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Mar 10, 2013

उदंती.com- मार्च 2013

उदंती.com- मार्च 2013                               महिला दिवस एवं होली पर विशेष


आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।           होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।     होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
                                -हरिवंशराय बच्चन


अनकही: एक अनुकरणीय पहल...- डॉ. ्ना वर्मा
महिला दिवस: औरत को हाशिया नहीं... -बेला गर्ग
महिला दिवस: असीमित शक्तियों का भण्डार है नारी -रीता विश्वकर्मा
महिला दिवस: समाज को नया दृष्टिकोण... - डॉ. प्रीत अरोड़ा
महिला दिवस: विशेषाधिकार नहीं समान अधिकार... -लोकेन्द्र सिंह
होलियाना व्यंग्य: सोशल मीडियाई औरगॅजेटियाई होली -रवि रतलामी
लोक पर्व: छत्तीसगढ़ में फाग की परम्परा -जी. के. अवधिया
कविता: ऐसे खेली होरी -शैली चतुर्वेदी
कविता: सखी री... बस ऐसे फाग खिला दे -वंदना गुप्ता
लोक पर्व: उठाओ चेहरे से नकाब होलीमें -प्रो. अश्विनी केशरवानी
व्यंग्य: भियाजी तो खेलेंगे होली -जवाहर चौधरी
कालजयी कहानियाँ: आँसुओं की होली -मुंशी प्रेमचंद
तीन लघुकथाएँ: जीवन-बाती, डंक, गुबार -सुधा भार्गव
हाइकु: तेरे आने की आहट -तुहिना रंजन
सेहत: हमें छींक क्यों आती है? -सुभाष लखेड़ा
प्रेरक प्रसंग: मन की शांति,पागलपन
आपके पत्र / मेल बॉक्स
पुस्तकें: एक पाती सूरज के नाम -निरूपमा कपूर 
स्वामी विवेकानंद: ये साक्षात जगदम्बा कीप्रमिमूर्ति हैं

