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Apr 13, 2013

उदंती.com-अप्रैल 2013

उदंतीः अप्रैल 2013
शांति से बढ़कर कोई तप नहीं, संतोष से बढकर कोई सुख नहीं,
तृष्णा से बढ़कर कोई व्याधि नहीं और दया के समान कोई धर्म नहीं
               - चाणक्य
 



अनकही: जल संकट की आहट..                 -डॉ. रत्ना वर्मा

अनकही

जल संकट की आहट...


अपने बचपन को याद करती हूँ, तो याद नहीं आता कि कभी पानी की इतनी गंभीर समस्या नजर आई हो जैसी इन दिनों हम देख रहे हैं। वह शायद इसलिए कि आज से पाँच दशक पहले तक हमारे आस-पास  तालाब, कुएँ, पोखर, नहर, नदी आदि जल के विभिन्न स्रोत उपलब्ध रहा करते थे। इतना ही नहीं तब न पर्यावरण इतना प्रदूषित हुआ था, न जल -संकट की ऐसी भीषण समस्या नजर आती थी। धरती हरी-भरी थी, चारो ओर जँगल ही जँगल थे, कुएँ और तालाब इतने कि गिनती नहीं कर सकते थे। तब न आज की तरह वैज्ञानिक थे, जो बताते कि जल को कैसे संरक्षित किया जाए, मानसून के पानी को तालाब, पोखर कुएँ में संरक्षित करने की कला पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में सदियों से चली आ रही थी। बचपन में हमें प्रकृति के प्रति जागरूक करने वाली बातें किस्से कहानियों के माध्यम से बताए-सिखाए जाते थे- कि जल बिना  जीवन संभव नहीं है। हमें बचपन से ही प्रकृति के प्रति इतना संवेदनशील बना दिया जाता था कि रात में गलती से पेड़ पौधों को छू भी देते थे या कोई पत्ती तोड़ लेता था तो यह कहकर उनकी रक्षा के प्रति सचेत किया जाता था कि पेड़-पौधे भी रात में सोते हैं, उनको छुओ मत। इसी तरह तब गाँव में बड़, पीपल, नीम और आँवला जैसे कई पेड़ों की पूजा क्यों की जाती थी, आज उसका महत्त्व समझ में आता है। तब उन्हें बचाने का सबसे सुलभ रास्ता, उन्हें पूजनीय बना देना ही था। जाहिर है जो स्थान या वस्तु देव तुल्य बना दी जाए, उसे कोई भी कैसे नुकसान पँहुचा सकता है। यही स्थिति जल के स्रोतों पर भी लागू होती थी; इसलिए गाँव-गाँव में कुआँ, तालाब खुदवाने की सांस्कृतिक परम्परा सदियों से चली आ रही है। नया तालाब या कुआँ खोदने के बाद उनकी पूजा, विवाह आदि की परंपरा थी। (उदंती के इसी अंक में राहुल सिंह जी अपने आलेख के माध्यम से छत्तीसगढ़ के तालाबों के बारे में शोधपरक जानकारी दे रहे हैं, जिससे आपको पता चलेगा कि तालाबों का हमारे जीवन और हमारी संस्कृति से कितना गहरा संबंध है।)
यह तो सर्वविदित है कि पानी की गंभीर समस्या जो कभी सिर्फ गर्मी के मौसम में आया करती थी,  आजकल साल भर रहती है। इसका अंदाजा आप शहरों में नल की टोटियों के सामने साल भर लगने वाली लाइनों को देखकर लगा सकते हैं। गाँवों में भी कृषि सिंचाई की समस्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। मानसून कभी कम कभी ज्यादा भले ही होती है असली उपाय उन्हें संरक्षित करने की है, जिसकी ओर आज बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। यह भी सत्य है कि जल संकट से उबरने के लिए प्रति वर्ष हजारों सरकारी प्रयास होते हैं,  नई-नई योजनाएँ बनाती है पर नतीजें हमेशा ही निराशाजनक रहते हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे योजनाकार हमारी धरती, हमारी प्रकृति में मौजूद जलवायु और भौगोलिक परिस्थिति से मेल खाती परम्परागत जल स्रोतों के संरक्षण संवर्धन के बजाय उन आयातीत तकनीकों का सहारा लेकर इस समस्या से उबरना चाहते हैं। प्राकृतिक जल सोतों के बजाय हम नलकूप, हैंडपंप लगा कर धरती का दोहन तो भरपूर कर रहे हैं;पर खाली होती धरती को फिर से भरने के लिए कोई उपाय नहीं करते। यदि हम तालाब, कुएँ और बावडिय़ों में मानसून के पानी को इकट्ठा नहीं करेंगे तो हैंडपंप और नलकूप से पानी कैसे ले पाएँगे। अफसोस की बात है कि हम प्रकृति से सिर्फ लेना जानते हैं देना तो हमने सीखा ही नहीं है। बैंक खाते में जब पैसा ही जमा नहीं कराएँगे तो निलालेंगे क्या और कैसे ?
