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Jan 29, 2011

उदन्ती.com-जनवरी 2011

वर्ष 1, अंक 5, जनवरी 2011
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फूल चुन कर एकत्र करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो, तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे।
- रवींद्रनाथ ठाकुर
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अनकही: वो सुबह कभी तो आएगी...
यादें: टाइगर मैन: बिली अर्जन सिंह - कृष्ण कुमार मिश्र
एक पाती: पर्यावरण का शत्रु पॉलीथीन - दिव्या जैन
वाह भई वाह
मनोविज्ञान: मासूमियत का अंत - अजिता मेनन
पर्यावरण: खतरे में है सुंदरवन - नरेंद्र देवांगन
कविताएं: अनुभवों का शंखनाद - रश्मि प्रभा
भोर की पहली किरण - आशा भाटी
खुशी के फूल - डॉ. भावना कुंअर

संस्मरण: तन मन धन से समर्पित ... - द्वारिका प्रसाद शुक्ल
सेहत: अनार का जूस: चार हफ्ते में घटा सकता है... - उदंती फीचर्स
परदादा बनने की उम्र में पिता बनने का सुख
पिकासो के रोचक संस्मरण
लघु कथाएं: कागज की किश्तियां, रिश्ते - डॉ अशोक भाटिया
कहानी: डाची - उपेंद्रनाथ अश्क
किताबें: ठाकुर जगमोहन सिंह
व्यंग्य: हाय मेरी प्याज - राम किशन भंवर
वन्य जीवन: दुर्लभ काला तेन्दुआ, अलका ने रचा इतिहास
आपके पत्र/ मेल बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया



वो सुबह कभी तो आएगी...

जब शाम को सूरज डूबता है तो चाहे वृद्ध हो या जवान, रईस हो या गरीब, स्वस्थ हो या बीमार प्रत्येक मनुष्य इस उम्मीद के साथ सोता है कि कल सुबह शुभ होगी। वर्ष 2010 (जिसकी एकमात्र पहचान भ्रष्टाचार के सर्वनाशी भयंकर ज्वालामुखी का फटना होगी) की आखिरी शाम को तो देश के अधिकांश आम नागरिकों की यह उम्मीद कई हजार और गुना बढ़ गई होगी। नववर्ष की सुबह आई, लेकिन हमारी उम्मीद पूरी नहीं हुई। भ्रष्टाचार के एक से एक ज्यादा शर्मनाक मामले उजागर होते ही जा रहे हैं।
आम नागरिक आज यही महसूस कर रहा है कि भ्रष्टाचार के मामले में पानी सर के ऊपर से बढ़ चुका है। इसलिए आइए जरा इस बात पर गौर करें कि भ्रष्टाचार इतना भयंकर प्रकोप कैसे बना? समस्या के मूल कारणों को समझने से ही समस्या का हल भी निकलता है।
लाल बहादुर शास्त्री के प्रधान मंत्रित्वकाल तक देश की राजनीति भी काफी कुछ हमारे समाज के पारंपरिक मूल्यों और आदर्शों के प्रति आस्थावान बनी रही। शास्त्रीजी की असामयिक मृत्यु एक युगांतकारी घटना थी- मूल्यवान राजनीति के युग का अंत। वंशवाद पर आधारित मूल्यविहीन राजनीति का प्रारंभ हुआ जिसमें पारंपरिक परिभाषाओं को तिलांजलि देकर नई परिभाषा गढ़ी गईं। चाहे जैसे भी हो, धनवान बनना सफलता का एकमात्र पैमाना बन गया। नेता के प्रति स्वामीभक्ति राजनीतिक प्रतिबद्धता की पर्याय बन गई और चापलूसी राजनीतिक कौशल का प्रमाण। ऐसे माहौल में देश मेंकानून का राज्य होने के बजाय निरंकुशता शासन का मूलमंत्र बन गई जिसकी परिणति 1975 के आपातकाल में हुई जो सदैव ही हमारे इतिहास का काला अध्याय रहेगा।
आपातकाल तक के सात- आठ वर्षों में परिवारवाद से प्रेरित राजनीति का स्पष्ट संदेश था कि शासन तंत्र में सत्तासीन होने का मतलब था धनवान बनने का अवसर। अधिकांश राजनेता और सरकारी अधिकारी तथा कर्मचारी अपने को कानून से ऊपर मानते हुए भ्रष्टाचार के माध्यम से धन और संपत्ति लूटने में जुट गए। माले मुफ्त, दिले बेरहम। यहां तक कि सत्ता के सर्वोच्च पद पर आसीन परिवार से जुड़े योगी ब्रम्हचारी तक मर्सिडीज कार, वायुयान और एक बंदूक के कारखाने के मालिक बन गए।
केंद्र से प्रेरित होकर उत्तरप्रदेश, बिहार तथा अन्य प्रदेशों में भी परिवारवाद से प्रायोजित क्षेत्रीय दलों का उद्गम हुआ और उन्होंने भी राजनीति को भ्रष्टाचार से धनवान बनने का माध्यम बनाया। इस प्रकार के कुशासन में अपहरण जैसे संगीन अपराध उद्योग बन गए और डकैती तथा हत्या में लिप्त अपराधी बड़ी संख्या में राजनीतिक दलों का चोला पहनकर विधानसभाओं और संसद के सदस्य बन कर सत्ता के उच्च स्तरों पर कब्जा करने लगे। संसद में बहुमत सिद्ध करने के लिए सदस्यों की खरीद फरोक्त होने लगी। स्वाभाविक था कि पिछले दो दशकों में भ्रष्टाचार का पैमाना बोफोर्स सौदे के 64 करोड़ रुपयों से बढ़कर आज कामनवेल्थ गेम्स और 2जी स्पेक्ट्रम के हजारों, लाखों करोड़ रुपए तक जा पहुंचा।
भ्रष्टाचार में अत्यंत तीव्र गति से वृद्धि पिछले पांच- छह वर्षों में हुई है। आज यह इतना विकराल रूप ले चुका है कि न्याय प्रणाली, सेना और मीडिया भी इसके प्रकोप से ग्रसित हंै। इसका मुख्य कारण है पिछले पांच-छह वर्षों में केंद्र में शासन व्यवस्था से शर्मनाक खिलवाड़। जिसके चलते शासन की पूरी शक्ति ऐसे व्यक्ति के हाथों में है जिसकी संसद या जनता के प्रति कोई जवाबदारी नहीं है। इसके विपरीत शासन के उच्चतम संवैधानिक पद पर बैठाए गए व्यक्ति के पास अपनी कैबिनेट के किसी मंत्री को टोकने की भी शक्ति नहीं है। परिणाम है कैबिनेट के सभी मंत्री मनमानी करने में लगे हैं।
भ्रष्टाचार को समर्पित इसी कुशासन का परिणाम है कि देश की जनता दमघोंटू महंगाई से त्रस्त कराह रही है। नक्सलवाद पनप रहा है और आतंकवाद की काली छाया पसरी हुई है।
प्रश्न है कि इस विकराल समस्या से निदान कैसे मिलेगा! भ्रष्टाचार से निपटने का तरीका भी आम आदमी के हाथ में होता है। क्योंकि भ्रष्टाचार सिर्फ आम आदमी को ही सताता है। अभी हाल में आम आदमी ने बिहार में भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार किया है। बिहार के चुनाव में आम आदमी ने ऐसे व्यक्तियों को शासन के लिए चुना है जो हमारे पारंपरिक मूल्यों से अपना जीवन अनुशासित करते हैं। बिहार में आम आदमी ने वंशवाद की राजनीति करने वाले भ्रष्टाचारी नेताओं को धूल चटा दी। बिहार में सत्तासीन नेताओं ने भ्रष्टाचार के लिए दंडित सरकारी कर्मचारियों की सम्पत्ति जब्त करने का कानून बना कर पूरे देश को भ्रष्टाचार से निपटने का एक कारगर तरीका दिखाया है। प्रसन्नता की बात है कि मध्य प्रदेश सरकार भी ऐसा ही कानून बनाने जा रही है। देश की अन्य सरकारों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए।
प्रसन्नता की बात है कि वर्ष के प्रथम सप्ताह में सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने स्वीकार किया कि आपातकाल में सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय कि आपातकाल में नागरिकों के मूलभूत अधिकार निष्क्रिय रहेंगे गलत था। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय से आम नागरिकों को नववर्ष की शुभकामनाएं दी हैं।
हम अपने पारंपरिक मूल्यों का पालन करके ही भ्रष्टाचार से मुक्ति पा सकते हैं। हमारे पारंपरिक मूल्यों के अनुसार जीवन में सफल होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है सफलता पाने का साधन। अतएव आइए हम सब लोग संकल्प लें कि सिर्फ ईमानदार व्यक्तियों को ही अपना वोट देंगे। इस प्रकार हम भ्रष्टाचार से मुक्त सुबह को संभव बनाने में कारगर प्रयत्न करेंगे।
सुधी पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं।
- डॉ. रत्ना वर्मा