एक अनुकरणीय पहल


एक अनुकरणीय पहल
-डॉ. रत्ना वर्मा
अच्छे काम की हमेशा सराहना होती है और समाज के लिए अनुकरणीय बनती है। समाज में व्याप्त किसी भी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए समाज के ही व्यक्तियों को आगे आना होता है। पिछले दिनों समाचार पत्रों में एक ऐसी खबर पढऩे को मिली जिसे मैं यहाँ सबके साथ बाँटना चाहती हूँ- 
स्वागत में गुलाब, दहेज में किताब!  इस शीर्षक से प्रकाशित समाचार में एक ऐसे डॉक्टर की बेटी की शादी का उल्लेख था; जिसमें बारातियों का स्वागत गुलाब के फूल और दहेज में किताबें भेंट करने की बात कही गई थी। यह खबर अमृतसर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की बेटी की शादी को लेकर थी। वे डॉक्टर होने के साथ लेखक और शायर भी हैं उन्होंने लगभग दो दर्जन किताबें लिखीं हैं और इतनी ही संपादित भी की हैं। उनकी बेटी ऋतु माता कौलाँ अस्पताल में मेडिकल अफसर हैं । उसकी  शादी नवाँशहर जिले के राहों कस्बे के डॉ. राकेश पाल से गत माह 23 फरवरी को सपन्न हुई है। 
उनकी इस अनोखी पहल पर शुभकामनाएँ देते हुए मैंने उन्हें ईमेल किया और पिछले दिनों उनसे फोन पर बात भी की।  उन्होंने बताया कि मैं जब भी अपने समाज में या परिचित के यहाँ शादी में जाता था तो शादी में होने वाले फिज़ूलखर्ची को देखकर मुझे लगता था यह सब बंद होना चाहिए। आजकल एक मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी की शादी में 30 से 35 लाख रुपये आसानी से खर्च हो जाते हैं। बात बहुत छोटी- छोटी होती हैं जैसे ये कैसी परम्परा है कि दूल्हा पूरा रास्ता तो कार में सफर करके तय करता है फिर दुल्हन के द्वार पर पँहुच कर घोड़ी पर चढ़कर जाता है? भला इसका क्या औचित्य। इसी तरह बारातियों को, दूल्हे के पूरे परिवार को मिलनी (उपहार) देने की परम्परा है। ऐसी न जाने किनती परम्पराएँ हमारे समाज में व्याप्त हैं  ,जिसके लिए लड़की वाले अपनी हैसियत से ऊपर जाकर खर्च करते हैं। मैं चूंकि इन्हीं सामाजिक विषयों पर लिखता रहा हूँ, तो मैंने सोचा मैं अपने बच्चों के विवाह पर ऐसी कोई फिज़ूलखर्ची नहीं करूँगा। मैंने लोगों को इसी सोच से बाहर निकालने के लिए यह शुरुआत की। मैंने बारातियों का स्वागत गुलाब के फूलों से किया और उपहार में अपनी किताब भेंट में दी।
डॉ. दीप्ति ने जो कहा, जो सोचा, जो लिखा उसे करके भी दिखाया।  इसकी शुरुआत उन्होंने शादी का निमंत्रण पत्र भेजने के साथ ही कर दी थी- अपनी किताब 'मिलन का आनंद’ (सेलिब्रेटिंग टुगेदरनेस) को निमंत्रण पत्र के साथ में भेज कर। वे मनोरंजन के लिए बाहर से पैसा देकर बैंड और डांस ग्रुप बुलाने के पक्ष में भी नहीं हैं। शादी हमारी व्यक्तिगत और पारिवारिक खुशी होती है इसमें बाहर वाले आकर कैसे खुशियाँ बाँटेंगे? मेरी बेटी की शादी में मैंने नाच गाने पर खर्च भले ही नहीं किया पर नाच-गाना नहीं हुआ ,ऐसी बात नहीं है, परिवार के लोगों ने ही मिलकर कार्यक्रम तैयार किया और खूब जमकर नाच-गाना भी हुआ। इससे जो खुशी मिली वह दूसरों के नाचने-गाने में कहाँ। हाँ मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि मेरे इस व्यक्तिगत कदम को मीडिया