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Jun 5, 2010

उदंती.com, जून 2010


उदंती.com,
वर्ष 2, अंक 11, जून 2010
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प्रकृति अपनी उन्नति और विकास में रुकना नहीं जानती और अपना अभिशाप प्रत्येक अकर्मण्यता पर लगाती है। - गेटे
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धरती माता क्रोधित है

धरती माता क्रोधित है
डॉ. रत्ना वर्मा 

जैसा कि मालूम ही है कि यह वर्ष 2010 आजतक के जाने हुए इतिहास में सबसे अधिक गरम वर्ष रहा है, बताने की आवश्यकता नहीं क्योंकि इसे हम सब भुगत ही रहे हैं। जिससे मिलो यही कह रहा है कि अपने जीवन में आज तक ऐसी गर्मी हमने नहीं झेली। यह तो एक दिन होना ही था क्योंकि जिस प्रकार से हमने अपनी धरती माता का शोषण किया है- लगातार जंगल काटते चले गए हैं, नदियों को प्रदूषित किया है, पहाड़ उजाड़ कर दिए, खनिज और तेल के नाम पर उसे खोखला कर डाला, तो ऐसे में धरती मां हमें आशीर्वाद तो नहीं ही देगी। उसके अभिशाप स्वरुप इस वर्ष आइसलैंड में आए ज्वालामुखी के कारण पूरे यूरोप में कई हफ्तों तक वायुयान सेवाएं बंद कर देनी पड़ी थीं। पिछले पांच- छह महीनों में इंडोनेशिया में दो- तीन बार भयानक भूकंप आ चुका है, इससे सुनामी का खतरा पैदा हो गया। इसी महीने अंडमान निकोबार में 7.5 स्तर का भूकंप भी आया जिसके कारण भी सुनामी की आशंका पैदा हो गई थी। ये दूसरी बात है सुनामी नहीं आई।
पिछले दो महीने से मेक्सिको की खाड़ी में ब्रिटिश पेट्रोलियम समुद्र की तली से जो तेल निकाल रहा है उस पाइप लईन में छेद हो गया जिसके कारण नित्य हजारों बैरल तेल निकलकर समुद्र के पानी में मिल रहा है, जिसके कारण बड़ी संख्या में समुद्री जीव- जंतु और पक्षी मर रहे हैं, इससे संयुक्त राज्य अमेरीका के कई राज्यों में पर्यावरण का गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। स्थिति कितनी भयानक है वह इसी से समझा जा सकता है कि अमेरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की नींद हराम हो गई है।
हाल ही में योरोप और भारत के अध्ययन दल ने धरती का तापमान बढऩे और हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने के कारणों का अध्ययन करके जो जानकारी दी है वह दिल दहला देने वाली है। बताया गया है कि तापमान बढऩे के कारण ग्लेशियर के पिघलते चले जाने से नेपाल के अनेक छोटे- छोटे ताल- तलैये भारी झीलों में तब्दील हो गए हंै और यदि किसी चट्टान के सरकने से झील का पानी बहना शुरु हो गया तो नेपाल में ऐसी सुनामी आयेगी जिससे वहां की जनता, जीव- जंतु और वनस्पतियों का भारी विनाश होगा। तब बिल्कुल प्रलय का दृश्य होगा। और जहां तक हमारा सवाल है तो नेपाल की सीमाएं भारत से मिली होने और धरती का ढलान नेपाल से भारत की ओर होने के कारण नेपाल के भीतर की ये त्रासदी हमारे देश में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में विनाश का भयानक तांडव करेगी।
यद्यपि यह भी अकाट्य सत्य है कि धरती माता के साथ जब- जब भी दुव्र्यवहार हुआ है और विनाश के रुप में उसने अपना तांडव दिखाया है तो उस विनाश को रोकने के लिए मनुष्य को ही प्रयत्न करने पड़े हैं। बाढ़, भूकंप, तूफान जैसी आपदाओं से बचने के उपाय अपने स्तर पर मानव स्वयं और वहां की सरकारें करती हैं। लेकिन जो सरकारें अपनी करतूतों से इस तरह के विनाश को स्वयं ही आमंत्रित करती हैं भला उनसे किसी उचित कदम की कैसे उम्मीद की जा सकती है। हमारे देश में भोपाल गैस कांड जैसी दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना घट जाती है जिसमें हजारों की जान चली जाती है पर हमारी सरकारें हैं कि अपनी जनता के दुख- दर्द की चिंता करने के बजाए जिनके कारण यह भयावह दुर्घटना हुई है उनको ही बचाने में लगी रहती है। ऐसे में भला हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले विनाश को रोकने की दिशा में पहले से ही कोई कदम उठाने के बारे में सोचा जाएगा।
जैसा कि ऊपर शीर्षक में ही कहा गया है कि धरती माता क्रोधित है और स्थिति ऐसी हो गई है कि किसी के पास इसका जवाब नहीं है कि इस विषम स्थिति से कैसे उबरा जा सकता है। उत्तर तो हमारे पास भी नहीं है लेकिन धरती को तन- मन से मां मानने वाले हम और हमारे सुधी पाठकों का ये फर्ज हो जाता है कि अपने निजी स्तर पर धरती माता का सम्मान हम सोते जागते करें और सम्मान करने का यह तरीका है अपने जीवन में जितने भी हरे पेड़ लाग सकें लगाएं, जितने भी नदी, ताल- तलैयां हैं उन्हें प्रदूषण मुक्त रखें। जंगल पहाड़, झरने, अभयारण्य आदि सभी प्राकृतिक पर्यटन स्थलों पर पर्यटक बन कर तो जाएं पर उन जगहों की रक्षा करें वहां पर पॉलीथीन जैसा, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला कचरा फेंक कर धरती के संतुलन को न बिगाड़ें।
इस प्रकार के प्रयास से हम अपनी अगली पीढ़ी को संदेश दें कि धरती माता जो वास्तव में हमारी जगत माता है उसका सम्मान करना और उसके क्रोध को शांत करने के लिए सक्रिय कदम उठाना हम सबका धर्म है।

-डॉ. रत्ना वर्मा

मनोविज्ञान

हमारे मन का आईना है सपना
- रश्मि वर्मा
आप गहरी नींद में हैं अचानक आपकी चीख निकलती हैं और आप उठकर बैठ जाते हैं, आपके माथे पर पसीने की बूंदें पड़ जाती हैं। जागने का कारण जानने पर आपको पता चलता है कि आपने कोई बहुत ही डरावना सपना देखा है जिसकी वजह से आप जाग गए। इसी तरह कई बार सपने में आपको लगता है आप उड़ रहे हैं या आप समुद्र में डूब रहे हैं अथवा किसी ऊंचाई से गिरने वाले हैं या फिर कोई आपका पीछा कर रहा है और आप भागे चले जा रहे हैं पर आपको कोई राह नहीं सूझ रहा है, ऐसे समय में आप किसी को पुकारने के लिए जोर से चिल्लाना चाह रहे हैं पर आपके गले से आवाज ही नहीं निकलती ...
ये कुछ ऐसे बुरे सपने हैं, जिनसे अक्सर हर किसी का सामना कभी न कभी होता है।
वैज्ञानिक इंसान की प्रत्येक हरकत के कारणों को जानने की कोशिश में लगा रहता है। उन्हीं में से वह ऐसे सपनों के रहस्य को भी जानने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक सर्वे किया, जिसके अनुसार ऐसे दु:स्वप्नों का सीधा नाता आपके रोजमर्रा के कामकाज से नहीं है, बल्कि यह आपकी भावनाओं और चिंताओं से जुड़ा होता हैं।
शिकागो स्थित इंटरनैशनल असोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ ड्रीम्स ने करीब 2000 महिलाओं और पुरुषों से उनके सपनों के बारे में पूछा। इस दौरान इनके सपनों की थीम और उनकी भावनाओं व डर के बीच एक लिंक देखने को मिला। इनसे पता चला कि हर 10 में एक व्यक्ति को साल में बहुत बुरे सपने आते हैं। हर 20 में एक तो हर पखवाड़े ऐसे सपनों से डरकर उठ जाता है। अच्छी बात यह है कि सर्वे में 48 पर्सेंट लोगों ने दावा किया कि उन्हें कभी भी बुरे सपने नहीं आए।
डेली मेल के मुताबिक, बुरे सपनों में कम उम्र में बालों का झडऩा यानी एकदम गंजा हो जाना, दांतों का गिर जाना, बहुत ही कम उम्र में एग्जाम में बैठना भी काफी कॉमन है। पुरुषों में नौकरी से निकालने का डर सबसे ज्यादा होता है, तो महिलाओं में प्रियजन
को खोने और यौन उत्पीडऩ का डर सबसे ज्यादा होता है। वैसे गंजे होने या दांत टूटने का ज्यादा डर भी महिलाओं को ही होता है। इनमें नैन- नक्श को खो देना भी बुरे सपनों में अहम पायदान पर आता है। महिलाओं को बुरे सपने ज्यादा आने की वजह हार्मोन से जुड़ी हैं। वे अक्सर पीरियड से पहले हिंसक सपनों को देखती हैं।
डॉ. श्रेडल कहते हैं कि रात में किसी दैत्य के पीछा करने का सपना दरअसल यह दिखाता है कि दिन में आपको ऐसा काम करने को कहा जा रहा है, जो आपके मन का नहीं है। ड्रीम एक्सपर्ट डेविना मैकेल कहती हैं कि बुरे सपने आपकी जिंदगी का अनसुलझा पहलू है या कुछ ऐसी पहेलियां जो सुलझ नहीं सकीं। आप दिन में अपने आप से झूठ बोल सकते हैं, पर रात में सपनों में नहीं।
इन बुरे सपनों के अलावा यह भी सत्य है कि हम जागते हुए भी अपनी चाहतों को पूरा करने के लिए स्वप्न देखते हैं और अपनी जिंदगी में उस चाहे गए सपने को पूरा करने में लगन और धैर्य से लगे रहते हैं। ऐसे देखे जाने वाले सपनों का ही अंजाम है कि आज विश्व भर में अनेक महान लोगों ने अपने सपनों को अंजाम दिया।
तभी तो कहा गया है कि हर उपलब्धि पहले सपना होती है।
गेटे ने एक स्थान पर कहा है- 'हम अपने यथार्थ में नहीं, स्वप्न में जीते हैं। यदि स्वप्न की ज्योति बुझ जाए, तो हम भी पर्वतों की भांति जड़ हो जाएं। सचमुच, स्वप्नों के गर्भ में हमारे विकास के लिए अमृत- कुंड भरा है। इससे हमारी आशा, महत्वाकांक्षा, उत्साह, रुचि सबको प्राणरस मिलता है।' हमारे जीवन में आकांक्षा के जो भावचित्र बने हैं, यदि उनमें हमारे स्वप्नों की तूलिकाएं इंद्रधनुषी रंग न भरें, तो हमारा सारा जीवन एक असह्य भार बन जाए।
स्वप्न हमारे वास्तविक जग के भावात्मक अभावों की पूर्ति करते हैं और हमारे जीवन की कुरूपता को दूर करते हैं। छोटे-छोटे स्वप्न ही इतिहास को नया मोड़ देते हैं, नवीन क्रांतियों को जन्म देते हैं। अठारहवीं सदी की अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांतियों ने संसार के इतिहास को एक नया मोड़ प्रदान किया। पर उस काल के लोगों को ऐसा नहीं लगता था कि हम किसी ऐतिहासिक तथा क्रांतिकारी युग में रह रहे हैं। केवल हम लोग ही उसकी महत्ता को जान सकते हैं।
आज का युग भी निराशावादी नहीं। हम आज भी ऐसे काल में रह रहे हैं जिसे आगे चलकर हमारी संतानें अपूर्व और महान कहकर पुकारेंगी। आज का युग विनाशोन्मुख प्रतीत होता है, किंतु आज भी महान निर्माण के कार्य हो रहे हैं।
कुछ वर्ष पहले 'एक विश्व' की कल्पना एक स्वप्न-मात्र थी, पर आज सब राष्ट्र इतने घुल- मिल गए हैं, दूरी को वैज्ञानिक साधनों से इतना कम कर दिया गया है कि सब राष्ट्र पड़ोसी की भांति बन गए हैं। 'एक विश्व' की यह कल्पना पहले कुछ चुने हुए लोगों की आशा और स्वप्न- मात्र थी, आज भी स्वप्न को साकार होने में असंख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, किंतु हमें विश्वास करना चाहिए कि हमारी आशा और श्रद्धा इन कठिनाइयों पर विजय पा लेंगी।
यह तो एक मानी हुई बात है कि यदि हम अपने मन में सकारात्मक विचार लेकर जीवन को देखेंगे तो जाहिर है सपने में हम उसे पाते हुए देखेंगे। लेकिन यदि जीवन के प्रति हमारा नजरिया नकारात्मक होगा तो सपने डरावने ही आएंगे।
फिर भी सपनों की रहस्यमयी दुनिया को जानने समझने के प्रयास में दुनिया के वैज्ञानिक शोध करने में लगे रहते हैं। सपने ऐसे रहस्य हैं जिनसे वैज्ञानिक आज भी जूझ रहे हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में काफी प्रगति के बावजूद, हम अभी तक पूरी तरह से सपनों के रहस्य को समझ नहीं पाए हैं। लेकिन जब कभी आप सपने में अपनी चाहत को पूरा होते देखते हैं तो वह पूरा दिन आपका खुशगवार गुजरता है। तो क्यों न मन में अच्छी- अच्छी चाहत पालें और अच्छे सपने देखते हुए उन्हें पूरा करने में जीवन गुजारें। तब वैज्ञानिकों को यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मनुष्य के मन का आईना है सपना।
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कार्बन डाई ऑक्साइड के निपटारे के लिए

