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May 30, 2012

उदंती.com-मई 2012

मासिक पत्रिका  वर्ष2, अंक 9, मई 2012


मीठा सबसे बोलिए ,
फैले सुख चहुँ ओर ।
वशीकरण है मन्त्र यह , 
तज से वचन कठोर ॥
 -रहीम

अनकही: नन्हें कन्धों पर भारी बस्ता - डॉ. रत्ना वर्मा
प्रेस स्वतंत्रता दिवस
क्यों जन-विरोधी है ... - जस्टिस मार्कंडेय काटजू     

हर हाल में हम सच का ... - गिरीश पंकज

आज की पत्रकारिता में ...  - रमेश शर्मा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ... - वन्दना गुप्ता
मुद्दा : क्या यही है सुन्दरता का अर्थ ? - लोकेन्द्र सिंह राजपूत
हाइकु: प्रेम - रचना श्रीवास्तव
वन्य जीवन: क्या फिर गूंजेगी सफेद शेरों ... - प्रमोद भार्गव
जन्म शताब्दी: मंटो- कालजयी व्यक्तित्व कभी... 
कहानी: भिखारिन - रवीन्द्रनाथ टैगोर   
कविता: अगर प्यार में और कुछ नहीं  - रवीन्द्रनाथ टैगोर
श्रद्धांजलि: कुछ नजर हंसी कुछ ... - शिशिर कृष्ण शर्मा
कविता: छोटे कंधे पर बड़ा बोझ  - ऋता शेखर 'मधु'
सर्वगुण संपन्न माँ  - कवि विष्णु नागर
माँ जो हूँ  -रश्मि प्रभा
ब्लॉग बुलेटिन से: वक्त का सूरज अभी डूबा...  - रश्मि प्रभा
तंबाकू  निषेध दिवस: सिर्फ प्लास्टिक पाउच पर ... - पारुल भार्गव   
पिछले दिनों
वाह भई वाह
आपके पत्र
रंग- बिरंगी दुनिया

नन्हे कंधों पर भारी बस्ता

नन्हे कंधों पर भारी बस्ता
-डॉ. रत्ना वर्मा
बचपन वह उम्र होती है, जब बच्चे बगैर किसी तनाव के जिंदगी का आनन्द लेते हैं। लेकिन क्या आज की परिस्थिति में ऐसा है? आज के बच्चों को देखकर आपको नहीं लगता कि उनका बचपन कहीं खो गया है। आप जरा अपना बचपन याद कीजिए क्या आपने कभी अपने कंधों पर अपने बस्ते का भारी बोझ महसूस किया है? या कभी आप अपने बस्ते के वजन से चिड़चिड़ाते हुए घर पंहुचें हैं और अपने माता- पिता से पीठ दर्द की शिकायत की है? नहीं न। बल्कि तब तो मुस्कुराते हुए अपना हल्का बस्ता कंधे पर झुलाते हुए बड़े आराम से घर को लौटा करते थे और वह भी पैदल चलते हुए। जबकि आज तो स्कूलों के लिए बस की सुविधा है, रिक्शा है, आटो है फिर भी गेट से स्कूल तक और बस स्टॉप से घर तक ही बस्ते का भारी बोझ लेकर चल पाना बच्चों के लिए मुश्किल हो गया है।
ऐसा भी नहीं है कि कम बस्ता ले जाने की वजह से या कम- कॉपी किताब होने से आपको कभी यह लगा हो कि आपकी शिक्षा में कुछ कमी रह गई है? बदलते दौर के अनुसार पढ़ाई- लिखाई के तरीकों में आज बदलाव जरूर आया है लेकिन ज्यादा भारी बस्ता होने से पढ़ाई सुधर गई है या आज के बच्चे ज्यादा अच्छी शिक्षा पा रहे हैं ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता। आज छोटे- छोटे बच्चे, जिनकी उम्र पापा, चाचा और दादा के कंधों की सवारी करने की होती है अपने नन्हे कंधों पर भारी बस्ता टाँगे स्कूल बस की ओर दौड़ लगाते नजर आते हैं।
 फिर से आज इस मुद्दे को उठाने का कारण है- अभी हाल ही में बच्चों के बस्ते का भारी बोझ को लेकर एक सर्वेक्षण किया गया है। जिसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं। एसोचैम नाम की एक संस्था द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार बस्ते के बढ़ते बोझ के कारण पांच से बारह वर्ष के बीच स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चों को पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जिसके कारण उनकी हड्डियों और उनके शरीर के विकास पर भी विपरीत असर होने का अंदेशा जाहिर किया गया है। दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलूर, मुंबई और हैदराबाद जैसे दस बड़े शहरों में 2000 से ज्यादा बच्चों और उनके अभिभावकों पर मार्च- अप्रैल के दौरान सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण के नतीजों पर यदि गंभीरता से सोचा जाए तो मामला बहुत गंभीर है। तथा इसके सुधार की दिशा में यदि अभी से प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य के लिए खतरे का संकेत है।
सर्वे के अनुसार बारह वर्ष से कम उम्र के लगभग 1500 बच्चे ठीक तरीके से बैठ भी नहीं सकते। उनमें हड्डी से संबंधित कई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं मसलन पीठ में दर्द, कंधे में दर्द तथा रीढ़ की हड्डी में दर्द आदि। औसतन 82 प्रतिशत बच्चे अपने वजन का 35 प्रतिशत बोझ बैग के रूप में रोजाना पीठ पर ढोते हैं। उसके अलावा उन्हें अपनी रुचि के अनुसार खेलों के भारी सामान भी सप्ताह में एक या दो दिन लाद कर ले जाना पड़ता है। ऐसे में बच्चों का शारीरिक तनाव से प्रभावित होना स्वाभाविक है। यदि सर्वे में प्रमुख महानगरों की ऐसी स्थिति बताई गई है तो अन्य नगरों की क्या हालत होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि औसतन हर स्कूली बच्चे को कम से कम तीन किताबें, कापियां, वर्कबुक और अन्य सामान स्कूल ले जाना होता है। स्कूलों में रोजाना 7-8 पीरियड और उसके बाद भारी होमवर्क दिया जाता है। एसोचैम स्वास्थ्य समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.के. राव के अनुसार सर्वेक्षण का उद्देश्य छात्रों पर स्कूल बैग ढोने के प्रभाव के बारे में जानना था। उनके अनुसार अधिकतर अभिभावकों ने शिकायत की है कि एक दिन में सात से आठ कक्षाएं होती हैं और हर विषय में कम से कम तीन किताबें होती हैं।
 वर्तमान में हमारे देश में स्कूली शिक्षा के स्तर पर लगभग प्रत्येक राज्य में यहां तक कि एक ही शहर के स्कूलों में भी अलग-अलग शिक्षा- प्रणालियां प्रचलित हैं जिसे एक समान किए जाने की बात तो जब- तब उठाई जाती है परंतु जैसे ही इसे लागू करने का समय आता है कोई एकराय से इस पर सहमत नहीं हो पाता। साथ ही देश में अभी तक स्कूल बैग के वजन को लेकर कभी कोई मानक बनाने का प्रयास नहीं किया गया है। हालांकि स्कूली शिक्षा को दिनोंदिन कम बोझिल तथा अधिक व्यावहारिक बनाने के प्रयास होते रहे हैं। कई शिक्षण संस्थानों ने ऐसी शिक्षण व्यवस्था पर अमल भी प्रारंभ किया है, जहां वे छोटी कक्षाओं के बच्चों के अधिकांश बुक और कॉपियां स्कूल में जमा करने लगे हैं पर ऐसे स्कूलों की संख्या नगण्य ही मानी जाएगी।
ऐसा भी नहीं है कि स्कूली बच्चों पर बढ़ता भारी बस्तों का बोझ इससे पूर्व कभी चर्चा में न रहा हो दशकों पहले आर.के. नारायण ने अपने स्तर पर इस बोझ को लेकर मामला संसद में भी उठाया था। पर तब भी राजनीतिक दल इस पर आमराय कायम नहीं कर पाए थे। जहां लाभ की स्थिति न हो भला वहां एकमत कैसे हुआ  जा सकता है। यही वजह है कि इस स्थिति में सुधार को लेकर आज तक कोई बड़ी कोशिश नहीं हो पाई है। शिक्षा के दिन- ब- दिन व्यवसायिक होते जाने का नतीजा है कि बच्चों के कंधे पर यह बोझ बजाय कम होने के बढ़ते ही चले जा रहा है।
लेकिन अब जरूरी हो गया है शिक्षा प्रणाली में सुधार के साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य को देखते हुए यह तय कियाजाए कि बच्चों की उम्र के हिसाब से उनके बस्ते का वजन कितना हो। हमारे देश के जनप्रतिनिधियों को भी अब यह जान लेना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायिक नजरिए को प्रमुखता में रखने की बजाय देश की भावी पीढ़ी की सेहत को प्रमुखता में रखा जाए। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षण संस्थाओं को व्यवसाय न बना कर शिक्षा का केंन्द्र ही बने रहने दिया जाए, जहां बच्चों के बस्ते का वजन तो कम हो ही साथ ही व्यापारिक शिक्षा नहीं बल्कि व्यवहारिक शिक्षा पर जोर दिया जाए। इसके लिए अभिभावकों को भी अपनी मांगों को पुरजोर ढंग से शासन के समक्ष रखते हुए एक मानक बनाए जाने की मांग करनी होगी, साथ ही उन्हें अपने बच्चों के लिए स्कूल तय करते समय उन्हीं स्कूलों का चयन करने पर जोर देना होगा जहां बेहतर शिक्षा के साथ उनकी सेहत का भी ध्यान रखा जाता हो।
 शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वोत्तम अलंकरण है एतएव बचपन से ही शिक्षा को रीढ़तोड़ बोझ के रूप में उन पर थोपना एक अमानवीय अत्याचार है।

क्यों जन-विरोधी है हमारा मीडिया?