में जगह मिल जाएगी और देश भर में इतनी सराहना मिलेगी। पर समाचार पत्रों में यह खबर छप जाने से लोगों की अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिलीं- जैसे जालंधर के एक 70 वर्षीय व्यापारी कुलदीप महाजन स्वयं इस तरह की फिज़ूलखर्ची और अनावश्यक रीति रिवाजों के बिना विवाह करने हेतु नवयुवकों को प्रेरित करते हैं । उनका फोन आया- उन्होंने इस संदेश को साथ मिलकर आगे बढ़ाने के लिए कहा  । मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ। लेकिन इन सबके लिए जरूरी है संदेश लोगों तक पहुँचे। आजकल की फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में तो ऐसे दृश्य दिखाए जाने लगे हैं ;जो फिज़ूलखर्ची वाले विवाह को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। जिनके पास खर्च करने की हैसियत नहीं है वह भी मात्र दिखावे के लिए फिज़ूलखर्ची वाली शादी करने लगे हैं। भव्य सजावट, शाही खान-पान, मनोरंजन के लिए डीजे, दिखावे के लिए भारी भरकम दहेज, दुल्हन के लिए लाखों के लहँगे जो वह केवल जयमाल में ही पहनती है ,बाद में उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। यदि खर्च ही करना है तो बेटी के उज्ज्वल भविष्य के लिए कीजिए या उस पैसे को समाज के किसी बेहतर काम में लगाइए।
प्रश्न यह उठता है कितने ऐेसे लोग हैं जो ऐसा अनुकरणीय कदम उठाते हैं बिना यह सोचे कि समाज या रिश्तेदार क्या कहेंगे। हम अपने आप को कितना ही आधुनिक और पढ़ा- लिखा कह लें ; लेकिन समाज की जो तस्वीर है वह किसी से छिपी नहीं है । दहेज रूपी दानव ने आज के मध्यमवर्गीय समाज को ग्रस लिया है। आजकल तो यह पहले ही तय हो जाता है कि बारातियों का स्वागत किस तरह कितने धूम-धाम से होगा, क्या-क्या लेन-देन होगा, दहेज में क्या-क्या दिया जाएगा, खाने-पीने की व्यवस्था कैसी और कहाँ होगी। कुल मिलाकर शादी दो परिवारों का मिलन समारोह न होकर दिखावे का समारोह बन गया है ; जिसके लिए बाकायदा आजकल विवाह आयोजित करने वाले लोग बाजार में अपनी दुकान सजाए बैठे हैं । वे  सामने वाली पार्टी की हैसियत से विवाह के सारे इंतज़ाम करते हैं।
आज जबकि हम लेन-देन वाली जैसी कुप्रथाओं को गलत परम्पराओं को तोडऩा चाहते हैं तो  वह आधुनिकता के नाम पर और भी अधिक बढ़ती ही जा रही है। अब तो लोग सगाई की रस्म भी इतने भव्य पैमाने पर करने लगे हैं कि देखकर लगता है -इतने में तो शादी ही संपन्न हो जाती। जाहिर है -हमारे पारिवारिक और निजी समारोह भी आज व्यावसायिक चश्में में देखे जाने लगे हैं।
  किसी भी खबर को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पँहुचाने में मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। विवाह में फिज़ूलखर्ची और दिखावे को खत्म करने के लिए डॉ. दीप्ति ने जिस नई परम्परा की शुरूआत की है ,  उसे मीडिया ने ही हम तक पँहुचाया है। यह लगातार और बड़े पैमाने पर होते रहना चाहिए ताकि लोगों को ऐसे उदाहरणों से प्रेरणा मिले और वे भी कुछ ऐसा ही कदम उठाने के बारे में सोचना शुरू करें।  फिलहाल तो आइये हम सब मिल कर डॉ. दीप्ति जी ने जो नई शुरुआत की है ;उस मुहिम को आगे बढ़ाने का संकल्प लें।

