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Sep 27, 2012

उदंती.com-सितम्बर 2012

 मासिक पत्रिका  वर्ष 3, अंक 1,सितम्बर 2012 



मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है 
जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। 
                                               - रवीन्द्रनाथ ठाकुर

अनकही: पर्यटन संस्कृति    - डॉ. रत्ना वर्मा
शिक्षक दिवस: गुरु-शिष्य की बदलती परंपरा - आकांक्षा यादव  
रियो डि जेनेरियो: संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक सम्मेलन - चन्द्रशेखर साहू  
वन्य जीवन: कान्हा के बाघों की ... - संदीप पौराणिक
प्रेरक कथा: निर्णय
धरोहर: पाली शिव मंदिर में कला का .... -  प्रो. अश्विनी केशरवानी    
कविता: पीड़ा अब न सही जाती - डॉ. गीता गुप्त
जलाशय पर्यटन: नयनाभिराम जलप्रपात  - विप्लव
पुरातन: लव-कुश का जन्मस्थल तुरतुरिया     - ज्योति प्रेमराज सिंह 
हाइकु: रजनीगंधा - सुशीला शिवराण
विज्ञान: आकाश से टपकता सौंदर्य  - नरेन्द्र देवांगन
कालजयी कहानियाँ: बिन्दा  - महादेवी वर्मा
लघुकथाएं: 1. प्रतिद्वन्द्वी 2. ठंड - इला प्रसाद
व्यंग्य: 'सॉरी' हिंदी दिवस पर अंग्रेजी बोली - अविनाश वाचस्पति
श्रद्धांजलि:  ए. के. हंगल - विनोद साव
जन्म शताब्दी वर्ष: मैं अफसाना क्यों कर...  - सआदत हसन मंटो
किताबें : भीमायन    
आपके पत्र
कविता: परिणाम  - हर्षिता विकास कुमार
उदंती का सफर ...

पर्यटन -संस्कृति

पर्यटन संस्कृति

मानव प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य के करीब जाकर तृप्ति और पूर्णता का अनुभव करता है। इसी पूर्णता को पाने के लिए वह प्रकृति के और करीब जाना चाहता है। प्रकृति को समझना, मानव सभ्यता के विकास को जानना, अपनी संस्कृति पर गर्व करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इन्हीं जिज्ञासाओं के कारण ही पर्यटन-संस्कृति ने जन्म लिया है।
 सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक महत्व को समझने के लिए 27 सितंबर, 1980 से विश्व पर्यटन दिवस मनाने की शुरूआत हुई। 1979 में स्पेन में आयोजित तीसरे अधिवेशन के विश्व पर्यटन महासभा में यह निर्णय लिया गया था। बताने की आवश्यकता नहीं कि पर्यटन से जहां संस्कृति का विकास होता है, सभ्यताओं के बीच संवाद अदायगी होती है, वहीं पर्यटन से जुड़े उद्योगों से रोजगार के नए रास्ते खुलते हैं।
भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि हमारे यहां पर्यटन का शुभारंभ तीर्थयात्रा के रूप में हुआ था। धर्म प्रधान भारतीय अपनी धार्मिक आस्था से वशीभूत होकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए चारों धाम की यात्रा पर निकला करते थे। मोक्ष प्राप्ति की इस धार्मिक मान्यता ने लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित किया। इस तरह लोग एक स्थान से दूसरे स्थान आने-जाने लगे। इन यात्राओं से विभिन्न संस्कृतियों का मेल हुआ, साथ ही व्यापार और व्यवसाय के क्षेत्र में भी वे आपस में भागीदारी करने लगे।
भारत में धार्मिक यात्राओं का चलन आज भी जारी हैं, परंतु इसके साथ ही भागदौड़ वाली जिंदगी से सुकून पाने, आराम करने और प्रकृति की खूबसूरती को देखने के लिए लोग पर्यटन पर निकलने लगे। छुट्टियों का मौसम चाहे वह गर्मी का हो या दशहरा-दीपावली का, पर्यटन स्थलों की ओर जाने वाली रेल गाडिय़ों में आरक्षण के लिए लंबी कतारें महीनों पहले ही लगने लगती हैं। अब तो पर्यटन को बढ़ावा देने हवाई यात्रा करने वालों के लिए लुभावने पैकेज ऑफर मिलने लगे हैं और यही हाल पहाड़ी स्थलों, ऐतिहासिक स्थलों, प्राचीन धरोहर वाले स्थानों के होटलों में बुकिंग का भी होता है।
इन सबका परिणाम यह है कि भारत के अनमोल धरोहरों की ओर जब विदेशी सैलानियों का ध्यान आकर्षित होने लगा और वे बड़ी संख्या में भारत आने लगे तथा भारत को विदेशी मुद्रा के रूप में आय का एक बड़ा स्रोत मिलने लगा तब राज्य सरकारों ने पर्यटन व विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नए-नए उपाय शुरु कर दिए। लेकिन इन सबके बाद यह भी सत्य है कि हमारी सरकार पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा व्यवस्था के साथ रहने-खाने की पर्याप्त सुविधा मुहैय्या करवाने की दिशा में उतनी सफल नहीं हो पा रही है। हमारे देश में पर्यटन के लिए इतने अधिक और बड़ी संख्या में अनोखे स्थान उपलब्ध हैं यदि उन छिपे हुए स्थानों को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जाए तो पर्यटक उन नए स्थलों में जाने के लिए उत्सुक बैठें हैं, परंतु अफसोस उन स्थलों तक पहुंचने व रहने की पर्याप्त व्यवस्था न हो पाने के कारण पर्यटक वहां तक पहुंच ही नहीं पाते।
इसी प्रकार जिन स्थलों पर निजी व्यवसायियों ने अपना जाल फैलाया है वहां उनकी मनमानी पर्यटकों को निराश करती है। चाहे वे टैक्सी वाले हों, होटल वाले हों अथवा व्यापारी हों, हर जगह ऐसी लूट-खसोट मची होती है कि पर्यटक सोचने पर मजबूर हो जाता है कि वे यहां जिंदगी के कुछ पल आराम पाने, शांति से समय बिताने और कुछ अच्छा देखने व जानने आए हैं या और अधिक मुसीबत झेलने?
पांच सितारा होटलों के एयरकंडीशंड कमरे में बैठकर योजनाएं सिर्फ पांच सितारा पर्यटकों के लिए बनती हैं यानी जो पांच सितारा खर्च वहन कर सकता है उसके लिए पर्यटन सुकून भरा, बाकी के लिए मुसीबत। अक्सर पढऩे व सुनने में आता है कि विदेशी सैलानी भी यहां आकर बहुत अच्छा अनुभव लेकर नहीं लौटते। अतिथि देवो भव: के लिए प्रसिद्ध भारत देश में अतिथि को इतना लूटा जाता है कि वे दोबारा भारत आने से डरने लगते हैं।
पर्यटन को जब विदेशी मुद्रा के आय के एक बड़े स्रोत के रूप में देखा जाता है तो फिर हमारी सरकार कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाती? आजादी के इतने बरस बाद भी हम पर्यटन को एक प्रमुख उद्योग के रूप में स्थापित नहीं कर पाएं हैं यह अफसोस-जनक है।
 यह तो सर्वविदित है कि मैसूर व कुल्लू का दशहरा, जयपुर का पतंग मेला, पुष्कर मेला, सोनपुर मेला, गोवा कार्निवल, आदि कई भारतीय उत्सव देशी-विदेशी सभी पर्यटकों को हर वर्ष अपनी ओर खींच कर लाते हैं इसके बाद भी हम कहीं कमजोर से पड़ जाते हैं। 
पर्यटन से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण बात है जिस पर बात करना जरूरी है- हम पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए चाहे जितने उपाय कर लें चाहे जितनी योजनाएं क्यों न बना लें यदि हम इसके दूसरे पहलू की ओर ध्यान नहीं देंगे तो सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। और यह जिम्मेदारी आती है स्वयं पर्यटकों पर। पर्यटन के नाम पर यदि हम अपनी संस्कृति अपनी परंपरा अपनी धरोहर को विकृत करेंगे, प्रदूषित करेंगे, गंदगी फैलाएंगे तो ऐसे पर्यटन को बढ़ावा देने से तो अच्छा है कि उन्हें वे जिस हाल में हैं, उसी हाल में छोड़ दें। हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी प्रकृति को स्वच्छ रखें, अपने ऐतिहासिक, पुरातात्विक धरोहरों को सुरक्षित रखें, अपनी संस्कृति को प्रदूषित न होने दें। यदि हम इस दूसरे पहलू का ध्यान रखते हुए उतनी ही गंभीरता से योजना बनाएंगे, तभी अपने देश के इन अनमोल धरोहरों, सौंदर्य स्थलों को संजोकर रख पाएंगे और अपनी स्वर्ग जैसी धरती पर गर्व कर सकेंगे।
    -डॉ. रत्ना वर्मा

