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Nov 10, 2011

उदंती.com-नवम्बर 2011

उदंती.com-नवम्बर 2011




कला एक प्रकार का एक नशा है,
जिससे जीवन की 

कठोरताओं से
विश्राम मिलता है।
- फ्रायड 


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अनकही: नमन ... जो हमसे बिछड़ गए - डॉ. रत्ना वर्मा
श्रीलाल शुक्ल
जीवन वृत्त
राग दरबारी: एक गाँव की कथा -रवीन्द्रनाथ त्यागी
श्रीलाल शुक्ल की कहानी, उन्हीं की जुबानी
व्यंग्य: जीवन का एक सुखी दिन
कहानी: इस उम्र में - श्रीलाल शुक्ल
यादें: पहला पड़ाव और छत्तीसगढ़ -विनोद साव
भूपेन हजारिका
श्रद्धांजलि: दिल हूम हूम करे ... - सुप्रिया रॉय
कविता: सुर के पंछी, मेरी सांसों में संगीत है..., गीत- संगीत का जादूगर
जगजीत सिंह
मेरी आंखों ने चुना है तुझको...
स्मरण: अमर हो गई 'जग जीत' ने वाली आवाज़ - आलोक श्रीवास्तव

प्रेरक कथा: तीन छन्नियाँ
मनोज अबोध की ग़ज़लें
यात्रा वृतांत: टूटे पांव की पहाड़ी परीक्षा और ...- डॉ. परदेशीराम वर्मा
पिछले दिनों
पर्यावरण: दुनिया का कूड़ाघर बनता भारत - नरेन्द्र देवांगन
डॉ. शील कौशिक की लघुकथाएं
वाह भई वाह
नये युग में नया छत्तीसगढ़ - स्वराज्य कुमार
आपके पत्र
रंग बिरंगी दुनिया

नमन... जो हमसे बिछड़ गए

लगता है कला और साहित्य की इस दुनिया को किसी की नजर लग गई। पिछले दिनों हमारे देश को अपनी कला और रचनात्मकता से समृद्ध करने वाले तीन महान हस्तियाँ हमसे बिछड़ गईं। साहित्य की दुनिया में अपने शब्दों से समूचे तंत्र पर तीखी वार करने वाले श्रीलाल शुक्ल का लंबी बीमारी के बाद 28 अक्टूबर को निधन हो गया, वे 86 वर्ष के थे।
कुछ दिन पूर्व ही ब्रेन हेमरेज के इलाज के दौरान ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह का निधन भी 10 अक्टूबर को हो गया था, वे 70 वर्ष के थे।
इसके बाद इसी माह 5 नवंबर को असमियालोकसंगीत के माध्यम से संगीत की दुनिया में जादुई असर करने वाले ब्रह्मपुत्र के महान कलाकार भूपेन हजारिका भी चले गए। वे 85 वर्ष के थे। तीनों अपने- अपने क्षेत्र के विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी कलाकार थे। तीनों को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

श्रीलाल शुक्ल
हिंदी साहित्य में 'राग दरबारी' जैसी अनेक कालजयी रचनाएं लिखकर मशहूर होने वाले साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल व्यक्ति, समाज और तंत्र की विकृतियों को व्यंग्य के मुहावरे के माध्यम से उद्घाटित करने में माहिर थे। राजनीतिक तंत्र की विकृति और भ्रष्टाचार के साथ आजाद भारत का निम्न मध्य वर्ग उनके लेखन का प्रमुख विषय रहा है, जिनकी जड़ें होती तो गांवों में हैं लेकिन जो परिस्थितियों की मार से पीडि़त हो खाने- कमाने के लिए छोटे- बड़े कस्बों अथवा शहरों में चला आता है। श्रीलाल जी ने अपनी रचनाओं में गाँवों की स्थिति का इतना यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है कि पाठक पढ़ते हुए स्वयं को उस कथा का एक पात्र मानने लगता है।
आज जबकि भ्रष्टाचार को लेकर समूचे देश में आंदोलन और बहस का दौर जारी है, तो ऐसे में उनके उपन्यास 'राग दरबारीÓ का याद आना स्वाभाविक ही है। अन्ना हजारे जैसे समाज सेवी अपने भ्रष्टाचार विरोधी अंदोलन के जरिए जनजागरण का जैसा काम वर्तमान में कर रहे हैं, वैसा ही कुछ श्रीलाल शुक्ल ने 30- 40 साल पहले 'राग दरबारी' जैसी रचना के माध्यम से कर दिया था। श्रीलाल शुक्ल अपनी बात बिना लाग- लपेट के सीधी सच्ची भाषा में कहते थे। इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली 'राग दरबारी' जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी। यही कारण है कि गंभीर साहित्यिक कृतियों में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'राग दरबारी' को साठ के दशक से लेकर अब तक का एक रचनात्मक विस्फोट माना जाता है। इस उपन्यास ने पठनीयता के सभी कीर्तिमान तोड़ दिए हैं। तभी तो विलंब से ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिए जाने पर साहित्य जगत में नाराजगी भी व्यक्त की गई, लेकिन यह भी सत्य है कि राग दरबारी भले ही कालजयी बन गया हो पर श्रीलाल जी ने विश्रामपुर का संत से लेकर मकान और राग विराग तक ऐसी अनेक रचनाएं समाज को दी हैं जो हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं जिन्हें किसी भी तरह कमतर करके नहीं आंका जा सकता।
समाज के तिकड़म, संघर्ष और द्वंद्व का जीवंत चित्रण करने वाले श्रीलाल शुक्ल यदि बीमार न होते तो और भी बहुत कुछ लिखते ऐसे में उनका चले जाना साहित्य जगत में एक ऐसी क्षति है जिसे कभी नहीं भरा जा सकता।
जगजीत सिंह
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे आप ता जिंदगी नहीं मिलते हैं लेकिन तब भी वे लोग आपकी रोजाना की जिंदगी का हिस्सा होते हैं। जगजीत सिंह भी ऐसे ही शख्सियत थे जिन्होंने ग़ज़ल को खास लोगों से निकालकर आम लोगों तक पहुंचाया। किसी नाजुक सी शायरी को जब वे अपने सुरीले गले से गाते थे तो लफ्क़ा मानों जिंदा हो उठते थे। उन्होंने गाया था- इश्क कीजिए फिर समझिये...। इन लाइनों को समझने के लिए आपके दिल में इश्क होना चाहिए। जगजीत सिंह को इश्क था ग़ज़लों से। उनकी ग़ज़लों में सुकून भरी रवानगी थी। जगजीत सिंह ने जिंदगी के गमों को झेला था। उन्होंने अपने इकलौते बेटे की मौत अपनी आंखों से देखा था, वह दर्द उनकी ग़ज़लों में झलकता था। भारत में ग़ज़ल की दुनिया में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनका निधन गीत- संगीत की दुनिया के लिए बड़ी क्षति है।

भूपेन हजारिका
एक कवि, संगीतकार, गायक, अभिनेता, पत्रकार, लेखक, निर्माता और यायावर भूपेन हजारिका ने असम की समृद्ध लोक संस्कृति को गीतों के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुंचाया। उनके निधन के साथ ही देश ने कला और संस्कृति के क्षेत्र की एक ऐसी शख्सियत खो दी है, जो ढाका से लेकर गुवाहाटी तक में एक समान लोकप्रिय थी।
भूपेन हजारिका ऐसी विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, जिन्हें पुनर्जागरण का दूत कहा जा सकता है। ऐसे लोगों ने भारत में खासकर 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत की राजनीति, दर्शन और संस्कृति को पुनर्परिभाषित करने और समृद्ध करने में बड़ा योगदान दिया। भारत में उत्तर- पूर्व के प्रति गहरी उपेक्षा और अज्ञान ने अलगाव को जन्म दिया है और इसकी वजह से भारत के लोग वहां की सांस्कृतिक समृद्धि के ज्ञान से वंचित रह गए हैं, ऐसे में भूपेन हजारिका ने जहां असमिया संस्कृति के संवर्धन में अमूल्य योगदान दिया, वहीं असमिया फिल्म उद्योग के आधारस्तंभ भी बनें। यह भी उल्लेखनीय है कि इतने गहरे रूप से असम से जुड़े होने के बावजूद हजारिका की अपनी पहचान एक महत्वपूर्ण अखिल भारतीय प्रतिभा की तरह थी, उन्हें सारे भारतवासी अपना मानते थे। इस मायने में उन्होंने उत्तर- पूर्व और शेष भारत के बीच अपरिचय की खाई को पाटने के काम में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। उनके निधन से हमने एक विचारवान और जनता से जुड़े कलाकार को खो दिया है।

उदंती का यह अंक देश के इन तीन महान रचनाकारों श्रीलाल शुक्ल, जगजीत सिंह तथा भूपेन हजारिका को श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित है। इन कालजयी रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रबुद्ध लेखकों के सहयोग से कुछ विशेष सामग्री एकत्रित करने का प्रयास उदंती के सुधी पाठकों के लिए किया गया है।


-डॉ. रत्ना वर्मा

जीवन परिचय

श्रीलाल शुक्ल
श्रीलाल शुक्ल एक ऐसे व्यंग्य लेखक हैं जिन्होंने 'राग दरबारी' लिखकर साहित्य की दुनिया में तहलका मचा दिया। लेकिन श्रीलाल जी की अन्य रचनाएं विश्रामपुर का संत से लेकर मकान और राग विराग तक सभी ऐसी रचनाएं की हैं जो सभी हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं।
श्रीलाल शुक्ल का जन्म लखनऊ के अटरौली गांव में 31 दिसंबर 1925 को हुआ था, उनकी प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में हुई, जबकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी की और 1949 में वो प्रशासनिक सेवा में आ गए। परिवार में लिखने पढऩे की पुरानी परम्परा थी और श्रीलाल जी 13-14 साल की उम्र में ही संस्कृत और हिंदी में कविता- कहानी लिखने लगे थे।
श्रीलाल शुक्ल के साहित्यिक सफर की ओर देखें तो उपन्यास: सूनी घाटी का सूरज- 1957, अज्ञातवास-1962, राग दरबारी-1968, आदमी का जहर- 1972, सीमाएं टूटती हैं-1973, मकान- 1976, पहला पड़ाव-1987, विश्रामपुर का सन्त-1998, बब्बर सिंह और उसके साथी-1999, राग विराग-2001। व्यंग्य निबंध- अंगद के पांव-1958, यहां से वहां-1970, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें-1979, उमरावनगर में कुछ दिन-1986, कुछ जमीन में कुछ हवा में- 1990, आओ बैठ लें कुछ देर- 1995, अगली शताब्दी के शहर- 1996, जहालत के पचास साल- 2003, खबरों की जुगाली-2005। कहानी संग्रह- ये घर में नहीं-1979, सुरक्षा तथा अन्य कहानियां- 1991, इस उमर में- 2003, दस प्रतिनिधि कहानियां-2003। संस्मरण- मेरे साक्षात्कार- 2002, कुछ साहित्य चर्चा भी- 2008। आलोचना- भगवती चरण वर्मा- 1989, अमृतलाल नागर- 1994, अज्ञेय: कुछ रंग कुछ राग- 1999। संपादन- हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन 2000 आदि प्रमुख हैं।
सम्मान: 1995 में यश भारती सम्मान, 1999 में व्यास सम्मान, भारत सरकार द्वारा 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार। 2009 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें अमरकांत के साथ प्राप्त हुआ।
स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाडऩे वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अंगे्रजी सहित 'राग दरबारी' का अनुवाद 16 अन्य भारतीय भाषाओं में हुआ। उनके इस उपन्यास पर दूरदर्शन- धारावाहिक का निर्माण भी हुआ।
'राग दरबारी' जब प्रकाशित हुई थी तब श्रीलाल शुक्ल की उम्र लगभग तैतालीस साल थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच साल लगे। इसे लिखने के बाद उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये क्योंकि 'राग दरबारी' में शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य था इसलिये एहतियातन उन्होंने अनुमति लेना उचित समझा। उन्होंने शासन को चिट्ठी भी लिखी...। हालांकि इसके पहले भी उनकी कई किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये उन्होंने कोई अनुमति नहीं ली थी। काफी दिनों तक शुक्ल साहब की चिट्ठी का कोई जवाब नहीं आया तो इस बीच उन्होंने नौकरी छोडऩे का मन बना लिया। अज्ञेय जी की जगह दिनमान साप्ताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बाद श्रीलाल जी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र लेकिन व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया जा रहा है। इस पत्र का इतना असर हुआ कि उन्हें तुरंत 'राग दरबारी' के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आलम यह कि आज 'राग दरबारी' राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से एक है।
एक बार जब उनसे ये पूछा गया कि 'राग दरबारी' के लिये उन्हें साहित्यिक मसाला कहां से और कैसे उन्होंने इसका संकलन किया। इस पर श्री लाल शुक्ल जी ने जवाब दिया कि उन्होंने जो देखा वही राग दरबारी का मसाला है। इसमें न तो कुछ जोड़ा गया है और न इसमें कल्पना का रंग भरा गया है। राग दरबारी के प्रकाशन के पहले पांच बार इसे संवारा सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।