अत: आज की प्रथम जरूरत हमारे परम्परागत जल स्रोतों को पुन: जीवित करने की है। याद कीजिए आज से कुछ दशक पहले तक सिर्फ गाँव ही नही शहरों में भी जगह- जगह कई तालाब और कुएँ नजर आते थे। परंतु अफसोस आधुनीकीकरण की अंधी दौड़ में जल आपूर्ति के इन अनुपम स्रोतों को हम नष्ट करते चले जा रहे हैं। शहरों के अधिकतर तालाब भूमाफियाओं के हवाले हो गए हैं और धीरे-धीरे समतल भूमि में तब्दील होते चले जा रहे हैं। जो तालाब कभी एक बहुत बड़े इलाके की जल-आपूर्ति करता था; आज वहाँ मल्टी स्टोरी भवन खड़े नजर आते हैं। कहीं जो थोड़े बहुत तालाब बच रह गए हैं, उनकी ओर प्रशासन का ध्यान ही नहीं जाता, शहर की सारी गंदगी वहीं बहकर इकट्ठा होती है और वह एक गंदे नाले का रूप ले लेती है या फिर कूड़ेदान  के रूप में तब्दील हो जाती है। नगर प्रशासन की ओर से अक्सर इन तालाबों के रख-रखाव,  उनको गहरा करने और उनके सौन्दर्य को बढ़ाने की योजनाएँ बनती हैं, पर बाधाएँ कहाँ नहीं हैं। कहीं राजनीति आड़े आती है तो कहीं नियम कानून।
यह तो हम सब जानते हैं कि जल आपूर्ति के लिए हम पूरी तरह मानसून पर निर्भर हैं; पर मानसून के इस जल को यदि हम सँजो कर नहीं रखेंगे तो भविष्य में जल की पूर्ति कैसे करेंगे। विभिन्न अध्ययनों के बाद मौसम वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रकृति के साथ निर्ममता से पेश आने का सबसे बड़ा संकट अगले दशक में आने ही वाला है और वह यह कि दुनिया में अगला युद्ध पानी के लिए होगा। प्रकृति की बदलती चाल अब हमें चेतावनी देने भी लगी है कि हमें अब चेत जाना चाहिए, अन्यथा प्रकृति मानव को सजा  जरूर देगी, अकाल, सूखा और प्रकृतिजनित अन्य आपदाओं के रूप में। प्रसिद्ध गाँधीवादी और जलयोद्धा अनुपम मिश्र जी का मानना है कि परम्परागत जलस्रोतो के संरक्षण के बल पर ही हम 21वीं सदी में पेयजल के संकट से उबर सकते हैं। उनका मानना है कि वर्ष 2050 में जब भारत की जनसंख्या डेढ़ अरब का आँकड़ा पार चुकी होगी तो देश के सामने जल-संकट एक बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित होगा। लेकिन देश के नीति नियंता इस मुद्दे पर गंभीर नजऱ नहीं आते। उनका कहना है कि पानी का कोई विकल्प नहीं हो सकता, इसकी पर्याप्त उपलब्धता के लिए व्यापक स्तर पर मुहिम चलाने की आवश्यकता है।
 ज्ञात हो कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2013 को अन्तर्राष्ट्रीय जल सलाहकार वर्ष के रूप में घोषित किया है इसे ही ध्यान में रखते हुए गाँधी शाँति प्रतिष्ठान ने मई 2013 से मई 2014 तक एक विशेष अभियान 'जल को जानें  चलाने का निर्णय लिया है। इस विशेष अभियान का उद्देश्य जल का महत्त्व, संबंधित विचार, स्रोतों की बुनियादी समझ, पानी के प्रति पारंपरिक व आधुनिक दृष्टि, चुनौती व समाधान जैसे मसलों को लोगों के मध्य ले जाना होगा। खासतौर पर शिक्षण संस्थाओं और युवाओं के बीच पानी की बात पहुँचाने का प्रयास किया जाएगा।  गाँधी शांति प्रतिष्ठान की तरह ही जल को लेकर सक्रिय  तरुण भारत संघ के राजेंद्र सिंह' जल जन जोड़ो  अभियान शुरू करने जा रहे हैं। उनके अनुसार पानी के प्रति समझ और जागरूकता की जरूरत गाँवों की बजाय शहरों को ज्यादा है; क्योंकि जनसंख्या का दबाव यहाँ ज्यादा है। अत: वहाँ पानी के अंधाधुंध दोहन को रोकने, उपचारित पानी के उपयोग को बढ़ाने, वर्षा जल-संचयन को अनिवार्य करने सहित कई उपायों पर समग्र अभियान चलाया जाएगा।
