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Oct 23, 2010

उदंती.com, अक्टूबर 2010


उदंती.com,
वर्ष 3, अंक 2, अक्टूबर 2010
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हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्मो में प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है।
- वाल्मीकि
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अनकही: भ्रष्टाचार के साये तले चमकते...
पौराणिक : सरगुजा के रामगढ़ पर्वत में राम वनवास - प्रो. उत्तम चंदगोयल
संस्मरण: मैं भी फर्जी पिकासो बन सकता हूं
मुद्दा: औरत को मारने के बहाने - पंकज चतुर्वेदी
खोज: चमेली की सुंगध का नशा
पुरातन: मल्हार: जहां आज भी गूंज रहे हैं... - सुजाता साहा
हर चीज सलामत! - उदंती फीचर्स
यादें: हवा में उड़ता जाए ... - हर मन्दिर सिंह 'हमराज'
कलाकार: कबाड़ में छुपे सौंदर्य को आकार देती.... - संजीव तिवारी
मिसाल-बेमिसाल: ...और दीनानाथ ने बसा दिया एक प्रेमवन - रोली शिवहरे और प्रशांत दुबे
मानव विकास: मछली खाकर बने बुद्धिमान - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
व्यंग्य: ओय ओय ... फुट ब्रिज गिर गया -प्रमोद ताम्बट
वाह भई वाह: कलमाड़ी जोक्स - जवाहर चौधरी
कहानी: ब्रह्मराक्षस का शिष्य - गजानन माधव 'मुक्तिबोध
जल: अहसास - मुकुंद कौशल तुक्तक कथा: नेताजी की सलाह - गिरीश बख्शी
वीडियो: 30 साल से बच्चों का चहेता मारियो
सुरेश शर्मा की लघु कथाएं: मानव धर्म, दीया तले
बगैर सीमेंट और कॉन्क्रीट की इमारत
टेस्ट ट्यूब बेबी के 'जनक' का सम्मान
आपके पत्र/ इन बॉक्स
लेखकों से
रंग बिरंगी दुनिया

भ्रष्टाचार के साये तले चमकते प्रतिभा के स्वर्णपदक

भ्रष्टाचार के साये तले चमकते 
प्रतिभा के स्वर्णपदक
-डॉ. रत्ना वर्मा
दिल्ली राष्ट्रमंडल खेल शुरु होने से पहले भारत को लेकर इतनी निराशाजनक और शर्मनाक खबरें आईं कि खेलों के प्रति रुचि ही जाती रही। चाहे वह फुट ओवरब्रिज धराशायी होने का मामला हो या दिल्ली में आई बाढ़ के बाद खेल गांव में सांप निकलने का या फिर करोड़ों के भष्ट्राचार का लेकिन जैसे- जैसे खेल आगे बढ़ते गया भारतीय खिलाडिय़ों ने अपने बेहतरीन प्रदर्शन से पूरे माहौल को बदल डाला।
सबसे आश्चर्य और कमाल की बात तो यह है कि जिस राज्य में लड़की के पैदा होते ही उसे मार दिया जाता है या कन्या भ्रूण हत्या में जो राज्य सबसे आगे है और जहां 'ऑनर किलिंग के सबसे अधिक मामले सामने आ रहे हैं उसी हरियाणा की लड़कियों ने राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का नाम ऊंचा किया है। भारत को खेलों में पदक दिलाने वाली इन ज्यादातर खिलाडिय़ों की एक और खास बात है कि ये खिलाड़ी किसी बड़े शहर से नहीं बल्कि भारत के छोटे- छोटे गांवों और कस्बों से हैं। लड़कियां जो परंपराओं के नाम पर सताईं जाती हंै, परिवार के लिए बोझ मानी जाती हैं, ने इन बेडिय़ों को तोड़ कर दिखा दिया है कि कुछ कर गुजरने का जज़्बा हो तो कोई भी बेड़ी उनके कदमों को रोक नहीं सकती।
इस संदर्भ में यदि हम शहरों और गांवों की तुलना करें तो एक ओर चमक- दमक और सुविधा भरी शहरी जिंदगी है तो दूसरी ओर कड़ी मेहनत वाला गांवों का कठोर जीवन। शहरों की प्रतिभाओं को जितनी आसानी से उभरने का मौका मिलता है, उतना गांवों के खिलाडिय़ों को नहीं। फिर भी हरियाणा के भिवानी के एक छोटे से गांव बिलाली से आने वाली गीता कुश्ती में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला है। उनकी बहन बबीता ने 51 किलोग्राम फ्रीस्टाइल कुश्ती में रजत पर कब्जा जमाया। फ्रीस्टाइल कुश्ती में हरियाणा की ही अनीता ने भी स्वर्ण पर कब्जा किया तो हरियाणा पुलिस में काम करने वाली निर्मला देवी रजत जीतकर आईं। डिस्कस थ्रो में तो भारत ने इतिहास रच दिया। हैरानी की बात नहीं कि स्वर्ण और कांस्य जीतने वाली कृष्णा पूणिया और सीमा हरियाणा की ही मिट्टी से हैं।
कुश्ती में मेडल जीतने वाली लड़कियां ऐसे परिवारों से आई हैं, जिनके पिताओं ने ही इन्हें मिट्टी के अखाड़े पर स्वयं उतारा है। 55 किलोग्राम वर्ग में गोल्ड मेडल विजेता गीता गर्व से कहती है कि 'ऑनर किलिंग एक अलग मसला है। मेरी चार बहनें भी कुश्ती करती हैं। अगर आप परिवार का मान बढ़ाएंगी तो सभी आप के साथ खड़े होंगे। मेरे पिता हमेशा कहते थे कि उन्हें बेटों की जरूरत नहीं।'
इसी तरह मेरठ जिले के सिलोली गांव में जन्मी अलका तोमर जिसने 59 किलोग्राम वर्ग में गोल्ड जीता है, का कहना है 'जब मैंने कुश्ती शुरू की तो पिताजी ने मेरे बाल कटवा दिए। आस- पड़ोस के लोगों ने कहा कि यह क्या कर दिया! लड़कियों से कुश्ती करवा रहा है। इनका क्या होगा! तब मेरे पिता का जवाब होता, मैं इन्हें आगे बढ़ता देखना चाहता हूं।' वह कहती है 'परिवार, गांव और समाज का नाम बढ़ाने वाले के खिलाफ कौन
जाएगा। मैं आज यहां तक पहुंची हूं तो सिर्फ परिवार, समाज और अपने कोचों की मदद से। अच्छा करूंगी तो और आगे बढूंगी। कोई नहीं रोकेगा मुझे।'
नेशनल बॉक्सिंग में पहचान बनाने वाली लड़कियों में 16 साल की हेमा योगेश और 22 साल की प्रीति बेनिवाल ने भी छोटे- छोटे गांव और कस्बों से होते हुए नेशनल टीम में जगह बनाई है। इन लड़कियों के लिए बॉक्सिंग जैसे खेल में आना आसान नहीं था। कुछ ऐसी ही कहानी तीरंदाजी की है। जमशेदपुर टाटा तीरंदाजी अकादमी तथा पश्चिम बंगाल के साईं तीरंदाजी सेंटर में कार्बन और ग्रेफाइट से निर्मित आधुनिक धनुष के साथ टारगेट को तीरों से भेद देने वाली लड़कियों में ज्यादातर आस- पास के आदिवासी इलाकों या ग्रामीण क्षेत्रों से ही हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया है कि घंटो कठिन अभ्यास और अनुशासित जीवन से उनकी भुजाओं में सिर्फ ज्यादा ताकत ही नहीं, बल्कि एकाग्रता के मामले में भी वे शहरी लड़कियों से बीस ही बैठती हैं। तीरंदाजी में भारत के लिए स्वर्ण जीतने वाली16 साल की दीपिका कुमारी झारखंड के एक छोटे से गांव में रहती है। दीपिका के पिता ऑटो रिक्शा चलाते हैं।
इसी तरह दस हजार मीटर दौड़ में कांस्य पदक जीतने वाली कविता राउत नाशिक के गांव से आई है, उसने धावक बनने का फैसला इसलिए किया क्योंकि वह नंगे पैर दौड़ सकती थी, उसके परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे कि उसके लिए जूते खरीद सके। 4ङ्ग400 महिला रिले दौड़ में बड़ी सफलता मनजीत कौर, सिनी जोसफ, अश्वनी अकुंजी और मनदीप कौर की चौकड़ी ने दिलाई। उन्होंने नाइजीरिया और इंग्लैंड के धावकों को पछाड़ते हुए स्वर्ण पदक हासिल किया। और अंतिम दिन साइना नेहवाल ने बैडमिंटन में महिला एकल का स्वर्ण जीतकर लड़कियों के खाते में एक और उपलब्धि जोड़ दी। हमें नाज़ है इन बेटियों पर।
सच बात तो ये है कि ये सभी लड़कियां छोटे जगहों की हैं- हरियाणा के हिसार या उत्तर- पूर्व के दूरदराज के इलाकों की ही नहीं, बल्कि पहाड़ के छोटे- छोटे गांवों की लड़कियों को बाक्सिंग के दस्तानों के साथ रिंग में देखना वाकई एक अलग अनुभव है। ये वास्तव में ऐसा खेल है, जिसे शहरों की बजाय छोटे स्थानों और ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़कियों ने ज्यादा अपनाया है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय खिलाड़ी उन खेलों में पदक ला रहे हैं जो ग्लैमरस स्पर्धाएं नहीं कहलातीं हैं। लेकिन उनके इस पदक का सम्मान तो तब होगा जब खेलों के समाप्ति के बाद हम उनकी इन उपलब्धियों को बिसरा न दें। बल्कि आगे होने वाले खेलों की बेहतर तैयारी करें। उन खेल प्रतिभाओं को आगे लाने के बारे में सोचें, उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निखरने का मौका देना चाहिए। यही वह सुनहरा समय है जब हम अपने खिलाडिय़ों और खेलों को बेहतर सुविधा और प्रशिक्षण दे सकते हैं। यदि यह काम ईमानदारी से किया जाए तो अगले दशक में भारत खेलों के मामले में नंबर एक पर होगा यह दावे के साथ कहा जा सकता है।
उपलब्धियों की इस चकाचौंध में इन खेलों की आड़ में हुए करोड़ों के भ्रष्टाचार को महज इसलिए नहीं भूल जाना चाहिए कि भारतीय खिलाडिय़ों ने बड़ी मात्रा में स्वर्ण पदक दिलाए हैं। भ्रष्टाचारियों को सजा मिले यह भी जरुरी है। ताकि ऐसे बदनुमा दाग से देश का सिर फिर कभी झुकने न पाए। यह दाग तभी धुल पाएगा जब इस सबसे बड़े भ्रष्टाचार की उच्च स्तरीय जांच हो और दोषियों को सजा मिले। तभी सच्चे अर्थों में हमारी जीत होगी।