क्या अंतरिक्ष तक बनेगी चलित सीढ़ी?
- डॉ. अरविंद गुप्ते
आजकल दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर घमासान मचा हुआ है। कारखानों और वाहनों में जलने वाले जीवाश्म ईंधनों (कोयला और तेल) से ग्रीनहाउस गैसें बनती हैं। ये वातावरण में पहुंच पृथ्वी के तापमान को बढ़ाती हैं पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन ईंधनों का तुरंत कोई सस्ता विकल्प उपलब्ध नहीं है। आने वाले समय में शायद यह संभव हो सकेगा कि हम केवल हवा, पानी और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करें और जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बिलकुल न करें। किंतु फिलहाल तो कोयले और तेल के उपयोग से पूरी तरह छुटकारा पाना संभव नहीं है। अत: वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत विकसित करने के प्रयासों के साथ-साथ ये प्रयास भी किए जा रहे हैं कि ग्रीनहाउस गैसें, विशेष रूप से कार्बन डाई ऑक्साइड, का इस प्रकार निपटारा किया जाए कि ये वातावरण में न पहुंचे।
कार्बन डाई ऑक्साइड के निपटारे के लिए एक प्रयास अमरीका और कुछ अन्य देशों में किया जा रहा है। अमरीका की एक बड़ी विद्युत उत्पादन कम्पनी के द्वारा विकसित प्रक्रिया में विद्युत संयंत्रों की चिमनियों से निकलने वाली गैसों की अमोनिया के साथ अभिक्रिया बहुत कम तापमान पर करवाई जाती है। इसके फलस्वरूप इस धुएं में स्थित कार्बन डाई ऑक्साइड अमोनिया के साथ अभिक्रिया करके अमोनियम कार्बोनेट बनाती है। इसे बहुत अधिक दाब पर इतना सम्पीडि़त किया जाता है कि वह द्रव बन जाता है। इस द्रव को आठ हजार फीट गहरे कुएं में पंप कर दिया जाता है। इतनी अधिक गहराई पर यह द्रव चट्टानों में स्थित छिद्रों में भर जाता है और स्थाई रूप से भंडारित हो जाता है। इसे कार्बन पकड़ और भंडारण या सीसीएस प्रक्रिया कहते हैं।
यह प्रयोग अभी प्रारंभिक अवस्था में है और इससे कई सवाल जुड़े हुए हैं। पृथ्वी के गर्भ में अलग- अलग रासायनिक और भौतिक बनावट की चट्टानें होती हैं और द्रव के भंडारण की इनकी क्षमता भी अलग-अलग होती है। यदि किसी स्थान पर भूगर्भीय चट्टानों में यह क्षमता कम हुई तो परियोजना की लागत बढ़ जाएगी। दूसरा मुद्दा यह है कि कोयले से बनने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड का निपटारा भले ही हो जाए, किंतु कोयले को खदानों से निकालने और कोयले के जलने पर उडऩे वाली राख से पर्यावरण को पहुंचने वाली हानि को तो टाला नहीं जा सकता। तीसरा पहलू है लागत का- कार्बन डाई ऑक्साइड को द्रव में बदलने और फिर उसे गहरे कुओं के माध्यम से भूगर्भ में पहुंचाने की कीमत काफी अधिक होती है। इससे विद्युत उत्पादन की लागत भी बढ़ती है। इस प्रौद्योगिकी के साथ जुड़ा एक खतरा यह है कि जमीन के भीतर भंडारित कार्बन डाई ऑक्साइड दुर्घटनावश धमाके के साथ बाहर आ सकती है। किंतु ग्रीनहाउस गैसों के निपटारे के लिए दबाव इतना अधिक है कि विपरीत पहलुओं के बावजूद इस प्रौद्योगिकी को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्रौद्योगिकी पर तो काम शुरू हो चुका है, किंतु कार्बन डाई ऑक्साइड के निपटारे के लिए एक अन्य ऐसा सुझाव आया है जो बिलकुल विज्ञान कथा जैसा लगता है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आल्फ्रेड वॉग का प्रस्ताव है कि पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का एक चलित सीढ़ी के समान उपयोग करके वातावरण में स्थित कार्बन डाई ऑक्साइड को अंतरिक्ष में भेज दिया जाए ताकि वह कभी लौटकर न आ सके।
प्रोफेसर वॉग चाहते हैं कि यह सीढ़ी अलास्का में उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र में बनाई जाए। इसका कारण यह है कि उत्तर और दक्षिण दोनों ध्रुवीय प्रदेशों में पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र सीधे अंतरिक्ष में खुलता है। सूर्य से निकलने वाले कण एक धारा के रूप में इन क्षेत्रों में आ कर वातावरण से टकराते हैं। इस टकराहट के कारण ही ध्रुवीय प्रदेशों में ध्रुवीय ज्योति दिखाई देती है जो पृथ्वी पर अन्यत्र कहीं भी दिखाई नहीं देती। इन सूर्य कणों के साथ कई गिगावॉट विद्युत आती है जिसका उपयोग करके प्रोफेसर वॉग ग्रीनहाउस गैसों को कम करना
चाहते हैं।
इस योजना का आधार यह है कि कार्बन डाई ऑक्साइड के अणु स्वतंत्र इलेक्ट्रानों के साथ बंधना पसंद करते हैं। हवा में उपस्थित कार्बन डाई ऑक्साइड के कुछ ही अणुओं को इस प्रकार के इलेक्ट्रान मिल पाते हैं। परिणाम यह होता है कि कार्बन डाई ऑक्साइड के ये अणु ऋण आवेश धारण कर लेते हैं। दूसरी अच्छी बात यह है कि पूरी पृथ्वी के ऊपर खड़ी दिशा में एक नियत विद्युत क्षेत्र होता है। इस विद्युत क्षेत्र के कारण कार्बन डाई ऑक्साइड जैसे ऋणात्मक आवेश वाले आयन ऊपर की ओर जाने लगते हैं। शुरुआत में यह प्रक्रिया धीमी होती है क्योंकि अन्य अणुओं के साथ होने वाली टकराहट इन अणुओं को अपने पथ से भटकाती रहती है। किंतु कुछ दिनों के बाद जब वे लगभग 125 किमी ऊपर पहुंच जाते हैं तब वहां वातावरण इतना विरल होता है कि आयन स्वतंत्रतापूर्वक गति कर सकते हैं। इसके बाद वे पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र पर सवार होकर अंतरिक्ष की ओर अपनी एकदिशा यात्रा शुरू करते हैं।
ध्रुवों के ऊपर चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएं लगभग सीधी नीचे से ऊपर की दिशा में होती हैं। जब कोई आवेशित कण चुम्बकीय क्षेत्र में होता है तब वह सर्पिल गति करता हुआ बल रेखाओं के ऊपर से गति करता है। 125 कि.मी. की ऊंचाई पर कार्बन डाई ऑक्साइड आयन एक सेकंड में 17 बार घूमता है।
किंतु जैसे-जैसे वह ऊपर की ओर बढ़ता है, क्षेत्र कमजोर होता जाता है। इसके चलते उसे प्रति सेकंड कम चक्कर लगाने पड़ते हैं। ऐसा चुम्बकीय संवेग संरक्षण के नियम के कारण हाता है। चूंकि उसकी गतिज ऊर्जा कम नहीं हो सकती, क्षेत्र की दिशा में उसकी गति बढ़ती चली जाती है। अंतत: वह अंतरिक्ष में चला जाता है।
सवाल यह है कि क्या कार्बन डाई ऑक्साइड के अणुओं को पर्याप्त संख्या में अंतरिक्ष में धकेला जा सकता है? प्रोफेसर वॉग सोचते हैं कि यह संभव है। धकेलने की यह क्रिया दो चरणों में होगी। सबसे पहले कार्बन डाई ऑक्साइड का बड़ी मात्रा में आयनीकरण करना होगा। डा. वॉग का सुझाव है कि शक्तिशाली ले$जर की मदद से अंतरिक्ष में स्थित धूल कणों को उत्तेजित करके इलेक्ट्रान उपलब्ध हो जाएंगे जो कार्बन डाई ऑक्साइड के साथ मिलकर आयन बना लेंगे।
अब इन आयनों को 17 साइकल प्रति सेकंड वाली रेडियो तरंगों से उचित ऊंचाई पर भेजा जाएगा। एक बार वहां पहुंचने पर इन आयनों की सर्पिल गति को सूर्य से आने वाले आवेशित कणों की ऊर्जा मिल सकेगी और उनकी गति बढ़ जाएगी। संभाव्यता आधारित अनुनाद नामक प्रक्रिया के कारण यह संभव हो पाता है। घूमने वाले अणुओं को ऊर्जा पाने में इसलिए प्राथमिकता मिलती है कि शेष अणु बेतरतीबी से गति करते होते हैं। जब इन अणुओं की गति बढ़ जाएगी तब वे बल रेखाओं पर होते हुए अंतरिक्ष में चले जाएंगे।
डा. वॉग ने इस परियोजना लिए जरूरी ऊर्जा की गणना की है। इसके अनुसार यदि लेजर और रेडियो ट्रांसमिटरों को जीवाष्म ईंधनों से बनी विद्युत से चलाना भी पड़े तो भी इससे जितनी कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में पहुंचेगी उससे कई गुना अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण से बाहर यानी अंतरिक्ष में भेजी जा सकेगी। उनके अनुसार वातावरण में स्थित कार्बन डाई ऑक्साइड में पर्याप्त कमी करने के लिए केवल कुछ दर्जन मेगावाट विद्युत की ही आवश्यकता होगी। डा. वॉग ठीक- ठीक यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि यह कमी कितनी होगी, किंतु वे मानते हैं कि यह इतनी होगी कि वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा काफी कम हो जाएगी। (स्रोतफीचर्स)

मनोरंजन


मिक्स मसाला का दौर 
जहाँ खबरें बिकती हैंन
-संजय द्विवेदी
खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नजर से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नजरिया बनाए। अब नजरिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है।
भरोसा नहीं होता कि खबरें इतनी बदल जाएंगीं। समाचार चैनलों पर खबरों को देखना अब मिक्स मसाले जैसे मामला है। खबरिया चैनलों की होड़ और गला काट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर का ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी। आज यह कहना मुश्किल है कि आप समाचार चैनल देख रहे हैं या कोई मनोरंजन चैनल। कथ्य और प्रस्तुति के मोर्चे पर दोनों में बहुत अंतर नहीं दिखता।
मनोरंजन चैनल्स पर चल रहे कार्यक्रमों के आधार पर समाचार चैनल अपने कई घंटे समर्पित कर रहे हैं। उन पर चल रहे रियालिटी शो, नृत्य संगीत और हास्य-व्यंग्य के तमाम कार्यक्रमों की पुन: प्रस्तुति को देखना बहुत रोचक है। समाचारों की प्रस्तुति ज्यादा नाटकीय और मनोरंजक बनाने पर जोर है। ऐसे में उस सूचना का क्या हो जिसके इंतजार में दर्शक न्यूज चैनल पर आता है।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नजर से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नजरिया बनाए। अब नजरिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस खबर को किस नजरिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। खबर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, खबर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ खबर तक नहीं है। खबर तो कहीं दूर बहुत दूर, खड़ी है... ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप खबर को इस नजर देखिए। वह यह भी बताता है कि इस खबर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं! वह यह भी जोड़ता है कि यह खबर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और खबर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहां खबर अपना असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्ला बोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहां से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर खबर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ में है कोई जादुई निदेशक। खबर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसर्गिक विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए। समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियां, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रुपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियां, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने 'मेघा रे मेघा' नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोडऩा तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन खबर देखी गई और महसूस भी की गई।
कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी का स्वयंवर, करीना सैफ की प्रेम कहानियों से आगे भी जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा। सलमान और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नजर डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आंखों से वे किसी खबरनवीस की आंखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुंचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, मांग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई खबरों ने हमसे मुंह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/ चैनल की ही चर्चा हो।
इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नजरिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई खबर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही। एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहां जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। खबरें भी हमारा मनोरंजन करें, यह एक नया सच हमारे सामने है। खबरें मनोरंजन का माध्यम बनीं, तभी तो बबली और बंटी एनडीटीवी पर खबर पढ़ते नजर आए। टीआरपी के भूत ने दरअसल हमारे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसलिए हमारे चैनलों के नायक हैं- राखी सावंत, बाबा रामदेव और राजू श्रीवास्तव सुनील पाल। समाचार चैनल ऐसे ही नायक तलाश रहे हैं और गढ़ रहे हैं। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं। 'भोगो और मुक्त हो,' यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे 'मर्द' की आंख का आकर्षण बनें यही टीवी न्यूज चैनलों का मूल विमर्श है।
जीवन शैली अब 'लाइफ स्टाइल' में बदल गयी है। बाजारवाद के मुख्य हथियार 'विज्ञापन' अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं। नग्नता ही स्त्री स्वातंत्रय का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊंची-ऊंची इमारतें, डिजाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह। इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसते न्यूज चैनल एक ऐसी दुनिया रच रहे है जहां बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग। अब तो यह कहा जाने लगा है खबर देखनी है तो डीडी न्यूज पर जाओ, कुछ डिबेट देखनी है तो लोकसभा चैनल लगा लो। हिंदी के समाचार चैनलों ने यह मान लिया है हिंदी में मनोरंजन बिकता है। अंधविश्वास बिकता है। बकवास बिकती है। सौंदर्य बिकता हैं। हालांकि इसके लिए किसी समाचार समूह ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया है। किंतु यह आत्मविश्वासहीनता न्यूज चैनलों और मनोरंजन चैनलों के अंतर को कम करने का काम जरूर कर रही है। विचार के क्षेत्र में नए प्रयोगों के बजाए चैनल चमत्कारों, हाहाकारों, ठहाकों, विलापों की तलाश में हैं। जिनसे वे आम दर्शक की भावनाओं से खेल सकें। यह क्रम जारी है, जारी भी रहेगा। जब तक आप रिमोट का सही इस्तेमाल नहीं सीख जाते, तब तक चौंकिए मत क्योंकि आप न्यूज चैनल ही देख रहे है।