गुरु-शिष्य की बदलती परंपरा

गुरु-शिष्य की बदलती परंपरा

- आकांक्षा यादव  
भारतीय संस्कृति का एक सूत्र वाक्य है- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय।' अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने की इस प्रक्रिया में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। भारतीय परम्परा में शिक्षा को शरीर, मन और आत्मा के विकास द्वारा मुक्ति का साधन माना गया है। शिक्षा मानव को उस सोपान पर ले जाती है जहाँ वह अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परंपरा रही है।
गुरुब्रह्म गुरूर्विष्णु: गुरूर्देवो महेश्वर:।
गुरू: साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नम:।।
प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही माँग लिया था। श्री राम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र, तो श्री कृष्ण ने गुरू संदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसी की बदौलत समाज को आतातायियों से मुक्त भी किया। गुरूवर द्रोणाचार्य ने पांडव-पुत्रों विशेषकर अर्जुन को जो शिक्षा दी, उसी की बदौलत महाभारत में पांडव विजयी हुए। गुरूवर द्रोणाचार्य स्वयं कौरवों की तरफ से लड़े पर कौरवों को विजय नहीं दिला सके क्योंकि उन्होंने जो शिक्षा पांडवों को दी थी, वह उन पर भारी साबित हुई। गुरू के आश्रम से आरम्भ हुई कृष्ण-सुदामा की मित्रता उन मूल्यों की ही देन थी, जिसने उन्हें अमीरी-गरीबी की खाई मिटाकर एक ऐसे धरातल पर खड़ा किया जिसकी नजीर आज भी दी जाती है। विश्व-विजेता सिकंदर के गुरू अरस्तू को भला कौन भूला सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तो अपने पुत्र की शिक्षिका को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उसकी शिक्षा में उनका पद आड़े नहीं आना चाहिए। उन्होंने शिक्षिका से अपने पुत्र को सभी शिक्षाएं देने का अनुरोध किया जो उसे एक अच्छा व्यक्ति बनाने में सहायता करती हो।
वस्तुत: शिक्षक उस प्रकाश-स्तम्भ की भांति है, जो न सिर्फ लोगों को शिक्षा देता है बल्कि समाज में चरित्र और मूल्यों की भी स्थापना करता है। शिक्षा का रूप चाहे जो भी हो पर उसके सम्यक अनुपालन के लिए शिक्षक का होना निहायत जरूरी है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि चरित्र विकास, अनुशासन, संयम और तमाम सद्गुणों के साथ अपने को अप-टू-डेट रखने का माध्यम भी है। कहते हैं बच्चे की प्रथम शिक्षक माँ होती है, पर औपचारिक शिक्षा उसे शिक्षक के माध्यम से ही मिलती है। प्रदत्त शिक्षा का स्तर ही व्यक्ति को समाज में तद्नुरूप स्थान और सम्मान दिलाता है। शिक्षा सिर्फ अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का पर्याय नहीं हो सकती बल्कि एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों का दिलो-दिमाग भी चुस्त-दुरुस्त बनाकर उसे वृहद आयाम देता है। शिक्षक का उद्देश्य पूरे समाज को शिक्षित करना है। शिक्षा एकांगी नहीं होती बल्कि व्यापक आयामों को समेटे होती है।
डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने का हकदार वही है, जो लोगों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ- साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है।
आजादी के बाद इस गुरू-शिष्य की दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा कि-  'मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूँगा।' तब से लेकर 5 सितम्बर को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने का हकदार वही है, जो लोगों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ- साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता हैै। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डॉ. राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डॉ. राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते थे। यह डॉ. राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। आज न तो गुरू- शिष्य की परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आएं ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके। आज शिक्षा को हर घर तक पहुँचाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जा रहे हंै, पर इसी के साथ शिक्षकों की मन:स्थिति के बारे में भी सोचने की जरूरत है। शिक्षकों को भी वह सम्मान मिलना चाहिए, जिसके वे हकदार हैं। शिक्षक, शिक्षा (ज्ञान) और विद्याार्थी के बीच एक सेतु का कार्य करता है और यदि यह सेतु ही कमजोर रहा तो समाज को खोखला होने में देरी नही लगेगी। देश का शायद ही ऐसा कोई प्रांत हो, जहाँ विद्यार्थियों के अनुपात में अध्यापकों की नियुक्ति हो, फिर शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधरे? अभी भी देश में छात्र शिक्षक अनुपात 32:1 है, जबकी 324 ऐसे जिले हैं जिनमें छात्र शिक्षक अनुपात 3:1 से कम है। देश में नौ फीसदी स्कूल ऐसे हैं जिनमें केवल एक शिक्षक हैं तो 21 फीसदी ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है। मतगणना-जनगणना से लेकर अन्य तमाम कार्यों में शिक्षकों की ड्यूटी भी उन्हें मूल शिक्षण कार्य से विरत रखती है। ऐसे में जब शिक्षा की नींव ही कमजोर होगी, तो विद्यार्थियों का उन्नयन कैसे होगा, यह एक गंभीर समस्या है।
'शिक्षक दिवस' एक अवसर प्रदान करता है जब हम समग्र रूप में शिक्षकों की भूमिका व कर्तव्यों पर पुनर्विचार कर सकें और बदलते प्रतिमानों के साथ उनकी भूमिका को और भी सशक्त रूप दे सकें।

संपर्क: टाइप 5, निदेशक बंगला, जीपीओ कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.)-  211001
kk_akanksha@yahoo.com,  http:// shabdshikhar.blogspot.in

रियो-डी-जिनेरियो

रियो-डी-जिनेरियो, ब्राजील में 18-22 जून 2012 में हुए सतत् (टिकाऊ) विकास पर संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक सम्मेलन में श्री चंद्रशेखर साहू (मंत्री- कृषि, पशुधन विकास, मत्स्यपालन एवं श्रम विभाग छत्तीसगढ़ शासन) ने भी भाग लिया। इस अवसर पर सम्मेलन में पढ़ा गया उनका वक्तव्य तथा सम्मेलन से लौटने के बाद उनके द्वारा लिखा गया समग्र दृष्टिकोण  प्रकाशित कर रहे हैं। 

संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक सम्मेलन


प्रिय मित्रों,
आप सब गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के देश की ओर से अभिवादन स्वीकार करें। इस विशेष चर्चा-गोष्ठी में भाग लेते हुए हम बहुत उत्साहित हैं जो कि खासतौर पर इस चराचर के नैसर्गिक स्वास्थ्य के सरंक्षण एवं इस नए विश्व के परिस्थिति समस्याओं के निराकरण के लिए किया गया है। इस चर्चा- गोष्ठी में मैं महात्मा गांधी के विचारों का उल्लेख करते हुए उसे पथ-प्रदर्शक सिद्धांत के रूप में रखना चाहता हंू -
सभी व्यक्तियों की जरूरत के लिए इस धरती में संभावनाएं हमेशा रहती हैं, लेकिन लोभ के लिए संभावनाएं कभी नहीं रहती, अर्थात् पूरी दुनिया भी इसके लिए कम है। (There is always enough for everyone’s need. Never it is enough for any ones Greed)
मित्रों, आज हम सब जिस दुनिया में रहते हैं वहां जिंदगी और उसे जीना कुल मिलाकर एक अद्भुत अकल्पनीय परिस्थितियों के बीच हो रहा है, ऐसा पहले नहीं हुआ था। यह समाज और व्यक्ति विशेष के लिए मूलभूत चुनौतियों के सामने उपस्थित होने जैसा है। पूरे वातावरण की परिस्थितियां बदल रही है, आर्थिक समस्याएं बढ़ रही हैं, प्राकृतिक संसाधन में कमी आ रही है। तुलनात्मक रूप से जनसंख्या और गरीबी में बढ़ोत्तरी हो रही है, जमीन की उत्पादकता लाक्षिक रूप से घट रही है जो कि विकास के मूलभूत अवधारणा को चिंतित कर रही है। ये तमाम बातें न्यूयार्क से लेकर नई दिल्ली और रियो से लेकर भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के राजधानी रायपुर तक समान रूप से महसूस की जा सकती है, मैं जहां से आया हंू। इस विपरीतताओं के बीच भी एक बात बहुत अच्छी बात है कि इस पृथ्वी पर हम सभी एक सहभागिता वाले भविष्य की चिंता में लगे हैं, न कि अलग-अलग द्वीप समूहों में अपना अस्तित्व तलाश रहे हैं।
हमारे पूर्वजों ने सदियों तक चलने वाली एक ऐसी पुरानी व्यवस्था को जन्म दिया था जो कि रोजगार के संसाधन भी पैदा करती थी और एक हरित अर्थव्यवस्था को भी पनपाती थी। हमें उस पुरानी व्यवस्था की ओर मुड़कर देखना होगा जो हमारे नींव में उपस्थित है। छत्तीसगढ़ राज्य में इस प्रकार के अनेकों उदाहरण जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन के रूप में उपलब्ध है, जहां एक छोटे से गांव में लगभग 360 से अधिक छोटी जल संग्रहण एवं रिसाव तालाब का श्रृंखलाबद्ध पद्धति से खेतों की जल आवश्यकता का सदियों से पूर्ति की जा रही है। परन्तु इन समाजों को आधुनिक विकास के अवधारणा प्रतिव्यक्ति खपत एवं उससे संबंधित व्यवहार की दृष्टि से उच्च श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। वास्तव में विकास की सूचक प्रतिव्यक्ति खपत माडल में विकसित हो रही वैश्विक हरित आर्थिकी की दृष्टि से गंभीरता से पुर्नविचार की आवश्यकता है।
प्रतिव्यक्ति खपत मात्र यह दर्शाता है कि किसी समुदाय के संरक्षण हेतु बाहरी मदद की आवश्यकता कितनी है। यह सीधे तौर पर वैश्विक सतत विकास के लिये आवश्यक वास्तविक प्रतिव्यक्ति मदद को नहीं दर्शाती है। किसी भी देशी समुदाय के सतत विकास को प्रगामी उपयोगिता सूचकांक के आधार पर परिभाषित किया जाता है। उपरोक्त जीवन पद्धति में कोई एक वस्तु को अनेकों बार एवं अनेकों माडलों में तथा एक वस्तु को अनेकों कार्यों हेतु उत्तरोत्तर उपयोग किया जाता है। यह उत्पाद का खपत में कमी के साथ ही साथ बिना अतिरिक्त ऊर्जा के उसे पुर्नचक्रीकरण द्वारा उपयोग किया जा सकता है। आज स्थिति यह है कि हमें ऐसी जीवन पद्धति को विकसित करना होगा जहां पर एक उपयोगी वस्तु या तरीके को बहुआयामी बना सके जो विविध प्रयोजनों को न केवल पूरा करे, बल्कि उग्रसारित भी करें।
गौतम बुद्ध की एक कहानी को इस संदर्भ में हम पथ-प्रदर्थक कथा के रूप में देख सकते हैं। गौतम बुद्ध वर्ष में एक बार चतुर्मास के समय अपने शिष्यों को उत्तरीय (वस्त्र) प्रदान करते थे। एक शिष्य को वस्त्र देने के पूर्व उन्होंने पूछा- पिछले समय में जो वस्त्र तुमने प्राप्त किया था, उसका क्या उपयोग किया? शिष्य ने विनम्रता के साथ कहा- मैंने उस वस्त्र को शरीर को ढाकने अर्थात् पहनने का काम लिया। महान बुद्ध ने पूछा और उसके बाद। शिष्य ने जवाब दिया महोदय फिर मैं उस कपड़े से बाती बनाया और उससे घर को प्रकाशित किया। बुद्ध मुस्कुराये और कहा कि अब तुम एक नये वस्त्र पाने के योग्य हो मेरे
प्रिय शिष्य।
यह एक छोटी कथा है साथ ही यह एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था की ओर इशारा करता है, कि मनुष्य जिन चीजों का उपयोग के पश्चात परित्याग करता है, उन्हीं से पुन: मनुष्य उपयोगी चीजें बनाई जा सकती है। जीवन के विभिन्न आयामों में हम मुख्यधारा के विकास और उसके असंख्य तथाकथित शताब्दी लक्ष्य को पाने के लिए भी हमें पुनर्विचार करना चाहिए। उपरोक्त संदर्भ में हम विकास की अवधारणा में छह सूत्रों को याद कर सकते हैं- जैसे जल, जंगल, जमीन, जलवायु, जन (लोग) और जंतु। विकास के पहियों को गतिमान रखने के लिए ऊर्जा एक केन्द्रीय कारक है। इस ऊर्जा को संतुलित प्राकृतिक व्यवस्था से प्राप्त करने पर यह और अधिक प्रभावी हो सकता है। ऊर्जा के पुनरोपयोग की पद्धति प्रत्येक देश को एक नई दिशा दे सकती है। जिसके चलते प्रदूषण मुक्त विश्व और रोजगार के संसाधन भी पैदा किए जा सकते हैं। अंततोगत्वा इस दिशा में वैश्विक सहमति पत्र तैयार किया जाए।
हमारे देश के प्रसिद्ध कथन का यहां उल्लेख करना उचित समझता हूं -
भूमि स्वर्गताम् यातु: मनुष्यो यातु देवताम।
धर्मो सफलम् यातु: नित्यं यातु शुभोदय।।'जिसका अर्थ है कि इस पृथ्वी को स्वर्ग बनने दो, मनुष्य को ईश्वर बनने दो, धर्म को उनकी सफलता में पहुंचाने दो और दिव्यता को पल-पल में पसरने दो।
    जय भारत। जय छत्तीसगढ़।।

हमारा अपेक्षित भविष्य एवं कृषि

 दृष्टिकोण पत्र

द्वितीय विश्व पृथ्वी सम्मेलन

 - चन्द्रशेखर साहू  (मंत्री- कृषि, पशुधन विकास, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग, छत्तीसगढ़ शासन)