-जस्टिस मार्कंडेय काटजू

सभी देशप्रेमियों का, मीडिया सहित, यह फर्ज है कि वे इस संक्रमण से कम से कम पीड़ा और तत्काल उबारने में हमारे समाज की मदद करें। इस संक्रमण काल में मीडिया को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है क्योंकि इसका ताल्लुक विचारों से होता है, सिर्फ वस्तुओं से नहीं। अत: अपने मूल स्वभाव में मीडिया किसी अन्य साधारण व्यवसाय की तरह नहीं हो सकता।
भारत में मीडिया जो भूमिकाएँ निभा रहा है, उसे समझने के लिए सबसे पहले हमें ऐतिहासिक संदर्भों को समझना होगा। वर्तमान भारत अपने इतिहास में एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है-  एक सामंती खेतिहर समाज से आधुनिक औद्योगिक समाज की ओर का संक्रमण।
यह एक बहुत पीड़ादायक और व्यथित कर देने वाला दौर है। पुराने सामंती समाज की चूलें हिल रही हैं और कुछ तब्दीलियां हो रही हैं, लेकिन नया, आधुनिक, औद्योगिक समाज अभी तक संपूर्ण ढंग से स्थापित नहीं हुआ है। पुराने मूल्य की किरचें बिखर रही हैं, सारी चीजें उबाल पर हैं। शेक्सपियर के मैकबेथ को याद करें, 'रौशन चीजें धूल धूसरित है और धूल धूसरित रौशन है'। जिन्हें पहले अच्छा माना जाता था, मिसाल के लिए जाति व्यवस्था, वह आज बुरी है (कम से कम समाज के जागरूक तबके में) और जिन्हें पहले बुरा माना जाता था, जैसे प्रेम के जरिए/ लिए शादी, वे आज स्वीकार्य हैं (कम से कम आधुनिक मानस में)।
सभी देशप्रेमियों का, मीडिया सहित, यह फर्ज है कि वे इस संक्रमण से कम से कम पीड़ा और तत्काल उबारने में हमारे समाज की मदद करें। इस संक्रमण काल में मीडिया को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है क्योंकि इसका ताल्लुक विचारों से होता है, सिर्फ वस्तुओं से नहीं। अत: अपने मूल स्वभाव में मीडिया किसी अन्य साधारण व्यवसाय की तरह नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक तौर पर, प्रिंट मीडिया का उद्भव यूरोप में सामंती शोषण के खिलाफ जनता के एक सक्रिय हस्तक्षेप के बतौर हुआ। उस वक्त सत्ता के सभी स्थापित उपकरण दमनकारी सामंती अधिकारियों के हाथों में थे। अत: लोगों को एक नए माध्यम की जरूरत थी, जो उनका प्रतिनिधित्व कर सके। इसीलिए प्रिंट मीडिया को 'चौथे स्तंभ' की तरह जाना जाने लगा। यूरोप और अमरीका में यह भविष्य की आवाज का प्रतिनिधित्व करता था, जो स्थापित सामंती अंगों- अवशेषों, जो कि यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे, के विपरीत था।  इसीलिए मीडिया ने सामंती यूरोप को, आधुनिक यूरोप में परिवर्तित करने में एक अहम भूमिका अदा की है।
मेरे ख्याल से भारत की मीडिया को एक वैसी ही प्रगतिशील भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, जैसी कि यूरोप की मीडिया ने उसके संक्रमण काल में निभाया था। ऐसा वह पुरातन, सामंती विचारों और व्यवहारों- जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंध- मान्यताओं पर आक्रमण करते हुए और आधुनिक वैज्ञानिक और तार्किक विचारों को प्रोत्साहित करते हुए कर सकता है। लेकिन क्या हमारा मीडिया ऐसा कर रहा है?
मेरी राय में, भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जनता के हितों को पूरा नहीं करता। वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन सकारात्मक तौर पर जन विरोधी हैं। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं, जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूँ-
पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से  अवास्तविक मुद्दों की ओर भटकाता है।
वास्तविक मुद्दे भारत में सामाजिक- आर्थिक हैं, भयंकरतम गरीबी जिसमें हमारे 80 फीसदी लोग जीते हैं, कठोरतम महंगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा जरूरतों की कमी और पुरातन- पंथी सामाजिक प्रथाएँ जैसे 'ऑनर किलिंग', जातीय उत्पीडऩ, धार्मिक कट्टरताएँ आदि। अपने कवरेज का अधिकांश हिस्सा इन मुद्दों को देने के बजाय, मीडिया अवास्तविक मुद्दों को केंद्रित करता है- जैसे फिल्मी हस्तियाँ और उनकी जीवनशैली, फैशन परेड, पॉप संगीत, डिस्को डांस, ग्रह-  नक्षत्र शास्त्र, क्रिकेट, रियलिटी शो और अन्य कई मुद्दे।
इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मीडिया लोगों को मनोरंजन मुहैया कराता है, लेकिन इसे अतिरेक में नहीं परोसा जाना चाहिए। इसके 90 फीसदी कवरेज अगर मनोरंजन से संबंधित हैं और महज 10 फीसदी ही ऊपर उल्लेखित वास्तविक मुद्दों के हैं तब तो कुछ ऐसा है, जो गंभीर रूप से गड़बड़ है। इसके अनुपात की समझदारी उन्मादी हो चली है। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण सबको मिलाकर मनोरंजन को नौ गुना ज्यादा कवरेज मिलता है।  क्या एक भूखे या बेरोजगार व्यक्ति को मनोरंजन चाहिए या भोजन और रोजगार?
उदाहरण के लिए, हाल ही में मैंने टेलीविजन शुरू किया, और मैंने क्या देखा? कि मैडम गागा भारत आई हैं, करीना कपूर मदाम तुसॉद्स में अपनी मोम की मूर्ति के पास खड़ी हैं, एक व्यापारिक घराने को एक पर्यटक सम्मान दिया जा रहा है, फॉर्मूला वन रेसिंग आदि इत्यादि। इन सारी बातों का जनता की समस्याओं से क्या लेना देना है?
कई चैनल दिन भर और दिन के बाद भी क्रिकेट दिखाते रहते हैं। रोमन शासक कहा करते थे- 'अगर आप लोगों को रोटियाँ नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाइए।' लगभग यही नजरिया भारतीय सत्ता- स्थापनाओं का भी है, जिसे दोहरे तौर पर हमारा मीडिया भी सहयोग देता है। लोगों को क्रिकेट में व्यस्त रखो, ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा को भूल जाएँ। गरीबी और बेरोजगारी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जो महत्वपूर्ण है वह ये कि भारत ने न्यूजीलैंड को हराया या पाकिस्तान हो तो और भी बेहतर, या तेंदुलकर या युवराज ने शतक मारा।
हाल ही में, द हिंदू ने प्रकाशित किया कि पिछले 15 सालों में ढ़ाई लाख किसानों ने आत्महत्या की है। लक्मे फैशन सप्ताह 512 मान्यता प्राप्त पत्रकारों द्वारा कवर किया गया। उस फैशन सप्ताह में, महिलाएँ सूती कपड़ों का प्रदर्शन कर रही थीं, जबकि कपास उगाने वाले पुरुष और महिलाएँ नागपुर तक की एक घंटे की हवाई दूरी पर आत्महत्या कर रहे थे। एक या दो स्थानीय पत्रकारों को छोड़, किसी ने इस कहानी को नहीं बताया।
यूरोप में, विस्थापित किसानों को औद्योगिक क्रांति द्वारा स्थापित कारखानों में रोजगार मिल गए थे। दूसरी ओर भारत में औद्योगिक रोजगार अब मुश्किल से मिलते हैं। कई कारखाने बंद हो गये हैं और अब 'रियल स्टेट' में तब्दील हो गए हैं। विनिर्माण क्षेत्र में पिछले पंद्रह सालों में रोजगार में तीव्र गिरावट देखी गई है। मिसाल के लिए, टिस्को ने 1991 में 85,000 श्रमिक नियुक्त किए थे, जो तब 10 लाख टन स्टील का उत्पादन करते थे। 2005 में, इसने 50 लाख (5 मिलियन) टन स्टील का उत्पादन किया लेकिन यह सिर्फ 44,000 श्रमिकों के द्वारा किया गया। 90 के दशक के मध्य में बजाज 10 लाख दो पहिया वाहनों का उत्पादन करता था, जिसमें 24,000 श्रमिक कार्यरत थे। 2004 तक यह 10,500 श्रमिकों के साथ 24 लाख (2.4 मिलियन) वाहनों का उत्पादन कर रहा था।
तब ये लाखों विस्थापित किसान कहाँ गए? वे शहर जाते हैं, जहाँ वे घरेलू नौकर, सड़कों के किनारे ठेले- खोमचे वाले या यहाँ तक कि अपराधी भी बन जाते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि झारखंड की एक से दो लाख कम उम्र की लड़कियाँ दिल्ली में घरेलू नौकरानी का काम कर रही हैं। क्रूरतम गरीबी के चलते सभी शहरों में शारीरिक धंधे भयानक हैं।
ये सभी चीजे हमारे मीडिया द्वारा नजरअंदाज की जाती हैं, जो हमारे अस्सी फीसदी लोगों की कठोर आर्थिक वास्तविकताओं के प्रति नेल्सन की आँख जैसे नजर फेरे हुए है, और बदले में कुछ चमकते दमकते पोतेमकिन गाँवों की ओर सारा ध्यान गड़ाए हुए है।
दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है। जब कभी भारत में कहीं भी कोई बम विस्फोट होता है, कुछेक घंटों के भीतर ही टीवी चैनल कहना शुरू कर देते हैं कि इंडियन मुजाहिदीन या जैश-ए-मोहम्मद या हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लाम ने जिम्मेदारी कबूल करते हुए उन्हें एक ई-मेल या एसएमएस मिला है। यह नाम हमेशा ही एक मुस्लिम नाम होता है। अब ये ई-मेल या एसएमएस कोई भी ऐसे बुरे इरादों वाला आदमी भेज सकता है, जिसका मकसद सांप्रदायिक नफरत फैलाना हो। उन्हें टीवी स्क्रीन पर और अगले ही दिन प्रिंट मीडिया में क्यों दिखाया जाना चाहिए? इसके दिखाने का सीधा संदेश यह देना होता है कि सभी मुसलमान आतंकी हैं या बम- बाज हैं।
आज भारत में रहने वाले तकरीबन 92 से 93 फीसदी लोग विभिन्न तरह के विस्थापित जड़ों से ताल्लुक रखते हैं। अत: भारत में एक जबर्दस्त विविधता है- कई धर्म, जातियाँ, भाषाएँ, नृजातीय समूह। यह बेहद जरूरी है कि अगर हम लोगों को एकजुट और समृद्ध रखना चाहते हैं तो सारे समुदायों के प्रति सहिष्णुता और समानता हो। जो भी हमारे लोगों के बीच विभाजन के बीज बोता है, चाहे यह धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीयता किसी के भी आधार पर हो, वह वास्तव में हमारी जनता का दुश्मन है।
अत: ऐसे ई- मेल या एसएमएस को भेजने वाले भारत के दुश्मन हैं, जो हमारे बीच में धार्मिक आधार पर तनाव के जहरीले बीज बोना चाहते हैं। तो फिर मीडिया, चाहे या अनचाहे तरीके से, इस राष्ट्रीय अपराध का सहभागी क्यों बन जाता है?
जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि इस संक्रमण काल में हमारी जनता को आधुनिक, वैज्ञानिक युग की ओर अग्रसर करने में मीडिया को सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए मीडिया को तार्किकऔर वैज्ञानिक विचारों का प्रचार- प्रसार करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न तरह के अंध- विश्वासों को परोसता रहता है।
यह सच्चाई है कि बहुतायत भारतीयों का बौद्धिक स्तर बहुत कम है- वे जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंध- विश्वासों में जकड़े हुए हैं। हालांकि सवाल यह है- तार्किक और वैज्ञानिक विचारों के प्रचार- प्रसार के जरिए मीडिया को हमारे लोगों के बौद्धिक स्तर को उन्नत करना चाहिए, या इसे कमजर्फ स्तरों पर लुढ़कते हुए इसे कायम रखना चाहिए?
यूरोप में, पुनर्जागरण के युग में, मीडिया, जो कि उस वक्त सिर्फ प्रिंट मीडिया ही था, ने लोगों के मानसिक स्तरों में इजाफा किया, उसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा तार्किक चिंतन का प्रचार प्रसार करते हुए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाए। वॉल्तेयर ने अंधविश्वास पर आक्रमण किए और डिकेंस ने जेल, स्कूलों, अनाथालयों, अदालतों आदि की भयानक दशाओं की आलोचनाएं की। हमारी मीडिया को भी क्या यही सब नहीं करना चाहिए?
एक समय में राजा राम मोहन रॉय जैसे साहसी लोगों ने अपने अखबारों मिरातुल अखबार और संबाद कौमुदी में सतीप्रथा, बालविवाह और पर्दाप्रथा के खिलाफ आलेख लिखे। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 के बंगाल अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। प्रेमचंद और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीडऩ के बारे में लिखा। सआदत हसन मंटों ने विभाजन के खौफ के बारे में लिखा। लेकिन आज की मीडिया में हमें क्या दिखता है?
कई चैनल नक्षत्र- शास्त्र पर आधारित कार्यक्रम दिखाते हैं। नक्षत्र- शास्त्र को खगोल- विज्ञान से गड्डमगड्ड नहीं किया जाना चाहिए। खगोल-  विज्ञान एक विज्ञान है, जबकि नक्षत्र-  शास्त्र पूरी तरह अंधविश्वास और गोरखधंधा है। यहाँ तक कि एक सामान्य विवेक भी हमें यह बता सकता है कि तारों और ग्रहों की परिक्रमा और किसी आदमी के 50 या 80 साल में मरने, या किसी के इंजीनियर या डॉक्टर या वकील बनने के बीच कोई तार्किक संबंध नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश में अधिकांश लोग नक्षत्र शास्त्र को मानते हैं, लेकिन ऐसा इसलिए क्योंकि उनका मानसिक स्तर कमतर है। इस मानसिक स्तर में लोट- पोट होने और इसको जारी रखने के बजाए मीडिया को इसको उन्नत करने की कोशिश करनी चाहिए।
कई चैनल दिखाते हैं कि- जिक्र करते हैं और दिखाते हैं कि कोई हिंदू देवता कहां पैदा हुए थे, कहाँ- कहाँ वे रहे, वगैरह वगैरह। क्या यह अंध- विश्वास को फैलाना नहीं है?
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि समूची मीडिया में कोई अच्छा पत्रकार नहीं है। कई बेहतरीन पत्रकार हैं। पी. साईनाथ एक ऐसे ही नाम हैं, जिनका नाम भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो कई राज्यों में किसान आत्महत्याओं के मामलों को उजागर करने की कहानी, जिसे कई सालों तक दबाया गया कभी कही ही नहीं जाती। लेकिन ऐसे अच्छे पत्रकार अपवाद हैं। बहुसंख्य ऐसे लोग हैं, जो जनहितों पर खरा उतरने की कोई चाहत नहीं रखते।
मीडिया के इन दोषों को दूर करने के लिए मुझे दो चीजें करनी हैं। पहला, मेरा प्रस्ताव है कि प्रत्येक दो माह या अन्य किसी निश्चित अंतराल में मीडिया के साथ (इलेक्टॉनिक मीडिया सहित) नियमित बैठकें हों। ये बैठकें समूची प्रेस कौंसिल की होने वाली नियमित बैठकें नहीं होंगी, लेकिन अनौपचारिक मेलजोल होगा जहाँ हम मीडिया से संबंधित मुद्दों पर विचार विमर्श करेंगे और उनका लोकतांत्रिक तरीके से, अर्थात बातचीत के जरिए सुलझाने की कोशिश करेंगे। मेरा यकीन है कि 90 फीसदी समस्याएँ इन तरीकों से सुलझाई जा सकती हैं।
दूसरा, एक हद के बाद जहाँ मीडिया का एक हिस्सा उपरोक्त सुझाए गए लोकतांत्रिक प्रयासों के बावजूद इन्हें अनुत्पादक साबित करने की हठ पर अड़ा हो, कठोर उपायों की जरूरत पड़ेगी। इस संबंध में, मैंने प्रधानमंत्री को प्रेस आयोग अधिनियम में संशोधन करने का आग्रह किया है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी प्रेस कौंसिल, जिसका संशोधित नाम मीडिया आयोग हो सकता है, के दायरे में लाया जाए और इसे और शक्ति- संपन्न बनाया जाए। मिसाल के लिए, सरकारी विज्ञापन बंद करना, या किसी अतिरेक स्थित में, कुछ समय के लिए मीडिया हाउस के लायसेंस को निरस्त करना। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- 'बिन भय होय न प्रीतÓ यद्यपि, इसका इस्तेमाल सिर्फ बेहद, अतिरेक स्थितियों में और लोकतांत्रिक उपायों के असफल होने के बाद ही किया जाएगा।
यहाँ एक आपत्ति हो सकती है कि यह तो मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करना है। ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जो कि अमूर्त और परम हो। सभी स्वतंत्रताएँ तर्कसंगत सीमा का विषय होती हैं, और इसमें जिम्मेदारी भी निहित होती है। एक लोकतंत्र में, हर कोई जनता के प्रति उत्तरदाई है, और इसीलिए हमारा मीडिया भी है।
निष्कर्षत: भारतीय मीडिया को अब आत्मचिंतन, एक उत्तरदायित्व की समझ और परिपक्वता विकसित करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं हैं कि इसे सुधारा नहीं जा सकता। मेरी मान्यता है कि गड़बड़ी करने वालों में 80 फीसदी एक धैर्यपूर्ण बातचीत के जरिए, उनकी गलतियों को इंगित करके अच्छे लोग बनाए जा सकते हैं और धीरे- धीरे उन्हें उस सम्मानजनक रास्ते की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जिस पर यूरोप का मीडिया नवजागरण काल में चल रहा था।
(www.ravivar.com से)
अनुवाद-  अनिल मिश्र *भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने यह आलेख हाल ही में पत्रकारों के लिये आयोजित एक कार्यक्रम में पढ़ा था।    

प्रेस स्वतंत्रता दिवसः हर हाल में हम सच का बयान करेंगे...