संपर्क- अध्यक्ष, जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र) मोबाइल नं.- 098935-98888
e-mail- 123dwivedi@gmail.com, Web-site- www.sanjaydwivedi.com

गर्मी और प्रदूषण दोनों से राहत देने वाला

कुदरती एयरकंडीशनर
- विकास तिवारी
कुदरत की शक्ति में ही बेहतर एयरकंडिशनिंग का विचार निहित है। खासकर सूरज की तपिश में। उन्हें दस साल से ज़्यादा समय के बाद इस सवाल का एक जवाब मिल ही गया कि आखिर रात के प्राकृतिक समय की ठंड को कैसे कैद किया जाए और बाद में इसका इस्तेमाल इमारत को गर्म रखने के लिए किया जाए।
ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते दिन-ब-दिन बढ़ रही गर्मी के कारण आज पूरी दुनिया में एयरकंडीशनर की मांग तेजी से बढ़ती जा रही है। परंतु वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले एयरकंडीशनर भी प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले ही होते हैं। लेकिन हमें खुश इसलिए होना चाहिए क्योंकि जर्मनी के वैज्ञानिकों ने इको फ्रेंडली एयरकंडीशनर बनाने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया है।
म्युनिख में फ्राउएनहोफर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने एक हाईटेक बिल्डिंग मटैरियल तैयार किया है। ये असल में मोम की नन्हीं गिट्टियां हैं जो दीवारों में पैबस्त कर दी जाएं तो बन जाता है इको फ्रेंडली एयरकंडीशनर। इमारतों और मकानों के निर्माण में जो बात अब ध्यान दी जाने लगी है कि गर्मियों के मौसम में अंदर का तापमान कैसे ख़ुशनुमा रखा जाए। ग्लोबल वॉर्मिंग की चिंताओं के बीच गर्मियों में मौसम में ऊंचे तापमान रिकॉर्ड किए जा रहे हैं और एसी की खपत बढ़ गई है लेकिन इस वजह से खतरा भी बढ़ गया है, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का।
पर्यावरण से जुड़ी इसी चिंता को दूर करने की दिशा में फ्राउएनहो$फर इन्स्टीट्यूट फॉर सोलर एनर्जी सिस्ट्मस आईएसई में कार्यरत प्रोफेसर फोल्कर विटवर के दिमाग में यह विचार आया, जिनका मानना है कि कुदरत की शक्ति में ही बेहतर एयरकंडिशनिंग का विचार निहित है। खासकर सूरज की तपिश में। उन्हें दस साल से ज़्यादा समय के बाद इस सवाल का एक जवाब मिल ही गया कि आखिर रात के प्राकृतिक समय की ठंड को कैसे कैद किया जाए और बाद में इसका इस्तेमाल इमारत को गर्म रखने के लिए किया जाए।
अपने सहयोगी पीटर शौशिग के साथ प्रोफेसर विटवर ने लेटेंट हीट सेवर्स पर काम शुरू किया। इनका इस्तेमाल मोम, खासकर पैरेफिन के साथ किया जाता है। कमरे की असहनीय गर्मी को काबू में करने के लिए ये पदार्थ दीवारों में गर्मी को कैद कर लेते हैं और उसे इधर-उधर फैलने से रोकते हैं।
असल में ये काम भौतिकी के उस नियम के तहत होता है जैसा एक ग्लास में बर्र्फ के एक टुकड़े के पिघलते समय देखा जाता है। आइस क्यूब को जब गर्म किया जाता है तो वह पिघलने लगती है। लेकिन उसके आसपास का पानी तभी गर्म होता है जब बर्फ का आखिरी कण पिघल जाता है।
वैक्स के इन कैपश्यूलों को रात में ठंडा और सख्त होना होता है ताकि अगले दिन वे फिर से काम कर सकें। इसका मतलब ये हुआ कि ट्रॉपिकल इलाकों में ये बहुत कारगर नहीं हैं, जहां तापमान बहुत स्थिर रहता है। लेकिन वैज्ञानिक एक ऐसे सिस्टम पर काम कर रहे हैं जहां कैपश्यूलों को दीवार पर पानी के छिड़काव से ठंडा रखा जा सकता है।
विटवर के अनुसार कैपश्यूलों का इस्तेमाल कूलिंग के दूसरे उद्देश्यों के लिए किया जाता है। उनका कहना है कि कई चादरों और डाइविंग पोशाकों में इसका इस्तेमाल होता है। आने वाले समय में इलेक्ट्रिक कारों में भी कूलिंग बैटरियों में इन कैपश्यूलों का इस्तेमाल किया जा सकता है। मौसम के बढ़ते तापमान को देखते हुए यही उम्मीद की जानी चाहिए कि यह इको फ्रेंडली एयरकंडीशनर शीघ्र ही बाजार में आए ताकि गर्मी और प्रदूषण दोनों से हमें राहत मिले।

मेरे देश की धरती सोना उगले..


- शास्त्री जे सी फिलिप
भारत एक समृद्ध देश था जिस कारण लगभग 3000 साल तक यह विदेशी व्यापारियों को आकर्षित करता रहा। लोग इसे लगभग 1200 साल लूटते रहे जो इस बात को याद दिलाता है कि हिन्दुस्तान कितना समृद्ध था।
बचपन में बड़े उत्साह से हम लोग गाते थे 'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती'। हमारे अध्यापक तब बताते थे कि किसी जमाने में हिन्दुस्तान को 'सोने की चिडिय़ा' कहा जाता था।
अंग्रेजों के राज (और सफल ब्रेनवाशिंग) के साथ- साथ राष्ट्र के प्रति हमारा गर्व ऐसा गायब हुआ कि भारत के प्राचीन वैभव और संपन्नता के बारे में कोई कहता है तो नाक भौं सिकोडऩे वाले भारतीयों की संख्या अधिक होती है। यहां तक कि भारत संपन्न नहीं था यह कहने के लिये आज लोग बहुत मेहनत कर रहे हैं।
लेकिन भारतीय सिक्कों एवं भारत में मिले विदेशी सिक्कों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कम से कम ईसा-पूर्व 2000 से लेकर ईसवी 1800 तक भारत आर्थिक रूप से बेहद संपन्न था। इन 3800 सालों में हिन्दुस्तान में सोने और चांदी के जितने सिक्के ढाले गये थे उनकी संख्या अनगिनत है। सन 600 से लेकर 1947 तक विदेशियों के हाथ लुटते पिटते रहने के बावजूद अभी भी लाखों बड़े- छोटे सोने के सिक्के भारत में बचे हुए हैं।
केरल जैसे छोटे प्रदेश में सोने के कम से कम दस- बीस बड़े प्रकार के सिक्के और सैकड़ों प्रकार के छोटे सिक्के (0.4 ग्राम के) और चांदी के बड़े- छोटे मिलाकर सैकड़ों प्रकार के सिक्के यहां के राजाओं ने चलाये थे। जिनकी आज की अनुमानित कीमत 100,000 रुपये या उससे ऊपर है। जब सिक्कों के एक विक्रेता को मेरी सिक्का शास्त्र अभिरुचि के बारे में पता चला तो मुझे घर बुला कर ले गये और केरल के राजाओं के कम से कम दस प्रकार के सोने के सिक्के मुझे दिखाये। यही नहीं मेरे अनुरोध पर सब को स्केन करके उनके चित्र मेरे उपयोग के लिये प्रदान भी किया।
भिखारी को कोई नहीं लूटता। संपन्न को ही लूटा जाता है। भारत को तो लगभग सन् 600 से 1947 तक लूटा गया था, उसके बावजूद यह संपदा (सोने के हजारों प्राचीन सिक्के मेरी जानकारी में है, लेकिन असली संख्या लाखों में है) बची है। अनुमान लगा लीजिये कि यह सोने की चिडिय़ा नहीं सोने का हाथी था।
भारत एक समृद्ध देश था जिस कारण लगभग 3000 साल तक यह विदेशी व्यापारियों को आकर्षित करता रहा। लोग इसे लगभग 1200 साल लूटते रहे जो इस बात को याद दिलाता है कि हिन्दुस्तान कितना समृद्ध था।
मेरे कई मित्रों ने समृद्धि की बात को स्वीकार तो किया लेकिन उसके साथ यह जोड़ दिया कि प्राचीन भारत में थोड़े से लोग समृद्ध थे, बाकी सब कंगाल थे। इस प्रस्ताव ने मुझे इतना झकझोर दिया कि पिछले दिनों सारा समय भारत के इतिहास को पढऩे में लगाया।
चूंकि मेरा मूल आलेख केरल के सोने के सिक्कों के बारे में था, अत: मैंने केरल के इतिहास को काफी विस्तार से पढ़ा।
प्राचीन भारत के इतिहास को वस्तुनिष्ठ तरीके से पढें़ तो एकदम यह स्पष्ट हो जाता है यह देश धनधान्य से, खेतीबाड़ी से, खनिज पदार्थों द्वारा एवं नदी-नालों की संपदा (सोना, बहुमूल्य पत्थर आदि) से भरपूर था। धनी- गरीब का अंतर जरूर था, लेकिन
गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी खेतीबाड़ी और पेशेवर काम इतना रहता था कि आज जो 'विषमता' दिखती है इतनी विषमता नहीं थी।
दरअसल देश के गरीब किसी जमाने में आज के समान गरीब नहीं थे। उनको खेतीबाड़ी, पेशेवर धंधों, एवं जंगल- खनिज- नदी नालों द्वारा रोजीरोटी की उपलब्धि इतनी अधिक थी कि गरीब व्यक्ति के पास परिवार को पालने- पोसने के लिये लगभग वह सब कुछ था जिसकी जरूरत थी। जनसंख्या कम थी, रोजीरोटी के संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे।
आज जो आर्थिक विषमता दिखती है इसका मूल कारण विदेशी लुटेरों के द्वारा पिछले 300 सालों में की गई लूट एवं उसके कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियां हैं। भारत वाकई में सोने की चिडिय़ा थी, एवं आज जो आर्थिक विषमता हम देखते हैं यह एक प्राचीन नहीं बल्कि अर्वाचीन स्थिति है जिसका मूल कारण यूरोपियन साम्राज्यवादियों द्वारा की गई लूट-खसोट एवं सामाजिक परिवर्तन है।
यहां एक बात स्पष्ट करना जरूरी है जहां भी किसी चीज को अर्जित की सुविधा दी जाती है, वहां कहीं भी हर व्यक्ति एक समान अर्जित नहीं कर पाता। अत: एक ही अध्यापक के पढ़ाये विद्यार्थी जिस तरह पोजीशन से लेकर फेल होने तक के अंक अर्जित करते हैं, उसी तरह संपत्ति के अर्जित करने की स्थिति है। धनी एवं गरीब का अंतर हमेशा रहेगा। लेकिन यदि गरीब को अपने स्तर पर पर्याप्त रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा मिलती है तो उस समाज को बुरा नहीं कहा जा सकता है। आर्थिक स्थिति तब बुरी हो जाती है जब गरीब के पास अपनी मौलिक जरूरतों की आपूर्ति के लिये कोई रास्ता या साधन न बचे, जैसा आज करोड़ों भारतीयों के साथ हो रहा है।
प्राचीन भारत में धनी- गरीब का अंतर जरूर था, लेकिन गरीब से गरीब व्यक्ति के पास अपनी मूलभूत जरूरतों की आपूर्ति के लिये जमीन, खेती, जंगल से प्राप्त सामग्री आदि उपलब्ध थे। जलाऊ लकड़ी की कोई कमी नहीं थी। बाजार या हाट में वह अन्न, उपज, या जंगल-जमीन से प्राप्त की हुई चीजों के विनिमय के द्वारा अपनी जरूरत की चीजें प्राप्त कर लेता था।
दास या गुलाम शब्द एकदम से अभागों का चित्र हमारे समक्ष लाता है। लेकिन यह न भूलें कि शोषित एवं बंधुआ दास या गुलाम एक अर्वाचीन प्रक्रिया है, प्राचीन नहीं। प्राचीन समाज में दास और गुलाम को पर्याप्त सुरक्षा मिल जाती थी। (अपवादों को छोड़ें क्योंकि अपवाद हमेशा संख्या में न्यून होते हैं)।
प्राचीन केरल का उदाहरण लें तो यहां उपजाऊ भूमि इतनी प्रचुर थी कि हर किसी को अपने जरूरत की पूर्ति का अवसर मिल जाता था। इतना ही नहीं, काली मिर्च, इलायची, अदरख, दालचीनी आदि की खेती आम थी और इनको विदेशी व्यापारी हाथों हाथ खरीद ले जाते थे। काली मिर्च की खेती इतनी आसान है कि कोई भी व्यक्ति अपने घर जमीन में बीस- तीस बेल लगा सकता है, और आजीवन फल लेता रह सकता है। तब इससे इतनी आय होती थी कि कालीमिर्च को उस जमाने में काला-सोना कहा जाता था।
केरल में अरब, पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश लोग सिर्फ इस काले-सोने के लिये आये थे और आपस में मारा- मारी करते थे। केरल की जनता के लिये जबकि काली मिर्च एक आम चीज है, एवं खेती बहुत आसान है। कुल मिला कर कहा जाये तो हिन्दुस्तान वाकई में सोने की चिडिय़ा थी जिसे लूटने के लिये दुनियां भर के लोग लालायित रहते थे।

क्या मनुष्य ईश्वर बनना चाहता है?

