उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jun 11, 2013

चिंतन

छत्तीसगढ़ बनाम आंध्र प्रदेश का मसला?
- विनोद साव
बस्तर में नक्सलवाद के नाम से आरंभ हुए आंदोलन को कई दशक बीत चुके हैं और पिछले दो दशक के भीतर इस आंदोलन की आक्रामकता ने किसी साम्प्रादायिक दंगे -सा रूप धर लिया है जो और भी आगे चलकर एक दीर्घकालीन आतंकवादी हमले में तब्दील हो गई है। एक निश्चिंत विचारधारा को लेकर शुरू हुई इस लड़ाई ने जघन्य हिंसा और मारकाट का ऐसा भयावह चित्र प्रस्तुत किया है कि अब यह विचार-शून्यता- जनित लड़ाई लग रही है। जनता के लिए हक और आवाज का हल्ला बोल करने वाले लोगों की हिंसा और संवेदनहीनता को देखकर अब जनता खुद हतप्रभ हो रही है। स्पष्ट दिख रहा है कि अब यह जन-आंदोलन नहीं बल्कि अपना आधिपात्य जमाने और एक वर्ग-विशेष के लिए माल हड़पने या दूसरों के माल पर कब्जा जमाने के लिए किए जाने वाले हमले हैं। यह सीधे-सीधे भूमि अतिक्रमण करने और नैसर्गिक  स्रोतों पर नाजायज कब्जा जमाने के पैंतरे और रणनीतियाँ हैं।  बस्तर का यह नक्सलवादी आंदोलन कहीं छत्तीसगढ़ बनाम आंध्रप्रदेश का मसला तो नहीं है? इस नक्सलवादी आंदोलन पर यह विचार किया जा सकता है कि यह एक वर्ग-विशेष के मुनाफे के लिए वर्चस्व स्थापना की लड़ाई तो नहीं है?
छत्तीसगढ़ नक्सलवाद की गिरफ्त में है और इस मुहिम से अपने पड़ोसी राज्यों से घिरा हुआ है।  बिहार (झारखंड), उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र उसके ये चार पड़ोसी राज्य ऐसे हैं, जो लम्बे समय से नक्सल समस्या से ग्रस्त रहे हैं। यह नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से बंगाल से आरंभ हुआ था, फिर बिहार इसके प्रभाव में आया और उसी मार्ग पर चलते हुए इसने उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में अपना कब्जा जमाया। आश्चर्यजनक है कि बंगाल में जिस  घुर दक्षिणपंथ (आर.एस.एस.) और धुर वामपंथ (नक्सलवाद) की स्थापना हुई थी इन दोनों अतिवादी विचारधाराओं से बंगाल ने ही सबसे पहले अपना पल्ला झाड़ लिया। इस कदर पल्ला झाड़ा कि नक्सलवाद तो दूर बल्कि कट्टर कम्युनिस्टों की सत्ता को भी वहाँ से उखाड़ फेंका। अब तो बिहार, उड़ीसा और महाराष्ट्र में कुछ जागरण आया है और नक्सलवाद का प्रभाव कम हुआ है।
बिहार के तेजस्वी बिहारियों के तेवर और तासीर कुछ इस तरह से रहे हैं कि वहाँ उनसे अधिक उर्जावान् कोई दूसरा आंदोलनकर्मी नहीं हो सकता। बिहार के पड़ोसी राज्यों में पनपने वाले नक्सलवादियों के बंगाल कैडर या उड़ीसा या आंध्रा कैडर बिहार पर कहर नहीं ढा सकते। बिहारियों के साहस और बल प्रयोग के सामने विध्वंसकारी संगठन कमजोर पड़ जाते हैं। इस मायने में बिहार की आत्म-निर्भरता ने उसे नक्सलवाद के तांडव से छुटकारा दिला दिया है और अब वह पहले की तुलना में अधिक विकास के रास्ते पर अग्रसर है।