इस तरह के अभियान आज पूरे देश में हर शहर और हर गाँव में चलाए जाने की जरूरत है।  शिक्षण संस्थानों में बच्चों को इस गंभीर समस्या के प्रति जागरूक करना होगा। अपने परम्परागत स्रोतों को बचाने के लिए मुहीम चलानी होगी। सामाजिक संगठनों, संस्थाओं को आगे आकर सरकार पर दबाव बनाना होगा कि वे विकास के नाम पर देश को विनाश की ओर न ले जाएँ। हम जल संरक्षण के परम्परागत स्रोतों को अपना कर ही अपनी संस्कृति और प्रकृति की रक्षा कर सकते हैं। ...  तो आइए आने वाले जल संकट की आहट को पहचानें और सब मिलकर इस गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो जाएँ।      
                                                                                                            -डॉ. रत्ना वर्मा

आछे दिन पाछे गए

आछे दिन पाछे गए
- अशोक भाटिया
कंचे, गीटे, ठीकरे, गायब हुए अनाम।
बैट प्लास्टिक गेंद अब, खेलों के भगवान।।

बीसवीं सदी के सातवें दशक के शुरूआती दिन थे। ये दिन हमारे बचपन की भरी जवानी के दिन थे। तब के पंजाब के इस  छोटे से फौजी शहर अम्बाला छावनी  का वह मुहल्ला हम हम-उम्र बच्चों के लिए मानो संपूर्ण संसार था। वह आधा मुहल्ला था, जो पीछे गली से जुड़ा था। गली पीछे से बंद थी। इसमें कुल पंद्रह-सोलह घर थे। तब किसी के रहन-सहन में लगा ही नहीं कि दूसरों से कोई फर्क है। एकाध को छोड़ सबके सब करीब एक ही माली हालत में जी रहे थे। उनमें सब्जी वाला, चाय वाला, ठेले वाला, ताँगे वाला, डाकखाने का मुँशी, रेलवे का मुँशी, बूचडख़ाने का मुँशी, रंगसाज, बैंक का क्लर्क, पहरेदार, कबाड़ी वगैरा थे। जमींदार और मिल स्टोर के मालिक भी थे। लेकिन हमें उन सबसे कोई मतलब न था। अब लगता है कि सातवीं-आठवीं क्लास में आने तक हम सबका एक ही मकसद था- खेलना। इसमें न तो अमीर-गरीब का फ़र्क था, न लड़के-लड़की का, न ही छोटे-बड़े का। जो जब घर से बाहर निकल आए, खेल में शामिल हो जाए। स्कूल से आकर बस्ता पटका, कुछ खाया न खाया, और घर से बाहर। कोई खेल हो, कोई खिलाड़ी हो- सब सहज स्वीकार। भक्त वह है जो विभक्त न हो। इस नाते हम पंद्रह-बीस बच्चे खेलों के परम भक्त थे।
एक खेल था-पोशम-पा। इसमें कोई दो बच्चे आमने-सामने हाथ पकड़कर सीधे बाजू कर खड़े हो जाते। दोनों बोलते-पोशम- पा भई पोशम पा, डाकिए ने क्या किया, सौ रुपये की घड़ी चुराई, अब तो जेल में आना ही पड़ेगा। जब तक यह बोला जाता, सामने पंक्तिबद्ध खड़े सभी बच्चे बारी-बारी से उन जुड़े हाथों के नीचे से एक तरफ से घुसते और दूसरी तरफ से निकल आते। आखिरी लफ्ज़ बोलते हुए जो अंदर फँस जाता, वह आउट हो जाता। सबसे आखिर में जो बच जाता, उसे विजेता घोषित किया जाता।
इसी तरह एक खेल था- लक्कड़-छू। मौहल्ले के किसी भी एक मकान के लकड़ी के दरवाजे से खेल शुरू होता था। एक बच्चे को चोर मान लिया जाता। चोर का मतलब कि पहले उसकी बारी है। बाकी सब बच्चे उस लकड़ी के दरवाजे को पकड़कर खड़े हो जाते और इके बोलते- 'अम्बाँ वाली कोठरी, अनाराँ वाला वेहड़ा, बाबे नानक दा घर केहड़ा। आमों वाली कोठी, अनारों वाला आँगन, बाबा नानक का घर कौन-सा है? बारी देने वाला किसी घर का नाम बोलता और हम सब लकड़िय़ों से बनी चीज़ों को छूते-छूते उस घर तक जाते। इस दौरान जो बच्चा लकड़ी छुए बिना पकड़ा जाता, वह चोर मान लिया जाता और फिर वह बारी देता।