 - गिरीश पंकज
आज पत्रकारिता बाजारवाद की चपेट में है। अधिकतर मीडिया मासिक सौदागर किस्म के लोग हैं। वे अखबार नहीं, बड़ी दुकान संचालित करने की मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस कारण अब मीडिया की प्राथमिकताएँ बदल गई हैं। अब 'स्कूप' पर कम ही ध्यान दिया जाता है। सत्ता से जुड़ी खबरें पहली प्राथमिकता बन चुकी है। उसके बाद सनसनी फैलाने वाली खबरें हैं।
प्रेस की स्वतन्त्रता पर अक्सर बातें होती रहती हैं। मजे की बात यह है कि इस पर वे लोग भी बढ़- चढ़ कर अपने विचार रखते हैं, जो लोग प्रेस की स्वतन्त्रता पर अन्कुश लगाने के लिये जाने जाते हैं। राजनीति से जुड़े लोग पहले नंबर पर रखे जा सकते हैं। लेकिन अभिव्यक्ति के लिए संघर्षरत पत्रकारों ने कभी भी इस बंधन की परवाह नहीं की और जो कुछ लिखा, हिम्मत के साथ लिखा। 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' प्रेस का अपना अधिकार है लेकिन इस अधिकार का पूरी दुनिया में दमन होता रहा है। जिन देशों में स्वतंत्रता का दम भरा जाता रहा है, वहाँ भी अभिव्यक्ति का गला घोटने का काम होता रहा है। 'विकिलीक्स' जैसे वैश्विक सूचना माध्यम हमारे सामने हैं। और उसका दमन और संघर्ष भी हमने देखा। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में पत्रकारों की हत्याएँ होती रही हैं। मतलब यह है कि दुनिया भर में अभिव्यक्तियों का दमनात्मक कुकर्म होता रहा है, फिर भी जो लोग सच्चाई के पैरोकार रहे हैं, वे निर्भीक हो कर अपना काम करते रहे। यह और बात है कि उन्हें मौतें मिलीं। वे शहीद हुए, लेकिन अपनी स्वतंत्रता से उन्होंने समझौता नहीं किया।
प्रेस स्वतंत्रता अधिकार दिवस को जब हम याद करते हैं तो संतोष होता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल को महत्व दिया गया। हमारे बीच वे जुझारू पत्रकार भी रहे हैं, जिन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की और सच को सामने लाकर एक पत्रकार का फर्ज निभाया। ऐसे बहादुर पत्रकार हर कहीं मिलते हैं। छोटे कसबे हों, या महानगर, कलमवीरों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर अनेक ऐसी खबरें सामने लाने की कोशिशें कीं जो जनहित में जरूरी थी। दुनिया भर में बड़े- बड़े घोटालों को उजागर करने में मीडिया के लोगों का ही हाथ रहा है। अमरीका के 'वाटरगेट कांड' से लेकर भारत के 'टू-जी' जैसे मामलों को सामने लाने वाले पत्रकार ही रहे हैं।
आज पत्रकारिता बाजारवाद की चपेट में है। अधिकतर मीडिया मानसिक सौदागर किस्म के लोग हैं। वे अखबार नहीं, बड़ी दुकान संचालित करने की मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस कारण अब मीडिया की प्राथमिकताएँ बदल गई हैं। अब 'स्कूप' पर कम ही ध्यान दिया जाता है। सत्ता से जुड़ी खबरें पहली प्राथमिकता बन चुकी है। उसके बाद सनसनी फैलाने वाली खबरें हैं। और अब तो 'स्टिंग' आपरेशन होने लगे हैं। नेताओं, धर्मगुरुओं, कलाकारों के स्टिंग आपरेशन। इसका मतलब पत्रकारिता नहीं, स्वार्थ है। अपने टीवी चैनलों की 'टीआरपी' बढ़ाने या अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसे काम किए जाते हैं। हालांकि इसका लाभ समाज को ही मिलता है, मगर इसके पीछे उद्देश्य पवित्र नहीं होता।
पत्रकारिता पावन उद्देश्यों का नाम है। लोक मंगल का भाव प्रमुख होना चाहिए। जब भारत मेंं पत्रकारिता की शुरुआत हुई तो जेम्स आगस्टस हिकी ने यही किया था। वह अपने ही लोगों की कमजोरियों को, बुराइयों को सामने लाने का काम करता था। उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। उसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा । उसे देश  छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन जब तक 'हिकी गजट' निकलता रहा, उसके माध्यम से अंग्रेज सरकार की आलोचनाएँ भी होती रहीं। तो, यह है हमारी परम्परा। पत्रकारिता की परम्परा, प्रेस की परम्परा, जहाँ सच के लिए संघर्ष का संकल्प है, प्रतिबद्धता है।
मुक्तिबोध की मशहूर कविता है 'अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सारे'।  इन पंक्तियों के लेखक ने भी कभी पत्रकारिता की अस्मिता को रेखांकित करने वाली पंक्तियाँ लिखी थीं कि 'हर हाल में हम सच का बयान करेंगे, बहरे तक सुन लें वो गान करेंगे। खुद को अल्लाह जो मानने लगे, ऐसे हर शख्स को इंसान करेंगे'।  प्रेस का काम यही है, लेकिन इसमें खतरा बहुत है। क्योंकि जो कहता है कि प्रेस की स्वतंत्रता होनी चाहिए, वही वक्त आने पर सबसे पहले प्रेस का दमन करना चाहता है। अनुभव यही बताता है कि जब- जब किसी प्रेस या पत्रकार ने हिम्मत के साथ सच लिखा, किसी की पोल खोली, तो लोग उसकी जान के दुश्मन बन गए। समाज का कोई भी ताकतवर वर्ग हो, उसकी आँखों की किरकिरी बनने वालों में प्रेस पहले नंबर पर है। यह समकालीन चरित्र है कि हम गलत भी करेंगे, और उसका पर्दाफाश भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। अश्लील या भ्रष्ट  हरकतें भी करेंगे और अगर उसकी सीडी सामने आ गई तो, उसको स्वीकार न करके, यह बतलाने की कोशिश करेंगे कि यह उनकी छवि खराब करने के लिए कृत्रिम तरीके से बनाई गई है।
भ्रष्टाचार या घोटलों की जो खबरें सामने आती हैं, उनके साथ भी यही होता है। खबर सामने लाने वाले पत्रकारों पर पीत पत्रकारिता का आरोप मढ़ दिया जाता है। अपनी बदसूरती को स्वीकार नहीं करते और दर्पण को तोडऩे में लग जाते हैं। इसलिए यह निर्विवाद सत्य है कि पत्रकारिता जोखिम का ही दूसरा नाम है। खासकर ऐसी पत्रकारिता जो मिशन है, कमीशन नहीं। जिसमें परिवर्तन की ललक है। जो अपने अधिकार का सही इस्तेमाल करना चाहती है। ऐसी पत्रकारिता और ऐसे पत्रकारों के सामने जीवन भर चुनौती बनी रहती है। कभी वे जान से हाथ धोते हैं, कभी हाशिये पर कर दिए जाते हैं। कुछ अखबारों को छोड़ दें, तो अब अधिकांश अखबारों में स्कूप लापता हैं। वहाँ राजनीति का स्तुति गान अधिक है। अपसंस्कृति को बढ़ावा है और लाभ कमाने के लिए अश्लीलता परोसने वाले विज्ञापन भी हैं।
ऐसे संक्रमण काल में हम प्रेस स्वतंत्रता अधिकार दिवस को याद करते हैं, तो आत्म- मंथन का अवसर भी मिलता है जिसके लिए कभी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था कि 'हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिल कर ये समस्याएँ सभी'।
अगर प्रेस के पास स्वतंत्रता का अधिकार है तो हमें ऐसा समाज या ऐसी सरकार भी बनानी होगी, जो सच का दर्पण दिखाने वाले लोगों को संरक्षण दे। समाज तभी खुशहाल होगा, जब भ्रष्टों का पर्दाफाश होगा। और वे परिदृश्य से बाहर कर दिए जाएँगे। राजनीतिक व्यवस्था में श्रेष्ठ लोगों की संख्या बढऩी चाहिए। इस काम में मीडिया का रोल बेहद महत्वपूर्ण है। मीडिया को मिले इस अधिकार का रचनात्मक और ईमानदार इस्तेमाल होता रहे, इसके लिए जरूरी यह भी है कि सच- सच लिखने वाले पत्रकारों को, या अखबारों को समाज का संरक्षण मिले। सत्ता का नहीं। सत्ता तो अक्सर भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करती है। वह पत्रकारों को खरीदने पर तुली रहती है। फिर भी संतोष की बात है कि अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो बिकते नहीं। और अपनी अंतिम सांस तक सच्चाई को लिखने की प्रतिबद्धता दिखाते हैं। जब तक ऐसी सोच वाले पत्रकार मौजूद रहेंगे, अन्याय का प्रतिकार होता रहेगा और साहसिक, ईमानदार, प्रतिबद्ध यानी की मिशनजीवी पत्रकारिता अपने होने को सार्थक करती रहेगी।
संपर्क: जी- 31, नया पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़- 492001 मो. 094252 12720  Email- girishpankaj1@gmail.com

आज की पत्रकारिता में खतरे तो हैं ही

- रमेश शर्मा
आज के दौर में मीडिया का बूम है। इंटरनेट के विस्तार के साथ  बड़ी संख्या में न्यूज पोर्टल, वेबसाइट, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साइट आदि की संख्या बढ़ रही है। यही नहीं आज सारे अखबार और चैनलों में भी अपने इंटरनेट संस्करण हैं।
चिरंजीवी साहित्य लिखने का अधिकार तो गिने- चुने लोगों को है मगर जिसे कूड़ा साहित्य कहा जाता है उसे रचने वालों की तादाद भी बढ़ी है।
व्यापक विस्तार के कारण देश मीडिया क्रांति के दौर से गुजर रहा है और खासकर मीडिया उद्योग में आईसीटी के तेजी से विकास के साथ पत्रकारिता और नव मीडिया संचार का एक शक्तिशाली उपकरण बनकर उभरा है।
इतिहास बताता है- विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार- पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – "Acta Diurna" (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे।
आज थोक के भावों में अखबारों के संस्करण हैं, इनके निकलने के बावजूद खबरों का एक बड़ा कोना इन सबसे छूट जाता है। पत्रकारिता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं फिर भी यह सदैव कहा गया है एक  पत्रकार को स्वतंत्र रहना चाहिए, लेकिन  उच्छृंखल नहीं।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चेतावनी भरे स्वर में मीडिया को अपनी हद में रहने की नसीहत दी। उन्होंने अखबारों के लिये एक लक्ष्मण रेखा भी खींच दी। कहा कि मीडिया अपनी सीमा से बाहर न जाए। इस पर हल्ला मच चुका है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बंगाल के लोगों के लिए यह तय करना चाहती हैं कि उन्हें कौन-सा अखबार पढऩा चाहिए। इसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह आम लोगों के मौलिक व संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है।
आज देखा जाए तो पत्रकारों पर पूरी दुनिया में हमले हो रहे हैं।  पाकिस्तान की नौसेना में अलकायदा के कथित घुसपैठ के बारे में एक आलेख लिखने के बाद शहजाद का अपहरण कर लिया गया था और फिर उनकी हत्या कर दी गई। इसके बावजूद मीडिया खतरों से खेल रहा है। काले धन के मुद्दे पर मीडिया को आगे आना चाहिए। पिछले कुछ समय में भ्रष्टाचार, काले धन की वापसी, घोटाले और अन्य मुद्दों को उभारने और उठाने का काम मीडिया ने ही किया है।  मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी सरीखे विषयों पर मीडिया के कड़े रुख और निष्पक्षता के चलते अनेक लोगों को जेल जाना पड़ा। इस धंधे में खतरे तो हैं ही। मगर जिसे खतरे से डर हो वो यह पेशा ही न चुने।
मीडिया पर अंकुश के भी प्रयास होते रहते हैं, उच्चतम न्यायालय कह चुका है कि अदालती कार्यवाही के कवरेज के बारे में मीडिया के लिए दिशा- निर्देश सूत्रबद्ध करने का प्रयास संवैधानिक योजना के तहत पत्रकारों की सीमाबद्धताओं को स्पष्ट करने पर है। इस मुद्दे पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को केन्द्र से समर्थन मिला जिसने कहा कि न्यायिक कार्यवाहियों की मीडिया की रिपोर्टिंग को नियमित करने पर उच्चतम न्यायालय पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है। प्रधान न्यायाधीश एस. एच. कपाडिय़ा की अध्यक्षता वाली पीठ कह चुकी है- हम चाहते हैं कि पत्रकार अपनी सीमाबद्धताएं जानें। अदालत ने इन अंदेशों को भी दूर करने की कोशिश की है कि अदालती कार्यवाही के मीडिया कवरेज पर मार्गनिर्देशों में कठोर प्रावधान होंगे। पीठ ने कहा, हम इस पक्ष में नहीं हैं कि पत्रकार जेल जाएं। पीठ ने कहा कि मार्गनिर्देश तय करने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि धारा 19 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार' के तहत प्रेस को प्रदत्त अधिकार और धारा 21 'जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार' को संतुलित किया जाए।
अगर समूचे मीडिया की बात करें तो प्रिंट में आज भी परम्परावाद है। अमूमन लोग स्वयं पर काबू रखते हैं। टीवी पर यह अंकुश नजर नहीं आता। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने सरकार से अनुरोध किया है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के तरीके तलाशने के लिहाज से विशेषज्ञों का एक दल बनाया जाना चाहिए। काटजू ने कहा, 'प्रसिद्ध हस्तियों, समूहों, धर्म और समुदाय को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जाना इन दिनों आम हो गया है। हाल ही में एक सीडी के प्रसारण का मामला इसका उदाहरण है। इस सीडी को बनाने वाले ने स्वीकार किया है कि सुप्रीम कोर्ट के एक प्रतिष्ठित वरिष्ठ वकील और संसद सदस्य को बदनाम करने और एक केंद्रीय मंत्री को धमकाने के लिए इसमें छेड़छाड़ की। काटजू ने खेद जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीडी के प्रसारण पर रोक के आदेश को नजरअंदाज करते हुए सोशल मीडिया में इस सीडी को लगातार अपलोड किया जा रहा है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा, 'जब तक सोशल मीडिया पर कुछ प्रतिबंध नहीं लगाए जाते, भारत में किसी की प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रह पाएगी। मैं आपसे कानून और तकनीकी विशेषज्ञों की एक टीम का गठन किए जाने का आग्रह करता हूं, जो सोशल मीडिया के दुरुपयोग से निपटने के उपाय खोज सके। मीडिया की स्वतंत्रता के मुद्दे पर काटजू ने लिखा कि मैं हमेशा से कहता आया हूं कि कोई भी आजादी बिना जिम्मेदारियों के नहीं मिलती। अगर मीडिया को भारत में आजादी चाहिए तो उसे कुछ जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ेंगी। किसी व्यक्ति की इज्जत उसकी बहुत बड़ी संपत्ति होती है। इसे कुछ शरारती तत्वों द्वारा नष्ट किए जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अमूमन काटजू साहब की बात से सहमत हुआ जा सकता है मगर सच दिखाना भी मीडिया की मजबूरी है। यह सच कितना कैसे और किस रूप में दिखाया जाए। यह सवाल है। मसलन खबर में बलात्कार पीडि़ता का नाम नहीं लिखा जाता। ऐसा ही अन्य मामलों में भी होना चाहिए। फेसबुक पर मैं देखता हूं कि कुछ भी लिखने की मानों छूट है। यह गलत है। यह सोशल मीडिया का दुरूपयोग है। अमूमन सब गलत नहीं हैं मगर कुछ लोगों के कारण सब गलत समझ लिए जा रहें हैं। सोशल मीडिया को सामाजिक सरोकारों से जुड़कर कार्य करना होगा। गांवों का रुख करना होगा। देश में 70 करोड़ लोग 6 लाख गांवों में रहते हैं। ऐसे में समस्त मीडिया के सामने कड़ी चुनौती है।
हाल ही प्रकाश में आया है कि सुकमा के अपहृत जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन यदि नौकरशाह नहीं होते तो शायद वह पत्रकार होते। मेनन के एक पुराने मित्र का बयान है- कि कैसे उन्होंने दबे कुचले लोगों के कल्याण के लिए पत्रकारिता के करियर को छोड़कर नौकरशाही में कदम रखा। 2006 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी (32 वर्ष) मेनन 21 अप्रैल से नक्सलियों के कब्जे में हैं । मेनन कॉलेज के दिनों में आनंद विकातन पत्रिका समूह में पत्रकारिता के छात्र थे और तमिलनाडु के डिंडीगुल में रिपोर्टिंग करते थे। महानायक अमिताभ बच्चन ने भी ऐसी ही इच्छा जताई थी। कहने का आशय है कि यह पेशा आज भी अपनी चमक कायम रखे हुए है मगर वर्तमान में पेशागत गंभीरता नहीं होने के कारण इस पेशे के लोगों का भी अन्य वर्गों की तरह अवमूल्यन हुआ है। यह खेद की बात है।
संपर्क-  75 जे, नार्थ एवेन्यू, ब्रह्मा कुमारी आश्रम के पास, चौबे कालोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़- 492 001
         Email- sharmarameshcg@gmail.com