टाइगर मैन बिली अर्जन सिंह

- कृष्ण कुमार मिश्र
टाइगर हैवन के बरामदे में पड़ी अठारहवीं सदी की विक्टोरियन कुर्सी पर बैठे बिली अर्जन सिंह मुझे हमेशा पढ़ते हुए मिले, आस- पास तमाम मेजों पर ढोरों देशी- विदेशी किताबें व पत्रिकाएं। जंगल के मध्य एक बेहद जीवन्त व खूबसूरत बसेरा बाघों एवं मनुष्य दोनों का। यह आदमी और जानवर के मध्य सहजीविता का अद्भुत नमूना था, पर अब न ही वहां विक्टोरियन फर्नीचर है और न किताबें, यदि कुछ बचा हुआ दिखाई देता है तो टाइगर हैवन की दीवारों पर लगी 'काई' जिसे इस बार की आई भीषण बाढ़ अपने साथ वापस ले जाना भूल गयी, या यूं कह लेंं कि सुहेली नदी व जंगल को यह मालूम हो चुका था कि अब उनका रखवाला उनसे अलविदा कहने वाला है! हमेशा के लिए। इसीलिए उस रोज टाइगर हैवन खण्डहर सा बस धराशाही होने को तैयार दिखाई दे रहा था, और सुहेली ठहरी हुई नजर आ रही थी।
बिली जवानी के दिनों में यह जगह कभी नहीं छोड़ते थे, चाहे जितनी बारिश हो, फिर उस वक्त सुहेली में गाद (सिल्ट) भी नहीं थी। पर उम्र बढऩे की साथ- साथ सुहेली में सिल्ट बढ़ती गयी, हर बारिश में दुधवा व टाइगर हैवन दोनों जल-मग्न होने लगे, नतीजतन बिली बरसात के चार महीने जसवीन नगर फार्म पर बिताने लगे और टाइगर हैवन से पानी निकल जाने पर फिर अपने प्रिय स्थान पर वापस लौट आते अपनी किताबों के साथ।
लेकिन इस बार बाढ़ के चले जाने के बाद भी अब बिली कभी नही लौटेगें, यही नियति है इस स्थान की। बिली की उम्र के साथ ही टाइगर हैवन ने भी अपनी जिन्दगी पूरी कर ली। जहां इस इमारत में आजकल आतिश- दान में आग जलती थी, बिली के प्रिय तेन्दुओं व बाघिन तारा और कपूरथला के राज-परिवार की तस्वीरें लगी थीं, कमरों में पुस्तकें समाती नहीं थी, वहां अब सब कुछ वीरान हैं। अगर कुछ है तो बाढ़ के द्वारा छोड़े गये वीभत्स निशान।
गत वर्ष बिली की तबियत खराब होने के बावजूद वो बाढ़ गुजर जाने के बाद दो बार यहां आये, और कहा कि लगता है, मेरे साथ ही टाइगर हैवन भी नष्ट हो जायेगा! ... नियति की मर्जी वह इस वर्ष यहां नहीं लौट पाये... अब यह जगह की अपनी कोई तकदीर नहीं है जिसके हवाले से इसके वजूद को स्वीकारा जा सके।
मेरी कुछ स्मृतियां हैं उस महात्मा के सानिध्य की जिनका जिक्र जरूरी किन्तु भावुक कर देने वाला है। वो हमेशा नींबू पानी पिलाते। दुधवा और उसके बाघों को कैसे सुरक्षित रखा जाय बस यही एक मात्र उनकी चिन्ता होती। दुधवा के वनों की जीवन रेखा सुहेली नदी की बढ़ती सिल्ट को लेकर एक विचार था उनका कि सुहेली कतरनिया घाट वाइल्ड लाइफ सैक्चुरी में बह रही गिरवा नदी से जोड़ दिया जाय। इससे दो फायदे थे, एक कि दुधवा में आती बाढ़ पर नियन्त्रण और दूसरा दुधवा में गैन्जेटिक डाल्फिन एवं घडिय़ाल की आमद हो जाना।
चूंकि अभी तक दुधवा टाइगर रिजर्व में ये दोनों प्रजातियां नहीं हैं जबकि कतरनियां घाट डाल्फिन और घडिय़ाल की वजह से आकर्षण का केन्द्र है। साथ ही इन प्रजातियों के आवास को भी विस्तार मिल सके, यही ख्वाहिश थी बिली की।
बिली अर्जन सिंह से मेरी पहली मुलाकात 1999 में हुई, इसी वक्त मंैने जन्तुविज्ञान में एम.एस.सी करने की बाद वन्य जीवों पर पी.एचडी. करने का निर्णय किया। बिली से मैं अपने परिचय का श्रेय दुधवा के प्रथम निदेशक रामलखन सिंह को दूंगा, क्योंकि इन्हीं की एक आलोचनात्मक पुस्तक 'दुधवा के बाघों में आनुवंशिक प्रदूषण' पढऩे के बाद हुई। पहली मुलाकात में बिली से जब इस पुस्तक की चर्चा की तो उन्होंने कहा क्या तुमने मेरी किताबें नहीं पढ़ी। बाद में स्वयं बरामदे से लाइब्रेरी तक जाते और तमाम पुस्तके लाते और फिर कहते देखो यह पढ़ो। फिर ये सिलसिला अनवरत जारी रहा। मैंने बिली साहब की किताबों से दुधवा के अतीत को देखा सुना, और यहीं से मैंने बिली को अपना आदर्श मान लिया, नतीजा ये हुआ कि मैं एक शोधार्थी से एक्टीविस्ट बन गया, अब वन्य- जीवों के लिए लड़ाई लड़ता हूं।
92 वर्ष की आयु में इस महात्मा ने नववर्ष 2010 के प्रथम दिवस को अपने प्राण त्याग दिये। मगर आज इनके जीवों व जंगलों के प्रति किये गये महान कार्य समाज को सुन्दर संदेश देते रहेंगे एक दिगन्तर की तरह।
बिली के पिता जसवीर सिंह, दादा राजा हरनाम सिंह, परदादा महाराजा रणधीर सिंह थे जिन्होंने 1830 से लेकर 1870 ई. तक कपूरथला पर स्वतंत्र राज्य किया। महाराजा रणधीर सिंह को गदर के दौरान अंग्रेजों की मदद करने के कारण खीरी और बहराइच में तकरीबन 700 मील की जमीन रिवार्ड में मिली थी।
15 अगस्त 1917 को गोरखपुर में जन्में बिली कपूरथला रियासत के राजकुमार थे। इनका बिली नाम इनकी बुआ राजकुमारी अमृत कौर ने रखा था जो महात्मा गांधी की सचिव व नेहरू सरकार में प्रथम महिला स्वास्थ्य मंत्री रहीं, आप की शिक्षा- दीक्षा ब्रिटिश- राज में हुई, राज-परिवार व एक बड़े अफसर के पुत्र होने के कारण आप ने ऊंचे दर्जे का इल्म हासिल किया और ब्रिटिश- भारतीय सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय विश्व- युद्ध के बाद इन्होंने खीरी के जंगलों को अपना बसेरा बनाना सुनिश्चित कर लिया। पूर्व में इनकी रियासत की तमाम संपत्तियां खीरी व बहराइच में थी जिन्हें अंग्रेजों ने इनके पुरखों को रिवार्ड के तौर पर दी थी। चूंकि बलरामपुर रियासत में इनके पिता को बरतानिया हुकूमत ने कोर्ट- आफ- वार्ड नियुक्त किया था, सो इनका बचपन बलरामपुर की रियासत में गुजरा। बलरामपुर के जंगलों में इनके शिकार के किस्से मशहूर रहे और 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने बाघ का शिकार किया।
1960 में बिली की जीप के सामने एक तेन्दुआ गुजरा अंधेंरी रात में जीप- लाइट में उसकी सुन्दरता ने बिली का मन मोह लिया, ये प्रकृति की सुन्दरता थी जिसे अर्जन सिंह ने महसूस किया। इसी वक्त उन्होंने शिकार को तिलांजलि दे दी।
1969 में यह जंगल बिली ने खरीद लिया, जिसके दक्षिण- उत्तर में सरिताएं और पश्चिम- पूर्व में घने वन। इसी स्थान पर रह कर इन्होंने दुधवा के जंगलों की अवैतनिक वन्य-जीव प्रतिपालक की तरह सेवा की।
बिली हमेशा कहते रहे कि जो जंगल अंग्रेज हमें दे गये कम से कम उन्हें तो बचा ही लेना चाहिए। क्योंकि आजादी के बाद वनों के और खासतौर से साखू के वनों का रीजनरेशन कराने में हम फिसड्डी रहे हैं। वे कहते रहे की फारेस्ट डिपार्टमेन्ट से वाइल्ड- लाइफ को अलग कर अलग विभाग बनाया जाय, वाइल्ड- लाइफ डिपार्टमेन्ट।
बाघों के लिए अधिक संरक्षित क्षेत्रों की उनकी ख्वाहिश के कारण ही किशनपुर वन्य-जीव विहार का वजूद में आना हुआ उनके निरन्तर प्रयासों से 1977 में दुधवा नेशनल पार्क बना और फिर टाइगर प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई, और इस प्रोजेक्ट के तहत 1988 में दुधवा नेशनल पार्क और किशनपुर वन्य जीव विहार मिलाकर दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना कर दी गयी। टाइगर हैवन से सटे सठियाना रेन्ज के जंगलों में बारहसिंहा के आवास हैं जिसे संरक्षित करवाने में बिली का योगदान विस्मरणीय है। जो अब दुधवा टाइगर रिजर्व का एक हिस्सा है।
जंगल को अपनी संपत्ति की तरह स्नेह करने वाले इस व्यक्ति ने अविवाहित रहकर अपना पूरा जीवन इन जंगलों और उनमें रहने वाले जानवरों के लिए समर्पित कर दिया।
टाइगर हैवन की अपनी एक विशेषता थी कि यहां तेन्दुए, कुत्ते और बाघ एक साथ खेलते थे। बिली की एक कुतिया जिसे वह इली के नाम से बुलाते थे, यह कुतिया कुछ मजदूरों के साथ भटक कर टाइगर हैवन की तरफ आ गयी थी, बीमार और विस्मित! बिली ने इसे अपने पास रख लिया, यह कुतिया बिली के तेन्दुओं जूलिएट और हैरियट पर अपना हुक्म चलाती थी और यह जानवर जिसका प्राकृतिक शिकार है कुत्ता इस कुतिया की संरक्षता स्वीकारते थे। और इससे भी अद्भुत बात है, तारा का यहां होना जो बाघिन थी, बाघ जो अपने क्षेत्र में किसी दूसरे बाघ की उपस्थित को बर्दाश्त नहीं कर सकता, तेन्दुए की तो मजाल ही क्या। किन्तु बिली के इस घर में ये तीनों परस्पर विरोधी प्रजातियां जिस समन्वय व प्रेम के साथ रहती थी, उससे प्रकृति के नियम बदलते नजर आ रहे थे।
विश्व प्रकृति निधि की संस्थापक ट्रस्टी व वन्य- जीव विशेषज्ञ श्रीमती एन राइट ने बिली को पहला तेन्दुआ शावक दिया, ये शावक अपनी मां को किसी शिकारी की वजह से खो चुका था, लेकिन श्रीमती राइट ने इसके अनाथ होने की नियति को बदल दिया, बिली को सौंप कर।
भारत सरकार ने उन्हें 1975 में पद्म श्री, 2006 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वैश्विक संस्था विश्व प्रकृति निधि ने उन्हें गोल्ड मैडल से सम्मानित किया। 2003 में सेंचुरी लाइफ- टाइम अवार्ड से नवाजा गया। 2005 में नोबल पुरूस्कार की प्रतिष्ठा वाला पाल गेटी अवार्ड दिया गया जिसकी पुरस्कार राशि एक करोड़ रुपये है। यह पुरस्कार 2005 में दो लोगों को संयुक्त रूप में दिया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी वर्ष 2007 में बिली अर्जन सिंह को यश भारती से सम्मानित किया। इतने पुरस्कारों के मिलने पर जब भी मंैने उन्हें शुभकामनायें दी, तो एक ही जवाब मिला के पुरस्कारों से क्या मेरी उम्र बढ़ जायेगी, कुछ करना है तो दुधवा और उनके बाघों के लिए करें ये लोग।
प्रिन्स, जूलिएट, हैरिएट तीन तेन्दुए थे जिन्हें बिली ने टाइगर हैवन में प्रशिक्षित किया और दुधवा के जंगलों में पुनर्वासित किया। बाघ व तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उन्हें उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगल में सफलता पूर्वक पुनर्वासित करने का जो कार्य बिली अर्जन सिंह ने किया वह अद्वितीय है पूरे संसार में। बाद में इंग्लैड के चिडिय़ाघर से लाई गयी बाघिन तारा भी दुधवा के वनों को अपना बसेरा बनाने में सफल हुई। इसका नतीजा हैं तारा की पीढिय़ां जो दुधवा के वनों में फल- फूल रही हैं। बिली की तेन्दुओं व बाघों के साथ तमाम फिल्में बनाई गयी जिनका प्रसारण डिस्कवरी आदि पर होता रहता है।
कुछ लोगों ने बिली पर तारा के साइबेरियन या अन्य नस्लों का मिला- जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया 'आनुवंशिक प्रदूषण' जबकि आनुवांशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबंध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं।
बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीजा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी यादें है जो हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी बिली साहब को। क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आजाद भारत में हेली नेशनल पार्क तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नहीं। भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हैवन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है के साथ- साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी। बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीजा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हैवन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।का मिला- जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया 'आनुवंशिक प्रदूषण' जबकि आनुवांशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबंध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं।
बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीजा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी यादें है जो हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी बिली साहब को। क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आजाद भारत में हेली नेशनल पार्क तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नहीं। भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हैवन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है के साथ- साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी। बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीजा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हैवन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।
उनकी किताबें
जिम कार्बेट और एफ. डब्ल्यू. चैम्पियन से प्रभावित बिली अर्जन सिंह ने आठ पुस्तकें लिखी जो उत्तर भारत की इस वन-श्रृंखला का बेहतरीन लेखा- जोखा है।
इन जंगलों और इनमें रहने वाली प्रकृति की सुन्दर कृतियों को देखने और जानने का बेहतर तरीका है उनकी किताबें जिनके शब्द उनके अद्भुत व साहसिक कर्मों का प्रतिफल है।
1-तारा- ए टाइग्रेस
2-टाइगर हैवन
3-प्रिन्स आफ कैट्स
4-द लीजेन्ड आफ द मैन-ईटर
5-इली एन्ड बिग कैट्स
6-ए टाइगर स्टोरी
7-वाचिंग इंडियाज वाइल्ड लाइफ
8-टाइगर! टाइगर।
पता: 77, कैनाल रोड, शिव कालोनी, लखीमपुर खीरी- 262701 (उ.प्र.)
Email: dudhwalive@live.com, www.dudhwalive.com