अफ्रीकी एवं एशियाई देशों में पाई जाने वाली सभी प्रकार के आर्थिक एवं ढांचागत सुधार के बावजूद लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या की आजीविका जमीन आधारित क्रियाकलापों पर निर्भर है। प्राकृतिक संसाधन मुख्यत: भूमि, जल एवं सामुदायिक संपदा संसाधन के असतत् विकास उपयोग के कारण शताब्दी विकास लक्ष्य (Millenium Development Goals) प्रभावी नहीं हो पाया है। विश्व के समस्त गरीबों के पूर्ण कल्याण हेतु प्राकृतिक संसाधनों का सतत विकास उपयोग मुख्य गतिशील शक्ति है। इस संगोष्ठी में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने हेतु हम सभी मिलजुल कर संस्थागत व्यवस्था को रेखांकित करें ताकि वर्तमान एवं अजन्में पीढ़ी का विकास संभव हो सके।     
1992 के रियो-डी-जिनेरियो में हुए 'पृथ्वी सम्मेलन' यानी 'अर्थ-समिट', संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एस.ए.) के द्वारा आयोजित सबसे प्रभावशाली एवं वैश्विक दिशा देने वाला महासम्मेलन माना जाता है। इस सम्मेलन में पहली बार विश्व के सभी देश इस बात पर सहमत हुए कि पृथ्वी के अस्तित्व एवं इसके प्राकृतिक संसाधनों के बीच एक गहरा अन्तर-संबंध है एवं पृथ्वी की सुरक्षा पर्यावरणीय विकास एवं समृद्धि के साथ ही संभव है। 
सभी देशों ने तब से इस महत्वपूर्ण विषय को संज्ञान में लेते हुए जलवायु परिवर्तन, संतुलित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन एवं स्मार्ट या टिकाऊ विकास जिसे सस्टनेबल डेव्हलपमेंट कहा जा सकता है, की दिशा में संस्थागत प्रयास करने शुरू कर दिये।
इस महा-विश्वसम्मेलन के बीस वर्ष पूरे हो जाने पर यानी 20वीं वर्षगांठ पर वहीं रियो में एक दूसरा विशाल महासम्मेलन हुआ जिसे रियो प्लस ट्वेन्टी महासम्मेलन का नाम दिया गया। यह सम्मेलन 15 से 22 जून तक सम्पन्न हुआ जिसमें 20, 21 एवं 22 जून 2012 तक महासम्मेलन के रूप में चला।
ग्रीन इकांनामी यानी हरित अर्थव्यवस्था
यह महासम्मेलन न केवल पृथ्वी केन्द्रित विकास की अवधारणा के 20 वर्षीय लम्बी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, बल्कि पिछले 2 दशकों में सामने आये आर्थिक विकास के विभिन्न पहलुओं, आयाम के प्रभावों, दुष्प्रभावों, अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के मद्देनजर एक ऐसी भविष्य की साझा दृष्टिकोण को पुन: व्याख्यायित करने का प्रयास था जहां भूख, असमानता और गरीबी के बदले आशा-विश्वास के साथ गरिमामय रोजगार के सृजन और पर्यावरण की भव्यता के साथ विकास को व्यवस्था का केन्द्रीय मुद्दा बनाने की बात है। जी.डी.पी. आधारित अर्थव्यवस्था के बदले उपरोक्त अर्थव्यवस्था को एक मांडल की तरह प्रस्तुत किया गया एवं इसे ग्रीन इकॉनामी यानी हरित अर्थव्यस्था का नाम दिया गया। पूरा का पूरा सम्मेलन दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं के इर्द-गिर्द सिमटा था-
पहला- परम्परागत अर्थव्यस्था बनाम ग्रीन इकॉनामी अर्थात अंधाधुंध संसाधनों के शोषण एवं ग्रोथ रेट, जी.डी.पी. आधारित परम्परागत अर्थव्यवस्था बनाम टिकाऊ विकास यानी पर्यावरण संतुलन आधारित गरिमामय हरित रोजगार सृजन करने वाली भूख और गरीबी से मुक्त मानवीय समृद्धि को सूचकांक मानने वाली ग्रीन इकांनामी की स्थापना एवं उसका भविष्य।
दूसरा- इस ग्रीन इकॉनामी से प्रेरित टिकाऊ विकास को सफलतापूर्वक निचले प्रशासनिक हल्कों तक पहुंचाने की आवश्यकता एवं उसके लिए ढांचागत सुविधाओं का विकास।
इस महा-विश्वसम्मेलन के बीस वर्ष पूरे हो जाने पर यानी 20वीं वर्षगांठ पर वहीं रियो में एक दूसरा विशाल महासम्मेलन हुआ जिसे रियो प्लस ट्वेन्टी महासम्मेलन का नाम दिया गया। यह सम्मेलन 15 से 22 जून तक सम्पन्न हुआ जिसमें 20, 21 एवं 22 जून 2012 तक महासम्मेलन के रूप में चला।
इन दो बिन्दुओं के अंतर्गत सात उप-विषय भी थे, जिनमें गरिमामय रोजगार, ऊर्जा टिकाऊ कृषि, टिकाऊ शहरीकरण, खाद्यान सुरक्षा, पेयजल सुरक्षा, समुद्रीय एवं पर्यावरणीय आपदा प्रबंधन मुख्य थे।
विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों, वैश्विक एजेन्सियों, कार्पोरेट्स, बैकिंग संस्थाओं एवं सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक स्वयंसेवी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) का तीन दिवसीय यह वैचारिक मंथन ग्रीन इकॉनामी एवं विकसित एवं विकासशील देशों में उनके ढांचागत विकास की संभावनाओं के महत्व को उकेरते हुए खत्म हुआ। जैसा कि वैश्विक सम्मेलनों में होता है, विकसित और विकासशील राष्ट्रों की अपनी प्राथमिकताएं वैश्विक जरूरतों के ऊपर तरजीह पाते हुए नये प्रस्तावों पर विचार करती है। नये विचारों का सम्मान करते हुए भी पुरानी व्यवस्था को आधारभूत जरूरतों में से एक बताया जाता है एवं उसके भीतर ही विचार करने का आश्वासन दिया जाता है। यही इस बार भी हुआ पर एक फर्क के साथ- इस बार जिम्मेदारी के साथ हरित उत्पादन एवं उससे विकसित अर्थव्यवस्था को सबके ऊपर तरजीह देने की दिशा में व्यवस्थित प्रयासों की वर्षवार रूपरेखा की आवश्यकता पर सार्वजनिक सहमति पहली बार बनी।
पहली बार कृषि को भूखमुक्त (हंगर फ्री) विश्व के सबसे महत्वपूर्ण उपाय की तरह चिन्हित, घोषित एवं रेखांकित किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में विभिन्न देशों के स्वयंसेवी संस्थाओं की बड़ी निर्णायक भूमिका रही। इनके तेवरों का पता लेटिन अमेरिका के प्रसिद्ध एन.जी.ओ. लॉ बिना केम्पेनेसिंग के उस सर्वस्वीकृत बयान से भी चलता है कि नौ अरब लोगों के विश्व में छोटे परिवारों के द्वारा संपादित कृषि को हमें सबसे महत्वपूर्ण उपक्रम का स्थान देना ही होगा। यदि हम भूख मुक्त विश्व चाहते हैं तो छोटी जोत के कृषकों को समृद्ध करने के लिए इस तरह संस्थागत निर्णय लेने होंगे, जिससे आधुनिकतम तकनीकी एवं नवीन अन्वेषण इनकी जद में रहे एवं छोटे परिवारों के द्वारा कृषि को मजबूत करे। एक अन्य यूरोपीय समाजसेवी संस्था का कथन था छोटे किसानों की भागीदारी के बिना ग्रीन इकॉनामी ग्रीनवांस यानी हरित धोखा होगी- कार्पोरेट आधारित एग्रीबिजनेस का मांडल विश्व को भयंकर भूख एवं गरीबी के विस्फोटक कगार पर ला खड़ा करेगा।
प्रसिद्ध टेब्लायड अखबार टेरा-विवा ने 22 जून के अपने संपादकीय रियो-रिवीव में लिखा- कनाडा में हुए पिछली जनगणना में छोटे किसानों की संख्या में जबर्दस्त गिरावट आयी है, जिसका मुख्य कारण कृषि समाधान (फार्म सोल्यूशंस) के नाम पर किये गये कारनामे रहे हैं, अब समय आ गया है कि वैश्विक तौर पर मनुष्य को संतुष्टि दे सकें ऐसी ग्रीन इकोनामी के बारे में विचार किया जाये, जिसमें विकास का पैमाना केवल जी.डी.पी. न होकर, समग्र समृद्धि हो, जिसे व्यक्ति, रोजगार, मूल्य, गरिमा, समान इक्विटी एवं पर्यावरणीय संतुलन के सूचकांकों से तय किया जाये।
अलग-अलग प्रकोष्ठों जैसे- बायोडायवर्सिटी, जलवायु परिवर्तन एवं सस्टेनेबल डेव्हलपमेंट कमीशन की मीटिंग में भी यही बात जोर-शोर से उठी एवं एक राय बनाने की दिशा में बातें तय हुई। हालांकि यह महासम्मेलन विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय बहुस्तरीय मसौदे पर एग्रीमेन्ट बनाने में अपेक्षित रूप से कारगर नहीं रहा- पर पहली बार राष्ट्रों के भीतर स्थित विभिन्न निकायों, एजेन्सियों एवं राज्यों के लिए पांलिसी- फ्रेमवर्क की रूपरेखा तैयार करने पर सहमति हुई जिससे स्थानीय स्तर पर यह दृष्टिकोण एक कार्यक्रम में बदल सके।
इस नजरिये से यह सम्मेलन यू.एन. के इतिहास में शायद सबसे व्यापक और कार्योन्मुखी सम्मेलन रहा। इस पूरे सम्मेलन के दौरान छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व दो अर्थों में काफी महत्वपूर्ण रहा। पहला हमारे राज्य के लगभग 75-80 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत कृषक है- अन्य अर्थों में यह राज्य छोटे परिवारों के द्वारा की जाने वाली कृषि का सबसे बड़ा प्रतिनिधि राज्य है, जिनके लिए अब हरित अर्थव्यवयस्था एक महत्वपूर्ण आयाम है एवं राज्य के टिकाऊ विकास के लिए नयी संभावना एवं हरित रोजगार (ग्रीन एम्प्लायमेंट) पैदा करने की संभावना रखता है।
दूसरा 46 प्रतिशत वनों से आच्छादित राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ तभी सफ ल और समृद्ध हो सकता है जब यह सार्वजनिक हरित अर्थव्यवस्था पर आधारित (Universal Green Economy Based) विकास के अपने पैमाने स्वयं निर्धारित एवं चिन्हांकित करे एवं इस दिशा में विकसित होने के लिए आधारभूत संरचनाए बनाये।
इस दिशा में रियो $20 के द्वारा विकसित किये जा रहे विकास के मानक सूचकांक (इंडीकेटर्स) एवं उसके निर्माण की प्रक्रिया के साथ निरंतर संवाद काफी प्रेरक एवं सार्थक होंगे।