प्रेस स्वतंत्रता दिवसः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक अनुचित

- वन्दना गुप्ता
आज जागरूकता के क्षेत्र में इन साइट्स ने एक ऐसा स्थान हासिल किया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। और इसका ताजा उदाहरण मिस्र और लीबिया है उसके बाद हमारा अपना देश भारत।  किसी भी क्रांति को परवान चढ़ाने में इन साइट्स का खासा योगदान रहा है।  सबने अपनी- अपनी तरह से बदलाव लाने के लिए योगदान दिया।
आज वैचारिक क्रांति को सोशल साइट्स ने एक ऐसा मंच प्रदान किया है जिसने बौद्धिक जगत में एक तहलका मचा दिया है। कोई इन्सान, कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। इंटरनेट सूचना और संचार का एक ऐसा साधन बन गया है जिसमें कहीं कोई प्रतीक्षा नहीं,  मिनटों में समाचार सारी दुनिया में इस तरह फैलता है कि हर खास-ओ-आम इससे जुडऩा चाहता है।
फेसबुक, ट्विटर, ऑरकुट या ब्लॉग सभी ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है और अपना खास योगदान दिया है। आज जब इन सोशल साइट्स का दबदबा इतना बढ़ गया है तब हमारी सरकार इन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहती है। ये तो सीधे- सीधे इंसान के मौलिक अधिकारों का हनन है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाना तो गलत है यह तो वैसा ही हुआ जैसे स्वतंत्रता को हथकड़ी पहना कर कटघरे में खड़ा करना। आखिर क्यों? ये प्रश्न उठना जायज है। इस सन्दर्भ में हमें इसके पक्ष और विपक्ष के दोनों पहलू देखने होंगे तभी हम सही आकलन कर पाएंगे।
 आज जागरूकता के क्षेत्र में इन साइट्स ने एक ऐसा स्थान हासिल किया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। और इसका ताजा उदाहरण मिस्र और लीबिया है उसके बाद हमारा अपना देश भारत।  किसी भी क्रांति को परवान चढ़ाने में इन साइट्स का खासा योगदान रहा है।  सबने अपनी- अपनी तरह से बदलाव लाने के लिए योगदान दिया।
आज जैसे ही कोई भी नयी जानकारी या कोई राजनैतिक या सामाजिक हलचल होती है  उसके बारे में सबसे पहले इन साइट्स के माध्यम से सूचना मिल जाती है। सरकारी, गैर सरकारी सब क्षेत्र इनसे जुड़े हैं इसका एक ताजा उदाहरण देखिये-  हमारी सरकार ने ट्रैफिक पुलिस द्वारा किये गए चालान, या किसी व्यक्ति द्वारा किए गए नियम भंग की ताजा जानकारी,  ताजा अपडेट्स यहाँ डाले हैं। ताकि नियम भंग करने वाला चाहे वह कोई नेता हो, मंत्री या संत्री सबको एक समान आँका जाये और उनके खिलाफ उचित कार्यवाही की जा सके। इसका व्यापक असर भी देखने को मिला। इसी प्रकार पुलिस ने भी अपनी साईट बनाई है जिस पर जब चाहे कोई भी अपनी शिकायत दर्ज करवा सकता है। कहने का तात्पर्य यह कि ये ऐसे उचित माध्यम हैं जो सबकी जरूरत को पूरा करते हैं। फिर क्यों चाहती है सरकार, कि इन पर प्रतिबन्ध लगे। प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
लेकिन हमें देखना होगा कि बेशक इन साइट्स ने लोकप्रियता हासिल कर ली है और खरी भी उतर रही हैं मगर जिस तरह सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं उसी तरह यहाँ भी हैं। हर अच्छाई के साथ बुराई का चोली दामन का साथ होता है। ऐसे में यहाँ कई बार अश्लील सामग्री मिल जाती है या कई बार कुछ नेताओं के बारे में आपत्तिजनक तथ्य डाल दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित कर दिया जाता है कहने का तात्पर्य यह कि इससे सरकार घबरा गयी है क्योंकि उनके खिलाफ इसका प्रयोग इस तरह हो जाएगा ऐसा तो उन्होंने सोचा भी नहीं था। तब जब उन्हें इसका कोई और हल नजर नहीं आया तो उन्होंने इन पर प्रतिबन्ध लगना ही उचित समझा। इसके साथ ही एंटी सोशल एलिमंट्स भी सक्रिय हो जाते हैं जिससे सूचनाओं का गलत प्रयोग होने लगता है तब घबराहट बढऩे लगती है मगर जब अंतरजाल के अथाह सागर में आप उतरे हैं तो छोटे- मोटे हिलोर तो आयेंगे ही लेकिन उनसे घबरा कर वापस मुडऩा एक तैराक के लिए तो संभव नहीं है वो तो हर हाल में उसे पार करना चाहेगा बस उसे अपना ध्यान अपने लक्ष्य की तरफ रखना होगा।
सरकार चाहती है अश्लीलता पर प्रतिबन्ध लगे... ये बेशक सही बात है मगर क्या इतना करने से सब सही हो जायेगा? अंतर्जाल की दुनिया तो इन सबसे भरी पड़ी है और कहाँ तक आप किस- किस को बचायेंगे और कैसे? सब काम ये साइट्स तो नहीं कर सकते? जिसे ऐसी साइट्स पर जाना होगा वह अंतर्जाल के माध्यम से जायेगा और जो कहना होगा वह कहेगा।  ऐसे में क्या फायदा सिर्फ इन साइट्सों पर ही प्रतिबन्ध लगाने का। उचित है कि हम खुद में बदलाव लायें और समझें कि इन साइट्स की क्या उपयोगिता है और उन्हें सकारात्मक उद्देश्य से प्रयोग करें। अपने बच्चों को इनकी उपयोगिता के बारे में समझाएं ना कि इस तरह के प्रतिबन्ध लगायें। क्योंकि आने वाला वक्त इन्हीं सबका है। जहाँ ना जाने कितना जहान बिखरा पड़ा है। तो आखिर कब तक और कहाँ तक रोक लगायी जा सकेगी। एक न एक दिन इन सबका सामना तो करना ही पड़ेगा। वैसे भी इन साइट्स के संचालकों का कहना सही है यदि हमारे पास कोई सूचना आती है तो हम उस खाते को बंद कर देते हैं मगर पूरी तरह निगरानी करना तो संभव नहीं है। आप ही सोचिये जरा जब हम अपने 2-3 बच्चों पर निगरानी नहीं रख पाते और उन्हें ऐसी साइट्स देखने से रोक नहीं पाते तो कैसे संभव है कि इस महासागर में कौन क्या लिख रहा है या क्या लगा रहा है पता लगाना कैसे संभव है?
आपसी समझ और सही दिशा बोध से ही हम एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते हैं। मगर आंशिक या पूर्ण प्रतिबन्ध लगाना किसी भी तरह उचित नहीं है क्योंकि आने वाला कल इन्ही उपयोगिताओं का है जिनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। बदलाव को स्वीकारना ही होगा मगर एक स्वस्थ सोच के साथ। आत्म-नियंत्रण और स्वस्थ मानसिकता ही एक स्वस्थ और उज्ज्वल समाज को बनाने में सहायक हो सकती है ना की आंशिक या पूर्ण प्रतिबन्ध।
संपर्क- डी-19, राना प्रताप रोड, आदर्श नगर, दिल्ली - 110033,    
मो. 09868077896, vandana-zindagi.blogspot.com

क्या यही है सुन्दरता का अर्थ

- लोकेन्द्र सिंह राजपूत
भारत में स्त्री को सौंदर्य की प्रतिमा माना गया। उसे 'देवी' कहकर संबोधित किया गया। सुंदरी पुकारा गया। रूपमति कहा गया। हिरण जैसी खूबसूरत आंखों वाली स्त्री को कवि ने मृगनयनी कहा। उसकी दैहिक नाजुकता और कोमलता का निरुपण फूलों से तुलना कर किया गया। पद्मिनी कहा गया।  मनीषियों ने उसे दिव्य प्रकाश के समकक्ष रखकर उज्जवला कहा।
स्त्री सृष्टि की अद्वितीय कृति है। वह सौंदर्य का पर्याय है। मेरा सदैव मत रहता है- दुनिया में कोई भी स्त्री असुंदर नहीं। अंतर मात्र इतना है कि कोई कम सुंदर है और कोई अधिक सुंदर। भारतीय संस्कृति में स्त्री के चित्र सदैव सुरूप दिखाए गए। उसे नग्न करने की जब- जब कोशिश हुई, समाज ने तीव्र विरोध जताया। तथाकथित महान चित्रकार एमएफ हुसैन 'स्त्री को नग्न' दिखाने की मानसिकता के चलते ही देश छोडऩे पर मजबूर हुए। वे अपनी गलती स्वीकार कर बदलने को तैयार नहीं थे और देश उन्हें झेलने को तैयार नहीं था। भारत में स्त्री को सौंदर्य की प्रतिमा माना गया। उसे 'देवी' कहकर संबोधित किया गया। सुंदरी पुकारा गया। रूपमति कहा गया। हिरण जैसी खूबसूरत आंखों वाली स्त्री को कवि ने मृगनयनी कहा। उसकी दैहिक नाजुकता और कोमलता का निरुपण फूलों से तुलना कर किया गया। पद्मिनी कहा गया। मनीषियों ने उसे दिव्य प्रकाश के समकक्ष रखकर उज्जवला कहा। अच्छी देह की स्वामिनी स्त्री का सुघड़ा कहा। सब उत्तम कोटि के शब्द हैं। कोई शब्द ओछा नहीं, जो स्त्री के सम्मान में गुस्ताखी की जुर्रत कर सके। कोई भी शब्द उसके शरीर को नहीं उघाड़ता। एक भी शब्द स्त्री को यौन प्रतीक नहीं बनाता। भारत में सुन्दरता के संदर्भ में कभी भी स्त्री को 'सेक्सी' कहकर संबोधित नहीं किया गया। 'सेक्सी' शब्द का यौनिक अभिव्यक्ति के लिए जरूर उपयोग किया जाता रहा है। अंग्रेजी शब्दकोश में भी 'सेक्सी' का अर्थ काम भावना से संबंधित लिखा है। वहीं सुन्दरता के लिए तमाम शब्द है- लवली, ब्यूटीफुल, प्रिटी, स्वीट, डिवाइन, फेयरी, ग्रेसफुल, फाइन इत्यादि। सुन्दर का पर्याय सेक्सी नहीं है। वहीं हिन्दी के शब्दकोश में भी सुन्दर के लिए कई मनोहारी शब्द हैं- शोभन, अच्छा, भला, खूबसूरत, प्यारा, दिव्य, उत्कृष्ट, मधुर इत्यादि। सुन्दर का मतलब सेक्सी कहीं नहीं मिला।
स्त्री को भोग वस्तु मानने वालों को, स्त्री को वासना की दृष्टि से देखने वालों को और उससे अशोभनीय भाषा में बात करने वालों को भारतीय समाज लंपट कहता है। भारत में स्त्री के लिए सेक्सी शब्द सुन्दरता का पर्याय नहीं। लेकिन, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने लड़कियों को सलाह दी है कि वे लड़कों के द्वारा बोले जाने वाले सेक्सी शब्द को नकारात्मक ढंग से न लें और बुरा न मानें। इतका मतलब सुन्दरता होता है। मोहतरमा ने यह बात महिला सशक्तिकरण और महिलाओं के सुनहरे भविष्य को लेकर आयोजित सेमिनार में कही। सुन्दरता की इस परिभाषा पर बिना देर किए हंगामा बरपा। पुरुषवादी और महिलावादी संगठनों ने महिला आयोग की अध्यक्ष के बयान का तीव्र विरोध जताया। भौंह तानी। तमाम स्वतंत्र विचारकों, समाजसेवियों और संगठनों ने महिला आयोग की अध्यक्ष के इस बयान को 'स्त्रियों से छेड़छाड़Ó को बढ़ावा देने वाला माना। आंशिकतौर पर यह सच भी है। मनचले, सड़कछाप मजनू और आवारगी करते लड़के 'हे, सेक्सी' कहकर लड़कियों को सरेराह छेड़ेंगे। लड़की आंख तरेरेगी तो कह भी सकेंगे- तुम्हारे अधिकारों के संरक्षण के लिए बैठी महिला ने कहा है कि सेक्सी का मतलब सुन्दरता है। तुम कोई और अर्थ न लगाओ।
एक सवाल मेरी तरफ से महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा से है- वे लड़कों की मनोवृत्ति को कितना समझती हैं, जो वे इस निष्कर्ष पर पहुंच गईं कि लड़के किसी लड़की की सुन्दरता की तारीफ में 'सेक्सी' बोलते हैं? भारत में 99 फीसदी लड़के या पुरुष सुन्दरता की तारीफ में लड़की को सेक्सी नहीं कहते। बेहद खूबसूरत लड़कियों को वे अप्सरा या परी बुलाते हैं। किसी लड़की को सेक्सी कहकर संबोधित करने के पीछे उनकी लंपटता और कामुकता होती है। शरारती मंशा होती है। सेक्सी यौनांग से जुड़ा शब्द है। इसलिए सेक्सी यौन अभिव्यक्ति ही है। यौनांग से जुड़े शब्दों से भारत में कभी भी स्त्री को सम्मान नहीं दिया गया बल्कि उसे अपमानित जरूर किया गया है। यही कारण है कि भारत में आम स्त्री सार्वजनिक स्थल पर सेक्सी संबोधन को अपमान, गाली और छेड़छाड़ के रूप में ही लेती है। मैंने कुछेक स्त्रियों और पुरुषों से इस संबंध में बातचीत की। स्त्रियों से पूछा- बेटा आपको सेक्सी कहकर बुलाएगा तो क्या करोगी? उनका सीधा-सपाट जवाब था- ऐसे संस्कार हमने अपने बच्चों को नहीं दिए हैं। यदि बाहर से इस तरह की बातें वे सीखकर आएंगे तो उन्हें सीख दी जाएगी। वहीं, पुरुषों से मैंने पूछा - क्या तुम अपनी बेटी को कह सकते हो कि बेटी आज तू बहुत सेक्सी लग रही है? यहां भी वही जवाब मिलें। यह हमारी संस्कृति नहीं। सच है, हमारे यहां सुन्दरता के मायने सेक्सी लगना नहीं है। सुन्दरता को बहुत ऊंचा स्थान हमने दिया है। हालांकि एकाध फीसदी ऐसे लागों की जमात भारत में जमा हो चुकी है। जहां मां अपने बेटे से 'सेक्सी मॉम' सुनकर फूलकर कुप्पा हो जाए और बाप बेधड़क अपनी बेटी को सेक्सी कह दे। संभवत: महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ऐसी ही किसी जमात से आती हैं। लेकिन, उन्हें समझना होगा- भारत अभी उतना विकृत नहीं हुआ है। बाजारवाद के तमाम षड्यंत्रों के बाद भी भारत में आज भी स्त्री महज सेक्स सिंबल नहीं है। भारत में अब भी स्त्री त्याग का प्रतीक है, शक्ति का पुंज है, पवित्रता की मूरत है।
संपर्क- गली नंबर-1 किरार कालोनी, एस.ए.एफ. रोड,कम्पू, लश्कर, ग्वालियर (म.प्र.) 474001 मो. 9893072930 Email- lokendra777@gmail.com

