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Aug 28, 2011

क्या प्रजातंत्र अन्य प्राणियों में भी होता है?



क्या प्रजातंत्र  अन्य प्राणियों में भी होता है?
-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
देश और दुनिया में चुनाव होते ही रहते हैं। इन चुनाओं ने दुनिया को और खुद हमारे राजनीतिज्ञों को दिखा दिया है कि हम प्रजातंत्र को गंभीरता से लेते हैं। और हम सबको इस बात से भी प्रसन्नता है कि अब विश्व के कई देशों और म्याँमार में लोगों को प्रजातंत्र का एहसास करने का मौका मिला है।
क्या प्रजातंत्र इंसानों का आविष्कार है जिसका विचार होमो सेपिएन्स ने ही किया है और क्या सिर्फ हम ही इसका अभ्यास करते हैं? क्या अन्य प्राणी समाजों में भी ऐसी प्रथाएँ पाई जाती हैं और क्या इस तरह के व्यवहार का जैव विकास में कोई प्रमाण मिलता है? इस मामले में सामाजिक जीव विज्ञान न सिर्फ कई अजूबे पेश करता है बल्कि हमें कई सबक भी सिखाता है। मधुमक्खियों और कॉकरोचों में इस तरह के व्यवहार को देखकर लगता है कि हमें थोड़ा विनम्र होकर इन्हें सराहने की जरूरत है।
बैंगलोर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के प्रोफेसर राघवेंद्र गडग्कर मशहूर 'यूसोश्यॉलॉजिस्टहैं और ततैयों और मधुमक्खियों के अध्ययन के लिए जाने जाते हैं। यूसोश्यॉलॉजिस्ट उन वैज्ञानिकों को कहते हैं, जो ऐसे जंतुओं का अध्ययन करते हैं जिनमें सामाजिक संगठन पाया जाता है। उन्होंने हाल ही हमें बताया कि ततैयों और मधुमक्खियों की बस्ती कैसे खुद को संगठित करती हैं और अपने संसाधनों का यथेष्ट उपयोग करती हैं। वे बताते हैं कि हालाँकि इन बस्तियों में एक रानी होती है और मजदूर होते हैं मगर इनमें एकछत्र राज्य जैसी कोई बात नहीं होती। रानी यह फतवा जारी नहीं करती कि बस्ती को क्या करना चाहिए। दरअसल, उसे रानी कहना एक मानवकेंद्रित नजरिया है क्योंकि पूरे जीवन भर वह सिर्फ अंडे देती है और शेष सदस्य उसके नखरे उठाते हैं।
वास्तव में वह भी एक मजदूर ही होती है जिसका काम है अंडे देते जाना। बस्ती में महलों की तरह कोई साजिशें नहीं होतीं और रानी को कोई अन्य अंडे देने वाली मशीन (नई रानी) विस्थापित कर सकती है। जब बस्ती दो भागों में बँटती है तो जो भाग रानी- विहीन होता है वह अपनी नई रानी चुन लेता है।
यह सही है कि रानी अन्य मजदूर ततैयों से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है मगर वह कोई तानाशाह नहीं होती जिसके आदेशों का पालन बस्ती के शेष सदस्यों को करना ही पड़े। बस्ती सामूहिक गतिविधियों के आधार पर चलती है, जिसमें हर सदस्य अपनी-अपनी भूमिका निभाता है।
कॉकरोच यानी तिलचट्टा भी आम सहमति पर आधारित समाज का निर्माण करता है। ब्रसेल्स की फ्री यूनिवर्सिटी के जोस हेलोय और उनके साथी कॉकरोच की बस्तियों का अध्ययन करते रहे हैं। उनका निष्कर्ष है कि कॉकरोच एक सरल किस्म के प्रजातंत्र का पालन करते हैं। इनके समाज में हर एक जीव को समान अधिकार हैं और पूरे समूह का निर्णय एक- एक जीव पर लागू होता है।
सवाल यह है कि आप इसे समझने के लिए प्रयोग कैसे करेंगे? हेलोय ने इसके लिए एक आसान- सा प्रयोग किया। उन्होंने कॉकरोच के एक समूह को एक बड़ी- सी तश्तरी में रखा जिसमें तीन छिपने की जगहें थीं। कॉकरोचों ने आपस में एक- दूसरे को छूकर, एंटीना को टकराकर काफी सलाह- मशविरा किया और फिर समूहों में बँट गए। ये समूह अलग-अलग छिपने की जगहों पर पहुँचे।
छिपने की जगह इस तरह बनाई गई थी कि प्रत्येक में 50 कॉकरोच बन सकते थे। मगर देखा गया कि जब प्रयोग में कुल 50 कॉकरोच थे तब वे सब एक ही जगह पर नहीं गए। वे दो भागों में बँट गए, दोनों में 25-25 कॉकरोच थे। छिपने की तीसरी जगह खाली छूट गई। जब छिपने की जगह ऐसी थी कि उसमें 50 से कहीं ज्यादा कॉकरोच बन सकते थे तो वे समूहों में नहीं बँटे और सारे के सारे एक ही जगह में छिपे।
इस नतीजे को समझने के लिए हेलॉय ने व्याख्या की कि कॉकरोच संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा और सहयोग के बीच संतुलन बनाते हैं। वे कहते हैं, इससे प्रजनन के ज्यादा अवसर मिलते हैं, और भोजन व आश्रय जैसे संसाधनों के बँटवारे में मदद मिलती है।
यदि स्तनधारियों की बात करें, तो वहाँ भी प्रजातंत्र या सामूहिक निर्णय के दर्शन होते हैं। ससेक्स विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लेरिसन कॉनरेट लाल हिरनों का अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने पाया है कि इनमें हरेक सदस्य को तब फायदा मिलता है; जब वह अपने क्रियाकलाप व गतियों को पूरे समूह के साथ सामंजस्य में करे। यहाँ भी यह दिखता है कि साथ रहकर प्रजनन के ज़्यादा अवसर मिलते हैं और संसाधनों का यथेष्ट उपयोग करने तथा शिकारियों से बचने में मदद मिलती है।
और हाल ही में यूएस के एमरी विश्वविद्यालय के यर्क्स प्राइमेट सेंटर के डॉ. फ्रांस डी वाल को चिंपैंजी समाजों में भी इसी प्रकार के सामूहिक निर्णय व कामकाज के प्रमाण मिले हैं। अपनी आगामी पुस्तक 'चिंपैंजी पोलिटिक्समें उन्होंने बताया कि है कि कैसे अल्फा नर (किसी समूह का प्रमुख नर) काफी समय अपने साथी नरों के साथ भोजन बाँटने और उनकी देखभाल करने में बिताता है। इस तरह से वह उन्हें अपने पक्ष में रखता है। इस तरह के आम सहमति जनक सदस्य एक टिकाऊ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करते हैं। मैं सोचता हूँ, समूह राजनीति की शुरुआत यही हुई होगी।
कॉनरेट व रोपर ने अपने पर्चे 'डेमोक्रेसी इन एनिमल्स- दी इवॉल्यूशन ऑफ शेयर्ड ग्रुप डिसीजन्समें जंतु व्यवहार का गेम सिद्धांत प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि सामूहिक निर्णय तब होता है जब किसी समूह के सदस्य विभिन्न विकृपों में से किसी एक का चुनाव समूहिक रूप से करते हैं।
इस प्रक्रिया में 'आम सहमति की लागत लगती है। मगर बगैर साझेदारी के निर्णयों की अपेक्षा बराबरी की साझेदारी से किए गए सामूहिक निर्णयों की आम सहमति लागत कम होती है। यही तो प्रजातंत्र है। जब हम मछलियों, कीटों, और स्तनधारियों का अध्ययन करते हैं तो हमें ऐसे कई जंतुओं और उनकी बस्तियों में सहयोगी व्यवहार के विकास के दर्शन होते हैं जहाँ सदस्य कुछ लाभों की कुर्बानी देने और कुछ लागतें वहन करने को तैयार होते हैं ताकि सामंजस्य को बढ़ावा मिले और समूह- प्रजातंत्र चल सके। (स्रोत फीचर्स)
 