सरगुजा के रामगढ़ पर्वत में राम वनवास

सरगुजा के रामगढ़ पर्वत में राम वनवास
- प्रो. उत्तम चंद गोयल

राम ने अपने वनवास काल में सर्वप्रथम सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर अपना निवास किया था। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकांड में शिलाचित्र एवं उसके साथ शब्दों का जो उल्लेख आया है, वे सब इसी स्थान पर चरितार्थ होते हैं।
भारत में राम कथा सभी संप्रदायों एवं भाषाओं में पाई जाती है। जैन साहित्य के बैसठ पुरुषों एवं तीर्थकरों के समान ही राम का नाम अति विख्यात एवं पू्ज्य है। जिस प्रकार संस्कृत साहित्य में आदिकाव्य वाल्मीकि कृत रामायण पूज्य मानी जाती है उसी तरह अपभ्रंश साहित्य में रविषेणाचार्य कृत पद्मचरित है जिसमें राम के जन्म से लेकर उनके लंका से लौटकर राज्याभिषेक तक तथा उसके बाद की घटनाओं का वर्णन है।
सरगुजा का रामगढ़ ही वास्तविक रामगिरि
राम ने अपने वनवास काल में सर्वप्रथम सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर अपना निवास किया था। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकांड में शिलाचित्र एवं उसके साथ शब्दों का जो उल्लेख आया है वे सब इसी स्थान पर चरितार्थ होते हैं। रविषेणाचार्य का पद्मचरित, विश्वकवि कालिदास का मेघदूत, भगवान महावीर की परंपरा के आचार्य उग्रादित्याचार्य का कल्याणकारक, मुनि कान्तिसागर का खंडहरों का वैभव, पं. नाथूराम प्रेमी का जैन साहित्य एवं इतिहास, श्री वामनराव कृष्ण परांजये का मेघदूत का नवा प्रकाश आदि ग्रंथों में रामगिरि की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है वे सब सरगुजा के रामगढ़ को ही वास्तविक रामगिरि सिद्ध करते हैं।
छत्तीसगढ़ के उत्तरी अंचल में सरगुजा जिले का सर्वाधिक चर्चित स्थल रामगढ़ अंबिकापुर से लगभग 50 किमी तथा लखनपुरी से 22 किमी दूर बिलासपुर मार्ग में उदयपुर ग्राम के निकट सुंदर मनोहारी वनों एवं सुरम्य पहाडिय़ों से घिरा हुआ है।
आदिकाल से रामगढ़ जैन धर्म एवं संस्कृति का एक प्राचीन, प्रमुख एवं विख्यात केंद्र रहा है। प्राचीन काल से जैन मुनियों को नगर ग्रामादि बहुजन संकीर्ण स्थानों से पृथक पर्वत व वन की शून्य गुफाओं व कोटरों में निवास करने का विधान किया गया है। ये ही जैन परंपरा में मान्य अकृत्रिम चैत्यालय हैं। पद्मचरित के एक उद्धरण के अनुसार भी पर्वत पर मंदिर बनाये जाने की सूचना मिलती है। रामगढ़ पर्वत पर तपस्या कर जैन मुनियों ने जिस तरह जोगीमारा गुफा की प्रधान चौखट पर वैराग्य के प्रतीक जैन चित्र अंकित किये हैं वे चित्रकला के इतिहास एवं अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन चित्रों में आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक रहस्यों की अभिव्यंजना की गई है। इन भित्तिचित्रों से ज्ञात होता है कि ई. सन् से कई शताब्दियों पूर्व गुफाओं में भित्ति पर चिंत्राकन की प्रथा जैनों में प्रचलित थी। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि उस समय सरगुजा (संपूर्ण छत्तीसगढ़) क्षेत्र में जैन धर्म विस्तार के साथ फैला हुआ था जिसका प्राचीन प्रमाण जोगीमारा गुफा का जैन भित्ति चित्र हैं। प्राचीन भारतीय चित्रकला में रंगों और रेखाओं कीदृष्टि से यह अपूर्व है। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन जैन चित्र हैं। मुनि कान्तिसागर ने अपनी कृति खोज की पगडंडियां में इन चित्रों को प्रकाशित किया है तथा आत्म वक्तव्य में लिखा है- जैनाश्रित चित्रकला पुरातन चित्र जो प्रकट किया जा रहा है, वह मुझे मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के पुरातत्व साधक श्री लोचन प्रसाद पांडेय द्वारा प्राप्त हुआ है। श्री उग्रादित्याचार्य ने अपना कल्याण कारण ग्रंथ भी इसी रामगिरि पर रचा था। इसमें रामगिरि के जो विशेषण दिए गए हैं, गुहा मंदिर चैत्यालयों की जो बात कही गई है वह भी इस रामगिरि के विषय में ठीक जान पड़ती है। कुलभूषण और वैशभूषण मुनि का निर्वाण स्थल भी यही रामगिरि है। उस काल में यहां जैन मुनियों को दीक्षा दी जाती थी।
जैन मुनियों का पावन साधना स्थल रामगढ़ की गुफाएं
रामगढ़ की गुफाएं आध्यात्मिक साधना के केंद्र हैं, उन्नत शिखर पर अग्रसर होने वाली भव्यात्माएं यहां दर्शनार्थ आकर अनुपम शांति का अनुभव कर आत्मतत्व के रहस्य तक पहुंचने का प्रयास करती थीं। प्रकृति की गोद में दिगम्बर जैन मुनियों के लिए स्वस्थ सौंदर्य का बोध ऐसे ही स्थानों में हो सकता है। जैनों के सांस्कृतिक इतिहास में हमें ज्ञात होता है कि पूर्व काल में जैन मुनि अरण्य में ही निवास करते थे, केवल भिक्षार्थ- गोचरी के लिए ही नगर में पदार्पण करते थे। ऐसी स्थिति में लोग व्याख्यान आदि औपदेशिक वाणी का अमृत पान करने के लिए वनों में जाया करते थे। जिन मंदिर की आत्मा- प्रतिमाएं भी नगर के बाहर गुफाओं में अवस्थिति रहा करती थीं।
वनवास काल में श्री राम का सरगुजा प्रवेश
डॉ. कुन्तल गोयल के मतानुसार राम प्रयाग के बाद सतना, शहडोल होते हुए सरगुजा आए थे और यहां स्थित चित्रकूट (रामगढ़) में जाकर निवास किया था।
पद्मपुराण के अनुसार उस समय यहां राजा सुरप्रभ का राज्य था तथा उसकी राजधानी वंशस्थल नगर थी। नगर के निकट ही उन्हें वंशगिरि पर्वत ऐसा दिखाई दिया मानों धरती को चीरकर निकला हो। संध्याकाल का समय था। राजा और प्रजा तीव्र गति से नगर का त्याग करते हुए किसी अन्य स्थान की ओर जा रहे थे। राम ने आश्चर्य से यह सब देखा और राहगीरों से इसका कारण पूछा। उन्हें बताया गया कि रात्रि में पर्वत शिखर से ऐसी भयंकर ध्वनि आती है जो उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी नहीं सुनी। इससे सारी धरती कंपायमान हो जाती है, दसों दिशाओं में भयंकर आवाज गूंजने लगती है, वृक्ष जड़ से उखड़ जाते हैं, लोगों के कान एक असहनीय पीड़ा से ग्रस्त हो जाते हैं मानों कोई इन पर लोहे के घन से कठोर प्रहार कर रहा हो। लगता है कोई दुष्ट देव हमारा संहार करने के लिए आतुर है। इसलिए संध्याकाल में हम हमेशा इस भावी विपत्ति की भयानकता का अनुमान कर उस स्थान को त्यागते हुए पांच कोस दूर चले जाते हैं और पुन: प्रात: काल वापस आ जाते हैं। राहगीरों से यह सब विवरण सुनकर सीता जी बहुत घबरा गईं और उन्होंने प्रजाजनों के साथ ही सुरक्षित स्थान में चलने की सलाह दी, परंतु राम ने उनका यह आग्रह स्वीकार नहीं किया और अंतत: सभी वंशगिरि पर्वत पर पहुंच गये।
श्री राम द्वारा ध्यानस्थ जैन मुनियों का उपसर्ग निवारण
वंशगिरि पर्वत पर आकर श्री राम ने देखा समुद्र के समान गंभीर, पर्वत के समान स्थिर, परम सुंदर, महासंयमी दो तेजस्विनी जैन मुनि वेशभूषण और कुलभूषण कायोत्सर्ग आसन धारण कर ध्यानावस्था में लीन हैं। राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने उन्हें भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उनके समीप बैठ गये। तभी अचानक एक असुर के आगमन से भयंकर ध्वनि गूंज उठी। जीप लपलपाते, काजल के समान भयंकर काले सर्प एवं अनेक वर्ण के बिच्छू दोनों मुनियों के शरीर से लिपट गये। यह भयावह दृश्य देखकर सीता भय से कांप उठी और पति से लिपट गई। दोनों भाइयों ने सीता को धैर्य बंधाया और फिर वे मुनियों के समीप जाकर तथा उनके शरीर से सर्प बिच्छू हटाकर उनकी भक्ति भाव से वंदना की। मायावी असुर के उपद्रवों का फिर भी अंत नहीं हुआ। उनके आसपास भयंकर ज्वाला, हड्डियों के आभूषण पहने डाकिनियों का वीभत्स शरीर- उनके हाथों में खड्ग और त्रिशूल, लौह समान डरावने लोचन, डसते ओंठ, कुटिल भौहें, मस्तक भुजा और जंघाओं से होती हुई अग्निवर्षा, असहनीय दुर्गन्धयुक्त रक्त बूंदों की वृष्टि, कठोर गर्जना और उनका डरावना पिशाच नृत्य इस तरह के नाना प्रकार के अति भयंकर दृश्य वहां दृष्टिगोचर होने लगे। इन सबसे पर्वत की शिलाएं कांप उठीं। भूकंप जैसा डरावना भाव अहसास होने लगा। इस अकल्पनीय दृश्यावली ने सीता को झकझोर कर भयभीत कर दिया। परंतु राम ने उन्हें मुनि चरणों की शरण लेने का परामर्श दिया और धैर्य धारण करने के लिए कहा।
इसके बाद राम ने भाई लक्ष्मण के साथ धनुष धारण कर मेघ के समान गर्जना कर राक्षसों को ललकारा। उनके धनुष चढ़ाने मात्र से वज्रपात के समान भयंकर शब्द गर्जना हुई, जिससे भयभीत होकर अग्निप्रभ नामक वह राक्षस राम और लक्ष्मण को पहचान कर तथा अपने प्राणों की रक्षा करते हुए वहां से तेजी से पलायन कर गया। श्री राम ने मुनियों का जैसे ही उपसर्ग दूर किया, वेशभूषण और कुलभूषण मुनि को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे केवली कहलाये। राम- सीता और लक्ष्मण को इससे अपूर्व प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनकी विधिवत पूजा की।
वंशगिरि ही रामगिरि बना
वंशस्थल नगर के राजा सुरप्रभ को जब मुनियों के उपसर्ग को दूर करने का सुखद समाचार मिला तो वे भक्ति भाव से जय जयकार करते हुए श्री राम के पास गये और उनसे अपने महल में विश्राम करने का अनुनय विनय किया। परंतु राम ने वनवास काल में इसे ग्राह्य न कर वंशगिरि पर्वत पर ही विराजने का निर्णय लिया। उनके आवास के लिए पर्वत पर सुसज्जित मंडप आदि की व्यवस्था की गई। दुष्ट असुरों के पलायन कर जाने से वातावरण में सर्वत्र शांति छा गयी और आनंद की वर्षा होने लगी। इस पावन बेला में कहीं मंगल गीत गाये जा रहे थे, कहीं उत्साह से मन मुग्ध नृत्यों का आयोजन हो रहा था और कहीं वाद्ययंत्रों का सुरीला संगीत गूंज रहा था। श्री राम ने इस पर्वत पर जिनेश्वर देव के अनेक अद्भुत चैत्यालय बनवाये। रामायण काल का यह वंशगिरि पर्वत जहां श्री राम ने परम सुंदर जिन मंदिरों का निर्माण करा कर शोभायमान किया, रामगिरि के नाम से विख्यात हुआ, जो वर्तमान में सरगुजा का सबसे प्राचीन एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं धार्मिक स्थल है। कालांतर में जब यह क्षेत्र सम्राट चंद्रगुप्त के राज्यान्तर्गत आया, तब यहां एक गढ़ (किला) का निर्माण किया गया। तब से रामगिरि को रामगढ़ के नाम से भी संबोधित किया जाना लगा और अब तक यही नाम इस अंचल में प्रचलित है।
सरगुजा के रामगढ़ एवं अन्य स्थानों के संबंध में पं. कैलास चंद्र शास्त्री का यह कथन उल्लेखनीय है- भारतवर्ष का शायद ही कोई कोना ऐसा हो, जहां जैन पुरातत्व के अवशेष न पाये जाते हों। जहां आज जैनों का निवास नहीं है, वहां भी जैन कला के सुंदर नमूने पाये जाते हैं।
(छत्तीसगढ़ अस्मिता प्रतिष्ठान रायपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक छत्तीसगढ़ में राम, संपादक- डॉ. मन्नुरलाल यदु से )

प्रेरक

मैं भी फर्जी पिकासो बन सकता हूँ
चित्रकार की ख्याति जब चरम पर पहुंच जाती है तो उसकी कला के जाली प्रतिरूप भी बाजार में मिलने लगते हैं जिन्हें वास्तविक चित्रकार द्वारा बनाया गया कहकर ऊंचे दामों पर बेचा जाता है।
एक जरूरतमंद चित्रकार ने पिकासो द्वारा तथाकथित बनाया गया चित्र कहीं से जुटा लिया और उसे सत्यापन के लिए पिकासो को दिखाया ताकि वह उसे बाजार में बेचकर पैसे बना सके।
पिकासो ने उस चित्र को देखकर कहा- 'फर्जी है।'
बेचारे चित्रकार ने कुछ समय बाद पिकासो द्वारा तथाकथित बनाये गए दो और चित्र कहीं से प्राप्त कर लिए। उन चित्रों को देखकर भी पिकासो ने उनके फर्जी होने की बात कही।
वह चित्रकार अब आशंकित हो उठा और बोला- 'ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने अपनी आंखों से आपको इस दूसरे चित्र को बनाते हुए देखा है!'
पिकासो ने कहा- 'तो क्या! मैं भी दूसरों की ही तरह फर्जी पिकासो बन सकता हूं।'
(www.hindizen.com से )
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जहां आज भी गूंज रहे हैं इतिहास और संस्कृति के गौरवशाली मल्हार