हाइकुः प्रेम

- रचना श्रीवास्तव
1
हाथ पे गिरी
प्रेम- बूँद, जीवन
महक गया
2
तुम सूरज
मैं किरण तुम्हारी
साथ जलती
3
संध्या को भूल
ऊषा से प्यार करो
कैसे सहूँ मैं
4
मैं नर्म लता
तुम तरु विशाल
लिपटी फिरूँ
5
तुम प्रभात
मैं रजनी, मिलन
अब हो कैसे ?
6
तुम जो आये
उगा हथेली चाँद
नैन शर्माए।
7
माँग भरें, ये
कोमल भावनाएँ
छुओं जो तुम
8
चाँदनी ओढ़े
बादल का घूँघट
चन्दा जो आए
9
तुम हो वैसे
दिल में धड़कन
होती है जैसे
10
प्रेम की बाती
बिना तेल के जले
अजब बात

संपर्क- द्वारा श्री रमाकान्त पाण्डेय ए-36, सर्वोदय नगर लखनऊ,
मो. 093365 99000, rach_anvi@yahoo.com
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वन्य जीवनः क्या फिर गूंजेगी सफेद शेरों की दहाड़

- प्रमोद भार्गव
जब रीवा के जंगलों में पहली बार सफेद शेर देखा गया था, तब बिना किसी आधुनिक तकनीक और अतिरिक्त राशि खर्च किए रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने इनकी वंश वृद्धि कर ये शेर पूरे भारत और दुनिया के तमाम देशों में पहुंचा दिए थे। किंतु अब करोड़ों की परियोजना बनाई गई है। भारत में सिंह, चीता, बाघ, और हाथी को प्राकृतिक आवास देने की योजनाएं बनाई गई हैं। लेकिन अफसोस अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद एक भी योजना पर सफलतापूर्वक अमल नहीं हो सका है।
 पांच दशक बाद दुर्लभ सफेद शेरों की घर वापसी की तैयारी लगभग पूरी है। वन विभाग इनके पुनर्वास के लिए करीब 50 करोड़ रुपए खर्च करने जा रहा है। इस हेतु सफेद और पीले शेरों का एक- एक जोड़ा उड़ीसा के नंदनकानन वन से यहां लाकर बसाया जाएगा। इसका दायित्व नंदनकानन उद्यान को आकार देने वाले सेवानिवृत्त पीसीसीएफ सीपी पटनायक ने संभाला है।
अचरज इस बात पर है कि जब रीवा के जंगलों में पहली बार सफेद शेर देखा गया था, तब बिना किसी आधुनिक तकनीक और अतिरिक्त राशि खर्च किए रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने इनकी वंश वृद्धि कर ये शेर पूरे भारत और दुनिया के तमाम देशों में पहुंचा दिए थे। किंतु अब उन्हीं सफेद शेरों की वंश वृद्धि के लिए करोड़ों की परियोजना बनाई गई है। भारत में सिंह, चीता, बाघ और हाथी आदि को प्राकृतिक आवास देने की योजनाएं भी बनाई गई हैं। लेकिन अफसोस अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद एक भी योजना पर सफलतापूर्वक अमल नहीं हो सका है। इनमें से कूनो- पालपुर अभयारण्य में सिंह और फिर चीता बसाए जाने की नाकाम योजना प्रमुख है। सिंहों के लिए 24 आदिवासी ग्राम एक दशक पहले उजाड़े जा चुके हैं लेकिन उनका उचित पुनर्वास आज तक नहीं हुआ।
एक समय था जब रीवा- सीधी के वन- खण्डों में सफेद शेरों की दहाड़ अक्सर सुनाई देती थी। विंध्याचल की कैमूर पर्वत श्रृंखला के सघन वनों में सफेद शेरों का प्राकृतिक आवास और क्रीड़ा स्थल था, पर अब इस आदिम वन प्रांतर में सफेद शेर का होना एक अतीत बन चुका है। रीवा, सीधी और शहडोल के हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इनका आवास था। इसे इन्हीं जंगलों में पहली बार अनायास ही देखा गया था। 1951 में सीधी जिले की गौपद-बनास तहसील में शेर- शेरनी का एक जोड़ा नरभक्षी हो गया था। इस जोड़े का उत्पात कैमूर- केहचुआ के जंगलों के आसपास बसे गांवों में जारी था। प्रजा ने राज- दरबार में गुहार लगाई। तब इन नरभक्षी शेरों का सफाया करने के लिए गुलाब सिंह और उनके पुत्र मार्तण्ड सिंह जूदेव ने बरगडी-शिविर लगाया था।
नरभक्षी शेरों की टोह में भटकते हुए 27 मई 1951 को महाराजा गुलाब सिंह को पीले रंग पर काली पट्टी वाली एक शेरनी मिली थी जिसके साथ नौ माह के चार बच्चे भी थे। इनमें तीन बच्चे तो सामान्य थे, लेकिन एक बच्चा सफेद चमड़ी का था जिस पर भूरी पट्टियां थीं। महाराज ने इस अद्भुत प्राणी को पिंजरे में कैद करवा लिया। इसका नाम मोहन रखा और इसकी वंश वृद्धि के लगातार प्रयास किए गए। किंतु कामयाबी नहीं मिली।
रीवा नरेश ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए पीले रंग की सुकेशी नाम की एक शेरनी भी सफेद शेर के साथ गुफ्तगू के लिए छोड़ दी। जल्दी ही इस जोड़े में अंतरंगता कायम हो गई और इस जोड़े ने तीन बार बच्चे जने लेकिन सभी बच्चे साधारण ही निकले। सफेद शेर की नस्ल बचाने के लिए रीवा महाराज गुलाब सिंह और मार्तण्ड सिंह ने सुकेशी को मोहन से अलग कर दिया तथा मोहन और सुकेशी से उत्पन्न एक शेरनी से पैदा शेरनी राधा को मोहन के पास छोड़ दिया। राधा और मोहन के संगम से अक्टूबर 1958 में चार सफेद शावकों का जन्म हुआ। बाद में इसी जोड़े से 1960 में तीन बच्चे और पैदा हुए। इनमें दो सफेद और एक पीला था। 1952 में फिर इनके दो बच्चे हुए और दोनों ही सफेद! इस तरह सफेद शेरों की वंश वृद्धि हुई और ये पूरी दुनिया में पहुंचे। विश्व में पाए जाने वाले सभी सफेद शेर इसी मोहन के वंशज हैं।
रीवा महाराज ने सफेद शेर का एक बच्चा अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहॉवर को भेेंट किया था। जून 1963 में सफेद शेरों का जोड़ा इंग्लैंड पहुंचाया गया। कोलकाता के चिडिय़ाघर को भी एक जोड़ा दिया गया। राधा- मोहन से पैदा हुए बाकी शावकों को दिल्ली के चिडिय़ाघर में भेज दिया गया। लेकिन रीवा महाराज ने राधा- मोहन और सुकेशी को जीवनपर्यंत अपने पास रखा। धीरे- धीरे चिडिय़ाघरों में इनकी संख्या बढ़कर 70 हो गई थी, पर वनाधिकारियों की लापरवाही के चलते इनकी संख्या घटने लगी। दुर्लभ सफेद शेर की नस्ल तो इन वनों में बची ही नहीं है, साधारण बाघ के दर्शन होना भी दुर्लभ है।
इन जंगलों से शेरों का विनाश करने की नादानी भी इन्हीं राजा- महाराजाओं ने की। शिकारगंज नौठिया (सीधी) और बांधवगढ़ (शहडोल) के शिकारगाहों में शेरों का शिकार करने की होड़ थी। वेंकट रमणसिंह जूदेव ने 1913 तक 111 शेर मारे थे। गुलाब सिंह ने 1923-24 तक 144 और मार्तण्ड सिंह ने 1952-53 तक 125 शेर मारे।
रीवा राज्य- दर्पण के अनुसार सन 1935 में सीधी के जंगल से महाराजा वेंकटरमण सिंह ने एक सफेद शेर पकड़ा और उसे अंग्रेजों को भेंट किया। 1937 में महाराज गुलाब सिंह द्वारा एक सफेद शेर का शिकार किया जाने का उल्लेख है। 1944 में रीवा के पास प्रशासक जेल्डरिज ने भी एक सफेद शेर का शिकार किया। 1946 में महाराजा मार्तण्ड सिंह ने भी एक सफेद शेर को मारकर अपने शिकार के शौक की पूर्ति की। चुरहट तहसील के जमुनिहा गांव के निकट ही 10 फीट लंबे एक सफेद शेर का शिकार रीवा गजट में दर्ज है। ये शिकारगाह राजाओं, जागीरदारों और उनके विशिष्ट मेहमानों व अंग्रेज अधिकारियों के लिए ही आरक्षित थे। शिकार की इसी खुली होड़ के चलते इन जंगलों से सफेद शेरों का विनाश वन और वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 के अमल में आने से पहले ही हो चुका था।
वंश- विनाश की इन्हीं क्रूरताओं के चलते मध्य प्रदेश में पैदा होकर दुनिया भर में पहुंचे सफेद शेर आज खुद मध्य प्रदेश के लिए ही एक इतिहास बनकर रह गए हैं। प्राणी विशेषज्ञों ने बंदी अवस्था में इनकी वंश वृद्धि के प्रयास लगातार तीन साल किए मगर असफल रहे।
कैमूर विंध्याचल के वन खंडों से तो सफेद शेर लुप्त हो ही चुके हैं, अंतिम नर सफेद शेर ईशू की मौत के बाद अटकलें लगाई जा रही हैं कि अब वन विहार में इनकी वंश वृद्धि होना असंभव ही है। अच्छी खबर यह है कि इनके मूल निवास स्थल रीवा के जंगलों में इनके पुनर्वास की पहल की जा रही है। यह प्रयास सफल हुआ तो एक बार फिर कैमूर विंध्याचल में सफेद शेर की दहाड़ गूंजेगी। (स्रोत फीचर्स)

