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Dec 25, 2010

उदन्ती.com-दिसम्बर 2010

वर्ष 1, अंक 4, दिसम्बर 2010
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सब से अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है। भले
ही वह कितना कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो?
- डॉ. राधाकृष्णन
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अनकही: चमत्कार भी होते हैं!
संरक्षणः
राष्ट्रीय विरासत हाथी - नवनीत कुमार गुप्ता
परंपराः
छत्तीसगढ़ के रमरमिहा - प्रो. अश्विनी केशरवानी
मुलाकातः
दण्डकारण्य का एक संत कवि - राजीव रंजन प्रसाद
मुद्दाः
आत्महत्या के रास्ते युवा पीढ़ी - गोपाल सिंह चौहान
यायावरीः
ब्रूस मिलसम की एक दिलचस्प समुद्री यात्रा - प्रताप सिंह राठौर
एक होटल जिसकी सजावट में ... /
वाह भई वाह
आधी दुनिया की आवाजः
अब बोलने का नहीं करने का समय ... - हुमरा कुरैशी
सबसे महंगी शाही शादी

दो गजलें -
जहीर कुरेशी
कहानी:
एक टोकरी भर मिट्टी - माधवराव सप्रे
लघु कथाएं:
21वीं सदी का सपना, स्त्री का दर्द -अमर गोस्वामी
किताबेः
संयुक्ता ने सिखाया दिल से
दो घंटे से ज्यादा कंप्यूटर खतरनाक ....

व्यंग्य:
एक शाम, भ्रष्टाचारियों के नाम - संजय कुमार चौरसिया
शोधः
ताली बजाकर सेहत बनाएं/ पिकासो के रोचक संस्मरण
आपके पत्र/ मेल बाक्स

रंग बिरंगी दुनिया

राष्ट्रीय विरासत हाथी

- नवनीत कुमार गुप्ता
हाथी प्राचीन काल से ही हमारे धर्म, संस्कृति और इतिहास से जुड़ा जीव है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने गजराज यानी हाथी को भारत का राष्ट्रीय विरासत पशु घोषित किया है। इससे पहले 13 अक्टूबर को राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड की स्थायी समिति की बैठक ने गजराज परियोजना पर गठित कार्यबल की सिफारिश के अनुरूप इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई। हाथियों के संरक्षण के लिए बनाए गए कार्यबल की रिपोर्ट जारी करते हुए पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि हाथी 'युगों से हमारी धरोहर का हिस्सा रहे हैं। बाघों की तरह इनकी भी सुरक्षा करने की आवश्यकता है।'
राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड की स्थायी समिति ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की तर्ज पर राष्ट्रीय हाथी संरक्षण प्राधिकरण के गठन पर भी जोर दिया है। उल्लेखनीय है कि हमारे देश में करीब 25,000 हाथी हैं जिनमें से करीब 3500 तो लोगों के अधीन हैं। पूरे एशिया महाद्वीप की हाथियों की आबादी का 60 प्रतिशत हमारे अपने देश में है।
धरती पर पाया जाने वाला सबसे विशाल जीव हाथी सदियों से मानव का पशु हमसफर रहा है। हाथी एक बुद्धिमान जानवर है और पूरे एशिया में इसकी बुद्धिमानी की कहानियां प्रचलित हैं। वैसे हाथी हमारे जीवन से जुड़ा है इसलिए इससे जुड़े मुहावरे और लोकोक्तियां समाज में बहुतायत से प्रचलित हैं।
धार्मिक ग्रंथों में हाथियों को लेकर अनेक आख्यान लिखे गए हैं जिनमें गज और ग्राह की कहानी सबसे प्रसिद्ध है। धन की देवी लक्ष्मी को भी हाथी प्रिय है। देवराज इंद्र एरावत नामक हाथी की सवारी करते हैं जो समुद्र मंथन से प्रकट हुआ था। प्रथम पूज्य देव गणेश का मुख हाथी का ही है। इसके अलावा भारतीय संस्कृति में हाथी को ऐश्वर्य और समृद्धि का प्रतीक माना गया है। प्राचीन समय में सेना में हाथियों के संख्या के आधार पर ही युद्ध की हार- जीत तय होती थी।
महाभारत में भी अश्वत्थामा नामक हाथी की मौत युद्ध की एक निर्णायक घटना रही थी। इसके अलावा हमारे अनेक तीज- त्यौहारों का सम्बंध हाथी से रहा है। मैसूर के प्रसिद्ध दशहरे में हाथियों का अनोखा श्रंृगार देखते ही बनता है।
वैसे तो मानव के प्रति हाथी का व्यवहार मित्रवत रहा है। लेकिन कुछ दशकों से मानव के प्रति इसका गुस्सा बढ़ रहा है। भारत में पिछले तीन सालों में करीब 1100 लोगों को हाथी के गुस्से का शिकार होकर अपनी जान गंवानी पड़ी है।
सन 2007 से 2009 के बीच हाथियों ने 15,312 घरों को तहस- नहस किया है। इसी दौरान हाथियों द्वारा फसलों को उजाडऩे की 87,269 घटनाएं हुर्इं। यह विचारणीय तथ्य है कि आखिर सदियों से मानव का हमसफर रहे हाथी का मानव के प्रति रवैया क्यों बदला। लगता है कि इसके पीछे मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। असल में वन क्षेत्र में हो रही कमी और अवैध शिकार के कारण हाथी हिंसक हो जाते हैं। अब यह बात साफ हो गई है कि प्राकृतवासों से की जा रही छेड़छाड़ ने वन्य जीवों और मानव के बीच संघर्ष को बढ़ाया है।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम चरण में भारतीय भू- भाग का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा वनाच्छादित था, जबकि स्वतंत्रता के समय केवल 22 प्रतिशत भू- भाग पर वन थे जो दिनों- दिन और कम होते गए। घटते वनों के चलते ये जीव आखिर जाएं तो जाएं कहां? वन्य जीवों के आवास स्थलों यानी वनों का क्षेत्रफल निरंतर कम हो रहा है। जिसके कारण हाथियों को पर्याप्त मात्रा में पानी और भोजन नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में आवश्यकताएं उन्हें मानवीय बस्तियों और खेतों की ओर ले आती हैं।
हम जानते हैं कि वनों का विनाश, आवास स्थलों की कमी तथा अवैध शिकार से कुछ प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कुछ विलुप्ति की कगार पर हैं।
हाथी भी इन मानवजनित समस्याओं का सामना कर रहे हैं। रेलगाडिय़ों से हाथियों की मौत की दुखद घटनाएं होती रहती हैं। कुछ महीनों पहले पश्चिम बंगाल में मालगाड़ी ने सात हाथियों को रौंद दिया था। इसके अलावा हाथियों का अवैध शिकार इनके अस्तित्व के लिए गंभीर समस्या है। 2 सितंबर को देहरादून पुलिस ने लाखों रुपए के हाथी दांतों के साथ दो लोगों को गिरफ्तार किया था।
सरकार ने हाथी को राष्ट्रीय विरासत पशु घोषित कर इस विशालकाय जीव के संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। लेकिन जब तक हाथियों के निवास स्थानों यानी वनों में मानवीय गतिविधियां रुक नहीं जाएंगी तब तक इस जीव पर संकट मंडराता रहेगा। इसलिए आम आदमी को हाथियों के संरक्षण की लिए आगे आना होगा तभी इस जीव का अस्तित्व बना रहेगा। वर्ष 2010 को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर हमें हाथी समेत सभी वन्य जीवों के संरक्षण का संकल्प लेते हुए इस धरती को जीवनमय बनाए रखने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

चमत्कार भी होते हैं !