जहां आज भी गूंज रहे हैं इतिहास और संस्कृति के गौरवशाली मल्हार
-सुजाता साहा
देवनगरी मल्हार में प्राचीनता के अनुरूप दर्शनीय ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों का बाहुल्य है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले से 32 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण- पश्चिम में स्थित है मल्हार नगर। मल्हार का शायद ही ऐसा कोई पुराना घर या मकान हो, जिसकी दरो- दीवार पर पत्थर और लकड़ी की देव प्रतिमाएं उत्कीर्ण न हों। यहां के कण- कण में ताम्र एवं पाषाण काल से लेकर मध्यकाल तक गौरवशाली इतिहास और संस्कृति बिखरी पड़ी है। पातालेश्वर महादेव और डिडिनेश्वरी देवी के कारण आस्था का केंद्र भी है मल्हार नगर।
भगवान शिव ने मल्लासुर नामक असुर का संहार किया तो उन्हें मल्लारि की संज्ञा मिली। इसी मल्लारि नाम से बसे इस शहर का नाम कालांतर में मल्लाल और अब मल्हार हो गया है। मल्हार में मिले 1164 के एक पुराने कलचुरि शिला लेख में इसके मल्लालपत्तन होने की पुष्टि भी होती है।
देवनगरी मल्हार में प्राचीनता के अनुरूप दर्शनीय ऐतिहासिक व धार्मिक स्थलों का बाहुल्य है। पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन कार्यों से मल्हार में स्थित संस्कृति व इतिहास की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इतिहासकार के अनुसार कलचुरी शासकों से पहले इस क्षेत्र में कई अभिलेखों में शरभपुर राजवंश के शासन का उल्लेख मिलता है। इसलिए मल्हार को प्राचीन राजधानी शरभपुर मानते हैं।
मल्हार में इस वर्ष से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण उत्खनन शाखा- नागपुर उत्खनन का कार्य करा रही है। यह काम तीन साल तक चलेगा। मल्हार के दक्षिण भाग में चल रहे उत्खनन में पुरावशेष और भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं, जो 6वीं शताब्दी के बताए जाते हैं। प्रारंभिक खुदाई में जो तस्वीर उभरी है उससे पता चलता है कि मल्हार में कल्चुरियों के समय किस तरह के मकान बने थे, जहां उस काल में बनीं नालियां, कुएं, बर्तन, औजार आदि की झलक दिखाई देती है।
मल्हार में खुदाई के दौरान करीब 25 सौ साल पहले के अवशेष मिल रहे हैं। ऊपरी सतह की खुदाई में चतुर्थ काल में विशेष प्रकार के मिट्टी के पात्र जिनमें ठप्पों से बना अलंकरण व स्वर्ण लेप व कुछ में अभ्रक का लेप है प्राप्त हुई हैं।। इसके अलावा पत्थर व ईंटों से बनी दीवार, चबूतरे, नाली, लौह निर्मित दैनिक उपयोग की वस्तुएं जैसे कीलें, तेलकुप्पी, हंसिया, बरछी, भाला, तीर छुरी, कीमती पत्थरों के मनके, मिट्टी के मनके, मृदभांड के टुकड़े, पक्की मिट्टी के बने गोलादार आदि शामिल है।
1975 से 1978 के बीच मल्हार गांव परिक्षेत्र में सबसे पहले उत्खनन का काम सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति व पुरातत्व विभाग के प्रमुख प्राध्यापक केडी बाजपेयी द्वारा कराया गया था। इसके बाद पुरातत्व विभाग की ओर से यहां फिर खुदाई नहीं हुई थी।
विकसित नगर था मल्हार
मल्हार में दसवीं- ग्यारहवीं सदी से लेकर शरभपुरी और कलचुरी राजाओं के समय की निर्मित प्रतिमाएं और मंदिर हैं। लगभग उस काल के प्रचलित सभी धर्मों से संबंधित मूर्तियां एवं सामग्रियों का मिलना यहां के शासकों की धार्मिक सहिष्णुता एवं सभी धर्मों के प्रति आदर समभाव को भी प्रमाणित करती है।
मल्हार नगर उत्तर भारत से दक्षिण- पूर्व की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर होने के कारण धीरे- धीरे विकसित हुआ। तब यहां शैव, वैष्णव व जैन धर्मावलंबियों के मंदिरों, मठों व मूर्तियों का निर्माण बड़े स्तर पर हुआ। मल्हार में चतुर्भुज विष्णु की एक अद्वितीय प्रतिलिपी मिली है। उस पर मौर्यकालीन ब्राम्हीलीपि लेख अंकित है।
सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य विकसित मल्हार की मूर्तिकला में गुप्तयुगीन विशेषताएं स्पष्ट नजर आती हैं। मल्हार में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। बुध्द, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज्र आदि अनेक बौध्द देवों की प्रतिमाएं व मंदिर मल्हार में प्राप्त हुई हंै। छठवीं सदी के पश्चात यहां तांत्रिक बौध्द धर्म का भी विकास हुआ। जैन तीर्थंकरों, यक्ष- यक्षिणियों, विशेषत: अंबिका की प्रतिमांए भी यहां मिली हैं ।
मल्हार में पहले और अब तक हुई खुदाई से इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैं कि यह क्षेत्र मौर्य काल से लेकर कल्चुरी काल तक एक उन्नत नगर के रूप में विकसित था। क्षेत्र ऐतिहासिक काल से लेकर कलचुरी काल तक विविध राजवंशों के आधीन था, जिनमें सातवान, शरभपुरीय, सोमवंश, पांडुवंश व कल्चुरी वंश शामिल हैं।
पतालेश्वर मंदिर (केदारेश्वर मंदिर)
दसवीं से तेरहवीं सदी तक के समय में मल्हार में विशेष रूप से शिव- मंदिरों का निर्माण हुआ। इनमें कलचुरी संवत् 919 (1167 ईसवीं) में निमर्ति केदारेश्वर मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस मंदिर का निर्माण सोमराज नामक एक ब्राम्हण द्वारा कराया गया। काले चमकीले पत्थर की गौमुखी आकृति व जलहरी में चढ़ाया गया जल इसके आंतरिक छिद्रों से नीचे जाता रहता है। पौराणिक मान्यता है कि शिवलिंग पर चढ़ाया गया यह जल पाताल लोक तक पहुंचता है, इसलिए इसे पतालेश्वर महादेव कहा गया है। मंदिर में गंगा, यमुना नदी की प्रतिमा के साथ ही शिव, पार्वती, गणेश, नंदी आदि के बेजोड़ अंकन हंै।
धूर्जटि महादेव का अन्य मंदिर कलचुरि नरेश पृृथ्वीदेव द्वितीय के शासन- काल में उसके सामंत ब्रम्हदेव द्वारा कलचुरी संवत् 915 (1163 ईसवी) में बनवाया गया। इस काल में शिव, गणेश, कार्तिकेय, विष्णु, लक्ष्मी, सूर्य तथा दुर्गा की प्रतिमाएं विशेष रूप से निर्मित की गयीं। कलचुरी शासकों, उनकी रानियों आचार्यो तथा गणमान्य दाताओं की प्रतिमाओं का निर्माण उल्लेखनीय है। मल्हार में ये प्रतिमाएं प्राय: काले ग्रेनाइट पत्थर या लाल बलुए पत्थर की बनायी गयीं हैं। स्थानीय सफेद पत्थर और हलके- पीले रंग के चूना- पत्थर का प्रयोग भी मूर्ति- निर्माण हेतु किया गया।
डिडिनेश्वरी मंदिर
कलचुरी काल में काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित डिडिनेश्वरी देवी की प्रतिमा अंचल में सिद्धपीठ देवी के रूप में पूजी जाती है। प्रत्येक चैत्र व क्वांर नवरात्रि के दौरान यहां हजारों की संख्या में मनोकामना दीप जलते हैं। दूर- दराज से भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है और लोग मां के दर्शन कर जीवन धन्य करते हैं।
सांस्कृतिक विरासत का संग्रहालय
मल्हार में पुरातत्व विभाग का एक संग्रहालय है, जिसमें उत्खनन से प्राप्त बहुत सी सामग्री संग्रहित की गई है। इसमें शिव, गणेश, विष्णु के विभिन्न रूप के अलावा दुर्गा, लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती, गंगा- यमुना की नदी, गरुड़, नृसिंह, हनुमानजी, सूर्य, नाग नागिन के जोड़े की आकर्षक प्रतिमाएं भी यहां आने वाले पर्यटकों को मल्हार के इतिहास और सांस्कृतिक विरासत से रूबरू कराती हैं।
यहां पहुंचने एवं ठहरने के लिए रायपुर (148 कि. मी.) सबसे निकटतम हवाई अड्डा है जो मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चेन्नई से जुड़ा हुआ है। हावड़ा- मुंबई रेल मार्ग पर बिलासपुर (32 कि. मी) सबसे समीप रेल्वे स्टेशन है। बिलासपुर शहर से बस द्वारा भी मस्तूरी होकर मल्हार तक सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है। यहां से निजी वाहन भी उपलब्ध रहते है। मल्हार में सरकारी विश्राम गृह के अलावा आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनेक होटल ठहरने के लिये उपलब्ध हैं।

औरत को मारने के बहाने

औरत को मारने के बहाने
- पंकज चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुई जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है।
बात उन दिनों की है जब संसद के भीतर संसद व अन्य विधायी संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक- तिहाई आरक्षण की मांग पर हंगामा हो रहा था और मुदित मीडिया पूरे देश में अंर्तराष्ट्रीय महिला वर्ष के जश्नों की झलकियां दिखा रहा था। सब कुछ इतना चमकीला और चकाचौंध भरा था कि भारत में नारी- शक्ति पर किसी को भी गुमान हो जाता। ठीक उसी दिन में झारखंड के जसीडीह जिले के सिमडेगा थाना में गीता नामक एक महिला को भीड़ ने घेर कर मार डाला। भीड़ में केवल पुरुष ही नहीं थे, बड़ी संख्या में महिलाएं भी थीं।
महिला की नृशंस हत्या का कारण था गांव का एक बीमार बच्चा। गांव वाले गीता के पास गए कि वह बच्चे को ठीक कर दे, उसने अनभिज्ञता जाहिर की और बस लोगों ने उसे मार दिया। उस पर डायन होने का आरोप था। एक तरफ संसद में आरक्षण के रथ पर सवार हो कर पहुंचने की लालसा लिए नाचती-कूदती नारे लगाती महिलांए दूसरी तरफ 'गीताएं'। महिला सशक्तीकरण की तकरीर करने वालों को शायद यह पता भी नहीं है कि पूरे देश के कोई आधा दर्जन राज्यों में ऐसे ही हर साल सैंकड़ों औरतों को बर्बर तरीके से मारा जा रहा है। वह भी 'डायन' के अंधविश्वास की आड़ में।
मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुई जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य शासन ने एक जांच रिर्पोट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि अंधविश्वास और अशिक्षा के कारण टोनही या डायन करार दे कर किस तरह निरीह महिलाओं की आदिकालीन लोमहर्षक ढंग से हत्या कर दी जाती है। औरतों को ना केवल जिंदा जलाया जाता है, बल्कि उन्हें गांव में नंगा घुमाना, बाल काट देना, गांव से बाहर निकाल देना जैसे निर्मम कृत्य भी डायन या टोनही के नाम पर होते रहते हैं। इन शर्मनाक घटनाओं का सर्वाधिक अफसोसजनक पहलू यह है कि इन महिला प्रताडऩाओं के पीछे ना सिर्फ महिला की प्रेरणा होती है, बल्कि वे इन कुकर्मों में बढ़- चढ़ कर पुरूषों का साथ भी देती हैं।
मध्यप्रदेश से अलग हुए आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ राज्य में बैगा, गुनियाओं और ओझाओं के झांसे में आकर पिछले तीन वर्षों में तीन दर्जन से अधिक औरतों को मार डाला गया है। कोई एक दर्जन मामलों में आदमियों को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी है। मरने वालों में बूढ़े लोगों की संख्या ज्यादा है। किसी को जिंदा जलाया गया तो किसी को जीवित ही दफना दिया गया। किसी का सिर धड़ से अलग कर दिया गया तो किसी की आंखें निकाल ली गईं। ये आंकड़े मात्र वही हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची। खुद पुलिस भी मानती है कि दर्ज नहीं हो पाए मामलों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है। प्रशासन के रिकार्ड मुताबिक बीते तीन सालों के दौरान सरगुजा में आठ, बिलासपुर में सात, रायपुर में पांच, रायगढ़ में चार, राजनांदगांव व दंतेवाड़ा में दो- दो और बस्तर में एक ऐसा मामला कायम हुआ है। यहां जानना जरूरी है कि बस्तर, दंतेवाड़ा के बड़े हिस्से में पुलिस या नागरिक प्रशासन अभी तक नहीं पहुंच पाया है। यही वे क्षेत्र हैं जहां अंधविश्वास का कुहासा सर्वाधिक है। किसी गांव में कोई बीमारी फैले या मवेशी मारे जाएं या फिर किसी प्राकृतिक विपदा की मार हो, आदिवासी इलाकों में इसे 'टोनही' का असर मान लिया जाता है। भ्रांति है कि टोनही के बस में बुरी आत्माएं होती हैं, इसी के बूते पर वह गांवों में बुरा कर देती है । ग्रामीणों में ऐसी धारणाएं फैलाने का काम नीम- हकीम, बैगा या गुनिया करते हैं। छत्तीसगढ़ हो या निमाड़, या फिर झारखंड व उड़ीसा सभी जगह आदिवासियों की अंधश्रद्धा इन झाड़- फूंक वालों में होती है। इन लोगों ने अफवाह उड़ा रखी है कि 'टोनही' आधी रात को निर्वस्त्र हो कर श्मशान जाती है और वहीं तंत्र- मंत्र के जरिए बुरी आत्माओं को अपना गुलाम बना लेती है। उनका मानना है कि देवी अवतरण के पांच दिनों- होली, हरेली, दीवाली और चैत्र व शारदीय नवरात्रि के मौके पर 'टोनही' सिद्धि प्राप्त करती हंै। गुनियाओं की मान्यता के प्रति इस इलाके में इतनी अगाध श्रद्धा है कि 'देवी अवतरण' की रातों में लोग घर से बाहर निकलना तो दूर, झांकते तक नहीं हैं। गुनियाओं ने लोगों के दिमाग में भर रखा है कि टोनही जिसका बुरा करना चाहती है, उसके घर के आस- पास को वह अभिमंत्रित कर बालों के गुच्छे, तेल, सिंदूर, काली कंघी या हड्डी रख देती है।
अधिकांश आदिवासी गांवों तक सरकारी स्वास्थ्य महकमा पहुंच नहीं पाया है। जहां कहीं अस्पताल खुले भी हैं तो कर्मचारी इन पुरातनपंथी वन पुत्रों में अपने प्रति विश्वास नहीं उपजा पाए हैं। तभी मवेशी मरे या कोई नुकसान हो, गुनिया हर मर्ज की दवा होता है। उधर गुनिया के दांव- पेंच जब नहीं चलते हैं तो वह अपनी साख बचाने कि लिए किसी महिला को टोनही घोषित कर देता है। गुनिया को शराब, मुर्गे, बकरी की भेंट मिलती है बदले में किसी औरत को पैशाचिक कुकृत्य सहने पड़ते हैं। ऐसी महिला के पूरे कपड़े उतार कर गांव की गलियों में घुमाया जाता है, जहां चारों तरफ से पत्थर बरसते हैं। ऐसे में हंसिए से आंख भी फोड़ दी जाती है।
मप्र के झाबुआ- निमाड़ अंचल में भी महिलाओं को इसी तरह मारा जाता है; हां, नाम जरूर बदल जाता है- डाकन। गांव की किसी औरत के शरीर में 'माता' प्रविष्ट हो जाती है। यही 'माता' किसी दूसरी 'माता' को डायन घोषित कर देती है। और फिर वहीं अमानवीय यंत्रणाएं शुरू हो जाती हैं। अकेले झाबुआ जिले में हर साल 10 से 15 'डाकनों' की नृशंस हत्या होती हैं। इसी तरह के अंधविश्वास और त्रासदी से झारखंड, उड़ीसा, बिहार, बंगाल और असम के जनजातीय इलाके भी ग्रस्त हैं। रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटिलमेंट केंद्र नामक गैरसरकारी संगठन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दे कर डायन- कुप्रथा पर रोक लगाने की मांग की गई थी, जिसे गत 12 मार्च 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि इस याचिका को हाईकोर्ट में लगाना चाहिए। संस्था ने आंकड़े पेश किए कि गत 15 सालों से देश के विभिन्न राज्यों में 2500 से अधिक औरतों को डायन करार दे कर मारा जा चुका है। ठेठ आदिम परंपराओं में जी रहे आदिवासियों के इस दृढ़ अंध विश्वास का फायदा इलाके के असरदार लोग बड़ी चालाकी से उठाते हैं। अपने विरोधी अथवा विधवा- बूढ़ी औरतों की जमीन हड़पने के लिए ये प्रपंच किए जाते हैं। थोड़े से पैसे या शराब की बदौलत गुनिया बिक जाता है और किसी भी महिला को टोनही घोषित कर देता है। अब जिस घर की औरत को 'दुष्टात्मा' बता दिया गया हो या निर्वस्त्र कर सरेआम घुमाया गया हो, उसे गांव छोड़ कर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। कई मौकों पर ऐसे परिवार की बहू- बेटियों के साथ गुनिया या असरदार लोग कुकृत्य करने से बाज नहीं आते हैं। यही नहीं अमानवीय संत्रास से बचने के लिए भी लोग ओझा को घूस देते हैं।
मप्र शासन की जांच रपट में कई रोंगटे खड़े कर देने वाले हादसों का जिक्र है। लेकिन अब अधिकारी सांसत में हैं कि अनपढ़ आदिवासियों को इन कुप्रथाओं से बचाया कैसे जाए। एक तरफ आदिवासियों के लिए गुनिया- ओझा की बात पत्थर की लकीर होती है, तो दूसरी ओर इन भोले- भाले लोगों के वोटों के ठेकेदार 'परंपराओं' में सरकारी दखल पर भृकुटियां तान कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। गुनिया- ओझा का कोप भाजन होने से अशिक्षित आदिवासी ही नहीं, पढ़े- लिखे समाज सुधारक व धर्म प्रचारक भी डरते हैं। तभी इन अंचलों में सामुदायिक स्वास्थ्य, शिक्षा या धर्म के क्षेत्र में काम कर रहे लोग भी इन कुप्रथाओं पर कभी कुछ खुलकर नहीं बोलते कारण- गुनिया की नाराजगी मोल ले कर किसी का भी गांव में घुस पाना नामुमकिन ही है। कहने को झारखंड सरकार ने इस कुप्रथा के खिलाफ एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनवाई थी, लेकिन गुनिया- ओझा के डर से उसका सही तरीके से प्रदर्शन भी नहीं हुआ। मिथ्या धारणाओं से ओत- प्रोत जनजातीय लोगों में औरत के प्रति दोयम नजरिया वास्तव में उनकी समृद्ध परंपराओं का हिस्सा नहीं है। यह तो हाल के कुछ वर्षों में उनके बीच बढ़ रहे बाहरी लोगों के दखल और भौतिक सुखों की चाहत से उपजे हीन संस्कारों की हवस मात्र है।
पता - नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 5 नेहरू भवन वसंत कुंज
इंस्टीट्यूशनल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110070
फोन. 011-26707758 मोबाइल 09891928376
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विज्ञान