दो लघुकथाएँ



1.रब करदा है सो... 
 -मुरलीधर वैष्णव
 सुबह पाँच बजे का समय। वह सिर झुकाए सेंट्रल जेल की काल कोठरी के आगे बैठा था। कोई पैंतीस-छत्तीस साल का लंबी कद-काठी का गोरा-चिट्टा युवक। उसके उदास चेहरे पर मौत की छाया तैरती स्पष्ट दिखाई दे रही थी। बीस-पच्चीस मिनट बाद उसे वहाँ फाँसी दी जाने वाली थी। बतौर मजिस्ट्रेट फाँसी देखने का मेरा यह पहला ही अवसर था।
''भाई साहब माफ करना। इस वक्त आपसे कोई सवाल करना मुनासिब तो नहीं है, फिर भी यदि बुरा न मानें तो क्या आप बतलाएँगे कि आपके खिलाफ जो फाँसी का फैसला हुआ वह सही है या नहीं ?झिझकते हुए मैंने उससे पूछा।
''रब करदा है सो ठीक ही करदा है।‘’ उसने कुछ क्षण बाद एक लंबी आह भर आकाश की ओर देखते हुए कहा। 
''यानी कि सुपारी लेकर दो आदमियों की हत्या करने का आरोप आप पर सही लगा था?’’ मैंने उससे खुलासा जवाब की अपेक्षा की। 
''की करना है, साबजी, कहा न, रब करदा है सो ठीक ही करदा है।‘’ उसने मुझ पर एक उदास दार्शनिक दृष्टि डालते हुए वही बात दोहराई।
मेरी उत्सुकता अभी भी शांत नहीं हुई थी।
''रब वाली आपकी बात तो सही है। फिर भी नीचे सेशन कोर्ट से राष्ट्रपति तक जो आपके खिलाफ फैसला हुआ है, वह तो सही है न।‘’ फिर भी मैं जिद कर बैठा।
''फैसले की बात छोड़ो साब। वह तो बिलकुल गलत हुआ है। मैंने उन बंदों को नहीं मारा। न उनके लिए कोई सुपारी ली। हाँ वे बन्दे हमारी आपसी गैंगवार की क्रास फायरिंग में जरूर मारे गए थे। लेकिन मेरे दुश्मनों ने मेरे खिलाफ झूठी गवाही देकर मुझे फसा दिया।‘’ अचानक वह झल्ला उठा। लेकिन उसके इस खुलासे से हम सभी स्तब्ध थे।
''फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि रब करदा है सो ठीक ही करदा है।‘’अब मुझसे यह पूछे बिना नहीं रहा गया।
''इससे पहले मैंने सुपारी लेकर चार कत्ल किए थे और उन सब मुकदमों में बरी हो गया था।‘’ उसने बेझिझक स्वीकार किया।

 2-.रोशनी
बेटे की बारात धूमधाम से सजी थी। बैंड बाजे की फास्ट धुन पर दूल्हे के मित्र व परिजन खूब उत्साह-उमंग से नाच रहे थे। बैंड मास्टर अपने काम से ज्यादा वहाँ न्योछावर हो रहे नोट लपकने में लगा था। दूल्हे के चाचा ने खुशी के मारे जोश में आकर पचास के कड़क नोटों की पूरी गड्डी ही उछाल दी थी। नोट हथियाने के लिए बैंड पार्टी, घोड़ी वाले और ढोल वालों में आपाधापी मच रही थी।
उधर गैस बत्ती के भारी लैम्प सिर पर ढोए ठण्ड में सिकुड़ रही क्षीणकाय लड़कियाँ मन मसोसे यह सब देख रही थी। उनके चेहरों पर इस अवसर से वंचित रहने का दु:ख और मायूसी की छाया साफ दिखाई दे रही थी। उनकी यह दशा देखकर दूल्हे के पिता का मन करुणा से भर गया। उसने सौ-सौ के कुछ नोट बेटे पर न्योछावर करके रोशनी ढो रही प्रत्येक लड़की को दो-दो की संख्या में थमा दिए।
इस अप्रत्याशित खुशी से दमकते उन लड़कियों के चेहरों से वहाँ फैली रोशनी कई गुना बढ़ गई थी।

संपर्क: ए-77, रामेश्वर नगर, बासनी प्रथम, जोधपुर-342005, मो.-9460776100

Aug 25, 2011

उदंती.com-अगस्त 2011


अगस्त 2011

ये धरती आन बान शान की है,
वफा की त्याग की बलिदान की है
यहां रमने को तरसते हैं देवता भी,
ये धरती मेरे हिंदुस्तान की है

- शायर हलीम आईना
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स्वाधीनता विशेष
अनकही: वास्तविक स्वतंत्रता
शहर मालामाल और गाँव बदहाल दर बदहाल? - गिरीश पंकज
एक खत गाँधी जी के नाम - निलेश माथुर
लोक चेतना में स्वाधीनता की लय - आकांक्षा यादव
दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है - लोकेन्द्र सिंह कोट
गीत: नाम है इसका ही जिंदगी - देवमणि पाण्डेय
जन्मदिवस 31 अगस्तः वह ताउम्र प्यार की पेशानी का पसीना पोंछती रहीं - परितोष चक्रवर्ती
गजल: वो आसमाँ चाहिये - देवी नागरानी
स्वाधीनता विशेषः अमीरों की सरकार, अमीरों द्वारा अमीरों के लिए - राम औतार साचान
हिन्दी नाटकों के मंचक पंडित राधेश्याम बरेलवी - डॉ. दीपेन्द्र कमथान
गजल: आजादी है - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
कहानी: नागफांस - विष्णु प्रभाकर
गीत : बीती कहानी बंद करो - रश्मि प्रभा
लघुकथा: कर्मयोगी - महेश कुमार बसेडिया
'मेरी कमीज पर तुम्हारी कमीज से कम दाग क्यों?'- मंजु मिश्रा
मेलबॉक्स से: सरकारी नाई
कविता: मैं सुन रहा हूँ - यशवन्त कोठारी
व्यंग्य: कब तक रहेंगे 'दो शब्द' - विनोद साव

वास्तविक स्वतंत्रता...