औरत को हाशिया नहीं पूरा पृष्ठ चाहिए



औरत को हाशिया नहीं पूरा पृष्ठ चाहिए
- बेला गर्ग
विश्व महिला दिवस के सन्दर्भ में एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी का जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा। बलात्कार, छेडख़ानी, भू्रण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नोचा जाता रहेगा? कब तक खाप पंचायतें नारी को दोयम दर्जा का मानते हुए तरह-तरह के फरमान जारी करती रहेगी? भरी राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के समक्ष उसकी विद्वत् मंडली के सामने निर्वस्त्र करने के प्रयास के संस्करण आखिर कब तक शक्ल बदल-बदल कर नारी चरित्र को धुंधलाते रहेंगे? ऐसी ही अनेक शक्लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएँ- जिनमें नारी का दुरुपयोग, उसके साथ अश्लील हरकतें, उसका शोषण, उसकी इज्जत लूटना और हत्या कर देना- मानो आम बात हो गई हो।  महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी महिलाएँ, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोंछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं।
एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिए आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर 'धर्मग्रंथ  एवं सामाजिकता के नाम पर 'खाप पंचायतेंघेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्तवाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढलान में उतर गये जहाँ रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है।
'मातृदेवो भव:यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है। ऋषि-महर्षियों की तप: पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह नारी भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति- 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसीजन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ नारीशक्ति की पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं?
वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में नारी की आराधना होती है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धनधान्य आदि प्राप्त होता है, फिर क्यों नारी की अवमानना होती है?
नारी का दुनिया में सर्वाधिक गौरवपूर्ण सम्मानजनक स्थान है। नारी धरती की धुरी है, स्नेह का स्रोत है, मांगल्य का महामंदिर है, परिवार की पीठिका है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्नेहिल साए में जिस सुरक्षा, शीतलता और शांति की अनुभूति होती है वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने ठीक कहा था- नारी सत्यं, शिवं और सुंदर का प्रतीक है। उसमें नारी का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है, लूटी जाती है?
जहाँ पांव में पायल, हाथ में कंगन, हो माथे पे बिंदिया... इट हैपन्स ओनली इन इंडिया- जब भी कानों में इस गाने के बोल पड़ते हैं, गर्व से सीना चौड़ा होता है। लेकिन जब उन्हीं कानों में यह पड़ता है कि इन पायल, कंगन और बिंदिया पहनने वाली लड़कियों के साथ इंडिया क्या करता है, तब सिर शर्म से झुकता है। पिछले कुछ दिनों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भ्रूण में किसी तरह अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है, स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है। विश्व नारी दिवस का अवसर नारी के साथ नाइंसाफी की स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें पुरुष-समाज श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है।
एक वक्त था जब अयातुल्ला खुमैनी का आदेश था कि- जिस औरत को बिना बुर्के देखो, उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दो। जिसके होंठो पर लिपस्टिक लगी हो, उन्हें यह कहो कि हमें साफ करने दो और उस रूमाल में छुपे उस्तरे से उसके होंठ काट दो। ऐसा करने वाले को आलीशान मकान व सुविधा दी जाएगी। खुमैनी ने इस्लाम धर्म की आड़ में और इस्लामी कट्टरता के नाम पर अपने देश में नारी को जिस बेरहमी से कुचला उसी देश में आज महिलाएँ खुमैनी के मकबरे पर खुले मुँह और जीन्स पहने देखी जाती हैं। वे कहती हैं कि हम नहीं समझतीं हमारा खुदा इससे नाराज़ हो जाएगा। उनकी यह समझ कि कट्टरता के परिधान हमें सुरक्षा नहीं दे सकते, इसके लिए हमें अपने में आत्मविश्वास जगाना होगा। वही हमारा असली बुर्का होगा।