चमत्कार भी होते हैं !
- डॉ. रत्ना वर्मा
वर्ष के अंतिम माह में वर्ष भर का लोखा- जोखा किया जाना स्वाभाविक है। कि 2010 का वर्ष कैसा रहा? क्या कहेंगे आप? अपनी किस विशिष्टता के लिए याद किया जाएगा भारत के इतिहास में इक्कीसवीं शताब्दी का इस वर्ष समाप्त हो रहा यह प्रथम दशक?
हमारे देश में भ्रष्टाचार जो छह दशक पूर्व एक नाली की तरह था वह इस दशक में बढ़कर एक अथाह महासागर का रूप ले चुका है। बड़ी संख्या में नेता, नौकरशाह और व्यापारी भ्रष्टाचार के इस महासागर में खूंखार सफेद शार्क मछलियों की तरह किलोल करते पनप रहे हैं। इस वर्ष भ्रष्टाचार के इस महासागर में से कुछ भयंकर ज्वालामुखी फटे यथा 70 हजार करोड़ का राष्ट्रकुल खेलों का घोटाला, 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कारगिल युद्ध के शहीदों के नाम से आदर्श सोसायटी घोटाला और कर्नाटक में खानों तथा सरकारी जमीन के आवंटन का घोटाला।
पिछले दो दशकों में घोटालों में हजार गुना, लाख गुना वृद्धि होने का एक प्रमुख कारण राजकीय कोष में सेंध लगाकर अपनी जेबें भरने को अपना कत्र्तव्य मानने वाले नेताओं और नौकरशाहों की पहले से ही मौजूद बड़ी संख्या थी। लाइसेंस, कोटा राज से मुक्ति पाए व्यापारी भी नियम कानूनों की धता बताते हुए पैसा बनाने में पहले से ही सिद्धहस्त थे। जैसे ही भ्रष्ट नेताओं और सरकारी कर्मचारियों को कानून पर धूल डालते हुए पैसा बनाने में माहिर व्यापारियों की सेवाएं प्राप्त हुईं कि दमघोंटू महंगाई से त्रस्त जनता को भ्रष्टाचार की सुनामी को भी झेलना पड़ रहा है।
दरअसल वैश्वीकरण के नाम पर हमारी नैतिक मूल्यों पर आधारित पारंपरिक संस्कृति को विस्थापित करके पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित मूल्य विहीन व्यापारिक संस्कृति को थोपा गया है। इस आयातित व्यापारिक संस्कृति के अनुसार इसका एकमात्र उद्देश्य धनोपार्जन है और धनोपार्जन के तरीकों के संदर्भ में कुछ भी नाजायज नहीं होता! अधिकांश नेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और व्यापारियों ने इस प्रकार के धनोपार्जन को पूर्ण आस्था से अपना कत्र्तव्य मान लिया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार का तमगा पाये हुए लोग अब शर्म और लिहाज को कायरता मानते हुए शान से सीना फुलाए बेफिक्र मौज करते हैं। भ्रष्टाचारी आम जनता का धन और सम्पत्ति बेखौफ होकर इसलिए लूटते रहते हैं क्योंकि हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था इन्हें संरक्षण देती है। राजनीतिक दंड संहिता के अनुसार पद से त्यागपत्र दे देना किसी भी अपराध के लिए समुचित दंड माना जाता है। (जैसे मुख्यमंत्री के रूप में जानवारों के चारे के नाम पर हजारों करोड़ के घोटाले के अपराध से इस्तीफा देकर केंद्र में कैबिनेट मंत्री बन जाना)। जहां तक सरकारी अफसरों का सवाल है पहले तो उनके खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार (वरिष्ठ अफसरों) से अनुमति लेनी पड़ती है जो अधिकांशत: मिलती ही नहीं है। और अगर मामला अदालत में चला भी गया तो उन्हें मालूम है कि हमारी न्यायप्रणाली में उनके जीवन काल में तो फैसला आएगा नहीं।
आज देश की समूची प्रशासनिक व्यवस्था का एक भी अंग भ्रष्टाचार से अछूता नहीं बचा है। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय को भी देश के सबसे बड़े उच्च न्यायालय में फैले भ्रष्टाचार के बारे में तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी है। नैतिक पतन के चरम स्थिति पर पहुंचने का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा?
9 दिसंबर अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा भी है कि भारत में 54 प्रतिशत लोगों का कहना है कि बिना रिश्वत के उनका कोई काम नहीं होता। जबकि हमारा मानना है ऐसा मानने वालों का प्रतिशत 85 प्रतिशत से भी अधिक होना चाहिए।
देश की वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था की स्थिति तो उस थाने जैसी है जहां उसके मातहत तो धड़ल्ले से लूटने में लगे है और पारर्दशी रूप से ईमानदार थानेदार आंखें मूंदे मौनी बाबा बना बैठा रहता है! इसी को कहते हैं 'अंधेर नगरी चौपट राजा।' स्वाभाविक ही है कि इस माहौल में हमारा देश आतंकवादियों के नृशंस खूनी खेल के लिए सबसे सुविधाजनक क्रीड़ास्थली बन गया है। क्या ताज्जुब की अंधेर नगरी की सरकार को केंद्रीय सर्तकता आयोग की अध्यक्षता के लिए सबसे उपयुक्त ऐसा अधिकारी ही मिला जिसके खिलाफ वर्षों से भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है!!
निश्चय ही घट- घट व्यापी भ्रष्टाचार इस दशक में हमारे देश की विशिष्टता है, परंतु मानव जीवन का यह भी यथार्थ है कि चमत्कार भी होते रहते हैं। जैसे 1977 में आपातकाल की सरकारी बेडिय़ों में जकड़े देश को जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रायोजित चमत्कार ने अवसाद से मुक्ति दिलाई थी वैसे ही पिछले माह बिहार के चुनाव परिणामों ने कमरतोड़ महंगाई और भ्रष्टाचार के अंधकार से त्रस्त आम आदमी को आशा की ज्योति दिखाई है। लालू- राबड़ी के 15 वर्ष के कुशासन ने बिहार को भ्रष्टाचार और अराजकता के लिए पूरे विश्व में कुख्यात कर दिया था। उसी बिहार को पुरस्कार के रूप में मतदाताओं ने नीतिश कुमार और सुशील मोदी के ईमानदार नेतृत्व को अभूतपूर्व सफलता दिलाते हुए देश को यह भी स्पष्ट संदेश दिया है कि आज का जागरुक मतदाता जातिवाद से ऊपर उठ कर विकास के कार्य कर रहे नेताओं के हाथ मजबूत करेगा और झूठे वादों की आड़ में भ्रष्टाचार करने वाले नेताओं को कूड़ेदान में फेंक देगा। इसका तुरंत परिणाम भी मिला- पहला सबसे बड़ा कार्य नीतिश कुमार ने यह किया कि विधायकों को प्रति वर्ष मिलने वाले 'स्थानीय क्षेत्र विकास निधी' की एक करोड़ राशि (सभी जानते हैं कि इस धन का दुरूपयोग ही होता है) को समाप्त कर दिया है। इसके साथ एक ऐसा कानून पास किया जिसमें भ्रष्टाचार में पकड़े गए सरकारी कर्मचारी की संपत्ति जब्त कर उसका उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया जाएगा।
ऐसा ही एक और चमत्कार हुआ- नोएडा जमीन घोटाले में उत्तर प्रदेश की पूर्व प्रधान सचिव और रिटायर्ड आईएएस अफसर नीरा यादव को गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत द्वारा दोषी करार देते हुए 4 साल की सजा सुनाना। नीरा यादव के खिलाफ फ्लेक्स ग्रुप को गलत तरीके से सात एकड़ जमीन अलॉट करने का मामला था।
हमें विश्वास है कि हमारे सुधी पाठक भी हमारी भांति कामना करते हैं कि देश के सभी नेता और मतदाता बिहार के इस चमत्कारिक आदेश को नववर्ष के लिए सार्थक संदेश मानते हुए हार्दिक स्वागत करेंगे।
आपका नववर्ष मंगलमय हो।