कंचे लड़कों का और गीटे लकडिय़ों का सबसे लोकप्रिय खेल था। गीटे खेलने लड़के भी पहुँच जाते थे। गीटे दो बच्चों का खेल है। यह लकड़ी के चार या पाँच वर्गाकार सुंदर टुकड़ों से खेला जाता था। गेंद उछालकर चारों गीटे ज़मीन पर फेंके जाते और गेंद पकड़ ली जाती। पहले एक-एक गीटा उठाया जाता, फिर दो-दो, फिर तीन-एक, फिर चारों इकट्ठे उठाए जाते। अंत में चारों गीटे उछालकर हाथ उलटा करके उस पर गीटे टिकाते और फिर उन्हें उछालकर पकड़ लेते। अगर हाथ पर आए सारे गीटे पकड़ लिए जाते, तो सामने वाले पर उतने 'बाजे चढ़ जाते। एक बच्चा तब तक यह खेलता रहता, जब तक कि उससे कोई गलती नहीं हो जाती थी। अगर हमारे पास गीटे न होते तो, एक आकार के चार-पाँच पत्थरों से ही काम चला लेते थे। इन सब खेलों में हम इस कदर मगन होते थे कि न हममें से कभी कोई रोंची पीटता, न कभी किसी को हार का गम होता था।
एक खेल था-चील-चील काटा। इसमें सारे बच्चे दो टोलियों में बँट जाते। यह दो बच्चों से लेकर कितने भी बच्चों के बीच खेला जा सकता था। इसमें दो टोलियाँ बनायी जाती थीं। दोनों एक-दूसरी टोली से छिपकर मिट्टी के ठीकरों, स्लेट, कॉपी, दीवार वगैरा पर बत्ती, चाक या कोयले वगैरा से लकीरें लगाती थी। लगाकर इन्हें छिपा दिया जाता था। काफी वक्त के बाद एक टोली का बच्चा एक जगह आँख पर हाथ रखकर या दीवार की तरफ मुँह कर तयशुदा गिनती (बीस या पचास) गिनता। इसके बाद एक टोली दूसरी टोली की लकीरों वाली चीजें ढूँढ-ढूँढकर उन्हें काटती जाती। जो चीजें ढूँढने से रह जातीं, उनकी लकीरों की गिनती की जाती। जिस टोली की बची हुई लकीरें ज्यादा निकलतीं, वह जीत जाती।
शाम को हमारा मुहल्ला खेल का मैदान बना होता। कब एक खेल से दूसरे खेल में शिफ्ट हो जाते, पता ही न चलता। कई बार कुल दो ही लड़के या लड़कियाँ होतीं और उनके पास खेलने की कोई चीज़ न होती। तब वे मिलकर गपशप करते, औरों का इंतजार करते या कीकली डालते। कीकली पंजाब की युवा स्त्रियों का सबसे प्रसिद्ध और सबसे सीधा खेल है। दो स्त्रियाँ आमने-सामने खड़ी हो जाएँगीं। अपना दायाँ हाथ दूसरे के दाएँ हाथ से और बायाँ हाथ बाएँ हाथ से पकड़ लेंगी। दोनों तेजी से घूमना शुरू करती हैं और साथ में बोलती हैं-कीकली कलीर दी, पग्ग (पगड़ी) मेरे वीर दी, दुपा मेरे भाई दा, शेर सिपाही दा।फिर धीरे-से बोलती-फिटे-मुँह जवाई दा (दामाद को लानत है)। मौहल्ले में अगर एक लड़की और एक लड़का हैं, तो यह लड़की की मर्जी पर होता कि वह लड़के से कीकली खेलगी या नहीं।
थोड़ा अँधेरा होने पर हम सब 'आइस-पाइसखेला करते। एक बच्चा बारी देने के लिए चोर बनता और एक नुक्कड़ पर जाकर दीवार की तरफ मुँह करके बीस तक गिनती करता और बाकी सब छिप जाते। वह उन्हें ढूँढता हुआ उनका नाम लेकर आइस-पाइस कहता जाता। अगर इस बीच किसी ने चुपके से आकर उसकी पीठ पर हाथ से लिपड़ी (धौल) जमाकर 'ठप्पाबोल दिया, तो बाकी सब छिपे रह गए बच्चे बाहर निकल आते और वही बच्चा फिर से बारी देता। अगर वह सबको ढूँढ निकालता, तो जिसे सबसे पहले ढूँढा था, फिर उसको बारी देनी होती थी। यह दिन के वक्त भी खेला जाता था। कोई घर से नमक लगा गीला आटा ले आया है और छिपकर खा रहा है। कोई घास-फूस के बीच बैठा पत्ते तोड़कर उन्हें कटोरी साग कहकर खा रहा है। रात में यह खेल तब तक चलता, जब तक हमें अपने घरों से एक-दो तीन बार बुलावा न आ जाता। स्कूल का काम तो सोने से पहले मजबूरी या रस्म-अदायगी लगता।