हम भारतीय हर साल 15 अगस्त के दिन स्वाधीनता दिवस का जश्न बड़े जोर- शोर से मनाते हैं और औपचारिकता निभा कर अपने स्वतंत्र होने पर गर्व करते हैं। पर वास्तव में देखें तो हमने इन 64 वर्षों में स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ को पहचाना ही नहीं है। एक परतंत्रता से मुक्त होकर हम न जाने कितनी नई परतंत्रताओं से घिरते चले जा रहे हैं, जो हमारे देश को विकसित करने के स्थान पर नीचे की ओर ही ढकेलते चले जा रही है। फिर चाहे वह मंहगाई का मुद्दा हो, चाहे गरीबी, बेकारी और अशिक्षा का हो या फिर इन दिनों सबसे ज्यादा चर्चित भ्रष्टाचार का मुद्दा ही क्यों न हो। कायदे से देखा जाए तो इस अवसर विशेष पर हमें देश को कमजोर करने वाली इन सभी समस्याओं की ओर ध्यान देना चाहिए ।
एक ऐसा ही मुद्दा पिछले दिनों उभर कर सामने अया है जिसे नया तो कतई नहीं कहा जा सकता पर स्वाधीनता के अवसर पर इस निरंतर बढ़ते जा रहे सामाजिक समस्या पर चर्चा करना, देश व समाज दोनों के हित में आवश्यक है- 2011 की जनगणना के अनुसार जो आकड़े सामने आएं हैं उसमें से एक देश में कन्याओं की लगातार घटती संख्या भी है। प्राप्त आंकड़ों की ओर नजर डालें तो प्रति हजार लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या घटकर 914 हो गई है। जबकि 2001 की जनगणना में यह संख्या 933 थी। आजादी के बाद यह पहला अवसर है जब भारत में लड़कों और लड़कियों के बीच का अनुपात इतना ज्यादा गिरा है। हरियाणा और पंजाब के कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां लड़कियां पैदा ही नहीं हुईं हैं।
एक ओर तो जनगणना के मुताबिक पुरुषों की तुलना में महिलाओं में साक्षरता तो बढ़ी है, लेकिन इसके बिल्कुल विपरित कन्या भ्रूण हत्या या बेटियों के प्रति नफरत की भावना बढ़ती ही जा रही है। यह वास्तव में राष्ट्रीय शर्म की बात है। यह बात तो बिल्कुल उसी तरह हुई कि हम भारतीय गंगा नदी को अपनी मां की तरह पूजते तो हैं पर उसे नष्ट करने में किसी भी तरह पीछे नहीं है। इसी प्रकार कन्या भ्रूण हत्या करके हम समस्त मानवता की जड़ को ही खत्म करने पर तुले हैं।
इन सबका नतीजा यह है कि कन्या के लगातार घटते चले जाने के भयानक दुष्परिणाम कई राज्यों विशेषकर हरियाणा और राजस्थान में नजर आ रहे हैं। वहां अब विवाह के लिए लड़कियां ही नहीं मिल रही हैं और इसकी पूर्ति के लिए बंगलादेश और बंगाल से लड़कियां लाई जा रही हैं। लेकिन जो लड़कियां वहां गलती से पैदा हो भी जाती हैं, (अर्थात जो भ्रूण परीक्षण से बच जाती हैं) बड़े होने पर उनके माता- पिता उन्हें घर से बाहर इसलिए निकलने नहीं देते क्योंकि उन्हें डर होता है उनकी लड़की का कहीं अपहरण न हो जाए। इस प्रकार यहां की बेटियां कैदी बनकर रह जाती है, यह एक और भयानक सामाजिक समस्या को जन्म दे रही है।
आश्चर्य है कि लिंग अनुपात की असमानता कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए बनाए गए अनेक कानूनों के बावजूद बढ़ती जा रही है। दरअसल हमारे देश में किसी समस्या के निदान के लिए कानून बनाने वाले हमारे कर्ता- धर्ता कागजों में कानून बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि कागजी कानून किसी भी सामाजिक समस्या का हल नहीं है। भारत सरकार ने 17 साल पहले ही एक कानून पीसीपीएनडीटी कानून (प्री-कनसेप्शन ऐन्ड प्री-नेटल डायग्नॉस्टिक टेकनीक्स ऐक्ट) पारित किया था जिसके मुताबिक पैदा होने से पहले बच्चे का लिंग मालुम करना गैरकानूनी है। इस कानून में यह भी स्पष्ट निर्देश है कि भ्रूण परीक्षण करने वाली मशीन पंजीकृत हो जबकि देश भर के अधिकांश शहरों में बिना पंजीकरण के इन मशीनों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। इतना ही नहीं गर्भवती महिला को यदि यह परीक्षण करवाना हो तो कानूनन उसे एक फार्म भरना अनिवार्य होता है, यदि इस फार्म में कुछ भी गलतियां पाई जाती हंै तो यह मान लिया जाता है कि संबंधित डॉक्टर ने लिंग का पता लगाने के लिए ही यह परीक्षण किया है। लेकिन जिस देश में यही नहीं पता कि कितनी मशीनें इस परीक्षण के लिए इस्तेमाल की जा रही हैं वहां सही फार्म भरा जाना तो दूर की बात है फार्म भरे भी जाते होंगे इसमें भी संदेह है।
एक अनुमान के आधार पर पिछले 10 वर्षों में भारत में 80 लाख कन्या भ्रूण की हत्या कर दी गई है। कितने शर्म की बात है कि इतनी बड़ी संख्या में मानव हत्या हो रही है और किसी ने इस पर उंगली भी नहीं उठाई? क्या हम इतने निमर्म समाज है? जबकि प्रकृति का यह विधान है कि दुनिया भर में लिंग अनुपात में प्रति हजार लड़कों पर 950 लड़कियां पैदा होती हैं क्योंकि लड़कों में मृत्युदर ज्यादा है। लेकिन भारत में प्रति हजार लड़कों पर सिर्फ 890 लड़कियां पैदा होती हैं।
आज के ये प्राप्त आकड़े हमारे समाज में असंतुल पैदा कर भविष्य की एक गंभीर सामाजिक समस्या की ओर संकेत कर रही है। इससे अनेक प्रकार की कुरीतियां और बुराईयां जन्म ले रही हंै। समय रहते इसे रोकना आवश्यक है। इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए बने कानून का पालन कड़ाई से हो इसके लिए एक ऐसी निगरानी समीति बनाए जो कन्या भ्रूण का परीक्षण करने वालों पर अंकुश लगाने में कारगर भूमिका निभाए। ताकि गैरकानूनी तरीके से भ्रूण परीक्षण कर कन्या को गर्भ में ही मार देने का जो व्यवसाय इन दिनों फल- फूल रहा है और समाज की जड़ों को खोखला करते चले जाने का जो काम खुले आम हो रहा है उसे रोका जा सके। इन सब प्रयासों के साथ ही साथ हमें जो सबसे कारगर और महत्वपूर्ण कदम उठाना होगा वह है शिक्षा के प्रचार- प्रसार का। क्योंकि अंधविश्वास, कुरीति, दहेज प्रथा तथा बेटी को बोझ मानने वाली जैसी हमारी अंध- परंपराओं का नाश शिक्षा रूपी हथियार के माध्यम से ही किया जा सकता है।
अंत में इतना ही कि हमारी वास्तविक स्वतंत्रता तभी मानी जाएगी जब हम लड़कियों को प्रकृति के विधान के अनुसार निर्धारित संख्या में जन्म लेने दें। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन हम इस चर्चित कहावत को सिर्फ परंपरा का निर्वाह करने के लिए नहीं बल्कि चरितार्थ करते हुए गर्व से कहेंगे- यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते तत्र रमंते देवता।


- डॉ. रत्ना वर्मा

शहर मालामाल और गाँव बदहाल दर बदहाल?