चमेली की सुंगध का नशा
चैन की नींद के लिए गोली से लेकर योग तक न जाने कितने जतन किए जाते हैं, लेकिन अब चमेली की सुगंध लीजिए और चैन की नींद सो जाइए।
वैज्ञानिकों की मानें तो अब अनिद्रा के शिकार लोगों को नींद की गोलियां खाने की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि चमेली के फूल की सुगंध इसका आसान, सुरक्षित और कुदरती उपाय हो सकता है। जर्मन वैज्ञानिकों की ताजा शोध रिपोर्ट के मुताबिक पूरी सांस भरकर ली गई चमेली की सुगंध नींद आने में मददगार होती है। इससे नींद की गोलियों, खासकर वेलियम के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है।
ऑनलाइन पत्रिका बायोलॉजिकल केमिस्ट्री में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार चमेली को सूंघने से दिमाग में होने वाली आण्विक हलचल तनाव को दूर कर सोने के लिए प्रेरित करती है। यही काम वेलियम भी करती है। डूसलडॉर्फ स्थित हाइनरिष हाइने विश्वविद्यालय और रूअर विश्वविद्यालय बोखुम के वैज्ञानिकों की इस साझा खोज को पेटेंट भी मिल गया है।
प्रो. हेंस हाट की अगुवाई में सम्पन्न इस अहम शोध के मुताबिक नियमित तौर पर नींद की गोली खाने से न सिर्फ इन पर निर्भरता बढ़ जाती है बल्कि अवसाद, चक्कर आना, तनाव, मांसपेशियां कमजोर होना और सामंजस्य न बिठा पाने जैसी दिक्कतें भी स्वभाव में शुमार हो जाती हैं। यह बात दीगर है कि गोली खाने और चमेली की सुगंध से दिमाग में होने वाली रासायनिक क्रिया एक समान है लेकिन इसके बावजूद कुदरती तरीके से नींद लेने का कोई साइड इफेक्ट नहीं है।
गौरतलब है कि नींद, अवसाद और तनाव के लिए दुनिया भर में आमतौर पर वेलियम और बेंजोडायजापाम की गोलियां ली जाती हैं इसका 20 प्रतिशत इस्तेमाल पश्चिमी देशों में होता है। शोध के नतीजों तक पहुंचने से पहले चूहों और फिर मनुष्यों पर लंबे समय तक तमाम तरह की खुशबूओं के परीक्षण किए गए। प्रो. हाट बताते हैं कि चमेली की खुशबू सांस के जरिए फेफड़ों तक जाती है और फिर खून में मिलकर दिमाग में नींद के लिए जिम्मेदार तंत्रिकाओं को सक्रिय कर देती है। उनके मुताबिक शोध के नतीजों को तनाव दूर करने के लिए आजकल प्रचलित अरोमा थेरेपी के वैज्ञानिक प्रभावों की कसौटी पर भी कसा जा सकता है।

120 साल से घर की हर चीज सलामत!


 120 साल से घर की हर चीज सलामत!
हम सबको अपनी पुरानी चीजों से प्रेम होता है और हम उन्हें अपने जीते जी संजो कर रखना चाहते हैं। लेकिन हमारी उन प्रिय वस्तुओं को हमारे जाने के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चे भी संजो कर रखें ऐसा बहुत ही कम होता है, लेकिन आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इंग्लैंड के ससेक्स में एक ऐसा घर हैं जहां 120 वर्ष पुरानी जीचें आज भी न सिर्फ संजो कर रखी गईं हैं बल्कि उनका इस्तेमाल भी होता है।
साउथ ईस्ट इंग्लैंड की ऐतिहासिक जगह ससेक्स में बने हेनकॉक्स नामक एक घर में पिछले 120 साल से एक भी चीज नहीं फेंकी गई है। हेनकॉक्स में रह रहीं 50 वर्षीय शेरलॉट मूर कहती हैं, 'इस घर में हमारी पांच पीढिय़ों ने अपनी जिंदगी बिताई है और हर पीढ़ी ने यहां के यूनीक कलेक्शन में अपना योगदान दिया है।' अपने तीन बेटों जॉर्ज, सैम और जेक के साथ यहां रह रही मूर कहती हैं, 'आज से 20 साल पहले जब लंदन से अपनी नौकरी छोड़कर आई थी, तो मेरी मां ने मुझे इस घर की जिम्मेदारी सौंपी थी। हालांकि अब यह घर बहुत ही पुराना और आउटडेटेड हो चुका है और हमारे पास यह ऑप्शन भी है कि हम इसे नए सिरे से मॉडर्न तरीके से बनाएं, लेकिन हम अपने बुजुर्गो की इस निशानी को ऐसे ही संजोए रखना चाहते हैं। यहां तक कि मेरे बच्चों को भी इसमें रहना बहुत पसंद है। हम अपने बुजुर्गो के फर्नीचर का इस्तेमाल करते हैं, उनकी किताबें पढ़ते हैं, उनकी क्रॉकरी का इस्तेमाल करते हैं और यहां तक कि हम उन्हीं की बेडशीट्स भी बिछाते हैं।'
पर्दे भी सदी पुराने
इस घर में पर्दे भी उसी समय के लगे हुए हैं और यहां तक कि अब तक रसोई की कबर्ड पर तीन डिजिट वाले कुछ टेलीफोन नंबर्स लिखे हुए हैं। इनमें कुछ नंबर्स तो बेकर और नर्स के हैं।
यह घर मूर की परदादी मिलीसेंट को अनाथ होने के बाद 1880 के दशक में कानूनी रूप से मिला था, जिसे शादी के बाद भी उन्होंने नहीं छोड़ा। उनके पति डॉक्टर थे और द रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन के प्रेसिडेंट थे। मिलिसेंट का बेटा भी डॉक्टर था। घर के सभी सदस्य पढ़े-लिखे होने के नाते अक्सर डायरी लिखा करते थे, जो आज भी उस घर में मौजूद हैं। उन्हीं खतों से यह भी पता चलता है कि यहां छह नौकर भी हुआ करते थे। घर के फायर प्लेस में लकडिय़ों के अवशेष भी अब तक मौजूद हैं। मूर बताती हैं, 'यह अवशेष मेरे जन्म लेने से भी पहले के हैं।' खास बात यह भी है कि इस घर में रहने वाली हर फैमिली ने अपना एक न एक सदस्य किसी न किसी जंग में खोया है।

हवा में उड़ता जाए,मोरा लाल दुपट्टा मलमल का...