 नारी को अपने आप से रूबरू होना होगा, जब तक ऐसा नहीं होता लक्ष्य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती है। स्वयं की शक्ति और ईश्वर की भक्ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में नारी औरों की मुहताज बनती हैं, औरों का हाथ थामती हैं, उनके पदचिह्न खोजती हैं। कब तक नारी औरों से माँगकर उधार के सपने जीती रहेंगी। कब तक औरों के साथ स्वयं को तौलती रहेंगी और कब तक बैसाखियों के सहारे मिलों की दूरी तय करती रहेंगी यह जानते हुए भी कि बैसाखियाँ सिर्फ सहारा दे सकती है, गति नहीं? हम बदलना शुरू करें अपना चिंतन, विचार, व्यवहार, कर्म और भाव। मौलिकता को, स्वयं को एवं स्वतंत्र होकर जीने वालों को ही दुनिया सर-आँखों पर बिठाती है।
नारी सृष्टि की वह इकाई है जिसे जीवन के हर पड़ाव पर जागरूक प्रहरी की तरह जीना होगा। उसका कर्त्तव्य और दायित्व ईमानदार प्रयत्नों के साथ जब सृजनात्मक दिशा में बढ़ेगा तो वह अनगिनत सफलता के शिखर छू सकेगी। मगर जहाँ भी जिम्मेदारी का पक्ष कमजोर या निरपेक्ष बना, हर सुख-दुख में बदल जाता है। संघर्षों से उसका व्यक्तित्व और कर्त्तव्य घिर जाता है, इसलिए नारी को अपने कार्यक्षेत्र में विशेष सावधानियाँ रखनी होगीं। आँधी आने से पहले ही उसे अपने घर के दरवाजे बंद कर लेने होंगे ताकि घर का आँगन गंदा न हो। अत: हमें अपने आसपास के दायरों में खड़ी नारी को देखना होगा और यह तय करना होगा कि घर, समाज और राष्ट्र की भूमिका पर नारी के दायित्व की सीमाएँ क्या हो?
जिस घर में नारी सुघड़, समझदार, शालीन, शिक्षित, संयत एंव संस्कारी होती है वह घर स्वर्ग से भी ज्यादा सुंदर लगता है क्योंकि वहाँ प्रेम है, सम्मान है, सुख है, शांति है,सामंजस्य है, शांत सहवास है। सुख-दुख की सहभागिता है। एक दूसरे को समझने और सहने की विनम्रता है।
नारी अनेक रूपों जीवित है। वह माँ, पत्नी, बहन, भाभी, सास, ननंद, शिक्षिका आदि अनेक दायरों से जुड़कर सम्बधों के बीच अपनी विशेष पहचान बनाती है। उसका हर दायित्व, कर्त्तव्य, निष्ठा और आत्म धर्म से जुड़ा होता है। इसीलिए उसकी सोच, समझ, विचार, व्यवहार और कर्म सभी पर उसके चरित्रगत विशेषताओं की रोशनी पड़ती रहती है। वह सबके लिए आदर्श बन जाती है।
नारी अपने घर में अपने आदर्शों, परंपराओं, सिद्धांतों, विचारों एवं अनुशासन को सुदृढ़ता दे सकें, इसके लिए उसे कुछेक बातों पर विशेष ध्यान देना होगा।
नारी अपने परिवार में सबका सुख-दुख अपना सुख-दुख माने। सबके प्रति बिना भेदभाव के स्नेह रखे। सम्बन्धों की हर इकाई के साथ तादात्मय सम्बन्ध जोड़े। घर की मान मर्यादा, रीति-परंपरा, आज्ञा- अनुशासन, सिद्धान्त, आदर्श एंव रुचियों के प्रति अपना संतुलित विन्रम दृष्टिकोण रखे। अच्छाइयों का योगक्षेम करे एवं बुराइयों के परिष्कार में पुरुषार्थी प्रयत्न करे। सबका दिल और दिमाग जीतकर ही नारी घर में सुखी रह सकती है।
बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य- 'आँचल में है दूधको सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें और भ्रूणहत्या जैसा घिनौना कृत्य कर मातृत्व पर कलंक न लगाएँ ; बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हे उगते अकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें।
जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र आँचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीडऩ जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।
लेखिका के बारे में:  घर-परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए चिन्तन का उनका स्वतंत्र  दृष्टिकोण है,  अपने नारी सुलभ सद्संस्कारों से, अपनी स्नेहशीलता से, विनय से एवं अपनत्व से न केवल उनके परिवार बल्कि आसपास में मुखरित होता है खुशियों का वातायन, प्रफुल्लित होता है संस्कारों का अमृतायन। सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों में विशेष रुचि रखती हैं। अपने रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों एवं सोच से न केवल परिवार बल्कि समाज को कुछ नया देने के लिये सदा प्रयासरत रहती हैं। अध्ययनशील है, समाज के ज्वलंत विषयों पर स्वतंत्र सोच रखती हैं।
संपर्क: ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट, 25, आई. पी. एक्सटेंशन, पटपडग़ंज, दिल्ली-110092, फोन: 22727486