एक और खेल था- कड़क्को। इसमें दो से तीन-चार तक बच्चे खेलते थे। इसमें कच्ची जगह पर किसी ठीकरे से छह आयताकार जुड़े हुए खाने बनाए जाते। चौथे और छठे खाने को फिर दो हिस्सों में बाँट लिया जाता। अब पहला बच्चा ठीकरी को पहले खाने में डालता और उस खाने को छोड़ सब खानों में एक पैर से उछल-उछलकर कदम रखता जाता। फिर वापसी पर वह ठीकरी उठा लाता। शर्त यह होती कि बाहर से ठीकरा फेंकने पर वह ठीक उसी खानें में पड़े, जिसकी अब बारी है। दो खानों की लाइन पर न तो ठीकरा आना चाहिए, न ही खाने पार करते हुए लाइन पर पैर आना चाहिए। इस तरह आठों खाने पार लेते तो दूसरे पर एक बाजी हो जाती। यहाँ कह दूँ कि हम बचपन के खिलाड़ी प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ीजितने ही खेल में डूबकर खेलते थे, लेकिन उनकी तरह कभी झगड़े नहीं, न ही खेलने के लिए घरवालों से कभी दूरी बनाई।
छोटे-से मौहल्ले के हम दर्जन-भर बच्चे न जाने कितने खेल खेले। कोकलाछी पाती, ऊँच-नीच, कंचों से नक्का-पूर का खेल, पंतगबाजी, रस्सी टापना- यह सब मिल-जुलकर खेले जाते थे। कुछ न मिला, तो बोतलों के ढक्कनों से ही खेल लिए। वह भी न बना तो सिगरेट की डिब्बियों के ऊपरी कवर भी रिज़र्व में रखे होते थे। लेकिन खेल-खेल में शरारत का एक वाकया रह-रहकर याद आता है। मुहल्ले के बीच में एक तरफ कुआँ होता था। शुरू में घरों में नल नहीं होते थे और सब घर कुएँ  से ही पानी लेते थे। बाद में नल आने पर कुएँ से पानी लेना धीरे-धीरे बंद हो गया था। लेकिन कुआँ अभी बंद नहीं हुआ था। कुएँ के ठीक साथ वाले मकान में फकीरचँद नाम का आदमी सपरिवार रहता था। वह चिढ़ता बहुत था, इसलिए हम कुछ लड़के उसे चिढ़ाने के उपाय खोजते रहते थे। गर्मियों की छुट्टियाँ थीं और दोपहर को हम घरों से निकल आते थे। चुपके-से एक ईंट उठाते और कुँए में फेंककर छुप जाते। वह बाहर निकलता, हमें ढूँढता, पर हम कहीं दिखाई न देते। हम कुछ-कुछ दिन बाद ऐसा करके अपना आनन्द बरकरार रखते। एक दिन हमने एक ईंट डाली, तो उस घर का दरवाजा नहीं खुला। फिर दो ईंट इकट्ठी डाली, तो भी उधर कोई असर नहीं हुआ। हम भला कैसे हार मानते। हम चार थे। चारों में मैं थोड़ा बड़ा था पर शायद दु:साहसी भी। एक बड़ा-सा पत्थर उठाने का निर्णय हुआ। पत्थर को कुँए के लोहे के जगत तक हम लाए और मैंने तीनों को पीछे हटने को कहा। बाएँ हाथ की बड़ी उँगली पत्थर के नीचे आ गई थी। पर तब तो सर पर  भूत सवार था। पत्थर को कुँए में धकेला। एक ज़ोरदार आवाज़ ने हमारे आनंद के सारे द्वार खोल दिए। 'भड़ाकसे फकीरचँद का दरवाजा खुला और हम मुहल्ले से बाहर भाग लिए। करीब आधे घंटे बाद चुपके से मौहल्ले में घुसे, यह सोचकर कि अब तक तो वह कमबख़्त अपने घर में चला गया होगा। और मेरी वह उँगली! अपनी उँगली का नाखून उतर गया। माँस फट गया। आज भी जब बायीं मध्यमा पर उस घटना का निशान देखता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान तैरने लगती है। फिर मन में खयाल आता है- आछे दिन पाछे गए।

 संपर्क: 1882, सेक्टर-13,करनाल-132001
(हरियाणा) फोन न.- 09416152100
Email- ashokbhatiaonline@yahoo.co.in

चिंतन

जिस पथ जाएँ वीर अनेक...