गीत लिखकर बांट देने वाले गीतकार रमेश शास्त्री

- हर मन्दिर सिंह 'हमराज'
हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का...
किसी भी संगीत प्रेमी को यह बताने की जरूरत नहीं कि यह गीत लता मंगेशकर ने फिल्म बरसात के लिए गाया था। अपेक्षाकृत नए सुर, कलम, निर्माता, निर्देशक आदि के संयोग से जो गीत बना, वह सदाबहार बन गया। लेकिन सुनने वाले इस गीत के लेखक रमेश शास्त्री के परिचय के मोहताज ही बने रहे।
ग्राम दीयोर तहसील तलाजा जिला भावनगर (गुजरात) में स्कूल मास्टर यमुनावल्लभ नरभेराम शास्त्री के घर 2 अगस्त 1935 को जन्में डॉ. रमेश यमुनावल्लभ शास्त्री का बचपन दु:खद रहा। पिता की मृत्यु के बाद, भाभी के दुव्र्यवहार के कारण उन्होंने घर छोड़ दिया और 10 वर्ष की आयु में टे्रन द्वारा बनारस आ पहुंचे। यहां उन्होंने संस्कृत की पढ़ाई की। प्रतिभाशाली छात्र होने के कारण उन्हें कई स्वर्णपदक मिले और विशारद की डिग्री प्राप्त हुई। बनारस के बाद वे अहमदाबाद के गरीब बच्चों को संस्कृत भी पढ़ाते थे। अपने संस्कारों को उन्होंने हमेशा बनाए रखा। वे हमेशा धोती- कुर्ता पहनकर ही कॉलेज जाया करते थे जहां के योग्य शिक्षकों फादर वालेस एवं एस्थर सालोमन से उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रतिभा के धनी शास्त्री जी को अध्यापकों एवं सहपाठियों से बहुत स्नेह एवं सम्मान मिला। भावनाओं को तुरंत ही कविता के रूप में व्यक्त करने की अनूठी योग्यता के कारण वे शीघ्र कवि कहलाने लगे। एक बार कॉलेज के एक समारोह में उभरती अभिनेत्री निम्मी के हाथों वे सम्मानित भी किए गए थे।
अभिनेता-निर्माता-निर्देशक राजकपूर ने अपनी पहली फिल्म आग की असफलता के बाद जब दूसरी फिल्म बरसात के गीत लेखन के लिए अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित करवाया तो उसके जवाब में रमेश शास्त्री ने अपने लिखे कुछ गीत उन्हें भेज दिए जिनमें से हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी, हां जी... गीत चुन लिया गया। इसके बाद अपने कई गीतों को लेकर वे मुम्बई पहुंचे। बाद के वर्षों में उनके लिखे कई गीतों को पौराणिक फिल्मों में शामिल किया गया लेकिन बरसात के उक्त गीत ने जो प्रसिद्धि पाई, वह उनके लिखे अन्य बाद के गीतों को नसीब नहीं हो सकी। वैसे गीता दत्त का गाया गीत कंकर-कंकर से मैं पूछूं, शंकर मेरा कहां है, कोई बताए... भी बहुत पसंद किया गया।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1949 की फिल्म बरसात के अतिरिक्त जिन फिल्मों में रमेश शास्त्री जी के लिखे गिने- चुने गीत शामिल हुए, उनके नाम हैं- राम विवाह-1949 (रूप अनूप सुहाए... गौरी पूजन चली जानकी) एवं उषा हरण -1949 (झिलमिल झिलमिल तारे चमके..., रात सुहानी खिली चांदनी..., आज मेरे जीवन के नभ में छाई है अन्धियारी) इनके अतिरिक्त हर हर महादेव-1950 (मन न माने..., गुन गुन गुन गुंजन करता भंवरा...,कंकर- कंकर से मैं पूछूं..., ऋतु अनोखी प्यार अनोखा..., रूमझूम- रूमझूम चली जाऊं..., हलुलुलुल- हलुलुलु हाल रे... एवं टिम टिमाटिम... ) एवं जय महाकाली 1951 (चम चमा चम... दुनिया मेरी बसाने वाले...) में भी उनके गीत शामिल किए गए थे। उनकी बेटी के अनुसार, शास्त्री जी ने राम शरण के नाम के कुछ गैर फिल्मी गीत भी लिखे थे जो रेडियो सीलोन से बजते थे लेकिन उनकी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने बहुत से गीत लिख कर बांट दिए जिसे लोगों ने अपने नाम से बाद में प्रस्तुत कर दिया। गीत लिखने के बाद वे उस पर अपना अधिकार नहीं जताते थे।
उनका विवाह अपने एक दोस्त की पत्नी की बहन से हुआ था जिसे उन्होंने स्पष्ट रूप से बता दिया था कि बड़ा आदमी बनने की बजाय वे एक अच्छे कॉलेज में अध्यापक के रूप में छात्रों को पढ़ाने का काम करना चाहते हैं। अध्यापन कार्य से वे जीवन पर्यन्त जुड़े रहे। संस्कृत हमेशा ही उनका प्रिय विषय बना रहा और इसे बच्चों को पढ़ाते भी रहे। शास्त्री जी Philosophical Principles of Charak Sanhitaa विषय को लेकर डॉक्टरेट प्राप्त करने वाले सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी के पहले और भारत के 151 वें विद्यार्थी बने। प्रारंभ में स्कूल के अध्यापक के रूप में उन्होंने कार्य किया। 20 नवम्बर 1976 को उन्होंने गवर्नमेंट आयुर्वेद कालेज, भावनगर में अध्यापन शुरु किया। बाद में वे बड़ौदा एवं अहमदाबाद में भी रहे। गवर्नमेंट आयुर्वेद कॉलेज बड़ौदा से वे सन् 1990 को सेवानिवृत्त हो गए। सेवानिवृत्ति के बाद भी वे शिष्यों को संस्कृत पढ़ाने का कार्य नि:स्वार्थ भाव से करते थे।
उनका जीवन सदा ही विविध घटनाओं से भरा रहा लेकिन विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी। ब्राह्मण परिवार में जन्में शास्त्रीजी ने सदा ही अपने धर्म का पालन किया। वे दूसरों के मन की बातों को भंापने की विलक्षण प्रतिभा रखते थे लेकिन उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया। संस्कृत के अध्ययन में अत्यधिक रूचि रखने के कारण उन्होंने संस्कृत की अनेकानेक पुस्तकों का संग्रह कर लिया था जिसमें कई दुर्लभ पुस्तकें भी शामिल थी। लेकिन जैसे ही उन्हें यह पता चला कि उनकी बेटी संगीता की रूचि संस्कृत में नहीं बल्कि मनोविज्ञान में है, उन्होंने सभी पुस्तकें दान कर दीं ताकि उनका सदुपयोग हो सके।
उनका बेटा कपिलदेव शास्त्री, जिसने पढ़ाई के बाद मेकेनिकल इंजीनियर का डिप्लोमा प्राप्त किया था, पिछले 20-22 वर्षों से एक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गया। आम धारणा बनी कि वह सामान्य जिंदगी नहीं जी सकेगा लेकिन दृढ़ निश्चय के साथ संगीता जी ने उसे सामान्य बनाने के लिए स्वयं संस्कृत की बजाय मनोविज्ञान विषय में पढ़ाई की और काफी हद तक अपने प्रयास में सफल हुईं। वे स्वयं अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं एवं डॉक्टरेट के लिए प्रयासरत हैं।
दुर्भाग्य ने जीवनपर्यन्त उनका साथ निभाया। उनका बेटा मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गया और पत्नी का कैंसर के कारण निधन हो गया जो उनके लिए असहनीय था। भूचाल ने उन्हें बर्बाद कर दिया लेकिन नियति मानकर उन्होंने सब कुछ अपने बेटे एवं पुत्री के साथ रहते हुए सहज रूप में स्वीकार किया। अन्त में वे स्वयं पहले पारकिंसन्स एवं बाद में मस्तिष्क की बीमारी से ग्रस्त हो गए लेकिन अंत तक अपने पुत्र एवं पुत्री के लिए स्नेह की वर्षा करते रहे। पिछले 10 वर्षों से बीमारी के कारण उनका सारा वक्त बिस्तर पर ही बीता और अन्तत: 30 अप्रैल 2010 को सदा के लिए उन्हें हर तरह के कष्टों से तभी मुक्ति मिली जब उन्होंने अंतिम सांस ली।
अहमदाबाद निवासी उनकी बेटी सुश्री संगीता शास्त्री (संपर्क-09825328512) कहानी एवं पटकथा लेखिका के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं एवं निर्माता अभिनेता निमेष देसाई के कोरस कम्यूनिकेशन द्वारा प्रस्तुत नाटकों एवं टीवी धारावाहिकों के साथ लेखिका के रूप में जुड़ी हैं।
(निमेष देसाई एवं सुश्री संगीता शास्त्री से प्राप्त जानकारी को अहमदाबाद के रजनीभाई पण्डया ने पहुंचाया जिसे (सूरत के हरीश रघुवंशी द्वारा उपलब्ध कराई गई रमेश शास्त्री के लिखे गीतों की जानकारी के साथ) प्रस्तुत किया लिस्नर्स बुलेटिनके संपादक हर मन्दिर सिंह 'हमराज' ने)

पता- संपादक- लिस्नर्स बुलेटिन
एच आई जी- 545, रतनलाल नगर, कानपुर- 208022
मोबाइल - 9450936901

कबाड़ में छुपे सौंदर्य को आकार देती रश्मि सुन्दरानी


कबाड़ में छुपे सौंदर्य को आकार देती रश्मि सुन्दरानी

- संजीव तिवारी
हजारों लाखों लोगों ने चंडीगढ़ के रॉक गार्डन को देखा होगा और सबने उसे सराहा होगा किन्तु रॉक गार्डन बनाने वाले पद्मश्री सम्मान से सम्मानित नेकचंद सैणी के सृजनशील मानस जैसा चिंतन और उनके पदचिन्हों पर चलते हुए उसे साकार करने का प्रयास बिरले लोगों ने ही किया होगा। लेकिन श्रीमती रश्मि सुन्दरानी ने नेकचंद से प्रेरणा लेकर रॉक गार्डन की कला को छत्तीसगढ़ के शहर दुर्ग में साकार कर दिखाया। रश्मि जी को रॉक गार्डन इतना प्रभावित किया कि उनकी कल्पनाशील मन ने न केवल रॉक गार्डन में लगाए गए कलाकृतियों के सौंदर्य और उनकी कलागत बारीकियों को आत्मसात किया वरन उससे कुछ अलग हटकर काम करने का जज़्बा मन में पाला और एक नया संसार रच डाला।
कल्पनाओं को साकार स्वरूप देने का जज़्बा लिये पर्यावरण अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर रश्मि ने जब दुर्ग नगर निगम में अपने आयुक्त पति एस.के.सुन्दरानी राज्य प्रशासनिक अधिकारी के साथ कदम रखा तो नगर पालिका निगम के स्टोर्स में पुराने रिक्शों, कचरा ढोने वाले हाथठेलों, मोटर बाईक और गाडिय़ों के टायर आदि का कबाड़ अंबार के रूप में भरा देखा। नगर पालिका निगम दुर्ग विभागीय नियमों के कारण बरसों से इस कबाड़ को सहेजने
और उपयुक्त स्थान में रखने के लिए विवश थी साथ ही उसे इन सामानों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा कर्मचारी की भी व्यवस्था करनी पड़ रही थी।
श्रीमती सुन्दरानी ने जब अपने पति को इस समस्या से दो- चार होते देखा तो उन्हें चंडीगढ़ के रॉक गार्डन में कबाड़ से बनी कलाकृतियां याद आ गई और उन्होंने यहां पड़े इस कबाड़ को आकार देने के बारे में अपने पति से बातचीत की। किन्तु इसे साकार करने के लिए सबसे बड़ी समस्या थी इन सामानों को वेल्ड कर एक दूसरे से जोडऩे की। श्रीमती सुन्दरानी ने मन में घुमड़ रही आकृतियों का एक रफ स्कैच बनाया और वेल्डर की सहायता से बेकार पड़ी इन वस्तुओं को नया आकार देने लगीं। पर यह सब इतना आसान भी नहीं था। लौह खण्ड, टिन आदि बेकार पड़े इस कबाड़ को अपने मन के अनुसार आकार देने के लिए वेल्डर को समझाने में उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी।
कुछ अच्छा और नया करने की चाह हो तो राह अपने आप निकल ही आती है। कुछ ही प्रयासों के बाद जो आकृतियां उभर कर आईं वे नायाब थीं। इस तरह कबाड़ से बनी कलाकृतियां जब आम और खास लोगों की नजर में आने लगी तो श्रीमती सुन्दरानी को प्रोत्साहन मिलने लगा और वे अपने काम में और अधिक उत्साह के साथ जुट गईं।
अपने इन प्रयासों के संबंध में रश्मि सुन्दरानी कहती हंै कि जब उनके पति रायगढ़ नगर पालिका निगम में आयुक्त थे तब उन्होंने इस तरह के एक- दो प्रयास वहां भी किए थे जिसे लोगों ने काफी सराहा और रायगढ़ के कुछ चौराहों पर उन्हें लगाया भी गया। इसके बाद उन्हें लगा कि इस पर और काम करना चाहिए। फिर पति का स्थानांतरण दुर्ग नगर पालिका निगम में बतौर आयुक्त हो गया जहां उनकी कल्पनाओं ने एक नई उड़ान भरी।
श्रीमती सुन्दरानी के मानस में गजब की इमेजिनेशन पलती है उन्होंने गाडिय़ों के बेयरिंग, सायकल रिक्शों के छर्रा- कटोरी, दांतेदार बेयरिंग तथा पायडल को जोड़कर एक विशालकाय डायनासोर का निर्माण किया जो आज दुर्ग के गौरव पथ का गौरव बढ़ा रहा है। इसके साथ ही गौरव पथ के दोनों तरफ उनकी बनाई गई कई कलाकृतियां साकार होकर शहर की शोभा बढ़ा रहीं हैं।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति व लोककला को प्रदर्शित करती इन कलाकृतियों में वीनावादक, मृदंगवादक, मोर, कछुआ, मकड़ी आदि की अद्भुत कृतियां मुस्कुराने लगीं। जिसे देखकर राह चलते लोग ठहर जाते हैं और कबाड़ से बने इन कृतियों को निहारने लगते हैंं।
रश्मि सुन्दरानी का निवास स्थान ऐसी कलाकृतियों का खजाना बन गया है। अब वहां प्रतिदिन अनेक कृतियां आकार ले रही हैं। उनकी कला के प्रति समर्पण, निष्ठा एवं श्रम एक मिसाल है। उनका अपना गार्डन मोर, बतख, मकड़ी, विभिन्न प्रकार के पारंपरिक वस्त्रों से सजे वादक के साथ ही अनुपयोगी वस्तुओं से निर्मित है जिनकी सुन्दरता देखते बनती है।
हर व्यक्ति के हृदय में एक कलाकार बसता है, एक सर्जक बसता है, मन में आकार लेती अपनी कल्पनाओं को अभिव्यक्त करने की अपनी- अपनी शैली भी होती है। धीरे- धीरे वेल्ड होते लोहे के टुकड़े जब रश्मि जी के निर्देशन में भौतिक स्वरूप धरते हैं तब इन निर्जीव कृतियों में जान आ जाती है। उनकी बनाई कलाकृतियां कलात्मक सौंदर्य व परिकल्पना की जुगलबंदी है। हर तरफ से मिल रही प्रशंसा एवं नगर निगम के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी की धर्मपत्नी होने के बावजूद रश्मि में सादगी और सहजता कूट- कूट कर भरी हुई है जो उनके भीतर छुपे कलाकार को दमक व आभा प्रदान करता है। बेकार पड़े कबाड़ को कलाकृति में ढाल कर रश्मि सुंदरानी ने एक सराहनीय कदम उठाया है। यदि उनसे प्रेरणा लेकर हर शहर में ऐसा काम होने लगे तो शहर के ऐसे कबाड़ को नष्ट करने की समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है।
पता- ए 40, खण्डेलवाल कालोनी, दुर्ग (छ.ग.), मो. 09926615707
www.gurturgoth.com, aarambha.blogspot.com