राग दरबारी एक गाँव की कथा

- रवीन्द्रनाथ त्यागी
कथावस्तु और लक्ष्य वगैरहा को छोड़ भी दें तो भी राग दरबारी अपने में एक उत्कृष्ट कृति है। वह हिन्दी हास्य व्यंग्य का पहला क्लासिक है। फसानए आजाद की तरह वह हर वाक्य में एक लतीफा छिपाए है, फर्क इतना है कि फसानए आजाद में हास्य ज्यादा है और राग दरबारी में व्यंग्य ज्यादा।
मैं उन बेवकूफों में से हूं जो राग दरबारी नाम की किताब की तारीफ उन दिनों भी करते थे जब कि उसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं प्राप्त हुआ था। सारे प्रयाग में उपेन्द्रनाथ अश्क और मैं शायद दो ऐसे व्यक्ति थे जो हर नदी नाले पर इस किताब की तारीफ के पुल बांधते थे। हमारी इन हरकतों से कुछ लोग काफी दुखी थे। दूधनाथ सिंह को इस बात का बड़ा दुख था कि इतनी अच्छी किताब एक सरकारी अफसर क्यों लिख गया? एक और गुरु थे जो अपने शिष्य को अपने से आगे बढ़ता देख शोक की अग्नि में बड़ी शराफत और संयत के साथ जले जा रहे थे। काफी हाउस में एक समयसिद्ध लेखक पूछ रहे थे कि यह राग दरबारी क्या वस्तु है? जब उन्हें सूचना दी गई कि यह एक उपन्यास है जिसे श्रीलाल शुक्ल ने लिखा है तो वे पूछने लगे कि ये श्रीलाल शुक्ल कौन है? इसके बाद श्रीपतराय ने 'कथा' में इसकी काफी परिश्रम के साथ बुराई की और इसे भयंकर ऊब का महागं्रथ घोषित किया। सरकार का निकम्मापन देखिए कि इस सबसे बावजूद इसे अकादमी पुरस्कार दे दिया गया।
राग दरबारी एक विचित्र प्रकार की पुस्तक है। यह उपन्यास भी है, कथा सरित्सागर भी है और अकबर बीरबल विनोद भी है। यह एक गांव की कथा है जिसके माध्यम से आप देश के बाकी हिस्सों का भी अंदाजा लगाते हैं। जैसा कि रुप्पन बाबू फरमाते हैं, सारे देश में यह शिवपालगंज ही तो फैला हुआ है।
एक महानगर के पास बसे इस गांव में आप रंगनाथ नाम के एक व्यक्ति के साथ प्रवेश करते हैं। रंगनाथ बुद्धिजीवी है। वह प्रत्येक पढ़े लिखे भारतीय की तरह अपने से असंबद्ध घटना को घटना ही की तरह देखता है और बाद में उसे भूल जाता है। उसकी बुद्धि उसे आत्मतोष देती है, बहस करने की तमीज सिखाती है, दूसरों को क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए- इस पर भाषण कराती है और इस संदर्भ के मामले में उनकी अपनी क्या जिम्मेदारी है- इस बेहूदा विचार से उसको कोसों दूर रखती है।
गांव के नेता एक वैद्यजी हैं। वे पगड़ी बांधते हैं, मुंछें रखते हैं, भंग छानते हैं, पैसा गबन करते हैं, बोलचाल में शुद्ध शास्त्रीय हिन्दी का प्रयोग करते हैं और सारा काम करटक और दमनक की तर नीति से करते हैं। वे किसी को नाखुश नहीं करते, किसी का अपमान नहीं करते, सारा काम कायदे कानून से करते हैं मगर कुछ इत्तेफाक ऐसा है कि जो कुछ करते हैं वह हरामीपन और कमीनगी से भरा होता है। वे आधुनिक नेतागिरी के साक्षात प्रतीक हैं। इसके बाद सिर्फ यह कहना बचता है कि खुदा हर जगह अपने गधों को जलेबियां खिला रहा है और हर एक शाख पर एक- न- एक उल्लू बैठा जरूर है। वैद्यजी के कारण वह सारी राजनीति उस गांव में खेली जा रही है जिसके कारण बड़े- बड़े निगम और आयोग उठते हैं और गिरते हैं। वहीं दांवपेंच और पैंतरेबाजी जो और जगह लोगों को मंत्री बनाती है वह यहां कच्चेे माल के रूप में इफरात से फैली पड़ी है।
गांव की इसी राजनीति का चित्रण एक इंटर कालेज के माध्यम से करना इस पुस्तक की प्रमुख कथावस्तु है। मगर जरूरी चीज कथावस्तु नहीं है- लेखक के बड़े लक्ष्य के सामने वह गौण हो जाती है। अपने पात्रों के माध्यम से वह जिस तरह सारी स्थिति का पर्दाफाश करता है वह साहित्य में एक बड़ी उपलब्धि है।
कथावस्तु और लक्ष्य वगैरहा को छोड़ भी दें तो भी राग दरबारी अपने में एक उत्कृष्ट कृति है। वह हिन्दी हास्य व्यंग्य का पहला क्लासिक है। फसानए आजाद की तरह वह हर वाक्य में एक लतीफा छिपाए है, फर्क इतना है कि फसानए आजाद में हास्य ज्यादा है और राग दरबारी में व्यंग्य ज्यादा। जहां तक शिल्प और भाषा वगैरहा का प्रश्न है, यह काफी संयमित और सुगठित गद्य का नमूना पेश करती है। हिन्दी गद्य में इतना अनुशासन बहुत कम देखने को मिलता है। कितनी काट- छांट श्रीलाल शुक्ल ने की होगी- इसका अंदाजा लगाना कठिन है।
अगर किताब में कुछ कमियां न बताई गर्इं तो आप लोग मेरी नीयत पर शक करेंगे। किताब में कुछ खामियां भी हैं। पहली बात तो यह कि पुस्तक एकदम निराशावादी है। सारे गांव में लगंड़ के अलावा कोई और ईमानदार इंसान नहीं है और लगंड़ जो है वह 'दो नगरों की कथा' में स्वेटर बुनने वाली स्त्री की तरह पाश्र्व में हमेशा रोता ही रहता है। सब कुछ होने के बावजूद गांव में या शहर में शराफत बची ही न हो- यह कम से कम मैं नहीं मान सकता क्योंकि मैं खुद अपने को भी काफी शरीफ इंसान समझता हूं। प्रकाशचंद गुप्त ने एक बार मुझसे राग दरबारी की तुलना में मिसमेयो की मदर इंडिया का नाम लिया था जिसे गांधी जी ने डे्रन इंसपेक्टर की रिपोर्ट करार किया था। दूसरी कमी है किताब में मलमूत्र का इतना ज्यादा प्रयोग। श्रीलाल शुक्ल ने इस दिशाकर्म में कुछ अति की है जिसके बारे में सुमित्रानंदन पंत भी एक दिन दबी जुबान में मुझसे कुछ कह रहे थे। किताब में हर पेज पर कहीं कोई तीतर लड़ाने की मुद्रा में बैठा है, कहीं कोई पतलून खोलकर पानी गिरा रहा है, या ठोस द्रव और गैस का उत्पादन कर रहा है। इस संदर्भ में श्रीलाल कहते हैं कि सच्चा हिन्दुस्तानी वही है जो कहीं भी पान खाने का इंतजाम कर ले और कहीं भी पेशाब करने की जगह ढूंढ ले। पुस्तक की तीसरी कमी है कि वह इन्टर कालेज के छोटे कैनवास पर जरूरत से ज्यादा घूमती है। दरबार का एक छोटा टुकड़ा ही किताब में पकड़ा गया, हालांकि उस पर ही पूरा राग बन गया। आखिरी कमी किताब की यह है कि हम लोगों के रहते श्रीलाल शुक्ल को इतनी अच्छी किताब लिखने का कोई हक नहीं था। एक बात शायद यह भी कहने लायक है कि राजनीति में दांवपेंचों की पकड़ में वे परसाई से पीछे पड़ते हैं। (व्यंग्य यात्रा: अक्टूबर- दिसंबर 2008 से साभार)