- शशि पाधा
     वीरता का पथ विश्वशांति और सौहार्द की ओर जाता है और युद्ध में मानवीयता का एक महत्वपूर्ण पक्ष भी होता है। पाकिस्तान की फौज ने बार-बार इन नियमों का उल्लंघन कर युद्ध की नैतिकता को खुली चुनौती दी है।
कुछ दिन पहले समाचार पत्रों में एक दिल दहलाने वाली खबर पढ़ी। भारत पाक सीमा के उत्तरी क्षेत्र जम्मू कश्मीर में सीमा रक्षा में संलग्न एक पलटन के दो वीर सैनिकों की पाकिस्तान सैनिकों ने नृशंस हत्या कर दी।  उस क्षेत्र में सर्दियों के दिनों में पाक सीमा की ओर से आतंकवादी छद्म वेश में भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने का प्रयत्न करते रहते हैं ताकि आतंक का वातावरण बना रहे।  एक रात जब भारतीय सैनिक नियंत्रण रेखा के पास पेट्रोलिंग कर रहे थे तो  नियंत्रण रेखा के नियमों का उल्लंघन करते हुए पाक सैनिकों ने घात लगाकर हमारे दो सैनिकों को  घायल कर दिया। केवल  इतना ही नहीं वे उन घायल सैनिकों में से एक का सर काट कर सीमा के पार ले गए तथा उनके शवों को क्षत-विक्षत करके फेंक दिया। यह पाकिस्तान की 29 बलोच रेजीमेंट के जवान थे।   इस शर्मनाक एवं निर्मम काण्ड से सारा भारत क्षुब्ध है।  ऐसे बर्बर व्यवहार को कैसी सैनिक कारवाई का नाम दिया जा सकता है?  इसका उत्तर क्या किसी मानवाधिकार संस्था के अधिकारियों के पास है?
युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं।  युद्ध क्षेत्र में अस्त्र-शस्त्र उठा कर शत्रु का सामना करना , स्वयं को उसके वार से बचाना, शत्रु को निरस्त्र करके उसे हराना आदि-आदि बातें तो पढ़ी और सुनीं थी; किन्तु  घायल सैनिकों को पकड़कर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना, उन के अंग-भंग करना ,घायलों का गला काट कर उनके शरीर को क्षत-विक्षत अवस्था में छोड़ देना, विश्व में किसी भी सैनिक प्रशिक्षण की किताबों में नहीं लिखा गया है।  बर्बरता का ऐसा व्यवहार कोई मानव नहीं शैतान ही कर सकता है। इससे पहले भी पाक सेना के दानवतापूर्ण व्यवहार के ऐसे समाचार आए हैं। 1965 के भारत पाक युद्ध के समय डेरा बाबा नानक की सीमा रेखा के पास एक भारतीय सैनिक अधिकारी के शरीर के टुकड़े-टुकड़े  कर के उन्हें भारतीय सीमा के अन्दर भिन्न-भिन्न स्थानों पर फेंक  दिया गया था। कारगिल युद्ध के दौरान  कैप्टन सौरभ कालिया तथा उनके अन्य साथियों के साथ  पाकिस्तानी सेना ने जो अमानवीय व्यवहार किया गया था, उसे लेकर सौरभ कालिया के दु:खी माता-पिता आज तक मानवाधिकार संस्थाओं का द्वार खटखटा रहे हैं। इसी दर्दनाक व्यवहार के विपरीत  उसी कारगिल युद्द के दौरान भारतीय सेना के द्वारा पाक शहीदों के प्रति  युद्ध के नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण  सद्वयवहार के एक दृष्टान्त से अपने पाठकों को परिचित करवाना चाहूँगी ।  कारगिल क्षेत्र की ऊँची चोटियों पर पाक सेना के कुछ सैनिक भारतीय क्षेत्र में मृत पाए गए थे। उनके पास जो दस्तावेज पाए गए थे, उनसे पता चला कि यह पाकिस्तान की 'नर्दर्न लाईट इन्फेंट्री  के जवान थे ,  जिन्हें आम नागरिक के कपड़े पहना कर घुसपैठियों के रूप मे कारगिल की चोटियों पर भेज दिया गया था। जब भारतीय अधिकारियों ने उनके शवों को पाकिस्तान को सौंपना चाहा तो उन्होंने उनके शव लेने से केवल इसलिए इन्कार कर दिया ताकि वे संयुक्त राष्ट्र संघ की रक्षा समिति को तथा पूरे विश्व के सम्मुख यह साबित कर सकें कि उनकी सेना ने नियंत्रण रेखा का उल्लघन नहीं किया है ।  तब मानव मूल्यों में आस्था रखने वाले हमारे सैनिकों ने पूरी इस्लामिक रीति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया था।  ये भारतीय सेना के प्रशिक्षण तथा उनके हृदय में बसी हुई संवेदनशीलता के ज्वलंत दृष्टाँत हैं।   