...और दीनानाथ ने बसा दिया एक प्रेमवन

...और दीनानाथ ने बसा दिया एक प्रेमवन
- रोली शिवहरे और प्रशांत दुबे
आज दीना के इस प्रेमवन में आम, आंवला, महुआ, जामुन, बेल, बांस, शीशम, कत्था, अमरुद और कठहल आदि लगभग सात हजार पेड़ लगे हैं। लगभग 200 एकड़ जंगल में फैले इस वन के प्रत्येक पौधे को अपने हाथ से लगाया और सींचा दीना व ननकी ने। दीना व ननकी की अपनी कोई संतान नहीं है तो उन्होंने पेड़ों को बच्चा मान लिया।
उसे यह नहीं मालूम है कि कोपेनहेगन में गरम हो रही धरती का ताप कम करने के लिये कवायद चली। उसे यह भी नहीं मालूम कि दुनिया भर से जंगल कम हो रहा है और उसे बचाने व नये सिरे से बसाने के प्रयास चल रहे हैं। उसे यह भी नहीं मालूम कि यदि जंगल बच भी गया तो उस पर कंपनियों की नजर गड़ी है।
उसे मालूम है तो इतना कि पेड़ कैसे लगाये जायें और उन्हें कैसे बचाया जाये। पेड़ बचाने की धुन भी ऐसी कि एक छोटा जंगल ही लगा डाला। उसे नागर समाज की वन की परिभाषा भी नहीं मालूम लेकिन उसने बसा दिया 'प्रेम वन'।
दीना ने वन क्यों लगाया? इस पर मंद- मंद मुस्कराते हुये बड़े ही दार्शनिक अंदाज में वे कहते हैं 'जीवन में किसी न किसी से तो मोहब्बत होती ही है, मैंने पेड़ों से मोहब्बत कर ली।' दीना ने तभी तो इस वन का नाम रखा है 'प्रेमवन '।
मध्यप्रदेश के रीवा जिले के डभौरा कस्बे के पास धुरकुच गांव में रहते हैं दीनानाथ। दीनानाथ कोल आदिवासी हैं। दीनानाथ जंगलों को कटते देखते थे तो बड़े दु:खी होते थे। कुछ कर नहीं सकते थे तो सोचा कि जब वो काट रहे हैं, तो हम लगाने का काम क्यों ना करें। 1991 में पास ही के कोटा गांव में एक शादी समारोह के बाद उपयोग किये गये लगभग एक हजार आम की गुठलियों को दीनानाथ ने बीना।
दीनानाथ बोरे में भरकर गुठलियां ले आये और अपनी खेती की जमीन पर ही लगा दी पलिया (नर्सरी)। पलिया तैयार हुई, पौधे बनने लगे लेकिन सवाल वही कि ये पौधे लगेंगे कहां और हिफाजत करेगा कौन! दीनानाथ ने वन लगाने का विचार गांव वालों के बीच रखा लेकिन गांव वालों ने न केवल इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया बल्कि उन्हें पागल भी करार दे दिया।
लेकिन दीना पर तो जैसे वन लगाने का जुनून ही सवार था। उन्होंने पहले अकेले और बाद में अपनी पत्नी ननकी देवी के साथ मिलकर वन विभाग की जमीन पर बाड़ लगाना शुरू किया। उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम था, पत्थर एकत्र करना और उसकी बाड़ बनाना। इधर नर्सरी में लगे पौधे बढ़ रहे थे, उधर दीना की बाड़ भी बढ़ रही थी। धीरे- धीरे कर दीना और ननकी ने 50 एकड़ के जंगल में बाड़ लगा दी। अब बारी थी पौधे रोपने की। हजार के हजार पौधे रोपे गये। तीन तरफ पत्थर की बाड़ और एक तरफ लकड़ी की बाड़।
पेड़ तो लग गये लेकिन अब बचेंगे कैसे ? यानी सिंचाई कैसे होगी! दीनानाथ और ननकी ने अपनी पीठ पर पीपा बांधकर पास के तालाब से पौधों में पानी देना शुरू किया। खेती बाड़ी भी चल रही थी और जंगल लगाने का सपना भी मन में था।
पेड़ बड़े होने लगे और तभी वन विभाग को दीनाके इस प्रसंग की भनक लग गई। अब चूंकि जमीन वन विभाग की थी तो वन विभाग को दीना और ननकी का यह प्रयास अतिक्रमण लगा। परिणाम स्वरूप दीना को वन विभाग ने पकड़कर जेल के अंदर कर दिया। बाड़ तोड़ दी गई और कुछेक पेड़ भी उखाड़ दिये गये। तीन- चार दिन में जेल से छूटने के बाद दीना ने पत्नी ननकी के साथ मिलकर फिर से बाड़ सुधारी, पेड़ लगाये और पानी देने का सिलसिला चालू रखा।
वन विभाग को यह नागवार गुजरा और दीना को फिर जेल की हवा खानी पड़ी। इस बार वन विभाग दीना के साथ सख्ती से पेश आया, लेकिन दीना ने स्पष्ट कर दिया कि न तो मुझे जमीन चाहिये और न ही इन पेड़ों के फल। यह तो जनता का वन है। दीना फिर छूटे। नई ऊर्जा के साथ फिर शुरू हुये अपने जंगल को बढ़ाने। अपनी अदम्य इच्छा शक्ति और पत्नी के साथ की बदौलत दीना ने हार नहीं मानी। इसके बाद दीना ने दो- तीन बार और वन विभाग की कैद भोगी।
आज दीना के इस प्रेमवन में आम, आंवला, महुआ, जामुन, बेल, बांस, शीशम, कत्था, अमरुद और कठहल आदि लगभग सात हजार पेड़ लगे हैं। लगभग 200 एकड़ जंगल में फैले इस वन के प्रत्येक पौधे को अपने हाथ से लगाया और सींचा दीना व ननकी ने। दीना व ननकी की अपनी कोई संतान नहीं है तो उन्होंने पेड़ों को बच्चा मान लिया।
अपने पेड़ों को बचाने के संबंध में दीना कहते हैं 'एक- एक पीपा पानी लाकर बचाया है मैंने इसे। तीन बार कुंआ खना लेकिन वन विभाग ने तीनों बार कुंआ ढहा दिया। आप चाहें तो आज भी आधा कुंआ देख सकते हैं। लेकिन मैंने हार नहीं मानी।'
वे इस पूरे प्रयास में अपनी पत्नी ननकी बाई को साधुवाद देते हैं। वर्ष 2002 में तत्कालीन रेंजर ने दीना के प्रयास को बारीकी से देखा और कहा कि वन विभाग के नुमाइंदें तो तनख्वाह पाकर भी जंगल कटने देते हैं। तुम तो अजीब पागल हो! फिर उन्हीं की अनुशंसा पर दीना को न केवल जंगल विभाग ने परेशान करना बंद किया बल्कि 900 रुपये मासिक पगार पर चौकीदार भी रख लिया। हालांकि दीना इसे वनविभाग की रणनीति मानते हैं कि मैं दूसरी जगह चौकीदारी पर लग जाऊंगा तो कम पेड़ ही लगा पाऊंगा। और वो मानते ही हैं कि उनकी रफ्तार कम भी हुई है।
आज इस प्रेमवन में हिरन, सांभर, नीलगाय और मोर स्वच्छंद विचरण करते हैं। गांव वाले भी आते हैं, फल खाते हैं लेकिन दीना का स्पष्ट आदेश है कि आम खाओ, महुआ बीनो लेकिन पेड़ मत काटो। वनाधिकार कानून पास होने की जानकारी दीना को तो है लेकिन वो कहते हैं कि मुझे इसका दावा नहीं करना है। मुझे तो जंगल बचाना था, जंगल बचा रहा हूं।
दीना ने विगत तीन वर्षों से एक भी नया पेड़ नहीं लगाया है। तीन सालों से सूखा जो पड़ रहा है। दीना तीन सालों में स्वयं भी मजदूरी करने जाते हैं। वह कहते हैं कि चाहे जो भी हो, लेकिन मैं पलायन नहीं करता हूं क्योंकि पलायन के लिये बाहर जाना पड़ता है और बाहर जाऊंगा तो फिर मेरे पेड़ों की रक्षा कौन करेगा। मेरे पेड़ सूख जायें, ये मैं सहन नहीं कर सकता।
इस साल नियमित पानी के अभाव में उनके 10 पेड़ सूख गये। पेड़ सूखने पर वे निराश हैं- 'जब पेड़ सूख गये तो भला मैं कैसे सुखी रह सकता हूं। मैं तो मरना पसंद करुंगा।' दीना कहते हैं कि मुझे यदि कुंआ खोद लेने दिया होता तो अभी तक दूना जंगल लगा देता। दीना ने सरपंच व जनपद पंच का चुनाव भी लड़ा ताकि जीतकर वे उस जमीन पर कुंआ खुदवा सकें।
आज गांववालों के बीच में दीना और ननकी का अलग स्थान है। गांव वाले भी इनके कद्रदान हैं। समाज चेतना अधिकार मंच के रामनरेश व सियादुलारी कहते हैं कि प्रेमवन की महत्ता गांववालों के बीच इतनी है कि यहां पर बने स्वसहायता समूह का नाम भी महिलाओं ने प्रेमवन स्वसहायता समूह रखा है।
वैसे तो दीना महज तीसरी तक पढ़े हैं और ननकी बाई निरक्षर, लेकिन अपने प्रेमवन से वनविभाग को आईना दिखाते हुये, धुरकुच जैसे छोटे से गांव से दुनिया को संदेश दे रहे हैं कि धरती बचानी है तो अपने से शुरू करो। केवल बहस मुबाहिसों से कुछ हासिल नहीं होगा। (रविवार.comसे)