संपर्क -अशोक त्यागी, 7908 डीएलएफ, फेज-4, गुडग़ांव- 122002

श्रीलाल शुक्ल की कहानी, उन्हीं की जुबानी

साहित्य अकादमी पुरस्कार के अवसर पर दिया गया उनका लेखकीय वक्तव्य
मुझसे मेरे साहित्यिक कॅरियर और विचारों पर एक लेख देने को कहा गया है। विचार मांगे जाने में यह पूर्व मान्यता निहित है कि (साहित्य) अकादमी पुरस्कार विजेता लेखक कुछ वैसा करने में सक्षम है जिसे हेमिंग्वे 'थिंक पीस' कहते। एक रचनात्मक लेखक के रूप में मुझे चिंतनशील अथवा पांडित्यपूर्ण ध्वनित होने का कोई प्रयास आडंबर लगता है और वह अपनी कमियों के प्रति मेरी जानकारियों में इजाफा भी करता है। रचनात्मक लेखन का एक महान सुख अपने लेखन में दृष्टिकोण के पूर्वअभाव का कोई संदेह जगाए बिना अपने विचारों के बारे में मोहक ढंग से अस्पष्ट रहने में है। इसलिए मैंने दूरदर्शिता और सिद्धांत दोनों दृष्टियों से सदैव यह महसूस किया कि लेखक को भद्र मेमने की भूमिका निभाने और अपने को जिबह किए जाने के काम में इच्छापूर्वक सहयोग देने से यथासंभव बचना चाहिए। लेकिन, यदि पाठकों में मेरे साहित्यिक काम को लेकर कोई जिज्ञासा है तो उसका समाधान मैं अवश्य करना चाहूंगा। यदि किशोरावस्था के अनाचार शुमार न किए जाएं तो साहित्य में मेरे प्रयोग 27 साल की काफी परिपक्व अवस्था से शुरू हुए (सिविल सर्वेंट की हैसियत से मेरा कॅरियर पहले ही शुरू हो गया था)। यह 1953-54 की बात है।
उस समय मैं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में राठ नामक परम अविकसित क्षेत्र के एक डाकबंगले में रहता था और एक बैटरी वाला रेडियो, दो राइफलें, एक बंदूक, एक खचड़ा ऑस्टिन, मुट्ठी भर किताबें- ज्यादातर रिप्रिंट सोसायटी के प्रकाशन- एकाध पत्रिकाएं, कभी शिकवा न करने वाली बीवी और दो बहुत छोटे बच्चे, जिन्होंने स्थानीय बोली के सौंदर्य के प्रति उन्मुख होना भर शुरू किया था, यही मेरे सुख के साधन थे। एक दिन, आकाशवाणी के एक नाटक का धुआंधार (जो आकाशवाणी के नाटकों में हमेशा बलबलाता रहता है) झेलने में अपने को बेकाबू पाकर और लगभग हिंसात्मक विद्रोह करते हुए मैंने 'स्वर्णग्राम और वर्षा' नामक लेख लिखा और उसे धर्मवीर भारती को भेज दिया।
आकाशवाणी के उस वर्षा संबंधी नाटक पर मेरी प्रतिक्रिया रेडियो सेट उठाकर पटक देने के मुकाबले कम हानिकर थी। बहरहाल वह लेख छपा 'निकष' में, जो तत्कालीन हिंदी लेखन में एक विशेष स्तर की प्रतिभा के साथ उसी स्तर की स्नॉवरी से जुड़कर निकलने वाला एक नियतकालीन संकलन था। इसके बाद ही भारती से कई जगह पूछा जाने लगा कि श्रीलाल शुक्ल कौन हैं। विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती और केशवचंद्र वर्मा पुराने मित्र थे और उस समय तक लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। इन तीनों ने तय किया कि अब मुझे ऊबे हुए सिविल सर्वेंट की तरह रहना छोड़कर एक लेखक की प्रतिष्ठा के अनुरूप जीवन जीना चाहिए। दफ्तरी भाषा में, मुझे एक मौका दिया गया था, मुझे इसका लाभ उठाने में कोई कसर उठा नहीं रखनी चाहिए - अंग्रेजी की कहावत के अनुसार कोई पत्थर अनपलटा न छोड़ा जाए। जो पहले पत्थर मैंने पलटे वे थे कहानियां। लेकिन जल्दी ही मैं समझ गया कि यह विधा मेरे लिए बड़ी कठिन और श्रमसाध्य है। उस समय के फैशन, जो कुछ हद तक अब भी चलन में हैं, के आधार पर देखा जाए तो कहानी लेखक के काम के लिए जो अहर्ताएं जरूरी थीं, वह थीं- लेखन के साथ- साथ यह दावा करने की अत्यंत मुखर इच्छा कि वह नई जमीन तोड़ रहा है, अपने लेखन के विपणन, समीक्षा और प्रति समीक्षा के बारे में विपुल पत्राचार की क्षमता तथा किसी साहित्यिक आंदोलन का नेतृत्व करने अथवा किसी भी तरह उसमें शामिल होने या उसका विरोध करने की अथवा उससे इस ढंग से दूर रहने की प्रवृत्ति जो अंतत: उसमें शामिल होने या उसका विरोध करने के समान ही हो। संक्षेप में, हिंदी में कहानी लिखने के लिए उस समय जरूरी था ऊर्जा और एक लड़ाकू भावना का सतत प्रदर्शन। मेरे पास ये दोनों पर्याप्त मात्रा में थीं, लेकिन मेरे पेशे में मुझे इनका कम से कम इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया था।
इसलिए मैंने कहानी के बजाय उपन्यास लिखने शुरू किए और कुछ विनोदपूर्ण लघु रचनाएं भी जो अब लगातार अधिकाधिक अग्रसर होने का खतरा दिखा रही हैं। क्यों? इस सवाल का जवाब तो समीक्षक ही ढूंढ़ सकते हैं। मुझे डींग हांके जा सकने लायक संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा। इसके विपरीत, साहित्य जगत ने प्रोत्साहन, सहृदयता और मुझे लगता है, स्नेह से मुझे स्वीकार किया। अब तक मैंने तीन उपन्यास लिखे हैं- इन सभी को उन्होंने प्रकाशित किया है जो यह जानने के लिए जाने जाते हैं कि प्रकाशन क्या है और सौ से अधिक लेख, कहानियां और रेखाचित्र लिखे हैं जिन्हें प्राय: एक 'व्यंग्यात्मक लेखन' का एक सुविधाजनक नाम दे दिया गया है। इनमें से अधिकांश 1958 तथा 1969 में प्रकाशित मेरे दो संकलनों में आ चुके हैं। मुझे आशा है कि प्रत्यक्षत: मेरी लगभग एक सुव्यवस्थित लेखक की हैसियत है और सभी लेखकों की तरह मैं अनतिदूर भविष्य में एक सचमुच अच्छी किताब लिखने की अपेक्षा करता हूं। किसी दिन मैं कहानी लिखने का दुष्कर काम दोबारा कर सकता हूं या कौन जाने नाटक भी।

जीवन का एक सुखी दिन

-श्रीलाल शुक्ल
जीवन का एक सुखी दिन लगभग 45 साल पुरानी रचना है। उस दिन के सुखों में एक ऐसा ही सुख है जिसमें बस कंडक्टर एक रुपए का नोट लेकर पूरी-की- पूरी रेजगारी वापस कर देता है और टिकट की पुश्त पर इकन्नी का बकाया नहीं लिखता। जाहिर है कि रचना उन दिनों की है जब इकन्नी भी आदान- प्रदान में एक महत्वपूर्ण सिक्के की भूमिका निभाती थी। संपादक महोदय (डॉ. प्रेम जनमजेय) ने मुझसे प्रत्याशा की है कि पुन: प्रकाशन के लिए अपनी किसी श्रेष्ठ रचना का चयन कर दूं। मेरी श्रेष्ठ रचनाएं बहुत कम हैं और जो होंगी भी उन पर भरोसा नहीं है। उन्हें दूसरे लोग ही जानते होंगे, मैं उतना विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता। फिर भी, यह रचना चुनने के कुछ कारण हैं। एक तो यही कि यह लंबी नहीं है और पाठक के लिए इसे पढ़ते हुए अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। दूसरा कारण यह है कि यह रचना मुझे पसंद है। मेरी अपेक्षाकृत कम खराब रचनाओं में से है। तीसरी बात यह है कि अनजाने ही सहज उक्तियों के सहारे सीधी- सादी भाषा में एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति का इसमें जो चरित्र उभरता है वह दिखावट, दम्भ अपने को अनावश्यक रूप से चतुर मानने की प्रवृत्ति और जीवन की छोटी- छोटी झुंझलाहटों को भुलाकर शहीद बनने की टिपिकल स्थिति है जो मध्यमवर्गीय चरित्र की अपनी विशेषता है। यह भी लक्ष्य किए जाने योग्य है कि यह रचना भारत में बाजारवाद के विकास के बहुत पहले की है और मध्यमवर्गीय चरित्र के प्रति जो संकेत दिए गए हैं वही आज अपने विराट स्वरूप में विकसित हो रहे हैं। रचना का अंत एक स्वल्प बुद्धिजीवी की उस अपरिहार्य परिस्थिति से होता है जिसका नाम पागलपन है। फर्क यह है कि यहां हमारा मुख्य पात्र खुद पलायन नहीं करता बल्कि उस उत्सवभाव का आनंद उठाता है कि उसके दूसरे मित्र अगले दिन उसे अकेला छोड़कर पिकनिक पर जाने वाले हैं। यह तो सरसरीतौर पर मेरी अपनी प्रतिक्रियाएं हैं। पाठक अगर चाहें तो इस रचना में इस तरह की कई और बहुत सी खूबियाँ खोज सकते हैं। और, अंत में निष्कर्ष तो स्पष्ट है ही कि इन सबसे छोटी- छोटी कृपाओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद- गॉड मे बी थैंक फॉर स्माल मर्सीज़।
बड़े लंबे- चौड़े रोबदार बुजूर्ग का न था। वह दुबला पतला था और नौसिखिया- सा दिखता था। पड़ोस की मेजों पर न कुछ मसखरे नौजवान थे, न फैशनेबल लड़कियां थीं। न हंसी के ठहाके थे, न कोई मुझे घूर रहा था, न कोई मेरे बारे में कानाफूसी कर रहा था। रेस्तरां में भीड़ न थी पर इतने लोग थे कि काउंटर के पीछे से मैनेजर सिर्फ हमीं को नहीं, औरों को भी देख रहा था। हमारे चलने के पहले पास की मेज पर दो गंभीर चेहरे वाले आदमी आ गए और जब मैंने आपसी बातचीत में 'एक्शिस्टेंशिएलिज्म' का अनावश्यक जिक्र किया, तब उन लोगों ने निगाह उठाकर मेरी ओर देखा था। रेस्तरां के बाहर आने पर मेरा एक परिचित बीमा- एजेंट सड़क के दूसरी ओर जाता हुआ दिख पड़ा, पर उसने मुझे देखा नहीं। इसके बाद अचानक ही मुझे तीन परिचित आदमी मिल गए। उन्होंने नमस्कार किया और उसका जवाब पाया। मेरे मित्र को कोई परिचित आदमी नहीं मिला।
घर वापस आकर मैंने श्रीमती जी से सिनेमा चलने का प्रस्ताव किया पर उन्होंने क्षमा मांगी और कहा कि उन्हें लेडीज क्लब जाना है। इसलिए मैं पूर्व निश्चय के अनुसार अपने एक मित्र के साथ सिनेमा देखने चला गया। सिनेमा का टिकट खिड़की पर ही मिला और असली कीमत पर मिला। पंखे के नीचे सीट मिल गई। सिनेमा शुरु होने के पहले साबुन, तेल और वनस्पति घी के विज्ञापन वाली फिल्में नहीं दिखाई गई। पास की सीट के किसी ने सिगरेट के धुएं की फूंक मेरे मुंह पर नहीं मारी। पीछे बैठने वालों में किसी ने अपने पैर मेरी सीट पर नहीं टेके। अंधेरे में किसी ने मेरा अंगूठा नहीं कुचला। हीरो की मुसीबत पर किसी पड़ोसी ने सिसकारी नहीं भरी। हिंदी की फिल्म थी, फिर भी वह अठारह रील पूरी करने के पहले ही खत्म हो गई। सिनेमा से बाहर आने पर कई रिक्शेवालों ने मिलकर मुझ पर हमला नहीं किया। रिक्शा करने पर मजबूर हुए बिना ही मैं पैदल वापस लौट आया। रात में सुनसान सड़क पर मेरे पैदल चलने पर भी कोई साइकिल वाला मुझसे नहीं टकराया, किसी मोटर वाले ने मुझे गाली नहीं दी, किसी पुलिस वाले ने मेरा चालान नहीं किया।
घर आकर खाना खाने बैठा तो उस वक्त रुपए की कमी पर कोई घरेलू बातचीत नहीं हुई। नौकर पर गुस्सा नहीं आया। बातचीत के दौरान मैं श्रीमतीजी से साहित्य- चर्चा करता रहा, यानी अपने साथ के साहित्यकारों को कोसता रहा। वे दिलचस्पी से मेरी बातें सुनती रहीं और मेरे टुगोपन को नहीं भांप पाईं।
घर के चारों ओर शांति थी। किसी भी कमरे में बिना मतलब बल्ब नहीं जल रहा था, न बिना वजह किसी नल का पानी बह रहा था, न दरवाजे पर कोई मेहमान पुकार रहा था, न रसोईघर में किसी प्लटे के टूटने की आवाज हो रही थी, न रेडियो पर कोई कवि सम्मेलन आ रहा था, न पड़ोस में लाउडस्पीकर लगाकर कीर्तन हो रहा था। और सबसे बड़ी बात यह कि कल आने वाला दिन इतवार था, उस दिन मेरे सभी उत्साही मित्र शहर से कहीं दूर, पिकनिक पर चले जाने वाले थे।
(व्यंग्य यात्रा : अक्टूबर- दिसंबर 2008 से साभार)

पहला पड़ाव और छत्तीसगढ़

यह वर्ष 1994 की बात है जब लखनऊ में 'रागदरबारी' जैसे कालयजी उपन्यास के लेखक श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी भेंट हुई। मुझे उन्हीं के हाथों लखनऊ में व्यंग्य के लिए दिया जाने वाला अट्टहास सम्मान भी प्राप्त हुआ था। आयोजन के बाद मैंने उनसे कहा था 'मैं आपसे मिलने आना चाहता हूं।' 'जरुर॥' फिर उन्होंने अपने घर आने का नक्शा बताया। तब उनसे साढ़े तीन घण्टों तक बातचीत का लम्बा सिलसिला चला था। इसी बातचीत में उन्होंने अपने उपन्यास 'पहला पड़ाव' के बारे में भी विस्तार से बात की थी। इस चर्चा में उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ कैसे उनके उपन्यास के केन्द्र में आया और यह भी कि इसका दूसरा भाग लिखने के लिए वे छत्तीसगढ़ का अध्ययन करना चाहते हैं। वे तो चले गए पर धरोहर के रूप में आज भी मेरे पास उनकी और उनकी पत्नी श्रीमती गिरिजा शुक्ल की तस्वीरें संजो कर रखी हैं। उस महान हस्ती को याद करते हुए मैं बातचीत के उन कुछ हिस्सों को आप सबके साथ बांटना चाहता हूं.