कान्हा के बाघों की नागार्जुन सागर यात्रा

कान्हा के बाघों की नागार्जुन सागर यात्रा

- संदीप पौराणिक
उत्तर भारत के लोगों का दक्षिण भारतीय लोगों से सदियों पुराना संबंध रहा है। व्यापार के सिलसिले में उत्तर भारतीय जन सुदूर दक्षिण में श्रीलंका तक यात्रा करते थे, लेकिन ये यात्राएं बड़ी रोमांचक, खतरनाक और डरावनी हुआ करती थीं। इन यात्राओं और व्यापार का प्रमुख मकसद नमक और दक्षिण भारतीय मसाले थे, जिनकी उत्तर भारत सहित पूरे भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी भारी मांग थी, लेकिन व्यापार सिर्फ जमीन के रास्ते ही जंगलों में पगडंडियों के सहारे ही किया जा सकता था। भगवान श्रीराम ने भी उत्तर भारत से श्रीलंका तक की यात्रा भी इसी रास्ते से की थी। ये रास्ते वास्तव में जंगली जानवरों द्वारा बनाए गए प्राकृतिक गलियारे ही हैं। आज भी जंगली हाथी, भैंस, गौर, बाघों का जंगल के जिन रास्तों से आना-जाना होता है वह रास्ता एक प्राकृतिक गलियारे के रूप में इस्तेमाल होना शुरू हो जाता है।
 हाल ही में हुए एक जेनेटिक अध्ययन ने वन्य जीव वैज्ञानिकों को चौंका दिया है कि कान्हा नेशनल पार्क के बाघ न केवल बांधवगढ़, अचानकमार, उदंती बल्कि इंद्रावती नेशनल पार्क और सूदूर दक्षिण में नागार्जुन सागर राष्ट्रीय उद्यान तक की यात्रा करते हैं। एक अन्य जेनेटिक अध्ययन में यह तथ्य सामने आया कि भारत की सर्वाधिक शुद्ध प्रजाति के जंगली भैंसे (राज्य पशु) जो कि उदंती अभ्यारण्य में पाए जाते हैं (जिनकी संख्या सात रह गई है) और इन्द्रावती नेशनल  पार्क के जंगली भैंसे (जिनकी संख्या 30-35 हैं) एक ही जेनेटिक पूल के हैं। ऐसी स्थिति में अब दोनों प्रजातियों बाघ और जंगली भैंस को बचाने के लिए जीव वैज्ञानिक और वन्य प्राणी विशेषज्ञ एक रणनीति तैयार कर रहे हैं।
कान्हा नेशनल पार्क लगभग 2000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है लेकिन बाघों की एक बड़ी आबादी पार्क के बाहर भी पाई जाती है। बाघों का सुदूर नागार्जुन सागर तक पहुंचने का जो रास्ता या कहें प्राकृतिक गलियारा है वह छत्तीसगढ़ राज्य से ही होकर गुजरता है। छत्तीसगढ़ राज्य के चिल्फी, रेंगाखार, बोड़ला और भोरमदेव तथा अन्य छोटे-छोटे स्थान जो कि कान्हा नेशनल पार्क से लगे हुए हैं, इन क्षेत्रों को बाघ अपने प्राकृतिक आवास के लिए उपयोग करता है। चूंकि यह कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के बाहर का क्षेत्र है अत: यहां पर बाघों पर वैसी नजर नहीं रखी जाती जैसी कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में रखी जाती है।
हाल ही में हुए एक जेनेटिक अध्ययन ने वन्य जीव वैज्ञानिकों को चौंका दिया है कि कान्हा नेशनल पार्क के बाघ न केवल बांधवगढ़, अचानकमार, उदंती बल्कि इंद्रावती नेशनल पार्क और सुदूर दक्षिण में नागार्जुन सागर राष्ट्रीय उद्यान तक की यात्रा करते हैं।
विगत एक वर्ष के भीतर दो बाघों का शिकार इस क्षेत्र में हुआ है। उसके बाद भी बाघों का इस क्षेत्र में आना एक बहुत अच्छी खबर है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण इस क्षेत्र को प्रोजेक्ट टाइगर के तहत रखना चाहता है। मेरी व्यक्तिगत रूप से इस संबंध में प्रोजेक्ट टाइगर एवं एनटीसीए के अधिकारियों और पर्यावरण एवं वनमंत्री से बात हुई है। यदि यह क्षेत्र जहां कि छत्तीसगढ़ प्रदेश का भोरमदेव अभ्यारण्य पहले से ही हैं, प्रोजेक्ट टाइगर बनता है तो छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए यह एक वरदान ही होगा, क्योंकि इस पूरे क्षेत्र में कान्हा नेशनल पार्क में लगभग जाने वाले सारे जानवर मौजूद हैं। अत: यह प्रस्तावित प्रोजेक्ट टाइगर का एरिया कान्हा राष्ट्रीय उद्यान की तरह ही दिखेगा और देश-विदेश के पर्यटक इस प्रोजेक्ट टाइगर को देख सकेंगे। अब गेंद छत्तीसगढ़ शासन के वन विभाग के पाले में हैं। यदि हमारा रवैया सकारात्मक रहता है तथा प्रदेश के उच्च वनाधिकारी जल्दी प्रयास शुरू करते हैं तो छत्तीसगढ़ को एक और सौगात मिल सकती है।
हैदराबाद स्थित जेनेटिक सेंटर ने एक अन्य चौंकाने वाली बात यह कही है कि उदंती और बस्तर के जंगली भैंसों के जीन्स एक ही हैं। ऐसी स्थिति में हम हमारे राज्य पशु जंगली भैसा जिसकी तादाद उदंती में सिर्फ सात ही बची हैं जिनमें 6 नर और एक मादा है। मादा आशा ने विगत तीन बार नर पाड़े को ही जन्म दिया है। ऐसी स्थिति में इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान से अन्य मादा भैंसों को लाया जा सकता है। चूंकि इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान घोर नक्सल प्रभावित हैं किंतु प्रदेश में अभी तक नक्सलवादियों द्वारा जंगली जानवरों के संरक्षण हेतु क्रियान्वित की जा रही योजनाओं को रोका नहीं गया है तथा  इन्द्र्रावती में प्रोजेक्ट टाइगर सफलतापूर्वक चल रहा है। अत: यह खबर भी छत्तीसगढिय़ा लोगों को राहत देने वाली है कि वन भैंसे की वंशवृद्धि के लिए कृत्रिम गर्भाधान के अतिरिक्त एक और विकल्प उपलब्ध है।
संपर्क- एफ -11 शांति नगर, सिंचाई कालोनी, रायपुर
        मोबाइल-09329116267

प्रेरक

निर्णय

एक व्यक्ति किन्हीं महात्मा के पास गया और उनसे पूछा, क्या मनुष्य स्वतन्त्र है? यदि वह स्वतन्त्र है तो कितना स्वतन्त्र है? क्या उसकी स्वतंत्रता की कोई परिधि है? भाग्य, किस्मत, नियति, दैव आदि क्या है? क्या ईश्वर ने हमें किसी सीमा तक बंधन में रखा है?
लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने की महात्मा की अपनी शैली थी। उन्होंने उस व्यक्ति से कहा, खड़े हो जाओ।
यह सुनकर उस व्यक्ति को बहुत अजीब लगा। उसने सोचा, मैंने एक छोटी सी बात पूछी है, और ये मुझे खड़ा होने के लिए कह रहे हैं। अब देखें क्या होता है। वह खड़ा हो गया।
महात्मा ने उससे कहा, अब अपना एक पैर ऊपर उठा लो।
यह सुनकर उस व्यक्ति को लगा कि वह किसी अहमक के पास चला आया है। मुक्ति और स्वतंत्रता से इसका क्या संबंध है? लेकिन अब वह फंस तो गया ही था। वह उस जगह अकेला तो था नहीं। आसपास और लोग भी थे। महात्मा का बड़ा यश था। उनकी बात न मानना उनका अनादर होता। और फिर उसमें कोई बुरी बात भी न थी। इसलिए उसने अपना एक पैर ऊपर उठा लिया। अब वह सिर्फ एक पैर के बल खड़ा था।
फिर महात्मा ने कहा, बहुत बढिय़ा। अब एक छोटा सा काम और करो। अपना दूसरा पैर भी ऊपर उठा लो।
यह तो असंभव है, व्यक्ति बोला, ऐसा हो ही नहीं सकता। मैंने अपना दायाँ पैर ऊपर उठाया था। अब मैं अपना बायाँ पैर नहीं उठा सकता।
महात्मा ने कहा, लेकिन तुम पूर्णत: स्वतन्त्र हो। तुम पहली बार अपना बायाँ पैर उठा सकते थे। ऐसा कोई बंधन नहीं था कि तुम्हें दायाँ पैर ही उठाना था। तुम यह तय कर सकते थे कि तुम्हें कौन सा पैर ऊपर उठाना है। मैंने तुम्हें ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया। तुमने ही निर्णय लिया और अपना दायाँ पैर उठाया।
अपने इस निर्णय में ही तुमने अपने बाएं पैर को उठाना असंभव बना दिया। यह तो बहुत छोटा सा ही निर्णय था। अब तुम स्वतंत्रता, भाग्य और ईश्वर की चिंता करना छोड़ो और मामूली चीजों पर अपना ध्यान लगाओ। 
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शिव मंदिर में कला का अद्भुत रूपांकन पाली