अमरीका में वैज्ञानिकों के एक दल ने प्रयोगशाला में कृत्रिम जिंदगी पैदा करके दुनिया के सामने एक हतप्रभ कर देने वाला करिश्मा पेश कर दिया है। ये वैज्ञानिक न सिर्फ जेनिटिक इंजीनियरिंग के जरिए जीवन की कृत्रिम नकल तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वह ईश्वर की भूमिका अदा करने की ओर भी बढ़ रहे हैं।
सिंथेटिक जीनोम से नियंत्रित होने वाली पहली बैक्टीरिया कोशिका तैयार करने वाले मैरीलैण्ड और कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों की टीम में तीन वैज्ञानिक भारतीय मूल के हैं। चौबीस सदस्यीय इस शोध दल के मुखिया डॉ. क्रेग वेन्टर हैं। भारतीय मूल के तीन वैज्ञानिक संजय वाशी, राधाकृष्ण कुमार और प्रशान्त पी. कुमार भी इस टीम के सदस्य हैं। ये वही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने इसके पहले मानव जीनों को श्रृंखलाबद्ध करके उन्हें डिकोड किया था।
शोध पर करीब 30 मिलियन डॉलर की लागत आई है और इस कृत्रिम कोशिका को बनाने में 15 साल लगे हैं। पूरी तरह सिंथेटिक क्रोमोसोम से तैयार की गई यह कोशिका चिकित्सा विज्ञान जगत में अद्भूत खोज साबित होगी।
वैज्ञानिकों ने एक बैक्टीरिया कोशिका के जीनोम का निर्माण किया है। इसके लिए उन्होंने 'माइक्रोप्लाज्मा माइकॉइड्स' नामक बैक्टीरिया के डीएनए को 'पढ़ा'। यह वह बैक्टीरिया है जो बकरियों को इन्फेक्ट करता है। वैज्ञानिकों ने डीएनए के एक-एक हिस्से को पुनर्निर्मित किया और फिर इन टुकड़ों को एक साथ जोड़कर उन्हें एक-दूसरी प्रजाति के बैक्टीरिया में प्रविष्ट कर दिया। वहां जाकर इस डीएनए में जीवन का अनुकरण शुरू हो गया, जिसकी बदौलत बैक्टीरिया ने मल्टीप्लाई करना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में उस बैक्टीरिया की कई पीढिय़ां तैयार हो गईं, जो पूरी तरह कृत्रिम थीं। बैक्टीरिया में हस्तांतरित डीएनए में करीब 830 जीन थे, जबकि मनुष्य के जेनेटिक ब्लूप्रिंट में करीब 20000 जीन होते हैं।
वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में उत्पन्न जीवन का नाम 'सिंथिया' रखा है। डॉ. वेंटर ने इस प्रक्रिया की तुलना कंप्यूटर की बूटिंग से की है। अब चूंकि डॉ. वेंटर ने अपने कॉन्सेप्ट को व्यावहारिक तौर पर सिद्ध कर दिया है, इसलिए वह जीवन के बेसिक ब्लूप्रिंट में रद्दोबदल करके अपनी मर्जी से किसी भी प्रकार के जीव रूप का निर्माण कर सकते हैं। जैसे कि घोड़े जैसी ताकत वाला मनुष्य या मनुष्य की तरह सोचने वाला चूहा या बीस पैरों वाला हाथी। डॉ. वेंटर का मानना है कि सिंथिया का निर्माण वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे जीवन और उसकी कार्यपद्धति के बारे में हमारी सारी धारणाएं बदल गई हैं।
डॉ. वेंटर के अनुसार इससे नई औद्योगिक क्रांति आ सकती है अगर हम इन कोशिकाओं का इस्तेमाल कामकाज में कर पाएं तो उद्योगों में तेल पर निर्भरता कम हो जाएगी और वातावरण में कार्बन डाईआक्साईड भी कम हो सकती है। यह मानव और प्रकृति के बीच नया रिश्ता बनाने में महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी। इससे कैंसर सहित कई रोगों की दवाएं, ईधन बनाने और ग्रीन हाउस गैसों को रोकने में मदद मिलेगी। जैव ईधन तैयार करने में मददगार और पर्यावरण को दूषित करने वाले कारकों को समाप्त करने में सक्षम बैक्टीरिया भी बनाए जा सकते हैं।
प्रयोगशाला में विकसित इन शुक्राणुओं का गर्भ धारण कराने में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। क्योंकि ब्रिटेन में इसकी अनुमति नहीं है और इस पर कानूनन पाबंदी है। इन शुक्राणुओं का आगे कोई उपयोग हो सके, इसके लिए जरूरी है कि पहले उन भ्रूणों की गारंटी दी जाए जिनसे स्टेम कोशिकाएं लेकर शुक्राणु बनाए जाते हों। वैज्ञानिकों का कहना था कि ये चिंता करना कि हमारा मकसद इन शुक्राणुओं के इस्तेमाल से बच्चे पैदा करने का है, गलत है। हम जो कर रहे हैं वह पुरूषों में बंध्यता की समस्या को समझने की, शुक्राणुओं के विकास को समझने की कोशिश है।
लेकिन इस प्रयोग पर नैतिकता का सवाल उठाने वाले लोगों का कहना है कि इससे वैज्ञानिकों को 'भगवान की भूमिका' अदा करने की छूट मिल जाएगी। इस रिसर्च टेक्नॉलाजी के गलत हाथों में पडऩे का खतरा भी तो हो सकता है। मसलन नई तकनीक के जरिए जैविक हथियारों का निर्माण किया जा सकता है या जीवन के मौलिक स्वरूप से छेड़छाड़ की जा सकती है। संभव है कोई ऐसे जीवों का निर्माण होने लगे जो जुओं की तरह दुश्मन देश के नागरिकों के सिरों में डाल दिए जाएं और वे अपने जहरीले उत्सर्जन से दिमाग को नष्ट कर दें। वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले जब कृत्रिम मानव क्लोन बनाया था, तो उस समय भी उसके दुष्परिणामों को लेकर चिंता जताई गई थी। सुरक्षा कारणों को देखते हुए अमरीकी प्रशासन भी इसमें पूरी दखल दे रहा है। ओबामा ने राष्ट्रपति आयोग को इस विषय पर पूरी जानकारी रखने के निर्देश भी दिए हैं, ताकि इसके गलत इस्तेमाल को रोका जा सके।

पानी बचाने के लिए बिल

- सुजाता साहा
पानी बचाने के लिए अब तक सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर वैसे ठोस प्रयास नहीं किए गए जो पानी की कमी को देखते हुए करना चाहिए था। लेकिन जब मामला बहुत ही गंभीर हो गया तो अब जाकर पानी की बर्बादी को रोकने के लिए सरकार ने पानी पर भी बिजली की तरह मीटर लगाने का प्रावधान रखने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरु कर दिया है।
लोग बिजली के बिल के रूप में जब मोटी रकम चुकाते हैं तब कहीं जा कर वे बिजली के महत्व को समझ पाते हैं और बिजली का खर्च सोच समझकर आवश्यकता के अनुसार करते हैं, लेकिन पानी के मामले में ऐसा नहीं है। इसी मामले को सुलझाने के लिए तथा अनावश्यक बहते पानी पर अंकुश लगाने के लिए बिजली की तरह ही पानी के लिए भी मीटर लगाए जाने पर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा विचार किया गया है और कहीं- कहीं तो यह लागू भी हो गया है। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी इस बात को गंभीरता से लिया है।
केंद्र सरकार द्वारा उपयोग के आधार पर बिल भुगतान करने की पेयजल व्यवस्था को लेकर दी गई गाइड लाइन के अनुसार भिलाई नगर निगम ने कार्य भी शुरु कर दिया है।
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या केंद्र के मापदंड के मुताबिक बेहतर पेयजल व्यवस्था लागू हो पाएगी। मापदंड के अनुसार उस क्षेत्र में नल कनेक्शन सौ फीसदी रहना चाहिए। वाटर सप्लाई लीकेज रहित होना चाहिए। पानी की क्वालिटी निर्धारित मापदंडों के अनुरूप होनी चाहिए। नान रेवेन्यु वाटर कम से कम अर्थात 10 फीसदी से कम होनी चाहिए। निगम 24 घंटे पानी सप्लाई करने में सक्षम हो।
यह सोचना कि इन मापदंडों पर राज्य सरकारें खरी उतरेंगी या नहीं यह दूर की बात है फिलहाल तो खुश होना चाहिए कि इस योजना के लागू होने से पानी की महत्ता के प्रति लोग जागरूक हों।
क्योंकि अब यहीं एकमात्र सबसे कारगर तरीका बच गया है ताकि लोग पानी की मितव्ययता को समझ सकें। अब तक होता यही था कि घरों में पानी के उपयोग पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं था। कितना भी पानी का उपयोग करे या फिर पीने के पानी से अपनी गाडिय़ां धोएं, घर का आंगन धोएं या फिर नल चालू है तो चालू ही रहने दें, उन्हें तो साल में पानी के लिए एक निर्धारित रकम ही नगर निगम को देनी पड़ती है।
लेकिन अब बिजली की तरह जब पानी का बिल भी उनके घर हर माह आयेगा तब तो वे पानी के महत्व को समझेंगे। इस प्रकार से लोग सोच समझकर बिल के भय से जरूरत के मुताबिक पानी का उपयोग कर सकेंगे।
अब सोचने वाली बात यह है कि पानी जैसी जीवनदायी आवश्यकता को लेकर पक्ष- विपक्ष राजनीति करेगा या इस विषय पर गंभीरता से विचार करते हुए पानी बचाने की मुहिम में अपनी अह्म भूमिका निभाएगा। आप सब भी इस विषय पर जरा सोचें? कहीं ऐसा न हो कि राजनीतिक लाभ- हानि के फेर में पड़कर एक अच्छी सोच ठंडे बस्ते में चली जाए।