पर्यावरण का शत्रु पॉलीथीन

- दिव्या जैन

गृहणियां पॉलीथीन की थैलियों का उपयोग के बाद इनमें ही घर का कूड़ा करकट बची हुई सब्जियां, बचा हुआ अन्न व अन्य खाद्य सामग्री भर कर इसमें गां लगाकर खुले में, सड़क पर, नालियों में या कचरे के ढेर में फेंक देती हैं। बात यहां समाप्त नहीं होती बल्कि प्रारम्भ होती है।
प्यारे देशवासियों, पर्यावरण प्रेमियों, गौ भक्तों को दिव्या जैन का जय जिनेन्द्र। मैं इस पत्र के माध्यम से समस्त भारतवासियों का ध्यान आकृष्ट कर उनको सम्पूर्ण देश के लिए, देश के पर्यावरण के लिए व गाय माता के लिए नुकसान का कारण बन रहे पॉलीथीन की थैलियों की तरफ ले जाना चाह रही हूं। यह मैं इसलिए कर रही हूं कि मैंने पॉलीथीन से हुए नुकसान को नजदीक से देखा है।
विज्ञान ने मानव को प्रगति के पथ पर आगे बढऩे के असीम अवसर दिए हैं, लेकिन मनुष्य ने बिना कुछ सोचे समझे ही विज्ञान के माध्यम से रोजमर्रा के कुछ ऐसे साधन पैदा कर दिए हंै जो मनुष्य के साथ- साथ पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध हो रहे हंै। उनमें से एक है- पॉलीथीन।
पॉलीथीन कागज, कपड़े या गत्ते की तरह गलता नहीं है। आज पॉलीथीन ने मानव जीवन में अच्छी खासी पैठ बना ली है, या कहें कि इसने हमें अपना गुलाम बना लिया है। व्यावसायिक मार्केट हो या सब्जी मंडी सभी के हाथों में पॉलीथीन की थैलियां नजर आ जाती हंै। आज लोग कपड़े या जूट का थैला लेकर चलने में शर्म महसूस करते हैं और घर से बाजार हाथ हिलाते जाना पसन्द करते हैं।
जबकि हम सभी जानते हैं कि पॉलीथीन की थैलियां हमारे लिए बहुत नुकसानदायक है। ये जमीन में जाकर उसके उपजाऊपन को नष्ट करती है। नदी नालों में जाकर उसके बहाव को रोककर गन्दगी व बीमारी का कारण बनती है कई बार महामारी का कारण भी बनती है। नदी, तालाब, नालों व धरती पर इसकी परत बिछ जाने से जमीन के भीतर जल नहीं पहुंच पाता। इस तरह ये पेड़ पौधों को पनपने नहीं देती। आज जहां कहीं भी जमीन को खोदकर देखें तो वहां पॉलीथीन की थैलियां ही थैलियां मिलेंगी। पॉलीथीन क्योंकि गल कर नष्ट होने वाली वस्तु नहीं है, बस जमती ही जाती है। इसे जलाने पर विषाक्त गैस पैदा होती है जो पर्यावरण के साथ- साथ मनुष्य के लिए भी खतरनाक है। पॉलीस्टरीन नामक प्लास्टिक को जलाने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन बाहर आते हैं, जो जीवन रक्षक ओजोन कवच को नष्ट कर देते हैं।
पॉलीथीन से सीवर लाईन के चोक होने की कई घटनाएं भी हुई हैं। सन् 1998 में मुम्बई में सीवर नेटवर्क चोक हो गया और उसने कृत्रिम बाढ़ का रूप धारण कर लिया जो सिर्फ पॉलीथीन थैलियों के कारण हुआ। मंैने स्वयं पॉलीथीन के नुकसान को देखा है, आज से दो वर्ष पूर्व जब मैं अपने ननिहाल व दादाजी के घर (कोटा) गर्मियों की छुट्टियों में गई थी, तब मुझे पता चला कि एक गाय की मृत्यु पॉलीथीन की थैलियों के कारण हुई है, तो मैं हैरान रह गई कि पॉलिथीन इतना नुकसानदायक भी हो सकता है। मुझे इससे बहुत दु:ख हुआ, मेरे लिए यह असहनीय था लेकिन इस घटना ने मुझे प्रेरित किया कि मैं पॉलीथीन के विरोध में काम करूं।
दरअसल होता यह है कि गृहणियां पॉलीथीन की थैलियों का उपयोग के बाद इनमें ही घर का कूड़ा करकट बची हुई सब्जियां, बचा हुआ अन्न व अन्य खाद्य सामग्री भर कर इसमें गांठ लगाकर खुले में, सड़क पर, नालियों में या कचरे के ढेर में फेंक देती हंै। बात यहां समाप्त नहीं होती बल्कि प्रारम्भ होती है। खुले में घूमते मवेशी विशेषकर गाय जिसे हम माता, बल्कि माता से भी बढ़कर मानते हंै वे भोजन की खुशबू से आकर्षित होकर थैली की गांठ को खोलना चाहती हैं लेकिन खोल नहीं पातीं अन्त में वह भोजन सामग्री को थैली समेत खा जाती हैं। उनके पेट में धीरे- धीरे यह थैलियां जमा होती जाती हंै क्योंकि पॉलीथीन का किसी तरह पाचन सम्भव नहीं है अत: अधिक मात्रा में पेट में जमा पॉलीथीन उनके शरीर में बीमारियां पैदा कर देती है और उनका हाजमा खराब कर देती है इस तरह उनको मौत की नींद सोना पड़ता है। कितनी खतरनाक मौत होती है उस निरीह की...।
पशु चिकित्सकों के सामने यह समस्या रहती है कि कोई भी ऐसी दवाई नहीं है जो पशुओं के पेट में जमा पॉलीथीन को पचा सके या बाहर निकाल सके। इस तरह पॉलीथीन पशुओं के लिए चलता- फिरता कत्लखाना है और हम हैं कि इससे बेखबर होकर मवेशियों को मौत के मुंह में भेज रहे हैं।
यहां मैं आपको यह भी बताना चाहूंगी कि अगर पॉलीथीन या कचरा निकालने के लिए पशुओं के पेट का ऑपरेशन कराया जाए तो उसमें बहुत अधिक खर्चा आता है तथा 3 घण्टे से भी अधिक समय लगता है साथ ही उसे ठीक होने में लगभग 45 दिन लगते हैं। ऐसा कौन व्यक्ति है जो यह सब कुछ कर सके। मजबूरन पशु को... मरना पड़ता है।
मैं यहां कहना चाहूंगी कि लोग गाय को बचाने के नाम पर बड़े- बड़े कार्य करते हैं, कोई कानून बनाने की बात करता है, कोई रैली निकालता है। यह सब वे करें अच्छी बात है इससे चेतना आती है, पर क्या यह हमारा दायित्व नहीं है कि हम गायों की मौत का कारण बन रहे पॉलीथीन की थैलियों के उपयोग को बन्द कर दें। पॉलीथीन को खुले में, उसमें भोजन सामग्री बांध कर नहीं फेंके। अगर हम ऐसा कर पाएं तो बेमौत मर रहे इन पशुओं पर हमारा बहुत बड़ा उपकार होगा।
इस विषय में सरकार कानून बना दे तब भी हम सबका इसके प्रति जागरूक होना जरूरी है। हम डर से नहीं बल्कि विवेक के आधार पर इनका पालन करें। अत: मेरा यह निवेदन है कि आप सब पॉलीथीन के दुष्प्रभाव को समझें और इसके उपयोग को बन्द करें, इसके स्थान पर कागज या कपड़े के बने हुए बैग का उपयोग करते हुए पर्यावरण संरक्षण में भागीदार बनें और ऐसा करने में शर्म नहीं बल्कि गर्व का अनुभव करें। इसे अपनी परम्परा व संस्कृति का हिस्सा मानें।
इसके साथ ही मैं प्लास्टिक के बने खिलौनों की बात भी करना चाहती हूं। 'सैंटर फॉर संाइस एण्ड एनवायरमेंट' (सी.एस.ई.) का ताजा अध्ययन बताता है कि भारतीय बाजारमें बिक रहे अधिकांश खिलौनों में थैलेट नामक रसायन पाया जाता है। सीएसई ने प्रमुख ब्रांड्स के 24 खिलौनों के नमूने जांच करवाएं, इसमें 15 सॉफ्ट टॉयज व 9 हार्ड टॉयज थे। जांच में सामने आया कि सभी में एक या एक से अधिक तरह के थैलेट्स नामक रसायन थे जो कि किसी न किसी तरह से छोटे- छोटे बच्चों में अनेक तरह की बीमारियों का कारण बन रहे हैं, जिसमें अस्थमा, गुर्दा, एलर्जी, प्रजनन सम्बन्धी बीमारियां प्रमुख हैं। यह सब बताने के पीछे मेरा मकसद यह है कि हम पॉलीथीन व प्लास्टिक के दुष्प्रभाव को समझें। हम सस्ते, सुन्दर व सुलभ के चक्कर में इनका उपयोग करके स्वयं के साथ- साथ सम्पूर्ण देश के पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
आइए हम आज से ही नई शुरूआत करें, जागें व जगाएं। अभी नहीं तो कभी नहीं, कागज व कपड़े की संस्कृति की तरफ पुन: लौटें और ऐसा करने में गर्व का अनुभव करें। मैं तो यह भी कहूंगी कि सरकार को तुरन्त नियम बनाना चाहिए कि प्रत्येक कर्मचारी रोजाना हाथ में कपड़े का थैला लेकर कार्यालय व बाजार जाए और उस पर यह भी लिखवाए कि- 'पॉलीथीन पर्यावरण का शत्रु है।'
मैंने ऐसा किया है आप भी करें क्योंकि यह हम सब का दायित्व भी है। हम जिस धरती पर रहते हंै उसके प्रति हमारी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है।
मैं अन्त में यह भी कहूंगी कि हमने अब तक पॉलीथीन की थैलियों को उपयोग में लेकर पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है। उस गलती को सुधारें और उसके लिए वृक्षारोपण करें, मात्र पौधे ही नहीं लगाए बल्कि उसकी रक्षा का भी संकल्प लें, उसे पुत्र के समान पालें, बड़ा करें बाद में वह पौधा बड़ा वृक्ष बनकर हमें व हमारी पीढिय़ों को इतना कुछ देगा जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होगी।
आओ- आओ हम पेड़ लगाएं
छोटा नन्हा पेड़ लगाएं
अखबारों में नहीं, जमीन पर लगाएं
छोटा नन्हा पेड़ लगाएं
हजारों नहीं सिर्फ एक पेड़ लगाएं
छोटा नन्हा पेड़ लगाएं
रिकार्ड के लिए नहीं हमारे स्वयं के लिए
छोटा नन्हा पेड़ लगाएं।
मेरे बारे में ...
अपने जीवन में घटित घटना से प्रेरित होकर विगत लगभग 2 वर्षों से पॉलीथीन मुक्ति अभियान चला रही चित्तौडग़ढ़ शहर की रहने वाली 10 वर्षीय नन्ही बालिका दिव्या जैन का प्रयास, लगन, निष्ठा और हौसले की मिसाल है। राज्य सरकार ने जब 1 अगस्त 2010 से राज्य में पॉलीथीन पर पूर्णतया प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया तो इस नन्ही बालिका ने राजस्थान के कई जिलों व कस्बों में घूम- घूम कर पॉलीथीन की थैलियों के दुष्प्रभाव की जानकारी दी और कपड़े की थैलियां बाटकर शपथ पत्र भरवाया। वह राज्य सरकार के निर्णय से काफी प्रसन्न है क्योंकि अपने मिशन के लिये लगातार प्रयासरत रही दिव्या को सफलता मिली है। दिव्या को उसके द्वारा लगातार किये जा रहे प्रयासों के लिये कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है तथा प्रशस्ति पत्र भी प्राप्त हुए हैं। दिव्या कहती है- 'मेरे लिये यह खेल या मजाक नहीं बल्कि एक मिशन है, जिसमें मैं कामयाब रहूंगी'
पता- मकान नं.-59, सेक्टर-4 गांधीनगर, चित्तौडगढ़- 312001 (राजस्थान) मो. 9214963491
E-mail: divyasanjayjain@gmail.com, www.divyajain99.blogspot.com

वाह भई वाह

11 नंबर के फेर में
संता अपनी बीवी से बात कर रहा था।
संता- मेरे लिये 11 का अंक हमेशा ही शुभ रहा है। 11वें महीने की 11 तारीख को 11 बजे हमारी शादी हुई। हमारे मकान का नंबर भी 11 है। एक रोज मुझे 11 बजकर 11 मिनिट और 11 सेकण्ड पर किसी ने बताया कि आज बड़ी रेस होने वाली है। मैंने सोचा कि मेरे लिये 11 के नम्बर में जरूर चमत्कार छिपे हुये हैं, मैं गया और 11वें नम्बर की रेस के लिये 11 वें घोड़े पर 11 हजार रूपये लगा दिये।
बीवी -और घोड़ा जीत गया ?
संता - यही तो रोना है! कम्बख्त 11वें नम्बर पर आया!
भूलने की कोशिश
संता एक बियावान जगह में बैठा रो रहा था।
बंता ने पूछा- यार संता तुम क्यों रो रहे हो?
संता- यार एक लड़की को भूलने की कोशिश कर रहा हूं।
बंता- इसमें रोने की क्या बात है?
संता- जिस लड़की को भूलने की कोशिश कर रहा हूं, उसका नाम याद नहीं आ रहा।