हम मछली खाकर बने बुद्धिमान


हम मछली खाकर बने बुद्धिमान
-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
उष्णकटिबंधीय मछली में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्वों ने ही मानव मस्तिष्क के विकास में मदद की थी। इससे उनकी बुद्धि में इतना विकास हो गया कि वे और अधिक मात्रा में और सफलता के साथ मछलियों का शिकार करने लगे। और इस तरह मछली में पाया जाने वाला पौष्टिक तत्व मानव शिशु के मस्तिष्क और शरीर के अनुपात को बढ़ाने और उसे बरकरार रखने में काफी अहम हो गया।
जीव विज्ञान की पहेलियों में यह गुत्थी हमेशा बनी रही है कि मानव मस्तिष्क का विकास इतनी तेजी से कैसे हुआ। विचारवान मनुष्य यानी होमो सेपिएन्स बनने में करीब दस लाख साल लगे होंगे। आखिर यह पता कैसे लगा? शरीर और मस्तिष्क के अनुपात की तुलना करके। आदिमानव के मस्तिष्क का आयतन जहां 600 से 800 मि.ली. था, वहीं आज के मानव के मस्तिष्क का आयतन 1250 मि.ली. है। इस तरह हमारे सबसे नजदीकी पूर्वजों या चिम्पैंजी की तुलना में हमारे मस्तिष्क के भीतर कहीं कुछ ज्यादा है। चिम्पैंजी के मस्तिष्क का आयतन 410 मि.ली. होता है।
मस्तिष्क-शरीर अनुपात
यह तो वयस्क मनुष्य के मस्तिष्क का आयतन है। यदि हम एक नवजात शिशु के मस्तिष्क और शारीरिक अनुपात की तुलना करें तो उसका परिमाण आदिमानव की प्रजातियों के मस्तिष्क और शारीरिक अनुपात से अलग नहीं होगी। एक नवजात बच्चे के मस्तिष्क का आकार उतना ही होता है, जितना कि चिम्पैंजी के मस्तिष्क का लेकिन हम मनुष्यों का मस्तिष्क जन्म के बाद काफी तेजी से बढ़ता है, जबकि अन्य प्राणियों का नहीं।तो सवाल यह है कि आखिर मनुष्य के मस्तिष्क के आकार में तेज बढ़ोतरी के पीछे मूल वजह क्या है? बीस लाख साल पहले, जब हम आदिमानव की अन्य प्रजातियों से अलग होने लगे थे, यह परिवर्तन कैसे आया? इसका उत्तर है, यह तब हुआ जब हमने मछली खाना शुरू किया था।
एक अहम शोध पत्र
डॉ. डेविड ब्राउन और उनके सहयोगियों ने हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के 1 जून 2010 के अंक में प्रकाशित शोध पत्र में आदिमानव की मशहूर बसाहट के निकट मछलियों की हड्डियों के ऐतिहासिक साक्ष्य के बारे में बताया है। यह बसाहट अफ्रीका की रिफ्ट वैली में 19.5 लाख साल पहले थी। इसी क्षेत्र को मनुष्यों का उद्गम स्थल माना जाता है। मछलियों की इन हड्डियों में दांतों के जो निशान पाए गए हैं, वे मनुष्य के दांतों से मेल खाते हैं, न कि चिम्पैंजी के दांतों से।आखिर यह शोध पत्र इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इसके लिए मैं डॉ सी. एल. ब्राडहर्स्ट, एस.सी. कुनाने और एम.ए. क्राफोर्ड के एक समीक्षा आलेख को उद्धृत कर सकता हूं जो आज से करीब 12 साल पहले ब्रिटिश जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित हुआ था। यह ऐसी समीक्षा है जो हमें शरलॉक होम्स के तर्कों की याद दिलाती है।
उनकी परिकल्पना है कि पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट वैली के विशिष्ट भूगर्भीय और इकॉलॉजिकल परिवेश ने मानव मस्तिष्क के आकार को बढ़ाने के लिए पौष्टिक संसाधन प्रदान किए थे।
वे पूछते हैं, 'युगांतरकारी इतिहास के इतने छोटे-से हिस्से में ही हमारी बौद्धिक क्षमता का विकास कैसे हो गया? हालांकि मानव के विकास में कई अन्य कारकों जैसे शारीरिक, दो पैरों पर चलना, बोलना, पारिस्थितिकीय, शाकाहारी व मांसाहारी दोनों तरह के खाद्य पदार्थों का सेवन, शुष्क वातावरण के प्रति स्वयं को अनुकूल बनाना, सांस्कृतिक अनुकूलन, औजारों का इस्तेमाल करना, समूहों में रहना, वगैरह की भूमिका रही है, लेकिन इनका उस बौद्धिक क्षमता और संस्कृति के विकास में कोई विशेष योगदान नहीं रहा है, जो आज के मनुष्य में मौजूद है। यदि बात इतनी ही होती तो हमें पूछना होगा कि अन्य प्राणी इस तरह से विकसित क्यों नहीं हो पाए।'
इस सवाल का जवाब है कि आदिमानव ने मछलियों को पकड़कर या ढूंढकर उसे अपने भोजन का हिस्सा बना लिया। उष्णकटिबंधीय मछली में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्वों ने ही मानव मस्तिष्क के विकास में मदद की थी। इससे उनकी बुद्धि में इतना विकास हो गया कि वे और अधिक मात्रा में और सफलता के साथ मछलियों का शिकार करने लगे। और इस तरह मछली में पाया जाने वाला पौष्टिक तत्व मानव शिशु के मस्तिष्क और शरीर के अनुपात को बढ़ाने और उसे बरकरार रखने में काफी अहम हो गया।
गौरतलब बात यह है कि चिम्पैंजी या गोरिल्ला जैसे वानर लगभग शाकाहारी होते हैं। कभी-कभार कीड़े-मकोड़े, छोटे जानवरों या कछुओं के अलावा वे शाक-पत्तियों पर ही निर्भर होते हैं। यह भी गौरतलब है कि मस्तिष्क के विकास के लिए सभी अहम पोषक तत्व मछली में होते हैं। मनुष्य का मस्तिष्क तैलीय होता है जिसमें प्रति किलो 600 ग्राम वसा होती है। साथ ही वसा अम्ल होते हैं। जैसे एरेकडोनिक एसिड, डोकोसाहेक्सेनोइक एसिड (डीएचए) जिनका निर्माण हमारे शरीर में नहीं होता है। इस तरह ये बाहर से लिए जाने वाले अनिवार्य पोषक तत्व हैं और मछलियों में बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं।
तो सवाल यह है कि शाकाहारी जीव ऐसी अनिवार्य वसा कहां से हासिल करते हैं? हरी सब्जियों, अखरोट, मूंगफल्ली, तिल, सरसों, कपास, सूरजमुखी और तेल के अन्य स्रोतों से। यही वजह है कि आज के आहार विशेषज्ञ वनस्पति घी या ट्रांस-फैट के बजाय बहुअसंतृप्त वसा (पीयूएफए) लेने की सलाह देते हैं।
यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि मांस प्रोटीन से भरपूर होता है। मांस में वसा जरूर होती है, लेकिन उसमें वह वसा नहीं होती जो मस्तिष्क के लिए जरूरी होती है। जैसा कि मेरी पोती किमाया कहती है, यह 'बॉडी फूड' होता है, जबकि अखरोट-बादाम, मछली या हरी सब्जियां 'ब्रेन फूड' होते हैं। इस तरह मछली खाने का मौका मिलने पर आसपास के अन्य शाकाहारी जानवरों की तुलना में आदिमानव की तो मानो लाटरी खुल गई।
परिवेश क्या था? यह मानव सभ्यता का पलना था, यानी पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट वैली। करीब 1.4 और 1.9 करोड़ साल पहले हुए भौगोलिक और पर्यावरणीय बदलावों की वजह से मायोसिन काल की समाप्ति के आसपास अफ्रीका ठंडा और सूखा हो चुका था। मलावी, तंजानिका और विक्टोरिया झीलों के क्षेत्र जिंदगी के फलते-फूलते क्षेत्र बन चुके थे। भू-वैज्ञानिक इन्हें 'विफल महासागर' कहते हैं और फिर जब जंगल बंजर भूमि में बदलते गए तो पेड़ों पर चढऩे वाले चौपाए प्राणियों का दो पैरों के प्राणियों में रूपांतरण होता गया।
भोजन का स्रोत मूलत: हरी-भरी वनस्पति थी और पानी झीलों से मिलता था। ऐसी ही क्षारीय और खारी झीलों में मछलियां पैदा हुईं और उनका विस्तार हुआ। मछलियों को पकडऩे के लिए किसी तकनीक (जैसे जाल या बंशी) की जरूरत नहीं पड़ती थी। वे उन्हें हाथों से ही पकड़ लेते थे। यह वह 'ब्रेन फूड' है जिसकी पूर्ति उष्णकटिबंधीय ताजे जल की मछलियों और घोंघों ने उस समय के आदिमानव के लिए की। यह अपने आसपास के प्राणियों की जिंदगी को किसी परिवेश द्वारा ढालने का एक बहुत ही शानदार उदाहरण है। और इस तरह मनुष्य बुद्धिमान और समझदार प्राणी के रूप में उभरा। (स्रोत फीचर्स)

ओय ओय ... फुट ब्रिज गिर गया

-प्रमोद ताम्बट
ओय ओय ओय ओय, फुट ब्रिज गिर गया, फुट ब्रिज गिर गया, बच्चे लोग ताली बजाओ। आज हम विध्नसंतोषियों के लिए बहुत खुशी का दिन है। हम ना कहते थे- भ्रष्टाचार चल रहा है, भ्रष्टाचार चल रहा है! कोई सुन ही नहीं रहा था, हम इतनी जोर जोर से चिल्ला रहे थे कि- धांधली चल रही है, मगर कोई सुनने को ही तैयार नहीं था। अब देख लिया अपनी आंख से भ्रष्टाचार का नमूना- फुट ब्रिज गिर गया। चलो अपना- अपना हाथ आगे करो, अब लड्डू बंटने वाले हैं।
दो- तीन दिन पहले टुरिस्ट बस पर फायरिंग हुई, कुकर बम फूटा हमारे लिए बड़ी खुशी की बात थी। हम चिल्ला रहे थे- सुरक्षा कमजोर है, सुरक्षा कमजोर है, किसी के कान पर जूं रेंगने को तैयार न थी, रेंगेगी भी कैसे, लोगों के सिरों में जूं हंै कहां आजकल जो कानों पर आकर रेंगे!
अब तो मानोगे, कि दो- चार ब्लॉस्ट और होंगे, या ठीक कॉमनवेल्थ खेलों के उद्घाटन में ही धम- धम होगी तभी मानोगे, कि हम सही कह रहे थे। हम हमेशा सही कहते हैं, कहते रहते हैं, कहते रहते हैं, तुम लोग सुनते कहां हो! अब तो सुनोगे झक मार के। हमारे लिए इससे बड़ा खुशी का मौका दूसरा नहीं। दो- चार धमाके और हों तो मजा आए।
सालों से पानी नहीं बरसा ढंग से, गटर और जमुना में फर्क करना मुश्किल था। अब कॉमनवेल्थ होने को हैं तो देख लो, पानी बरस- बरस कर हमारा समर्थन कर रहा है। छतें टपक रहीं हैं, खुद भी टपक जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं। पानी शहर में घुसा चला आ रहा है, सारी पोलें खोल रहा है, दुनिया देख रही है, कोस रही है कि- जो देश अपना गटर सिस्टम सही नहीं कर सकता उसे कॉमनवेल्थ कराने की जिम्मेदारी किस उल्लू के पठठे ने दी है। हम यहीं तो कह रहे हैं इतने दिन से- कि लापरवाहों, अकर्मण्यों, मक्कारों का देश है यह, चोट्टों, भ्रष्टाचारियों का देश है यह, इनसे कुछ होना- हवाना नहीं है, काहे को तो इतनी बड़ी जिम्मेदारी दे दी गई इन्हें कंडे थोपने भर कीऔकात है इनकी, वही करते रहते तो ही ठीक था।
अब देखो, खेल गांव में कितनी गंदगी मचा के रखी है, जैसे सुअरबाड़ी हो। विदेशी खिलाडिय़ों के बिस्तरों पर कुत्ते सो रहे हैं। जिन मजदूरों की औकात दो कौड़ी की नहीं वे भी कमीशन के गद्दों पर लोट लगा रहे हैं। इनका बस चले तो दुनिया भर के ढोर-डंगरों को भी वहां लाकर बसा दें।
हम ना कहते थे, जिम्मेदारी तो किसी एक में नहीं है, आजाद देश मिल गया है तो सब साले मकरा गए हैं। देश की इज्जत का किसी को रत्ती भर खयाल नहीं है। अब हमी को देख लो, बकर-बकर हमसे चाहे जितनी करवा लो, टांग खिचाई, टांग अड़ाई, छिलाई, जग- हंसाई हमसे चाहे जितनी करवा लो, निंदा, आलोचना, बुराई हमसे जी भर के करवा लो, मगर बाकी दिनों में, जब कोई कॉमनवेल्थ सिर पर नहीं होता, हम कहां भाड़ झोकते रहते हैं, हमसे कोई मत पूछना।
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प्रमोद ताम्बट व्यंग्यकार हैं उन्होंने कई रेडियो एवं नुक्कड़ नाटकों में अभिनय व निर्देशन किया है। भोपाल की प्रथम वीडियो फिल्म 'सच तो यह है कि' में संवाद लेखन एवं अभिनय। भोपाल दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल 'चेहरे' तथा 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' फीचर फिल्म में अभिनय। देश भर की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में उनके अनेक व्यंग्य प्रकाशित हुए हैं।
उनका पता है- 8 ए /15 नॉर्थ टी.टी. नगर भोपाल-४६२००३ मोबाइल ०९८९३४७९१०६
ईमेल tambatin@yahoo.co.in, tambatin@gmail.com.