- विनोद साव
श्रीलाल शुक्ल का एक उपन्यास है 'पहला पड़ाव'। इस उपन्यास में छत्तीसगढ़ से उत्तर प्रदेश कमाने खाने आए मजदूरों की कथा केन्द्र में है। श्रीलाल शुक्ल कहते हैं कि 'मैं इस उपन्यास का दूसरा भाग लिखना चाहता था... पर इसके लिए कुछ तैयारी करनी थी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र का अध्ययन करना था। सैकड़ों वर्षों पहले वहां एक महात्मा घासीदास हुए थे जिन्होंने उस क्षेत्र के सम्पूर्ण वर्ग को संगठित करके उनके द्वारा जो अनेक पारम्परिक कार्य कराये जाते थे उनसे उन्हें विलग कराया था। परिणाम स्वरुप वहां के भूमिघरों ने उन्हें अपने खेतों से निकाल दिया और वे काम की तलाश में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब तक फैल गए।
लेकिन तब भी गांव में उनकी जड़े बनीं रहीं। उसी पुराने आंदोलन के कारण उनमें आज भी शराबखोरी आदि की आदतें बहुत कम हैं। सचमुच विस्थापितों का यह अत्यंत आश्चर्यजनक समुदाय है। इस पर यदि कथा रचनी है तो जाहिर है कुछ बुनियादी तैयारियां करनी होंगी। अध्ययन, शोध की जरुरत होगी, जो मैं नहीं कर सका।'
छत्तीसगढ़ के सौंदर्य का चित्रण:
'पहला पड़ाव' की नायिका जसोदा है जो छत्तीसगढ़ से गई है, उसके आकर्षक व्यक्तित्व के कारण उपन्यास के अन्य पात्र उसे 'मेमसाहब' कहते हैं।
इस नायिका की सुन्दरता का चित्रण श्रीलाल शुक्ल ने बड़े सौन्दर्य बोध के साथ किया है इस तरह 'मेमसाहब का दिल ही मुलायम नहीं था उनमें और भी बहुत कुछ था। उनकी आंखें बड़ी- बड़ी और बेझिझक थीं, भौंहें बिलकुल वैसी, जैसी फैशनेबुल लड़कियां बड़ी मेहनत से बाल प्लक करके और पेंसिल की मदद लेकर तैयार करती थीं। रंग गोरा, गाल देखने में चिकने- छूने में न जाने और कितने चिकने होंगे, कद औसत से ऊंचा, पीठ तनी हुई, और दांत जो मुझे ख़ासतौर से अच्छे लगते, उजले और सुडौल। उनके बाल कुछ भूरे थे। मेमसाहब की उपाधि उन्हें अच्छी बातचीत के हाकिमाना अंदाज से नहीं, गोरे चेहरे और इन लंबे-घने-भूरे बालों के कारण मिली थी।'

संपर्क- मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001, मो. 9407984014


दिल हूम हूम करे ... भूपेन हजारिका


- सुप्रिया रॉय
भूपेन हजारिका कई भाषाओं में गाते रहे है, असमिया में अपने गीत और कविता लिखते रहे हैं। भूपेन हजारिका सही मायनों में सांस्कृतिक राजदूत के रूप में विदेशों में भारत की छबि पेश करते रहे। वे व्यापक रूप से मास कम्युनिकेशन, काव्य, संगीत, कला प्रदर्शन के सप्त सुरों में मंजे हुए कलाकार थे।
डॉ.भूपेन हजारिका भारत की सांस्कृतिक विरासत के दिग्गज हस्ताक्षर रहे हंै। उनकी आवाज में जो बंजारापन था वह उनको लोककला का चितेरा बनाता था। उनके संगीत में लोक संस्कृति की, माटी की सौंधी खुशबू थी। बीते महीने प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह के निधन के बाद संगीत जगत सूनेपन की धुन्ध से निकल नहीं पाया था कि 5 नवंबर को भूपेन हजारिका के देहावसान की खबर ने भारतीय संगीत जगत को एक नए अवसाद का सुर दे दिया।
दादासाहब फाल्के पुरस्कार विजेता हजारिका ने एक साक्षात्कार में कहा था मैं लोकसंगीत सुनते हुए ही बड़ा हुआ और इसी के जादू के चलते मेरा गायन के प्रति रुझान पैदा हुआ। मुझे गायन कला मेरी मां से मिली है, जो मेरे लिए लोरियां गातीं थीं। मैंने अपनी मां की एक लोरी का इस्तेमाल फिल्म रुदाली में भी किया है।
अद्भुत प्रतिभा वाले इस कलाकार का जन्म 8 सितंबर, 1926 को भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम के सादिया में शिक्षकों के एक परिवार में हुआ। केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा तेजपुर से की और आगे की पढ़ाई के लिए गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में दाखिला लिया। यहां उन्होंने अपने मामा के घर में रह कर पढ़ाई की। इसके बाद 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से इंटरमीडिएट किया और फिर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। वहां से उन्होंने 1946 में राजनीति विज्ञान में एमए किया। इसके बाद न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। अमेरिका में उनका परिचय पॉल रॉब्सन से हुआ और बाद में दोनों के बीच अच्छी मित्रता हो गई। रॉब्सन का काफी असर भूपेन हजारिका पर दिखता है। रॉब्सन का संभवत: सबसे चर्चित गीत 'ओल मैन रिवर' है, जिसमें एक अश्वेत नाविक मिसिसिपी नदी के रूपक से अपनी व्यथा कहता है। भूपेन हजारिका जिस गाने से भारत भर में चर्चित हुए, वह 'गंगा' है और यह गाना एक तरह से 'ओल मैन रिवर' का भारतीय रूपांतरण है। हजारिका ने इस गीत को बांग्ला और असमिया में भी गाया है, असमिया में यह नदी ब्रह्मपुत्र है। इसी तरह अपने कई असमिया गीतों का हिंदी रूपांतरण हजारिका ने किया, जिनमें गहरी सामाजिक चेतना है। विभिन्न भाषाओं की तीस से ज्यादा फिल्मों से वह गायक, संगीतकार, गीतकार, लेखक या निर्माता की तरह जुड़े रहे हैं।
भूपेन हजारिका ने 1939 में एक बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में अपने कैरियर की शुरुआत की थी और 10 साल की उम्र में अपना पहला गीत गाया था जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। असमिया भाषा की फिल्मों से भी उनका नाता बचपन में ही जुड़ गया था। उन्होंने असमिया भाषा में निर्मित दूसरी फिल्म इंद्रमालती के लिए 1939 में काम किया। असमी भाषा के अलावा हजारिका ने 1930 से 1990 के बीच कई बंगाली और हिंदी फिल्मों के लिए गीतकार, संगीतकार और गायक के तौर पर काम किया।
वे कवि, संगीतकार, गायक, अभिनेता, पत्रकार, लेखक और बहुत उच्चतम ख्याति के फिल्म निर्माता रहे हैं। भूपेन दा की रचनाओं की वेदना की गहराई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है एक दफा जब वे नागा रिबेल्स से बात करने गए तो आपनी एक रचना श्मानुहे मनोहर बाबेश को वहां के एक नागा युवक को उन्हीं की अपनी भाषा में अनुवाद करने को कहा और जब उन लोगों ने इस गीत को सुना तो सभी के आंखों में आँसू आ गए। भूपेन दा के इस गीत के बंगला अनुवाद श्मानुष मनुषेरे जन्में, को बीबीसी की तरफ से साँग्स ऑफ द मिलेनियम के खिताब से नवाजा गया। सिनेमा में उनकी लोकप्रियता के कारण 1967-1972 के लिए एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में विधानसभा के लिए चुने गए।
कई असमिया, बंगाली और 1930 के दशक से 1990 के दशक तक हिंदी फिल्मों के लिए भूपेन हजारिका संगीत देते रहे हैं और पिछले 40 वर्षों में असमिया फिल्मों के सर्वोच्च शिखर रहे हैं। उन्होंने बंगाली फिल्मों में भी संगीत का निर्देशन किया तृष्णा, कारी ओ कोमल, दंपति, चमेली मेमसाब और उनकी लोकप्रिय हिंदी फिल्मों में लंबे समय की उनकी साथी कल्पना लाजमी के साथ की रुदाली, एक पल, दरमियां, दमन और क्यों शामिल हैं। रुदाली फिल्म का गीत दिल हुम हुम करे... बहुत लोकप्रिय हुआ।
भूपेन हजारिका की लोकप्रियता इतनी जबरदस्त रही है कि उन्होंने पिछले 50 वर्षों तक पूर्वोत्तर को मुग्ध किये रखा। उनको 1991 में अपने गायन कैरियर की स्वर्ण जयंती के लिए सम्मानित किया गया। वे असम के कवियों में से एक रहे हैं और उन्होंने एक हजार से अधिक गीत, कविता और बाल गीत गाया है तथा पन्द्रह से अधिक पुस्तकें लिखी हैं।
छियासी साल के हजारिका को 1992 में सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया। इसके अलावा उन्हें नेशनल अवॉर्ड एज दि बेस्ट रीजनल फिल्म (1975), चमेली मेमसाब के संगीतकार के तौर पर 1976 में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार दिया गया। फिल्म शकुंतला, प्रतिध्वनि और लोटीघोटी के लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार भी दिया गया। भारत के ग्रामोफोन कम्पनी ने भारतीय संगीत की दिशा में उत्कृष्ट योगदान के लिए 1978 में उसे गोल्ड डिस्क दिया। 1967 से 1972 के बीच असम विधानसभा के सदस्य रहे हजारिका को 1977 में पद्मश्री 2011 में पद्म भूषण, 2009 में असोम रत्न और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड (2009) जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उनके संगीत में समग्र योगदान के लिए लता मंगेशकर पुरस्कार दिया गया था।
हजारिका ने हमें दिल हूम हूम करे.., ओ गंगा बहती हो.., बीते ना बीते ना रैना कोरे हैं नींद से नैना.. जैसे गाने दिए मगर उनका अपना पसंदीदा गीत श्मोई एती जाजाबोरश् (मैं तो यायावर यानी घुमक्कड़ हूं) था। भूपेन हजारिका की लंबे समय तक साथी रहीं फिल्मकार कल्पना लाजमी ने हजारिका के निधन के बाद उन्हें अद्वितीय शख्सियत बताया और कहा कि वह अद्वितीय थे.. हमें दूसरे हजारिका नहीं मिल सकते.. उन्हें याद करते हुए कल्पना ने कहा कि मेरा उनके साथ 29 साल से संपर्क था। मैंने अपने पिता, भाई, प्रेमी, पति, दोस्त, मार्गदर्शक और सलाहकार को खो दिया है।

संपर्क- डी 598 ए सी आर पार्क नई दिल्ली- ११००१९, मो. 9811162227
Email: supriya.roytomar@gmail.com

मेरी साँसों में संगीत है...

यह मेरे जीवन का 76वाँ वर्ष है। मैं आज भी हर रोज संगीत को नए- नए स्वरूपों में खेजता हूँ। मेरी रगों में दौडऩे वाला लहू संगीत है। श्वास के रूप में जो हवा मैं लेता हूँ वह संगीत है। मेरे लिए संगीत हर जगह मौजूद है। संगीत ही सब कुछ है। मेरा जन्म पूर्वोत्तर में हुआ। ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त उस सुंंदर भूमि की हर ध्वनि में संगीत है। उस भूमि के टेड़े-मेड़े रास्ते भी संगीत हैं। वहाँ के लोगों की आत्मा संगीत है। वे सब ध्वनियाँ मेरे भीतर मौजूद हैं। मैं उन्हीं का हिस्सा हूँ। जीवन के इसी मोड़ पर मैं सिनेमा में पहुँच गया। मैं अपनी प्रत्येक धुन में लोक संगीत में मौजूद माटी की सुगंध, शास्त्रीय संगीत की जटिलता और वैश्विक संगीत की जीवंतता का मिश्रण करने का प्रयत्न करता हूँ। यही मेरी संगीत यात्रा है। आइए, आने वाले कल के लिए हम संगीत के कालजयी होने का लाभ उठाएँ। एक नया संयोजन, एक नया मिश्रण, नया संगीत बनाएँ। नई शक्ति का निर्माण करें। वह संगीत हमारी आत्मा को मधुरता प्रदान कर उजाला फैलाए। उजाला स्वतंत्रता का, शांति का और प्रसन्नता का।
(इन्दौर में लता मंगेशकर अलंकरण के अवसर पर 18 फरवरी, 2001 को व्यक्त भूपेन हजारिका के विचार)
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सुर के पंछी