- गिरीश पंकज

देश की स्वतंत्रता के सामने यह एक बड़ी चुनौती ही है कि जिनके हाथों में हमने विकास की बागडोर सौंपी है, वे दिशाहीन घोड़े की तरह भाग रहे हैं। देश को नेता-अफसर चारा, पिज्जा- बर्गर या चाउमीन समझ कर हजम कर रहे हैं। देश को अपना घर समझ कर उसे सँवारने की कोई कोशिश नहीं हो रही। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है।
देश की वर्तमान हालात देख कर कई बार महसूस होता है, कि क्या इस देश में आजादी को बहुत हल्के-से लिया जाने लगा है? क्या नागरिक और क्या व्यवस्था, हर कहीं राष्ट्र की गरिमा का ख्याल रखने जैसी कोई बात नहीं आती। सरकार देश को निजी कारोबारियों की तरह चला रही हैं तो नागरिक अपने स्वार्थ में पड़कर देश का नुकसान करने पर तुले हैं। ऐसे विषम समय में देश की हालत पर सोचने और एक बार फिर देश को नवजागरण की दिशा में ले जाने वाली रचनात्मक ताकतों के पक्ष में वातावरण बनाने की जरूरत है।
आजादी के छ: दशक बीत चुके हैं। चौसठ साल का प्रौढ़ स्वतंत्र राष्ट्र है भारत। यह अवधि विकास कि दृष्टि से कम नहीं कही जा सकती। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि देश के अनेक गाँव और आदिवासी इलाके आज भी विकास की रौशनी से महरूम हैं, वंचित हैं। कहीं बिजली नहीं, कहीं सड़क नहीं, कहीं पाठशालाएँ नहीं, कहीं स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं। यह कैसा नया भारत हैं, जहाँ शहरों में तो मॉल पर मॉल बनते चले जाएँ, लोग मालामाल होते जाएँ और गाँव बदहाल दर बदहाल होता चला जाए?
दो तरह का समाज बनाते जा रहे हैं हम। एक गरीबों का, एक अमीरों का। शहरों की हालत देखता हूँ तो हैरत होती है। यहाँ दो तरह के स्कूल विकसित हो चुके हैं। एक गरीबों के स्कूल हैं, तो दूसरी तरफ अमीरों के स्कूल हैं। और स्कूल भी कैसे, गोया वे सितारा होटल हों। वातानुकूलित। जो बच्चे कभी मिट्टी से जुड़कर अध्ययन करते थे, स्वस्थ रहते थे। खुली हवा में साँस लेते थे, आज कमजोर शरीर के स्वामी बन रहे हैं। अमीरी का ऐसा भद्दा दिखावा हो रहा है कि मत पूछिए। यही कारण है कि समाज में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शहरों में आपराधिक घटनाएँ कई गुना बढ़ी हैं। आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद जैसी नई बीमारी का उदय हो चुका है। इससे मुक्ति पाने के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हो रहे हैं। इस रोग के पीछे गरीबी, बदहाली, असमानता और विकास के प्रति बेरुखी ही मुख्य कारण है। अगर हम सब इस दिशा में सोचें और कदम उठाएँ तो एक खुशहाल भारत को विकसित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन अब इस दिशा में सोचने वाले लोग हाशिये पर हैं। आईना दिखाने वाले चिंतकों को सरकार विरोधी समझने की भी भूल कर दी जाती है। मेरा तो छोटा-सा अनुभव यही है।
आज भी गाँव और आदिवासी इलाके विकास की मुख्यधारा से कटे लगते हैं। जैसे वे बेचारे बाढ़ से घिरे हुए टापू हों। जहाँ बदहाली, भूख और प्यास है। विकास के नाम पर जहाँ केवल एक हड़पनीति है। सारा विकास शहरों के हिस्से आया और गाँव को हमने अछूत की तरह देखा। उसे हमने चुनाव के समय ही नमन किया। यानी कि हमने उसे केवल ठगने का ही काम किया। यही कारण है कि आज एक तरफ इंडिया है, जो पूर्णत: विकसित दिखता है, अँग्रेजी बोलता है, अश्लील या ऊटपटाँग कपड़े पहनता है। आदर्श- नैतिकता जहाँ कोई मुद्दा नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ एक अदद हिंदुस्तान है, भारत है, जो प्रतीक्षा कर रहा है, कि कब विकास की किरण आएगी, और उसका अँधेरा भागेगा। अँधेरे को यहाँ व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है। अँधेरा एक ऐसा रूपक है, जो अनेकार्थ उपस्थित करता है। आज अगर गाँवों में या आदिवासी इलाकों से हिंसा की लपटें निकल रही हैं, तो उसके पीछे शोषण ही रहा है। यह अलग बात है, कि इन लपटों में कुछ शातिर हवाएँ भी शरीक कर राष्ट्र को जानबूझकर क्षति पहुँचाने की कोशिशें कर रही हैं। इसलिए अब यह बेहद जरूरी है कि तमाम तरह के खतरे उठाते हुए और उससे निपटने की तैयारी के साथ हम अपने विकास के एजेंडे में गाँव और वनांचलों को शामिल करें। यह बात समझ ली जानी चाहिए कि गाँव और वनांचलों का विकास ही राष्ट्र का सच्चा विकास है। बिना इसके विकास पूर्णत: एकांगी है, बेमानी है।
देश के सामने महँगाई भी एक बड़ा मुद्दा है। कह सकते हैं कि महँगाई की डायन खा रही है और भ्रष्टाचार का दैत्य हमें परेशान कर रहा है। विदेश में जमा कालाधन वापस लाने की माँग हो रही है, मगर उसे लाने की दिशा में केंद्र का ठंडा रवैया अचरज में डाल देता है। शिक्षा और स्वास्थ्य भी कम अहम मुद्दा नहीं है। गाँवों का विकास अब तक अलक्षित-सा है। न जाने क्यूँ हमने गाँव पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। वैसे अब नई पंचवर्षीयोजना में गाँवों तक इंटरनेट पहुँचाने का लक्ष्य तो बन गया है, लेकिन दुख की बात यही है, कि गावों को विकास की मुख्यधारा से जोडऩे के लिए किए जाने वाले उपाय भ्रष्टाचार की चपेट में आ जाते हैं। दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेलों में जो भ्रष्टाचारी- खेल हुए, वे सबके सामने आ गए। संचार घोटाले के कारण केन्द्रीय मत्रियों को तिहाड़ का रास्ता देखना पड़ा। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में भारत के लोगों का एक चेहरा सामने आया है। निर्माण या विकास के नाम पर भ्रष्टाचार जैसे 'सांस्कृतिक परम्परा-सी' बन गई है। पूरे महादेश में यह रोग फैला हुआ है। एक ओर भ्रष्ट अफसर और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं, देश की आम जनता गरीबी का दंश भोगने पर विवश है। दिल्ली से लेकर बस्तर तक विकास की गंगा को गटर- गंगा बनाने वाले चंद लोग ही होते हैं। अगर हमारे देश में अफसर और नेता ईमानदार हो जाएँ तो यह देश स्वर्ग बन सकता है। लेकिन अब कोई इस दिशा में सोचता नहीं। सबको यही लगता है, कि जब तक कुर्सी है, कमाई कर लो और निकल लो।
देश की स्वतंत्रता के सामने यह एक बड़ी चुनौती ही है कि जिनके हाथों में हमने विकास की बागडोर सौंपी है, वे दिशाहीन घोड़े की तरह भाग रहे हैं। देश को नेता-अफसर चारा, पिज्जा- बर्गर या चाउमीन समझ कर हजम कर रहे हैं। देश को अपना घर समझ कर उसे सँवारने की कोई कोशिश नहीं हो रही। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है। घर भरने की पाशविक मनोवृत्ति के कारण देश हाशिये पर चला गया है। अपना घर- परिवार, अपना भारी- भरकम बैंक- बैलेंस, महँगी कारें, अत्याधुनिक बँगले आदि की ललक ने लोगों को हद दर्जे का अपराधी बना दिया है। इस फितरत के शिकार दिखने वाली जमात को आसानी से पहचाना जा सकता है। मजे की बात है कि ये खलनायक ही हमारे नायक बने हुए हैं। राजनीति और समाज के दूसरे घटक भी भ्रष्ट हो कर विकास करने में विश्वास करते हैं। नतीजा सामने है कि इस समय देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़े खेल के रूप में उभरा है। हमारा देश ओलंपिक खेलों में भले ही फिसड्डी रहे, लेकिन वह भ्रष्टाचार में नंबर वन रहने की पूरी कोशिश करता है। यही कारण है, कि विकासशील भारत पर भ्रष्टाचार का काला साया मंडरा रहा है। इसलिए आज हम देखें तो हमारे सामने भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय मुद्दा है। जैसे हम नक्सलवाद या आतंकवाद को देश की बड़ी समस्या मानते हैं, उसी तरह भ्रष्टाचार उससे कहीं ज्यादा बड़ी समस्या है।
बाजारवाद एक दूसरे किस्म की समस्या है। इसकी चपेट में हमारी नैतिकता आ गई है। यह एक दूसरा मसला है, जिस पर फिर कभी लिखूँगा। फिलहाल चौंसठवें स्वतंत्रता दिवस पर अगर देश के सामने उभरने वाले कुछ मुद्दों की बात करें तो इस वक्त भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। इससे मुक्ति के बगैर देश का सच्चा विकास असंभव है। विकास तो एक प्रक्रिया है। वह होगी ही, लेकिन नैतिकता, ईमानदारी, समर्पण, त्याग या फिर कहें कि राष्ट्र प्रेम के बगैर किसी देश का सुव्यवस्थित और स्थायी विकास संभव नहीं हो सकता। मेरा कवि मन अपनी भावनाओं को निष्कर्षत: इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करना चाहता है -
मेहनतकश भारत तो दिनभर खटकर मेहनत करता है
मगर इंडिया शोषक बनकर यहाँ हुकूमत करता है।
जब तक एक देश में दो- दो देश यहाँ विकसाएँगे,
हिंसा के दानव को हम सब, कभी रोक ना पाएँगे।
वक्त आ गया है सब मिलकर भारत का उत्थान करें।
जहाँ समर्पण, त्याग खिले उस बगिया का निर्माण करें।