कलमाड़ी जोक्स

राष्ट्र मंडल खेलों को लेकर पिछले दिनों बहुत सारी गड़बडिय़ों की चर्चा रही। देश की बदनामी से आहात भारत की जनता अपना गुस्सा कलमाड़ी पर एसएमएस के माध्यम से व्यक्त करती रही। पढि़ए उसी गुस्से की कुछ बानगी जो जवाहर चौधरी ने हमें भेजे हैं-
क्त नाम पर सहमति न बन पाने के कारण कलमाड़ी साहब के हाथ से एक कुकरी शो का ऑफर निकल गया...चैनल शो का नाम 'खाना-खजाना' रखना चाहता था और कलमाड़ी इस जिद्द पर अड़े थे कि उसका नाम 'खाना खा जाना' रखा जाए!
क्त कलमाड़ी को भारत रत्न दिए जाने की मांग के बीच पाक सरकार ने कलमाड़ी को निशान-ए-पाकिस्तान सम्मान से नवजाने का फैसला किया है... उसका मानना है कि भारत की जितनी बदनामी वो पिछले साठ सालों में नहीं कर पाए उससे ज्यादा इस शख्स ने पिछले छह दिनों में करवा दी है!
क्त कलमाड़ी ने हाथ दे कर रिक्शे वाले को रोका और पूछा... बस स्टैंड चलना है... कितने पैसे दोगे?
क्त कलमाड़ी का कहना है कि उनके साथ धोखा हुआ है... पहले उन्हें बताया गया था कि खेल दो हजार दस में नहीं दस हजार दो में होने हैं!
क्त कलमाड़ी को काटने के लिए मच्छरों का कल एक इवेंट होना था... मगर... आखरी वक्त पर ज्यादातर मच्छरों ने अपना नाम वापिस ले लिया!
क्त खबर है कि पिछले तीन दिनों में एक लाख लोगों ने नाम परिवर्तन की सूचना अखबारों में दी है.... और क्या ये महज इत्तेफाक है कि इन सभी के नाम सुरेश हैं!
क्त अधूरी तैयारियों से परेशान कलमाड़ी ने अपना सिर पीटा... कहा स्साला कोई भी अपना वादा नहीं निभाता... आतंकी कह गए थे... खेल नहीं होने देंगे... पता नहीं कहां रह गए?
क्त दोस्तों, रात को जूतों की एक माला कलमाड़ी के पोस्टर पर डाली थी...सुबह उठ कर देखा रहा हूं तो उसमें से दो जूते गायब हैं!
क्त बेइज्जती की इंतहा... कलमाड़ी के कुत्ते ने उन्हें देख पूंछ हिलाना बंद कर दिया है।
ईमेल -jc.indore@gmail.com

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

ब्रह्मराक्षस का शिष्य
- गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

सड़कपर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा- प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊंचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर- दूर तक और इधर- उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुंथ- बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़- तले लेट गया।

उस महाभव्य भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आंखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में आती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह 'कुछÓ क्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!!
पांचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर यह श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तं भीरूरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह: केलय:।
इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने जाते समय, राधा- माधव की यमुना- कूल- क्रीड़ा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी! पिताजी! मां! मां! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किन्तु ज्यों- ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूंजता, घूमता गया त्यों- त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!
जब वह चिडिय़ों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों- भरे सूने ऊंचे सिंह- द्वार के बाहर निकला तो यकायक राह से गुजरते हुए लोग भूत- भूत कह कर भाग खड़े हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहां एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले-
सड़कपर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा- प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊंचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर- दूर तक और इधर- उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुंथ- बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़- तले लेट गया।
धीरे- धीरे, उसकी विचार- मग्नता को तोड़ते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे- कैसे दम्भी इकठ्ठे हुए हैं?
वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लड़का खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।
वह एकदम, बात करने वालों के पास खड़ा हुआ। हाथ जोड़े, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, हे विद्वानों! मैं मूर्ख हूं। अनपढ़ देहाती हूं किन्तु ज्ञान- प्राप्ति की महत्वाकांक्षा रखता हूं। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह बताओ।
पेड़- तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर हंसने लगे; पूछा -
कहां से आया है?
दक्षिण के एक देहात से! ...पढऩे- लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूंगा। जंगल- जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुंचा हूं। कृपा करके गुरू का दर्शन करवाइए।
अब दोनों विद्यार्थी जोर- जोर से हंसने लगे। उनमें- से एक, जो विदूषक था, कहने लगा-
देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल जायेगा। कह कर वह ठठाकर हंस पड़ा।
आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लड़के ने अपना डेरा- डण्डा संभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढ़ाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, तुमने अच्छा किया उसे वहां भेज कर? उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
पहला बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना ही कहा, आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।
सिंहद्वार की लाल- लाल बर्रें गूं- गूं करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौड़ी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकने वाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आंगन के आस- पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये- विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे अभी- अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहां कोई नहीं था।
आंगन से दीखने वाली तीसरी मंजिल की छज्जे वाली मुंडेर पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लम्बा- चौड़ा, साफ- सुथरा। उसकी सीढिय़ां ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढिय़ों पर उसके चलने की आवाज गूंजती; पर कहीं, कुछ नहीं!
वह आगे- आगे चढ़ता- बढ़ता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आंगन के चारों ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी गद्दियां दूर- दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य- यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं अगरबत्तियां जल रही थीं।
इतनी प्रबन्ध- व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी पग- ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद- सफेद गद्दियां, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियां। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता और वही मनुष्य- हीनता।
अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? वह कहां फंस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले जीने पर चढऩे लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियां बिछी हुई थीं। कुछ तैल- चित्र टंगे थे। खिड़कियां खुली हुई थीं जिनमें- से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिड़की के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा- भरा ऊंचा- नीचा, ताल- तलैयों, पेड़ों- पहाड़ों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊंची है और कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लड़का भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आंखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढऩा तय किया।
डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लड़का धीरे- धीरे अगली मंजिल का जीना चढऩे लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ़ की हड्डी में- से सर्द संवेदनाएं गुजरने लगतीं।
जीना खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा- पुता और अगरू- गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार- दृश्य देखती, खिड़की के पास देव- पूजा में संलग्न- मन मुंदी आंखों वाले ऋषि- मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
लड़के को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आंसू आंखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
ध्यान- मुद्रा भंग नहीं हुई तो मन- ही- मन माने हुए गुरू को प्रणाम कर लड़का जीने की सर्वोच्च सीढ़ी पर लेट गया। तुरन्त ही उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त- रूप दिया। ..वह विद्वान बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुंच गया है। उनके चरणों को पकड़े, उन्हें अपने आंसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और मां आंचल से अपनी आंखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान- गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता का वात्सल्य- भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला हुआ है।
वह देहाती लड़का चल पड़ा और देखा कि उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी- अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरणें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।
ब्राह्मण ने कठोर होकर कहा, तुमने यहां आने का कैसे साहस किया? यहां कैसे आये?
लड़का आतंकित हो गया। मुंह से कोई बात नहीं निकली।
ब्राह्मण गरजा, कैसे आए? क्यों आए?
लड़के ने मत्था टेका, भगवन! मैं मूढ़ हूं, निरक्षर हूं, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूं।
ब्राह्मण कुछ हंसा। उसकी आवाज धीमी हो गयी किन्तु दृढ़ता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।
तूने निश्चय कर लिया है?
जी!
नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है। एक बार और सोच ले! ...जा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहां जा और भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझ से मिलना।
दूसरे दिन प्रत्युष काल में लड़का गुरू से पूर्व जागृत हुआ। नहाया-धोया। गुरू की पूजा की थाली सजायी और आज्ञाकारी शिष्य की भांति आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उसके शरीर में अब एक नयी चेतना आ गयी थी। नेत्र प्रकाशमान थे।
विशालबाहु, पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरू की चर्या देखकर लड़का भावुक रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से-छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी की भांति जमीन पर पड़ा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरंत पकड़ सके!
गुरू ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख उसे डपट कर पूछा, सोच-विचार लिया?
जी! की डरी हुई आवाज!
कुछ सोच कर गुरू ने कहा, नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढ़ाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहां से निकल नहीं सकते।
सोच-विचार लो। अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!
और गुरू व्याघ्रासन पर बैठकर पूजा-अर्चना में लीन हो गये। इस प्रकार दो दिन और बीत गये। लड़के ने अपना एक कार्यक्रम बना लिया था, जिसके अनुसार वह काम करता रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरू उससे सन्तुष्ट हैं।
एक दिन गुरू ने पूछा, तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?
नतमस्तक हो कर लड़के ने कहा, जी!
गुरू को थोड़ी हंसी आयी, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आंखें नहीं है? क्या यहां का वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया।
एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट, निश्छल ज्योति!
अपने चेहरे पर गुरू की गड़ी हुई दृष्टि से किंचित विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुद्धिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।
गुरू का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि- आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहां बैठ।
और इस प्रकार गुरू ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परम्परा के अनुसार पहले शब्द-रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया।
गुरू ने मृदुता ने कहा, बोलो बेटे
राम:, रामौ, रामा: - प्रथमा
रामम्, रामौ, रामान्- द्वितीया।
और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक नि:संग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूंज-गूंज उठती।
सारा भवन गाने लगा
राम: रामौ रामा: प्रथमा!
धीरे- धीरे उसका अध्ययन सिद्धान्तकौमुदी तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात् कर, वर्ष एक के बाद एक बीतने लगे। नियमित आहार- विहार और संयम के फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गयी और आंखों में नवीन तारूण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लड़का, जो देहाती था अब गुरू से संस्कृत में वार्तालाप भी
करने लगा।
केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य- भवन में गुरू के समीप इस छोटी- सी दुनिया में यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरू-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किन्तु सुचारू भोजन मिलता। इस आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहां इस आठवीं मंजिल पर एक नयी दुनिया बस गयी।
जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूलविक्रीडि़त गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वीरान, निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
एक दिन गुरू ने शिष्य से कहा, बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अन्तिम तिथि है। स्नान- सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर आओ और अपना अन्तिम पाठ लो।
पाठ के समय गुरू और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गम्भीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अनन्तर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।
दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरू और शिष्य दोनों अपनी अन्तिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुंह में डालने ही वाले थे कि गुरू ने कहा, बेटे, खिचड़ी में घी नहीं डाला है?
शिष्य उठने ही वाला था कि गुरू ने कहा, नहीं, नहीं, उठो मत! और उन्होंने अपना हाथ इतना बढ़ा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर एक क्षण के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया लेकर शिष्य की खिचड़ी में घी उड़ेलने लगा। शिष्य कांप कर स्तम्भित रह गया। वह गुरू के कोमल वृद्ध मुख को कठोरता से देखने लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरू के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तम्भित रह गया।
गुरू ने दु:खपूर्ण कोमलता से कहा, शिष्य! स्पष्ट कर दूं कि मैं ब्रह्मराक्षस हूं किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूं। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव- जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहां विराजमान रहा।
तुम आये, मैंने तुम्हें बार- बार कहा, लौट जाओ। कदाचित् तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किन्तु मैंने तुम्हारी जीवन- गाथा सुनी। विद्या से वैर रखने के कारण, पिता-द्वारा अनेक ताडऩाओं के बावजूद तुम गंवार रहे और बाद में माता-पिता द्वारा निकाल दिये जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें ज्ञान- लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूं, साधु नहीं। सैंकड़ों मील जंगल की बाधाएं पार कर तुम काशी आये। तुम्हारे चेहरे पर जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।
अपने पिताजी और मांजी को प्रणाम कहना। शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आशीर्वाद का अन्तिम कर- स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहां से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो गया।
वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरू का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन ही मन गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गया।
मुक्तिबोध की यह कहानी
इस स्तंभ के अंतर्गत आप मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआं' पढ़ चुके हैं। दूसरे क्रम में गजानन माधव मुक्तिबोध की अत्यंत चर्चित और अविस्मणीय कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' दे रहे हैं। मुक्तिबोध की यह कहानी 1957 में नया खून में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर अब तक इस कहानी पर लगातार चर्चा हुई है। इस कहानी में फंतासी का प्रयोग युगांतकारी कवि कथाकार मुक्तिबोध ने खूबी के साथ किया है। ब्रह्मराक्षस का शिष्य में ही नहीं, उनकी लगभग अधिकांश कहानियों में उनकी महान कविताओं का अक्स उभर आता है। 'अंधेरे में' उनकी प्रसिद्ध कविता है, इसी शीर्षक से उनकी चर्चित कहानी भी है। हिन्दी, संस्कृत एवं उर्दू की काव्य पंक्तियों का प्रयोग मुक्तिबोधजी ने अपनी कथाओं में खूब किया है। मध्यकालीन कवियों तुलसी और कबीर पर मुक्तिबोध ने शोधपरक लेखन के साथ समकालीन कवियों पर भी उन्होंने बेहद उदारतापूर्वक लिखा है।
उनकी कहानियों में कविता का आस्वाद हमें मिलता है। ठीक उसी तरह उनकी कविताओं में कथा और उप- कथाओं का सम्मोहक सिलसिला लगातार आगे बढ़ता है। उनकी सुदीर्घ और लंबी कविताओं में हम कहानियों का रस भी पाते हैं। 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' मध्यमवर्गीय समाज के संघर्षों की अनोखी कहानी है। मुक्तिबोध ने लिखा है, 'हम केवल साहित्यिक दुनिया में ही नहीं, वास्तविक दुनिया में रहते हैं, इस जगत में रहते हैं।' प्रखर माक्र्सवादी रचनाकार गजानन मुक्तिबोध ने इस संसार में रहने वालों के बारे में अपनी आस्था और दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में जो कुछ लिखा वह युगांतरकारी सिद्ध हुआ। लगातार मुक्तिबोध जी का साहित्य खंगाला जा रहा है। संभवत: वे हिन्दी संसार के आधुनिक काल के सर्वाधिक चर्चित एवं सम्मानित शब्द साधक के रूप में सर्वप्रिय हैं और उनकी स्वीकृति दिनों- दिन बढ़ती ही जा रही है।
उन्हें मात्र 47 वर्षों का छोटा सा जीवन मिला। इसी जीवन काल के कुल 25-30 वर्षों का उपयोग उन्होंने लगातार लेखन के लिए किया। वे पल- प्रतिपल, सांस- सांस में संघर्षों और चुनौतियों को महसूस करते हुए जीते और लिखते रहे। 'ये गुएवारा' ने ठीक ही लिखा है- 'एक क्रांतिकारी चेतना वाले मनुष्य की नियति एक साथ बेहद गौरवशाली और यंत्रणादायिनी भी होती है।'
1917 में श्योपुर (ग्वालियर) में जन्मे मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन के अत्यंत महत्वपूर्ण सृजनात्मक वर्षों को राजनांदगांव छत्तीसगढ़ में बिताया। वे 1964 में दिवंगत हुए। इस महान कवि का समस्त गद्य लगभग 1700 पृष्ठों में फैला है। प्रस्तुत है उनकी यह प्रसिद्ध कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य'
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा , एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494