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Sep 27, 2012

रजनीगंधा

रजनीगंधा

- सुशीला शिवराण

 1
ओस की बूँद
रात रोई है धरा
दर्द गहरा।
2
हरसिंगार
रात भर सिंगार
ऊषा मुर्झाए।
3
रजनीगंधा
महकाए रतियाँ
सुबह सोए।
4
गहरा दर्द
तन- मन भी सर्द
बहें नयन!
5
बौराए आम
कूके है कोयलिया
मन विभोर।
6
ख्वाहिशें मेरी
भटकें दिन-रैन
तुम बेपीर।
7
चाहत मेरी-
एक मुट्ठी आसमाँ
पाए दो जहाँ।
 8
बहा है नीर
घनेरी कोई पीर?
बोल मनवा।
9
कजरा नैन
मृगी-सी चितवन
छला है जग!
10
हरित दूर्वा
क्यारी-क्यारी कुसुम
मन प्रसून!
11
हरे गलीचे
ताने हरा वितान
मुदित धरा!
12
सीत बयार
रूत भीगी-भीगी सी
मन पपीहा!
13
मेह बरसा
बचपन चहका
मन किलका!
14
खुद को खोया
तब उसे पाया है
प्रीत की रीत!
15
शब्द चितेरे
बुने जाल भ्रम के
उलझा जग।
16
मुद्दतें हुईं
खुल के हँसा है वो
रोने के बाद।
17
धागे प्रीत के
कच्चे हैं मानें सब
बंधन पक्के
18
भीगी पलकें
बिखरी हैं अलकें
सूना मनवा
संपर्क- बदरीनाथ-813, जलवायु टावर्स, सेक्टरर-56, गुडग़ाँव 122011 दूरभाष- 0124-4295741
    sushilashivran@gmail.com

1 comment:

सहज साहित्य said...

वैसे तो सुशीला जी के सभी हाइकु बहुत अच्छे हैं , लेकिन ''मुद्दतें हुईं/ खुल के हँसा वो /रोने के बाद' की गहराई हाइकु की शक्ति का अहसास कराती है। ए के हंगल जितने अच्छे चर्त्र अभिनेता थे , उतने ही ऊँचे आज़ादी के दीवाने भी थे । महादेवी की बिन्दा दिल को छू गई । रामेश्वर काम्बोज हिमांशुनई दिल्ली