 शिव मंदिर में कला का अद्भुत रूपांकन पाली


 -  प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में 'दक्षिण कोशल' कहा जाता था। अतीत से वर्तमान तक यहां अनेक राजवंश के राजाओं ने शासन किया, अपने पराक्रम और पराजय का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया और वे काल के मरूस्थल में पद-चिन्ह की स्याही में घुल मिलकर इन खंडहरों, शिलालेखों और ताम्रपत्रों में लिखे रह गये हैं। राजाओं द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि के निर्माण के बारे में हमारा विचार है कि यहां के गांवों में स्कूल-कालेज न हो, हाट-बाजार न हो, तो कोई बात नहीं; लेकिन नदी-नाला का किनारा हो या तालाब का पार, मंदिर चाहे छोटे रूप में हों, अवश्य देखने को मिलता है। ऐसे मंदिरों में शिव लिंग, राधाकृष्ण, हनुमान, राम-लक्ष्मण-जानकी के मंदिर प्रमुख होते हैं।' लेकिन पाली का शिव मंदिर प्राचीन ही नहीं अपितु मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण भी है।
पाली, बिलासपुर राजस्व संभाग में नवगठित कोरबा जिलान्र्तगत कोरबा से लगभग 55 कि.मी., बिलासपुर अम्बिकापुर मार्ग में बिलासपुर से 40 कि. मी., राजधानी रायपुर से 160 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में इस नगर को 'झांझनगर-पाली' कहा जाता था। कालांतर में झांझनगर का लोप हो गया और 'पाली' नाम प्रचलित हो गया। पाली में बस्ती के बाहर सड़क किनारे एक तालाब है, जिसके तट पर उत्कृष्ट मूर्तिकला से सजा एक शिव मंदिर है। यह मंदिर छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालती है।
मध्ययुगीन मूर्तिकला का केन्द्र-
मध्ययुगीन मूर्तिकला की शुरूवात इस क्षेत्र में पाली के इस शिव मंदिर से हुई प्रतीत होता है। इस मंदिर के बाहरी भाग, भीतरी सभा मंडप और गर्भगृह के द्वार पर खुदाई का इतना सुन्दर और दर्शनीय काम किया गया है, जिन्हें देखकर आबू पर्वत के जैन मंदिर पर किये गये जालीदार नक्काशी की बरबस याद आ जाती है। इस सम्बंध में बिलासपुर जिले के प्रथम सेटलमेंट अधिकारी मि. चीजम साहब ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है- 'इस मंदिर का अवशिष्ट भाग अर्थात गर्भगृह का सभा मंडप अष्टकोण गुम्बजदार है तथा मंडप में प्रवेश करते ही नीचे से ऊपर तक नक्काशी का जो बारीक काम किया गया है उसे देखकर मन आश्चर्य चकित हो उठता है। सभा मंडप का गुम्बज जिन खंभों पर स्थित है, उन पर हिन्दू पुराणों और काव्यों में वर्णित प्रसिद्ध व्यक्तियों की आकृतियां चित्रित हैं। गुम्बज के सबसे निचले भाग में अत्यंत विचित्र आकृतियां लकीरों में बनाई गयी हैं। सबसे उत्तम और परिश्रम पूर्वक खुदाई का काम गर्भगृह के द्वार पर किया गया है। यह नक्काशी अत्यंत बारीक है और इसे बनाने में बड़ी कुशलता दिखाई गयी है।'
श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक 'प्राचीन छत्तीसगढ़' में लिखते हैं- 'किंवदंती है कि रतनपुर नगर का विस्तार दक्षिण पूर्व में 12 मील दूर पाली तक था, जहां एक सुन्दर तालाब के तट पर शिवजी का एक अष्ट-कोणीय मंदिर अपनी भव्यता और शिल्पकला में अभी भी उत्कृष्ट समझा जाता है। आश्चर्य तो यह है कि धरातल से लेकर चोटी तक मंदिर का एक-एक इंच, अंग्रेज अधिकारियों द्वारा मरम्मत कराये गए भाग को छोड़कर, कलाकार की छेनी से अछूता नहीं है। मंदिर की दीवार पर चहुं ओर अनेक कलात्मक मूर्तियां इस चतुराई से अंकित हैं मानों वे बोल रहे हों कि 'देखो हमने अब तक कला की साधना की है और तुम पूजा के फू ल चढ़ाओ।' सच पूछिये तो छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृति का विकास इन्हीं मंदिरों में अंकित मूर्तियों के सहारे हुआ है। ये मूर्तियां अंग-भंगिमा और सूक्ष्म साज- सज्जा की दृष्टि से बेजोड़ है। सभा मंडप में चौरासी योगिनियों की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं जो अत्यंत सुन्दर और मनहरण हैं। इन्हें देखकर जबलपुर के भेड़ाघाट में स्थित चौसठ योगिनी मंदिर की याद आती है। इसी प्रकार मंदिर के भीतरी भग की कला कृतियों में जिन कोमल और मधुर भाव के दर्शन होते हैं उसका बयान संभव नहीं है। 'गिरा अनयन नयन बिन बानी।' मूर्तियों के शिल्प में रेखाओं की निपुणता लालित्यपूर्ण अंग सौष्ठव एवं विस्मयकारी शिल्प दृष्टि एवं कला प्रेमियों में रस का संचार की है। मंदिर की बाहरी और भीतरी दीवार पर देवी-देवताओं की मूर्तियां, नायक-नायिकाओं का प्रदर्शन, ब्याल अलंकरण और योग मुद्राएं आदि उत्कीर्ण की गई है। चामुण्डा, सरस्वती, गज लक्ष्मी और पार्वती के अलावा इंद्र, अत्रि, अग्नि, वरूण, वायु, कुबेर और ईशान देव की मूर्ति प्रमुख है। खजुराहो, कोणार्क, भोरमदेव, नारायणपुर, सेतगंगा के मंदिरों की तरह यहां भी काम कला का चित्रण मिलता है।
 मंदिर की दीवार पर ब्याल अलंकरण में काल्पनिक पशु का चित्रण है जिसमें शरीर सिंह का और सिर किसी दूसरे पशु का है। यहां पर सिंह, गज, नर, वराह, शुक्र आदि का विचित्र चित्रण मिलता है। नायिकाओं का अत्यंत सजीव चित्रण गर्भगृह के बाह्य भित्तियों पर किया गया है। तोते को दाना चुगाती शुक अभिसारिका, बच्चे को दूध पिलाती मां, नृत्य की आकर्षक मुद्रा में नर्तकी, आंखों में अंजन लगाती सुंदरी, केश संवारती और अन्य अनेक भाव भंगिमा में अलमस्त चित्रण निश्चित रूप से मन को मोहित कर लेता है। मंदिर की उत्कृष्ट कला कृति में शिव-पार्वती की विभिन्न मुद्राओं का चित्रांकन है। द्वार के साख पर दायीं और बायीं ओर शिव-पार्वती की आलिंगनबद्ध मूर्तियों का चित्रांकन कलात्मक ढंग से किया है। ऊपर दायीं ओर शिवजी की बायीं जांघ में पार्वती जी विराजमान हैं। शिवजी के हाथ में त्रिशूल बीजपूरक है। इस मूर्ति में एक हाथ खंडित है, जबकि दूसरे हाथ से वे पार्वती जी का आलिंगन कर रहे हैं। नीचे की मूर्तियों में शिव-पार्वती नंदी पर आरूढ़ हैं। शिवजी के हाथ में त्रिशूल, नाग एवं कपाल है। बायीं ओर शिव-पार्वती की प्रथम मूर्ति में शिव पार्वती की ठोढ़ी को स्पर्श कर रहे हैं और पार्वती जी मोहक मुद्रा में शिव जी की ओर निहार रहीं हैं। नीचे बैठा नंदी आश्चर्यचकित हो शिवजी की ओर निहार रहा है। एक और मूर्ति में शिवजी के बायें भाग में पार्वती जी हैं लेकिन उनका मुख दूसरी ओर है, जैसे वे रूठी हों और शिवजी उन्हें मनाने का प्रयास कर रहे हों?
पाली का ऐतिहासिक सफर-
उत्कृष्ट मूर्तिकला से सुसज्जित पाली के इस मंदिर का निर्माण आखिर कराया किसने और इस क्षेत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या थी यह सहज ही जिज्ञासा का प्रश्न है। मंदिर में कुछ स्थानों में 'श्री मज्जाजल्लदेवस्य कीर्तिरियम' खुदा हुआ है। इससे प्रतीत होता है, कि इसे कलचुरी वंशी राजा जाजल्लदेव ने बनवाया है? कलचुरी वंश की राजधानी पहले तुम्माण में फिर रत्नपुर में बनायी गयी। रत्नपुर के कलचुरी वंश में जाजल्लदेव नाम के दो राजा हुये। इनमें जाजल्लदेव प्रथम का शासनकाल सन् 1095 से 1120 तक था। मंदिर में उत्कीर्ण लेख की खुदाई भी इसी काल की प्रतीत होती है। अगर इसे जाजल्लदेव प्रथम ने बनवाया है, तब इसका निर्माण काल 11 वीं शताब्दी के अंत में निर्धारित होता है। लेकिन मंदिर इससे भी प्रचीन है क्योंकि मंदिर के गर्भगृह के द्वार पर गणेश पट्टी पर खुदा लेख विक्रमादित्य का है। इस लेख को सर्वप्रथम डॉ. देवदत्त भंडारकर ने लगभग 50 वर्ष पहले पढ़ा था। उनके अनुसार लेख का आशय है  'कि महामंडलेश्वर मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य ने यह देवालय निर्माण कराकर कीर्तिदायक काम किया है।Ó इस काल में यह तो ज्ञात हो गया कि बाणवंश में विक्रमादित्य नाम के राजा हुये थे। लेकिन वे उनका शासनकाल की जानकारी प्राप्त नहीं कर सके। आज इससे सम्बंधित अनेक लेख प्रकाश में आ चुके हैं जिससे ज्ञात होता है कि बाणवंश में विक्रमादित्य नाम के तीन राजा हुये। उनमें से प्रथम विक्रमादित्य जिसे जयमेरू भी कहा जाता था, मल्लदेव का पुत्र था। पाली के लेख में भी विक्रमादित्य को मल्लदेव का पुत्र बताया गया है। अत: यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि दोनों विक्रमादित्य एक ही थे। इसका दूसरा शिलालेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन उनके पुत्र विजयादित्य जिन्हें प्रभुमेरू भी कहा जाता है, का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। यह संवत् 820-831 (सन् 898-99 से 909-910 ईसवीं) का है। इस लेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य (जयमेरू) ने सन् 870 से 895 ई. में राज्य किया और इसी बीच उन्होंने पाली के इस शिव मंदिर का निर्माण कराया। इससे यह तो सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र में विक्रमादित्य का शासन था।
श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक 'प्राचीन छत्तीसगढ़' में लिखते हैं- यद्यपि इनके प्रथम राजा का नाम शिवगुप्त था लेकिन यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि पूर्ववर्ती पांडुवंशी से इनका कोई सम्बंध था। बल्कि पांडुवंशी राज्य प्रणाली के विपरीत किंतु शरभवंशी राजाओं के समान इनकी राजमुद्राओं पर गजलक्ष्मी पायी जाती है। शिवगुप्त का एक भी प्रशस्ति पत्र अभी तक नहीं मिला है। इनके पुत्र महाभवगुप्त का एक प्रशस्ति पत्र मिला है जिसमें अंकित है-'स्वस्ति श्रीमत् परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर सोमकुल तिलक त्रिकलिंगाधिपति महाराज श्री भवगुप्त'।
तुम्माण और रतनपुर के कलचुरी राजाओं के विभिन्न अभिलेखों में बताया गया है कि इस वंश हैहह रानी से दहाल का शासक कोकृल (ईसवी सन् 850 से 890) उत्पन्न हुआ, जिसके 18 पुत्र थे। इनमें से ज्येष्ठ पुत्र त्रिपुरी के राजगद्दी का उत्तराधिकारी हुआ और अन्य पुत्रों को विभिन्न मंडलों का अधिपति बनाया गया। इनमें से एक पुत्र कलिंगराज हुआ जिसने अपने पूर्वजों की भूमि को छोड़कर दक्षिण कोसल जनपद में पहुंचकर उसे अपने बाहुबल से प्राप्त किया और तुम्माण को राजधानी बनाकर अपने राज्य की श्रीवृद्धि की। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इसके पूर्व भी कलचुरियों ने तुम्माण में अपनी राजधानी स्थपित की थी। बिल्हारी अभिलेख के अनुसार कोकृलदेव प्रथम के पुत्र मुग्धतुंग ने पूर्व समुद्र के तटवर्ती देशों को जीतकर कोशल के राजा से पाली छीन ली। संभवत: ईसवीं सन 900 में पहली बार तुम्माण कलचुरियों की राजधानी बना और लगभग ईसवीं सन् 1000 में कलिंगराज ने तुम्माण को पुन: अपनी राजधानी बनाया। कोकृलदेव प्रथम और कलिंगराज के बीच के समय में इस वंश का इतिहास अंधकारमय है।
पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने उड़ीसा में समुद्र तट से 13 कि.मी. की दूरी पर स्थित 'पालिया' को उक्त अभिलेख का पाली माना है। उपर्युक्त तत्थों से स्पप्ट है कि पाली के इस मंदिर को बाणवंशी राजा विक्रमादित्य ने बनवाया है। लेकिन मंदिर की दीवार में कलचुरी राजा जाजल्लदेव के अभिलेख से ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर का जीर्णेद्धार राजा जाजल्लदेव ने कराया है। अन्य अभिलेखों से पता चलता है कि कलचुरी राजा जाजल्लदेव प्रथम ने अपने नाम पर 'जाजल्लपुर' बसाया जो वर्तमान में जांजगीर नगर को माना जाता है। यहां उनहोंने विष्णु मंदिर, मठ, सरोवर और आम्रवन आदि बनवाया तथा अनेक मंदिरों-पाली का शिव मंदिर, शिवरीनारायण का नारायण मंदिर आदि का जीर्णोद्धार कराया।  
मिस्टर कजिंस ने 50 वर्ष पूर्व इस मंदिर का अवलोकन किया था। वे लिखते हैं 'इस मंदिर का सभा मंडप पहले चतुष्कोण था। बाद में ऊपर के गुम्बज को सहारा देने के लिये चारों कोणों में चार आड़ी दीवार बनायी गयी जिसके कारण अब मंदिर अष्ट-कोणीय दिखाई देता है। इसी प्रकार गर्भगृह के सामने दो नये स्तम्भ है, जिन पर नक्काशी का काम उतना नहीं है जितना सभा मंडप के अन्य स्तम्भों पर है। ये स्तम्भ उपर छत की टूटी हुई मयाल को सहारा देने के लिये बनाये गये हैं। इसके सिवाय सभा मंडप का एक दरवाजा भी बाद में बना जान पड़ता है। यह भी उल्लेखनीय है कि जितने भाग का जीर्णोद्धार किया गया है उन्हीं में जाजल्लदेव का नाम खुदा है। इन सब तथ्यों से स्पष्ट है कि जालल्लदेव प्रथम ने इस मंदिर का निर्माण नहीं बल्कि जीर्णोद्धार कराया था'। मध्य कालीन मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने इस क्षेत्र के जांजगीर, पाली, भोरमदेव, नारायणपुर और शिवरीनारायण के मंदिर में देखे जा सकते हैं। प्राचीन काल का वैभवशाली नगर पाली आज एक अल्प विकसित कस्बा मात्र है। यहां प्रतिवर्ष महाशिवरात्री पर शिव भक्तों की भीड़ मेला जैसा दृश्य उपस्थित करता है। यह नगर कई राजवंशों का काल निर्धारित ही नहीं करता वरन् इस क्षेत्र में उनके शासन काल को दर्शाता भी है। अत: यह मंदिर छत्तीसगढ़ के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसकी पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की जानी चाहिये।
संपर्क-'राघव' डागा कालोनी, चांपा-495671 (छ.ग.)