छत्तीसगढ़ के रमरमिहा


अपने पूरे शरीर पर राम नाम का गुदना गुदवा कर पूरी दुनिया में विशिष्ट पहचान बनाने वाला छत्तीसगढ़ का रामनामी संप्रदाय पिछले 20 पीढिय़ों से इस अनोखी परंपरा के साथ आज भी चल रहा है, लेकिन वर्तमान परिवेश में इस संप्रदाय की नई पीढ़ी अपने पूरे शरीर पर राम का नाम गुदवाने से परहेज करने लगी है। बुजूर्गों के दबाव या परंपरा के निर्वाह के नाम पर अपने माथे अथवा हाथ पर वे एक या दो जगह राम- नाम गुदवा लेते हैं। यह परिवर्तन अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि नई पीढ़ी पढ़- लिख कर अपने रोजगार के सिलसिले में अन्य स्थानों में आने- जाने लगी है ऐसे में वे अपने पूरे शरीर पर राम नाम का स्थायी गुदना गुदवा कर पूरी जिंदगी एक अजूबे के रूप में अपने को देखा जाना पसंद नहीं करते, यही वजह है कि साल में एक बार लगने वाले रामनामी भजन मेले में रामनामी संप्रदाय में दीक्षित होने वालों की संख्या भी लगातार घटती जा रही है। अत: सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या इस संप्रदाय की अगली पीढ़ी अपनी इस परंपरा को कायम रखते हुए आगे बढ़ पाएगी? छत्तीसगढ़ के रमरमिहा संप्रदाय की उत्पत्ति, परंपरा तथा रीति- रिवाजों को लेकर प्रस्तुत है प्रो. अश्विनी केशरवानी का यह आले -
महानदी छत्तीसगढ़ की एक पवित्र और पुण्यदायिनी नदी है। इसे चित्रोत्पला गंगा भी कहा जाता है और इसका उल्लेख रामायण और महाभारत कालीन ग्रंथों में मिलता है। गंगा के समान पवित्र इस नदी के तट पर अनेक नगर और मंदिर स्थित हैं। महानदी की पवित्रता के कारण ये नगर सांस्कृतिक तीर्थ कहलाने लगे। प्राचीन काल में ऋ षि- मुनी इन नगरों में अपना आश्रम बनाकर तप किया करते थे।
रामनाम को समर्पित स्त्री और पुरुष अपने पूरे शरीर में राम नाम अंकित कराकर निर्गुण राम को भजने वाले रामनामी इसी महानदी के तटवर्ती ग्रामों में बसते हैं। जिन्हें यहां रमरमिहा, रामनमिहा या रामनामी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के पांच सीमावर्ती जिलों रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर- चांपा, महासमुंद और रायगढ़ के सारंगढ़, घरघोड़ा, मालखरौदा, चंद्रपुर, पामगढ़, कसडोल, बलौदाबाजार और बिलाईगढ़ क्षेत्र के लगभग 300 गांवों में निवास करते हैं।
रामनामी पंथ अनुसूचित जाति की एक शाखा है जो संत कवि रैदास को अपने पंथ का मूल पुरूष मानते हैं। रामनाम में सदा तन्मय रहने वाले ये लोग अहिंसा के पुजारी और शाकाहारी होते हैं। मदिरा से वे बहुत दूर रहते हैं।
महानदी की सहायक नदी जोंक के तट पर गुरू घासीदास का धाम गिरौदपुरी स्थित है। यहीं सतनाम पंथ का जन्म हुआ । इसी प्रकार सरसींवा के पास महानदी का तटवर्ती ग्राम उड़काकन रामनामी पंथ का एक पवित्र तीर्थधाम है। रामनामी और सतनामियों के लिये शिवरीनारायण का वही महत्व है जो दूसरों के लिये प्रयाग और काशी का है। माघी पूर्णिमा में लगने वाले मेले के समय इस पंथ के लोग भी शिवरीनारायण में अपना तम्बू लगाकर भजन आदि करते हैं। इस मेले में अरने पूरे शरीर में

