होगी ही- साथ ही उसे जीने का एक मकसद भी मिलेगा अन्यथा समाज और परिवार तो ऐसी पीड़ित लड़कियों, चाहे वे बलात्कार पीड़ित हो चाहे तेजाब से झुलसी, समाज उसे एक प्रकार से उपेक्षा की दृष्टि से ही देखता है। यहाँ तक कि उन्हें लगता है कि ऐसा जीवन जीने से तो अच्छा है वह मर ही जाती। उपेक्षा और क्रूरता देखकर स्वयं लड़की के भीतर भी जीने की इच्छा खत्म हो जाती है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि उपर्युक्त फैसले से देश में चल रहे ऐसे अनगिनत फैसले जो केवल गवाह और सबूतों के कारण सही अंजाम तक नहीं पहुँच पाते और जिन फैसलों में मानवीयता की कोई भूमिका ही नहीं होती; ये फैसले कानून की परिभाषा को भी बदलने में अहम भूमिका निभाएँगे।               

3 comments:

Jyotsana pradeep said...

Ratnaji aapne yeh mudda uthakar samaaj ko chetaane ka bohot hi accha pray as kiya,,,,.....aapne sahi kana hai ki aise samay par ghar ke saath-saath sampoorn samaaj ka uttardayitva hai ki hamari kanyaon ki or prem aur samman se bhara drishtikorna rakhe......

Jyotsana pradeep said...
This comment has been removed by a blog administrator.
sujata said...

आठ साल पहले लक्ष्मी दिल्ली में बुकस्टोर जहां वो काम किया करती थीं। काम पर जाने के दौरान उस पर किसी ने तेजाब उड़ेल दिया था। कानपुर के रहने वाले आलोक दीक्षित जो पेशे से पत्रकार हैं की मुलाकात लक्ष्मी से तेजाब हमलों को रोकने की एक मुहिम के दौरान हुई और फिर वे एक-दूसरे को पसंद करने लगे। अब ये दोनों दिल्ली के पास एक इलाके में रहते हैं और अपने छोटे से दफ्तर से मिल कर तेजाब हमलों के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। उनकी इस मुहिम से तेजाब हमलों की लगभग 50 पीडि़त जुड़ी हुई हैं। लक्ष्मी इस मुहिम का चेहरा है, जो एसिड अटैक की पीडि़तों को मदद और आर्थिक सहायता मुहैया कराती है।