कालजयी व्यक्तित्व कभी नहीं मरते सआदत हसन मंटो

कालजयी व्यक्तित्व कभी नहीं मरते

उनका पूरा नाम था सआदत हसन मंटो किन्तु मित्रों एवं परिचितों के दायरे में वे मन्टो के नाम से मशहूर थे। उनका जन्म हुआ था 11 मई वर्ष 1912 में अविभाजित पंजाब के समराला (जिला लुधियाना) नामक गाँव में। जब इनकी आयु सात वर्ष की थी उसी दौरान अमृतसर के जलियावाला बाग में वह सामूहिक बर्बर हत्याकांड हुआ था जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में अन्तिम कील ठोंक दी। मंटो इस अमानवीय घटना से इस कदर प्रभावित हुए कि जब उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू किया तो पहली कहानी इसी विषय को आधार बनाकर उर्दू में लिखी। कहानी का नाम था- तमाशा। इसी बीच उनकी भेंट हुई ईस्ट इंडिया कंपनी के सम्बद्ध इतिहासकार बारी आलिग से, उस भेंट ने मंटो की दुनिया ही बदल कर रख दी। बारी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से उन्होंने रूसी और फ्रेंच साहित्य का गहरा अध्ययन किया तथा विक्टर ह्ययूगों के 'द लास्ट डेड ऑफ ए कंडेम्ड मैन' तथा आस्कर वाइल्ड के 'वेरा' नामक उपन्यासों का उर्दू में तर्जुमा भी किया। बारी के ही दबाव से मंटो ने उस उर्दू जुबान में मौलिक कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, जिसमें वह स्कूल में पढ़ते समय प्राय: फेल होते रहे थे।
मंटों की कहानियां एक अर्थ में मनोवैज्ञानिक सनसनी पैदा करने वाली कहानियाँ हैं। उसमें समाज के दलित उत्पीडि़त लोगों की मजबूरियों उनके दु:ख- दर्द को पूरी ईमानदारी से उकेरने की कोशिश की गई है। उनके वर्णनों से जो ध्वनि निकलती है वह असाधारण रूप से जीने की कला, मरने की कला और इन दोनों के बीच होने की कला से सराबोर रहती है। उनकी कहानियों के मुख्य पात्र वे यातना भोगती आत्माएं हैं जो कमजोर जिस्म से लेकर भी अपने इरादों के बल-बूते पर कट्टर सम्प्रदायवाद के खिलाफ लड़ती हैं। मजहब के तंग दायरों को तोडऩे के लिए आखिरी दम तक जंग करती हैं, और बड़ी अग्नि परीक्षा में से गुजरते हुए कुंदन बनकर निकलती हैं। अपने कीमती जिस्म बेचने को मजबूर कोठेवालियों कभी बड़ी अदाकाराओं और मुल्क के बंटवारे से पैदा हुई फिरकापरस्त दरिन्दगी को अपनी अस्मत की भेंट चढ़ाती अमीनाओं- सकीनाओं की जीती जागती तस्वीरें पेश करती है मंटो की कहानियाँ। लोगों का मानना है कि यदि पामेला बोर्डस भी मंटो के जमाने में हुई होतीं वह तो उसे भी अपनी कहानी का मुख्य पात्र जरूर बनाते।
मंटो सन् 1936 में 'मुसव्वर' नाम के फिल्मी साप्ताहिक का संपादन करने के लिए मुम्बई आए और तभी उन्होंने 'इंपीपियर फिल्म कंपनी' के लिए पटकथा एवं संवाद लेखन का कार्य भी शुरू किया। लिखने के लिहाज से ये दिन मंटो की जिन्दगी के सबसे सुनहरे दिन थे। उन्हीं दिनों उन्होंने जो कुछ लिखा, रिसालों को एडिट किया, ऑल इंडिया रेडियो को अपना रचनात्मक योगदान किया और मौलिक कहानियों एवं निबन्ध के संकलन प्रकाशित करवाए सन् 1941 में वह दिल्ली गए लेकिन दिल्ली की जिंदगी उन्हें रास न आई और दो साल बाद ही वह फिर 'फिल्मिस्तान कंपनी' में काम करने के लिए मुम्बई लौट आए।
मंटो ने अपने लेख में लिखा है कि वे दिन उनके लिए यादगार दिन थे। जिंदगी बड़े आराम से गुजर रही थी कि 14 अगस्त 1947 की रात तो ठीक 12 बजे हिन्दुस्तान का ऐतिहासिक बंटवारा हो गया। पूरे देश में अफरा- तफरी का माहौल पैदा हो गया। देश के नगरों में दोनों समुदायों के बीच मारकाट होने लगी। मुम्बई भी अछूता न रहा। उनकी पत्नी और बच्चे परिवार के दूसरे लोगों के साथ पाकिस्तान चले गए लेकिन मंटो वहीं डटे रहे। दरअसल उनका दिल मुम्बई शहर को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं था। उन दिनों वह बॉम्बे टाकीज में काम कर रहे थे। उन्होंने पुख्ता इरादा कर लिया था कि कुछ भी हो जाए, वे हिन्दुस्तान छोड़कर नहीं जाएँगे, पर उनके इरादे करने से क्या होना था। मजहवी सियासत तो अपनी घिनौनी हरकतों से बाज आने वाली नहीं थी। बॉम्बे टाकीज के मालिकों को अल्टीमेटम मिला-या तो अपने सब मुस्लिम कर्मचारियों को बर्खास्त कर दें या फिर अपनी सारी जायदाद को अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते देखने के लिए तैयार हो जाएं।
मंटो पर इस खौफनाक धमकी का बड़ा घातक असर हुआ। जनवरी 1948 को वह अपना टूटा दिल और बिखरे सपने लेकर कराची चले गए। मुम्बई में गुजरे अपने आखिरी दिनों की याद करते हुए उन्होंने लिखा- 'मेरे लिए यह तय करना नामुमकिन हो गया है। कि दोनों मुल्कों में अब मेरा मुल्क कौन-सा है। बड़ी निर्दयता के साथ रोजाना जो खून बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? अब आजाद हो गए हैं? क्या गुलामी का वजूद खत्म हो गया है? जब हम औपनिवेशक दासता में थे, स्वतंत्रता के सपने देख सकते थे, लेकिन अब हम आजाद हो     गए हैं।
तब हमारे सपने किसके लिए होंगे? इन सवालों के अलग- अलग जवाब हैं। हिन्दुस्तानी जवाब- पाकिस्तानी जवाब। हिन्दुस्तान हो गया है और पाकिस्तान तो पैदा ही आजादी में हुआ है लेकिन दोनों ही देश में आदमी अलग- अलग तरह की गुलामी ढोने को मजबूर हैं। पूर्वाग्रहों की गुलामी, मजहबी पागलपन की गुलामी पशुता की हैवानियत की गुलामी है। जलालत की गुलामी अभी तक भी आदमी को जकड़े हुए है। इन गुलामियों से छुटकारा दिलाने की पहल किसी और से नहीं हो रही है। क्यों आखिर क्यों?
तीखे नश्तर से चुभने वाले मंटो के ये सवाल उसकी मौत के 55 साल बाद भी जवाब पाने के लिए अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं। मजहब के नाम पर सियासत का खेल खेलने वाले आदमखोर बाजीगर भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों मुल्कों में सत्ता पाने के लिए शतरंजी चालें चलने में मशगूल हैं। नतीजा यह है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अफसाना निगारों के महत्वपूर्ण स्थान पर भी मंटो को न हिन्दुस्तान ने अपना माना है और न पाकिस्तान ने। बंगलादेश तो खैर बंगला भाषा में लिखने वालों के अलावा किसी और को स्वीकार करता ही नहीं है।
देखा जाए तो मंटो का साहित्य किसी को मान्यता का मोहताज भी नहीं है वह उतना बुलंद है जितना कुतुबमीनार। वह इतना आकर्षक है जितना ताजमहल और वह इतना ही पाक- साफ है जितना गंगाजल। आधी रात को पैदा हुए हिन्दुस्तान के बेटे- बेटियों के लिए यह एक सशक्त यादगार है उस क्रूर बंटवारे की, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता, इसलिए नहीं कि इसने एक देश के दो टुकड़े कर दिए, बल्कि इसलिए कि इसमें एक दिल एक दिमाग और एक आत्मा को दो हिस्सों में बांट दिया।
मंटो ने जो कुछ भी लिखा, जितना भी लिखा, वास्तविकता के बहुत करीब होकर लिखा। मंटो ने सच्चाई से कभी गुरेज नहीं किया। अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने अपनी कब्र पर लिखी जाने के लिए जो इबादत लिखी, वह दर्द भरी होते हुए भी बड़ी प्यारी इबादत थी। उन्होंने लिखा था, 'यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ है और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं। टनो मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुद से बड़ा कहानी लेखक नहीं है।'
सचमुच मंटो चाहे खुदा से बड़ा कथाकार न हो, लेकिन उनका रचना संसार अनिवार्यता: ऐसे लोगों को प्रकाश में लाता है जिनकी ओर समाज कभी नजर डालना गवारा नहीं करता है। इन लोगों की जिंदगी उन अनाम, अनजाने पहलुओं को उद्घाटित करता है, जिन तक बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक की भी पहुँच नहीं हो पाई।
 इस नाते वह एक लाजवाब सृजनकर्ता कहलाने का हक रखते हैं। मंटो की प्रतिभा व उसकी जीवनशैली की यदि किसी से तुलना की जा सकती है तो वह हैं- अर्नेस्ट हेमिंग्वे से, सब जानते हैं कि मंटों शराब पीते थे और उनकी शराबखोरी के कारण ही उनकी मौत हुई थी। बिल्कुल यही हालात अर्नेस्ट हेमिंग्व की भी थी। उसकी शराबखोरी की आदत मंटो के जीवन में भी प्रतिबिम्बित हुई है और दोनों ने ही मानवीय भावनाओं के अदम्य प्रवाह को कसे हुए शिल्प और कम से कम शब्दों के प्रयोग करते हुए दलित उत्पीडऩ मनुष्य जाति के असह्य दु:ख- दर्द को व्यक्त किया है। उर्दू के इस महान कहानीकार ने 18 जनवरी 1955 को हमेशा के लिए आंख मूंद ली। अपनी रचनाओं में मंटो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह अपनी कालजयी रचनाओं के कारण आज भी अमर हैं। वह एक कालजयी व्यक्तित्व था और कालजयी व्यक्तित्व कभी मरते नहीं हैं।
(आगामी अंकों में मंटों की प्रसिद्ध रचनाएं नियमित प्रकाशित होंगी )

भिखारिन

इस वर्ष 7 मई 2012 को महान कवि और साहित्यकार गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन्म की 150 वीं जयंती मनायी गई। इस विशेष अवसर पर उनकी पावन स्मृति में गुरूदेव की एक प्रसिद्ध कहानी भिखारिन और एक बेहद संवेदनशील कविता अगर प्यार में और कुछ नहीं को हम उदंती के सुधी पाठकों को भेंट कर रहें हैं। 

  भिखारिन

- रवीन्द्रनाथ टैगोर
अन्धी प्रतिदिन मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए।
वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले सहृदय और श्रद्धालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने- जाने वाले दो- चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएं देती और उनको सहृदयता को सराहती। स्त्रियां भी उसके पल्ले में थोड़ा बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।
प्रात:  से संध्या तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी याचना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते- पहुंचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते। झोपड़ी के समीप पहुंचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके मस्तक को चूमती।
बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था। पांच वर्ष हुए पास- पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप कराने का प्रयत्न कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, अत: किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।
अन्धी ने अपनी झोंपड़ी में एक हांडी गाड़ रखी थी। संध्या समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढांप देती। इसलिए कि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ी रहती। प्रात: काल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के द्वार पर जा खड़ी होती।
काशी में सेठ बनारसीदास बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति है। बच्चा- बच्चा उनकी कोठी से परिचित है। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा हैं। धर्म में उनकी बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे तक सेठ स्नान-ध्यान में संलग्न रहते। कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी तांता बंधा रहता जो अपनी पूंजी सेठजी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा-पूंजी इन्हीं सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किन्तु पता नहीं अब तक वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही।
उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई चुरा न ले। एक दिन संध्या-समय अन्धी ने वह हांडी उखाड़ी और अपने फटे हुए आंचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुंची।
सेठजी बहीखाते के पृष्ठ उलट रहे थे, उन्होंने पूछा- क्या है बुढिय़ा?
अंधी ने हांडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा- सेठजी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अंधी, अपाहिज कहां रखती फिरूंगी?
सेठजी ने हांडी की ओर देखकर कहा- इसमें क्या है?
अन्धी ने उत्तर दिया- भीख मांग-मांगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे संग्रह किये हैं, अपने पास रखते डरती हूं, कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।
सेठजी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा- बही में जमा कर लो। फिर बुढिय़ा से पूछा- तेरा नाम क्या है?
अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीमजी ने नकदी गिनकर उसके नाम से जमा कर ली और वह सेठजी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।
दो वर्ष बहुत सुख के साथ बीते। इसके पश्चात एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू की, झाडफ़ूंक से भी काम लिया, टोने- टोटके की परीक्षा की, परन्तु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए। लड़के की दशा दिन- प्रतिदिन बुरी होती गई, अंधी का हृदय टूट गया, साहस ने जवाब दे दिया, निराश हो गई। परन्तु फिर ध्यान आया कि संभवत: डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठजी की कोठी पर आ पहुंची। सेठजी उपस्थित थे।
अंधी ने कहा- सेठजी मेरी जमा- पूंजी में से दस-पांच रुपये मुझे मिल जायें तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊंगी।
सेठजी ने कठोर स्वर में कहा- कैसी जमा पूंजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।
अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया- दो वर्ष हुए मैं आपके पास धरोहर रख गई थी। दे दीजिए बड़ी दया होगी।
सेठजी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा- मुनीमजी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूंजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?
अंधी की जान-में-जान आई, आशा बंधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, किन्तु अब सोचने लगी सम्भवत: उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम बता दिया। उलट-पलटकर देखा। फिर कहा- नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।
अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा- सेठजी, परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन-भर आपके गुण गाऊंगी।
परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठजी ने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया- जाती है या नौकर को बुलाऊं।
अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठजी की ओर मुंह करके बोली- अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे। और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
यह आशीष न था बल्कि एक दुखी का शाप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता। एक दिन उसकी अवस्था चिन्ताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठजी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं मांग रही थी, अपने ही रुपये मांगने गई थी। सेठजी से घृणा हो गई।
बैठे- बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, गिरती-पड़ती, सेठजी के पास पहुंची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।
एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठा देखकर उसने सेठजी को सूचना दी, सेठजी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।
नौकर ने अंधी से चले जाने को कहा, किन्तु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर वह टस-से-मस न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं टलती।
सेठजी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गये। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की, पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जांघ पर एक लाल रंग का चिन्ह था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जांघ देखी। चिन्ह अवश्य था परन्तु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का है। परन्तु तुरन्त उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया। शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और स्वयं मकान के अन्दर चल दिये।
अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी- मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?
सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा-बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था अब मिला है, सो इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊंगा।
अंधी ने एक जोर का ठहाका लगाया- तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून- पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी।
सेठजी की अजीब दशा थी। कुछ करते- धरते बन नहीं पड़ता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये। अन्धी कुछ समय तक खड़ी रोती रही फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
दूसरे दिन प्रात: काल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने जादू का-सा प्रभाव दिखाया। मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आंख खोली तो सर्वप्रथम शब्द उसकी जबान से निकला, मां।
चहुंओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बन्द कर लिये। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। मां-मां की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठजी के हाथ-पांव फूल गये, चहुंओर अंधेरा दिखाई पडऩे लगा।
क्या करूं एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है, इसे कैसे बचाऊं?
सहसा उनको अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परन्तु वह वहां कहां? सेठजी ने फिटन तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुंचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधर बह रही है। सेठजी ने धीरे से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भांति तप रहा था।
सेठजी ने कहा- बुढिय़ा! तेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे...नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।
अन्धी ने उत्तर दिया- मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूं। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर मां-बेटे की तरह मिल जाएंगे। इस लोक में सुख नहीं है, वहां मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी सुचारू रूप से सेवा-सुश्रुषा करूंगी।
सेठजी रो दिये। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था। किन्तु इस समय अन्धी के पांवों पर गिर पड़े और रो-रोकर कहा- ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी मां हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा।
ममता शब्द ने अन्धी को विकल कर दिया। उसने तुरन्त कहा- अच्छा चलो।
सेठजी सहारा देकर उसे बाहर लाये और फिटन पर बिठा दिया। फिटन घर की ओर दौडऩे लगी। उस समय सेठजी और अन्धी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुंच जायें।
कोठी आ गई, सेठजी ने सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर जाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी मां का हाथ है। उसने तुरन्त नेत्र खोल दिये और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा- मां, तुम आ गईं।
अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपने गोद में रख लिया। उसको बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सो गया।
दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुडिय़ा और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।
मोहन के पूरी तरह स्वथ हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत-कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए परन्तु वह सहमत न हुई, विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने मालूम किया, इसमें क्या है।
सेठजी ने कहा- इसमें तुम्हारी धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध...
अन्धी ने बात काट कर कहा-यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए संग्रह किये थे, उसी को दे देना।
अन्धी ने थैली वहीं छोड़ दी। और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाये उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे किन्तु वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

अगर प्यार में और कुछ नहीं

- रवीन्द्रनाथ टैगोर
अगर प्यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्यों है यह प्यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूंकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है, हमारा भी
रक्त में जलती इच्छाओं और आंखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूस्थलों का यह बारंबार चक्कर क्यों कर ?
दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं
उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है
वसंत की मीठी हवाएं उसके लिए हैं
फूल, पंक्षियों का कलरव सब कुछ
उसके लिए है
पर प्यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता
फिर भी न जाने क्यों हमें
अस्तित्व को निगलते इस कोहरे की
तलाश रहती है?