रामनाम का अंकन किए हुए रामनामियों का रेला देखना लोगों के लिये आकर्षण का केन्द्र होता है। मैं भी इन्हें बचपन से देखते आ रहा हंू। मेरे लिये भी ये उत्सुकता का विषय रहे हैं।
सांवले शरीर में रामनाम का गोदना, सिर पर मोर मुकुट लगाये हाथ में मंजिरा लिये रात- दिन रामनाम का भजन। राम के इन निर्गुण भक्तों के शरीर का ऐसा कोई भाग नहीं बचा होता जहां रामनाम अंकित न हो। यहां तक कि उनके कपड़ों पर भी रामनाम का अंकन होता है। आप उनके घरों की दीवारों पर भी राम- राम लिखा हुआ पाएंगे। मेला स्थल पर जिस तम्बू के नीचे वे रहते हैं, उसमें भी रामनाम ही अंकित होता है। अभिवादन के लिए राम- राम का संबोधन तो छत्तीसगढ़ में प्रचलित है ही।
छत्तीसगढ़ में रामनामी पंथ की उत्पत्ति के सम्बंध में मध्यप्रदेश आदिवासी शोध पत्रिका में लिखा है कि ये लोग हरियाणा के नारनौल से यहां आये थे। उस काल में तत्कालीन शासकों के दमनात्मक रवैये से त्रस्त होकर ये लोग छत्तीसगढ़ के शांत माहौल में आ बसे थे। आज उनकी 20 वीं पीढ़ी के वंशज अपनी परंपराओं और विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहरों के कारण अलग से पहचाने जाते हैं। पारस्परिक सद्भाव और अद्भुत संगठन क्षमता वाले इस कौम को तोडऩे के लिये तत्कालीन शासकों ने एक चाल चली जिसमें वे सफल भी हो गये। पूर्व में रामनामी पंथ के लोग भी सतनाम के उपासक थे। उनमें आपसी सद्भाव और भाईचारा था। उनमें अच्छा संगठन था। उनकी इस संगठन शक्ति को क्षीण करने और आपस में फूट डालने के लिये एक नवजात शिशु के माथे पर रामनाम गुदवा दिया और प्रचारित कर दिया कि यह शिशु राम की इच्छा से इस भूलोक में आया है। अत: राम की इच्छा के अनुरूप रामनाम का अनुसरण करें। इस प्रकार एक शक्तिशाली संगठन दो हिस्सों में बंट गया। आगे चलकर इन दोनों समुदाय के दो भाग और हुये। अलग रहने के बावजूद इनमें सांस्कृतिक साम्यता पायी जाती है।
निर्गुण राम के उपासक
श्रीराम को भारत में अनेक रूपों में पूजा जाता है। शायद ही कोई ऐसा होगा जो श्रीराम के सगुण रूप को नकारता हो? लेकिन महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में बसे ये रमरमिहा श्रीराम के सगुण रूप को नकार कर उसके निर्गुण रूप के उपासक हैं। हिन्दुस्तान में शायद ही कोई दूसरा पंथ होगा जो रामनाम में इतना रम जाए कि अपने पूरे शरीर में रामनाम गुदवा ले।
जांजगीर- चांपा जिले के मालखरौदा विकासखंड के अंतर्गत ग्राम चारपारा के श्री परसराम भारद्वाज को रामनामी पंथ का प्रवर्तक माना जाता है। सन् 1904 में उन्होंने निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम को मानकर एक जन आंदोलन की शुरूवात की थी। उन्होंने सबसे पहले अपने माथे पर रामनाम अंकित कराया था। इसके पूर्व निचली जाति के माने जाने के कारण वे रामायण का पाठ और रामनाम का उच्चारण नहीं करते थे। उनका मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था। अक्सर उनको जातिगत आधार पर अपमान सहना पड़ता था। इसी बीच विदेशी ताकतों ने इस क्षेत्र को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और उन्हें इसाई धर्म मानने के लिये विवश किया। इसके लिये उन्हें हर प्रकार की मदद दी जाने लगी। इसी समय श्री परसराम भारद्वाज ने रामनामी पंथ के अंतर्गत निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम की पूजा अर्चना करने की बात कही, जिसे सबने सहर्ष स्वीकार किया और तब से सब निराकार श्रीराम को अपने घर में पूजने लगे। भविष्य में उच्च जातियों द्वारा पुन: बाधा न डाल सके इसके लिये उन्होंने तत्कालीन मध्य प्रांत और बरार के जिला सत्र न्यायालय से कानूनी अधिकार भी प्राप्त कर लिया। सत्र न्यायाधीश ने अपने फैसले में लिखा है- ये लोग जिस राम के नाम को भजते हैं वे राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम नहीं हैं बल्कि निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम हैं।
रामनामी पंथ की सामाजिक संरचना में जन्म से लेकर मृत्यु तक और विवाह से लेकर संतानोत्पत्ति तक के सारे संस्कार ऐसे बनाये गये हैं जिसमें ब्राह्मणों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। बिलासपुर जिला गजेटियर के अनुसार उनके धार्मिक कार्यो को पंथ के संत सम्पन्न कराते हैं। रमरमिहा अपने झगड़ों का निपटारा कोर्ट- कचहरी में नहीं बल्कि अपनी पंचायत में करना ज्यादा पसंद करते हैं। इस पंथ की अपनी पंचायत होती है, जो सर्वमान्य संस्था होती है। इनके सामाजिक पंचायत का गठन पंथ के निर्माण के समय से ही हुआ है। सन् 1960 के पहले तक गुरू प्रथा से पंचों का नामांकन होता था। लेकिन समयानुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन अवश्यसंभावी है। अत: नामांकन प्रथा ने चुनाव प्रक्रिया का रुप ले लिया। इस प्रकार सन् 1960 में पहली निर्वाचित पंचायत बनी और उसके बाद से हर वर्ष पंचायत का चुनाव होता है। इस पंचायत में 100 पंच होते हैं। आठ गांव के पीछे एक प्रतिनिधि होता है। ये सब महासभा के प्रतिनिधि कहलाते हैं। इसी महासभा में पदाधिकारियों का निर्वाचन होता है। पंचायत का कार्यक्षेत्र सामाजिक, पारिवारिक झगड़ों का निपटारा करना, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन को मजबूत बनाना और सामूहिक विवाह को सम्पन्न कराना होता है।
संत समागम और पंथ मेला
रामनामी पंथ के दो प्रमुख आयोजन होते हैं- एक रामनवमी के दिन संत समागम और दूसरा, पौष एकादशी से त्रयोदशी तक चलने वाला तीन दिवसीय पंथ मेला। इस मेले में सामाजिक वाद- विवाद तथा पारिवारिक झगड़े जैसी समस्याओं का फैसला होता है। इसके अलावा महासभा का आयोजन और सामूहिक विवाह भी होते हैं। अगला मेला किस स्थान में लगेगा, इसका निर्णय भी यहीं पर हो जाता है। रामनामी मेला महानदी के तटवर्ती ग्रामों में एक वर्ष महानदी के उत्तर में तो दूसरे वर्ष महानदी के दक्षिण में लगता है।
रामनामी मेला का आयोजन महानदी के तटवर्ती ग्रामों में लगने के बारे में एक लोककथा प्रचलित है- आज से 85- 85 वर्ष पहले की बात है सवारी से भरी एक नाव महानदी को पार करते समय मझधार में फंस गयी। नाविकों ने नाव को किनारे लगाने की बहुत कोशिश की मगर सफलता नहीं मिलीं उस समय ईश्वर ही कोई चमत्कार कर सकता था। नाव में सवार सभी यात्री प्रार्थना करने लगे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। संयोग से उस नाव में रामनामी पंथ के प्रवर्तक श्री परसराम भारद्वाज और उनके अनुयायी भी सवार थे। सबने उनसे भी प्रार्थना करने का अनुरोध किया। तब उन्होंने भी कहा- यदि मझधार में फंसी नाव सकुशल किनारे लग जायेगी तो रामनामी समाज प्रति वर्ष महानदी के दोनों किनारों पर रामनाम के भजन- कीर्तन का आयोजन करेगी। आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, उनके इतना कहते ही नाव सकुशल किनारे लग गयी। तब से प्रतिवर्ष महानदी के तटवर्ती ग्रामों में रामनाम के भजन- कीर्तन का आयोजन होने लगा जिसने आगे चलकर रामनामी सम्मेलन और मेले का रूप ले लिया।
तीन दिवसीय इस मेले के पहले दिन मेला स्थल में निर्मित जय स्तम्भ के उपर कलश चढ़ाया जाता है। दूसरे दिन रामायण पाठ और भजन- कीर्तन का आयोजन होता है। मेले के अंतिम दिन सामूहिक विवाह और सामूहिक भोजन- भंडारा का आयोजन होता है। मेला स्थल के आस- पास जुआ, मांस- मदिरा जैसी कुप्रथा पूर्णत: प्रतिबंधित होती है। रामलीला का कार्यक्रम इस मेले का प्रमुख आकर्षण होता है। मेला स्थल के मध्य में 13 फीट ऊंचे जय स्तम्भ का निर्माण किया जाता है जिसके चबूतरे में भी रामनाम अंकित होता है। इस चबूतरे पर रामचरित मानस की प्रति रख दी जाती है, जहां रामनाम कीर्तन होता है जिसमें वाद्य यंत्रों के स्थान पर घुंघरू मंडित लकड़ी के चौके से ध्वनि और ताल दी जाती है। मयूर पंख से सुसज्जित तंबूरे से वातावरण राममय हो जाता है। विवाह के समय वर- वधू को जय स्तम्भ और रामायण को साक्षी मानकर सात फेरे लगवाए जाते हंै। फेरे के पूर्व महासभा के समक्ष वर और वधू पक्ष को विधिवत घोषणा पत्र भरना पड़ता है और संस्था का निर्धारित शुल्क देना पड़ता है। यहां दहेज मांगना और तलाक लेना पूर्णत: वर्जित है। हालांकि विधवा महिला के माथे पर रामनाम देखकर कोई व्यक्ति उनसे पुनर्विवाह कर सकता है।
पता: राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)
मोबाइल- 9425223212
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लाला जगदलपुरी