असीमित शक्तियों का भण्डार है नारी



 असीमित शक्तियों का भण्डार है नारी
 - रीता विश्वकर्मा
जिस तरह भक्त शिरोमणि हनुमान जी को उनकी अपार-शक्तियों के बारे में बताना पड़ता था और जब लोग समय-समय पर उनका यशोगान करते थे, तब-तब बजरंगबली को कोई भी कार्य करने में हिचक नहीं होती थी, भले ही वह कितना मुश्किल कार्य रहा हो जैसे सैकड़ो मील लम्बा समुद्र पार करना हो, या फिर धवलागिरि संजीवनी बूटी समेत लाना हो...आदि। ठीक उसी तरह वर्तमान परिदृश्य में नारी को इस बात का एहसास कराने की आवश्यकता है कि वह अबला नहीं अपितु सबला है। स्त्री आग और ज्वाला होने के साथ-साथ शीतल जल भी है।
आदिकाल से लेकर वर्तमान तक ग्रन्थों का अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि हर स्त्री के भीतर बहुत सारी ऊर्जा और असीमित शक्तियाँ होती हैं, जिनके बारे में कई बार वो अनभिज्ञ रहती है। आज स्त्री को सिर्फ आवश्यकता है आत्मविश्वास की यदि उसने खुद के विलपॉवर को स्ट्राँग बना लिया तो कोई भी उसे रोक नहीं पाएगा। स्त्री को जरूरत है अपनी ऊर्जा, स्टैमिना, क्षमताओं को जानने-परखने की। काश! ऐसा हो जाता तो दिल्ली गैंगरेप जैसे काण्ड न होते। समाज में छुपे रहने वाले दरिन्दों की विकृत मानसिकता का हर सबला  मुँह तोड़ जवाब दे सकती है, इसके लिए उसे स्वयं को पहचानना होगा। साथ ही समाज के स्त्री-पुरुष दोनों को रूढ़िवादी विचारधारा का परित्याग करना होगा।
पूरी दुनिया में आधी आबादी महिलाओं की है बावजूद इसके हजारों वर्षों की चली आ रही परम्परा बदस्तूर जारी है। सारे नियम-कानून महिलाओं पर लागू होते हैं। जितनी स्वतंत्रता लड़कों को मिल रही है, उतनी लड़कियों को क्यों नहीं? बराबरी (समानता) का ढिंढोरा पीटा तो जा रहा है, लेकिन महिलाओं पर लगने वाली पाबन्दियाँ कम नहीं हो रही हैं। लड़कों जैसा जीवन यदि लड़कियाँ जीना चाहती हैं तो इन्हें नसीहतें दी जाती हैं, और इनके स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। उन पर पाबन्दियाँ लगाई जाती हैं। बीते महीने कश्मीर की प्रतिभाशाली लड़कियों के रॉक बैण्ड 'परगाशपर प्रतिबन्ध लगाया गया। ऐसा क्यों हुआ? यह बहस का मुद्दा भले ही न बने लेकिन सोचनीय अवश्य ही है।
समाज के मुट्ठी भर रूढ़िवादी परम्परा के समर्थक अपनी नकारात्मक सोच के चलते लड़कियों की स्वतंत्रता को परम्परा विरोधी क्यों मान बैठते हैं? क्या स्त्री-पुरुष समानता के इस युग में लड़के और लड़कियों में काफी अन्तर है। क्या लड़कियाँ उतनी प्रतिभाशाली और बुद्धिमान नहीं हैं, जितना कि लड़के। वर्तमान लगभग हर क्षेत्र में लड़कियाँ अपने हुनर से लड़कों से आगे निकल चुकी हैं और यह क्रम अब भी जारी है। आवश्यकता है कि समाज का हर वर्ग जागृत हो और लड़कियों को प्रोत्साहित कर उसे आगे बढऩे का अवसर प्रदान करें। आवश्यकता है कि हर स्त्री-पुरुष अपनी लड़की संतान का उत्साहवर्धन करे उनमें आत्मविश्वास पैदा करे जिसके फलत: वे सशक्त हो सकें। दुनिया में सिर ऊँचा करके हर मुश्किल का सामना कर सकें। लड़की सन्तान के लिए बैशाखी न बनकर उन्हें अपनी परवरिश के जरिए स्वावलम्बी बनाएँ। लड़का-लड़की में डिस्क्रिमिनेशन (भेदभाव) करना छोड़ें।
गाँव-देहात से लेकर शहरी वातावरण में रहने वालों को अपनी पुरानी सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। लड़कियों को चूल्हा-चौके तक ही सीमित न रखें। यह नजरिया बदलकर उन्हें शिक्षित करें। उन्हें घर बिठाकर शिक्षा न दें लड़कों की भाँति स्कूल/कालेज अवश्य भेजें। अब समाज में ऐसी जन-जागृति की आवश्यकता है जिससे स्त्री विरोधी, कार्यों मसलन भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा स्वमेव समाप्त हो इसके लिए कानून बनाने की आवश्यकता ही न पड़े। महिलाओं को जीने के पूरे अधिकार सम्मान पूर्वक मिलने चाहिए। जनमानस की रूढ़िवादी मानसिकता ही सबसे बड़ी वह बाधा है जो महिला सशक्तीकरण में आड़े आ रही है। महिलाएँ चूल्हा-चौका सँभाले, बच्चे पैदा करें और पुरुष काम-काज पर निकलें यह सोच आखिर कब बदलेगी?
मैं जिस परिवार से हूँ वह ग्रामीण परिवेश और रूढ़िवादी सोच का कहा जा सकता है, परन्तु मैंने अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से उच्च शिक्षा ग्रहण किया और आज जो भी कर रही हूँ उसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं। कुछ दिनों तक माँ-बाप ने समाज का भय दिखाकर मेरे निजी जीवन और स्वतंत्रता का गला घोंटने का प्रयास किया ; परन्तु समय बीतने के साथ-साथ अब उन्हीं विरोधियों के हौंसले पस्त हो गए। मैं अपना जीवन अपने ढंग से जी रही हूँ, और बहुत सुकून महसूस करती हूँ। मैं बस इतना ही चाहती हूँ कि हर स्त्री (महिला) सम्मानपूर्वक जीवन जिए क्योंकि यह उसका अधिकार है।
इतना कहूँगी कि गाँवों में रहने वाले माँ-बाप अपनी लड़की संतान को चूल्हा-चौका सँभालने का बोझ न देकर उन्हें भी लड़कों की तरह पढ़ाए-लिखाएँ और शिक्षित बनाएँ ताकि वे स्वावलम्बी बनकर उनका नाम रौशन कर सकें। माँ-बाप द्वारा उपेक्षित लड़की संतान डिप्रेशन से उबर ही नहीं पाएगी तब उसे कब कहाँ और कैसे आगे बढऩे का अवसर मिलेगा। जब महिलाएँ स्वयं जागरूक होंगी तो वे समय-समय पर ज्वाला, रणचण्डी, गंगा, कावेरी, नर्मदा का स्वरूप धारण कर अपने शक्ति स्वरूपा होने का अहसास कराती रहेंगी उस विकृत समाज को जहाँ घृणित मानसिकता के लोग अपनी गिद्धदृष्टि जमाए बैठे हैं। आवश्यकता है कि स्त्री को स्वतंत्र जीवन जीने, स्वावलम्बी बनने का अवसर बखुशी दिया जाए, ऐसा करके समाज के लोग उस पर कोई रहम नहीं करेंगे ; क्योंकि यह तो उसका मौलिक अधिकार है। न भूलें कि नारी अबला नहीं सबला है, किसी के रहम की मोहताज नहीं।

लेखक के बारे में: लेखक स्वतंत्र पत्रकार/ संपादक हैं।  www.rainbownews.in (ऑन लाइन हिन्दी न्यूज पोर्टल) की संपादकीय प्रमुख हैं। Mo. 8765552676, 9369006284 E-mail-  rainbow.news@rediffmail.com