संपर्क: जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ 492001 मो. 094252 12720

पाती

एक खत गाँधी जी के नाम
- निलेश माथुर
पूज्य बापू ,
सादर प्रणाम, आशा ही नहीं हमें पूर्ण विश्वास है कि आप कुशलता से होंगे। हम सब भी यहाँ मजे में हैं। देश और समाज की स्थिति से आपको अवगत करवाने के लिए मैंने यह खत लिखना अपना कत्र्तव्य समझा। कुछ बातों के लिए हम आपसे माफी चाहते हैं जैसे कि आपके बताए सत्य और अहिंसा के सिद्धांत में हमने कुछ परिवर्तन कर दिए हैं- इसे हमने बदल कर असत्य और हिंसा कर दिया है। इसमें हमारे गाँधीवादी राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा योगदान रहा है, वे हमें समय- समय पर दिशाबोध कराते रहते हैं और हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। इन्हीं के मार्गदर्शन में हम असत्य और हिंसा के मार्ग पर निरंतर अग्रसर हैं, बाकी सब ठीक है।
आपने हमें जो आजादी दिलवाई उसका हम भरपूर फायदा उठा रहे हैं। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, बाकी सब ठीक है।
हर सरकारी विभाग में आपकी तस्वीर दीवारों पर टँगवा दी गयी है और नोटों पर भी आपकी तस्वीर छपवा दी गयी है। इन्हीं नोटों का लेना- देना हम घूस के रूप में धड़ल्ले से कर रहे हैं, बाकी सब ठीक है।
स्वराज्य मिलने के बाद भी भूखे नंगे आपको हर तरफ नजर आएँगे, उनके लिए हम और हमारी सरकार कुछ भी नहीं कर रहे हैं, हमारी सरकार गरीबी मिटाने की जगह गरीबों को ही मिटाने की योजना बना रही है, बाकी सब ठीक है।
बापू हमें अफसोस है की खादी को हम आज तक नहीं अपना सके हैं, हम आज भी विदेशी वस्त्रों और विदेशी वस्तुओं को ही प्राथमिकता देते हैं, बाकी सब ठीक है।
अस्पृश्यता आज भी उसी तरह कायम है। जिन दलितों का आप उत्थान करना चाहते थे, उनकी आज भी कमोबेश वही स्थिति है, बाकी सब ठीक है।
बापू आजकल हम सत्याग्रह नहीं करते, हमने विरोध जताने के नए तरीके इजाद किये हैं। आज कल हम विरोध स्वरुप बंद का आयोजन करते हैं और उग्र प्रदर्शन करते हैं, जिसमें कि तोडफ़ोड़ और आगजनी की जाती है, बाकी सब ठीक है।
जिस पाकिस्तान की भलाई के लिए आपने अनशन किये थे, वही पाकिस्तान आज हमें आँख दिखाता है, आधा कश्मीर तो उसने पहले ही हड़प लिया था, अब उसे पूरा कश्मीर चाहिए। आतंकियों की वो भरपूर मदद कर रहा है। हमारे देश में वो आतंक का नंगा नाच कर रहा है। आये दिन बम के धमाके हो रहे हैं और हजारों बेगुनाह फिजूल में अपनी जान गँवा रहे हैं, बाकी सब ठीक है।
बांग्लादेश के साथ भी हम पूरी उदारता से पेश आ रहे हैं, वहां के नागरिकों को हमने अपने देश में आने और रहने की पूरी आजादी दे रखी है, करोड़ों की संख्या में वे लोग यहाँ आकर मजे में रह रहे हैं, और हमारे ही लोग उनकी वजह से भूखे मर रहे हैं, बाकी सब ठीक है।
बापू हम साम्प्रदायिक भाईचारा आज तक भी कायम नहीं कर पाए हैं। धर्म के नाम पर हम आये दिन खून बहाते हैं। आज हमारे देश में धर्म के नाम पर वोटों की राजनीति खूब चल रही है। साम्प्रदायिक हिंसा आज तक जारी है। बाकी सब ठीक है।
बापू आज आप साक्षात यहाँ होते तो आपको खून के आँसू रोना पड़ता, बापू आपने नाहक ही इतना कष्ट सहा और हमें आजादी दिलवाई, हो सके तो हमें माफ करना।
आपका अपना
एक गैर जिम्मेदार भारतीय नागरिक