श्रद्धांजलिः कुछ नजर हंसी कुछ नजर झुकी

- शिशिर कृष्ण शर्मा
कवि, कथाकार, उपन्यासकार और गीतकार होने के साथ- साथ जीवन को जीने की जद्दोजहद में कभी रेडियो में तो कभी संपादन में तो कभी अभिनय करके जीवन को सिद्दत सो जीने वाले मधुप शर्मा का लम्बी बीमारी के बाद गत माह 13 अप्रैल 2012 को निधन हो गया। यह आलेख पिछले माह ही उदंती छपने के लिए तैयार था। पर अफसोस इस बीच वे हमारे बीच से चले गए। उन्हें उदंती परिवार की विनम्र श्रद्धांजलि।
मधुप शर्मा
फिल्म दारा 1953 में एक मनमोहक गीत हेमंत कुमार, लता मंगेशकर और साथियों के अत्यंत कोमल स्वरों में है- कुछ नजर हंसी, कुछ नजर झुकी... दो बोल तेरे मीठे- मीठे, दिल जान के मालिक बन बैठे... बालकृष्ण जी के लिखे इस पुराने सुरीले गीत को संगीतकार मोहम्मद शफी ने बहुत ही मनमोहक धुन में बांधा था। कुछ प्रयास के बाद पता चला कि ऑल इंडिया रेडियो की विविध भारती सेवा की स्थापना से लेकर बरसों तक जुड़े रहे मधुप शर्मा ही इसके लेखक हैं।
 14 दिसम्बर 1921 को भरतपुर (राजस्थान) में जन्में श्री बाल कृष्ण शर्मा 'मधुप' जो लगभग 92 वर्ष के हो चुके हैं  तथा गत वर्ष वे दूसरी बार सूचक अस्पताल के कमरा नं. 40 में अपनी छोटी बेटी आभा और डॉक्टर दामाद (डॉ. अनिल सूचक) की चिकित्सीय देख- रेख में भर्ती थे तब मैंने उनसे मुलाकात की और उनसे उनके अन्य फिल्मों में लिखे गीतों की जानकारी लेनी चाही तो वृद्धावस्था के कारण वे कुछ खास याद नहीं कर सके और बार- बार यही कहते रहे कि बहुत लिखे, बहुत लिखे। छोटी बेटी आभा के अनुसार उन्होंने सातवें- आठवें दशक की कई हिन्दी फिल्मों सत्यकाम, जॉनी मेरा नाम, अमर प्रेम, राजा जानी, गीत गाता चल, बॉबी, अनामिका, हीरा पन्ना, दोस्त, रोटी कपड़ा और मकान, जख्मी,  आंधी, सन्यासी, दस नम्बरी, आपकी खातिर, आशिक हूं बहारों का, अनुरोध, ड्रीमगर्ल, कालाबाजार, आजाद, दिल से मिले दिल, खून की पुकार, पतिता, राम बलराम, जेल यात्रा, आस- पास, दर्द, लव इन गोवा, प्यासे नैन में अभिनय भी किया था।
उन्होंने सन् 1942 में आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की। सन् 1946 में उनका पहला गीत- संग्रह यह पथ अनन्त, उसके बाद सन् 1948 में टुकड़े प्रकाशित हुआ और इसके साथ- साथ वे साहित्यिक पत्रिका परख का संपादन भी करते रहे। सन् 1952-53 में फिल्मों में गीत लिखने का कार्य किया और उसके बाद सन् 1954 से 1967 तक आकाशवाणी, मुम्बई से जुड़े रहे। विविध भारती के सुप्रसिद्ध हवा महल कार्यक्रम हेतु नाटकों के निर्देशन के अलावा, गीतों भरी कहानियां और अन्य कार्यक्रमों हेतु लेखन कार्य करते रहे, फिल्म कलाकारों से भेंट- वार्ताएं कीं। विविध भारती छोडऩे के बाद कुछ प्रायोजित कार्यक्रमों में भाग लेने के अलावा आठवें दशक में टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित सुप्रसिद्ध सिने पाक्षिक माधुरी से जुड़े रहे। बाद में वर्षों तक उन्होंने केवल साहित्यिक लेखन किया। कहानी, कविता, उपन्यास विधाओं में उनकी लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
फिल्म श्री नगद नारायण 1955 के एक लम्बे हास्य गीत- यह मुंह मसूर की दाल.. के 78rpm रिकार्ड पर गीतकार के रूप में डी.एन.मधोक का नाम दिया है जबकि वास्तव में यह गीत उनकी ही कलम से निकला था और फिल्म की प्रचार पुस्तिका में स्पष्ट रूप से उनका नाम 'मधुप' अंकित है। हिन्दी फिल्म गीत कोश, खंड-3 (1951-60) में ढूंढने पर फिल्मों हेतु उनके लिखे अन्य गीतों कोई जानकारी नहीं मिल सकी है। उनकी बड़ी बेटी पूनम, सेना से सेवानिवृत्त अपने पति अमरेश प्रसाद के साथ एवरशाइन नगर, मलाड (पश्चिम) में रहती हैं, उनकी पत्नी का निधन सन् 2002 में हो गया था उसके बाद से मधुप जी पुष्पा पार्क, मलाड (पूर्व) में अकेले ही रहते थे लेकिन पिछले 1 वर्ष से उनकी देख- रेख सूचक अस्पताल में हो रही थी। 
सन् 1959-60 में मीनाकुमारी से होने वाली उनकी मुलाकात बाद के वर्षों में घनिष्ठता में बदल गई। मीनाकुमारी के दु:ख- दर्द के सहभागी प्रत्यक्षदर्शी बने मधुप शर्मा ने उनके उन लम्हों का सजीव चित्रण अपने लिखे उपन्यास (जीवनी) 'आखिरी अढाई दिन' में किया है। इस उपन्यास को किताबघर प्रकाशन दरिया गंज, नई दिल्ली द्वारा पेपरबैक में इसे प्रकाशित किया गया है। (लिस्नर्स बुलेटिन से)

मीना कुमारी के बारे में मधुप शर्मा

विविधता से भरा जीवन:  मधुप जी का जीवन अपने आप में एक रोचक उपन्यास है, और उसमें ढेरों कहानियाँ भरी पड़ी हैं। कारण? उनके जीवन के अनुभवों की विविधता। आगरा विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद वह लेखन में लगे। 1946 में ही उन का गीत संग्रह प्रकाशित हुआ 'यह पथ अनंत' और 1948 में छपा गद्यगीत संग्रह 'टुकड़े'। फिर पत्रकार बन गए- आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'परख' का संपादन करने लगे। गीत लेखन का शौक उन्हें मुंबई ले गया। 1952-53 में कुछ फिल्मों में गीत लिखे (बाद में उन्होंने अनेक फिल्मों में अभिनय भी किया। (जैसे फिल्म बाबी में उनका प्रिंसिपल वाला रोल)। बँधे- बँधाए रोजगार की तलाश उन्हें विविध भारती ले गई, जहाँ वे 1967 तक रहे। इस के बाद अनेक रेडियो नाटकों और कार्यक्रमों का लेखन, पत्रिकाओं में विविध लेख। इस सदी के अंतिम दशक तक पहुँचते- पहुँचते, जब जीवन में कुछ स्थायित्व आ पाया उन्होंने एक बार फिर साहित्य की ओर रुख किया तो उनके मन की उर्वरता को मानो पंख लग गए । 'फुलमाया' मधुप जी का तीसरा प्रकाशित उपन्यास है, तो 'अनजाने रिश्ते' उन का तीसरा कहानी संग्रह। दोनों में समानताएँ अनेक हैं। उन के पात्र जीवन से उठाए गए हैं, और वे हमारे आसपास के लोगों की सच्ची कहानियाँ कहते प्रतीत होते हैं।
फिल्मों में गीतकार बनने के इरादे से जब मैं बंबई आया, तब मीना कुमारी बहुत-सी फिल्मों में काम कर चुकी थीं। बचपन से कर रही थीं। लेकिन उनकी सबसे पहली फिल्म जो मैंने देखी, वो थी 'बैजू बावरा'। उसी के बाद मैं उन्हें पहचानने लगा था। पर आमने-सामने जो पहचान हुई वो कुछ साल बाद जब एक दिन मोहन स्टूडियो में विमल रॉय यूनिट के श्री पाल महेंद्र ने मुझे उनसे मिलवाया...और वही साधारण-सी जान-पहचान एक दिन अचानक अपनेपन का-सा अहसास छोड़ गई। 1959 या 60 में मैंने विविध भारती के 'हवा महल' में एक मोनोलॉग की अदायगी के लिए उन्हें आमंत्रित किया। रिकॉर्डिंग के बाद उनके इसरार पर मैंने अपनी एक ग़ज़ल सुनाई थी। पहला शेर सुनते ही बेसाख्ता उनके मुँह से निकला था, 'आपने तो यह मेरे दिल की बात कह दी।' चलते- चलते उसी दिन उन्होंने यह वायदा भी ले लिया था कि जब भी किसी कलाकर से मिलने किसी स्टूडियो में आऊँ और वो वहाँ शूटिंग कर रही हों तो मैं उन्हें मिले बिना नहीं आऊँगा।
...और वो वायदा उनके अंतिम दिनों तक निभता रहा। शायद इसलिए कि हमारे खयालात काफी मिलते- जुलते थे। हमारी शायरी में एक- दूसरे का दर्द झाँकता था और हमारी हैसियतों का फर्क हमारे व्यवहार या बातचीत में कभी आड़े नहीं आया। न उनकी आँखों में कभी अहंकार की झलक देखी, न मेरे मन में कभी कमतरी का अहसास आया।
अनोखी अदाकारा, बहुत अच्छी शायरा और एक बेहतरीन इंसान। हमदर्दी और अपनेपन की मिसाल। लाखों- करोंड़ों दिलों की मलिका। इस तरह की नामी हस्ती के बारे में कुछ कहना या लिखना बड़ी जिम्मेदारी का काम है। बहुत- सी जानकारी होनी चाहिए, जो या तो आपने उस व्यक्ति के साथ निजी संपर्क से प्राप्त की हो या उसके करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के जरिए।
आज इस रचना को तो अपना कहते हुए भी मुझे संकोच हो रहा है। शब्द भले ही मैंने इकट्ठे किए हैं, पर भाव और विचार मीना जी के ही हैं और कागज पर उन्हें लाते वक्त मैंने पूरी ईमानदारी से काम किया है। कोशिश की है कि शब्द भी लगभग उन्हीं के हों। लिखते वक्त मैं निरंतर यह महसूस करता रहा हूँ कि मैं नहीं, मीना कुमारी ही अपनी उन बातों को दोहरा रही हैं, जो कभी उन्होंने कही थीं या महसूस की थीं।
शायद इसीलिए यह आलेख आत्मकथा के अंश का-सा रूप बन गया है। अंश इसलिए कि पूरी आत्मकथा होती तो जिंदगी के और भी पहलू उसमें आते। इसमें जिंदगी का वही हिस्सा उभरकर आया है जो मीना जी के दिल के बहुत करीब था। ...नि:स्वार्थ प्यार और अपनेपन की प्यास, मातृत्व के लिए छटपटाती रूह, पुरुष के साथ समान अधिकारों की लालसा।...
...पर कहाँ मिल पाया उन्हें यह सब! नाम, शोहरत, इज्जत, पैसा, सभी कुछ मिला, पर वही नहीं मिला जो उन्होंने सबसे ज्यादा चाहा। उसी को पाने की कोशिश में वो बटोरती रहीं दर्द...दर्द....दर्द...दर्द, जो शदियों से लगभग हर भारतीय नारी का नसीब बना हुआ है। आद के तरक्की पसन्द आधुनिक जमाने में भी लगभग वहीं का वहीं।
...बेटे- बेटी का फर्क, बेटी को अनचाही औलाद मानकर एक बोझा- सा समझते हुए, उसके लिए सही परवरिश और प्यार में भी भेदभाव। बड़ी होकर वो कमाने लगे तो पहले पिता और फिर पति का अधिकार। सिर्फ उसकी कमाई पर ही नहीं, उसके व्यक्तित्व पर भी...नारी तो अबला है। उसे कोई अधिकार देकर फायदा ही क्या! कहाँ रक्षा कर पाएगी उन अधिकारों की भी बेचारी! पति है न उसका परमेश्वर, उसका खुदा।...
अपने बाहुबल पर इतराने वाले पुरुष का यह अहम् स्वार्थ और सदियों पुरानी वह सामंती सोच, कहाँ बदल पाई है आज भी! खैर...नारी की यह कहानी तो शायद और सदियों तक यूँ ही चलती रहेगी। आइए, इसी कहानी को मीना जी से सुनें, आँखों से पढ़ें और दिल से महसूस करें।...