- भूपेन हजारिका
एक सुर
दो सुर, सुर के पंछियों का झुण्ड
झुण्ड के झुण्ड सुर बसेरे बनाते हैं
मन- शिविर में
आवाजाही जारी रहती है
शब्द का पताका तूफान
कुछ लोग गीतों के जरिए
सामने आते हैं
कण्ठरुद्घ प्रकाश
कण्ठहीन कण्ठ से
अनगिनत अन्तराएं
आबद्घ होता है नाद ब्रह्म
एक सुर दो सुर
सुर के पंछियों का झुण्ड
शून्य में उड़ता है
विसर्जन की प्रतिमा की तरह

गीत- संगीत का जादूगर

भूपेन हजारिका के गायन की शुरूआत कैसे हुई इसका एक दिलचस्प वाक्या है घटना तब की है जब वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। गीत- संगीत का शौक तो था ही एक दिन वे अपने हॉस्टल के कमरे में बैठे भजन गुनगुना रहे थे। तभी सेठ घनश्याम दास बिड़ला वहां से गुजरे उन्होंने उनका भजन सुना और वे ठिठक गए। भजन खत्म होने पर वे उनके पास गए और पहले तो उनके बारे में उनसे पूछताछ की फिर 50 रुपये के कड़कड़ाते हुए नोट उन्हें देते हुए उनके भजन की प्रसंशा की और आशीर्वाद दिया कि खूब रियाज़ करो और बढिय़ा गाओ, देखना तुम एक दिन महान गायक बनोगे, दुनिया में तुम्हारा नाम होगा। घनश्याम दास जी के वचन सत्य सिद्ध हुए। कॉलेज में अपने शौक पूरा करने के लिए भजन गुनगुनाने वाला युवक भूपेन आगे चलकर महान गायक और संगीतकार बना। और दुनिया भर में भारत का नाम रोशन किया।
भूपेन की गायकी से जुड़ा एक और मजेदार वाक्या है। एक बार उन्हें कॉलेज में आए नए विद्यार्थियों के लिए रखे गए स्वागत समारोह में एक भाषण पढऩा था। भूपेन के पिता ने उन्हें वो भाषण लिख कर भी दिया था। लेकिन स्टेज पर आते ही भूपेन वह भाषण भूल गए और वहां उन्होंने एक गाना सुनाया। वहां उपस्थित सभी लोगों को भूपेन ने अपने गाने से मंत्रमुग्ध कर दिया और वो अपने कॉलेज में लोकप्रिय हो गए। फिर भूपेन ने संगीत से जुड़ी कई पुस्तकों का अध्ययन किया। धीरे- धीरे संगीत के क्षेत्र में खुद को स्थापित किया इसके बाद तो उनके गीत- संगीत का जादू ऐसे गूंजा कि पूरी दुनिया में उनकी आवाज गूंजने लगी।

मेरी आँखों ने चुना है तूझको...

ग़ज़ल सम्राट के नाम से विख्यात जगजीत सिंह के मखमली स्वर पिछले माह 10 अक्टूबर को मौन हो गए। जगजीत सिंह का जन्म 8 फरवरी, 1941 को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। जन्म के बाद परिवार वालों ने उनका नाम जगमोहन रखा था जो बाद में पारिवारिक ज्योतिष की सलाह पर बदल कर जगजीत कर दिया गया था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकारी कर्मचारी थे। जगजीत सिंह का परिवार मूलत: पंजाब के रोपड़ जिले के दल्ला गाँव का रहने वाला है। उनकी प्रारम्म्भिक शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में माध्यमिक शिक्षा के लिए जालन्धर आ गए। डी.ए.वी. कॉलेज से स्नातक की और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। जगजीत सिंह को अपने पिता से संगीत विरासत में मिला था। गंगानगर में ही पण्डित छगनलाल शर्मा से दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखा। बाद में सेनिया घराने के उस्ताद जमाल खाँ से ख्याल, ठुमरी और ध्रुवपद की बारीकियाँ सीखीं। जगजीत सिंह द्वारा प्रस्तुत किये गए अधिकतर ग़ज़लों, गीतों और भजनों में रागों का स्पर्श स्पष्ट परिलक्षित होता है। राग दरबारी और भैरवी उनके प्रिय राग थे। आगे चल कर उन्होंने ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में नये प्रयोग किए और सफलता के परचम लहराए।
जगजीत सिंह ने ग़ज़लों को जब सरल और सहज अन्दाज़ में गाना आरम्भ किया तो जनसामान्य की अभिरुचि ग़ज़लों की ओर बढ़ी। उन्होंने हुस्न और इश्$क से युक्त पारम्परिक ग़ज़लों के अलावा साधारण शब्दों में ढली आम आदमी की जिंदगी को भी अपने सुरों से सजाया। जैसे- 'ये दौलत भी ले लो...', 'माँ सुनाओ मुझे वो कहानी...'। पुरानी ग़ज़ल गायकी शैली में जगजीत सिंह ने सारंगी के स्थान पर वायलिन को अपनाया। उन्होंने गिटार और सन्तूर को भी जोड़ा। 1981 में उन्होंने फिल्म 'प्रेमगीत' से अपने फिल्मी गायन का सफर शुरू किया। इस फिल्म का गीत-'होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो...' एक अमर गीत सिद्ध हुआ। तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो ..., चिट्ठी न कोई संदेश ... चांद भी देखा, फूल भी देखा... मेरी आंखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर ...
जगजीत सिंह सालों तक अपने पत्नी चित्रा सिंह के साथ जोड़ी बना कर गाते रहे। जिसमें वो कागज की कश्ती..., हम तो है परदेस में जैसी कई बेमिसाल प्रस्तुतियां दीं हैं। साल 1990 में एक हादसे इस दंपत्ति ने अपने पुत्र विवेक को खो दिया। इस रिक्तता की पूर्ति के लिए जगजीत अपनी संगीत- साधना को ही माध्यम बनाया और आध्यात्मिकता की ओर मुड़ गए। इस दौर में उन्होंने अनेक भक्त कवियों के पदों सहित गुरुवाणी को अपनी वाणी दी। चित्रा सिंह इस हादसे से कभी नहीं उबर पाईं और उन्होंने गाना बंद कर दिया। इस दंपत्ति ने अपना आखिरी संयुक्त एल्बम 'समवन समवेयर' पेश किया उसके बाद से जगजीत केवल अकेले गा रहे थे।
जगजीत सिंह ने लता मंगेशकर के साथ एक $खास एलबम 'सजदा' पेश किया जो बहुत ही प्रचलित हुआ। $िफल्म निर्माता लेखक शायर गुलज़ार के साथ भी जगजीत सिंह ने टीवी सीरियल मिर्जा गालिब में ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी। उन्होंने शायर और लेखक जावेद अख्तर के साथ एक विशेष एल्बम 'सोज़ दिया।
जगजीत सिंह उन कुछ चुनिंदा लोगों में से एक हैं जिन्होंने 1857 में भारत में अंग्रेजों के खिलाफ हुए गदर की 150 वीं वर्षगाँठ पर आखिरी म$गल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की ग़ज़ल संसद में प्रस्तुत की थी। उन्हें 2003 में भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण से नवाज़ा गया है।

अमर हो गई 'जग जीत' ने वाली आवाज़

- आलोक श्रीवास्तव
जिसने अपनी आवाज़ के नूर से हमारी राहें रौशन कीं। हम जैसों को ग़ज़ल की इबारत, उसके मआनी समझाए। उसे बरतना और जीना सिखाया। शायरी की दुनिया में चलना सिखाया। उसे आख़िरी सफ़र के अपने कांधों पर घर से निकालना ऐसा होता है जैसे - 'उसको रुख़सत तो किया था मुझे मालूम न था / सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।' जग जीत कर जाने वाले जगजीत भाई हम आपका क़र्ज़ कभी नहीं उतार पाएंगे।
उन्हीं ने गाया था - '...मेरा गीत अमर कर दो।' किसे पता था कि इतनी जल्दी हमें कहना पड़ेगा - 'कहां तुम चले गए?'
आज ग़ज़ल गायिकी की एक मुक़द्दस किताब बंद हुई तो उससे सैकड़ों यादों में से एक सफ़्हा यूं ही खुल गया। बात थोड़ी पुरानी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है। ठीक वैसे जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं। ठीक वैसे ही जैसे एक मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी हमेशा आसपास ही कहीं सुनाई देती रहेगी।

जगजीत भाई यूएस में थे, वहीं से फ़ोन किया - 'आलोक, कश्मीर पर नज़्म लिखो। एक हफ़्ते बाद वहां शो है, गानी है।' मैंने कहा - 'मगर में तो कभी कश्मीर गया नहीं। हां, वहां के हालाते-हाज़िर ज़रूर ज़हन में हैं, उन पर कुछ लिखूं।?' 'नहीं कश्मीर की ख़ूबसूरती और वहां की ख़ुसूसियात पर लिखो, जिनकी वजह से कश्मीर धरती की जन्नत कहा जाता है। दो रोज़ बाद दिसंबर को इंडिया आ रहा हूं तब तक लिख कर रखना। सुनूंगा।' जगजीत सिंह, जिन्हें कब से 'भाई' कह रहा हूं अब याद नहीं। भाई का हुक्म था, तो ख़ुशी के मारे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। मगर वही पांव कांप भी रहे थे कि इस भरोसे पर खरा उतर भी पाऊंगा, या नहीं।? जगजीत भाई के साथ 'इंतेहा' (एलबम) को आए तब कुछ वक़्त ही बीता था। फ़िज़ा में मेरे लफ़्ज़ भाई की मखमली आवाज़ में गूंज रहे थे और दोस्त-अहबाब पास आकर गुनगुना रहे थे- मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है / हौसला हो तो फ़ासला क्या है।''

सर्दी से ठिठुरती रात थी। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुशायरा था। डाइज़ शायरों से सजा था। रात के कोई ग्यारह बजे होंगे। मैं दावते-सुख़न के इंतज़ार में था कि तभी मोबाइल घनघनाया। वादे के मुताबिक़ जगजीत भाई लाइन पर थे और मैं उस नज़्म की लाइनें याद करने लगा जो सुबह ही कहीं थीं। 'हां, सुनाओ, कहा कुछ.?' 'जी, मुखड़े की शक्ल में दो-चार मिसरे कहे हैं।' 'बस, दो-चार ही कह पाए... चलो सुनाओ।' मैंने डरते हुए अर्ज़ किया -

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

''हां अच्छा है, इसे आगे बढ़ाओ।'' जो जगजीत भाई को क़रीब से जानते थे, वो ये मानते होंगे कि उनका इतना कह देना ही लाखों दानिशमंदों की दाद के बराबर होता था। 'जी, परसों संडे है, उसी दिन पूरी करके शाम तक नोट करा दूंगा।' उनके ज़हन में जैसे कोई क्लॉक चलता है, सोचा और बोले - 'अरे उसके दो रोज़ बाद ही तो गानी है, कम्पोज़ कब करूंगा। और जल्दी कहो।' मगर मैंने थोड़ा आग्रह किया तो मान गए। दो रोज़ बाद फ़ोन लगाया तो कार से किसी सफ़र में थे 'क्या हो गई नज़्म, नोट कराओ।' मैंने पढ़ना शुरू किया-

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत
यहां की ज़बां है बड़ी ख़ूबसूरत
यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत
यहां की हवाएं भी ख़ुशबू से हैं तर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे
ये वादी में हंसते हुए फूल सारे
यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे
फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना
अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना
ये पीरों फ़कीरों का है आशियाना
यहां सर झुकाती है क़ुदरत भी आकर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

''अच्छी है, मगर क्या बस इतनी ही है।?'' मैंने कहा - ''जी, फ़िलहाल तो इतने ही मिसरे हुए हैं।'' ''चलो ठीक है। मिलते हैं।''

एक बर्फ़ीली शाम 4 बजे श्रीनगर का एसकेआईसीसी ऑडिटोरियम ग़ज़ल के परस्तारों से खचाखच भरा, ग़ज़ल गायिकी के सरताज जगजीत सिंह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। कहीं सीटियां गूंज रहीं थीं तो कहीं कानों को मीठा लगने वाला शोर हिलोरे ले रहा था और ऑडिटोरियम की पहली सफ़ में बैठा मैं, जगजीत भाई की फ़ैन फ़ॉलॉइंग के इस ख़ूबसूरत नज़ारे का गवाह बन रहा था। जगजीत भाई स्टेज पर आए और ऑडिटोरियम तालियों और सीटियों की गूंज से भर गया और जब गुनगुनाना शुरू किया तो माहौल जैसे बेक़ाबू हो गया। एक के बाद एक क़िलों को फ़तह करता उनका फ़नकार हर उस दिल तक रसाई कर रहा था जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ून ही गर्दिश कर सकता है। उनकी आवाज़ लहू बन कर नसों में दौड़ने लगी थी।