10 साल की उम्र में डेटिंग - मनोविज्ञान

मासूमियत का अंत 
- अजिता मेनन
बच्चों को दोस्तों, मीडिया या अश्लील चित्रों से आधे- अधूरे और झूठे विचार मिलते हैं। ग्रहणशीलता के स्तर ऊंचे होते हैं और वे व्यवहारों और मनोवृत्तियों के बारे में पहले से बनी धारणाएं अपना लेते हैं। उनकी ऊर्जा को खेलों, संगीत, चित्रकला और अन्य रुचियों की ओर दिशा देना भी अनिवार्य है। पढऩे वाली किताबें और कौन सा टी.वी. कार्यक्रम देखना है चुनने में माता- पिता की निगरानी अनिवार्य होनी चाहिए।
दस वर्षीय आदित्य की ड्राइंग इतनी अच्छी नहीं है तो पैरेंट-टीचर मीटिंग में जब उसके माता- पिता से कहा गया कि उनके बेटे की एक ड्राइंग के बारे में उनसे बातचीत करनी है, तो उन्हें को अचम्भा नहीं हुआ। जैसी की आशा थी, जिस ड्राइंग के बारे में बात थी वह इतनी अच्छी नहीं थी, लेकिन महिला के शरीर के अंगों के नाम जितने ध्यान और सही ढंग से लिखे हुए थे, वह देखने लायक था। बैंगलोर स्थित व्यवसायी, अजय पिल्लई कहते हैं, 'मेरी पहली प्रतिक्रिया थी हंसी, जिसे मैंने दबा दिया। लेकिन दूसरी हैरानगी की थी कि मेरा बेटा एक औरत के शरीर के अंगों को सही तरह से बना सकता है। मेरी तीसरी प्रतिक्रिया थी हे भगवान! मैं इसे कैसे संभालूंगा?' हां, टीचर बिल्कुल भी हैरान नहीं थे। लगता था कि ड्राइंग सह- शिक्षा स्कूल, जहां आदित्य पढ़ता था, कक्षा के एक- एक लड़के के हाथ में गई थी। आदित्य की मां रेखा कहती हैं, 'बुनियादी जीवविज्ञान मेरे बेटे की कक्षा में पढ़ाई जाती है, तो उसकी इतनी विस्तृत जानकारी होना परेशानी का विषय नहीं था, परंतु बच्चे की ड्राइंग ने महिलाओं के शरीर के प्रति जो मनोवृत्ति दर्शायी उससे टीचर को चिंता हुई।' बच्चों में बढ़ती यौनिक जागरूकता की ऐसी कहानियां छोटे बच्चों के माता- पिताओं में भरी पड़ी हैं। दो छोटी बच्चियों की मां, अनुराधा शर्मा कहती हैं, 'जिज्ञासा जल्दी पैदा हो रही है। हमने ऐसी बातों के बारे में अपनी किशोरावस्था के अंत में सोचना शुरू किया था, लेकिन अब बच्चों में विपरीत लिंग के प्रति रुचि अधिकतर उनकी जीवनशैली, किताबों, कॉमिक्स, पत्रिकाओं, टेलीविजन और फिल्मों पर पहुंच से 6 या 9 वर्ष की छोटी उम्र में पैदा हो जाती है।' विशेषज्ञ मानते हैं कि पहले 13-15 वर्ष आयु की बजाय बहुत से मामलों में 8-12 वर्ष आयु में यौवनारंभ के साथ बच्चों में शारीरिक बदलाव आजकल जल्दी हो रहे हैं। कोलकता में प्रसिद्ध बालिगंज शिक्षा सदन की एक टीचर, रत्नाबालि घोष कहती हैं, 'विज्ञापनों, मार्केटिंग, टेलीविजन शो, फिल्मों और म्यूजिक वीडियो इत्यादि में बच्चों का निर्लज्जतापूर्ण यौनिकीकरण बच्चों को वास्तविकता की एक विकृत तस्वीर दिखा रहे हैं। वास्तव में उनके अंदर अपने और विपरीत लिंग के शरीरों के प्रति अनादर पैदा हो रहा है।'
यहां तक कि आदित्य की आठ वर्षीय बहन रिया जिसके दोस्तों ने आर्ची कामिक्स से उसका परिचय पहले से ही करा दिया है, बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड क्या होते हैं जानने में बेहद जिज्ञासा दिखाती है। जब सोने से पहले वाली उसकी कहानी 'राजकुमार और राजकुमारी की शादी हो गई और वो हमेशा खुश रहे' के साथ खत्म होती है, तब भी वह जानना चाहती है कि शादी कैसे होती है। शादी होने के बाद क्या होता है? उसकी ताई शोभना पूछती हैं, 'बच्चों की फिल्म 'दि कराटे किड' जैसी फिल्म में भी किसिंग सीन था। रिया को उसके बारे में बहुत अधिक जिज्ञासा थी। अब एक पश्चिमी फिल्म में किशोर चुम्बन की सहजता को आप एक अलग सांस्कृतिक मूल्यों वाले भारतीय बच्चे को कैसे समझाएगें?'
अजय कहते हैं, 'प्रश्न काफी कम उम्र में आ रहे हैं और उनका सच्चाई और चतुराई से जवाब देना अनिवार्य है।' उन्होंने यह भी कहा, 'मैंने आदित्य से लड़कियों में उसकी रुचि के बारे में बात की और मैंने उसे बताया कैसे लड़कियां शारीरिक संदर्भ में लड़कों से अलग होती हैं और क्योंकि जब वो बड़ी हो जाती हैं वे बच्चे पैदा करती हैं, बच्चों को दूध पिलाती हैं वगैरह वगैरह। मैंने उसे समझाया कैसे उसकी मां ने उसे जन्म दिया। मैंने यह बात स्पष्ट की कि यह कोई हंसी मजाक की बात नहीं है और एक महिला की कितनी इज्जत करनी चाहिए। मैं आशा करता हूं कि वो समझ गया है। संसार के एक वैश्विक गांव बनने के साथ जानकारी पर समान पहुंच उपलब्ध है। बच्चें चाहे, पश्चिम में स्थित हों या पूर्व में, सभी को समान चीजों पर पहुंच है। अब किसी भी बात को नजरअंदाज या छुपाया या बिना बताए नहीं छोड़ा जा सकता।'
अनुराधा के स्कूल में पढऩे वाली लड़की का बॉयफ्रेंड है। 'वो डेट पर बाहर जाना चाहती है। बैंगलुरू जैसे शहर में इस संदर्भ में काफी पियर प्रेशर है। फिर मीडिया का प्रभाव भी है। अगर में ना कहती हूं, मैं तुरंत बुरी बन जाती हूं। तो मैं हां कहती हूं और जब तक वो बाहर रहती है चिंता करती रहती हूं। मैंने उससे एक औरत के शरीर, संभोग के बारे में, प्रजनन के बारे में बात की है। अब वह समझती है कि सारी बात अपने शरीर का आदर करने और अपने किए कार्यों की जिम्मेदारी लेने के बारे में है।'
आजकल टेलीविजन पर क्या क्या दिखाया जाता है उस पर विचार करें, डांस के शो में बच्चों का कूल्हे मटकाना, छाती हिलाना, आंखों और होंठों से छिछोरी इशारेबाजी करना। 'बालिका वधू' जैसे सीरियलों में एक छह या सात साल की लड़की की एक आठ या नौ साल के लड़के से शादी हो जाती है। कॉमेडी शो और रिएलिटी शो में आप बच्चों को वयस्कों की तरह कपड़े पहने, वयस्कों की तरह व्यवहार करते हुए वयस्कों के मजाक करते हुए देखते हैं। ये सब बच्चों के यौनिकीकरण होने के उदाहरण हैं, एक प्रवृत्ति जिसके समाज के लिए गंभीर दुष्परिणाम हैं। ऐसे कार्यक्रमों का दो तरफा प्रभाव होता है। पहला, ये बच्चों को स्वयं यौनिक व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए दबाव डालते हैं। इसके परिणामस्वरूप अक्सर बच्चे कम उम्र में यौनिक रूप से सक्रिय हो रहे हैं और उससे होने वाले स्वाभाविक परिणामों को झेल रहे हैं। दूसरा, ऐसी सामग्री देखने वाले बहुत से वयस्क बच्चों की यौनिकता के बारे में गलत समझ रहे हैं जिससे अवयस्कों के साथ यौनिक दुव्र्यवहार की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है। कोलकता के राममोहन मिशन स्कूल की एक नाराज टीचर, मलांचा घोष कहती हैं, 'देखिए बच्चों को विज्ञापनों में किस तरह प्रयोग किया जाता है। उन्हें सेक्सी मॉडलों की तरह कपड़े पहनाए जाते हैं और व्यवहार कराया जाता है। बच्चों का फैशन अक्सर वयस्क फैशन की कॉपी होता है और कम्पनियां छह साल के बच्चों को जी-स्ट्रिंग और ब्रा बेच रही हैं। जैसा कि एक ऑस्ट्रेलियाई संस्थान की रिपोर्ट में कहा गया, यह 'कॉरपरेट पीडोफीलिया' है।' पटना स्थित एक व्यवसायिक, अमिकर दयाल कहते हैं, 'मेरी चार साल की लड़की टी.वी. और पत्रिकाओं में जिन बच्चों को देखती है उनके जैसा मेकअप और कपड़े पहनना चाहती है। उसके साथ पढऩे वाले बच्चे भी वैसा ही करना चाहते हैं। लम्बे या छोटे बाल, पैंट या स्कर्ट, ये सब वो मॉन्टेना, बार्बी या पावर पफ गल्र्स क्या कर रही हैं उसी के आधार पर निर्णय करती हैं। बच्चों के शीघ्र यौनिकीकरण पर ऑस्ट्रेलियाई संस्थान की रिपोर्ट इंगित करती है कि विज्ञापनों और अन्य मीडिया में वयस्क और किशोर यौनिकता को देखकर बच्चे अप्रत्यक्ष रूप से यौनिक बनते जा रहे हैं। लेकिन अभी हाल में स्वयं बच्चों को ही सेक्सी वयस्कों का बाल संस्करण बना दिया गया है, परिणाम है प्रत्यक्ष यौनिकीकरण। कोलकता स्थित चार वर्षीय समारा की मां सईदा दयाल कहती हैं, 'बच्चों जैसी मासूमियत पहले की बात थी। अकाल प्रौढ़ या समय से पहले बड़े हो जाने वाले बच्चे हर जगह दिखाई देते हैं- चाहे वह शो हो, फिल्में, विज्ञापन या म्यूजिक वीडियो। अब बच्चों की खाने की आदतें, छुट्टियां और पारिवारिक जीवनशैली और खाली समय की गतिविधियां प्रतिस्पर्धात्मक और बाजार प्रेरित होती हैं। पहले बच्चे खेला कूदा करते थे, अब उनमें से अधिकतर इंटरनेट, टेलीविजन और फैशन पर ध्यान देते हैं। वो सिर्फ बच्चे नहीं रह गए।'
सामाजिक दुष्परिणाम नशीली दवाओं के प्रयोग, शराब का नशा, स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की दर में बढ़ोतरी, बच्चों के अपराध, किशोर गर्भाधानों और गर्भपातों में वृद्धि, और बच्चों में उदासी (डिप्रेशन) और आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी के रूप में नजर आ रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक, मोहर माला चटर्जी सलाह देती हैं, 'बच्चों को दोस्तों, मीडिया या अश्लील चित्रों से आधे- अधूरे और झूठे विचार मिलते हैं। ग्रहणशीलता के स्तर ऊंचे होते हैं और वे व्यवहारों और मनोवृत्तियों के बारे में पहले से बनी धारणाएं अपना लेते हैं। बच्चों के प्रश्न पूछने पर माता- पिता को यौनिक विषयों के प्रति खुलापन रखना चाहिए। उनकी ऊर्जा को खेलों, संगीत, चित्रकला और अन्य रुचियों की ओर दिशा देना भी अनिवार्य है। पढऩे वाली किताबें और कौन सा टी.वी. कार्यक्रम देखना है चुनने में माता- पिता की निगरानी अनिवार्य होनी चाहिए। माता- पिता को यह भी पता होना चाहिए कि उनके बच्चे कौन सी इंटरनेट साइटें देख रहे हैं।' जब हमने, समाज के रूप में जिस तरह से गर्भपात गोलियां दुकानों पर बेची और विज्ञापन में दिखाई जाती हैं, उसे स्वीकार कर लिया है, हमें यह भी समझना चाहिए कि इस तरह की जानकारी बच्चों तक भी पहुंचती है जो कभी- कभी जितना देखना चाहिए उससे कहीं अधिक हो जाता है। हम प्रधान समय पर दिखाए जाने वाले शो में बच्चों द्वारा यौनिक मजाक पर हंसते हैं और दूसरे कार्यक्रम के लिए उत्तेजक पोशाक में एक 12 वर्षीय बच्चे द्वारा प्रस्तुत 'आइटम नम्बर' पर बड़े मजे लेकर गंभीर विश्लेषण करते हैं। इन सबको ध्यान में रखते हुए, स्वभाविक है कि युवाओं के लिए परामर्श और मार्गदर्शन प्रदान करने के अतिरिक्त, स्वयं वयस्कों को बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह दोबारा परिभाषित करने की जरूरत है। (बच्चों और माता-पिता के नाम उनकी पहचान को सुरक्षित करने के लिए बदल दिए गए हैं।) विमेन्स फीचर सर्विस

खतरे में है सुंदरवन

- नरेंद्र देवांगन
आज हर तरफ ग्लोबल वार्मिंग को लेकर बहस चल रही है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से उत्तर व दक्षिण ध्रुवों पर जमी बर्फ बड़े पैमाने पर गल रही है और दुनिया भर के समुद्रों में पानी का स्तर बढ़ रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों ने ग्लोबल वार्मिंग से खतरे में पड़े 27 देशों की सूची जारी की है। भारत उनमें से एक है। बंगाल सहित भारत के तटवर्ती प्रदेशों में यह खतरा बढ़ रहा है। इसका असर बंगाल की खाड़ी पर भी पड़ रहा है। आशंका है कि सुंदरवन के बहुत सारे द्वीप डूब जाएंगे।
बंगाल की खाड़ी में फैले सुंदरवन को वल्र्ड हेरिटेज का दर्जा दिया गया है। बंगाल की खाड़ी से जुड़े इलाके का पर्यावरण संतुलन सुंदरवन पर निर्भर करता है। यहां के विश्व प्रसिद्ध रायल बंगाल टाइगर, सुंदरी पेड़ के जंगल या मैन्ग्रोव के जंगल, इलाके के पर्यावरण संतुलन से लेकर मानसून के आगमन तक में इन तीनों का भारी योगदान है। लेकिन इन दिनों सुंदरवन पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं।
हो सकता है आने वाले समय में भारत के मानचित्र से विश्व धरोहर सुंदरवन का नामोनिशान ही मिट जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सर्वे से पता चला है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते सुंदरवन के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच 10 हजार वर्ग कि.मी. में फैला सुंदरवन इस समय दो तरह की समस्याओं से घिरा हुआ है।
पहली समस्या के पीछे धरती का तापमान का बढऩा और ग्लेशियरों का पिघलना जैसे कारण हैं। दूसरी समस्या मानव निर्मित है- प. बंगाल और बांग्लादेश की आबादी बढऩे से डेल्टा क्षेत्र में मैन्ग्रोव के जंगल काटकर रिहाइशी बस्तियों का बसते जाना। अगर इन दोनों समस्याओं से सुंदरवन नहीं उबर पाया तो उसके अस्तित्व को मिटने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा।
आज हर तरफ ग्लोबल वार्मिंग को लेकर बहस चल रही है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से उत्तर व दक्षिण ध्रुवों पर जमी बर्फ बड़े पैमाने पर गल रही है और दुनिया भर के समुद्रों में पानी का स्तर बढ़ रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों ने ग्लोबल वार्मिंग से खतरे में पड़े 27 देशों की सूची जारी की है। भारत उनमें से एक है। बंगाल सहित भारत के तटवर्ती प्रदेशों में यह खतरा बढ़ रहा है। इसका असर बंगाल की खाड़ी पर भी पड़ रहा है। आशंका है कि सुंदरवन के बहुत सारे द्वीप डूब जाएंगे। वैसे भी सुंदरवन के कुछ द्वीपों को पहले ही बंगाल की खाड़ी का काला पानी निगल चुका है।
इसके अलावा, सुंदरवन को सीधे तौर पर इंसानों से भी खतरा पैदा हो गया है। यहां पाए जाने वाले सुंदरी पेड़ के कारण इसका नाम सुंदरवन पड़ा। सुंदरी पेड़ के अलावा इसका एक बहुत बड़ा इलाका मैन्ग्रोव जंगलों से घिरा हुआ है। ये मैन्ग्रोव जंगल इस क्षेत्र में एक तरफ बंगाल की खाड़ी पर बांध का काम करते हैं तो दूसरी ओर पर्यावरण को इनसे संतुलन भी मिलता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से सुंदरवन के मैन्ग्रोव के एक बहुत बड़े हिस्से की अवैध रूप से अंधाधुंध कटाई हो रही है।
सुंदरवन इलाके के मूल निवासियों के लिए मछली पकडऩा और जंगल से शहद जमा करना जीविका का प्रमुख साधन है। जीविका के लिए समुद्र और जंगल में गए ज़्यादातर पुरुषों की जान को खतरा होता है रायल बंगाल टाइगर से या समुद्री तूफान में नौका के डूब जाने से या मगर के निगल जाने से। इसी कारण यहां महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या बहुत कम है। महिलाएं यहां जंगलों से शहद जमा करने का काम करती हैं।
पर्यावरण के जानकारों का मानना है कि प्रदूषण के जहर से समुद्रों के अलग- अलग हिस्से में ऑक्सीजन की मात्रा शून्य के करीब जा पहुंची है जहां पेड़- पौधे और वनस्पतियां पैदा नहीं हो सकती। यही स्थिति मृत क्षेत्र बनने की है। गौरतलब है विभिन्न समुद्रों में लगभग 150 मृत क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों की परिधि बढ़ती जा रही है। सुकून की बात यह है कि बंगाल की खाड़ी में अभी तक मृत क्षेत्र नहीं बने हैं मगर बढ़ते प्रदूषण के चलते इस आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
संयुक्त राष्ट्र के सर्वे के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के कारण बंगाल की खाड़ी का जलस्तर अगले 10 सालों में अगर 45 सें.मी. भी बढ़ता है तो सुंदरवन का 75 फीसदी भाग खाड़ी में समा जाएगा। जाहिर है इससे यहां पनपने वाले मैन्ग्रोव भी खाड़ी में समा जाएंगे। सुंदरवन के मैन्ग्रोव न सिर्फ बंगाल की खाड़ी से उठने वाले तूफान से होने वाली तबाही को रोकते हैं बल्कि मुहाना में नदी के जल को भी परिशोधित करते हैं। मैन्ग्रोव कटने से अब समुद्र का खारा पानी आसानी से तटीय क्षेत्र की ओर बढऩे लगा है। बाढ़ और चक्रवाती तूफान जैसी प्राकृतिक आपदा के समय भी खाड़ी का खारा पानी क्षेत्र की मिट्टी को प्रभावित कर रहा है। इससे कृषि भूमि को नुकसान और भूमि का क्षरण भी हो रहा है। मैन्ग्रोव के वृक्षों से पटे ये जंगल रॉयल बंगाल टाइगर का आश्रय स्थल हैं। इनके नष्ट होने से बाघ अपने भोजन की तलाश में रिहाइशी इलाकों की ओर रुख कर रहे हैं। सुंदरवन के कई गांव बाघ के उपद्रव से प्रभावित हैं। अभयारण्य से सटे 25 गांवों में हर साल बाघों के हमले में बहुत सारे लोगों की जानें जाती हैं।
राष्ट्र संघ के सर्वेक्षण के बाद बिधानचंद्र राय कृषि विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय सेमीनार में राज्य पर्यावरण विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि धरती का तापमान बढऩे से बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ रहा है, और सबसे अधिक जलस्तर डायमंड हार्बर क्षेत्र में बढ़ा है। जहां भारत के तटीय क्षेत्र में समुद्र का जलस्तर हर साल 1-2 मि.मी. बढ़ा है वहीं डायमंड हार्बर में 5.78 मि.मी. बढ़ा है। कोलकाता तथा आसपास की पूरी आबादी पर भी खतरा मंडरा रहा है।
2050 तक जलवायु में व्यापक परिवर्तन का अंदेशा है। उससे तटीय क्षेत्र में तूफान उठने से गांव के गांव डूब जाने का खतरा है। तबाही के मंजर की एक झलक तूफान आइला में देखी जा चुकी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस डेल्टा क्षेत्र का 5वां हिस्सा, जो कि सुंदरवन के बाघों का अभयारण्य है, जल समाधि ले चुका है।
गर्मी में सुंदरवन की नदियां सूख जाती हैं और खाड़ी का खारा पानी यहां की कृषि को प्रभावित करता है। कुल मिलाकर अब तक 15 फीसदी कृषि भूमि और राष्ट्रीय अभयारण्य का 250 वर्ग कि.मी. क्षेत्र अगले दो साल में खाड़ी में समा जाएगा। कोलकाता विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर का कहना है कि सुंदरवन में ऊपरी जलस्तर का तापमान हर साल बढ़ रहा है। पिछले तीन दशकों में प्रति दशक यह 0.5 डिग्री सेल्सियम की दर से बढ़ा है। यह ग्लोबल वार्मिंग की दर से भी अधिक है। ग्लोबल वार्मिंग की दर प्रति दशक 0.06 डिग्री सेल्सियस है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले समय में भारतीय डेल्टा क्षेत्र में बारिश की मात्रा भी बढ़ेगी और इसका असर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरे देश पर पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संस्था फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के कार्यकारी निदेशक का कहना है कि प्रदूषण इतना बढ़ चुका है कि बंगाल की खाड़ी में कभी भी मृत क्षेत्र बनना शुरू हो सकता है। इससे इस पूरे क्षेत्र का पर्यावरण संतुलन बिगड़ जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