अब रह गए हैं उड़ीसा, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़। ये तीनों राज्य बिल्कुल सटे हुए राज्य हैं और इनके पड़ोसी क्षेत्र के रहवासी सामाजिक आर्थिक दृष्टि से लगभग समान रहे हैं। इन राज्यों के लोगों की कदकाठी एक समान है। इनमें हीनता, दीनता और नम्रता भी एक जैसी रही है। ये तीनों राज्य आंध्र प्रदेश के पड़ोसी राज्य हैं और इन सबके मुकाबले में आंध्र प्रदेश आबादी और क्षेत्रफल की दृष्टि से एक बड़ा राज्य रहा है। आंध्र प्रदेश दक्षिण के सभी राज्यों का सिरमौर रहा है। यहाँ के जनमानस तुलनात्मक रुप से आकर्षक कद-काठी के रहे हैं। इनके रूप रंग में साँवला-सलोनापन रहा है। ये भागने, दौडऩे और छलांग लगाने वाले एथलेटिक खेलों में बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं। जिस तरह बंगाल का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल रहा है उस तरह आंध्र में सबसे लोकप्रिय खेल व्हालीबाल रहा है। व्हालीबाल के खिलाडिय़ों के लिए जो छरहरापन और ऊँचा कद चाहिए वह आंध्र प्रदेश के तेलगु जनमानस में कहीं भी दिख जाता है। ये मीना बाजार, सरकस और सिनेमा के स्टंट सीन में भी माहिर हैं। ये कुशल नर्तक होते हैं। इन्होंने तेलगु फिल्मों को ऊँचाइयाँ दी हैं। एक तरफ इन्होंने पौराणिकता से भरी फिल्में बनाईं हैं तो दूसरी ओर जापानी फिल्मों की तरह जूड़ो कराते से भरी मारधाड़ फिल्में आज यहाँ सबसे ज्यादा बन रही हैं। इनकी चुस्ती-फुरती देखते बनती है। उनकी यह निपुणता उस समय कहर ढाती है जब ये रचनात्मक कार्यों से दिशाहीन होकर अपराध या किसी विध्वंसकारी संगठन की ओर चल पड़ते हैं, तब गुणों की यही खान अवगुणों की भयंकर खाई में बदल जाती है। संभवत: यही दिशाहीनता नक्सलवाद के आंध्रा कैडर में भरपूर रूप से देखी जा सकती है।
बस्तर के नक्सलवाद में सबसे बड़ा, सबसे सक्रिय, कट्टर, लड़ाकू और प्रभुतावादी संगठन यही आंध्रा कैडर है। इसी कैडर ने पिछले दिनों बस्तर में कांग्रेस के योग्य राजनेताओं पर कहर ढाया और उन्हें नृशंस हत्या के हवाले किया है। बस्तर के नक्सवादी संगठनों को 'दलम और 'संघम जैसे नामों से पुकारा जाता है। जाहिर है ये शब्द तेलुगु भाषा के शब्द हैं। यहाँ मारे और पकड़े जाने वाले नक्सलियों की सूची पर गौर किया जाए तो इनमें सबसे बड़ा प्रतिशत तेलुगु नक्सलियों का है जहाँ पापाराव, राजाराव, रेड्डी, सीम्हाचलम जैसे नामों की भरमार मिलेगी। इनके दबाव और प्रभाव में आकर छत्तीसगढ़ में भी कुछ नक्सली बने तो हैं पर इनकी संख्या नगण्य है। एक बार भिलाई के एक पुलिस महानिरीक्षक का बयान आया था कि भिलाई के आसपास सबसे ज्यादा अपराधी आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और बिहार से आए लोगों का है और इन्हें इनके स्थानीय रिश्तेदार संरक्षण देते हैं और इसलिए इनका पकड़ में आना मुश्किल होता है।
जिन छत्तीसगढिय़ा नक्सलियों ने आत्म-समर्पण किया है, उसमें ये बातें भी सामने आई हैं कि नक्सलवाद में भी क्षेत्रीयता की भावना जोरों पर है। दमन और अत्याचार के समय यह भी देखा जाता है कि प्रताडऩा की सजा पा रहा नक्सली छत्तीसगढिय़ा है या तेलुगु। पिछले हमले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल इसलिए भी बच गए ; क्योंकि उनका ड्राइवर तेलुगु में बोल रहा था और चिल्लाकर नक्सलियों से कह रहा था कि वह आंध्रा से आया है और उसकी कार में कोई नेता नहीं आंध्रा का एक व्यापारी बैठा हुआ है।
बस्तर के जंगलों में आंध्रा कैडर का वर्चस्व रहा तो सरगुजा के वनांचल में बिहार और उड़ीसा के नक्सलवादी संगठनों का हाथ रहा है। दरअसल, छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य रहा है ,जहाँ की लगभग आधी आबादी दूसरे प्रदेशों से आए लोगों की है... और इस बाहरी आबादी का आधे से अधिक प्रतिशत उनके इन्हीं पड़ोसी राज्यों से आए हुए लोगों का है। अपनी आबादी के इसी अनुपात के कारण भी छत्तीसगढ़ के राजनीतिक समीकरण में संतुलन का अभाव दिखता है और यह राज्य इस प्रदेश की प्रकृति व भावना के अनुरुप नहीं बन पा रहा है।
