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Feb 21, 2013

एक खूबसूरत पुष्प : पीताम्बर



एक खूबसूरत पुष्प
 पीताम्बर
- कृष्ण कुमार मिश्र
एक वनस्पति जो अपने सुन्दर पुष्प के अतिरिक्त तमाम व्याधियों के मूलनाश की क्षमता रखती है। हाँ पीताम्बर एक ऐसी प्रजाति जिसका पुष्प पीत वर्ण की अलौकिक आभा का प्रादुर्भाव करता है। हमारे मध्य, मानों साक्षात् गुरुदेव बृहस्पति विराजमान हो इन मुकुट रूपी पुष्पगुच्छों पर और मधुसूदन स्वयं उपस्थित हो इस छटा में; क्योंकि पीताम्बर कृष्ण का भी एक नाम है। इस पुष्प का पीत वर्ण सहज ही मन को शान्ति, विचारों में सात्विकता और मन में क्षमा का भाव स्थापित करता है।
वर्षा ऋतु में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों, सुन्दर कीट पतंगों व तितलियों के जीवन चक्र के महत्त्वपूर्ण हिस्से का आरम्भ होता है प्रजनन। वनपस्तियों में सुन्दर पुष्प खिलते है, तितलियाँ अपने लार्वा के स्वरूप को त्यागकर रंग-बिरंगे पंखों वाली परियों में तब्दील होती हैं, और तमाम कीट-पंतगे प्रकृति के रंगों में रँगकर उन्ही में अपने अस्तित्व को डुबोए हुए नजर आते हैं।
इसी सिलसिले में एक पीले रंग का सुन्दर पुष्प उगा लखीमपुर खीरी के मोहम्मदी तहसील के एक परगना में; जिसे कस्ता के नाम से जानते हैं, यहाँ से गुजरती एक नहर के किनारों पर यह वनस्पति अपने पुष्पों के कारण एक पीली छटा सी बिखेरती नजर आती है इस बरसाती हरियाली के मध्य, हाँ मैं बात कर रहा हूँ पीताम्बर की, यह वनस्पति भारत भूमि में आई तो इसके औषधीय महत्त्व से भी हमारे लोग परीचित हुए और और इसके त्वचा रोगों पर असरदार तत्त्वों को भी जान पाए, क्योंकि इसकी पत्तियों व फूल का रस बहुत असरदार है। और पेट सम्बन्धी रोगों में भी यह रामबाण औषधि है।
फंगल और बैक्टीरिया जनित बीमारियों के साथ साथ ब्लड शुगर व मूत्र-सम्बन्धी बीमारियों पर असर के कारण तमाम देशों के स्थानीय समुदाय पीताम्बर के औषधीय गुणों से लाभान्वित होते रहे हैं। इस वनस्पति को विदेशी आक्रामक प्रजातियों के अंतर्गत रखा गया, लेकिन जहाँ की धरती इसे अपना ले तो फिर वह विदेशी कैसे हुई, फिर हर प्रजाति अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्षशील है, और यदि प्रकृति में जीवन संघर्ष की दौड़ में कोई प्रजाति कुछ विशेष गुण अर्जित कर ले, तो यह उसका खुद का विकास है। उत्तर भारत की तराई के कस्ता गाँव में कैसे पहुँची यह प्रजाति, इसका अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि किसी अन्य प्रादेशिक समुदाय या किसी तीर्थ यात्री द्वारा लाई गई फलियों से पीताम्बर उगाने की कोशिश हुई हो। और इस तरह यह पीताम्बर लखीमपुर खीरी के तराई की धरती का बाशिंदा हो गया अपने पुष्पित बालियों की पीली आभा का दृश्य स्थापित करने के लिए हमारे मध्य।
