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Dec 25, 2010

दो ग़ज़लें


-   ज़हीर  कुरैशी
1
नए रास्ते भी मिले एक दिन,
जो खिलते नहीं थे, खिले एक दिन।
पिघलने में हिम को लगे दस बरस,
हुए खत्म शिकवे- गिले एक दिन।
जो रहते थे अपने वचन पर अटल,
वचन से वो अपने हिले एक दिन।
घटा था वो सब उनकी बेटी के साथ,
अधर इसलिए भी सिले एक दिन।
बिना नींव के थे सो गिर भी गये,
बनाये थे हमने किले एक दिन।
जहां भी मरुस्थल में पानी दिखा,
वहीं रूक गये काफिले एक दिन।
जो मेरे ही यत्नों से गतिमान थे,
हुए खत्म वो सिलसिले एक दिन।

2
अपनी भागम- भाग दिनचर्या बदल पाए नहीं,
लोग शहरों में बहुत निश्चिन्त चल पाए नहीं।
उन बहुत गहरे अंधेरों में जले थे रात भर,
नफरतों की आंधियों में दीप जल पाए नहीं।
अपने निश्चित लक्ष्य से पहले भटक जाते हैं तीर,
तीर दिल को चीर कर आगे निकल पाए नहीं।
जब भी हम अनजान रस्ते पर चले तो गिर गए।
हम अचानक ठोकरें खा कर सम्हल पाए नहीं।
उसको देखा तो उन्हें याद आई अपनी लाडली,
वे कली को, इस वजह से भी, मसल पाए नहीं।
भाव तो बाजार में दिन भर उछलते ही रहे,
हम उछलना चाहते तो थे, उछल पाए नहीं।
हैं बहुत से देश, जिनमें रात होती ही नहीं,
चाहकर भी, सूर्य उन देशों में ढल पाए नहीं।
***
जहीर कुरेशी के लेखन की मूल विधा हिन्दी गजल है। वे 1965 से लगातार लिख रहे हैं। अब तक उनके छह गजल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी गजलें विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल की गईं हैं।
पता- समीर कॉटेज, बी-21, सूर्य नगर,
शब्द- प्रताप आश्रम के पास, ग्वालियर-474012 (मप्र)
मोबाइल- 09425790565

2 comments:

girish pankaj said...

udanti ka har ank lazavab hota hai. yah ank bhi....naye saal ki agrim shubhkamanye.....

Devi Nangrani said...

Hai bahut se desh....
sooraj dhal nahin paate.
Bahut hi sunder v sikshapradhan ghazal padwane ke liye Udanti ko dhanyawaad.
Zaheer kureshi ji ki kalatmak rachnayein shabdon ke shilp se buni hui hai.