नक्सलवाद का पूरे छत्तीसगढ़ में जम जाने के सबसे बड़े दो कारण हैं- एक यह कि यहाँ के जनमानस में विरोध करने की प्रकृति और लड़ाकूपन नहीं है। ये सामान्य कद काठी के लोग हैं जो नुकसान उठाकर भी चुपचाप सहन करने की क्षमता के साथ सीधा-सादा जीवन व्यापन करते हैं। छत्तीसगढ़ पुलिस के सिपाहियों में भी यह नम्र व अहिंसक प्रकृति देखी जा सकती है और इस प्रकृति के कारण भी छत्तीसगढ़ पुलिस आंध्रा कैडर के नक्सलियों के सामने कमजोर बैठती है। दूसरा बड़ा कारण है यहाँ वनांचलों में प्राप्त अकूत नैसर्गिक स्रोत। नक्सलवादी संगठन जो एक समय में वंचित, पीडि़त और दलित जनता के संरक्षण के अभियान तले छत्तीसगढ़ के वनांचल क्षेत्रों में आए होंगे, तब एक तरफ  उन्हें इन पहाड़ी युक्त घने जंगलों और बीहड़ों में अपने अभियान को गति देने के लिए उपयुक्त ठौर दिखा होगा वहीं बाद में इनके नैसर्गिक स्रोतों, इमारती लकडिय़ों, फूलों-फलों, अन्य वनोपजों, स्वच्छ नदियों, झरनों, भोले भाले आदिवासियों और उनकी सुगठित देहयष्टि वाली स्त्रियों को देखकर कालांतर में उनकी मंशा और नीयत में बदलाव आया होगा और वे इस सुन्दर व भरे पूरे वन परिक्षेत्र में बस जाने और यहॉ राज करने की लालसा उनकी बढ़ी होगी। 
अब के नक्सलवाद में राज करने की यही चेष्टा स्पष्ट देखी जा सकती है। अपने लम्बे इतिहास और दीर्घकालीन अनुभव से उन्होंने राज्य की सत्ता के समानांतर अपना भरापूरा संगठन खड़ा कर लिया है। इनके पास लाखों लोग हैं, करोड़ों का धन है, आधुनिक उपकरणों से युक्त कमांडो व सैन्य शक्ति है। इतना कि ये समानांतर सरकार चलाने का दावा और फरमान जारी करते हैं। हर राज्य की सरकारों से ये उम्मीद करते हैं कि राज्य के मैदानी क्षेत्र को तुम देखो और जंगल हमारे लिए छोड़ दो। इसके लिए ये सरकार से टकराव लेते रहते हैं और अपना शक्ति व शौर्य प्रदर्शन करते रहते हैं। अपने हमलों से ये साबित करते हैं अब यहाँ केवल जंगल राज है।
कभी छत्तीसगढ़ के एक पृथक्तावादी कवि ने गीत गुँजाया था कि 'हर जवान जब हो जायेगा दीवाना- तब छत्तीसगढ़ कहलाएगा तेलंगाना।’  उनके गीत का यह उल्टा असर छत्तीसगढ़ में देखा जा सकता है कि अब छत्तीसगढ़ किस तरह से तेलंगाना हो गया है।

1 comment:

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

भारत में नक्सलवाद पूरी तरह समाप्त हो चुका है। चीनी माओवाद ने उसकी हत्या कर दी है। बस्तर की भौगोलिक दुर्गमता और छत्तीसगढ़ के लोगों में जुझारूपन के अभाव ने आन्ध्र के उग्रवादियों को आमंत्रित किया है। और आन्ध्र के उग्रवादियों को ख़रीदा है टुच्चे चीनियों ने जिनके ब्रेनवाश ने इन उग्रवादियों को देशद्रोही बना दिया है। हमारी राज्य सरकारें चीनी आतंकवाद को रोक पाने में असफल रही हैं। चीन छत्तीसगढ़ में है .... चीन भारत की सीमाओं पर है और और उसका सशक्त प्रतिरोध करने वाला कहीं कोई नहीं है। किंतु हम केवल सरकारों को ही पूरी तरह दोषी नहीं ठहरा सकते। समाज की निष्क्रियता भी इसके लिये कम ज़िम्मेदार नहीं है।