इस बेलनाकार पुष्प गुच्छ वाली वनस्पति जो अपने आप में तमाम रंग बिरंगे कीट-पतंगों को रिहाइश और भोजन दोनों मुहैया कराता है, साथ ही आप के स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। दुनिया के तमाम देशों में पीताम्बर की पत्तियों और पुष्प के रस को साबुन में मिलाया जाता है, जो त्वचा के रोगों को दूर करता है और साथ ही त्वचा की दमक को बढ़ाता भी है।
इस प्रजाति को वैज्ञानिक भाषा में सेना अलाटा कहते हैं, यह मैक्सिको की स्थानीय प्रजाति है, पीताम्बर फैबेसी परिवार का सदस्य है। यह वनस्पति ट्रापिक्स (उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र )में 1200 मीटर तक के ऊँचें स्थानों में उग सकती है। आस्ट्रेलिया और एशिया में यह इनवेसिव (आक्रामक) प्रजाति के रूप में जानी जाती हैं। धरती के तमाम भूभागों में इसका औषधीय महत्त्व है। मौजूदा वक्त में यह प्रजाति अफ्रीका साउथ-ईस्ट एशिया, पेसिफिक आइलैंड्स और ट्रापिकल अमेरिका में पाई जाती है।
पीताम्बर जंगल के किनारों, परती नम-भूमियों, नदियों व तालाबों के किनारों पर उगने वाली वनस्पति हैं, इसके बीज रोपने के कुछ ही दिनों में अंकुरित हो जाते है, एक बार एक पौधा तैयार हो जाने पर इसकी तमाम फलियाँ जो 50-60 बीजों का भंडार होती हैं पकने के पश्चात जमीन पर गिरती हैं और एक ही वर्ष में यह प्रजाति वहां की जमीन पर अपना प्रभुत्व बना लेती है, सैकड़ों झाडियाँ एक साथ उग आती हैं । इसी कारण इसे आक्रामक प्रजाति कहा जाता है, और विदेशी भी? चूँकि यह उत्तरी-दक्षिण अमेरिका की स्थानीय प्रजाति है और इसने अपने बड़े व सुन्दर पीले पुष्प-गुच्छों वाली बालियों के कारण मानव-समाज को आकर्षित किया और यही वजह रही की यह मनुष्यों द्वारा एक स्थान से दुनिया के दूसरे इलाकों में लाया गया, और साथ में आई इनकी खूबियाँ जिनमें औषधीय गुण प्रमुख है।
पीताम्बर का पुष्प-गुच्छ  6-24 इंच लंबा, इसमें गुथे हुए पुष्पों का आकार 1 इंच  तक का होता है।  इसके ख़ूबसूरत पुष्प-गुच्छ की वजह से इसे दुनिया में कई नामों से जाना जाता है जैसे- इम्प्रेस कैंडल, रोमन कैंडल ट्री, यलो कैंडल, क्रिसमस कैंडल, सेवन गोल्डन कैंडल बुश।  साथ ही औषधीय गुणों के कारण भी लोगों ने इसे कई नाम दिए- रिन्गवार्म बुश आदि। इसके खिलने का वक्त सितम्बर-अक्टूबर है।
पीताम्बर झाड़ी के रूप में उगता है, जिसकी ऊँचाई 4 मीटर तक हो सकती है। पत्तियाँ 50-80 से0मी0 लम्बी होती हैं। पुष्प गुच्छ की शक्ल मोमबत्ती की तरह चमकीले पीले रंग की और इसके बीजों की फलियाँ 25 सेमी लम्बी होती हैं। इसकी यही पंखनुमा फलियाँ पानी के बहाव द्वारा एवं जानवरों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती हैं। इस प्रकार यह ख़ूबसूरत प्रजाति अलहदा जगहों में अपना अस्तित्व बनाती है। पीताम्बर की फली पक जाने पर भूरे व काले रंग की हो जाती है, और प्रत्येक फली में 50-60 चपटे त्रिकोणनुमा बीज निकलते हैं।