जग को जीत ने वाला जगजीत का ये अंदाज़ मैने पहले भी कई बार देखा था लेकिन उस रोज़ माहौल कुछ और ही था। उस रोज़ जगजीत भाई किसी दूसरे ही जग में थे। ये मंज़र तो बस वहां तक का है जहां तक उन्होंने 'कश्मीर नज़्म' पेश नहीं की थी। दिलों के जज़्बात और पहाड़ों की तहज़ीब बयां करती जो नज़्म उन्होंने लिखवा ली थी उसका मंज़र तो उनकी आवाज़ में बयां होना अभी बाक़ी था। मगर जुनूं को थकान कहां होती।? अपनी मशहूर नज़्म वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी के पीछे जैसे ही उन्होंने पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर बिछाई पूरा मंज़र ही बदल गया। हर मिसरे पर 'वंसमोर, वंसमोर' की आवाज़ ने जगजीत भाई को बमुश्किल तमाम आगे बढ़ने दिया। आलम ये रहा कि कुल जमा सोलह मिसरों की ये नज़्म वो दस-पंद्रह मिनिट में पूरी कर पाए। दूसरे दिन सुबह श्रीनगर के सारे अख़बार जगजीत के जगाए जादू से भरे पड़े थे। एक समाचार दैनिक में 'ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र' की हेड लाइन थी और ख़बर में लिखा था - ''पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर / चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर / हसीं वादियों में महकती है केसर / कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर / ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र आलोक श्रीवास्तव के इन बोलों को जब जगजीत सिंह का गला मिला तो एसकेआईसीसी का तापमान यकायक गरम हो गया। ये नज़्म की गर्मी थी और सुरों की तुर्शी। ऑडिटोरियम के बाहर का पारा माइनस में ज़रूर था मगर अंदर इतनी तालियां बजीं कि हाथ सुर्ख़ हो गए। स्टीरियो में कान लगाकर सुनने वाले घाटी के लोग और जगजीत सिंह बुधवार को यूं आमने-सामने हुए।''
आमीन से साभार

लेखक के बारे में: 30 दिसंबर 1971 को शाजापुर (मप्र) में जन्मे पेशे से पत्रकार आलोक के जीवन का बड़ा हिस्सा मप्र के सांस्कृतिक नगर विदिशा में गुज़ारा है और वहीं से उन्होंने हिंदी में एमए किया। 90 के दशक में टीवी धारावाहिकों और फिल्मों के लिए लेखन करने मुंबई भी गए जो रास नहीं आया तो विदिशा लौटकर रामकृष्ण प्रकाशन का प्रबंधन- संपादन संभाला। जहां लगभग पांच वर्ष में उन्होंने डेढ़ सौ से ज़्यादा साहित्यिक- कृतियों को अपनी देख- रेख में प्रकाशित किया। उसके बाद कुछ समय दैनिक भास्कर भोपाल में पत्रकारिता की और अब इन दिनों दिल्ली में टीवी चैनल आजतक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं। साथ ही अपनी रचनाशीलता से हिंदी ग़ज़ल को पुनसर््थापित करने में जुटे हैं। देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में वे छप चुके हैं। उर्दू के मशहूर शायरों की ग़ज़लों का उन्होंने संपादन किया है। ग़ज़लपाठ करने के लिए देश- विदेश से बुलावा आता रहता है। उनके पहले ग़ज़ल$ संग्रह 'आमीन' का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो गया है। एक कथा संग्रह की तैयारी में हैं।
http://aalokshrivastav.itzmyblog.com, Email: aalokansh @yahoo.com

उसपे मर मिटने का हर भाव लिए बैठा हूँ

- मनोज अबोध

उसपे मर मिटने का हर भाव लिए बैठा हूँ
उम्र भर के लिए भटकाव लिए बैठा हूँ
याद है, मुझको कहा था कभी अपनी धड़कन
आपकी सोच का दुहराव लिए बैठा हूँ
तुम मिले थे जहाँ इक बार मसीहा की तरह
फिर उसी मोड़ पे ठहराव लिए बैठा हूँ
लाख तूफान हों, जाना तो है उस पार मुझे
लाख टूटी हुई इक नाव लिए बैठा हूँ
आपके फूल से हाथों से मिला था जो कभी
आज तक दिल पे वही घाव लिए बैठा हूँ

मिलके चलना

मिलके चलना बहुत जरूरी है
अब सँभलना बहुत जरूरी है

गुत्थियाँ हो गईं जटिल कितनी
हल निकलना बहुत जरूरी है

आग बरसा रहा है सूरज अब
दिन का ढलना बहुत जरूरी है

जड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी
हिम पिघलना बहुत जरूरी है

हम निशाने पे आ गए उसके
रुख बदलना बहुत जरूरी है

है अँधेरा तो प्यार का दीपक
मन में जलना बहुत जरूरी है

अपने आप से लड़ता मैं

अपने आप से लड़ता मैं
यानी, ख़ुद पर पहरा मैं

वो बोला - नादानी थी
फिर उसको क्या कहता मैं

जाने कैसा जज़्बा था
माँ देखी तो मचला मैं

साथ उगा था सूरज के
साँझ ढली तो लौटा मैं

वो भी कुछ अनजाना-सा
कुछ था बदला-बदला मैं

झूठ का खोल उतारा तो
निकला सीधा सच्चा मैं

क्या होगा अंजाम, न पूछ

क्या होगा अंजाम, न पूछ
सुबह से मेरी शाम, न पूछ

आगंतुक का स्वागत कर
क्यों आया है काम न पूछ

मेरे भीतर झाँक के देख
मुझसे मेरा नाम न पूछ

पहुँच से तेरी बाहर हैं
इन चीजों के दाम न पूछ

रीझ रहा है शोहरत पर
कितना हूँ बदनाम न पूछ

संपर्क- एफ-1/107 ग्राउण्ड फ्लोर,सैक्टर-11, रोहिणी, नईदिल्ली-110085, मो. 09910889554,
Email- manojabodh@gmail.com, Blog: http://manojabodh.blogspot.com

टूटे पाँव की पहाड़ी परीक्षा और माता कौशल्या

- डॉ. परदेशीराम वर्मा
युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है ...
'दृष्टि के अनुरूप सृष्टि बनती है।' यह सूत्र कथन है। समय- समय पर ऐसे सूत्रों को समझने की प्रेरणा मिलती है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए लंबे समय तक संघर्ष करने वाले संत पवन दीवान इन दिनों माता कौशल्या के नाम पर नवनिर्मित मंत्रालय भवन का नाम हो इस उद्देश्य के लिए अपने संचित पुण्य और अनुभव को समर्पित कर रहे हैं।
विगत छ: माह में मुझे उनके साथ भिन्न- भिन्न व्यक्तियों के पास जाने का अवसर मिला है। छत्तीसगढ़ भी अन्य प्रांतों की तरह किसी एक विराट व्यक्तित्व, विशिष्ट चरित्र नायक, देव- देवी, युगावतार, आलोक पुंज से जुड़कर अपनी पहचान बनाए यह उनकी सदिच्छा है।
छत्तीसगढ़ की बेटी, भगवान श्रीराम की माता कौशल्या ही ऐसी विराट सर्वपूजित व्यक्तित्व हो सकती हैं जिनकी स्मृति से जुड़कर यह छत्तीसगढ़ अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर उभरेगा यह वे मानते हैं। इस उद्देश्य को सामने रखकर वे राजनेता, साहित्यकार, कलाकार, साधु- सन्यासी, महामण्डलेश्वर और शंकराचार्य जी से मिलते चल रहे हैं। सबने उनसे सहमति जताते हुए इस पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना समर्थन सहर्ष दिया है। वे चाहते थे कि इसी उद्देश्य के लिए गायत्री तीर्थ, हरिद्वार की यात्रा कर डॉ. प्रणव पण्ड्या जी से मिलकर आग्रह किया जाए। उत्तरांचल में संत पवन दीवान के अनेक गुरुभाईयों के अपने आश्रम भी हैं।
उनके आदेश पर मैं जाना तो चाहता था मगर यात्रा को केवल तीर्थ यात्री के रूप न लेकर पर्यटक के रूप में सपरिवार देवभूमि की ओर प्रस्थान करना चाहता था। यात्रा लंबी, पांव टूटा हुआ और देव हैं पहाड़ों पर, ऐसे में परिवार के लोग साथ हों तो सम्बल बना रहेगा, यह मैंने सोचा।
मैं ऐसे समय में शांतिकुंज जाने के लिए निकला जब नैतिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति और सामाजिक क्रांति के लिए प्रसिद्ध होकर समग्र जीवन होम कर देने वाले पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जन्म शताब्दी वर्ष की गहमागहमी चरम पर है। लगभग 40 वर्षों से मैं उनके अभियान से जुड़े संकल्पित लोगों को करीब से देख और समझ रहा हूं। छत्तीसगढ़ में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य कई बार आए। वे मेरे गांव लिमतरा के पास स्थित छोटे से गांव कंडरका में भी अपनी सुपुत्री श्रीमती शैलबाला जी के साथ पधारे थे। सामुदायिक विकास विभाग में मेरे प्रमुख रहे स्व. रामानुज शर्मा गायत्री परिवार से जुड़े थे। गायत्री परिवार में जीवन अर्पित करने वाले इंजीनियर श्री कालीचरण जी मेरे ही गांव के पास स्थित नरधा के निवासी हैं। श्री कालीचरण आज इस आंदोलन के प्रमुख व्यक्तियों में से एक हैं।
गायत्री परिवार के समर्पित परिजनों से चारों ओर घिरे रहकर भी मैं कभी मथुरा या हरिद्वार जाकर शांतिकुंज घूम आऊं यह उत्सुकता नहीं हुई। लेकिन जाने किस प्रेरणा से 13 अक्टूबर 2011 को सपरिवार मैं हरिद्वार के लिए निकल पड़ा।
मैं 13 को निकला 14 को संध्या छत्तीसगढ़ के युवक राजू केसरवानी शांतिकुंज का वाहन लेकर स्टेशन आए। छत्तीसगढ़ रायपुर के हड्डी रोग विशेषज्ञ गायत्री अस्पताल के प्रमुख डॉ. अरुण मढ़रिया ने यह वाहन शांतिकुंज को अपनी ओर से भेंट की है। हमारे ठहरने का प्रबंध भी डॉ. मढ़रिया के सौजन्य से शांतिकुंज के सुविधाजनक कमरों में हो गया।
मैं दर्शनार्थी या पर्यटक की उत्सुकता लेकर वहां गया लेकिन जब लौटा तो एक बैचेनी लेकर लौटा। इस अभियान से सूत्रधार को बहुत करीब से जानने वाले लोगों से घिरा रहकर भी मैं कभी इस ओर आकृष्ट नहीं हुआ लेकिन शांतिकुंज पहुंच कर एक गहरी जिज्ञासा से भर उठा। मुझे लगा कि इस अभियान को और युग निर्माण की परिकल्पना से जुड़े समस्त सूत्रधारों की जीवनचर्या को महत्व न देकर मैंने बहुत कुछ खो दिया है।
दूसरे ही दिन मुझे श्रीराम सहाय शुक्ल जी की कृपा से पं. श्रीराम शर्मा के जामाता विद्वान दार्शनिक डॉ. प्रणव पण्ड्या एवं उनकी सुपुत्री श्रीमती शैलबाला से मिलकर आशीर्वाद लेने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्रीराम की माता कौशल्या से संबंधित नामकरण अभियान से जुड़े प्रयत्न संबंधी कुछ प्रपत्र एवं साहित्य उन्हें भेंट करते हुए मैंने छत्तीसगढ़ के संत पवन दीवान जी का संदेश सुनाया। पण्ड्या जी ने उदारतापूर्वक समर्थन में पत्र लिखते हुए आशीष दिया। संत पवन दीवान माता भगवती देवी की रसोई में उनके हाथों से भोजन प्राप्त कर चुके हैं। शांतिकुंज में उनका प्रेरणास्पद प्रवचन भी होता रहा है।
मेरे गांव के नामी सपूत डॉ. लाखेश मढ़रिया भी गायत्री परिवार के निष्ठावान साधक हैं। यश के शिखर की ओर बढ़ रहे डॉ. लाखेश आज भी मिशन के कामों में हाथ बंटाते हैं।
शांतिकुंज में छत्तीसगढ़ पूरी तरह प्रभावी नजर आया। मुझे गर्व हुआ कि शांतिकुंज के साधकों, सेवकों, समयदानियों, जीवनदानियों में छत्तीसगढ़ अग्रगण्य है। संत पवन दीवान के गुरुभाई पूर्व केंद्रीय गृहराज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद जी का परमार्थ आश्रम भी हरिद्वार में है। हम वहां भी गए। ऋषिकेश में दीवान जी के गुरुभाई मुनीजी महाराज श्री चिदानंद जी का आश्रम ठीक गंगा जी के किनारे हैं। वहां गंगा जी में बोटिंग करते हुए हम पहुंचे।
मुनि जी के नेतृत्व में भव्य गंगा आरती हुई। विदेशी पर्यटक टूट पड़ते हैं इस अवसर पर। वे आरती गाकर नाचते भी हैं। वह अद्भूत दृश्य था। मुनिजी से भी भेंट हुई। उनका आशीष मिला। फिर हम देहरादून में डी.एस.पी. के रूप में पदस्थ छत्तीसगढ़ की बिटिया श्रीमती श्वेता मिश्रा के सुझाव पर मसूरी भी घूमने गए। मसूरी पहुंचते ही मैं प्रख्यात अंग्रेज मूल के भारतीय लेखन रश्किन बांड से मिलने निकल पड़ा। पर अफसोस वे यात्रा पर थे। हम 19 को वापस लौटे।
देवभूमि, उत्तराखंड और झारखंड तो अपनी पहचान रखते हैं। वे खंड- खंड नहीं बल्कि पहचान की दृष्टि से अखंड हैं मगर गढ़विहीन छत्तीसगढ़ कई खंड़ों में बंटा है। यहां छत्तीसगढ़ की अस्मिता की बात करने वाला संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। क्षेत्रीयतावादी और संकीर्ण माना जाता है। जबकि इसी के साथ जन्में उत्तराखंड एवं झारखंड अपनी विशिष्ट पहचान के लिए काम करने वालों पर न्यौछावर होते हैं।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री निशंक जी कथाकार हैं और वर्तमान मुख्यमंत्री खंडूरी जी सेना के पूर्व अधिकारी हैं। इस तरह दोनों से ही मैं जुड़ाव महसूस करता हूं। उनसे मिलना भी तय था मगर व्यवस्तता के कारण मुलाकात न हो सकी। संत पवन दीवान से प्राप्त दिशा- निर्देश लेकर मैं माता कौशल्या के नामकरण के संदर्भ में भिन्न- भिन्न महत्वपूर्ण लोगों से मिलने निकला था।
यह पूरी यात्रा कई कई उद्देश्यों को स्पर्श करती रही। शांतिकुंज की विराट व्यवस्था देखकर युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा जी के देवोपम तपस्वी व्यक्तित्व के प्रति अगाध जिज्ञासा जग उठती है। वहां जाकर ही मैं समझ पाया कि क्यों लोग पारिव्राजक बनकर पीला झोला लटकाये, पीला कुर्ता एवं उसी रंग की धोती पहने घूमते रहते हैं।
वेदपाठी, कर्मकांडी, विद्वान, संस्कृत के आचार्य के घर जन्मे पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है कि वे प्रतिदिन 4 घंटे लिखते हैं। पूरी पत्रिका ही वे अकेले निकालते रहे। उनका साहित्य विपुल है। उन्होंने हिमालय में लगातार तपस्या की। मथुरा के जिस किराए के घर में 15 रुपया महीने पर वे रहे वहां प्रेतों का डेरा था। पैतृक संपत्ति बेचकर उन्होंने हरिद्वार में शांतिकुंज के लिए जमीन ली। एक पूरा प्रज्ञापूर्ण संसार का सृजन उन्होंने अपने दम पर किया। आज वे भगवान की तरह पूजे जा रहे हैं लेकिन उनका संघर्षपूर्ण जीवन यह संदेश देता है कि...
'यूं ही शोहरत की बुलंदी नहीं मिलती साजिद,
पहले कुछ खोइये इस दौर में पाने के लिए'
चप्पे- चप्पे पर उनके चरण चिन्ह वहां अंकित हैं। उन्होंने वहां शांतिवन और विश्वविद्यालय भी स्थापित किया। चिकित्सालय और समृद्ध पुस्तकालय तो देश भर में चर्चित हैं। पत्रिकाएं भी लाखों की संख्या में निकलती हैं। कमाल यह है कि पत्रिकाओं में एक भी विज्ञापन नहीं होता। विज्ञापन के युग में खुद को विज्ञापित न करते हुए पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के आख्यानों में आए ऋषियों की कथा को और चमत्कारों को सच मानने पर मजबूर कर दिया है। लगता है कि अगस्त्य ने जरूर समुद्र को अंजूरी में भर कर पी लिया होगा। इस पंक्ति की सार्थकता को भी महसूस किया...
'राम से बढ़कर राम कर दासा।'
घूमते हुए पहाड़ के संबंध में कवि की पंक्तियां याद आती रहीं... 'सब मैदानों में ही इतराते हैं, पहाड़ पर आदमी तो आदमी, पेड़ भी सीधे हो जाते हैं।'
18 अक्टूबर को प्रात: 6 बजे राजू ने पुन: हरिद्वार रेलवे स्टेशन तक हम सबको पहुंचाया। राजू एवं अन्य आत्मीयजनों से मिलकर यह नहीं लगा कि मैं छत्तीसगढ़ से दूर हूं। हंसते- हसंाते ही 19 अक्टूबर को हमारी वापसी हुई।