 दण्डकारण्य का एक संत कवि
- राजीव रंजन प्रसाद
उम्र के इस पड़ाव पर लाला जी की आंखें कमजोर हो गयी हैं कानों से अब सुना नहीं जाता यहां तक कि चाल भी मद्धम हो गयी है लेकिन उनके चेहरे की तेजस्विता में कहीं कोई कमीं नहीं आयी है। वे आज भी पढ़ रहे हैं और आज भी लिख रहे हैं।
रात के लगभग नौ बजने वाले थे, मुझे इस बार डोकरीघाट पारा की वह गली अपरिचित सी लगी। उन दिनों वह खपरैल का मकान हुआ करता था जिसकी दीवारे पक्की थीं। बाहर तब भी वही चिरपरिचित बोर्ड लगा था जो आज भी है- कवि निवास। अब एक आलीशान मकान सम्मुख था जिसके मुख्य द्वार से हो कर हम भीतर प्रविष्ठ हुए। बाई ओर ही एक कक्ष था जिसमें एक खाट बिछी हुई थी और जिसके गिर्द मच्छरदानी कसी हुई थी। कमरे के बीचो- बीच एक कुर्सी पर विचारमग्न दण्डकारण्य का संत बैठा हुआ था। सामने ही एक पोर्टेबल रंगीन टेलीविजन जिसपर ईटीवी का छत्तीसगढ़ समाचार चैनल चल रहा था। समाचार फ्लैश हो रहा था- नक्सलवादियों ने एक ग्राम सरपंच की मुखबिरी के आरोप में हत्या कर दी। इस समाचार की वेदना उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
लाला जी को यह महसूस करने में समय लगा कि हम उनके कक्ष के भीतर प्रविष्ठ हो गये हैं। मैंने लाला जी के चरण स्पर्श किये। लाला जगदलपुरी जी से लगभग 18 वर्ष के अंतराल के बाद मुलाकात हो रही थी।
'तुम राजीव रंजन हो न?' लाला जी की आंखें मेरे चेहरे पर टिकी, वे बहुत गौर से मुझे देख रहे थे। उनके द्वारा पहचाना जाना ही मेरे लिये उपलब्धि था और मेरे लिये सर्वदा स्मरण रहने वाला सुखद अहसास। तीन अवसर ऐसे हैं जिनमें लाला जी के सम्मुख काव्यपाठ करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ है। जगदलपुर में अपने स्नातक अध्ययन के तीन वर्षों में मैं प्राय: कवि निवास जाया करता था और लाला जी से कविता, साहित्य, संस्कृति, इतिहास और बस्तर जैसे विषयों पर बाते होती थीं। उनके अनुभवों ने 'बस्तर' को लेकर मुझे एक नयी दृष्टि दी।
यह मेरी खुशकिस्मती है कि मैं लाला जगदलपुरी के युग में पैदा हुआ और बस्तर की मिट्टी मेरी मातृभूमि है, लाला जगदलपुरी जिसकी अमिट पहचान हैं। 91 वर्षीय लाला जी एक व्यक्ति नहीं विरासत हैं ।
उम्र के इस पड़ाव पर लाला जी की आंखें कमजोर हो गयी हैं कानों से अब सुना नहीं जाता यहां तक कि चाल भी मद्धम हो गयी है लेकिन उनके चेहरे की तेजस्विता में कहीं कोई कमीं नहीं आयी है। वे आज भी पढ़ और लिख रहे हैं।
लाला जी से इन दिनों संवाद स्थापित करना आसान नहीं है, उन्हें प्रश्न लिख कर देने होते हैं जिन्हें पढ़, समझ कर वे प्रत्युत्तर देते हैं। लाला जी से बातचीत के आरंभ में अतीत की अनेक बाते हुईं। उन्होंने अपनी अवस्था के कारण सृजन में होने वाली तकलीफों के विषय में बताया। उनका बहुतायत सृजन अभी भी अप्रकाशित है और कोई ऐसी पहल भी नहीं हो रही है कि इस युगपुरुष की रचनाओं का संकलन उपलब्ध हो तथा पूर्वप्रकाशित पुस्तकों के नवीन संस्करण निकलें।
लाला जी केवल हिन्दी ही नहीं अपितु बस्तर के सभी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के भी विद्वान हैं। उनके कई काव्य हलबी, गोंडी, भतरी तथा छतीसगढ़ी में भी संकलित है। लाला जी का बहुचर्चित हिन्दी ग•ाल संग्रह 'मिमियाती जिन्दगी दहाड़ते
परिवेश' उस समय में प्रकाशित हुआ था जब कि ग•ाल को हिन्दी की विधा बनाये जाने की सोच भी विकसित नहीं हुई थी। यह पुस्तक अब दुर्लभ है।
लाला जी को मैंने साहित्य शिल्पी ई-पत्रिका दिखाई तथा इंटरनेट पर हिन्दी के लिये इस पत्रिका द्वारा किये जा रहे प्रयासों से अवगत कराया। मैं साहित्य शिल्पी पर लाला जी की रचनाओं और कार्यों का संकलन उपलब्ध कराने के लिये प्रयासरत हूं।
लाला जी से उनके गजल संग्रह की उनके पास इकलौती उपलब्ध प्रति जो मुझे उनके भाई तथा साहित्यकार के. एल. श्रीवास्तव के माध्यम से प्राप्त हुई, की दशा देख कर मन में कसक सी हुई। इस पुस्तक को तीन ओर से चूहों ने कुतर लिया था। सौभाग्यवश इस पुस्तक की छायाप्रति मैंने करा ली है तथा अब साहित्यशिल्पी के माध्यम से नियमित रूप से लाला जगदलपुरी की रचनाओं को इंटरनेट माध्यम पर संग्रहित किया जा सकेगा। मेरा प्रयास होगा की उनकी संपूर्ण रचनावली 'साहित्य शिल्पी' एवं 'कविता कोष' पर उपलब्ध हो सके।
आज कौन गिनना चाहता है कि कितने लोकगीत हैं जो लाला जी ने लिखे हैं और वो मांदर की थाप के साथ गूंजती लयबद्ध स्वरलहरियां बन आदिम समाज का अभिन्न हिस्सा हो गये हैं। साहित्य के विशेषज्ञ हिन्दी और उर्दू की गजलों के बहस में उलझे फिरते हैं और इधर खामोशी से यह बस्तरिया कवि हलबी और भतरी जैसी आदिम भाषाओं में मानक ग़ज़लें उनके लिये कहता रहा है जिनके कंधे पर तूम्बा टंगा है और कमर में लुंगी भर है। वह उनका जीवन जीता है और गाता है।
'हलबी' बोली में उनकी ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां -
धुंगिया दिया एहो कनकचुड़ी, धान लसलसा डंडिक गोठेयाऊं।
आजी काय साग खादलास तुमी, सांगुन दिया डंडिक गोठेयाऊं।
(अनुवाद: ओ कनकचुड़ी धान की लहलहाती फसल, आओ थोड़ी देर बतिया लें। यह तो बताओ कि आज तुमने कौन सा साग खाया? आओ बैठो, थोड़ी देर बतिया लें।)
एक 'भतरी' बोली में कविता देखें -
आमी खेतेआर, मसागत आमर, आमी भुतिआर, मसागत आमर
गभार- धार, मसागत आमर, नांगर- फार, मसागत आमर
धान- धन के नंगायला पुटका, हईं सौकार, मसागत आमर
(अनुवाद: हम खेतीहर, मशक्कत हमारी, हम मजदूर मशक्कत हमारी। गभार हो या धार, मशक्कत हमारी। हल- फाल, मशक्कत हमारी। धान- धन को हड़प गया 'पुटका', वही हो गया साहूकार मशक्कत हमारी)
शानी और धनन्जय वर्मा जैसे साहित्यकार अपनी लेखनी के पीछे लाला जी की प्रेरणा मानते हैं। लाला जी बस्तर के इतिहास का भी हिस्सा हैं । यह हमारा सौभाग्य है कि वे अभी हमारे बीच हैं। मुझे बस्तरिया होने में जो गर्व का अहसास है उसका पहला कारण हैं- लाला जगदलपुरी।
प्रस्तुत है लाला जी से बातचीत के कुछ अंश:
लाला जी, उम्र के इस पड़ाव पर अब तक के अपने साहित्यिक लेखकीय कार्यों को किस प्रकार मूल्यांकित
करते हैं?
- मैं अपने साहित्यिक- लेखकीय कार्यों को लगभग 91 वर्ष की आयु में भी किसी हद तक अपने ढंग से निभाता ही चला आ रहा हूं, मन- मस्तिष्क और शरीर की सक्षमता को पहले की तरह अनुकूल नहीं रख पाता। फिर भी मैं किसी तरह स्वाध्याय और लेखन से जुड़ा हुआ हूं।बस्तर की कविता का पर्याय लाला जगदलपुरी को ही माना जाता रहा है। एक युग जिसमें आप स्वयं, शानी तथा धनंजय वर्मा आदि का लेखन सम्मिलित है और दूसरा बस्तर का वर्तमान साहित्यिक परिवेश क्या आप इन दोनों युगों में कोई अंतर पाते हैं?
- बस्तर से मेरा जन्मजात संबंध स्थापित है, इसलिए साहित्य की विभिन्न विधाओं में बस्तर को मंैने भावनात्मक अभिव्यक्तियां दे रखी हैं। साथ- साथ शोधात्मक भी। वैसे, मेरी मूल विधा तो काव्य ही है। बस्तर के धनन्जय वर्मा और शानी अपने लेखन- प्रकाशन को लेकर हिन्दी साहित्य में अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित रहे हैं। बस्तर के लिये यह गौरव का विषय है। बस्तर का वर्तमान साहित्यिक परिवेश, वर्तमान की तरह तो चल रहा है परंतु इस परिवेश में लेखन- प्रकाशन से सम्बद्ध इक्के- दुक्के साहित्यकार ही प्रसंशनीय हो
पाये हैं।
बस्तर के साहित्य, इतिहास, संस्कृति, पर्यटन जैसे अनेकों विषयों पर आपने उल्लेखनीय कार्य किया है। आपके कार्यों और पुस्तकों को बस्तर के अध्ययन शोध के लिये मानक माना जाता है। आप संतुष्ट है या अभी अपने कार्यों को पूर्ण नहीं मानते?
- जहां तक हो सका मैंने बस्तर पर केन्द्रित विभिन्न विषयक लेखन- प्रकाशन को अपने ढंग से अंजाम दिया है। अपनी लेखकीय सामथ्र्य के अनुसार निश्चय ही बस्तर सम्बंधी अपने लेखन- प्रकाशन से मुझे आत्मतुष्टि मिली है। मेरे पाठक भी मेरे लेखन की आवश्यकता महसूस करते हैं।
आपने बस्तर में राजतंत्र और प्रजातंत्र दोनों ही व्यवस्थाएं देखीं है। बस्तर के आम आदमी को केन्द्र में रख कर इन दोनों ही व्यवस्थाओं में क्या अंतर महसूस करते हैं?
- बस्तर में प्रजातांत्रिक गतिविधियां केवल प्रदर्शित होती चली आ रही हैं, किंतु बस्तर के लोकमानस में पूर्णत: आज भी राजतंत्र स्थापित है। 'बस्तर दशहरा' शीर्षक की एक कविता की उल्लेखनीय पंक्तियां इसकी साक्षी हैं -
पेड़ कट कट कर, कहां के कहां चले गये।
पर फूल रथ/ रैनी रथ/ हर रथ, जहां का वहीं खड़ा है।
अपने विशालकाय रथ के सामने।
रह गये बौने के बौने, रथ निर्माता बस्तर के।
और खिंचाव में हैं, प्रजातंत्र के हाथों,
छत्रपति रथ की राजसी रस्सियां।
इन दिनों बस्तर में बारूद की गंध महसूस की जाने लगी हैं। इस क्षेत्र के वरिष्टतम बुद्धिजीवी होने के नाते बस्तर अंचल में जारी नक्सल आतंक पर आपके विचार?
- बस्तर में नक्सली आतंक की भयानकता का मैं कट्टर विरोधी हूं। नक्सली भी यदि मनुष्य ही हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग ग्रहण करना चाहिये।
विचारधारा साहित्य के अंतर्सम्बंध को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
- विचारधारा और साहित्य के अनिवार्य सम्बंध को मैं मानवीय दृष्टि से महसूस करता ही आ रहा हूं।
क्या आप मानते हैं कि आज पाठक धीरे- धीरे कविता से दूर जा रहा है? इसका क्या कारण है?
- कविता स्वभावत: भावना प्रधान होती है, किंतु आज के अधिकांश व्यक्ति भावुकता से तालमेल नहीं बिठा पाते। इसी कारण कविता से आम पाठक दूर होते जा रहा है।
इन दिनों आप क्या और किन विषयों पर लिख रहे हैं?
- इन दिनों मेरा लेखन सीमित हो गया है। वयात्मक दृष्टि और शारीरिक दुर्बलता के कारण। फिर भी कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूं। बिना लिखे रहा नहीं जाता।
आपका संदेश?
- मेरी हार्दिक इच्छा है कि कविता के प्रति पाठकों में अभिरुचि उत्पन्न हो।
***
साहित्यिक- सांस्कृतिक गतिविधियां से जुड़े राजीव रंजन प्रसाद विभिन्न विषयों पर लिख रहे हैं जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। वर्तमान में वे अंतर्जाल पर सक्रिय लेखन तथा साहित्य शिल्पी www.sahityashilpi.com का कुशलतापूर्वक संपादन/संचालन कर रहे हैं। संप्रति: एन.एच.पी.सी लि.(भारत सरकार का उपक्रम) में सहायक प्रबंधक (पर्यावरण) पद पर कार्यरत हैं।
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आत्महत्या के रास्ते युवा पीढ़ी