एक सुंदर स्वप्न समाप्त हो गया

- राजीव कुमार धौम्या
किले के अंदर मैं एक आंख, एक पैर वाले 80 से अधिक घावों से भरे शरीर से राणा सांगा को वीरता से लड़ते हुए अपने मस्तिष्क पटल पर देख रहा था। भामाशाह का निवास देखकर मेरा सिर श्रद्धा से झुक गया।
राजस्थान की यह यात्रा कई बरसों पूर्व की गई थी, पर आज भी वहां देखे भव्य किले, राजा महाराजाओं के राजसी ठाठ- बाठ, उनकी वीरता की कहानियां और वहां का प्राकृतिक सौंदर्य सब कुछ आंखों के सामने आ जाता है। और मैं उस यात्रा की यादों को आंखें बंद करके उसे फिर से जी लेता हूं।
हम लोग दिल्ली से प्रात: 7 बजे एक 13 सीट वाली मर्सिडीज बेन्ज से जयपुर के लिए रवाना हुए। वहां दोपहर 12.30 पर पहुंचे और सीधे आमेर का किला देखने गये। किला बहुत सुन्दर बना है पर 45 डिग्री सेल्सियस तापमान में भरी दोपहर में बेहद गर्मी थी। पत्थरों से भी गर्मी निकल रही थी। लंच लेकर और कुछ देर आराम करने के बाद हम शहर में हवा महल, सिटी पैलेस और जन्तर मन्तर देखने निकल पड़े। जयपुर के जन्तर-मन्तर की तुलना में दिल्ली का जन्तर-मन्तर कुछ भी नहीं है। सिटी पैलेस भी बहुत भव्य है। इन इमारतों से जयपुर के राजाओं (मुगलों के दास) के राजसी ठाट-बाट काफी स्पष्ट प्रतीत हो जाते हैं। वर्तमान महाराजा का चन्द्रमहल तो जनता के लिए बंद है।
दूसरे दिन सुबह 7 बजे चित्तौड़ के लिए प्रस्थान किया। अजमेर में नाश्ता करने के बाद करीब 4 घंटे चलते रहने पर भीलवाड़ा पहुंचने तक मार्ग में न तो कोई वनस्पति, ना ही कोई गांव। कहीं कोई झोपड़ी दिख जाये तो और बात है। पूरा दृश्य ऐसा लगता था जैसे हम मंगल ग्रह पर चल रहे हों। रास्ते में 12-14 साल के सुन्दर चरवाहे बालकों ने उनके पास जल होने का संकेत दिया। जब हमारे ड्राइवर ने 90 कि.मी. की रफ्तार से भागती गाड़ी को रोका तो वह सब डर कर भाग गये। मुझे उन पर बहुत तरस आया। भीलवाड़ा एक बड़ा औद्योगिक नगर है जहां फिर से मानव दिखलायी पड़ते हैं। किसी प्रकार हम लोग 2 बजे चित्तौड़ पहुंचे।
अपरान्ह में हम लोग 4 बजे किला देखने निकले। चित्तौड़ में सिर्फ किला ही देखने योग्य है। किला एक पहाड़ के ऊपर बना है। पहाड़ एक व्हेल जैसी मछली के आकार की है। किले में पहुंचने के लिए 7 दरवाजे पार करने पड़ते हैं। हर द्वार से राजपूतों के शौर्य की गाथाएं जुड़ी हंै। विभिन्न द्वार जयमल, पत्ता और रानी पद्मिनी के भाई- भतीजों की स्मृतियों से जुड़े हैं। जैसे कोई समय सूचक यंत्र हों। न सिर्फ रोंगटे बल्कि सिर के बाल भी इन शौर्य गाथाओं को सुनकर खड़े हो जाते हैं। किला खंडहर है पर भग्नावशेषों को देख कर भी आश्चर्यान्वित हो जाना पड़ता है। किले के भीतर जैनियों द्वारा निर्मित कीर्ति स्तंभ और राणा कुंभा द्वारा निर्मित विजय स्तंभ हैं। कीर्ति स्तंभ के निकट एक भव्य जैन मंदिर है। मीरा के मंदिर सहित बीसियों मंदिर हैं। मीरा चित्तौड़ की पुत्रवधू थी। समिधेश्वर मंदिर के अंदर भगवान शिव की एक त्रिमूर्ति है।
चित्तौड़ के किले में वहां की शौर्यगाथा की विद्युत तरंगों को सुनना 22 असंवेदनशील लोगों से घिरे एक संवेदनशील हृदय वाले के अकेले बूते की बात नहीं है अत: मेरे जैसे संवेदनशील को अकेले चित्तौड़ का किला देखने नहीं जाना चाहिए। कम से कम एक या दो समान विचारधारा वाले साथी अवश्य होने चाहिए।
किले के अंदर मैं एक आंख, एक पैर वाले 80 से अधिक घावों से भरे शरीर से राणा सांगा को वीरता से लड़ते हुए अपने मस्तिष्क पटल पर देख रहा था। भामाशाह का निवास देखकर मेरा सिर श्रद्धा से झुक गया। बलिदानियों में शिरोमणि पन्ना दाई जिसने महाराणा उदय सिंह की प्राण रक्षा के लिए अपने पुत्र के प्राणों को बलिदान कर दिया था। और उससे शताब्दियों पहले वह जगह देखी जहां पर अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी की एक झलक देखी थी। वास्तव में वह कमरा रानी के महल कीसीढिय़ों से 200 गज ऊपर है। किंवदंती है कि पद्मिनी सीढिय़ों पर बैठी थी और अलाउद्दीन ने दीवार में जड़े एक दर्पण में उनकी छबि देखी थी। उस दर्पण के स्थान विशेष में होने का कमाल यह है कि उसमें सीढिय़ां तो दिखाई पड़ती हैं पर अपनी आंखों से देखना चाहें तो सिर्फ पद्मिनी महल के कंगूरे ही दिखते हैं। अपनी आंखों से न तो आप सीढिय़ां ही देख सकते हैं, उसपर किसी बैठने वाले की तो बात ही दूर। है न कमाल?
गौमुख कुंड एक झरना है जो गाय के मुख की शक्ल के पत्थर से निकलता है और जल की धारा नीचे शिवलिंग पर गिरती है,यहां पहुंच कर तो मन अवर्णनीय ढंग से सम्मोहित हो जाता है। यहीं पर पद्मिनी ने 23000 अन्य स्त्रियों के साथ जौहर में कूदने के पहले अंतिम स्नान किया था और शिव भगवान की पूजा की थी। सुनकर खून उबल उठता है। यहां पर दो और जौहर हुए थे। एक तो रानी कर्मावती ने किया था और दूसरा महाराणा उदय सिंह की रानियों ने जब अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की थी।
यहां के महल और जयपुर के महलों में जमीन आसमान का अंतर है। यहां पर राजा और रानियों के कमरे 20-20 फीट से बड़े नहीं है और महल में सिर्फ आवश्यकता की ही वस्तुएं हैं, विलासिता की कोई भी वस्तु नहीं। चित्तौड़ देखने के बाद मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि असली राजपूत सिर्फ मेवाड़ के ही थे।
जिस भत्र्सना से लोग (हमारे चित्तौड़ और उदयपुर के गाइड भी) जयपुर की बात करते हैं वह देखने से ही समझी जा सकती है। असलियत में वह लोग जयपुर राजघराने को अच्छी निगाह से नहीं देखते। पर वह लोग स्वयं अपने मस्तक अपने गौरवमय पराक्रमी शौर्य से उन्नत रखते हंै। वास्तव में चित्तौड़ और उदयपुर देखने के बाद जयपुर मेरी निगाहों में भी गिर गया। यहां (चित्तौड़ में) की भव्यता, राजसीपन, पराक्रम, शौर्य, वीरता और विश्वसनीयता का जो इतिहास मिलता है उसका कोई सानी नहीं है।
बिल्कुल उचित ही है कि राजस्थान पर्यटन ने अपने टूरिस्ट बंगले का नाम उस महान महिला की याद में 'पन्ना' रखा है। इतना ही नहीं रानी पद्मिनी का चचेरा भाई बादल कुल 23 वर्ष का था जब वह अलाउद्दीन खिलजी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ और क्या कहने उसके (पद्मिनी के) चाचा गोरा के जो अलाउद्दीन के खेमे में रतन सिंह को छुड़ाने के लिए घुस गया।
वास्तव में यह शौर्य, अपनत्व और पराक्रम का अतुलनीय उदाहरण है। अनेकों नाम (इस संदर्भ में आते हैं) बप्पा रावल, रावल रतन सिंह, हम्मीर (हम्मीर हठ यशोगाथा वाले), राणा लाखा, राणा कुंभा, राणा सांगा, राणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप (जिन्हें बहुत ही उचित हिन्दू कुल सूर्य स्वतंत्रता के अवतार कहा जाता है।)
मुझे यह पहली बार ज्ञात हुआ कि राजस्थान के दर्जनों रियासतों के सिर्फ महाराजा होते हैं लेकिन यह सिर्फ मेवाड़ ही था जहां हम्मीर के समय से ही महाराणा कहा जाता है। कुछ भी हो मेरे पास लेखन की सामथ्र्य नहीं है वरना मैं चित्तौड़ के बारे में लिखता ही रहूं। कहते है कि चित्तौड़ संसार का सबसे बड़ा तीन मील लंबा और ढाई मील चौड़ा दुर्ग है।
चित्तौड़ से हम लोग उदयपुर गये और वहां दो रात ठहरे। उजाड़ सूखे राजस्थान में उदयपुर हरियाली का सागर है। आप को लगेगा ही नहीं कि आप मरुस्थल में हैं। हरियाली, हरियाली चारो ओर हरियाली। अनेक झीलें, पिछोला, उदय सागर और फतेहसागर। यह इतनी उपजाऊ घाटी है कि यहां पर हजारों आम के पेड़ हैं। जरा सोचिए। वास्तव में यह संगमरमर का एक भव्य चकाचौंध करने वाला नगर है। कर्नल टाड ने इसे भारत (उप) महाद्वीप का सबसे अधिक रोमांटिक (रमणीय) स्थान कहा है।चित्तौड़ छोडऩे के बाद सोलहवीं शताब्दी में महाराणा उदयसिंह ने इस नगर को बनवाया और उन्होंंने क्या भव्य नगर बनवाया। महल की भव्यता रोमांचक है। शीश महल स्तब्ध कर देता है। शीशे के बने हुए मोर तो शिल्प की बेजोड़ कृतियां हंै। स्थापत्य उत्कृष्ट कोटि का है। भव्यता और जालीदार झरोखों की बारीकी, शीशे का काम यह सब एक स्वार्गिक अनुभव है। लेकिन फिर भी सब निर्माण पूर्णतया आवश्यकतानुसार ही हुआ है। शयन कक्ष छोटे- छोटे है। विश्व प्रसिद्ध सहेलियों की बाड़ी तो है ही। फव्वारे तो जादू पैदा करते हैं। कहीं पर यह फव्वारे जादू पैदा करते हैं तो कहीं पर वह घनघोर बरसात का समा पैदा करते हैं और कहीं पर मन्द-मन्द पत्तियों पर गिरती रिमझिम का। इसके साथ जगदीश मंदिर और फतेहसागर झील जिसके बीच एक टापू पर नेहरू उद्यान सुशोभित है। साथ ही पिछौला झील जिसके बीच में पहले वाला भव्य प्रासाद जग निवास अब विश्व प्रसिद्ध लेक पैलेस होटल है। क्या कहने मोटर बोट से इसमें सैर करने में तब सिर्फ 75 रुपए प्रति व्यक्ति देना पड़ता था। हां चाय और बिस्कुट अवश्य मिल जाते थे (बच्चों के लिए भी कोई रियायत नहीं थी) आखिर टाटा का इंतजाम जो ठहरा। और भोजन प्रति व्यक्ति 75 रुपए की दर पर।
लेकिन इन सबसे गौरवमयी है एक पहाड़ी की चोटी पर बने प्रताप स्मारक में महाराणा प्रताप की कांस्य प्रतिमा।

महल की भव्यता रोमांचक है। शीश महल स्तब्ध कर देता है। शीशे के बने हुए मोर तो शिल्प की बेजोड़ कृतियां हैं। स्थापत्य उत्कृष्ट कोटि का है। भव्यता और जालीदार झरोखों की बारीकी, शीशे का काम यह सब एक स्वार्गिक अनुभव है।
उदयपुर से हम लोग हल्दीघाटी और नाथद्वारा मंदिर के भ्रमण पर गये। हल्दी घाटी में हमने चेतक स्मारक देखा। यह वह स्थान है जहां पर महान (घोड़ा) चेतक ढाई मील तीन टांगों पर दौड़ता हुआ और एक नाले को फलांगता हुआ गिर पड़ा था। नाले को कूदने के 200 फीट के अंदर ही चेतक के प्राण पखेरू उड़ गये। खैर उस समय महाराणा प्रताप के छोटे भाई अमर सिंह (जो महाराणा प्रताप के खिलाफ अकबर की ओर से लड़ रहे थे) एक तुर्क को मार कर उस का घोड़ा महाराणा के लिए लाये। खून पानी से गाढ़ा जो होता है। ऐसे वफादार जानवर (चेतक) को कोटि कोटि प्रणाम।
इतने दिनों अतीत में रहने के बाद हम लोग मांउट आबू की ओर अग्रसित हुए। यह एक खूबसूरत हिल स्टेशन है जिसमें नक्की लेक उन पहाडिय़ों के बीच रतन की भांति जगमगाती है। हम लोग अरावली पहाड़ी शृंखला में सबसे ऊंचे स्थान 'गुरु शिखर' पर गये जहां बादलों ने हमें घेर लिया।
इसी स्थान पर भगवान दत्तात्रेय ने यज्ञ किया था। और देवताओं, ऋषियों व सन्यासियों को प्रवचन दिया था। यहां से नीचे की घाटी का दृश्य मंत्रमुग्ध करने वाला है। फिर ब्रह्मकुमारियों का मुख्यालय देखा और फिर विश्व प्रसिद्ध दिलवाड़ा मंदिर। 'लाइफ' या 'नेशनल ज्योग्राफिक' में जो भी चित्र मैंने रोम और ग्रीस की स्थापत्य कला के देखे हैं उसके अनुसार तो वहां के लोग (रोमन व ग्रीस) पत्थर में दिलवाड़ा जैसी बारीक और उत्कृष्ट पच्चीकारी की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसमें कोई शक नहीं कि यह विश्व में सर्वोत्तम मूर्तिकला है। एल्डस हक्सले ने ताजमहल को इनके मुकाबले में निम्नकोटि का बिलकुल ठीक ही बताया है। लेकिन यहां की दीवारों, छतों और खंबों पर किये गये उत्कृष्ट उत्खनन का रसास्वादन करने के लिए काफी समय चाहिए। मानो पत्थरों में प्राण डाल दिये गये हैं। मूर्तियां आदमकद और सजीव लगती हैं। ऐसा नहीं लगता कि आप पत्थर की दीवारें देख रहे हैं। सच में ऐसा लगता है कि विक्रमादित्य के सिंहासन में बनी 32 परियों की भांति यह मूर्तियां अभी जीवित होकर अपनी कहानी सुनाने लगेंगी। कुल पांच मंदिर हैं। हर कोने अंतरे में देखने वाला, छतों पर की गई अत्यंत नाजुक और भव्य कलात्मक पच्चीकारी की उत्कृष्टता को देख कर ठगा सा खड़ा रह जाता है। अनेक स्थानों पर अपने कपड़ों की परवाह किये बगैर मुझे छत के चित्र लेने के लिए फर्श पर लेट जाना पड़ा। काश मेरे पास एक व्यावसायिक श्रेणी का कैमरा होता।
मांउट आबू में गुजराती भरे हुए हैं। कहने को तो यह राजस्थान में है पर सभी दुकानों के साइन बोर्ड अंग्रेजी और गुजराती में है। इतनी संख्या में गुजरातियों से मेरा साबका पहली बार पड़ा था।
वहां तीन दिन बिता के हम लोग अजमेर आये। ख्वाजा साहिब की दरगाह देखने के बाद पुष्कर गये। पुष्कर इतना रमणीक स्थान है कि देखते ही मन में शांति व्याप्त हो जाती है। राजस्थान टूरिज्म का पर्यटक निवास सरोवर के किनारे पहाडिय़ों पर है। (सरोवर नाम बिल्कुल उचित हैं) जहां मोर ही मोर नजर आते हैं। बहुत ही सुंदर कई मंदिर हैं। विश्व का एकमात्र ब्रम्हा को समर्पित मंदिर तो यहां है ही। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अजमेर वाली पहाडिय़ों की ओर जरा भी हरियाली नहीं है जबकि इन्ही पहाडिय़ों की दूसरी ओर (पुष्कर की ओर) सर्वत्र हरियाली ही हरियाली है।
पुष्कर के साथ कई किंवदंतियां जुड़ी हंै। कहा जाता है कि वेद व्यास ने यहीं पर वेदों को चार भागों में बांटा तथा पुराण और भागवत लिखे। ऋषि वशिष्ठ का आश्रम भी यहीं था। यहीं पर ऋषि विश्वामित्र ने तपस्या की थी जब स्वर्ग की अप्सरा मेनका उन्हें रिझाने आयी और दोनों ने दस वर्षों तक रमण किया। युधिष्ठिर के पूछने पर ऋषि धौम्य ने उन्हें तीर्थाटन यहीं से प्रारंभ करके यहीं समाप्त करने की सीख दी।
(मैं पुष्कर एक बार फिर शीघ्र ही आना चाहूंगा।)
पुष्कर से वापस जयपुर और वहां एक रात रूककर अगले दिन दिल्ली।
लगा जैसे एक सुन्दर स्वप्न समाप्त हो गया।