पीड़ा अब न सही जाती

पीड़ा अब न सही जाती
- डॉ. गीता गुप्त

अब भी हिन्दी दिवस मनाते हो
लाज तुमको तनिक नहीं आती?
राज करती है अब भी अंगरेजी
तुमको स्वीधीनता नहीं भाती?

वक्त यह आत्मनिरीक्षण का है
राष्ट्रभाषा के संरक्षण का है
तुम मनाते हो समारोह मगर
सोचो, हिन्दी है क्यों सिमटी जाती?

अब भी वर्चस्व क्यों विदेशी का?
क्यों न अब मान है स्वदेशी का?
क्यों न अपनाते हम हिन्दी भाषा?
अपनी हिन्दी किसे नहीं आती?

आत्मसम्मान खो रहे क्यों हम?
अब गुलामी को ढो रहे क्यों हम?
अपनी मां को सता रहे क्यों हम?
क्यों है अंगरेजियत नहीं जाती?

सिर्फ नारे न तुम लगाओ अब
झूठी रस्में न तुम निभाओ अब
देखो आंसू बहा रही है मां
उसकी पीड़ा न अब सही जाती।

न भरो देश प्रेम का दम तुम
कोई पाखंड मत रचो अब तुम
लानतें भेजता है हिन्दी दिवस
हिन्दी अब भी परायी कही जाती।

कर सको आज तो संकल्प करो
राष्ट्रभाषा को ही अपनाएंगे
मान देंगे न उसे बस एक दिन
नित्य हिन्दी दिवस मनाएंगे।

संपर्क-  ई-182/2, प्रोफेसर्स कॉलोनी, भोपाल 462002 (म.प्र.)
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छत्तीसगढ़ नयनाभिराम जलप्रपात

- विप्लव
बारिश के दिनों में यह रक्तिम लालिमा लिए हुए होता है तो गर्मियों की चांदनी रात में यह झक सफेद दूधिया नजर आता है। अलग- अलग मौकों पर चित्रकोट जलप्रपात से कम से कम तीन और अधिकतम सात धाराएं गिरती हैं।

आपको यदि वाटर-फॉल्स के बाबत पूछा जाए तो यकीनन आप दुनिया भर में मशहूर नियाग्रा के जलप्रपात की ही चर्चा में मशगूल हो जाएंगे, लेकिन भारत में ही पर्यटन के इतने अनछुए स्थल हैं और सदियों से अनछुए पड़े हैं कि भारत के लोग भी उनके बारे में कम ही जानते हैं। छत्तीसगढ़ में बस्तर अंचल में जगदलपुर का चित्रकोट जलप्रपात इतना मनमोहक और आकर्षक है कि इसे भारत का नियाग्रा कहने वालों की भी कमी नहीं है। बस्तर में वैसे तो जलप्रपातों की लंबी श्रृंखला है, चित्रकोट इनमें अनूठा है। पर्यटन विभाग के मुताबिक यह देश भर में सबसे चौड़ा माना गया है।
सभी मौसम में भरापूरा रहनेवाला यह वाटरफॉल पौन किलोमीटर चौड़ा और 90 फीट ऊंचा है। खासियत यह है कि बारिश के दिनों में यह रक्तिम लालिमा लिए हुए होता है, तो गर्मियों की चांदनी रात में यह झक सफेद दूधिया नजर आता है। अलग-अलग मौकों पर इस जलप्रपात से कम से कम तीन और अधिकतम सात धाराएं गिरती हैं।
पूरे बस्तर में कई और जलप्रपात भी अपार जलराशि के कारण एक विहंगम अनुभूति से भर देते हैं जिनमें तीरथगढ़ का जलप्रपात भी प्रसिद्ध है। बस्तर के इस जलप्रपात की खासियत यह मानी गयी है कि यह देश का सबसे ऊंचा जलप्रपात है।  जो कि 300 फीट गहराई तक चट्टानों के सहारे कहीं झरने तो कहीं प्रपात के रूप में बहता है। यह जगदलपुर से 25 किलोमीटर दूर कांगेर (फूलों की घाटी) वैली राष्ट्रीय उद्यान में है। यहां का नैसर्गिक सौंदर्य शहरी सैलानियों को रोमांच और कौतूहल से भर देता है।
वास्तव में छत्तीसगढ़ एक वनाच्छादित प्रदेश है। यहां आदिवासी सभ्यता और संस्कृति आज भी कायम है जिनको करीब से जानने और देखने के लिए विदेशी भारत आते हैं लेकिन जब तक छत्तीसगढ़ राज्य गठित नहीं हुआ तब तक छत्तीसगढ़ की कई नामचीन और पर्यटन महत्व की जगहों को डिस्कवर नहीं किया जा सका था। मसलन चित्रकोट का जलप्रपात देशभर में मौजूद सभी जलप्रपातों में चौड़ा है।
जगदलपुर के समीप 30 किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक रूप से बनी कोटमसर गुफा भी है। यह विश्व प्रसिद्ध है। पाषाणयुगीन सभ्यता के चिन्ह आज भी यहां मिलते हैं। गुफा के भीतर जलकुण्ड तथा जलप्रवाह अवशैल-उत्शैल (स्टेलेग्माइट-स्टेलेक्टाईट) की रजतमय संरचनाएं किसी भी सैलानी को ठिठक कर निहारते रहने के लिए बाध्य कर देती हैं। बस्तर के अलावा अम्बिकापुर से 80 किलोमीटर दूर अम्बिकापुर-रामानुजगंज मार्ग के समीप तातापानी नामक झरना क्षेत्र है। यहां गर्मजल के 8-10 स्रोत हैं।
रायगढ़ जिले में घने वनों के बीच केंदई ग्राम में एक पहाड़ी नदी लगभग 100 फीट की ऊँचाई से गिरकर एक खूबसूरत प्रपात बनाती है। इसे केंदई जलप्रपात के नाम से जाना जाता है। एडवेंचरस ईको-टूरिज्म के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ अब तेजी से अपनी पहचान बना रहा है। यहां कोटमसर गुफा के अलावा कैलाश गुफा, दण्डक गुफा, अरण्यक गुफा और चारों तरफ हरीतिमा के साथ फैली घाटियां प्रकृति प्रेमियों का मन मोह लेती हैं। केशकाल घाटी में सर्पीली सड़कों से गुजरते हुए इसके रोमांच को महसूस किया जा सकता है। बस्तर घाटियों के लिए प्रसिद्ध है। उत्तर में केशकाल व चारामा घाटी, दक्षिण में दरभा की झीरम घाटी, पूर्व में आरकू घाटी, पश्चिम में बंजारिन घाटी समेत पिंजारिन घाटी, रावघाट, बड़े डोंगर (छत्तीसगढ़ में डोंगर, पर्वत को कहा जाता है) प्रसिद्ध हैं।
बहुत सी किवदंतियां भी इन प्राकृतिक झरनों के साथ जनमानस में रची-बसी हैं। मसलन, रायगढ़ जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल रामझरना के बारे में यह प्रसिद्ध है कि सावन माह में इस कुंड में स्नान करने से त्वचा संबंधी रोग-दोष दूर हो जाते हैं। इसकी वैज्ञानिक वजह यह मानी जाती है कि इस झरने का जल पहाडिय़ों की सैकड़ों जड़ी-बूटी की झाडिय़ों के बीच से बहकर स्वयं में काफी रोग-प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेता है। क्षेत्र में आयुर्वेदिक औषधियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।
जलाशय पर्यटन में दिलचस्पी रखने वालों के लिए धमतरी (रायपुर से 70 किलोमीटर दूरस्थ) का गंगरेल जलाशय एक आकर्षक टूरिस्ट स्थल बन चुका है। गंगरेल बांध में लाखों क्यूसेक पानी जमा करके रखा जाता है। इसे काफी व्यवस्थित तरीके से विकसित किया गया है जहां सैलानियों के लिए रूकने की अच्छी व्यवस्था भी है। गंगरेल भी सौर ऊर्जा से प्रकाशमान होता है। छत्तीसगढ़ वायुमार्ग और रेलमार्ग से जुड़ा है। राजधानी रायपुर में आकर शेष राज्य के लिए घूमने का इंतजाम किया जा सकता है। (इंडिया वाटर पोर्टल से)