- गोपाल सिंह चौहान

छात्र- छात्राओं द्वारा सबसे अधिक आत्महत्याएं होने वाले देशों में भारत पहला स्थान रखता है। शिक्षा के आदर्श प्रतिमानों में शुमार स्कूल अब बच्चों की खुदकुशी का कारण बनने लगी हैं जिससे यह पूरा ढांचा सवालों के घेरे में है।
मानव इतिहास में पहली बार 1819 में जर्मनी के एक शहर प्रुश्या में शुरू की गयी स्कूली व्यवस्था हिन्दुस्तान में आज अपने सबसे बुरे दौर में है। वैसे तो भारत में आज की शिक्षा प्रणाली हजारों खामियों से ग्रसित है, कोढ़ में खाज यह कि छात्र- छात्राओं द्वारा सबसे अधिक आत्महत्याएं होने वाले देशों में भारत पहला स्थान रखता है। शिक्षा के आदर्श प्रतिमानों में शुमार स्कूल अब बच्चों की खुदकुशी का कारण बनने लगे हैं जिससे यह पूरा ढांचा सवालों के घेरे में है। 'शिक्षा का अधिकार' बिल के अति उत्साही समर्थकों को राष्ट्रीय अपराध आंकड़े ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट को पढ़कर यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि कहीं उनका यह शिक्षा का अधिकार हमारे मासूम छात्र- छात्राओं के पास आत्महत्या के रास्ते से तो नहीं पहुंचेगा? एनसीआरबी के 2008 के अंतिम आंकड़ों के अनुसार 2007 में देश में कुल 1976 छात्र- छात्राओं ने विभिन्न परीक्षाओं में फेल होने के कारण आत्महत्या की है। 2008 में यह संख्या बढ़कर 2100 तक पहुंच गयी थी। 2006 का साल इस लिहाज से सबसे बुरा समय माना जायेगा जिस दौरान 5857 छात्र- छात्राओं यानि हर दिन परीक्षा के दबाव ने 16 विद्यार्थियों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया। 2008 की इन रिपोर्टों के दो साल बाद आज शिक्षाविदों का मानना है कि 2011 तक आते आते यह स्थिति और भी भयानक रूप लेने वाली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी 15 से 35 आयुवर्ग में हो रही मौतों में आत्महत्या को पहले तीन कारणों में जगह दी है।
शिक्षा की परीक्षा
इस रिपोर्ट का एक दूसरा पहलू और भी दुखद है जो हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था के उस आदर्श पर प्रश्न चिह्न लगाता है जिसके महावाक्य 'आनंदमयी शिक्षा', 'अनिवार्य शिक्षा', 'सर्व शिक्षा', 'खेल- खेल में शिक्षा' और अब 'शिक्षा का अधिकार' जैसे कईं आडम्बर पूर्ण मुहावरों से भरे पड़े हैं। यह रिपोर्ट इन आडम्बरों की भी पोल खोलती है जिसके अनुसार पिछले वर्षों में हुई कुल आत्महत्याओं में केवल 21.8 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिन्होंने किसी तरह की कोई स्कूली व अन्य औपचारिक शिक्षा नहीं ली। क्या हम ऐसा कह सकते हैं कि स्कूल न जाने से कितने लोग आत्महत्या करने से बच गये होंगे? पढ़े लिखे लोगों द्वारा आत्महत्या करने वाले मामलों में प्राथमिक शिक्षा ले चुके लोगों की संख्या सबसे ज्यादा यानी 25.2 प्रतिशत है। दूसरे स्थान पर है माध्यमिक तक की शिक्षा ले चुके लोगों का प्रतिशत जो है 24.2। इसी प्रकार दसवीं तक पढऩे वाले 17.6 प्रतिशत, हायर सेकेण्डरी का 8.1 प्रतिशत, स्नातक 1.9 प्रतिशत तथा स्नात्तकोतर व इससे आगे की पढ़ाई करने वालों का प्रतिशत 0.3 प्रतिशत है। आप में से कुछ आशावादी इसका यह मतलब भी निकाल सकते हैं कि यदि लोगों तक उच्च शिक्षा दी जाए तो यह प्रतिशत कम हो सकता है। लेकिन यह व्यावहारिक रूप से बिल्कुल सही नहीं है क्योंकि इतने बड़े देश में एक उन्नत उच्च शिक्षा की व्यवस्थाएं फिलहाल संभव ही नहीं है। इसके कारणों की भी यह रिपोर्ट पड़ताल करती है।
इससे एक बात साफ जाहिर होती है कि सरकार जिस तरह का देशी- विदेशी अरबों रुपया पिछले कुछ दशकों से प्राथमिक शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने में लगा चुकी है उसके सकारात्मक परिणाम व्यावहारिकता में दिखाई नहीं दे रहे। 'स्कूल बिना बढ़े चलो' विचारधारा के अग्रणी प्रवक्ता जॉन हॉल्ट के वे प्रश्न आज जायज लगते हैं जिसमें वे इस पूरी फैक्ट्री -स्कूली व्यवस्था से सवाल करते हैं कि क्या स्कूलों की कतई कोई जरूरत है चाहे वे किसी भी तरह चलते और संचालित होते हों? क्या वे सीखने के श्रेष्ठ स्थान हैं? क्या वे बच्चों के लिए सुरक्षित स्थान हैं? वे एक अच्छा स्थान भी हैं क्या?
अब इस रिपोर्ट के दूसरे पहलूओं को भी गौर से देखें। विभिन्न काम- धंधों के आधार पर किये गये वर्गीकरण में यह रिपोर्ट बताती है कि कुल आत्महत्याओं में विद्यार्थियों का प्रतिशत 5.1 प्रतिशत है जिसमें छात्राओं की संख्या छात्रों की तुलना में 2.3 प्रतिशत अधिक है। इससे भी चिंताजनक बात यह है कि खुदकुशी का रास्ता अपनाने वाले 75.8 प्रतिशत विद्यार्थी यानी कुल 6248 आत्महत्या करने वाले छात्र- छात्राओं में से 4734 विद्यार्थी 15 से 29 साल की उम्र के हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था भी युवाओं के लिए अधिक संभावनाओं का रास्ता नहीं देती। वर्ष 2007 में 14 वर्ष तक के 1240 और 30 से 44 वर्ष तक के 250 विद्यार्थियों ने खुदकुशी की है।
इसी रिपोर्ट में 2006 के आंकड़े यह बताते हैं कि परीक्षाओं में फेल होने के कारण खुदकुशी करने वालों में भी 15 से 29 वर्ष के छात्र- छात्राओं की संख्या सबसे ज्यादा है। 2006 में इस आयु वर्ग के 1532 छात्र- छात्राओं ने परीक्षा में फेल होने की वजह से मौत को गले लगाया। 14 वर्ष तक की उम्र में लड़के- लड़कियों का अनुपात बराबर रहा जिनमें 179 छात्र व 179 छात्राओं ने परीक्षा पास नहीं कर पाने की वजह से खुदकुशी की।
आत्महत्या में युवा सबसे आगेपरीक्षाओं में फेल होने या कम नंबर आने के कारण मौत को गले लगाने वाले इन युवाओं के अलावा ऐसे नौजवानों की भी कमी नहीं है जो अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तालमेल नहीं बैठा पाने के कारण अपने जीवन को नष्ट करने का मन बना लेते हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि समस्याओं का हल ढूंढने में नाकाम रहने पर मौत का रास्ता अपनाने वाले अधिकांश युवा 30 वर्ष से कम उम्र के ही हैं। इस उम्र के 129 युवा रोज इस देश में आत्महत्या कर लेते हैं जबकि 30 से 44 वर्ष की उम्र के 119 लोग रोज अपनी मर्जी से मौत को गले लगाया है। इन आत्महत्या करने वाले युवाओं में आधे से ज्यादा स्नातक, कॉलेज जाने वाले और उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले पाए गए। 2008 में यह देश 1,25,017 आत्महत्याओं का साक्षी बना है जिसमें 47,033 लोग यानि 37।6 प्रतिशत 30 वर्ष से कम उम्र के युवा थे। आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि आत्महत्या करने वालों की संख्या युवा लड़कियों की तुलना में युवा लड़कों (25,561 या 20.4 प्रतिशत) की ज्यादा है। 2008 में ही 21,432 यानि 17.2 प्रतिशत महिलाओं और लड़कियों ने आत्महत्या की जिनकी उम्र 30 वर्ष से कम थी।
यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि क्यों इतनी बड़ी संख्या में युवा वर्ग खुदकुशी के रास्ते को अपना रहा है। इन आत्महत्याओं के प्रमुख कारणों में असाध्य बीमारियां, पारिवारिक कारण, प्रेम प्रसंग, गरीबी और बेरोजगारी का होना पाया गया है। यह शिक्षा से कहीं ज्यादा इस देश के लिए एक नैतिक प्रश्न भी बनता जा रहा है जो समाज में एक नये प्रकार की हिंसा के खतरे का संकेत है। 2005 से 2007 तक के आंकड़ों पर गौर करें तो तीनों ही वर्षों में जिन राज्यों में सबसे ज्यादा खुदकुशी के मामले सामने आये उनमें महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और कर्नाटक शीर्ष पर हैं। शिक्षा व आर्थिक रूप से कमजोर माने जाने वाले राज्यों जैसे बिहार, उत्तरप्रदेश व राजस्थान में खुदकुशी के मामले अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम पाये गये। केन्द्र शासित प्रदेशों में पांडिचेरी व अंडमान व निकोबार द्वीप समूह सबसे अधिक खुदकुशी करने वाले राज्यों में सबसे ऊपर की श्रेणी में है।
यदि इन आंकड़ों को इस देश की शिक्षा व्यवस्था और उससे जुड़ी नीतियों के घेरे में समझने की कोशिश करें तो एक बात तो स्पष्ट होती है कि शिक्षा का प्रचलित ढांचा इस देश में स्वस्थ समाज की संरचना में कोई योगदान नहीं दे रहा। बल्कि इसके कई असर इस देश के युवा वर्ग को भ्रम में डालने और जिंदगी में हताशा तथा निराशा के रूप में प्रकट हो रहे हैं। शिक्षा को मानव की जिन भावनात्मक जड़ों तक पहुंचना होता है शायद हम इसमें सफल नहीं हो रहे।
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि खुदकुशी कभी एक दिन का निर्णय नहीं हो सकती, इसके पीछे मन का एक विज्ञान काम करता है जिसे दिन- ब- दिन असंवेदनशील होते जा रहा समाज अपने बच्चों के मन में पढ़ नहीं पाता। बच्चों को जानने का काम हमने छोड़ दिया है।
प्रतिस्पर्धामूलक शिक्षा व्यवस्था के परिणामस्वरूप खुदकुशी करने वाले इन विद्यार्थियों को तथाकथित 'सफलताÓ की चाह में पिछड़ जाने की वजह से अपनी जिंदगी से हाथ धोने पर मजबूर किया जाता है। यह एक अपरोक्ष मानसिक दबाव है जिसमें डर और पारिवारिक अपेक्षाओं के कारण बच्चे की स्वाभाविक शिक्षण प्रक्रिया न केवल बाधित होती है बल्कि अक्सर ताउम्र वे इस ग्रंथी से बाहर नहीं निकल पाते। कम उम्र के बच्चों और विद्यार्थियों पर हो रहे इस अत्याचार के क्या अर्थ हो सकते हैं? हम एक भूल से गुजर रहे हैं जिसमें शिक्षा के समस्त उपक्रम की जवाबदेही आज किसी के पास नहीं है। क्या हम यह कह सकते हैं कि इन खुदकुशी करने वाले विद्यार्थियों के अंतद्र्वंद्वों या अंतर्विरोधों के जवाब हम में से किसी के पास भी हैं? आज यह दावा कोई नहीं करना चाहेगा। ना ही हमारा शिक्षा तंत्र और ना शिक्षा शास्त्री। क्या यह एक नियंत्रण की प्रक्रिया नहीं है जिसका अनिवार्य हिस्सा डार्विनवाद के रूप में सभी को सहज शिक्षा के अधिकार से वंचित रख अनिवार्य रूप से स्कूल अथवा परीक्षा मूलक पद्धतियों को शिक्षा के एक मात्र साधन या अधिकार के रूप में देखता है।
उच्च शिक्षा का भुलावा
हम सभी इस सच्चाई से परिचित हैं कि उच्च शिक्षा अब केवल पैसे का बाजार बन चुका है। अच्छे संस्थान केवल उन विद्यार्थियों के लिए हैं जो तथाकथित आई. क्यू. टेस्ट पास करके आते हैं और उन्हें अन्य औसत छात्रों की तुलना में प्रतिभाशाली समझा जाता है। केवल ये ही लोग इस प्रतिस्पर्धामूलक बाजार में नौकरियां हासिल कर पाते हैं और वह बड़ा वर्ग जो इतना 'प्रतिभाशाली' नहीं है उन्हें अक्सर निराशा ही हाथ लगती है। वे केवल इन्टेलिजेंट और होशियार लोगों को छांट लेते हैं और 'जाहिल', 'बेवकूफ' व 'गधे' लोगों को निकालकर बाहर फेंक देते हैं। यह निराशा ही धीरे- धीरे उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है।
केंद्र में बैठे शिक्षा नीतिकारों ने विदेशी शिक्षा और सूचना प्रोद्योगिकी का जो हव्वा पिछले कुछ सालों में खड़ा किया है उसकी हवा निकालते ऐसे मामले रोज हमारे सामने आ रहे हैं जिसमें अमेरिका से नौकरी छोड़कर आ रहे या बड़ी शिक्षण संस्थानों से डिग्री हासिल किये नौजवान घोर निराशा में घिर कर आत्महत्याएं कर रहे हैं। कपिल सिब्बल अब विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में शिक्षा देने के लिए अपने पलक पांवड़े बिछाने को तैयार हुए हैं जबकि यह देखने की किसी को फुर्सत नहीं की देश में पहले से मौजूद विश्वविद्यालयों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता क्या है।
कमोबेश यही स्थिति सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देखने को मिल रही है जहां अत्यधिक व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने युवाओं को घुटन भरी जिंदगी जीने के लिए बाध्य सा कर दिया है। इस शिक्षा का चरम मूल्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना रह गया है और इस बात की फिक्र करना आपको बहुत पीछे धकेल देगा कि आपके जीवन मूल्य आपको कहां लेकर जा रहे हैं। हाल ही में केरल राज्य महिला आयोग के कराये गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी है कि सूचना प्रोद्योगिकी क्षेत्र में भारी वेतन और तड़क- भड़क के बावजूद इस उद्योग में कार्यरत महिलाओं को शारीरिक परेशानी और मानसिक तनाव झेलना पड़ता है।
बाजार और शिक्षा की यह गड्ड- मड्ड एक बड़े युवा वर्ग को भ्रमित कर उसकी सारी ऊर्जा को जिंदगी के पतन की ओर उन्मुख कर रही है। हर साल होने वाली ये आत्महत्याएं एक ऐसे समाज की अभिव्यक्ति है जहां के विद्यार्थी परीक्षा के उत्तर कॉपियों में नहीं 'सुसाईड नोट' में लिखते हैं। क्या आज की युवा पीढ़ी के पास खुदकुशी ही इस शिक्षा व्यवस्था का उत्तर है?
पता- उस्ता बारी के अन्दर, बीकानेर राजस्थान,
मोबाइल 09928522992, ईमेल- gopalbkn1@gmail.com