डर से परे ही आजादी है

फ्रैंच नाइट पुरस्कार से सम्मानित

प्रथम भारतीय नारी डॉ. आशा पांडे
- रेणु राकेश
फ्रांसीसी राजदूत जेरोम बोनाफां के पत्र में घोषित किया गया था कि 28 सितम्बर 2009 को राष्ट्रपति, निकोलस सरकोजी ने फ्रेंच नाइट सम्मान के लिए आशा पांडे को मनोनीत किया है। इस घोषणा से वे 'नाइट सम्मान', नाइट ऑफ द नेशनल ऑडर ऑफ लीजन ऑफ ऑनर पाने वाले सत्यजित रे, रविशंकर, अमिताभ बच्चन और प्रसिद्ध पर्यावरणविद आर. के. पचौरी के विशिष्ट क्लब में शामिल हो गयीं हैं।
इस सम्मान को पाने वाली पहली भारतीय नारी डा. आशा पांडे राजस्थान विश्वविद्यालय के ड्रामाटिक्स विभाग की अध्यक्ष हैं और यूरोपियन स्टडीज कार्यक्रम में मास्टर्स की संस्थापक निर्देशक हैं। विश्वविद्यालय के फ्रैंच और फ्रैंकोफोन स्टडीज केन्द्र की भी अध्यक्ष हैं। राजस्थान के स्कूल कॉलेजों में पिछले 27 वर्षों से फ्रैंच को प्रोत्साहन देने के लिए ही डा. पांडे को सम्मानित किया गया है।
डा. पांडे ने बताया कि इस भाषा से उनका प्रेम संबंध 1971 में शुरू हुआ तब वे पुणे से हायर सैकेंडरी करके अपने बड़े भाई स्वर्गीय एम.पी. पांडे के पास दिल्ली आयीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की तारीख निकल चुकी थी। अतीत में झांकती हुई आशा जी कहती है 'जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर और रूसी भाषा के विद्वान मेरे भाई ने सुझाव दिया कि मैं ज.ने.वि. द्वारा शुरु किये गये फ्रैंच भाषा के पंचवर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में दाखिला ले लूं। उसमें एक विकल्प यह भी था कि साल भर बाद उसे छोड़ा जा सकता था। मैंने इस सुझाव को मान लिया।'
पर अब तो वे फंस चुकी थी। डा. पांडे का मानना है 'साल के अंत होते-होते मैं धड़ल्ले से फ्रैंच बोलने लगी थी। साथ ही अध्यापकों ने भी पाठ्यक्रम पूरा करने पर जोर दिया। खास बात यह थी कि अब मैं खुद भी नहीं छोडऩा चाहती थी।'
भाग्य ने साथ दिया और तीन साल में ही यू.जी.सी. से सॉरबॉन विश्वविद्यालय, पेरिस में तीन महीने के लिए फैलोशिप मिल गयी। वे अपनी पहली पश्चिम यात्रा के अनुभव याद करते हुए कहती हैं 'तब मैं केवल 19 साल की थी, मुझे अनुमति देने में मेरे माता-पिता को कुछ वक्त लगा। हम 6 विद्यार्थियों ने पेरिस के लिए एयर इंडिया की उड़ान ली। बिल्कुल नया अनुभव था- पहली हवाई यात्रा, पहला विदेशी सफर और वह भी अकेले। वहां, उतर कर एसकॅलेटर देखे, उनपर पांव रखने में भी डर लगा। सपनों के देश जैसा लगा। भाषा की समस्या तो नहीं थी पर सांस्कृतिक अंतर बहुत ज्यादा था। स्थानीय लहजे में फ्रैंच बोलने वालों के बीच थोड़ा डर भी लगा। पर, जैसा कि मैं अपने विद्यार्थियों से भी कहती हूं कि डर के परे ही आजादी है।'
जब आशा भारत लौटीं, उस समय देश में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव की तैयारी चल रही थी। आयोजक फ्रैंच दुभाषिया ढूंढ रहे थे। वे बताती हैं 'एक दिन आयोजक दुभाषिया का काम कराने के लिए मेरे यहां आये। मेरे इम्तहान करीब थे। पर जब उन्होंने कहा कि 'बेटा देश की इज्जत का सवाल है तो मैं मना न कर सकी।'
उनकी जिंदगी में यह परिवर्तन का पल था। इस उत्सव से उन्हें ख्याति मिली। भारतीय फिल्म उद्योग की जानी- मानी हस्तियों और बड़े अफसरों के साथ काम किया। इस दौरान शाम को होने वाली पार्टियों में भी आकर्षण का केन्द्र रहती थीं। उन पलों को याद करती हुई प्रोफेसर कहती हैं 'सबको पता था कि मैं विद्यार्थी हूं। खूब प्यार मिला मुझे सबसे। सारी रात पढ़ाई करती, सुबह इम्तहान देती और सारे दिन काम करती। राष्ट्रपति भवन की एक पार्टी में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिली और उससे फ्रैंच में बातें भी की।'
फ्रैंच में एम.ए. करने के बाद आशा को 1976 में यू.जी.सी. की ओर से सॉरबॉन में पी.एच.डी. के लिए छात्रवृति मिली। पर पति आई.ए.एस. अशोक पांडे संप्रति राजस्थान के चुनाव आयुक्त, से विवाह हो जाने के कारण वे न जा सकीं। अपने दोनों बच्चों सिद्धार्थ ओर गौतम के लालन पालन के लिए उन्होंने 1977 से 1981 तक
नौकरी भी नहीं की।
1981 में एयर फ्रांस ने जयपुर में दफ्तर खोलने पर आशा को 1500/- अपने प्रतिमाह पर नौकरी का प्रस्ताव दिया। पर उनके पति ने उन्हें अध्यापन कार्य की ओर प्रेरित किया। उस समय महज 700 रु. प्रतिमाह वेतन पर जयपुर के माहेश्वरी पब्लिक स्कूल में काम प्रारंभ किया। एक साल बाद ही राजस्थान बोर्ड ने फ्रैंच को विषय के रूप में मान्यता दे दी। उसी साल डा. पांडे ने फ्रांस और भारत के बीच शैक्षिक और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए इंडो-फ्रैंच कल्चरल सोसायटी की स्थापना की। उन्होंने अपने स्कूल में फ्रैंच क्लब शुरू किया जहां फ्रैंच सीखने के अलावा फ्रैंच फिल्म और गीतों की ओर विद्यार्थियों को प्रेरित किया।
1982 में जब उन्होंने काम करना शुरु किया था तब स्कूल और कॉलेजों में फ्रैंच का नामोनिशान भी नहीं था लेकिन अब यह संख्या 7000 तक पहुंच गयी है।
17 साल बाद 2004 में उन्होंने फ्रैंच में एम.ए. और पी.एच.डी. कोर्स शुरू किये। राजस्थान में 6 शोधार्थियों सहित 25 स्कूलों और 10 कॉलेजों में फ्रैंच की शिक्षा के लिए किये गये अपने प्रयत्नों पर डा. पांडे को गर्व है। विद्यार्थी और फैकल्टी के आदान-प्रदान कार्यक्रम के लिए भी उन्होंने कई फ्रैंच विश्वविद्यालयों के साथ संपर्क विकसित किये हैं।
डा. पांडे अपनी मां को याद करती हैं 'मैं अपने माता-पिता की नौवी संतान और चौथी बेटी थी। आस पड़ोस के लोग मां को ताना किया करते थे पर वह बहादुर थी। अक्सर कहती थी कि एक दिन यह लड़की नाम रोशन करेगी। अगर आज वो होती तो बहुत खुश होतीं।'
लड़कियों को सशक्त बनाना डा. पांडे का लक्ष्य है। गरीब लड़कियों के लिए वे विमुक्त विद्यालय चलाती हैं जहां लड़कियों को मुफ्त भोजन, आने-जाने की सुविधा, किताबें और गणवेष आदि सुविधाएं दी जाती हैं। 20 लड़कियों से शुरू हुए स्कूल में आज 250 लड़कियां हैं।
उनका विश्वास है कि उन्हें जो फ्रैंच सम्मान मिला है उससे जिंदगी में आगे बढऩे वाली महिलाओं को प्रेरणा मिलेगी। (विमेन्स फीचर सर्विस)