लव- कुश की जन्मस्थली तुरतुरिया


 लव- कुश की जन्मस्थली तुरतुरिया

जहां सौर ऊर्जा से रौशन होते हैं गांव

 - ज्योति प्रेमराज सिंह

छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के बीच स्थित तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीक का आश्रम इस बात की याद दिलाता है कि रामायण काल में छत्तीसगढ़ का कितना महत्व रहा होगा।
रायपुर से 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रायपुर-बलौदाबाजार मार्ग पर ठाकुरदिया नाम के स्थान से सात किलोमीटर दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है तुरतुरिया। यहां जाने का रास्ता शायद पहले आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि सुरम्य और घनी पहाडिय़ों के बीच स्थित इस स्थान में जगह-जगह पहाड़ी कछार, छोटे-छोटे नाले और टीलें हैं। इन्हीं पहाडिय़ों के बीच बहती है बालमदेही नदी जिसका पाट तुरतुरिया के पास काफी चौड़ा हो गया है। पहाड़ी नदी होने के कारण वर्षा ऋतु में इसका तेज प्रवाह तुरतुरिया तक पहुंचने के रास्तों को और कठिन बना देता है। यह नदी आगे चलकर पैरागुड़ा के पास महानदी में मिल जाती है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इस राज्य के ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों से संबंधिक क्षेत्रों का लगातार विकास कर इन्हें पर्यटन क्षेत्रों के रूप में उभारा जा रहा है। तुरतुरिया जहां पहुंचना पहले आसान नहीं था, लेकिन अब इसके रास्तों को आसान बनाया जा रहा है।  तुरतुरिया तीन मुख्य रास्तों से जाया जा सकता है, एक सीधे रायपुर से बारनवापारा जंगल होते हुए, दूसरा सिरपुर से और तीसरा बलौदाबाजार से।
तुरतुरिया वन विभाग की चौकी पार करने के बाद दो सौ कदम के फासले पर ही स्थित है महर्षि वाल्मीक का आश्रम। सामने ही एक पहाड़ी पर वैदेही कुटीर नजर आती है। वहां तक पहुंचने के लिए पहाडिय़ों को काटकर सीढिय़ां बना दी गई हैं। सीढिय़ों के किनारे-किनारे जंगली मोगरे के छोटे-छोटे पौधे बिखरे पड़े हैं। गर्मियों और बारिश में जब ये फूल खिलते हैं, तो वातावरण और खुशनुमा हो जाता है। ऊपर पहुंचने पर एक पक्का कुटीर नजर आता है। यदि आपकी किस्मत अच्छी है, तो आपको ऊपर पहुंचने पर हिरणों का झुंड भी विचरण करता नजर आ सकता है। हालांकि पर्यटकों की आहट से चौकन्ना होकर ये हिरण कुंलाचे भरते हुए पल भर में पेड़ों के झुरमुट में गायब भी हो जाते हैं। रात में और भी जानवर यहां पर देखे जा सकते हैं। इसी पहाड़ी से लगी एक अन्य पहाड़ी है, जहां पर महर्षि वाल्मीक का आश्रम स्थित है।
प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीक का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचंद्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था। और यहीं सीताजी के दोनों पुत्र लव और कुश ने जन्म लिया था। वैदेही कुटीर के नीचे ठीक बाएं एक संकरा रास्ता पैदल जाता है। सामने ही कलात्मक खंभे दिखाई देते हैं, जो विखंडित हो चुके हैं।
इसी क्षेत्र में बौद्ध भग्नावेश भी मिलते हैं, जो 8वीं शताब्दी के हैं। यहीं पर कई उत्कृष्ट कलात्मक खंबे भी नजर आते हैं, जो किसी स्तूप के अंग हैं।  माता सीता और लव-कुश की एक प्रतिमा भी यहां नजर आती है, जो 13-14 वीं शताब्दी की बताई जाती है। पाषाण निर्मित ये मूर्तियां कलात्मक तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में भी इस जगह को वाल्मीक के आश्रम के रूप में मान्यता मिली हुई थी।
घने जंगलों से घिरे इस क्षेत्र का नाम तुरतुरिया पडऩे का कारण संभवत: चट्टानों के बीच से इस झरने का उद्गम एक लंबी संकरी गुफा से होना है। जहां से वह बड़ी दूर तक भूमिगत होकर बहती है। इस झरने को यहां सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। इस गुफा से निकलने वाला जल नीचें पंहुच कर र्इंटों से निर्मित एक कुंड में एकत्र होता है। इस कुंड में उतरने के लिए सीढिय़ां बनी हुई हैं। बारहों महीने इसकी जलधारा प्रवाहित होती रहती है। यहां पर नियुक्त महंत रामकिशोर दास के अनुसार वे पिछले 35 बरसों से इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। इतने बरसों में उन्होंने कभी इस धारा को सूखते नहीं देखा है। कुंड के निकट दो शूरवीरों की मूर्तियां हैं, जिनमें से एक तलवार उठाए हुए है, जो उस सिंह को मारने के लिए उद्घत्त है जो उसकी दाहिनी भुजा को फाड़ रहा है। दूसरी मूर्ति में एक जानवर उसकी पिछली टांगों पर खड़ा होकर उसका गला मरोड़ रहा है। यहां पत्थर के कई स्तंभ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिन पर उत्कृष्ट खुदाई का काम किया गया है।

 बौद्घ विहार-
यह स्थान कुंड से कुछ दूरी पर नाले के दूसरे किनारे पहाड़ पर स्थित ऋषियों के कुटी में जाने के लिए बनाए गए पहाड़ी सीढिय़ों के समीप है। जहां पर बौद्घ भिक्षुणियों की मूर्ति पाई गई हैं जो कि उपदेश देने की मुद्रा में दिखाई गई हैं। इन मूर्तियों का काल 8-9 वीं शताब्दी बताया जाता है। इन मूर्तियों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संभवत: यहां बौद्घ भिक्षुणियों का विहार था। और यह शोध का विषय भी है कि भारत में बौद्घ भिक्षुणियों के लिए विहार का निर्माण किया गया था या नहीं? इन अवशेषों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि इस क्षेत्र पर 8-9 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था और यहां प्रमुख बौद्ध स्तूप और स्थल रहा होगा। इस क्षेत्र की खुदाई और शोध से कई बातें और सामने आ सकती हैं।
यहां कुछ भग्न मंदिर भी प्राप्त हुए हैं जिनका जीर्णोद्घार हो चुका है। बौद्घ मूर्तियां खंडित अवस्था में हंै तथा समीप ही शैव वैष्णव धर्म की कुछ मूर्तियां पाई गईं हैं, जिनमें शिवलिंगों की अधिकता है। इनमें विष्णु और गणेश जी की भी   मूर्तियां हैं।
इस क्षेत्र का महत्व छेराछेरा के मौके पर और बढ़ जाता है, जब यहां पर मेला भरता है। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर लव-कुश का जन्म हुआ था, इसलिए पूष माह में यहां पर तीन दिनों का मेला भरता है। छत्तीसगढ़ के इस पारंपरिक त्यौहार छेरछेरा जो पूर्णिमा यानी पुन्नी के दिन धान कटाई के बाद मनाया जाता है  के दिन दिन गांव-गांव में घर-घर जाकर छोटे-छोटे बच्चे गुहार (आवाज) लगाकर कहते हैं- छेरा-छेरा, कोठी के धान ल हेर हेरा। यानी धान का दान देना इस दिन शुभ माना जाता है। इस दिन लगने वाले मेले में आस-पास के हजारों लोग जुटते हैं। तब तक बालमदेही नदी का पाट काफी सिमट जाता है और गांव-गांव से आने वाले लोग नदी के रेतीले तट पर अस्थायी चूल्हे बनाकर अपने खाने-पीने का इंतजाम करते हैं।
इस समूचे क्षेत्र में एक अच्छी बात यह देखने में आई कि पहाड़ी क्षेत्र होने के बाद भी यहां पर गांव-गांव में रौशनी है। यह कमाल सौर ऊर्जा का है। समूचे क्षेत्र में सौर ऊर्जा से बिजली प्रवाहित होती है। आस-पास के गांवों में भी छोटे-छोटे सौर प्लांट नजर आते हैं, जिनसे पूरे गांव को रौशनी मिलती है। तुरतुरिया में भी रौशनी सौर ऊर्जा से पहुंचाई जा रही है।
इस क्षेत्र से सबसे समीप का गांव है बफरा, जहां 30 से 40 कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। यह गांव तुरतुरिया से 10-12 किमी की दूरी पर स्थित है। तुरतुरिया जाने के मार्ग पर पडऩे वाले गांव काफी बिखरे हुए हैं। इसकी वजह शायद इसका पहाड़ी इलाका होना है।
तुरतुरिया से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मातागढ़। बालमदेही नदी के पश्चिम में स्थित इस स्थान पर देवी मां का एक प्राचीन मंदिर है। जिसकी बड़ी मान्यता है।
Email:  jyotipremrajsingh@in.com

रजनीगंधा

रजनीगंधा

- सुशीला शिवराण

 1
ओस की बूँद
रात रोई है धरा
दर्द गहरा।
2
हरसिंगार
रात भर सिंगार
ऊषा मुर्झाए।
3
रजनीगंधा
महकाए रतियाँ
सुबह सोए।
4
गहरा दर्द
तन- मन भी सर्द
बहें नयन!
5
बौराए आम
कूके है कोयलिया
मन विभोर।
6
ख्वाहिशें मेरी
भटकें दिन-रैन
तुम बेपीर।
7
चाहत मेरी-
एक मुट्ठी आसमाँ
पाए दो जहाँ।
 8
बहा है नीर
घनेरी कोई पीर?
बोल मनवा।
9
कजरा नैन
मृगी-सी चितवन
छला है जग!
10
हरित दूर्वा
क्यारी-क्यारी कुसुम
मन प्रसून!
11
हरे गलीचे
ताने हरा वितान
मुदित धरा!
12
सीत बयार
रूत भीगी-भीगी सी
मन पपीहा!
13
मेह बरसा
बचपन चहका
मन किलका!
14
खुद को खोया
तब उसे पाया है
प्रीत की रीत!
15
शब्द चितेरे
बुने जाल भ्रम के
उलझा जग।
16
मुद्दतें हुईं
खुल के हँसा है वो
रोने के बाद।
17
धागे प्रीत के
कच्चे हैं मानें सब
बंधन पक्के
18
भीगी पलकें
बिखरी हैं अलकें
सूना मनवा
संपर्क- बदरीनाथ-813, जलवायु टावर्स, सेक्टरर-56, गुडग़ाँव 122011 दूरभाष- 0124-4295741
    sushilashivran@gmail.com

आकाश से टपकता सौंदर्य हिमकण

आकाश से टपकता सौंदर्य हिमकण

- नरेन्द्र देवांगन
हिमकण प्रकृति की अनंतता के प्रतीक हैं। ये गिरते हैं, हवा में तैरते हैं और फिर पिघल जाते हैं, दुबारा अनेकानेक रूप बदलकर वापस आने को। कहते हैं कि विल्सन बैंटली मानते थे। 