अनुभवों का शंखनाद

- रश्मि प्रभा
तुम एक वटवृक्ष हो
इसकी शाखाओं में
ऋतुओं के गीत हैं ...
पत्ते गिरते हैं
तो पत्ते आते भी हैं
वर्षों में
समय दर समय बने घोंसलों में
अनगिनत लम्हों के कलरव हैं ...
चलो गिनते हैं अपनी उँगलियों पर
उन सालों को
जब इसके हरे पत्तों पर
हम अपना नाम लिखा करते थे
देखो न
अब इन हरे पत्तों पर
हमारे बच्चों के नाम हैं...
तुम्हारे घनत्व में
कितने राहगीर सुकून पाते हैं
परत दर परत तुम्हारे तने में
जाने कितनी कहानियाँ हैं
कुछ इनकी कुछ उनकी
कुछ हमारी ...

एक नया साल
नई उम्मीदों के संग
लिपटा है तेरी टहनियों से
नए सपनों की सरसराहट है पत्तों में
तुम्हारे जड़ों की मजबूती
सपनों का हौसला ...
ईश्वर का प्रतिनिधित्व करो
कहो किसी मंत्र की तरह
मस्जिद के अजान की तरह
नया वर्ष,
सपनों से हकीकत तक का
स्वर्णिम सफऱ तय करे
हर दिन तुम्हारा हो

अपने अनुभवों का शंखनाद करो
2011 का जयघोष करो ....
मेरे बारे में...
सौभाग्य मेरा कि मैं कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हूं और मेरा नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त ने किया और मेरे नाम के साथ अपनी स्व रचित पंक्तियां मेरे नाम की... 'सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर- सुन्दर जग-जीवन'। शब्दों की पांडुलिपि मुझे विरासत में मिली है। अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दम तोड़ देते... मेरा मन जहां तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकून हैं...
मेरा पता: NECO NX flat no- 42 near dutt mandir chauk viman nagar pune -14
मो। 09371022446, Email- rasprabha@gmail.com, www.urvija.parikalpnaa.com
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भोर की पहली किरण
- आशा भाटी
कोहरे की चादर ओढ़कर सोये हैं पेड़ सभी
नहीं है याद इन्हें मौसम की कोई
भोर की पहली किरण इन्हें जगाती है
तो नया वर्ष आता है।

मौसम का भरोसा क्या, ये तो आते जाते हैं
कभी- कभी कई बार ये बदलते भी हंै
कोई क्षण जीवन में ठहर जाता है।
तो नया वर्ष आता है।

कुछ दिन पहले बाग था वीरान
महकते फूलों के इंतजार में था
कली कोई मुसकुराती है
तो नया वर्ष आता है।

यूं तो इन्द्रधनुष धरा पर
बिखरते रहते हैं
कभी कोई रंग जीवन में निखर जाता है
तो नया वर्ष आता है।
मेरे बारे में...
हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हूं। प्रकृति से प्रेम है। पढऩे- लिखने की शौकीन हूं। लखनऊ की एक साहित्यिक संस्था कादम्बिनी से जुड़ी हूं।
मेरा पता- शताक्षी, 13/89
इंदिरा नगर, लखनऊ
(उ. प्र.) 226016
फोन-0522 - २७१२४७७
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हाइकु
खुशी के फूल
- डॉ. भावना कुंअर
1
सीढिय़ां चढ़े
संभलकर सभी
नये वर्ष में।
2
उलझे रास्ते
जल्द ही सुलझेंगे
नव वर्ष में।

3
मंगलमय
सभी को नव वर्ष
दिल से दुआ।
4
पुराने दिन
जो थे मुश्किल भरे
लो बीत चले।
5
डाकिया लाया
खुशियों भरे पत्र
नये साल में।
6
नये साल की
बगिया में खिलेंगे
खुशी के फूल।
7
लो बीत चला
एक और सफऱ
नई तलाश।
8
लो चल पड़े
नया साल खोजने
बर्फीले दिन।
9
आओ लें प्रण
हो न कोई गुनाह
इस वर्ष में।
10
ओढ़े हुए है
कोहरे की चादर
नूतन वर्ष।
11
सर्द हवाएं
करती आलिंगन
नव-वर्ष का।
12
पंछी-समूह
गाये मधुर गीत
नये साल में।
13
करें स्वागत
खुशियां ले के हम
नव-वर्ष का।
14
खड़ा द्वार पे
प्रेम संदेश लिये
ये नव-वर्ष।
15
ना बरसाए
पलकों की झालर
दु:ख के मोती।
16
प्रथम गान
नव-वर्ष बेला में
गाती कोयल।
17
इस साल में
ना उजड़े चमन
कोशिश यही।
18
खुशियां लाए
बिछड़ों के मध्यस्थ
ये नववर्ष।
19
ओस के कण
चुगती हुई आई
ये जनवरी।
20
सहमे पंछी
अब फिर झूमेंगे
नये साल में।
मेरे बारे में...
मुझे साहित्य से बहुत प्यार है। साहित्य की वादियों में ही भटकते रहने को मन करता है। ज्यादा जानती नहीं हूं पर मेरे अन्त:करण में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो कभी तो आत्ममंथन करती हैं और कभी शब्दों में ढलकर रचनाओं का रूप ले लेती हैं। वही सब आपके साथ बांटना चाहूंगी। पिछले वर्ष से आस्ट्रेलिया में अध्यापन कर रही हूं।
मेरा स्थायी पता- द्वारा श्री सी. बी. शर्मा, आदर्श कॉलोनी
(एसडी डिग्री कॉलेज के सामने) मुजफ्फरनगर (उप्र) 251001
Email- bhawnak2002@gmail.com
www.dilkedarmiyan.blogspot.com

तन मन धन से समर्पित एक शिक्षाविद्

ठाकुर राम खेलावन सिंह
- द्वारिका प्रसाद शुक्ल
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात का भारत। उत्तरप्रदेश के जिले सुल्तानपुर का पिछड़ा क्षेत्र अलीगंज बाजार जहां साइकिल तक अत्याधुनिक सवारी मानी जाती थी। अलीगंज में एक साप्ताहिक बाजार बृहस्पतिवार के दिन लगती थी और इस कारण हम बच्चे बृहस्तपतिवार को तो बाजार का दिन समझते थे। 10- 12 किमी से पहले कोई जूनियर हाई स्कूल नहीं था। निकटस्थ मिडिल स्कूल मुसाफिरखाना 10 किमी पश्चिम लखनऊ की तरफ था। जाहिर है ज्यादातर बच्चे कक्षा 5 के आगे नहीं पढ़ पाते थे।
श्री राम खेलावन सिंह सौभाग्यशाली थे कि उनके पिता लाहौर में कुछ नौकरी करते थे। वहां रहकर उन्होंने हाई स्कूल (मैट्रिक) तक की शिक्षा प्राप्त की। पश्चात कतिपय कारणों से पैतृक गांव आ गए थे। 1950 में उनकी उम्र 25- 30 वर्ष के लगभग रही होगी। लाहौर के डीएवी कालेज में पढ़ते समय उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के महान नेताओं को देखने और सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन्हें स्पष्ट हो गया था कि महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदन मोहन मालवीय, नेहरू जैसे महान नेताओं को ब्रिटेन जैसी विश्व की महाशक्ति से लोहा लेने का साहस, शिक्षा के कारण ही प्राप्त हुआ था। युवा राम खेलावन सिंह जान गए थे कि मनुष्य का स्थायी सशक्तीकरण शिक्षा के माध्यम से ही होता है। इसी अहसास ने उन्हें अत्यंत पिछड़े एवं अशिक्षा के अंधकार में डूबे अपने जन्म स्थान के क्षेत्र में एक मिडिल स्कूल चलाने का विचार दिया।
स्थानीय गणमान्य लोगों से मिलकर 1950-51 में नजदीक के टिकरिया गांव के भगवत प्रसाद तिवारी के आम के बाग के एक कोने में मिट्टी के बने खपरैल वाले भवन में उन्होंने स्कूल शुरु किया। वे ही स्कूल के एकमात्र शिक्षक थे। उन्हें सब लोग हेडमास्टर साहब कहते थे। उन्हीं हेडमास्टर साहब से मेरी पहली मुलाकात सन् 1953 में तब हुई थी जब मैं उस क्षेत्र के सबसे पुराने प्रायमरी स्कूल की कक्षा 4 का छात्र था। मेरी पिताजी ने भी प्राइमरी की पढ़ाई वहीं से की थी। मैं अपने प्राथमिक विद्यालय से शाम को छुट्टी के बाद जूनियर हाईस्कूल इस आकर्षण से आ जाता था कि वहां लड़के वालीबाल खेलते थे। जब बाल आउट होती थी तो मैं दौड़कर उठा लाता था। वहमुझे बड़ा अच्छा लगता था। एक दिन वहां हेडमास्टर साहब आ गए और मुझसे पूछने लगे कि उस दिन मुझे इतिहास में क्या पढ़ाया गया था। मैंने बताया कि अशोक की लाट के बारे में पढ़ाया गया था। उन्होंने पूछा- क्या अशोक के पास लाठी रहती थी। मैं चुपचाप रह गया क्यों कि लाट और लाठी का अन्तर मुझे मालूम नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने मुझे एक अधन्ना (पुराने दो पैसे का सिक्का) पुरस्कार या प्रोत्साहन हेतु दिया था।
जब मैंने 1951 में ताउन (प्लेग) के समय प्रायमरी स्कूल जाना शुरु किया तब लगभग 5 वर्ष का था। गांव से अकेले दो किमी पैदल जाना होता था। प्लेग के कारण गांव का घर छोड़कर लोग- बाग, खाली मैदान में झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। उस समय मेरे सीनियर स्व. छोटेलाल श्रीवास्तव कक्षा 6 के छात्र थे। मैं उन्हीं के साथ आता- जाता था। छोटेलाल लगभग अनाथ, अनाश्रित थे। मास्टर रामखेलावन सिंह उन्हें अपने घर में रखकर पढऩे भेजते थे। यह उनकी सहृदयता व दूरदर्शिता का परिचायक था।
मैं जब कक्षा 6 में हेडमास्टर साहब के स्कूल में भर्ती हुआ तब तक वहां लगभग 120 से 140 छात्रों की संख्या हो गई थी। हरी- भरी क्यारियों और आम के बाग के बीच गुरुकुल जैसा सुरम्य वातावरण था। चूंकि फीस से आय अधिक नहीं हो पाती थी अत: पर्याप्त शिक्षक नहीं रहते थे। कक्षा 8 में हिन्दी, सामाजिक शास्त्र, गणित व विज्ञान हमें हेडमास्टर साहब स्वयं पढ़ाते थे जिसके लिए उन्हें पर्याप्त समय नहीं मिलता था।
हेडमास्टर राम खेलावन सिंह अध्यापकों की कमी को आंशिक रूप में कुछ युक्तियों से पूरी करते थे। उदाहरणार्थ -
1. पुराने छात्र राम जगदीश द्विवेदी व कृषि एवं प्रसार अध्यापक यादव जी से गणित में मार्गदर्शन दिलवा देते थे।
2. उनका कहना था कि गणित की पुस्तक में हल किये हुए उदाहरणों को ठीक से समझकर प्रश्नों को हल करने का प्रयास करें। यदि न आवे तो एक पृष्ठ छोड़कर दूसरे प्रश्न को हल करें? लगातार सोचते/ प्रयास करते रहने से काफी लाभ मिलेगा। यह उनका उद्बोधन था।
3. वे पिछले 5 वर्ष के कक्षा की बोर्ड परीक्षा के प्रश्नपत्रों को हल करने के लिए कहते थे। इससे रिवीजन और तैयारी सटीक होती थी।
4. वे इतिहास व नागरिक शास्त्र तथा विज्ञान के पाठ कक्षा में एक छात्र से पुस्तक से पढ़वाते थे। बीच- बीच में स्पष्टीकरण देते थे।
5. उनका एक सबसे अच्छा गुण यह था कि सवेरे सामूहिक प्रार्थना के बाद छात्रों को बिठाकर प्रेरणात्मक संबोधन देते थे। उनका एक वाक्य मुझे अब भी याद है... 'यदि धन खो जाए तो कोई चिंता की बात नहीं, यदि स्वास्थ्य में कमी आ जाए तो कुछ चिंता की बात है परंतु यदि चरित्र क्षीण हो जाए तो बहुत बड़ी हानि की बात है।' इसे वे अंग्रेजी में भी दुहराते थे।
मैं 1955- 57 के सत्र में स्वाध्याय, मार्गदर्शन, क्यारियों में बैठकर अकेले पढऩे के फलस्वरूप प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। बाद में पता चला कि जिले में मेरी दूसरी पोजीशन थी। मुझसे और मेरे परिवार वालों से अधिक खुशी हेडमास्टर साहब को हुई। उन्होंने निश्चय किया कि हाई स्कूल पढऩे के लिए मुझे जिले के सबसे अच्छे स्कूल (राजकीय हाई स्कूल, सुल्तानपुर) में भर्ती करवाएंगे। मेरे पिताजी को साथ लेकर उन्होंने कक्षा 9 में वहां मेरा एडमिशन करवा दिया। और बताया कि मुझे 10 रुपए प्रतिमाह की सरकारी छात्रवृत्ति भी मिलेगी।
कुछ वर्षों पश्चात वह जूनियर हाई स्कूल जिला बोर्ड के आधीन हो गया तथा अब वहां नए प्रधानाध्यापक की नियुक्ति हो गई। इसके पश्चात हेडमास्टर साहब ने प्राइवेट हाई स्कूल चलाने का प्रयास किया। जो कुछ समय चला। वे विद्यार्थियों को प्राइवेट छात्र के रूप में हाई स्कूल की परीक्षा दिलाते थे। कतिपय कठिनाइयों के कारण कुछ समय बाद वह बंद हो गया।
अब मास्टर रामखेलावन सिंह घर की खेती करने, कराने लगे, ट्यूबवेल लगवाया। एक बेटा अस्वस्थ था... शनै: शनै: पत्नी और पुत्र वियोग झेलना पड़ा। बेटी और पोती का विवाह किसी तरह निपटा दिया था।
जीवन के अंतिम वर्ष उनके बड़े संघर्षपूर्ण एवं आर्थिक तंगी के थे। लेकिन उनका स्वाभिमान, सामाजिक कार्यों में उनकी सहभागिता तथा अध्यवसाय गजब का था। वे सादा जीवन उच्च विचार की प्रतिमूर्ति थे। फटे कपड़े पहनकर, कई दिन बिना भोजन के रह लेना उनकी दिनचर्या बन गयी थी। परंतु किसी से आर्थिक सहायता मांगना तो दूर उसके बारे में जिक्र भी उन्हें बर्दाश्त नहीं था। कभी- कभी खेत की फसल या सब्जी ले जाकर बाजार में स्वयं बेच आते थे। परंतु पुराने प्रिय शिष्यों तक से कोई आर्थिक सहायता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। इसके बावजूद समाज में लड़कियों के विवाह के अवसर पर फटे- मैले कपड़ों में जाते अवश्य थे तथा यथा संभव आशीर्वाद स्वरूप भेंट देते थे।। दैन्य या दुर्बलता (शारीरिक अथवा मानसिक) उनमें कभी नहीं दिखी।
इस बीच मैं शिक्षा पूरी करके भारतीय स्टेट बैंक की सेवा में कार्यरत रहा। गांव जाने पर उनसे मिलता तथा उनका स्नेह प्राप्त करता। मैंने कभी उन्हें आदर के अलावा कपड़ा, धन आदि देने की पेशकश करने की भूल नहीं की। इस तरह उनका मेरे प्रति प्रेम बना रहा। वे हमारे इलाके के बहुचर्चित, बहुआयामी, दूरदर्शी शिक्षाविद् थे।
हमारे पिताजी से भी उनका बड़ा प्रेम था, वे मेरे घर आने की कृपा करते थे। जब वे पिताजी के आग्रह पर हमारे साथ घर आते थे और भोजन स्वीकार कर लेते थे तो हम लोग इसे अपना सौभाग्य मानते थे।
जीवन के अंतिम समय तक उन्हें यह चिंता रहती थी कि क्षेत्र में कन्या विद्यालय तथा पुस्तकालय एवं वाचनालय का अभाव है। धीरे- धीरे कन्या विद्यालय तो हाई स्कूल स्तर तक हो गया है परंतु पुस्तकालय, वाचनालय अभी नहीं है।
इधर उनके शिष्य तथा मेरे सहपाठी श्रीमाता प्रसाद शुक्ल ने एक प्राइवेट डिग्री कालेज की स्थापना की है। मेरे अनुरोध पर वे पुस्तकालय स्वर्गीय हेड मास्टर साहब की पुण्य स्मृति को समर्पित करने को सहर्ष तैयार हो गए।
हमारी गांव पंचायत बकुरी (जिसमें गड़ारा गांव सम्मिलित है) में अब पंचायत भवन भी बन गया। ग्राम प्रधान से मैंने कहा है कि कम से कम 1 या 2 कमरे पुस्तकालय एवं वाचनालय के लिए बनवाने का प्रयास करें। आशा है हेडमास्टर साहब की इच्छा मरणोपरान्त पूर्ण हो सकेगी।
समाजोत्थान के लिए तन- मन- धन से नि:स्वार्थ सेवा को ठाकुर साहब ने अपने जीवन का ध्येय बनाकर अंतिम सांस तक चरितार्थ कर दिखाया। हेडमास्टर राम खेलावन सिंह की दूरदर्शिता से पिछले 50- 60 वर्षों में उस पिछड़े क्षेत्र में अब शिक्षा का प्रचार हो चुका है। आशा है मास्टर साहब की आत्मा इस सबसे संतोष का अनुभव करेगी। मैं व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति अत्यंत आभारी हूं और उनकी पुण्यस्मृति को शत्- शत् प्रणाम करता हूं।
लेखक के बारे में...
ग्राम बबुरी जिला सुल्तानपुर उत्तरप्रदेश में 21 फरवरी 1945 को जन्म। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमएससी (गणित)। भारतीय स्टेट बैंक में वरिष्ठ पद से 2001 में सेवानिवृत्त। अध्ययन और समाजसेवा में विशेष रुचि।
पता: एम.एस.80, डी ब्लाक, अलीगंज, लखनऊ 226024
मो. 9450046597