चॉकलेट

चॉकलेट
-परितोष चक्रवर्ती
राजधानी के आने में सिर्फ 15 मिनट रह गये हैं। उसकी पाली के साथी अभी तक नहीं पहुंचे। कम से कम शेखू और जॉन को तो अब तक आ जाना चाहिए था।
पिंटू उस्ताद को देखने से लगता ही नहीं कि उसकी उम्र कुल जमा 13 वर्ष है। वह अपनी टोली का सबसे लम्बा और अधिक उम्र का लगता है।
बाप की दारूबाजी और रोज की मारपीट से वह इतना तंग रहता है कि अक्सर दो- दो बजे रात तक घर नहीं जाता। आठ दिन पहले की बात है, जब देर रात पुलिस की गश्त में वह पहाडग़ंज में पकड़ा गया था। वो तो भला हो जीआरपी के चंडी हवलदार का जो उस समय चाय पीने के लिए स्टेशन के बाहर निकले थे, ड्यूटी पर थे और उन्होंने इंस्पेक्टर से बात की थी और मिन्नत-खुशामद करते उसे छुड़ा लिया था। कहीं थाने में ले जाया गया होता तो निश्चित रूप से उसे बुक कर देते। फिर भी इंस्पेक्टर ने सीधे-सीधे नहीं छोड़ा, कसके तीन-चार हाथ जड़ ही दिये थे। खाये-पिये बदन का वह इतना वजनी हाथ था कि पिंटू के दांत हिल गये थे।
कमोबेश टोली के सब लड़कों के घर की यही कहानी है। शेखू का बाप नई दिल्ली स्टेशन का पुराना बिल्ले वाला कुली है। ढेर सारे भाई-बहन, कमाई कम, चिकचिक ज्यादा। उस पर दारू का तांडव। जॉन की कहानी कुछ अलग है। उसके पापा प्वाइंट्समैन हैं, उसकी दो मां हैं। बड़ी मां सिलाई-कढ़ाई करके अलग पैसा कमाती है और अलग झोपड़ी में रहती है। बड़ी मां के भी दो बच्चे हैं। जो स्कूल जाते हैं, पर जॉन के चार भाई-बहनों में सिर्फ बड़ी बहन ही पढऩे जाती है। एक सरकारी स्कूल है, पांचवीं तक। जॉन वहां जाता था लेकिन पढ़ाई-लिखाई में उसका मन नहीं लगता। उधर के प्राय: सभी बच्चे रेलवे स्टेशन के आस-पास छोटे-मोटे काम में लग जाते हैं।
इस नये काम की शुरूआत तो एक तरह से चंडी हवलदार के कहने से ही हुई। ये सच है कि चंडी हवलदार नि:स्वार्थ कोई काम नहीं करते, लेकिन पिंटू को फिर भी वे अच्छा मानते हैं। पिछले दिनों प्लेटफार्म नं. एक से लेकर दस तक जमाल की दादागिरी चलती थी। जमाल अपनी पसन्द की चीजें पहले खुद छांटता था, फिर बचा हुआ सामान अन्य लड़कों में बांटता था। बोतल और प्लास्टिक पैकेट और इन फेंकी हुई चीजों में कभी-कभार ही कोई अच्छी चीज मिल पाती। इस तरह के भेद-भाव से सब दु:खी रहते थे।
शेखू ने तो सीधे-सीधे जमाल पर हमला ही बोल दिया, 'तू हम लोगों को ठगता है, सारा अच्छा माल खुद निकाल लेता है। दस-दस गाडिय़ां अटेन (अटेंड) करने के बाद भी हमें नाश्ते तक का पैसा नहीं मिलता। तुम तो गाड़ी खंगालते नहीं हो, फिर भी सारा माल झपट लेते हो।'
खूब गुत्थमगुत्था हुई। बात और बिगड़ जाती कि चंडी हवलदार कहीं से प्रकट हो गये। उन्होंने उसी दिन प्लेटफार्म का बंटवारा कर दिया। एक से छह नम्बर तक के प्लेटफार्म जमाल और उसके साथियों के और सात से बारह नम्बर प्लेटफार्म पिंटू उस्ताद के हिस्से में। इस बंटवारे के साथ ही यह तय हो गया था कि सप्ताह में एक नम्बर की एक अद्धी चंडी हवलदार को देनी होगी और किसी एक दिन मुर्गा खिलाना पड़ेगा। गनीमत है कि पैसे की चर्चा चंडी हवलदार ने नहीं की। वैसे उनके हिस्से में नगद पैसे आते ही कितने हैं, जो हवलदार को देते?
उसके बाद भी झमेले कम नहीं थे। ट्रेन के आते ही कुलियों से पहले उन्हें ट्रेन में चढऩे की इजाजत नहीं थी। कई बार तो यात्रियों के छोड़े हुए अच्छे सामान कुली ही चेप लेते थे। पिंटू ने एक बार देखा कि फोटोखींचने वाला एक मोबाइल सीट पर पड़ा है। देवक सिंह कुली ने उसे चुपके से जेब में रख लिया था। पिंटू ने कुली को कहा भी कि सिर्फ पांच रुपये दे दे, नहीं तो सबको बता देगा। इतना कहना था कि उस कुली ने अपने दो आदमी बुला लिये और खाली कोच के अन्दर ही उसकी अच्छी-खासी पिटाई कर दी। पिंटू उस्ताद के पास सिवाय चंडी हवलदार के कोई सहारा नहीं था। अंतत: चंडी ने ही कुलियों के मेट से बात की और तय किया कि कोई भी यात्री गाड़ी प्लेटफार्म में पहुंचने के दस मिनट तक मवाली लड़के ट्रेन के भीतर नहीं जाएंगे, अब चाहे इससे कुछ हाथ लगे या न लगे। कुलियों से भी यह कौल ले लिया कि वे अब सिर्फ सामान उतारेंगे और चढ़ाएंगे, बाकी सामान नहीं छुएंगे। इस अलिखित संविधान पर सारा कारोबार चल रहा था।
चंडी हवलदार की सहानुभूति इन लड़कों के साथ एक दूसरी वजह से भी थी। दबी जबान से जमाल जैसे कुछ शरारती लड़के यह बात कहने से नहीं चूकते कि पिंटू उस्ताद और शेखू के घर में चंडी का आना-जाना वर्षों से है। इस बात को लेकर कभी-कभी पिंटू और शेखू को चिढ़ाया भी जाता रहा है। मगर ऐसी नोंक-झोंक और फब्तियों से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अक्सर पीकर घर लौटे हुए बाप जो तांडव मचाते हैं, उससे अब इन किशोरों के मन में रिश्तों की कोई खास अहमियत नहीं रह गई है। मारपीट, गाली-गलौज के बीच गुजरे हुए दिन में वे खुश तब होते हैं जब किसी ट्रेन के डिब्बे से उन्हें कोई नायाब-सी चीज पड़ी हुई मिल जाती है। बिज्जू के हाथ की वह घड़ी अब भी दूसरे लड़कों को चिढ़ाती रहती है। एक बार तो खुद हवलदार ने बिज्जू से 50 रुपये में वह घड़ी मांगी थी। ले-देकर बिज्जू ने एक पौव्वा लाकर हवलदार को दिया, तब कहीं जाकर हवलदार की नजर घड़ी पर से हटी...।
अब विम्पी रेस्टोरेंट के पास भी उन लोगों का जमा होना जीआरपी को खटकने लगा। पिंटू उस्ताद ने सभी को कह दिया कि होम सिग्नल के दायीं तरफ एक पान की दुकान है, वहीं सब लोग इकट्ठे हो जाएं। पान वाला तीरथराम वैसे बीसेक साल का है, लेकिन पिंटू से उसकी दोस्ती हो गई है। यात्री गाड़ी में यात्रियों द्वारा तम्बाखू के जितने पाऊच पिंटू और उसके साथियों को मिल जाते हैं, उन्हें वह करीब एक चौथाई कीमत पर खरीद लेता है। कभी-कभी इसके एवज में उन्हें उधारी में बीड़ी भी मिल जाती है।
पिंटू की उस छोटी-सी टोली में आठ-नौ साल से लेकर उसकी उम्र अर्थात बारह-तेरह साल तक के सात लड़के हैं। दो छोटे लड़के संजू और मन्ना साथ इसलिए रहते हैं कि बर्थ के नीचे घुसकर झांकने में सुविधा रहती है। छूटे हुए सामान अधिकतर ए.सी. डिब्बों में ही मिलते हैं। राजधानी एक्सप्रेस उनकी जुबान में 'गोल्डन ट्रेन' है। यह पिंटू का दिया हुआ नाम है।
केवल चंडी हवलदार से ही दोस्ती से काम नहीं चलता है। जीआरपी के इंस्पेक्टर भदौरिया को भी 15-15 दिनों में सलामी देनी पड़ती है। सभी लड़के मिलकर एक पूरा बोतल बैगपाइपर का भदौरिया को पहुंचाते हैं। पैसे की मांग भी भदौरिया ने की थी, तब चंडी हवलदार ने लड़कों का साथ दिया था और भदौरिया को समझाया था, 'हुजूर, ये पैसे कहां से दे सकते हैं? बड़े लोग भी एक-एक पैसा गिनकर रखते हैं। इनके लिए कोई क्या छोड़ेगा। गरीब लड़के हैं, इन पर रहम खाइए।'
पुलिसवालों की पुलिसवाले सुन लेते हैं। सो एक बैगपाइपर से अंतत: मामला निपटा।
कुछ सिपाही भी हैं जो बीच-बीच में कॉलर-वॉलर पकड़कर अक्सर दो-चार जमा देते हैं। इसका भी पिंटू ने नाम रखा है 'हुप्पी।' घर पर प्राय: सभी बच्चे अपने बाप से ऐसी 'हुप्पी' आये दिन पाते रहते हैं। साथी कहते हैं कि पिंटू ने ही अपनी स्टाइल से संजू बाबा वाली 'झप्पी' का विरोधी शब्द 'हुप्पी' ढूंढ लिया है। 'झप्पी' में प्यार टपकता है- तो 'हुप्पी' में घूंसा बरसता है।
बोतलबंद पानी की खाली बोतलें इकट्ठा कर वे पान की दुकान में जमा करते हैं। आजकल कुछ यात्री थोड़ा ज्यादा ही नियम-कायदे का पालन करने लगे हैं। बोतल को बिल्कुल मोड़कर फेंकते हैं। ऐसी तमाम बोतलों का भाव न के बराबर होता है। ढक्कन औरबोतल दोनों अलग-अलग कर ली जाती है। पिंटू उस्ताद ने दो व्यापारियों को ढूंढ लिया है जो ढक्कन और बोतल खरीद लेते हैं। साफ-सुथरी बोतल के एवज में 10 पैसे प्रति बोतल मिलते हैं और ढक्कन के पांच पैसे। मुड़ी-तुड़ी बोतलें वजन से बिकती हैं। इन बोतलों के बहुत कम पैसे मिलते हैं। सेठजी की मर्जी है, वे जितना दे दें। वैसे खंगालने को बाथरूम भी खंगाल लिया जाता है। वहां गलती से भी नहीं झांकता है तो संजू। उसका कहना है कि मैं बाथरूम का सामान देखता ही नहीं। दो-तीन बार बड़ा धोखा हो गया। औरतों वाले पैड अखबार में ऐसे लपेट कर छोड़े गये थे जैसे वह बड़ा कीमती सामान हो। पहले तो संजू को खून-वून देखकर डर लगा था, पर बाद में पिंटू उस्ताद ने अपनी भाषा में उसे समझा दिया था। तब से उसे घिन-सी आती है। हालांकि उसी टायलेट से उसे एक बार घड़ी मिल चुकी है लेकिन फिर भी वह टायलेट में अक्सर नहीं झांकता।
पिंटू का कहना है कि 'गरीब आदमी को काहे का घिन!' एक बार तो विदेशी लैट्रिन के पैन में उसे एक पर्स दिख गया था और उसने हाथ डालकर उसे निकाल लिया था। अब तक की सबसे बड़ी कमाई वही थी। तीन हजार नगद मिले थे। अक्सर चॉकलेट के आधे हिस्से इन्हें मिल जाते हैं तो बिना देर किये इसे वे निगल लेते हैं। हालांकि अलिखित नियम यह है कि जो भी सामान हाथ लगेगा वह पान दुकान के पास जाकर बांटा जाएगा लेकिन ये दोनों साथी चॉकलेट और खाने-पीने के सामान के मामले में उसे चट कर जाने में ही भलाई समझते हैं। दो शिफ्टों में काम को बांट लिया गया है। अपेक्षाकृत उम्र में छोटे बच्चों को रेलवे स्टेशन से रवाना होने वाली कुछ गाडिय़ों में अगले स्टापेज तक भेजा जाता है। एक झाड़ू करीब-करीब चार महीने तक काम में लाई जाती है। झाड़ू लगाने के बाद वे पैसे मांगते हैं और फिर दूसरी ट्रेन में ठीक उसी तरह सफाई करते और पैसे मांगते वापस होते हैं। पिंटू सिर्फ इनकी सुरक्षा के लिए साथ में जाता है तो कभी शेखू की ड्यूटी लगती है। जब स्क्वायड की चेकिंग होती है तब इनकी मुसीबत बढ़ जाती है। कभी-कभी कोई टीटी इन्हें बीच में ही ट्रेन रूकने पर बलात उतार देता है। एक बार तो संजू को पटरी के किनारे-किनारे दिल्ली स्टेशन तक लौटने के लिए 15 कि.मी. पैदल तय करने पड़े थे। एकत्रित पैसे में से कभी-कभी टीटी को भी कुछ चढ़ावा देना पड़ जाता है। यद्यपि हवलदार ने सबके मना कर रखा है कि कोई 'यार्ड' की तरफ नहीं जाएगा, क्योंकि यार्ड में आरपीएफ की ड्यूटी होती है। इनके हत्थे चढऩे पर जीआरपी वाले बीच-बचाव नहीं करते क्योंकि दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है।
जिस दिन रेलवे के बड़े अधिकारी का निरीक्षण होता है उस दिन पहले से ही खबर हो जाती है और मन मारकर उस दिन की रोजी का नुकसान सहना पड़ता है। कभी-कभी ऐसे दिनों में चंडी हवलदार उदार हो जाते हैं। कार स्टैंड पर उस तरफ जो चाय वाला बैठता है उसके जरिये वे लड़कों की टोली को आधा कप चाय पिलवा देते हैं। बच्चे खुश हो जाते हैं और हवलदार को बच्चों का आशीष इन शब्दों में मिलता है- 'चचा, आज जरूर आपको कोई मोटा धूर (आसामी) मिलेगा।' सुनकर हवलदार की अधपकी मूंछों पर मुस्कराहट फैल जाती है। ए.सी. डिब्बों के सामने जो साइड पॉकेट बने होते हैं, उन्हीं को खंगालने में सबकी रूचि रहती है। कभी-कभी सीट के नीचे भी कोई सामान छूट गया होता है। वे पहले ते बड़ी तेजी से हाथ डाल देते थे लेकिन अब जब से बमबाजी के किस्से होने लगे हैं, डरते-डरते ही पड़े हुए पैकेट को छूते हैं। बीच-बीच में पिंटू सबकी क्लास भी लेता है कि इस किस्म के पैकेट से दूर रहा जाए, ज्यादा संदेह होने पर हवलदार को भी इसकी सूचना दे दी जाए।
उस दिन मंगलवार था। तीन नम्बर प्लेटफार्म पर कोलकाता राजधानी एक्सप्रेस आ रही थी। उसके पहले ही एक पूरी ट्रेन बच्चे खंगाल चुके थे। पान दुकान से कुछ दूरी पर मन्ना और संजू एक पत्थर पर आकर बैठे। मन्ना और दिनों की अपेक्षा बहुत खुश था। वह थोड़ी देर तक चुप रहा, पर ज्यादा देर तक अपने को रोक नहीं पाया। उसने संजू से कहा- 'यार, आज बहुत अच्छी चीज मुझे मिली है, इसे मैं जमा नहीं करूंगा।' संजू ने उत्सुकता जताई, तो मन्ना ने अपनी जेब से बड़े जतन के साथ 'पर्क चॉकलेट का एक साबुत बार निकाला और सामने रख दिया।चॉकलेट का बार देखते ही संजू की बांछे खिल गईं, 'अरे ये तो प्रीति जिंटा वाली चॉकलेट है। ज्यादा चॉकलेट वाली एक्स्ट्रा लार्ज।'
मन्ना ने कहा- 'हां, ये ए.सी. फस्र्ट में मेरे को मिला।'
संजू ने कहा- 'चल, इसको आधा-आधा करके खा लेते हैं।'
मन्ना को यह बात अच्छी नहीं लगी, 'नहीं यार, मेरी छोटी बहन गुड्डी जब नायडू अंकल के यहां टी.वी. देखने जाती है तो लौटकर कहती है कि भइया, प्रीति जिंटा वाली चॉकलेट क्यों नहीं लाते? पापा भी कभी नहीं लाते। आज अचानक यह चॉकलेट मिली है, तो इसे मैं घर ले जाऊंगा। थोड़ी-सी खुद खाऊंगा और बाकी गुड्डी को दूंगा यार तू भी मेरे साथ चल। पहले गुड्डी को दिखाएंगे, फिर उसे खिलाएंगे बाद में हम दोनों भी थोड़ी-थोड़ी खा लेंगे।'
संजू तैश में आ गया, 'ऐसी बात है तो पहले सबके सामने सामान जमा करना होगा। तब तय होगा कि क्या किया जाए, और नहीं तो चुपचाप मुझे आधा दे और आधा तू अपने घर ले जा।'
मन्ना ने तड़पकर कहा- 'ठीक है, तू बता देगा तो बता दे! मैं भी बता दूंगा कि उस दिन सम्पूर्ण क्रांति एक्सप्रेस के ए.सी. में तुझे एक अंगूठी मिली थी जो तूने अपनी मां को दे दी थी। पिंटू उस्ताद को मैं भी यह बात बता दूंगा।'
इस धमकी का संजू पर तुरंत असर हुआ। उसका स्वर धीमा हो गया। उसने मनाने के स्वर में कहा- 'यार, तू मेरा अच्छा दोस्त है। मेरा मन कर रहा है चॉकलेट खाने का, चल आधे से थोड़ा कम दे दे।'
मन्ना ने चॉकलेट को पुन: अपनी जेब में रखते हुए कहा- 'नहीं यार, ये चॉकलेट मैं नहीं दूंगा। बोल तो रहा हूं घर चल, गुड्डी को चॉकलेट दिखाएंगे और आधा हिस्सा उसे देकर हम भी थोड़ी-थोड़ी खा लेंगे।'
लेकिन संजू का मन फिर भी नहीं मान रहा था। बार-बार उसे लग रहा था जैसे प्रीति जिंटा ने 'पर्क' की वह बड़ी चॉकलेट (एक्स्ट्रा लार्ज) मन्ना की जेब में छिपा दी है। उसके मुंह में चॉकलेटी स्वाद का पानी लबालब भरता जा रहा है...।
मन्ना ने भी टीवी पर प्रीति जिंटा को चॉकलेट के साथ देखा है। मगर चॉकलेट इतनी खूबसूरत दिखती है, इस बात का अहसास उसे आज हुआ। उसने बड़ी मुश्किल से अपने मन पर काबू किया और संजू को भी रोका। उसे रह-रहकर गुडिय़ा की याद आने लगी। महीनों से वह गाहे-बगाहे एक्स्ट्रा लार्ज चॉकलेट की बात करती रही है। उसने पहले से ही कह रखा था कि वह वही चॉकलेट इस बार राखी में लेगी, लेकिन संयोग बनता ही नहीं है। एक साबुत एक्स्ट्रा लार्ज चॉकलेट 15 रुपये में आता है। इतना तो दिन भर की कमाई से नहीं निकलता।
पिंटू उस्ताद कभी-कभी बड़ों की तरह बात करता है। वह कहता है... 'ये सब बड़े लोगों के चोंचले हैं। टीवी में दिखा-दिखाकर ये हमारा पैसा छीन लेते हैं। साली अठन्नी वाली चॉकलेट में और इसमें फर्क ही क्या है? उसे परदे पर प्रीति जिंटा खाती है, इसे हम खाते हैं। इतना ही फर्क है न'
मन्ना को पिंटू की बात समझ में नहीं आती। उसे बस गुड्डी का चेहरा याद आ जाता है। इसीलिए वह इस पर्क के पैकेट को स्वयं भी चार-छह बार जेब से निकालकर देख चुका है। गुड्डी के चेहरे की खुशी की कल्पना मात्र से उसे सिहरन-सी होती है। तभी एक तेज सीटी की आवाज से दोनों चौक जाते हैं...
हावड़ा राजधानी के आने का संकेत हो चुका है। प्लेटफार्म पर चहल-पहल बढ़ गई है। संजू के मन-मस्तिष्क में अभी भी चॉकलेट बार का बड़ा साइज तैर रहा है, 'साले, मन्ना की ऐसी तैसी! आधा चॉकलेट दे ही देता तो क्या हो जाता? पाई हुई चीज पर भी इतना इतराना! पूरा का पूरा साबुत चॉकलेट-बार दुकानों और टीवी के बाहर इतने करीब से पहली बार उसने देखा था। काश आधा हिस्सा मिल जाता तो...'
वे दोनों प्लेटफार्म के उल्टे हिस्से में दौड़ पड़े थे। शायद राजधानी में कोई बेहतर खाने का सामान हाथ लग जाए?
अचानक एक चीख सुनकर संजू के सोचने का क्रम टूट गया। लूप लाइन को उसने पार ही किया था कि उसकी नजर सामने जा पड़ी। पता नहीं कैसे मन्ना दो नम्बर प्लेटफार्म से खाली रैक वाली एक गाड़ी के नीचे आ गया था। पूरे डिब्बे उसकी देह पर से गुजर गये थे। ड्राइवर ने जब तक ट्रेन रोकी, तब तक किसी का ध्यान मन्ना की ओर नहीं गया। संजू कुछ देर के लिए सन्न रह गया था...।
दोनों लाइनों के बीच मन्ना का आधा शरीर कटकर अलग हो गया था। कमर के नीचे का हिस्सा बाहर की ओर पड़ा था। हाफपैंट का ऊपरी हिस्सा खून से भींग गया था।
अचानक संजू को जैसे कुछ याद हो आया। वह तेजी से मन्ना के कटे हुए जिस्म की ओर दौड़ा। कोई और वहां पहुंच पाता, इसके पहले संजू लाश के पास पहुंच गया। हड़बड़ी में मन्ना के चेहरे की ओर भी देखने की फुरसत नहीं थी उसे। उसने अन्दाज से मन्ना के हाफपैंट की उसी जेब में हाथ डाला जिसमें चॉकलेट बार रखी थी। एक झटके से उसने खींचकर चॉकलेट निकाली और सरपट प्लेटफार्म की ओर दौड़ गया...।