संपर्क: देवमती भवन, ए.के. आजाद रोड रेहाबारी, गुवाहाटी,
मो. 9706038144, 9864038144
mathurnilesh.blogspot.com

लोक चेतना में स्वाधीनता की लय

- आकांक्षा यादव
यह आजादी हमें यूं ही नहीं प्राप्त हुई वरन इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल- बाल- पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इंकलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया।
स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आजादी का अर्थ सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं अपितु यह एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का हित व उसकी पंरपराएं छुपी हुई हैं। कभी सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले भारत राष्ट्र को भी पराधीनता के दौर से गुजरना पड़ा। पर पराधीनता का यह जाल लम्बे समय तक बाँध नहीं पाया और राष्ट्रभक्तों की बदौलत हम पुन: स्वतंत्र हो गये। स्वतंत्रता रुपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यूँ ही नहीं प्राप्त हुई वरन इसके पीछे शहादत का इतिहास है। ला- बाल- पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इंकलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया।
इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी- दर- पीढ़ी प्रवाहित होता रहता। तभी तो कहा जाता है कि किसी भी देश या समाज की संस्कृति, सभ्यता को जानने के लिए सबसे पहले उसके लोक साहित्य का अध्ययन करना जरुरी है। लोक साहित्य में जीवन की भावात्मक अभिव्यक्ति होती है और यह भावव्यंजना लोकमंगलकारी होती है। लोकलय की आत्मा में मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूँ व्यक्त किया गया है-
जब सत्तावनि के रारि भइलि, बीरन के बीर पुकार भइल।
बलिया का मंगल पाण्डे के, बलिवेदी से ललकार भइल।
मंगल मस्ती में चूर चलल, पहिला बागी मसहूर चलल।
गोरनि का पलटनि का आगे, बलिया के बाँका सूर चलल।
कहा जाता है कि 1857 की क्रान्ति की जनता को भावी सूचना देने हेतु और उनमें सोयी चेतना को जगाने हेतु 'कमल' और 'चपाती' जैसे लोकजीवन के प्रतीकों को संदेशवाहक बनाकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजा गया। यह कालिदास के मेघदूत की तरह अतिरंजना नहीं अपितु एक सच्चाई थी। क्रान्ति का प्रतीक रहे 'कमल' और 'चपाती' का भी अपना रोचक इतिहास है। किंवदन्तियों के अनुसार एक बार नाना साहब पेशवा की भेंट पंजाब के सूफी फकीर दस्सा बाबा से हुई। दस्सा बाबा ने तीन शर्तों के आधार पर सहयोग की बात कही- सब जगह क्रान्ति एक साथ हो, क्रान्ति रात में आरम्भ हो और अंग्रेजों की महिलाओं व बच्चों का कत्लेआम न किया जाय। नाना साहब की हामी पर अलौकिक शक्तियों वाले दस्सा बाबा ने उन्हें अभिमंत्रित कमल के बीज दिये तथा कहा कि इसका चूरा मिला आटे की चपातियाँ जहाँ- जहाँ वितरित की जायेंगी वह क्षेत्र विजित हो जायेगा। फिर क्या था, गाँव- गाँव तक क्रान्ति का संदेश फैलाने के लिए चपातियाँ भेजी गईं। कमल को तो भारतीय परम्परा में शुभ माना जाता है पर चपातियों का भेजा जाना सदैव से अंग्रेज अफसरों के लिए रहस्य बना रहा। वैसे भी चपातियों का सम्बन्ध मानव के भरण- पोषण से है। वी.डी. सावरकर ने एक जगह लिखा है कि-'हिन्दुस्तान में जब भी क्रान्ति का मंगल कार्य हुआ, तब ही क्रान्तिदूत चपातियों द्वारा देश के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पावन संदेश को पहुँचाने के लिये इसी प्रकार का अभियान चलाया गया था क्योंकि वेल्लोर के विद्रोह के समय में भी ऐसी ही चपातियों ने सक्रिय योगदान दिया था।' चपाती (रोटी) की महत्ता मौलवी इस्माईल मेरठी की इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-
मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर,
तो वह खौफो जिल्लत के हलवे से बेहतर।
जो टूटी हुई झोंपड़ी वे जरर हो,
भली उस महल से जहाँ कुछ खतर हो।
1857 की क्रान्ति वास्तव में जनमानस की क्रान्ति थी, तभी तो इसकी अनुगूंज लोक साहित्य में भी सुनायी पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित करने में प्रमुख भूमिका निभायी।
भोजपुरी में गाए जाने वाले 'चैता' में देशभक्ति का ज्वार
यूं फूटा-
राम किया लडि़ मरबि या मारबि फिरंगिया ए रामा
जीतबि या आपन जानवाँ गवाँइबि ए रामा।
लोगों को इस संग्राम में शामिल होने हेतु प्रकट भाव को लोकगीतों में इस प्रकार व्यक्त किया गया-
गाँव-गाँव में डुग्गी बाजल, बाबू के फिरल दुहाई।
लोहा चबवाई के नेवता बा, सब जन आपन दल बदल।
बा जन गंवकई के नेवता, चूड़ी फोरवाई के नेवता।
सिंदूर पोंछवाई के नेवता बा, रांड कहवार के नेवता।
1857 की जनक्रान्ति का गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने भी बड़ा जीवन्त वर्णन किया है। उनकी कविता पढ़कर मानो 1857, चित्रपट की भाँति आँखों के सामने छा जाता है-
सम्राट बहादुरशाह 'जफर', फिर आशाओं के केन्द्र बने।
सेनानी निकले गाँव- गाँव, सरदार अनेक नरेन्द्र बने।
लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का।
हिन्दू-मुस्लिम हो गये एक, रह गया न नाम दुरंगी का।
अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे।
घनघोर बादलों- से गरजे, बिजली बन-बनकर कड़क उठे।
हर तरफ क्रान्ति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था जोरों का।
पुतला बचने पाये न कहीं पर, भारत में अब गोरों का।
1857 की क्रान्ति की गूँज दिल्ली से दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भी सुनायी दी थी। वैसे भी उस समय तक अंग्रेजी फौज में ज्यादातर सैनिक इन्हीं क्षेत्रों के थे। स्वतंत्रता की गाथाओं में इतिहास प्रसिद्ध चौरीचौरा की डुमरी रियासत बंधू सिंह का नाम आता है, जो कि 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों का सर कलम करके और चौरीचौरा के समीप स्थित कुसुमी के जंगल में अवस्थित माँ तरकुलहा देवी के स्थान पर इसे चढ़ा देते। कहा जाता है कि एक गद्दार के चलते अंग्रेजों की गिरफ्त में आये बंधू सिंह को जब फाँसी दी जा रही थी, तो सात बार फाँसी का फन्दा ही टूटता रहा। यही नहीं जब फाँसी के फन्दे से उन्होंने दम तोड़ दिया तो उस पेड़ से रक्तस्राव होने लगा जहाँ बैठकर वे देवी से अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे की शक्ति माँगते थे।
पूर्वांचल के अंचलों में अभी भी यह पंक्तियाँ सुनायी जाती हैं-
सात बार टूटल जब, फांसी के रसरिया,
गोरवन के अकिल गईल चकराय।
असमय पड़ल माई गाढ़े में परनवा,
अपने ही गोदिया में माई लेतु तू सुलाय।
बंद भईल बोली रुकि गइली संसिया,
नीर गोदी में बहाते, लेके बेटा के लशिया।