श्रम दिवसः छोटे कंधे पर बड़ा बोझ

- ऋता शेखर 'मधु'

वर्तमान का दरवाजा खोल
निकलता है भविष्य सुनहरा
कैसे निकल पाए भविष्य
लगा हो जब वर्तमान पर पहरा।
जिस बचपन को होना था
ममता की धार से सिंचित
क्यों वह हो रहा है
प्यार की बौछार से वंचित।
उत्साह उमंगों सपनों का
जीवित पुँज है बालक
मजदूरी की बेदी पर क्यों
होम कर देते उनके पालक।
बालकों में होती निहित
सफल राष्ट्र की संभावना
बाल श्रम से यह मिट जाती
कैसी है यह विडम्बना।
असमय छिन जाता है बचपन
बालश्रम है मानवाधिकारों का हनन।
हर वो ऐसा कार्य
बालश्रम की परिधि में आते हैं,
जो बच्चों के बौद्धिक मानसिक
शैक्षिक नैतिक विकास में
बाधक बन जाते हैं।
कहीं लालच कहीं है मजबूरी
करना पड़ता बालकों को मजदूरी।
जिस उम्र को करनी थी पढ़ाई
कारखानों में बुनते कालीन चटाई।
बचपन उनका झुलस जाता
ईंट के भट्टों में
श्वास जहरीली हो जाती
बारूद के पटाखों में।
जिन मासूमों का होना था पोषण
खरीद उन्हें होता है शोषण।
होना था जिस पीठ पर बस्ता
कूड़े के ढेर से वह
काँच लोहे प्लास्टिक है बीनता।
छोटे कंधों पर बड़े बोझ हैं
घरेलू कामों में लगे रोज हैं।
बाल मन है बड़ा ही कोमल
वह भी सपने संजोता है
सुन मालिकों की लानत झिड़की
मन ही मन वह रोता है।
अक्ल बुद्धि उम्र के कच्चे
स्वतंत्र राष्ट्र के परतंत्र बच्चे
जहाँ होती उनकी दुर्गति
वह राष्ट्र करे कैसे प्रगति।
बाल श्रम उन्मूलन दिवस
वर्ष में एक दिन आता है
हर दिन का जो बने प्रयास
दूर हो यह सामाजिक अभिशाप।

मेरे बारे में

 ऋता शेखर 'मधु'
3 जुलाई पटना में जन्म, शिक्षा- एमएससी, वनस्पति शास्त्र, बीएड रुचि- अध्यापन एवं लेखन प्रकाशन- अंतर्जाल पर अनेक वेबसाइटों पर रचनाएँ प्रकाशित। जापानी छंदों जैसे हाइकु, ताँका आदि में विशेष रुचि। लघुकथाएँ एवं छंदमुक्त कविताएँ भी प्रकाशित होती रही हैं। स्वयं के दो चिट्ठे- मधुर गुंजन एवं हिंदी हाइगा। ईमेल-  hrita.sm@gmail.com
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13 मई मातृत्व दिवस

माँ वह लफ्ज वह पुकार, जहाँ से रुदन को मुस्कान मिलती है। रिश्तों की पहचान मिलती है, जिन्दगी क्या है, प्रकृति क्या है, सहनशीलता क्या है, अँधेरे में भी धुंधली किरण क्या है- माँ सब कुछ एक धरोहर की तरह जोड़ती जाती है। जब सारी दुनिया सो रही होती है, माँ उस रुदन उस मुस्कान से बातें करती है। माँ जादुई स्पर्श- बिल्कुल अलादीन के चिराग की तरह। माँ एक लोरी, माँ एक कहानी, माँ एक फिरकिनी... माँ सरस्वती, माँ अन्नपूर्णा,... पर विपरीत परिस्थितियों में माँ दुर्गा से चंडिका, रक्तदंतिका, महिषासुरमर्दिनी .... पूरे नौ रूप की यात्रा करती है। इस माँ को कवि विष्णु नागर ने जिस तरह शब्दों में पिरोया है, उसको आप तक पहुँचाने से मैं खुद को रोक नहीं सकी...                     - रश्मि प्रभा

सर्वगुण संपन्न माँ 

मां सब कुछ कर सकती है
रात- रात भर बिना पलक झपकाए जाग सकती है
पूरा- पूरा दिन घर में खट सकती है
धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है
बर्फ से तेजी से पिघल सकती है
हिरणी से ज्यादा तेज दौड़कर
खुद को भी चकित कर सकती है
आग में कूद सकती है
तैरती रह सकती है समुद्रों में
देश- परदेश शहर- गांव
झुग्गी- झोंपड़ी सड़क पर भी रह सकती है
वह शेरनी से ज्यादा खतरनाक
लोहे से ज्यादा कठोर सिद्ध हो सकती है
वह उत्तरी ध्रुव से ज्यादा ठंडी और
रोटी से ज्यादा मुलायम साबित हो सकती है
वह तेल से भी ज्यादा देर तक खौलती रह सकती है
चट्टान से भी ज्यादा मजबूत साबित हो सकती है
वह फांद सकती है ऊंची-से-ऊंची दीवारें
बिल्ली की तरह झपट्टा मार सकती है
वह फूस पर लेटकर महलों में रहने का सुख भोग सकती है
वह फुदक सकती है चिडिय़ा की मानिंद
जीवन बचाने के लिए वह कहीं से कुछ भी चुरा सकती है
किसी के भी पास जाकर वह गिड़गिड़ा सकती है
तलवार की धार पर दौड़ सकती है वह लहुलुहान हुए बिना
वह देर तक जल सकती है राख हुए बगैर
वह बुझ सकती है पानी के बिना
वह सब कुछ कर सकती है इसका यह मतलब नहीं
कि उससे सब कुछ करवा लेना चाहिए
उसे इस्तेमाल करने वालों को गच्चा देना भी खूब आता है
और यह काम वह चेहरे से बिना
कुछ कहे कर सकती है।...
            - कवि विष्णु नागर
फिर स्वत: मेरी कलम ने कवि के साथ अपना रिश्ता कायम करते हुए खुद को शब्दों में ढाला-

माँ जो हूँ

प्यार करनेवाली माँ जब नीम सी लगने लगे तो समझो
उसने तुम्हारी नब्ज पकड़ ली है और तीखी दवा बन गई है!
याद रखो जो माँ नौ महीने तुम्हें साँसें देती है
पल- पल बनती काया का आधार बनी रहती है
तुम्हारी नींद के लिए पलछिन जागती है
वह तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकती है
तब तक जब तक नीम का असर
फिर से जीवन न दे जाए!
माँ प्यार करती है, दुआ बनती है, ढाल बनती है
तो समय की माँग पर वह नट की तरह रस्सी पर
बिना किसी शिक्षा के अपने जाये के लिए
द्रुत गति से चल सकती है
अंगारों पर बिना जले खड़ी रह सकती है
वह इलाइची दाने से कड़वी गोली बन सकती है
जिन हथेलियों से वह तुम्हें दुलराती है
समय की माँग पर
वह कठोरता से तुम्हें मार सकती है ...
तुम्हें लगेगा माँ को क्या हुआ!
क्योंकि तुम्हें माँ से सिर्फ पाना अच्छा लगता है
यह तुम बाद में समझोगे
कि माँ उन चीजों को बेरहमी से छीन लेती है
जो तुम्हारे लिए सही नहीं
और सही मायनों में
ऐसी माँ ही ईश्वर होती है!

ब्लॉग बुलेटिन से


राजीव चतुर्वेदी
उदंती में हमने जो नयी श्रृंखला की शुरूआत की है उसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से लेकर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए...
राजीव चतुर्वेदी के ब्लॉग Shabd Setu से।   - संपादक

 वक्त का सूरज  अभी डूबा नहीं

स्वान्त: सुखाय लिखता है कवि, रहता है अकेला अपने ख्यालों में .... पर अकेला रह नहीं पाता। कभी हवा उसे छू जाती है, कभी किसी बच्चे की मोहक मुस्कान में वह ठिठक जाता है और फडफ़ड़ाते पन्नों के कैनवस पर शब्दों से उसकी मुस्कान को उतनी ही सजीवता देना चाहता है, जिसमें वह ठिठका रहता है। एहसासों से भरे कई कदम उसके कमरे के बाहर चहलकदमी करते हैं, उसे पढऩे के लिए, उसे जानने के लिए...
इन्हीं चहलकदमियों में मुझे मिला राजीव चतुर्वेदी का ब्लॉग-
अंधे को क्या चाहिए दो आँख। मुझे तो वाकई दो आँखें मिलीं और खुदा जानता है कि मैं कभी भी अकेले सारी रौशनी नहीं रखती, सबके साथ पूरी ईमानदारी के संग बांटती हूँ। तो आज बांटने आई हूँ राजीव जी के ब्लॉग की प्रखर रौशनी।
यूँ तो इन्होंने बहुत पहले से लिखना आरम्भ किया होगा पर इनकी ब्लॉग यात्रा फरवरी 2012 से शुरू हुई। हर पृष्ठ कुछ कहता है या हर पृष्ठ में दबी एक चिंगारी है, मंथन आपके समक्ष है -
लोकतंत्र की पृष्ठभूमि की पड़तालों में
तक्षशिला से लालकिला तक पूरक प्रश्न फहरते देखो।
जन-गण-मन के जोर से चलते,
गणपति के गणराज्य समझ लो।
आत्ममुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगों की दुनिया,
कोलंबस की भूल के आगे नतमस्तक है।
हर जुगनू की देखो ख्वाहिश सूरज की पैमाइश ही है।
हम कोलंबस हैं हमारे हाथों में
भूगोल की किताबें नहीं होतीं
हम कोलंबस हैं हमारे हाथों में भूगोल की किताबें नहीं होतीं
हमारी निगाहों में स्कूल की कतारें नहीं होती,
हमारे घर से लाता नहीं टिफिन कोई,
तुम्हारी तरह हमको पिता दिशा नहीं समझाता,
तुम्हारी तरह हमें तैरना नहीं सिखलाता,
हमारे घर पर इंतजार करती माँएं नहीं होती।
हम कोलंबस हैं हमारे हाथ में होती हैं पतवारें,
हमारी निगाह में रहती हैं नाव की कतारें,
हमारे पिता ने निगाह दी तारों से दिशा पहचानो,
हमारे पिता ने समझाया तूफानों की जिदें मत मानो,
हमारी मां यादों में बस सुबकती है आंसू से रोटी खाती है,
स्कूलों की छुट्टी के वख्त हमारी मां भी
समंदर तक आके लौट जाती है।
मेरी मां जानती है मैं कभी न आऊँगा
फिर भी मेरी सालगिरह मनाती है।
तुम साहिल पे चले निश्चित वर्तमान की तरह
मैं समंदर पर सहमा अनिश्चित भविष्य था भूगोल में गुम
तुम तो सुविधाओं को सिरहाने रख सोते ही रहे
हमने हवाओं के हौसले की हैसियत नापी
तुमने तोड़ा था उसूलों को जरूरत के लिए
हमने जज्बात की हरारत नापी
तुम तो शराब के पैमाने में ही डूब गए
मैंने समंदर के सीने की रवानी नापी
तुम्हारी काबलियत काँप जाती है नौकरी पाने के लिए
मेरी भूल भी उनवान है धरती पे लिखा
तुम्हारे और मेरे बीच यही है फर्क समझो तो
जिन्दगी की हर पहल में तुम हो नर्वस
और मैं कोलंबस
तुम्हारे हाथ में भूगोल की किताब है पढ़ो मुझको
मुझको है मां से बिछुड़ जाने का गम।
चीखो तुम भी ...चीखूँ मैं भी-- यह ...
'चुप हैं चिडिय़ाँ गिद्धों की आहट पा कर।
बस्ती भी चुप है सिद्धों की आहट पा कर
अंदर के सन्नाटे से सहमा हूँ मैं पर बाहर शोर बहुत है।
संगीत कभी सुन पाओ तो मुझको भी बतला देना,
 ...कैसा लगता है?'
विस्मित हूँ ..... राजीव जी का रचना संसार सत्य के ओज से दमक रहा है और मुझे अपना आप एथेंस के सत्यार्थी सा प्रतीत हो रहा है-
'कठिन है सत्य बोलना,
हनुमान जी की बातें करो
तो वेश्याओं के मोहल्ले में हाहाकार मच जाता है
कि यह व्यक्ति हमारी दुकान ही ठप्प कर देगा'
कविता पन्नों पर उकेरे भाव ही नहीं होते .... कभी बालू के घरौंदों में होते हैं, कभी समंदर की लहरों में, कभी छोटे से बच्चे की आँखों के अन्दर उमड़ते चॉकलेट की चाह में, कभी आंसुओं के सिले धब्बों में ...
शायद कविता उसको भी कहते हैं
'मेरी बहने कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से
कविता बुनना नहीं जानती
वह बुनती हैं हर सर्दी के पहले स्नेह का स्वेटर
खून के रिश्ते और वह ऊन का स्वेटर
कुछ उलटे फंदे से कुछ सीधे फंदे से
शब्द के धंधे से दूर स्नेह के संकेत समझो तो
जानते हो तो बताना वरना चुप रहना और गुनगुनाना
प्रणय की आश से उपजी आहटों को मत कहो कविता
बुना जाता तो स्वेटर है, गुनी जाती ही कविता है
कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से कविता जो बुनते हैं
वह कविताए दिखती है उधड़ी उधड़ी सी
कविता शब्दों का जाल नहीं
कविता दिल का आलाप नहीं
कविता को करुणा का क्रन्दन मत कह देना
कविता को शब्दों का अनुबंधन भी मत कहना
कविता शब्दों में ढला अक्श है आहट का
कविता चिंगारी सी, अंगारों का आगाज किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं
कविता बूढ़े सपनो की शेष बची कुछ आशें हैं
कविता सहमी सी बहन खड़ी दालानों में
कविता बहकी सी तरूणाई
कविता चहकी सी चिडिय़ा, महकी सी एक कली
पर रुक जाओ अब गला बैठता जाता है यह गा-गा कर
संकेतों को शब्दों में गढऩे वालो
अंगारों के फूल सवालों की सूली
जब पूछेगी तुमसे...
शब्दों को बुनने को कविता क्यों कहते हो?
तुम सोचोगे चुप हो जाओगे
इस बसंत में जंगल को भी चिंता है
नागफनी में फूल खिले हैं शब्दों से
शायद कविता उसको भी कहते हैं।'
आँधियों की तरह इन्हें नहीं पढ़ा जा सकता! इन्हें क्या .... किसी भी एहसास को वक्त न दो तो आप उसके स्पर्श से वंचित रह जायेंगे। वक्त दीजिये, रुकिए... यह मात्र अभिव्यक्ति नहीं एक आगाज है !
मार्च के आँगन में राजीव जी ने कहा है
लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ वक्त का सूरज अभी ...
'समंदर की सतह पर एक चिडिय़ा ढूंढती है प्यास को
अब तो जन- गण- मन के देखो टूटते विश्वास को
बर्फ से कह दो जलते जंगलों की
तबाही की गवाही तुम को देनी है।
और कह दो साजिशों से सत्य का चन्दन
रगड़ कर अपने माथे पर लगा ले और
जितना छल सको तुम छल भी लो
लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ वक्त का सूरज
अभी डूबा नहीं है
एक भी आंसू हमारा आज तक सूखा नहीं है.'
इससे आगे -
मैंने कुछ शब्द खरीदे हैं बाजार से खनकते से हुए....
अभी तो सूरज निकला है, तेज सर चढ़कर बोलेगा
.... मेरी शुभकामनायें हैं शब्द सेतु को।

प्रस्तुति- रश्मि प्रभा, संपर्क: निको एन एक्स,
फ्लैट नम्बर- 42, दत्त मंदिर, विमान नगर,
पुणे- 14, मो. 09371022446  http://lifeteacheseverything.blogspot.in