बालियों में लगे दर्जनों पुष्पों  में काफी तादाद में पराग मौजूद होते हैं, वह तमाम तरह की प्रजातियों को आकर्षित करते हैं, जैसे तितलियाँ, कैटरपिलर, मक्खियों, और चीटियों को इन कीट-पतंगों को पीताम्बर के विशाल पुष्प-गुच्छों से भोजन तो मिलता ही है साथ ही ये इनके निवास का स्थान भी बन जाते हैं। परागण  की ये प्रक्रिया इन्ही कीट-पतंगों द्वारा होती है यह एक तरह का सयुंक्त अभ्यास है, जीवन जीने का वनस्पति और जंतुओं के मध्य। दोनों एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं।
पीताम्बर के इस पुष्प का औषधीय इस्तेमाल अस्थमा ब्रोंकाइटिस एवं श्वसन सम्बन्धी बीमारियों में किया जाता है। पत्तियों का रस डायरिया कालरा गैस्ट्राइटिस और सीने की जलन में उपयोग में लाते है। इसके पुष्प, पत्तियाँ तथा जड़ में एन्टी-फंगल, एंटी-ट्यूमर व एंटी-बैक्टीरियल तत्त्व होते हैं, जिस कारण यह मानव व जानवरों के विभिन्न रोगों में इस्तेमाल होता रहा है, दुनिया के तमाम भू-भागों में। ग्राम-पॉजटिव बैक्टीरिया पर इसके रस का प्रभाव जाँचा जा चुका है, यही वजह है कि मनुष्य एवं जानवरों में होने वाली त्वचा सम्बन्धी व्याधियों में इसका इस्तेमाल सबसे ज्यादा किया जाता है।
दुनिया के तमाम हिस्सों के स्थानीय समुदायों में पीताम्बर का अलग-अलग इस्तेमाल किया जाता है जिसमें रेचक (लक्जेटिव) के रूप में तथा त्वचा रोगों में विशेष तौर से इसकी पत्तियों व पुष्प का प्रयोग होता हैं।
 कुछ प्रमुख बीमारियों में पीताम्बर का उपयोग- एनीमिया, कब्ज, लीवर रोग, मासिक धर्म से जुड़ी बीमारियाँ, एक्जीमा, लेप्रोसी, दाद, घाव, सिफलिस गनोरिया, सोरियासिस, खुजली, डायरिया, पेचिश,   मूत्र-वर्धक, एवं त्वचा की सुन्दरता निखारने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
पीताम्बर कृमिहर औषाधि के रूप में तथा जहरीले कीड़ों के काटने पर भी औषधि के तौर पर प्रयोग में लाया जाता है, विभिन्न स्थानों पर इसका प्रयोग इन्सेक्टीसाइड, लार्वीसाइड के तौर पर भी होता है।
बसंत ऋतु के आखिरी दिनों में पीताम्बर के बीजों की बुआई करना चाहिए।  नम भूमि में व जहां सूर्य की किरणें सीधी आती हों। फिर क्या है आप भी तैयार हो जाइए इस ख़ूबसूरत फूल को अपनी बगिया में उगाने के लिए जो सुन्दरता के साथ-साथ आप और आप के पशुओं की बीमारियों में दवा के काम भी आयेगा।
बात सिर्फ पीताम्बर की नहीं हमारे आसपास तमाम वनस्पतियाँ व जंतु रहते हंै, किन्तु हम उन्हें न तो जानना चाहते हंै और न ही उनकी उपस्थित के महत्त्व को खोजना और इस जिज्ञासा का अनुपस्थित  होना हमारे मानव समाज के लिए ही अहितकर है।  प्रकृति के मध्य सभी के अस्तित्व को स्वीकारना उनकी रक्षा करना और उनके महत्त्व को समझ लें तो फिर हमारी मनोदशाओं में जो सकारात्मकता आएगी वह हमको और बेहतर बनाएगी साथ ही प्रकृति के सरंक्षण का कार्य खुद-ब-खुद हो जाएगा। हमारे इस बोध मात्र से।
संपर्क: 77, कैनाल रोड, शिव कालोनी, लखीमपुर खीरी-262701 (उप्र) मो.08795064101, E-mail- dudhwajungles@gmail.com

1 comment:

सहज साहित्य said...

एक खूबसूरत पुष्प पीताम्बर दुर्लभ जानकारी से परिपूर्ण है । उदन्ती का यह सांस्कृतिक अभियान लोगों तक उत्कृष्ट साहित्य पहुँचाने के लिए प्रयासरत है । लेखक को बहुत बधाई!