संपर्क- एल आई जी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाई मो. 9827993494

उपहार में एक टन संतरे


बच्चे के जन्म पर उपहार देने की परंपरा तो सदियों पुरानी है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका के 'साइट्रस ग्रोवर्स एसोसिएशन' ने इस परंपरा को एक अनूठे अंदाज में निभाया। इस एसोसिएशन ने दुनिया के सात अरबवें के रूप में जन्मे प्योत्र निकोलायेव की मां को उपहार स्वरूप एक टन संतरे का टोकन भेंट किया।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) और रूस के राज्य सांख्यिकी संघीय सेवा ने 31 अक्टूबर, 2011 को पैदा हुए इस बच्चे को सांकेतिक रूप से दुनिया के सात अरबवें इंसान के रूप में सम्मानित करने का फैसला लिया, हालांकि इस बारे में ठीक- ठीक तय करना असंभव है। क्योंकि इस मामले में सभी देश की अपनी अलग अलग राय है।
एसोसिएशन के प्रतिनिधि इरिना मर्केल कलिनिनग्राद के उस अस्पताल में पहुंचे, जहां बच्चे का जन्म हुआ और उन्होंने उसकी मां 36 वर्षीया येलेना निकोलायेवा को प्रमाण- पत्र, फूल तथा संतरे के लिए टोकन भेंट किया। निकोलायेवा दंपत्ति कलिनिनग्राद में एसोसिएशन के किसी भी स्टोर से संतरे ले सकते हैं। प्योत्र अपने माता- पिता की तीसरी संतान है।

ममता की मसीहा

पडरौना नगर के समीप स्थित परसौनी कला की 60 वर्षीय श्रीमती शीरीन यशोदा मइया इसीलिए कहलाती हैं क्योंकि वे 23 बच्चों की मां हैं। चार अपने और 19 उनके जिनके माता- पिता लोक- लाज के भय से उन्हें सड़कों पर फेंक गए या अस्पतालों में छोड़ गए। पिछने महीने ही चार दिन की एक नन्ही मासूम का आगमन 19वें बच्चे के रूप में उनकी बगिया में हुआ है।
करीब डेढ़ दशक पहले श्रीमती शीरीन ने यतीम मासूमों की सेवा के लिए शिक्षिका की नौकरी को ठुकरा दिया। ममता की यह मूरत अपने भरे- पूरे परिवार के साथ बीते 11 वर्षो से यतीम मासूमों की नि:स्वार्थ सेवा कर रही हैं। उनके आंगन में इस समय महिमा, एंजल, छाया, कोमल, अनुप्रिया, शारून, विनीता, आशा, जूही, अनीता, मेनका, विशाल, विश्वास, संतोष, वैभव व गैवरियल जैसे 18 बच्चों की किलकारी गूंज रही है। शीरीन के पति रमन सिंह उनके इस काम में उनका भरपूर सहयोग करते हैं। उनकी अपनी चार संतानों में एक पुत्री है, जिसका विवाह हो चुका है तथा दो बेटे बाहर रहते हैं।