भारत को कभी सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। पर अंग्रेजी राज ने हमारी सभ्यता व संस्कृति पर घोर प्रहार किये और यहाँ की अर्थव्यवस्था को भी दयनीय अवस्था में पहुँचा दिया। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने इस दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है-
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो
सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो
सबके पहिले जो रूप- रंग रस- भीनो
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।
आजादी की सौगात भीख में नहीं मिलती बल्कि उसे छीनना पड़ता है। इसके लिये जरूरी है कि समाज में कुछ नायक आगे आयें और शेष समाज उनका अनुसरण करे। ऐसे नायकों की चर्चा गाँव- गाँव की चौपालों पर देखी जा सकती थी। बिरसा मुण्डा के बारे मेंप्रचलित एक मुंडारी लोकगीत के शब्द देखें-
तमाड़ परगना गेरडे अली हातु,
बिरसा भोगवान-ए जानोम लेगा।
आटा-माटा बिरको तला चलेकद रे दो,
चले कद हतु रे उलगुलान लेदा।
गुरिल्ला शैली के कारण फिरंगियों में दहशत और आतंक का पर्याय बन क्रान्ति की ज्वाला भड़काने वाले तात्या टोपे से अंग्रेजी रूह भी कांपती थी फिर उनका गुणगान क्यों न हो। राजस्थानी कवि शंकरदान सामौर तात्या की महिमा 'हिन्द नायकÓ के रूप में गाते हैं-
जठै गयौ जंग जीतियो, खटकै बिण रण खेत।
तकड़ौ लडियाँ तांतियो, हिन्द थान रै हेत।
मचायो हिन्द में आखी, तहल कौ तांतियो मोटो।
धोम जेम घुमायो लंक में हणंू घोर।
रचाओ ऊजली राजपूती रो आखरी रंग।
जंग में दिखायो सूवायो अथग जोर।
1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरुष नायकों ने भाग लिया, महिलाएं भी उनसे पीछे न रहीं। लखनऊ में बेगम हजरत महल तो झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की अगुवाई की। बेगम हजरत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया।
मजा हजरत ने नहीं पाई, केसर बाग लगाई।
कलकत्ते से चला फिरंगी, तंबू कनात लगाई।
पार उतरि लखनऊ का, आयो डेरा दिहिस लगाई।
आसपास लखनऊ का घेरा, सड़कन तोप धराई।
रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। उनकी मौत पर जनरल ह्यूरोज ने कहा था कि- 'यहाँ वह औरत सोयी हुई है, जो व्रिदोही में एकमात्र मर्द थी।' 'झाँसी की रानी' नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चौहान 1857 की उनकी वीरता का बखान करती हैं, पर उनसे पहले ही बुंदेलखण्ड की वादियों में दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है-
खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी।
पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी।
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी।
छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी।
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
1857 की क्रान्ति के दौरान ज्यों- ज्यों लोगो को अंग्रेजों की पराजय का समाचार मिलता वे खुशी से झूम उठते। अजेय समझे जाने वाले अंग्रेजों का यह हश्र, उस क्रान्ति के साक्षी कवि सखवत राय ने यूँ पेश किया है-
गिद्ध मेडराई स्वान स्यार आनंद छाये,
कहिं गिरे गोरा कहीं हाथी बिना सूंड के।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया। बौखलाकर अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों को फांसी दी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया और तोपों से बांधकर दागा-
झूलि गइलें अमिली के डरियाँ, बजरिया गोपीगंज कई रहलि।
वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सजा दे दी। तभी तो अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला 'कजरी' के बोलो में कहती है-
अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी,
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा।
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी,
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा।
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।
बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी बहिष्कार, प्रतिरोध का नारा खूब चला। अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाना और उनका बहिष्कार करना देश भक्ति का शगल बन गया था, फिर चाहे अंग्रेजी कपड़ों में ब्याह रचाने आये बाराती ही हों-
फिर जाहु- फिरि जाहु घर का समधिया हो,
मोर धिया रहिहैं कुंआरि।
बसन उतारि सब फेंकहु विदेशिया हो, मोर पूत रहिहैं उघार।
बसन सुदेसिया मंगाई पहिरबा हो, तब होइहै धिया के बियाह।
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता।
सुभद्राकुमारी चौहान ने 'जलियाँवाला बाग में वसंत' नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा- खाकर,
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,अपने प्रिय- परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना।
तड़प- तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर।
यह सब करना, किन्तु बहुत धीरे- से आना,
यह है शोक- स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।
कोई भी क्रान्ति बिना खून के पूरी नहीं होती, चाहे कितने ही बड़े दावे किये जायें। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक ऐसा भी दौर आया जब कुछ नौजवानों ने अंग्रेजी हुकूमत की चूल हिला दी, नतीजन अंग्रेजी सरकार उन्हें जेल में डालने के लिये तड़प उठी। 11 अगस्त 1908 को जब 15 वर्षीय क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने निर्ममता से फांसी पर लटका दिया तो मशहूर उपन्यासकार प्रेमचन्द के अन्दर का देशप्रेम भी हिलोरें मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर अपने घर लाये तथा कमरे की दीवार पर टांग दिया। खुदीराम बोस को फांसी दिये जाने से एक वर्ष पूर्व ही उन्होंने 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' नामक अपनी प्रथम कहानी लिखी थी, जिसके अनुसार- 'खून की वह आखिरी बूँद जो देश की आजादी के लिये गिरे, वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।' उस समय अंग्रेजी सैनिकों की पदचाप सुनते ही बहनें चौकन्नी हो जाती थीं। तभी तो सुभद्राकुमारी चौहान ने 'बिदा' में लिखा कि-
गिरफ्तार होने वाले हैं, आता है वारंट अभी।
धक- सा हुआ हृदय, मैं सहमी, हुए विकल आशंक सभी।
मैं पुलकित हो उठी! यहाँ भी, आज गिरफ्तारी होगी।
फिर जी धड़का, क्या भैया की, सचमुच तैयारी होगी।
आजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की दिली तमन्ना होती थी कि उसका भी पति इस दीवानगी में शामिल हो। तभी तो पत्नी पति के लिए गाती है- जागा बलम गाँधी टोपी वाले आई गइलैं.. ..
राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह हो।
तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गइलै।
सरदार भगत सिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन के अगुवा थे। उन्होंने जब भरी असेंबली में बम फेंका तो लोक लय स्वत: मुखरित हो उठी-