सावधान! मैं आत्मकथा लिख रहा हूँ

सावधान! मैं आत्मकथा लिख रहा हूँ
- रामेश्वर वैष्णव
इसमें मैं अपने बारे में कम और तुम्हारे बारे में ज्यादा लिखूंगा क्योंकि यह मेरी आत्मकथा है। इतना ज्यादा लिखूंगा कि तुम्हारे शरीर पर वस्त्र, चरित्र में उज्वलता और व्यवहार में कुटिलता जरा भी नहीं बच पायेगी। तुम लोगों ने मुझे वस्त्रहीन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे निष्कपट व्यवहार में हजारों छल छिद्र निकाले तथा मेरी तमाम सदाशयता को दुष्टता का पर्याय बताया, अब मेरी बारी है।
मेरे अशुभचिंतकों, छद्म दोस्तों एवं अन्य प्रकार के दुश्मनों। सावधान हो जाओ मैं आत्मकथा लिख रहा हूं इसमें मैं अपने बारे में कम और तुम्हारे बारे में ज्यादा लिखूंगा क्योंकि यह मेरी आत्मकथा है। इतना ज्यादा लिखूंगा कि तुम्हारे शरीर पर वस्त्र, चरित्र में उज्वलता और व्यवहार में कुटिलता जरा भी नहीं बच पायेगी। तुम लोगों ने मुझे वस्त्रहीन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे निष्कपट व्यवहार में हजारों छल छिद्र निकाले तथा मेरी तमाम सदाशयता को दुष्टता का पर्याय बताया, अब मेरी बारी है।
तुम लोगों ने हकीकत को लिखा, मेरी कमजोरियों पर प्रकाश डाला तथा मेरी घोषित नीचता का संक्षेप में वर्णन किया, मैं तो कल्पनाशील व्यक्ति हूं मैं तुम्हारे चरित्र में ऐसी ऐसी कमजोरियां ढूंढ निकालूंगा जिसका तुम्हें भी पता नहीं है। मेरे पास शब्द भंडार है वो किस दिन काम आयेगा तुम्हारी मामूली चूक को भी नीचता सिद्ध करने में मेरा जवाब नहीं होगा। मैं तुम्हारी स्वाभाविक नीचता को इतने विस्तार से शब्दबद्ध करूंगा कि तुम्हारे खार खाये हुए पड़ोसी तुमसे करबद्ध प्रार्थना करेंगे कि बिना उनके सहयोग के तुम स्वेच्छा से स्वर्गीय हो जाओ।
दरअसल मैंने अपनी लेखनी का आज तक दुरुपयोग नहीं किया हालांकि तुम लोग इस बात को कभी नहीं मानोगे, क्योंकि मेरी उदारकुटिलता से परिचित हो। अब सोचता हूं थोड़ा-मोड़ा दुरुपयोग कर ही डालूं आज तक सदुपयोग करके तुम्हारा क्या उत्खनन कर लिया सो, आत्मकथा लिखना मेरी मजबूरी है। तुम्हारी दुष्टता का सविस्तार वर्णन मुझे आटोमेटिकली सज्जन पुरुष सिद्ध कर देगा, थोड़ा बहुत तो मैं वैसे भी हूं, मगर तुम्हारी तरह उसे मैग्नीफाइ करने की कला मुझमें नहीं है। तुम तो अपने भीतर हजारों गुण ढूंढ निकालते हो अपनी सज्जनता का इतनी निर्दयता से बखान करते हो कि लोग तुम्हें सज्जन स्वीकारने के लिए विवश हो जाते हैं। दरअसल तुम्हारी सारी उपलब्धियां लोगों को विवश करके ही हासिल हुई हैं। मैं तुम्हारी हकीकत इतनी सज्जनतापूर्वक सामने लाऊंगा कि लोग तुम्हें दुर्जन मानने के लिए सहर्ष विवश हो जायेंगे।
तुम कम्बख्तों ने अपने खड़तूस छाप कार्यक्रमों में मेरी भरपूर उपेक्षा की है, मैं ऐसा नहीं करुंगा, तुम लोगों को भव्यतम कार्यक्रम में सादर आमंत्रित करूंगा, सम्मानित करवाऊंगा और मेरे सम्मान में कुछ बोलने के लिए विवश करुंगा, लेकिन जब तुम बोलोगे तो लोग जान जायेंगे कि तुम अव्वल दर्जे के बेवकूफ हो। तुम अपनी ही हंसी उड़वाने केलिए मेरे द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में स्वतंत्र होगे। इस स्वतंत्रता का तुम जितना उपयोग करोगे उतना ही ज्यादा स्वयं को मेरा गुलाम घोषित करोगे। यह सारा आयटम मेरी आत्मकथा का विषय रहेगा। मेरे लाखों पाठक यही समझेंगे कि मैंने तुम्हें भरपूर सम्मान दिया मगर तुम लोग अपनी कुटिलता के कारण सरेआम वस्त्रविहीन हो जाओगो। मेरी आत्मकथा इतनी रोचक होगी कि लोग पढऩे के लिए मजबूर हो जाएंगे। पूरी पढऩे के बाद मेरी ऊटपटांग मान्यताओं को स्वीकारने लगेंगे और आखिर में तुम तमाम लोग मेरी उपेक्षा को अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल मानने लग जाओगे। यही तो मेरे लेखन की विशेषता है। एक बार जो मजबूर हुआ वो हमेशा मजबूर होने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा। समीक्षक लिखेंगे कि मेरा लेखन समग्र तौर पर मुक्ति के लिए है, जबकि ऐसा लिखने के लिए वे स्वयं मजबूर होंगे। मैं अपने जीवन के रहस्यों को इतनी सफाई से खोलूंगा कि मेरे बारे में लोग निश्चित तौर पर कोई धारणा बना ही नहीं पायेंगे, तुम लोगों को हमेशा यह अफसोस रहेगा कि मुझे समझने में तुमने बड़ी गलती की, अरे मैं खुद को नहीं समझ पाया हूं तो तुम क्या खाक समझोगे।
मेरी आत्मकथा तुम लोगों के लिए तो खतरनाक होगी ही, उन लोगों के लिए भी खतरनाक होगी जिनसे मेरे संबंध मधुर रहे। महिलाएं कृपया गौर से पढें। मैं जानता हूं अपनी खूबसूरती के बल पर उन्होंने मुझे बौद्धिक नहीं रहने दिया, मुझसे लाभ उठाने के चक्कर में उन्होंने मुझे अक्सर घनचक्कर बनाए रखा। उन सभी बातों का खुलासा करने के लिए ही तो मैं आत्मकथा लिख रहा हूं। साहित्य के क्षेत्र में लोगों ने वाह-वाह कर बुद्धू बनाया, नौकरी में हांव-हांव कर बुद्धू बनाया और पारिवारिक जीवन में हवा- हवा कर बुद्धू बनाया अब मेरी बारी है, मैं आत्मकथा लिख कर यही काम करुंगा।
मेरे घोषित किस्म के दुश्मनों और अघोषित टाइप के दोस्तों ने मुझे हानि पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, अब वे स्वयं बाकी नहीं रह पायेंगे। लेखनी के दुरुपयोग का श्रेष्ठ उदाहरण होगी मेरी आत्मकथा। हालाकि जितने लोगों ने आत्मकथाएं लिखी हैं उनके बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जाता है। दरअसल आत्मकथा लेखन अपने खिलाफ फैलाए गए अफवाहों एवं साजिशों का बौद्धिक स्पष्टीकरण होता है।
संपर्क - 62/699 प्रोफेसर कॉलोनी, सेक्टर-1, सड़क-3, रायपुर- 492001 (छत्तीसगढ़) मोबाइल नं. 98274 79678
व्यंग्यकार के बारे में ...
रामेश्वर वैष्णव छत्तीसगढ़ी और हिन्दी दोनों में लिखते हैं। वे गीत, गजल और व्यंग्य लिखते हैं। इन विधाओं पर उनके दस संग्रह छप चुके हैं। वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों के गीतकार हैं और लगभग दस फिल्मों के लिए उन्होंने गीत लिखे हंै। वे लोकमंचों के लिए भी गीत लिखते हैं। उन्हें कुल जमा दस सम्मान मिल चुके हैं। साहित्य और लोकमंच की उनकी दीर्घ साधना को देखते हुए विगत दिनों दुर्ग में प्रतिष्ठित 'समाजरत्न' पतिराम साव सम्मान से अलंकृत किया गया। वे डाक तार विभाग के सेवानिवृत सहायक प्रबंधक हैं। दरअसल रामेश्वर वैष्णव मंचों के प्रसिद्ध हास्य कवि हैं जिसका प्रभाव उनकी व्यंग्य रचनाओं पर भी देखने को मिलता है। उनमें व्यंग्य के निर्वहन के लिए हास्य का आग्रह प्रबल है। वे अपनी रचनाओं में हास्य-विनोद के घोर पक्षधर जान पड़ते हैं। वे व्यवस्था की हास्यास्पद स्थितियों पर हास-परिहास करते हैं। प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक रचना 'सावधान! मैं आत्मकथा लिख रहा हूं।' इसके माध्यम से उन्होंने आत्म मुग्धता से भरे ऐसे अहमन्य व्यक्तित्वों का उपहास किया है जो दूसरों पर आरोप और आक्षेप लगाने की नीयत से अपनी आत्मकथाएं लिखते हैं।
- विनोद साव