अनार का जूस

चार हफ्ते में घटा सकता है पेट की चर्बी
अगर आपकी मोटी सी तोंद है या आपके कमर पर टायर जैसा मांस लटकने लगा है तो घबराए नहीं बल्कि रोज एक गिलास अनार का जूस पीजिए। वैज्ञानिकों का दावा है कि अनार का रस पेट पर जमी चर्बी तथा कमर पर टायर की तरह लटकते मांस को कम करने में मददगार साबित हो सकता है।
लंदन से प्रकाशित समाचार पत्र डेली मेल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वैज्ञानिकों ने अध्ययन के दौरान पाया कि एक माह तक प्रतिदिन एक बड़ा गिलास अनार का जूस पीने वालों की तोंद यानी पेट पर जमी चर्बी काफी कम हो गई और उनकी पीठ पर से लटकता मांस भी कम हो गया।
अनुसंधान से पता चला है कि अध्ययन के दौरान जिन लोगों को शामिल किया गया उनका ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया जिससे उन्हें हार्ट अटैक, स्ट्रोक और गुर्दे के रोगों की आशंका भी कम हो गई। यूनीवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के इन अनुसंधानकत्र्ताओं का कहना है कि अनार का जूस पीने से रक्त में फैटी एसिड की मात्रा काफी कम हो जाती है जिसे नॉन स्टरीफाइड फैटी एसिड (एनईएफए) कहते है।
अध्ययन के दौरान महिलाओं एवं पुरुषों को 500 मिलीग्राम अनार का जूस 4 हफ्तों तक प्रतिदिन दिया गया। रिपोर्ट में कहा गया है अनुसंधान में शामिल आधे से अधिक का एनईएफए स्तर कम था और उनके पेट और पीठ पर जमी चर्बी भी 50 फीसदी से भी अधिक कम हो चुकी थी। इसके साथ उनमें से 90 फीसदी महिला- पुरुषों का ब्लड प्रेशर भी कम हो गया था जो अध्ययन से पहले सामान्य से काफी अधिक था। (उदंती फीचर्स)



प्रेरक

नहीं, ये तुम्हारा काम है
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों ने पेरिस को अपने कब्जे में ले लिया था। पिकासो के पेरिस वाले अपार्टमेन्ट में एक दिन खुफिया गेस्टापो पुलिसवाले आ घुसे। उन्होंने कमरे की दीवार के सहारे खड़ी पेंटिंग 'गेर्निका' को देखा जिसमें स्पेनिश गृहयुद्ध के दौरान जर्मन लड़ाकू विमानों द्वारा बास्क राजधानी पर बमबारी का चित्रण किया गया है।
एक पुलिस अधिकारी ने 'गेर्निका' को देखकर पिकासो से पूछा 'ये तुम्हारा काम है?'
'नहीं'
पिकासो ने कहा - 'ये तुम्हारा काम है '
(www.hindizen.com से )

परदादा बनने की उम्र में पिता बनने का सुख

सोनीपत के खरखौदा निवासी रामजीत राघव को 94 वर्ष की उम्र में पिता बनने की खुशी मिली है। परदादा बनने की उम्र में रामजीत राघव जो हरियाणा सरकार की ओर से मिलने वाली बुजुर्ग पेंशन और मजदूरी के सहारे अपना परिवार चलाते हैं की पत्नी शकुंतला ने पिछले माह सरकारी हॉस्पिटल में एक बेटे को जन्म दिया।
हरियाणा सरकार के पेंशन रेकॉर्ड में रामजीत की उम्र 94 साल दर्ज है, जबकि शकुंतला की उम्र 50-55 साल है। उम्र को लेकर अपने दावे को पुख्ता करने के लिए रामजीत ने 1929 में फैली महामारी और भारत विभाजन के वक्त हुई सांप्रदायिक दंगों से जुड़ी जानकारी दी। रामजीत ने कहा कि वह मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बेगपुर गांव का रहने वाला है। 40 वर्ष पहले परिवार में हुई विवाद के बाद सोनीपत आकर रहने लगा । वे पहले सोनीपत में लोगों के घरों में काम किया करते थे, लेकिन बाद में खरखौदा में रहने लगे। पिछले 22 वर्ष से रामजीत खरखौदा में भजन बनिया के खेतों में काम करके अपना जीवन व्यापन कर रहे हैं।
खरखौदा के सिविल हॉस्पिटल के डॉक्टर ने बताया कि शकुंतला को पिछले माह हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था और उन्होंने नॉर्मल डिलिवरी में एक बच्चे को जन्म दिया। डाक्टरों के मुताबिक बच्चे की हालत समान्य है और वह स्वस्थ है। दम्पति इसे भगवान की देन मान रहे हैं इसलिए इसका नाम करमजीत रखा है। रामजीत राघव ने अपने लंबी उम्र का राज अपने खान पान और स्वस्थ्य दिनचर्या को बताया। उन्होंने कहा कि जवानी के दिनों में वे पहलवान थे और उनके रोजाना के आहार में तीन लीटर दूध, आधा किलो बादाम और आधा किलो घी शामिल था। इस उम्र में पिता बनने के बारे में डॉक्टरों का कहना है कि हालांकि संभावना से इनकार तो नहीं किया जा सकता लेकिन इसकी उम्मीद बहुत कम रहती है। इसी तरह राजस्थान के नानूराम जोगी ने भी 2007 में 90 साल की उम्र में 22 वें बच्चे के पिता बने थे। इस रिकॉर्ड को हरियाणा के 94 वर्षीय रामजीत राघव ने तोड़ दिया है।

लघुकथाएँ

 डॉ. अशोक भाटिया
कागज की किश्तियाँ
चुनाव होने में अभी दो साल पड़े थे। राज्य में प्रौढ़- शिक्षा पर पांच सौ करोड़ रुपए का खर्च करने की मंजूरी मिली थी। जीपों का मुंह गांवों की तरफ मुड़ गया। अनुभव ने देहातियों को सिखा दिया है कि यहां मन्त्री और अफसर किन कारणों से आते हैं।
नए सिरे से अनपढ़ लोगों की सूचियां बनाई जाने लगीं। इनमें पिछली सूचियों में जोड़े गए कई नाम भी शामिल किए गए।
हमारे गांव बिज्जलपुर में भी ऐसा ही हुआ। जिस दिन प्रौढ़ों को पढ़ाने का सामान लाया गया, उस दिन बच्चों की आंखों में एक नई चमक आ गई। अधनंगे, नाक बहाते बच्चे जीप से कुछ दूर जमा होकर धीरे- धीरे बतियाने लगे।
सुबह का वक्त था। मर्द लोग खेतों में या शहर में निकल गए थे। चौधरी धर्मसिंह ही रह गया था। आवाज सुनकर वह लाठी टेकता, उनके चेहरे पढ़ता हुआ आ पहुंचा। जीप से सामान उतारा जा रहा था। चौधरी ने कहा- 'किस्मत सै रात नें पाणी बरस्या था। सब लोग खेत्तां नै गोडऩ खात्तर गए हैं।' फिर हाथ जोड़कर बोला- 'आप इन बालकां नै कुछ पढ़ा- लिखा दे तो इनकी जिंदगी बण जांदी।'
एक अधिकारी बोला- 'देख ताऊ, हमें बच्चों के लिए नहीं भेजा गया। यह पढऩे- लिखने का सामान रखा है, आने पर उन सबको दे देना।'
डयूटी पूरी करने के बाद ज्यों ही जीप स्टार्ट हुई, बच्चे सामान पर टूट पड़े। बीरू ने किताबों के पन्ने फाड़ते हुए कहा- 'चलो रै, जौहड़ में किश्तियां चलाएंगे।'
रिश्ते
वह आम बस थी और स्वरूप सिंह आम ड्राइवर था। सवारियों ने सोचा था कि भीड़- भाड़ से बाहर आकर बस तेज हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ स्वरूप सिंह के हाथ आज सख्त ही नहीं, मुलायम भी थे। भारी ही नहीं, हल्के भी थे। उसका दिल आज बहुत पिघल रहा था, वह
कभी बस को, कभी सवारियों को और कभी बाहर पेड़ों को देखने लगता, जैसे वहां कुछ खास बात को। कंडक्टर इस राज को जानता था। लेकिन सवारियां धीमी गति से परेशान हो उठीं।
'ड्राइवर साहब, जरा तेज चलाओ, आगे भी जाना है', एक ने तीखेपन से कहा।
स्वरूप सिंह ने मिठास घोलते हुए कहा, 'आज तक मेरी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ।'
इस पर सवारियां और उत्तेजित हो गईं। दो- चार ने आगे- पीछे कहा, 'इसका मतलब यह नहीं कि बीस- तीस पे ढीचम-ढीचम चलाओ।'
कोशिश करके भी स्वरूप सिंह बस तेज नहीं कर पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला, 'बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आखिरी बार बस चला रहा हूं। बस के मुकाम पर पहुंचते ही मैं रिटायर हो जाऊंगा, इसलिए।'