आज की ऐसी दुखांत परिस्थितियों में मुझे इतिहास के उस पन्ने का स्मरण हो आया जहाँ युद्ध -बंदी पोरस से सिकंदर ने पूछा, आप मेरे बंदी हैं, आप के साथ  कैसा व्यवहार किया जाए? वीर पोरस ने कहा , जो एक वीर राजा दूसरे बंदी राजा के साथ करता है।   यह सुनकर सिकंदर को अपना सैनिक धर्म याद रहा और उसने पोरस को ना केवल रिहा कर दिया; अपितु उसकी वीरता को ध्यान में रखते हुए उसे उसका राज्य लौटा दिया। आज विडम्बना यह है कि भारत-पाक की जिस सीमा क्षेत्र में यह अमानवीय घटना हुई है, उसी क्षेत्र के कुछ ही दूर नदी के किनारे सिकंदर तथा पोरस का युद्ध भी हुआ था। तब दो शत्रुओं का परस्पर सद्भावना पूर्ण व्यवहार आने वाले युग के लिए एक उदाहरण बन गया था। 
यह तो हुई इतिहास की बात। युद्ध क्षेत्र में शत्रु पक्ष के साथ मानवता एवं सद्भावना के व्यवहार का एक अन्य उदाहरण आपके साथ साँझा करना चाहूँगी। द्वितीय महायुद्ध के समय जर्मन जनरल इर्विन रौमेल जर्मन अफ्रीका कोर का नेतृत्व कर रहे थे।  इस युद्ध के समय जर्मन सेना ने शत्रु पक्ष के सैंकड़ों सैनिकों को युद्ध बंदी बना लिया था। अफ्रीका के जिस क्षेत्र में इन युद्ध बंदियों को रखा गया था, वहाँ पीने के पानी तथा खाने के राशन की बहुत कमी हो गई थी। किसी अधिकारी के यह सुझाने के बाद कि युद्ध बंदियों की पानी तथा अन्न की सप्लाई कम कर दी जाए, जनरल रौमेल ने कड़े स्वर में कहा, अब वे शत्रु नहीं, युद्धबंदी हैं और हमारे क्षेत्र में हैं। उनके और हमारे राशन-पानी की सप्लाई एक जैसी रहेगी। ऐसा आदेश एक ऐसा वीर सैनिक ही दे सकता है; जिसके हृदय में मानव प्रेम की भावना की अविरल धारा बह रही हो।  
युद्ध क्षेत्र में युद्ध के समय शत्रु को परास्त करने की भावना प्रबल होती है। उस समय अर्जुन द्वारा केवल पंछी की आँख देखने की तरह केवल एक ही उद्देश्य होता है कि किस प्रकार दृढ निश्चय के साथ शत्रु को नष्ट किया जाए।  ऐसी प्रक्रिया में दोनों पक्षों में जान-हानि होना स्वाभाविक है।  ऐसी मुठभेड़ में अगर शत्रु-पक्ष का कोई  सैनिक घायल हो जाए, पलट कर वार करने में अक्षम हो जाए, अथवा युद्ध बंदी हो जाए तो वहाँ मानव धर्म सर्वोपरि हो जाता है। तब वो शत्रु नहीं रह जाता।  ऐसी स्थिति में विश्व की हर सेना को जेनेवा कन्वेंशन के नियमों का पालन करना पड़ता है।  और फिर मानवता, दया तथा सौहार्द के भी कुछ अलिखित नियम होते हैं। यह बात मैं अपने सैनिक जीवन के अनेक अनुभवों के बाद पूरे अधिकार से कह सकती हूँ।
 इस संदर्भ में मैं आपसे एक ऐसा दृष्टांत बाँटना चाहूँगी जो पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के बिल्कुल विपरीत भारतीय सेना के नैतिक मूल्यों, भारतीय संस्कृति के आदर्शों पर प्रकाश डालता है । वर्ष 1971 के भयंकर भारत-पाक युद्ध के समय भारतीय सेना की पलटन (स्पेशल फोर्सिस की एक इकाई) जम्मू कश्मीर में छम्ब क्षेत्र में तैनात थी। वहाँ 17 दिन के भयानक युद्ध के समय हमारी पलटन तथा पाक सेना की एक पलटन की आपसी मुठभेड़ में शत्रु पक्ष के बहुत सारे सैनिक बुरी तरह घायल हो गए। परिस्थिति ऐसी थी कि वे सभी  उस समय घायल अवस्था में भारतीय सीमा से लगे हुए क्षेत्र में थे; जिन्हें पाकिस्तानी सेना रात के अँधियारे में वहीं छोड़ कर चली गई थी। हमारे सैनिकों ने उन सभी पाकिस्तानी घायलों को उठा कर पास के मेडिकल कैम्प तक पहुँचाया; जहाँ डाक्टरों ने उनकी मरहम पट्टी करने के बाद में युद्धबंदियों के कैम्प में भेजा। उन घायल शत्रु सैनिकों में एक पाकिस्तानी सेना के कर्नल भी थे, जिनकी अवस्था काफी गंभीर थी।  उनकी मरहम पट्टी करते समय भारतीय डाक्टरों को पता चला कि उनके शरीर को भारी मात्रा में रक्त पूर्ति की आवश्यकता थी, इसके बिना उनकी मृत्यु भी हो सकती थी। उस चिकित्सा शिविर में हमारे वीर सैनिकों ने मानव धर्म की उच्चतम मिसाल देते हुए उनके लिए अपना रक्त दान किया।  ऐसे में न केवल हमारे चिकित्सा कर्मियों ने, अपितु केवल एक रात पहले इन्हीं के साथ युद्ध में संलग्न सैनिकों ने रक्त दानकर के भारतीय सेना के उच्चतम आदर्शों का परिपालन किया। 