दुनिया का कूड़ाघर बनता भारत

- नरेन्द्र देवांगन

विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।
गुजरात के अलंग तट पर विश्व का सबसे बड़ा कबाडख़ाना है। फ्रांस के विमानवाही पोत क्लिमेंचू को यहां पहियों पर चढ़ाकर गोदी तक लाया जाना था जहां गैस कटर से लैस सैकड़ों मजदूर इसके टुकड़े- टुकड़े करते। लेकिन पर्यावरण समूह ग्रीनपीस ने यह चेतावनी दी थी कि इस युद्धक विमानवाही पोत में सैकड़ों टन एस्बेस्टस भरा पड़ा है, जो पर्यावरण के लिए घातक है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और इस जहाज को तट पर ही रोक दिया गया। बाद में फ्रांस के राष्ट्रपति ने जहाज को वापस अपने देश भेजने का आदेश दिया। इसी तरह एक अन्य विषैले निर्यात से भरे नार्वे के यात्री जहाज लेडी 2006 की तुड़ाई पर भी सुप्रीम कोर्ट ने राक लगा दी थी।
15 नवबंर 2009 को कोटा (राजस्थान) के कबाड़ में एक बहुत भीषण विस्फोट हुआ जिसमें तीन व्यक्ति मारे गए व अनेक घायल हुए। आसपास की इमारतें भी क्षतिग्रस्त हुर्इं। यह विस्फोस्ट कबाड़ में से धातु निकालने के प्रयास के दौरान हुआ। यह हादसा इकलौता हादसा नहीं था। कबाड़ में विस्फोट की अनेक वारदातें हाल में हो चुकी हैं।
पश्चिम के औद्योगिक देशों के सामने अपने औद्योगिक कचरे के निपटान की समस्या बहुत भयानक है। इसलिए पहले वे अपना कचरा जमा करते हैं फिर उस कचरे को किसी कल्याणकारी योजना के साथ जोड़कर रीसाइक्लिंग प्रौद्योगिकी सहित किसी गरीब या विकासशील देश को बतौर मदद पेश कर देते हैं या बेहद सस्ते दामों पर उसे बेच देते हैं।
इराक युद्ध के समय यहां अमरीकी सेना ने बहुत भीषण बमबारी की थी जिसमें बहुत विनाश हुआ था। उसके बाद की घरेलू हिंसा और हमलों से भी बहुत विनाश हुआ। इस विनाश का मलबा बहुत सस्ती कीमत पर उपलब्ध होने लगा और व्यापारी इसे भारत जैसे देशों में पहुंचाने लगे क्योंकि यहां इसकी प्रोसेसिंग लुहार या छोटी इकाइयां सस्ते में कर देती हैं। पर उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि युद्ध के समय के ऐसे विस्फोटक भी इस मलबे में छिपे हो सकते हैं और कभी भी फट सकते हैं। इन विस्फोटकों की उपस्थिति के कारण ही हाल के वर्षों में कबाड़ के कार्य व विशेषकर लोहे के कबाड़ को गलाने के कार्य में बहुत- सी दुर्घटनाएं हो रही हैं।
अब तो कबाड़ के नाम पर रॉकेट और मिसाइलें भी देश में आने लगी हैं। इससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है। यह हैरत की बात है कि ईरान से लोड होने के बाद भारत के कई राज्यों से गुजरने, दिल्ली पहुंचने और फिर साहिबाबाद स्थित भूषण स्टील फैक्टरी में विस्फोट होने तक किसी ने ट्रकों में भरे कबाड़ की जांच करने की जहमत नहीं उठाई। दिल्ली में तुगलकाबाद स्थित जिस कंटेनर डिपो में ये ट्रक पहुंचे थे, वह खुद 1991, 1993 और 2002 के कबाड़ में आई ऐसी विस्फोटक सामग्री की मार झेल चुका है। तब भी यह सामग्री पश्चिम एशिया से आई थी और हर बार वहीं से माल लाया जा रहा है। कस्टम विभाग द्वारा बिना जांच के आयातित सामग्री को स्वीकार करने का चलन इसमें सहायक की भूमिका निभा रहा है।
भारत दुनिया का सबसे पसंदीदा डंपिंग ग्राउंड (कबाडग़ाह) है। हम सस्ते मलबे के सबसे बड़े आयातक हैं। प्लास्टिक, लोहा या अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक रासायनिक द्रव और अनेक जहरीले रसायन, पुरानी बैटरियां और मशीनें हमारी चालू पसंदीदा खरीदारी सूची में हैं। जब इन्हें इस्तेमाल के लिए दोबारा गलाया जाता है तो इससे निकलने वाला प्रदूषण न केवल यहां की हवा बल्कि मिट्टी और पानी तक में जहर घोल देता है। उस मिट्टी में उपजा हुआ अनाज दूसरी- तीसरी पीढ़ी में आनुवंशिक समस्याएं पैदा कर सकता है। लेकिन इतनी दूर तक जांच- परख करने की सतर्कता भारत सरकार में नहीं है।
बढ़ते ई- कचरे ने पर्यावरणविदों के कान खड़े कर दिए हैं। यह कबाड़ लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है। देश में अनुपयोगी और चलन से बाहर हो रहे खराब कम्प्यूटर व अन्य उपकरणों के कबाड़ से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। कबाड़ी इस कचरे को खरीदकर बड़े कबाडिय़ों को बेच देते हैं। वे इसे बड़े-बड़े गोदामों में भर देते हैं। इस प्रकार जगह- जगह से एकत्र किए गए आउटडेटेड कम्प्यूटर आदि कबाड़ बड़ी संख्या में गोदामों में जमा हो जाते हैं। इसके अलावा विदेशों से भी भारत में भारी मात्रा में कभी दान के रूप में तो कभी कबाड़ के रूप में बेकार कम्प्यूटर आयात किए जा रहे हैं। यह ई-कचरा प्राय: गैर कानूनी ढंग से मंगाया जाता है। आसानी से धन कमाने के फेर में ऐसा किया जाता है। कम्प्यूटर व्यवसाय से जुड़े लोगों का मानना है कि हमें अपने देश में बेकार हो रहे कम्प्यूटर की अपेक्षा विदेशों से आ रहे ढेरों कम्प्यूटरों से अधिक खतरा है।
भारत की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे कबाड़ को कई स्थानों पर जलाया जाता है और इससे सोना, प्लेटिनम जैसी काफी मूल्यवान धातुएं प्राप्त की जाती हैं हालांकि सोने और प्लेटिनम का इस्तेमाल कम्प्यूटर निर्माण में काफी कम मात्रा में किया जाता है। इस ई- कचरे को जलाने के दौरान मर्करी, लेड, कैडमियम, ब्रोमीन, क्रोमियम आदि अनेक कैंसरकारी रासायनिक अवयव वातावरण में मुक्त होते हैं। ये पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अनेक दृष्टियों से घातक होते हैं। साथ ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होते हैं। कम्प्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयुक्त होने वाला प्लास्टिक अपनी उच्च गुणवत्ता के चलते जमीन में वर्षों यूं ही पड़ा रहता है और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाता है।
आयातित कचरे के प्रबंधन के बारे में गठित उच्चाधिकार प्राप्त प्रो. मेनन समिति ने ऐसे जहरीले कचरे के आयात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। इस समिति का गठन भी सरकार ने अपने आप नहीं किया था बल्कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में अंतराष्ट्रीय बेसल कन्वेंशन में सूचीबद्ध कचरों का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया था। इसके बाद सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन के अलग- अलग पहलुओं की जांच करने के लिए मेनन समिति का गठन किया था। मेनन समिति ने न सिर्फ कई कचरों के आयात पर रोक लगाने की सिफारिश की थी बल्कि जो औद्योगिक कचरा देश में है उसके भंडारण और निपटान के बारे में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। लेकिन सरकार ने मात्र 11 वस्तुओं का आयात ही प्रतिबंधित किया, बाकी 19 वस्तुओं को विचारार्थ छोड़ दिया गया। यह उदासीनता तो आयातित कचरे से निकलने वाले जहर से भी खतरनाक है।
इराक युद्ध में अमरीका ने जो बमबारी की थी, उसमें क्षरित युरेनियम का भी उपयोग हुआ था। इस बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब सामान्यत: स्वीकार किया जाता है कि पूरे विश्व में क्षरित युरेनियम युक्त हथियारों का सबसे अधिक उपयोग अभी तक इराक में ही हुआ है। क्षरित युरेनियम वाले बमों से क्षतिग्रस्त टैंक के मलबे में भी क्षरित युरेनियम के अवशेष होते हैं। यदि हमारे देश में बड़े पैमाने पर इस मलबे का आयात होगा तो क्षरित युरेनियम से युक्त धातु हमारे देश में दूर- दूर तक इसके खतरे से अनभिज्ञ लोगों के पास पहुंच जाएगी और वे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं।
जाहिर है विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यह सरकारी नजरिया है, जो आयातित कचरे के खतरे को बहुत मामूली करके आंकता है। (स्रोत फीचर्स)

लघुकथाएँ

- डॉ. शील कौशिक
अमंगल
जनवरी की ठिठुरती ठंड में दो दिन से रुक- रुक कर कुत्ते के रोने की आवाज सुनाई पड़ रही थी। जिस घर के दर के पास जाकर कुत्ता रोने लगता, घर का मालिक डंडा दिखाकर उसे वहाँ से भगा देता। कुत्ते का रोना पूरी गली में चर्चा का विषय बन गया था।
एक ने कहा, 'कुत्ते का रोना अशुभ संकेत है। बाईस नंबर वालों के यहाँ रामेश्वर जी बीमार हैं, कहीं?'
दूसरे ने पहले की बात का समर्थन करते हुए कहा, 'सुना है कुत्ते को यम के दूत दिखाई दे जाते हैं। राम भला करे!'
तीसरे ने कहा, 'कल गली के नुक्कड़ पर कार और स्कूटर का एक्सीडेंट हुआ था। स्कूटर वाले लड़के को बहुत चोट लगी थी। भगवान उसकी रक्षा करे!'
चौथा कहाँ चुप रहने वाला था, तुरंत बोला, 'लगता है किसी आदमी की आत्मा इसमें प्रवेश कर गई है। तभी तो यह आदमी की तरह रो रहा है।'
पाँचवाँ जो चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, क्षोभ से भरकर बोला, 'वह कुत्ता अब मेरे घर में है। उसके पाँव में काँच का टुकड़ा गड़ा हुआ था, जिससे उसे बहुत कष्ट हो रहा था। किसी ने भी उसके दर्द को समझने की कोशिश नहीं की। सभी उसके रोने को अपशकुन समझ कर उसे भगाते रहे।'

बीस जोड़ी आँखें

'रीमा, तुम्हारी सहेली पूजा का फोन था। आज उनके यहाँ किटी-पार्टी है। तुम जरूर जाना। थोड़ा माहौल बदलेगा तो मूड ठीक हो जाएगा।' सुकेश ने ऑफिस जाते हुए पत्नी से कहा।
पिछले दिनों हृदयगति रुक जाने से रीमा के पिता जी का देहांत हो गया था। बहुत समझाने के बावजूद भी वह इस सदमे से उबर नहीं पा रही थी।
जैसे ही रीमा किटी पार्टी में पहुँची, बीस जोड़ी आँखें उसे घूरने लगीं। वहाँ आई औरतों के बीच खुसुर- फुसुर होने लगी। कुछ वाक्य रीमा के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़े।
'ऐसी भी क्या जल्दी थी किटी में आने की। बाप को मरे सवा महीना भी नहीं हुआ।'
'देख तो, माथे पर बिंदिया सजा कर आई है!'
'हमें तो इसके यहाँ शोक प्रकट करने जाना था। अब कैसा शोक? यह महारानी तो यहाँ ही आई हुई है।'
'चलो अच्छा है, हम सहानुभूति के दो शब्द कहकर औपचारिकता यहीं पूरी कर लेते हैं। इतनी दूर इनके घर कहाँ जाएँगे।'
एक के बाद एक संवाद रीमा के कानों तक पहुँच रहे थे। उसकी डबडबाई आँखें वहाँ सच्ची सहानुभूति खोज रही थीं।

मिसाल

'रामदीन, एक साथ बीस हजार रुपए निकलवा रहे हो, क्या करोगे? बैंक कर्मी ने पैसे निकलवाने आए चपरासी से पूछा।
'बहुत दिनों से मन में इच्छा थी, स्कूल में वाटर- कूलर लगवाना है।'
'स्कूल में वाटर- कूलर! क्यों? अब तुम रिटायर हो गए हो। तुम्हारे अकाऊंट में बस पचास हजार रुपये ही जमा हैं। कभी भी हारी- बीमारी में जरूरत पड़ सकती है।' बैंक कर्मी ने पड़ोसी होने के नाते उसे समझाया।
'हाँ सब जानता हूँ। इतने साल स्कूल में नौकरी की है। प्रिंसिपल और अध्यापकों के लिए आधा किलोमीटर दूर अस्पताल में लगे वाटर- कूलर से फील्टर का ठंडा पानी लाता रहा। बच्चे बेचारे काई लगी पुरानी टंकी से गर्म पानी पीते हैं। मैंने मन में ठान रखा था कि रिटायरमेंट पर जो पैसै मिलेंगे, उससे स्कूल में बच्चों के लिए वाटर- कूलर जरूर लगवाना है।' रामदीन का चेहरा दमक रहा था।

हवा के विरुद्ध

अरोड़ा दंपति चाय पीते हुए सोच रहे थे 'लगता है अपने डॉक्टर बेटा- बहू भी विदेश में या फिर किसी बड़े शहर में सैटल होंगे। भला हमारे पास इस छोटे- से शहर में आकर क्या करेंगे?'
तभी मोबाइल फोन की घंटी बजी। फोन डॉक्टर बेटे का ही था। उसने कहा, 'हमारी एमडी की पढ़ाई पूरी हो गई है। हम शीघ्र ही आपके पास वापस आ रहे हैं। वहीं अपना क्लिनिक खोलेंगे।'
पति- पत्नी अवाक एक- दूसरे को ऐसे देख रहे थे, जैसे उन्हें सुनी हुई बात पर विश्वास ही न हो रहा हो।
सो इस बार श्रीमती अरोड़ा ने बेटे का मन टटोला, 'बेटा, हमारी तरफ से कोई बंधन न समझना, कल कहीं तुम्हारे दिमाग में यह बात आए कि बड़े बेटे को तो अमेरिका में पढ़ा कर वहीं सैटल कर दिया और हमें यहाँ।'
'कैसी बात कर रही हो माँ? हम ऐसा कुछ नहीं सोच रहे। हमने आपसे और अपने शहर की मिट्टी से जो कुछ पाया है, अब उसे लौटाने की बारी है माँ।' बेटे ने दृढ़ता से कहा।
'देखो बेटा, ये जिंदगी भर का सवाल है। तुम्हारे बच्चे होंगे तो उन्हें पढऩे के लिए बाहर भेजना पड़ेगा। यहाँ अच्छे स्कूल कहाँ हैं? एक बार फिर से सोच लो बेटा।' इस बार अरोड़ा साहब बेटे को समझा रहे थे।
'पापा! हमने अच्छी तरह सोच समझ कर ही फैसला किया है।' बेटे ने उत्तर दिया।
फोन एक बार फिर माँ के हाथ में था, 'बेटा'
'माँ जी! लगता है आप नहीं चाहते कि हम आपके पास आकर रहें।' इस बार फोन पर बहू ने कहा।
'नहीं- नहीं, बेटे! तुम लोग जरूर आओ। तुम यहाँ रहोगे तो हमें बहुत खुशी होगी।' श्रीमती अरोड़ा की आँखों में आँसू छलक आए।

संपर्क- मेजर हाउस-17, सैक्टर-20, हुड्डा, सिरसा (हरियाणा)-125055 मो. 9416847107