डाची

- उपेंद्रनाथ अश्क
एक निमिष के लिए बाकर के थके हुए व्यथित चेहरे पर आह्लाद की रेखा झलक उठी। उसे डर था कि चौधरी कहीं ऐसा मोल न बता दे, जो उसकी बिसात से ही बाहर हो, पर जब अपनी जबान से ही उसने 160 रुपए जो बताए, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।
काट 'पी सिंकदर' के मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालच भरी निगाहों से तकते देखकर चौधरी नंदू वृक्ष की छांह में बैठे- बैठे अपनी ऊंची घरघराती आवाज में ललकार उठा, 'रे- रे अठे के करे है।' और उसकी छह फुट लंबी सुगठित देह, जो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थी, तन गई और बटन टूटे होने का कारण, मोटी खादी के कुत्र्ते से उसका विशाल वक्ष:स्थल और उसकी बलिष्ठ भुजाएं दृष्टिगोचर हो उठीं। बाकर तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी- नुकीली दाढ़ी और शरअई मुंछों के ऊपर गढ़ों में धंसी हुई दो आंखों में निमिष मात्र के लिए चमक पैदा हुई और जरा मुस्कराकर उसने कहा - 'डाची देख रहा था चौधरी, कैसी खूबसूरत और जवान है, देखकर आंखों की भूख मिटती है।' अपने माल की प्रशंसा सुनकर चौधरी नंदू का तनाव कुछ कम हुआ, प्रसन्न होकर बोला, 'किसी सांड?' 'वह, परली तरफ से चौथी' बाकर ने संकेत करते हुए कहा। ओकांह के एक घने पेड़ की छाया में आठ- दस ऊंट बंधे थे, उन्हीं में एक जवान सांडनी ने अपनी लंबी, सुंदर और सुडौल गर्दन बढ़ाए घने पत्तों में मुंह, मार रही थी माल मंडी में, दूर जहां तक नजर जाती थी बड़े- बड़े ऊंचे ऊंटों, सुंदर सांडनियों, काली- मोटी बेडौल भैंसों, सुंदर नगौरी सींगों वाले बैलों और गायों के सिवा कुछ न दिखाई देता था। गधे भी थे, पर न होने के बराबर अधिकांश तो ऊंट ही थे। बहावल नगर के मरूस्थल में होने वाली माल मंडी में उनका आधिक्य था भी स्वाभाविक। ऊंट रेगिस्तान का जानवर है। इस रेतीले इलाके में आमदरफ्त खेती- बाड़ी और बारबरादारी का काम उसी से होता है। पुराने समय में गाय दस- दस और बैल पंद्रह- पंद्रह रुपए में मिल जाते थे, तब भी अच्छा ऊंट पचास से कम में हाथ न आता था और अब भी जब इस इलाके में नहर आ गई है, पानी की इतनी किल्लत नहीं रही, ऊंट का महत्व कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा है। सवारी के ऊंट 2- 2 सौ से 3- 3 सौ तक पा जाते हैं और बाही तथा बारबरदारी के भी अस्सी सौ से कम में हाथ नहीं आते। तनिक और आगे बढ़कर बाकर ने कहा 'सच कहता हूं चौधरी, इस जैसी सुंदरी सांडनी मुझे सारी मंडी में दिखाई नहीं दी।' हर्ष से नंदू का सीना दुगना हो गया बोला, 'आ एक ही के, इह तो सगली फूटरी है। हूं तो इन्हें चारा फलंूसी निरिया करूं।' धीरे से बाकर ने पूछा, 'बेचोगे इसे?' नंदू ने कहा 'इठई बेचने लई तो लाया हूं।' 'तो फिर बताओ कितने का दोगे?' नंदू ने नख से शिख तक बाकर पर एक दृष्टि डाली और हंसते हुए बोला, 'तन्ने चाही जै का तेरे धनी बेई मोल लेसी?' 'मुझे चाहिए' बाकर ने दृढ़ता से कहा। नंदू ने उपेक्षा से सिर हिलाया। इस मजदूर की यह बिसात कि ऐसी सुंदर सांडनी मोल ले। बोला, तू की लेसी? बाकर की जेब में पड़े डेढ़ सौ के नोट जैसे बाहर उछल पडऩे के लिए व्यग्र हो उठे। तनिक जोश के साथ उसने कहा, 'तुम्हें इससे क्या, कोई ले तुम्हें तो अपनी कीमत से गरज है, तुम मोल बताओ?' नंदू ने उसके जीर्ण- शीर्ण कपड़ों, घुटनों से उठे हुए तहमद और जैसे नूह के वक्त से भी पुराने जूते को देखते हुए टालने के विचार से कहा, 'जा जा तू इशी- विशी ले आई, इगो मोल तो आठ बीसों सू घाट के नहीं।' एक निमिष के लिए बाकर के थके हुए व्यथित चेहरे पर आह्लाद की रेखा झलक उठी। उसे डर था कि चौधरी कहीं ऐसा मोल न बता दे, जो उसकी बिसात से ही बाहर हो, पर जब अपनी जबान से ही उसने 160 रुपए जो बताए, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। 150 रुपए तो उसके पास थे ही। यदि इतने पर भी चौधरी न माना, दो दस रुपए वह उधार कर लेगा। भाव- ताव तो उसे करना आता न था। झट से उसने डेढ़ सौ के नोट निकाले और नंदूू के आगे फेंक दिए। बोला- 'गिन लो इनसे अधिक मेरे पास नहीं, अब आगे तुम्हारी मर्जी।' नंदू ने अन्यमनस्कता से नोट गिनने आरंभ कर दिए, पर गिनती खत्म करते ही उसकी आंखें चमक उठीं। उसने तो बाकर को टालने के लिए मूल्य 160 रुपए बता दिया था, नहीं मंडी में अच्छी से अच्छी डाची डेढ़ सौ में मिल जातीं। और इसके तो 140 रुपए पाने की भी कल्पना उसके स्वप्न में न थी। पर शीघ्र ही मन के भावों को छिपाकर और जैसे बाकर पर अहसान का बोझ लादते हुए नंदू बोला, 'सांड तो मेरी दो सौ की है, पण जा सग्गी मोल मिया तन्ने दस छांडिय़ा।' और यह कहते- कहते उठकर उसने सांडऩी की रस्सी बाकर के हाथ में दे दी। क्षण भर के लिए उस कठोर व्यक्ति का जी भर आया। यह सांडऩी उसके यहां ही पैदा हुई और पली थी। आज पाल पोसकर उसे दूसरे के हाथ में सौंपते हुए उसके मन की कुछ ऐसी दशा हुईं जो लड़की को ससुराल भेजते समय पिता की होती है। जरा कांपती आवाज में, स्वर को तनिक नर्म करते हुए, उसने कहा, 'आ सांड सीरी रहेड़ी तूं इन्हें रेहड़ में गेर दई।' 'ऐसे ही, जैसे ससुर दामाद से कह रहा हो- मेरी लड़की लाड़ों पली है, देखना इसे कष्ट न देना।' आह्लाद के पंख पर उड़ते हुए बाकर ने कहा, तुम जरा भी चिंता न करो। जान देकर पालूंगा। नंदू ने नोट अंटी में संभालते हुए, जैसे सूखे हुए गले को जरा तर करने के लिए, घड़े में मिट्टी का प्याला भरा। मंडी में चारों ओर धूल उड़ रही थी। शहरों की माल मंडियों में भी- जहां बीसियों अस्थायी नल लग जाते हैं और सारा- सारा दिन छिड़काव होता रहता है- धूल की कमी नहीं होती, फिर रेगिस्तान की मंडी पर तो धूल ही का साम्राज्य था। गन्नेवाले को गड़ेरियों पर, हलवाई के हलवे और जलेबियों पर और खोंचेवाले को दही बड़े पर, सब जगह धूल का पूर्णाधिकार था। घड़े का पानी टांचियों द्वारा नहर से लाया गया था, पर यहां आते- आते वह कीचड़ जैसा गंदला हो जाता था। नंदू का ख्याल था कि निथरने पर पियेगा, पर गला कुछ सूख रहा था। एक ही घूंट में प्याले को खत्म करके नंदू ने बाकर से भी पानी पीने के लिए कहा। बाकर आया था, तो उसे गजब की प्यास लगी हुई थी, पर अब उसे पानी पीने की फुर्सत कहां? वह रात होने से पहले- पहले गांव पहुंचना चाहता था। डाची की रस्सी पकड़े हुए वह धूल को चीरता हुआ- सा चल पड़ा। बाकर के दिल में बड़ी देर से एक सुंदर और युवा डाची खरीदने की लालसा थी। जाति से वह कमीन था। उसके पूर्वज कुम्हारों का काम करते थे, किंतु उसके पिता ने अपना पैतृक काम छोड़कर मजदूरी करना ही शुरु कर दिया था। उसके बाद बाकर भी इसी से अपना और अपने छोटे से कुटुंब का पेट पालता आ रहा था। वह काम अधिक करता हो, यह बात न थी। काम से उसने सदैव जी चुराया था। चुराता भी क्यों न, जब उसकी पत्नी उससे दुगुना काम करके उसके भार को बंटाने और उसे आराम पहुंचाने के लिए मौजूद थी। कुटुंब बड़ा न था- एक वह, एक उसकी पत्नी और एक नन्हीं सी बच्ची फिर किसलिए वह जी हलकान करता। पर क्रूर और बेपीर विधाता- उसने उसे इस विस्मृति से, सुख की उस नींद से जगाकर अपना उत्तरदायित्व समझने पर बाधित कर दिया। उसे बता दिया कि जीवन में सुख ही नहीं, आराम ही नहीं, दुख भी है, परिश्रम भी है। पांच वर्ष हुए उसकी वही आराम देने वाली प्यारी पत्नी सुंदर गुडिय़ा-सी लड़की को छोड़कर परलोक सिधार गई थी। मरते समय, अपनी सारी करुणा को अपनी फीकी और श्रीहीन आंखों में बटोरकर अपने बाकर से कहा था, 'मेरी रजिया अब तुम्हारे हवाले है, इसे कष्ट न होने देना।' इसी एक वाक्य ने बाकर के समस्त जीवन के रूप को पलट दिया था। उसकी मृत्यु के बाद ही वह अपनी विधवा बहन को उसके गांव से ले आया था और अपने आलस्य तथा प्रमाद को छोड़कर अपनी मृत पत्नी की अंतिम अभिलाषा को पूरा करने में संलग्न हो गया था। वह दिन रात काम करता था ताकि अपनी मृत पत्नी की उस धरोहर को, अपनी उस नन्ही सी गुडिय़ा को, भांति- भांति की चीजें लाकर प्रसन्न रख सके। जब भी कभी वह मंडी को आता, तो नन्ही सी रजिया उसकी टांगों से लिपट जाती और अपनी बड़ी- बड़ी आंखें उसके गर्द से अटे हुए चेहरे पर जमाकर पूछती, 'अब्बा, मेरे लिए क्या लाए हो?' तो वह उसे अपनी गोद में ले लेता और कभी मिठाई और कभी खिलौनों से उसकी झोली भर देता। तब रजिया उसकी गोद में से उतर जाती और अपनी सहेलियों को अपने खिलौने या मिठाने दिखाने के लिए भाग जाती। यही गुडिय़ा जब 8 वर्ष की हुई, तो एक दिन मचलकर अपने अब्बा से कहने लगी, 'अब्बा, हम तो डाची लेंगे, अब्बा हमें डाची ले दो।' भोली भाली निरीह बालिका। उसे क्या मालूम कि वह एक विपन्न साधनहीन मजदूर की बेटी है, जिसके लिए डाची खरीदना तो दूर रहा, डाची की कल्पना करना भी पाप है, रूखी हंसी हंसकर बाकर ने उसे अपनी गोद में ले लिया और बोली, 'रज्जो, तू तो खुद डाची है।' पर रजिया न मानी। उस दिन मशीरमल अपनी सांडऩी पर चढ़कर अपनी छोटी लड़की को अपने बागे बैठाए दो- चार मजदूर लेने के लिए अपनी इसी काट में आए थे। तभी रजिया के नन्हें- से मन में डाची पर सवार होने की प्रबल आकांक्षा पैदा हो उठी थी, और उसी दिन से बाकर की रही- सही अकर्मण्यता भी दूर हो गई थी। उसने रजिया को टाल तो दिया था, पर मन ही मन उसने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अवश्य रजिया के लिए सुंदर सी डाची मोल लेगा। उसी इलाके में जहां उनकी आय की औसत सालभर में तीन आने रोजाना भी न होती थी, अब आठ- दस आने हो गई। दूर- दूर से गांवों से अब वह मजदूरी करता। कटाई के दिनों में वह दिन- रात काम करता फसल काटता, दाने निकालता, खलिहानों में अनाज भरता, नीरा डालकर भूसे के कूप बनाता। बिजाई के दिनों में हल चलाता, क्यारियां बनाता, बिजाई करता। उन दिनों उसे पांच आने से लेकर आठ आने रोजाना तक मजदूरी मिल जाती। जब कोई काम न होता तो प्रात: उठकर, आठ कोस की मंजिल मारकर मंडी जा पंहुचता और आठ- दस आने की मजदूरी करके ही घर लौटता। उन दिनों में वह रोज छह आने बचाता आ रहा था। इस नियम में उसने किसी तरह की ढील न होने दी थी। उसे जैसे उन्माद सा हो गया था। बहन कहती- 'बाकर अब तो तुम बिलकुल ही बदल गए हो। पहले तो तुमने कभी ऐसी जी तोड़कर मेहनत न की थी।' बाकर हंसता और कहता- 'तुम चाहती हो, मैं आयु पर निठल्ला रहूं?' बहन कहती - 'निकम्मा बैठने को तो मैं नहीं कहती, पर सेहत गंवाकर रूपया जमा करने की सलाह भी नहीं दे सकती।' ऐसे अवसर पर सदैव बाकर के सामने उसकी मृत पत्नी का चित्र खिंच जाता, उसकी अंतिम अभिलाषा उसके कानों में गूंज जाती। वह आंगन में खेलती हुई रजिया पर एक स्नेहभरी दृष्टि डालता और विषाद से मुस्कराकर फिर अपने काम में लग जाता था। और आज डेढ़ वर्ष से कड़े परिश्रम के बाद वह अपनी चिरसंचित अभिलाषा पूरी कर सका था। उसके एक हाथ में सांडऩी की रस्सी थी और नहर के किनारे- किनारे वह चला जा रहा था। सांझ की बेला थी। पश्चिम की ओर डूबते सूरज की किरणें धरती को सोने का अंतिम दान कर रही थीं। वायु की ठंडक आ गई थी, और कहीं दूर खेतों में टीटिहरी टीहूं- टीहूं करती उड़ रही थी। बाकर के मन में अतीत की सब बातें एक एक करके आ रही थीं। इधर- उधर कभी- कभी कोई किसान अपने ऊंट पर सवार जैसे फुदकता हुआ निकल जाता था और कभी- कभी खेतों से वापस आने वाले किसानों के लड़के बैलगाड़ी में रखे हुए घास पट्ठे के गट्ठों पर बैठे, बैलों को पुचकारते, किसी गीत का एक आध बंद गाते या बैलगाड़ी के पीछे बंधे हुए चुपचाप चले आने वाले ऊंटों की थूथनियों से खेलते चले जाते थे। बाकर ने, जैसे स्वप्न से जागते हुए, पश्चिम की ओर अस्त होते हुए अंशुमाली की ओर देखा, फिर सामने की ओर शून्य में नजर दौड़ाई। उसका गांव अभी बड़ी दूर था। पीछे की ओर हर्ष से देखकर और मौनरूप से चली आने वाली सांडऩी को प्यार से पुचकारकर वह और भी तेजी से चलने लगा- कहीं उसके पहुंचने से पहले रजिया सो न जाए, इसी विचार से। मशीरमल की काट नजर आने लगी। यहां से उसका गांव समीप ही था। यही कोई दो कोस। बाकर की चाल धीमी हो गई और उसके साथ ही कल्पना की देवी अपनी रंग- बिरंगी तूलिका से उसके मस्तिष्क के चित्रपट पर तरह- तरह की तस्वीरें बनाने लगी। बाकर ने देखा, उसके घर पहुंचते ही नन्ही रजिया आह्लाद से नाचकर उसकी टांगों से लिपट गई और फिर डाची को देखकर उसकी बड़ी- बड़ी आंखें आश्चर्य और उल्लास से भर गई हैं। फिर उसने देखा, वह रजिया को आगे बैठाए सरकारी खाले (नहर) के किनारे- किनारे डाची पर भागा जा रहा है। शाम का वक्त है, ठंडी- ठंडी हवा चल रही है और कभी- कभी कोई पहाड़ी कौवा अपने बड़े- बड़े पंख फैलाए और अपनी मोटी आवाज से दो एक बार कांव- कांव करके ऊपर से उड़ता चला जाता है। रजिया की खुशी का पारावार नहीं। वह जैसे हवाई जहाज में उड़ी जा रही है, फिर उसके सामने आया कि वह रजिया को लिए बहावलनगर की मंडी में खड़ा है। नन्हीं रजिया मानो भौचक्की सी है। हैरान और आश्चर्यान्वित- सी चारों ओर अनाज के इन बड़े- बड़े ढेरों, अनगिनत छकड़ों और हैरान कर देने वाली चीजों को देख रही है। बाकर साह्लाद उसे सबकी कैफियत दे रहा है। एक दुकान पर ग्रामोफोन बजने लगता है। बाकर रजिया को वहां ले जाता है। लकड़ी के इस डिब्बे से किस तरह गाना निकल रहा है, कौन इसमें छिपा गा रहा है, यह सब बातें रजिया की समझ में नहीं आती, और यह सब जानने के लिए उसके मन में जो कौतुहल और जिज्ञासा है, वह उसकी आंखों से टपकी पड़ती है। वह अपनी कल्पना में मस्त काट के पास से गुजरा जा रहा था कि सहसा कुछ विचार आ जाने से रूका और काट में दाखिल हुआ। मशीरमल की काट भी कोई बड़ा गांव न था। इधर से सब गांव ऐसे ही हैं। ज्यादा हुए तो तीस छप्पर हो गए। कडिय़ों की छत का या पक्की ईंटों का मकान इस इलाके में अभी नहीं। खुद बाकर की काट में पंद्रह घर थे। घर क्या झुग्गियां थीं। सिरकियों के खेमे जिन्हें झोपडि़य़ों का नाम भी न दिया जा सकता था। मशीरमल की काट भी ऐसे ही 20-25 झुग्गियों की बस्ती थी। केवल मशीरमल की निवास स्थान कच्ची ईंटों से बना था। पर छत उस पर भी छप्पर की ही थी। बाकर नानक बढ़ई की झुग्गी के सामने रूका। मंडी जाने से पहले वह यहां डांची का गदरा (पलान) बनाने के लिए दे गया था। उसे ख्याल आया कि यदि रजिया ने सांडऩी पर चढऩे की जिद की, तो वह उसे कैसे टाल सकेगा। इसी विचार से वह पीछे मुड़ आया था। उसने नानक को दो- एक आवाजें दीं। अंदर से शायद उसकी पत्नी ने उत्तर दिया- 'घर में नहीं हैं, मंडी गए हैं।' बाकर का दिल बैठ गया। वह क्या करे, यह न सोच सका। नानक यदि मंडी गया है तो गदरा क्या खाक बनाकर गया होगा। फिर उसने सोचा शायद बनाकर रख गया हो। उससे उसे कुछ सांत्वना मिली। उसने फिर पूछा- मैं सांडऩी का पलान बनाने के लिए दे गया था, वह बना या नहीं।जवाब मिला- हमें मालूम नहीं। बाकर का आधा उल्लास जाता रहा। बिना गदरे के वह डाची को क्या लेकर जाए। नानक होता तो उसका गदरा चाहे न बना सकता, कोई दूसरा ही उससे मांगकर ले जाता। यह विचार आते ही उसने सोचा- चलो मशीरमल से मांग ले। उनके तो इतने ऊंट रहते हैं, कोई न कोई पुराना पलान होगा ही। अभी उसी से काम चला लेंगे। तब तक नानक नया गदरा तैयार कर देगा। यह सोचकर वह मशीरमल के घर की ओर चल पड़ा। अपनी मुलाजमत के दिनों में मशीरमल साहब ने पर्याप्त धनोपार्जन किया था। जब इधर नहर निकली, तो उन्होंने अपने पद और प्रभाव के बल पर रियासत में कौडिय़ों के मोल कई मुरब्बे जमीन ले ली थी। अब नौकरी से अवकाश ग्रहण कर यहीं आ रहे थे। राहक रखे हुए थे, आय खूब थी और मजे से जीवन व्यतीत हो रहा था। अपनी चौपाल में एक तख्तपोश पर बैठे वे हुक्का पी रहे थे- सिर पर श्वेत साफा, गले में श्वेत कमीज, उस पर श्वेत जाकेट और कमर में दूध जैसे रंग का तहमद। गर्द से अटे हुए बाकर को सांडऩी की रस्सी पकड़े आते देखकर उन्होंने पूछा- कहो बाकर, किधर से आ रहे हो? बाकर ने झुककर सलाम करते हुए कहा- मंडी से आ रहा हूं मालिक। 'यह डाची किसकी है?' 'मेरी ही है मालिक, अभी मंडी से ला रहा हूं।' 'कितने की लाए हो?' बाकर ने चाहा, कह दे आठ बीसी की लाया हूं। उसके ख्याल में ऐसी सुंदर डाची 200 में भी सस्ती थी, पर मन न माना बोला- 'हुजूर, मांगता तो 160 रुपए था, पर साढ़े सात बीसी ही में ले आया हूं।' मशीरमल ने एक नजर डाली वे स्वयं अर्से से एक सुंदर सी डाची अपनी सवारी के लिए लेना चाहते थे। उनके डाची तो थी, पर पिछले वर्ष उसे सीमक हो गया था और यद्यपि नील इत्यादि देने से उसका रोग तो दूर हो गया था पर उसकी चाल में वह मस्ती, वह लचक न रही थी। यह डाची उनकी नजरों में जंच गई- क्या सुंदर और सुडौल अंग है, क्या सफेदी मायल भूरा- भूरा रंग है, क्या लचलचाती लंबी गर्दन है। बोले- 'चलो हमसे आठ बीसी ले तो हमें एक डाची की जरूरत है, दस तुम्हारी मेहनत के रहे।' बाकर ने फीकी हंसी से साथ कहा - 'हुजूर अभी तो मेरा चाव भी पुरा नहीं हुआ।' मशीरमल उठकर डाची की गर्दन पर हाथ फेरने लगे- वाह क्या असील जानवर है। प्रकट बोले - 'चलो, पांच और ले लेना।' और उन्होंने आवाज दी - 'नूरे, अरे ओ नूरे।' नौकर भैंसों के लिए पट्ठे कतर रहा था। गंडासा हाथ ही में लिए भाग आया। मशीरमल ने कहा, यह डाची ले जाकर बांध दो। 165 में, कहो कैसी है? नूरे ने हतबुद्धि से खड़े बाकर के हाथ से रस्सी ले ली। और नख से शिख तक एक नजर डाली पर डालकर बोला, खूब जानवर है यह कहकर नौहरे की ओर चल पड़ा। तब मशीरमल ने अंटी से 60 रुपए के नोट निकालकर बाकर के हाथ में देते हुए मुस्कुराकर कहा, अभी एक राहक देकर गया है, शायद तुम्हारी ही किस्मत के थे। अभी यह रखो बाकी की एक - दो महीने तक पहुंचा दूंगा। हो सकता है तुम्हारी किस्मत से पहले ही आ जाए। और बिना कोई जवाब सुने वे नौहरे की ओर चल पड़े। नूरा फिर चारा कतरने लगा था। दूर ही से आवाज देकर उन्होंने कहा, 'भैंसे का चारा रहने दो, पहले डाची के लिए गवारे का नीरा कर डाल, भूखी मालूम होती है।' और पास जाकर सांडनी की गर्दन सहलाने लगे। कृष्णपक्ष का चांद अभी उदय नहीं हुआ था। विजन में चारों ओर कुहासा छा रहा था। सिर पर दो एक तारे निकल आए थे। और दूर बबूल और ओकांह के वृक्ष बड़े- बड़े काले सियाह धब्बे बन रहे थे। फोग की एक झाड़ी की ओट में अपनी काट के बाहर बाकर बैठा उस क्षीण प्रकाश को देख रहा था, जो सरकंड़ों से छिन- छिनकर उसके आंगन से आ रहा था। जानता था रजिया जागती होगी। उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। वह इस इंतजार में था कि दिया बुझ जाए, रजिया सो जाय तो वह चुपचाप अपने घर में दाखिल हो। 