हमारे पाठक यह भी जानते हैं कि वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध के उपरान्त पाक सेना के आत्म समर्पण के बाद लगभग 90,000 (नब्बे हजार) युद्ध बंदियों को भारत में बहुत सद्भावनापूर्ण व्यवहार के साथ रखा गया था।  इन्हें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई गई और 'शिमला एग्रीमेंट के बाद इन्हें सकुशल इनके देश भेज दिया गया। ऐसे ही देश के सैनिकों द्वारा ऐसे निर्मम व्यवहार को देख कर प्रत्येक भारत वासी का हृदय क्षोभ तथा ग्लानि से भर जाता है। 
भारतीय सेना की वीरता के उदाहरणों की साथ कई ऐसे वृत्तांत हैं जिन्हें जानकर यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे सैनिकों को युद्ध प्रशिक्षण के साथ-साथ मानव मूल्यों में दृढ़ आस्था रखने की शिक्षा भी दी जाती है। आज भारतीय सैनिकों के क्षत-विक्षत शव को देख कर मानव धर्म में विश्वास रखने वाले  विश्व के प्रत्येक प्राणी के मन में दु:ख, आक्रोश के साथ यह प्रश्न अवश्य उठ रहा है कि पाकिस्तान के सैनिकों को सांस्कृतिक परंपरा, मानव धर्म और मानवीय मूल्यों से किस तरह वंचित रखा गया है।
सैनिक की संवेदना शांति से युद्ध तक असीमित विस्तार लिये होती है। जहाँ वह एक ओर जानलेवा भीषण संग्रामों के दुर्धर्ष आक्रमण में अपने साहस की कठिनतम परीक्षा से गुजरता है, दूसरी ओर घायल साथियों के प्रति करुणा की गहरी खाइयों से गिरते हुए अपने को धैर्य को सँभालता है तो तीसरी ओर शत्रु सैनिकों के प्रति नफरत से ऊपर उठकर मानवता के उच्चतम आदर्शों का प्रदर्शन करते हुए उनका सम्मान करता है। भारतीय सेना संवेदना के इस विस्तृत त्रिकोण पर सफलता के साथ संतुलन साधने की योग्यता रखने वाली विश्व की महानतम सेना है। अंत में मैं यही कहना चाहूँगी कि वीरता का पथ केवल संग्राम नहीं होता, सेवा, सहयोग, निर्माण, धैर्य सेना की कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण गुण होते हैं।  इन उच्च मूल्यों के पीछे हमारी समृद्ध दार्शनिक परंपरा ही सैनिक शिक्षा का आधार है। आज हम भारतवासियों को अपनी वीर सेना पर गर्व है किन्तु हम सब को एक जुट होकर पाकिस्तान सेना के इस नृशंस कृत्य का अपनी वाणी से तथा लेखनी से विरोध करना चाहिए ताकि ऐसा कुकृत्य भविष्य में न हो। हमें कैप्टन सौरभ कालिया, हेमराजसिंह, सुधाकर सिंह जैसे वीर सैनिकों के साथ-साथ उन अनगिनत  शहीदों के बलिदान को स्मरण करते हुए यह दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि जिस किसी भी परिस्थिति में हम हों, हम अपनी आवाज़ मानवाधिकार संस्थाओं तक पहुँचा सकें। 
 बचपन में राष्ट्रकवि माखन लाल चतुर्वेदी की कालजयी रचना पुष्प की अभिलाषा पढ़ते थे तो हृदय में सैनिकों के प्रति अथाह सम्मान और गौरव का भाव उमड़ता था। वर्ष 1965 तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय भारतीय सैनिकों के अदम्य उत्साह एवं वीरता के वृत्तान्त जान कर गौरव के साथ-साथ कृतज्ञता भाव भी जुड़ गया। सारा भारत जानता है कि अगर इस समय भारत प्रगतिशील देशों में अग्रणी है तो सफलता के इस अभियान में सैनिकों का बहुत बड़ा योगदान है। जब तक भारत की सीमाएँ  सुरक्षित हैं, देश में आंतरिक शान्ति का वातावरण रहेगा और निश्चिन्त भारत प्रगति एवं उन्नति के उच्चतम शिखरों  पर विराजमान रहेगा। भारतीय सेना के प्रति कृतज्ञ जन मानस की भावना के साथ-साथ एक कोमल पुष्प के हृदय की अभिलाषा का वर्णन कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने अत्यंत सुन्दर शब्दों में किया है ----
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक 


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