लड़कपन में विल्सन बैंटली ने एक हिमकण को सूक्ष्मदर्शी से देखा और उन्होंने जो कुछ देखा उसने उनकी जीवन की धारा का रुख ही मोड़ दिया, सर्दियों के प्रति उनका दृष्टिकोण ही बदल गया। बिना किसी से फोटोग्राफी सीखे या विज्ञान पढ़े, पेशे से किसान बैंटली ने अकेले ही तुषार कणों का अध्ययन आरंभ किया। उन्हें एक काले पटल पर रखकर पिघलने से पहले ही वे उनके फोटो उतार लेते। वरमोंट की कड़ाके की 46 सर्दियों में अकेले ही एक झोपड़ी में उन्होंने हिमपात की सुंदरता और रहस्यों पर विचार कर उन्हें कैमरे में कैद कर लिया। 1931 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने हिमकणों के और कुछ नहीं तो 6 हजार फोटो खींचे। बैंटली का यह कार्य पत्र-पत्रिकाओं में क्रमबद्ध रूप से छपने से मौसम विज्ञान की एक नई शाखा का जन्म हुआ। जौहरियों ने आभूषणों के लिए नए-नए नमूनों के तौर पर उनके चित्रों को खरीदा और बच्चे उनके चित्रों के आकार-प्रकार में कागज के हिमकण काटने लगे।
हिमकण, जिन्होंने बैंटली को इतना अचंभित किया, प्रकृति की विशिष्ट सृजन शक्ति के उत्कृष्ट नमूने हैं। तुषार के ये कण किसी स्फटिक सदृश होते हैं और अनेक स्फटिकों के समूह भी। ये स्फटिक वायुमंडल के अत्यंत ऊंचे स्थानों पर बनते हैं। तापमान जहां अधिक होता है, वहां यही हिमकण पिघल कर वर्षा की बूंद बन जाते हैं। पर जहां अत्यधिक ठंड हो वहां स्फटिक का कोमल स्वरूप बना रहता है। 
धूल, ज्वालामुखी की राख या प्रदूषण का कोई भी कण 'बीज रूप में' स्फटिक का केंद्रक बन जाता है और आसपास के पानी के अणुओं को आकर्षित कर लेता है, जो उसकी सतह पर जम जाते हैं। हवा के कंधों पर सवार यह कण तापमान तथा आर्द्रता की विभिन्न परतों में मंडराता रहता है और हर परत इसे विविध आकार देती रहती है। ऐसे कण बार-बार एक दूसरे से टकराते भी हैं जिससे उनके आकार और स्वरूप बदलते रहते हैं।
हालांकि हम आमतौर पर हिमकणों को 6 कोनों वाला सितारा मात्र समझते हैं, परंतु इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्नो एंड आइस के पास हिमकणों की अनेक श्रेणियां हैं और इनमें से प्रत्येक का निर्माण विभिन्न परिस्थितियों में होता है। मसलन, हल्के आर्द्र तूफान में हवा की तेजी कम हो, तो इससे वृक्षों के आकार के त्रिआयामी हिमकण बनते हैं जबकि अधिक ठंडे, शुष्क बादल सूई नुमा विन्यास वाले तुषार कणों को जन्म देते हैं। परंतु हर कण तापमान तथा आद्र्रता का अनूठा उत्पाद होता है, वायुमंडलीय परिस्थितियों की प्राकृतिक छाप।
हिमकणों के प्रति एक प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। क्या कोई भी दो हिमकण सचमुच एक-से नहीं होते? आंकड़े इसके विरुद्ध हैं। आधे मीटर मैदान को 25 सेंटीमीटर हिमपात से ढंकने के लिए एक ही बर्फानी तूफान में 10 लाख से अधिक हिमकणों की आवश्यकता होती है। ऐसे में हर कण बेजोड़ हो, संभव नहीं लगता। तो भी अनुमान है कि वायुमंडल में विभिन्न तापमान तथा आर्द्रता वाली कम से कम 10 लाख परतें संभव हैं, जिससे 10 की संख्या पर 50 लाख घात के बराबर विविधता की सृजन क्षमता पैदा होती है। किन्हीं दो हिमकणों को हर लिहाज से एक जैसा होने के लिए एक से 'बीजों' को एक ही समय जीवन आरंभ करके एक-सी परिस्थितियों से एक ही कालावधि तक गुजरते हुए नीचे गिरते समय एक जैसे टकरावों से गुजरना होगा। फिर उन दो तुषार कणों को एक ही वैज्ञानिक द्वारा उठाए जाकर सत्यापित होना होगा। इन मुश्किलों के मद्देनजर हिमकणों के अनूठेपन की अवधारणा शायद बनी ही रहेगी। इसके अलावा हम सब यह विश्वास सीने से लगाए हैं, कि प्रकृति के पास ऐसा अपार खजाना है कि वह अनगिनत संख्या में ये मोती आकाश से बरसाती रह सकती है।
हिमकण प्रकृति की अनंतता के प्रतीक हैं। ये गिरते हैं, हवा में तैरते हैं और फिर पिघल जाते हैं, दुबारा अनेकानेक रूप बदलकर वापस आने को। कहते हैं कि विल्सन बैंटली मानते थे, कि हिमकण 'आकाश से टपकता एक विचार है, अतुल सौंदर्य का खंड जो एक बार खो गया तो सदा के लिए खो गया।' यह अद्भुत संयोग है कि एक हिमकण में हमें क्षणभंगुरता और अमरत्व दोनों की झलक मिलती है। इसी ने बैंटली को भी वर्षों तक ठिठुरने पर विवश किया था। (स्रोत फीचर्स)

बिन्दा

बिन्दा

- महादेवी वर्मा
मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कत्र्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।

भीत-सी आंखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा-आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी। नहीं यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी। सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- मेरी दूसरी पत्नी है और आप तो जानती ही होंगी... और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा- ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैं जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पायी थी। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आलमारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुतिया-सीढिय़ों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आंख मूंदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दांत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी- छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दानों और कीड़े- मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते  ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कत्र्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।
और बिंदा की भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा नई अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई आंखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूडिय़ाँ और घुंघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुडिय़ा की समानता दे देते थे।
यह सब तो ठीक था, पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च-से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्यामा के रंभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी, परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। उठती है या आऊं, बैल के से दीदे क्या निकाल रही है, मोहन का दूध कब गर्म होगा, अभागी मरती भी नहीं आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।
कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आंगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आंगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था, क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती, पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आंखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी-क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है ? मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त हैं से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पायी।
बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी, परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने
वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पडऩा और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आंखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिडिय़ा की याद दिलाती थीं।
एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा- वह रही मेरी अम्मा तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है और एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिये और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा- तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डांटेंगी।
बिंदा को मेरा उपाय कुछ जंचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।
पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा- तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें। माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पायी थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया- नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जाएगा और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा। माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मु_ी में दबाकर ही मैं सो पायी थी।
बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे, पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आंगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते और रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बंधा पाया था और भूख से मुरझाये मुख के साथ पहरों नई अम्मा और खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी, पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।
और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य, पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।
उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य, पर न ऊपर के खण्ड में मां के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूंध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था, पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछौना बन गया हो।
मैं तो शायद सो गई थी, क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा- क्या सबेरा हो गया?
मां ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है, पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।
फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आंगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था, पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहां हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती पूछने पर वह मुंह में कपड़ा ठूंस कर हंसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आंख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धँस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली- सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियां, सिर पर हाथ फेरती हुई मां और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।
फिर तो बिंदा को देखना सम्भव न हो सका, क्योंकि मेरे इस आज्ञा-उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं।
एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्दर कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झांककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी, परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झांककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है और हो रहा है, तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुंची कि बिंदा का विवाह हो रहा है और उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिन्त्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुडिय़ों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।
कई दिन तक बिंदा के घर झांक-झाककर जब मैंने मां से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूंढ़ती रहती, पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?
तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा और उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है ?

लघुकथाएं - इला प्रसाद


1 . प्रतिद्वन्द्वी


वह उसे देखता और चिढ़ जाता!
वह भी उसे देखती और परेशान हो जाती।
वे दोनों आते- जाते कारीडोर में मिलते और एक-दूसरे  से कतरा कर निकल जाते।
उसे समझ नहीं आता था कि वह हर बार उसे इस स्कूल में कैसे मिल जाता है, वह तो हर रोज यहाँ आती नहीं!
उसे यह भी ठीक से पता था कि वह उसे बिल्कुल पसन्द नहीं करता। एक बार सामने से आ रहे उसके बैज पर उसने उसका नाम पढऩे की कोशिश की थी, तो उसने खट से भाँप लिया और अपना बैज उलट दिया लेकिन वह उस पर नजर रखता था। वह अक्सर उसे काउण्टर पर अपने पीछे खड़ा पाती, जब वह अपने पेपर जमा कर रही होती, कुछ पूछ रही होती। तब उसे भी बेहद चिढ़ होती थी उससे। फिर कुछ महीनों बाद एक दिन वे असिस्टेंट प्रिन्सिपल के ऑफिस में मिल गए। मिस्टर लोगान ने परिचय कराया रूबी सिंह इनसे मिलिए, ये हैं चाल्र्स पेरेज। अगले सेशन में पूर्णकालिक नौकरी के लिए साक्षात्कार देंगे। समाज विज्ञान से हैं।
फिर वे चाल्र्स से मुखातिब हुए- चाल्र्स, ये रूबी सिंह हैं। विज्ञान विषय में पूर्णकालिक नौकरी की उम्मीदवार। वे एक दूसरे को देखकर मुसकुराए। अब दुश्मनी की कोई वजह नहीं थी। वे प्रतिद्वन्द्वी नहीं थे।

2  .  ठंड


उसे गर्मियों में भी ठंड लगती।
वह अपने कमरे में अकेली बैठी काँपती।
दवाएँ बेअसर थीं। पति नाराज वह ठीक क्यों नहीं होती!
फिर एक दिन उसने कमरे से बाहर झाँका। पार्क में बच्चे खेल  रहे थे। उसने पैरों में चप्पल डाली और खुद को घसीटती पार्क में  ले गई। शाम का वक्त था। मौसम खुशनुमा। पार्क गुलजार। थोड़ी ही देर में वह उस हलचल का हिस्सा बन गई। फिर यह रोज का क्रम हो गया। वह घर के काम निबटाती। पति ऑफिस जाता और वह शाम का इंतजार करती।
अब उसे उतनी ठंड नहीं लगती थी।
पति अब भी अपनी दुनिया में था। उसके पास कभी भी अपनी पत्नी से बातें करने की फुरसत नहीं थी। वह शायद उसे इस लायक भी नहीं समझता था, लेकिन तब भी उसकी हालत सुधर रही थी। पार्क में उसे बच्चों और हम उम्र स्त्रियों में कई दोस्त मिल गए थे। फिर एक दिन उसने महसूसा कि ठंड का अहसास गायब हो गया है।
पति अब और नाराज था!
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मेरे बारे में- 

जन्म 21जून 1960 शिक्षा- काशी हिंदू विश्वविद्यालय से भौतिकी में पीएचडी एवं भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई में सीएसआईआर की शोधवृत्ति पर शोध परियोजना के अंतर्गत कुछ वर्षों तक शोध कार्य। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित। छात्र जीवन में काव्य  लेखन की शुरुआत।  प्रारंभ में कॉलेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित। वैज्ञानिक  शोध कार्य के दिनों में लेखन क्षमता भी पल्लवित होती रही। पहली रचना इस कहानी का अंत नहीं जनसत्ता में प्रकाशित। कविता एवं कहानियों का पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन। धूप का टुकड़ा (कविता-संग्रह) और इस कहानी का अन्त नहीं (कहानी-संग्रह) प्रकाशित। 
Email- ila_prasadv@yahoo.com