अश्क जी और डाची 14 दिसंबर 1910 को पंजाब के जालंधर शहर में जन्में उपेन्द्रनाथ अश्क ने बीए, एलएलबी की डिग्री ली। लेकिन वे वकील नहीं लेखक बने। हिन्दी के बेहद परिश्रमी लेखक के रूप में पहचाने जाने वाले अश्क जी की तुलना स्टीवेंसन से की गई। वे अस्तित्ववाद के विरोधी थे। जिसे लेखक खूब जानता हो उसे ही लेखन का विषय बताये यह वे मानते थे। उन्होंने देहाती जीवन पर डाची और कांवड़ा का तेली जैसी कहानी लिखी तो शहरी जीवन के बाद पिंजरा, पलंग और कहानी लेखिका और जेहलम के सात पुल जैसी कहानियां लिखीं। राजेन्द्र सिंह बेदी एवं अश्क जी ने 'पलंग' शीर्षक कहानियां लिखकर इतिहास रचा। दोनों ही कहानियां हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियां मानी जाती हैं। जब संस्मरण लिखने का चलन हिन्दी साहित्य में शुरुवाती दौर में था तब अश्क जी ने 'मंटो: मेरा दुश्मन' लिखकर कीर्तिमान रच दिया। प्रेमचंद की परंपरा में अश्कजी उर्दू से हिन्दी में आये और शीर्ष कथाकार बने। उन्होंने कथेतर गद्य की रचना की। वे एक चर्चित कवि तथा सफल नाटककार थे। इलाहाबाद में बस गए। वहीं उन्होंने नीलाभ प्रकाशन प्रारंभ किया। अपनी कृतियों को उन्होंने अपने प्रकाशन गृह से ही छापा। वे भरी जवानी में तपेदिक के शिकार हुए। जब वह लाइलाज सी बीमारी मानी जानी थी। मगर अश्क जी की जीवटता उन्हें बीमारी से निकाल ले गई। उन्होंने तीन शादियां की। कौशल्या जी उनकी अद्र्धांगिनी और जीवन संघर्ष की मजबूत साथी के रूप में सदा साथ रहीं। नीलाभ उनके प्रतिभाशाली कवि पुत्र हैं। उमेर उनका एक और पुत्र है। जीवन की संध्या में अश्क जी के कूल्हे की हड्डी टूट गई। इस दुर्घटना से उनका हौसला टूटता गया। आखिर दिनों में वे बिस्तर पर पड़े- पड़े कई बीमारियों की गिरफ्त में आ गए। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी के जानकार अश्क जी ने अध्यापन, पत्रकारिता, वकालत, रेडियो, फिल्म एवं रंगमंच से खूब वास्ता रखा लेकिन रहे वे पूर्णकालिक समर्पित लेखक ही। 19 जनवरी 1996 को उनका निधन हुआ। अनुवाद के साथ ही महान हस्तियों के बालपन को उन्होंने शब्दों में बांधा। संकेत हिन्दी एवं उर्दू पत्रिकाओं का संपादन उन्होंने किया। उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान सम्मान तथा सोवियत लैण्ड पुरस्कार से सम्मानित अश्क जी की कहानी डाची को विशेष महत्व मिला। एक साधनहीन भावुक पिता के मनोलोक में झांकने का यह रचनात्मक प्रभाव समकालीन कथा परिदृश्य में अनोखा ही माना गया। भाषा का चुलबुलापन, अदायगी और वातावरण की बुनावट भी इस कहानी में देखते ही बनती है। प्रस्तुत है अश्क जी की चर्चित कहानी 'डाची'। संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा , एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494