'केड़ी माँ ने भगत नू जम्मियाँ, जंगल च शेर बुकदा।
बारीं बरसी खटणा गया, खट के लिया दा माया।
भगत सिंह सुरमे ने, असैंबली च बंब चलाया।'
भगत सिंह ने तो हँसते- हँसते फांसी के फन्दों तक को चूम लिया था। एक लोकगायक भगत सिंह के इस तरह जाने को बर्दाश्त नहीं कर पाता और गाता है-
एक- एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है,
तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है।
मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा,
अपनी- अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा।
मैं उनसे अपना वीर भगत सिंह माँग लाऊँगा।
इसी प्रकार चन्द्रशेखर आजाद की शहादत पर उन्हें याद करते हुए एक अंगिका लोकगीत में कहा गया-
हौ आजाद त्वौं अपनौ प्राणे कऽ ,
आहुति दै के मातृभूमि कै आजाद करैलहों।
तोरो कुर्बानी हम्मै जिनगी भर नैऽ भुलैबे,
देश तोरो रिनी रहेते।
सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया कि- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ- साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठेे-
हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी।
कड़ा- छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा।
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।
महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातकर उन्होंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान अपनी- अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर में गाते-
अपने हाथे चरखा चलउबै, हमार कोऊ का करिहैं।
गाँधी बाबा से लगन लगउब, हमार कोई का करिहैं।
पंजाबी लोक गीतों में भी यही भावना अभिव्यक्त होती है-
'दे चर्खे नूं गेड़ा, लोड़ नहीं तोपां दी।
तेरे बंब नू चलज नहीं देणा, गांधी दे चर्खे ने।'
1942 में जब गाँधी जी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का आह्वान किया तो ऐसा लगा कि 1857 की क्रान्ति फिर से जिन्दा हो गयी हो। क्या बूढ़े, क्या नवयुवक, क्या पुरुष, क्या महिला, क्या किसान, क्या जवान...... सभी एक स्वर में गाँधी जी के पीछे हो लिये। ऐसा लगा कि अब तो अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना ही होगा। गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने इस ज्वार को महसूस किया औरइस जन क्रान्ति को शब्दों से यूँ सँवारा-
बीसवीं सदी के आते ही, फिर उमड़ा जोश जवानों में।
हड़कम्प मच गया नए सिरे से, फिर शोषक शैतानों में।
सौ बरस भी नहीं बीते थे, सन् बयालीस पावन आया।
लोगों ने समझा नया जन्म, लेकर सन् सत्तावन आया।
आजादी की मच गई धूम, फिर शोर हुआ आजादी का।
फिर जाग उठा यह सुप्त देश, चालीस कोटि आबादी का।
भारत माता की गुलामी की बेडिय़ाँ काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस के साथ कि आने वाली पीढिय़ाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढिय़ाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं। कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते-
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
देश आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय की बेला में विजय का आभास हो रहा था। फिर कवि लोकमन को कैसे समझाता। आखिर उसके मन की तरंगें भी तो लोक से ही संचालित होती हैं। कवि सुमित्रानन्दन पंत इस सुखद अनुभूति को यूँ
सँजोते हैं-
चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण।
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन।
नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण।
तरुण- अरुण- सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन।
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन।
आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन।
शांत हुआ अब युग- युग का भौतिक संघर्षण।
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण।
देश आजाद हो गया, पर अंग्रेज इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक- आर्थिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर गये। एक तरफ आजादी की उमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं का डर। कवि रसूल मियाँ 'पन्द्रह अगस्त' की बेला पर उल्लास भी व्यक्त करते हैं और सचेत भी करते हैं -
पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस के सुराज मिल,
बड़ा कठिन से ताज मिल। सुन ला हिन्दू- मुसलमान भाई,
अपना देशवा के कर ला भलाई।
तोहरे हथवा में हिन्द माता के लाज मिल,
बड़ा कठिन से ताज मिल।
आजादी भले ही मिल गई पर देश में सांप्रदायिकता व नफरत के बीज भी बो गई। 'बांटो और राज करो' की तर्ज पर अंग्रेजों ने जाते-जाते देश के दो टुकड़े कर दिए। आजादी के जश्न से परे महात्मा गांधी निकल पड़े ऐसे ही दंगाइयों को समझाने पर उनकी नियति में कुछ और ही लिखा था। अंतत: 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। फिर भला लोक- कवि का आहत मन भला कैसे शांत रहता-
के मारल हमरा गाँधी के गोली हो, धमाधम तीन गो।
कल्हीए आजादी मिल, आज चलल गोली।
गाँधी बाबा मारल गइले, देहली के गली हो।
धमाधम तीन गो, पूजा में जात रहले बिरला भवन में।
दुशमनवा बइठल रहल पाप लिए मन में,
गोलिया चला के बनल बली हो।
धमाधम तीन गो। - कवि रसूल मियाँ
आजादी की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है बल्कि एक दास्तान है कि क्यों हम बेडिय़ों में जकड़े, किस प्रकार की यातनायें हमने सहीं और शहीदों की किन कुर्बानियों के साथ हम आजाद हुये। लोक साहित्य में आजादी के दिनों का सहज और स्वाभाविक चित्र देखने को मिलता है। लोक साहित्य असीम है और यह ऐतिहासिक घटनाक्रम की मात्र एक शोभा यात्रा नहीं अपितु भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष, राजनैतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरूद्ध लोक चेतना का प्रबुद्ध अभियान एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष की दास्तान है। जरूरत है हम अपनी कमजोरियों का विश्लेषण करें, तद्नुसार उनसे लडऩे की चुनौतियाँ स्वीकारें और नए परिवेश में नए जोश के साथ आजादी के नये अर्थों के साथ एक सुखी व समृद्ध भारत का निर्माण करें।

मेरे बारे में
30 जुलाई 1982, सैदपुर, गाजीपुर (उ.प्र.) में जन्म व संस्कृत में एम.ए। देश-विदेश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं एवं वेब में कविता, लेख, बाल कविताएँ व लघु कथाओं का प्रकाशन, सम्प्रति- कॉलेज में प्रवक्ता। संपर्क: टाइप 5, ऑफिसर्स बंगला, हैडो, पोर्टब्लेयर, अंडमान- निकोबार द्वीप समूह 744102
ईमेल- kk_akanksha@yahoo.com
ब्लॉग - shabdshikhar.blogspot.com