यायावरी

ब्रूस मिलसम की  एक दिलचस्प समुद्री यात्रा
राह बनी जब मंजिल
- प्रताप सिंह राठौर
अपने जीवन को इस धरती पर एक तीर्थयात्रा मानने वाले यायावर मनुष्यों के व्यक्तित्व मुझे सदैव आकर्षित करते हैं। शायद इसलिए क्योंकि बचपन से ही मुझे यायावरी सर्वोत्तम मानवीय उद्यम लगने लगा था। यद्यपि कि मैं अपने जीवन में कभी- कभार ही देश- विदेश में यायावरी कर पाया हूं फिर भी चाहत आज भी उतनी ही तीव्र है। ऐसे में जब कभी भी कोई यायावर मिल जाता है तो उसके अनुभवों को सुनकर, जानकर सुखी होता हूं।
बात 1988 की है। मैं वाराणसी में रोजी- रोटी के चक्कर में था। वाराणासी विश्व में यायावरों के प्रिय स्थलों में ऊंचा स्थान रखता है। वहीं एक दिन एक अंग्रेज यायावर नवयुवक ब्रूस मिलसम से भेंट हुई। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके ब्रूस विश्व भ्रमण पर निकल पड़े। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने आस्ट्रेलिया को केंद्र बनाया। वे वहां पर 2-3 महीने काम करके इतना कमा लेते हैं कि वर्ष के शेष 9-10 महीने वे किसी देश का भ्रमण कर सकें या समुद्र में नौकायन करते हुए प्रशांत महासागर में फैले असंख्य टापुओं में भ्रमण का अनिर्वचनीय आनंद ले सकें। मेरे विचार में जीना इसी का नाम है। भारत भ्रमण के संबंध में ब्रूस को मेरे सुझाव बड़े उपयोगी लगे। तबसे वे अपने यायावरी के अनुभवों से पत्रों द्वारा मुझे अवगत कराने लगे। ऐसा ही एक पत्र, जिसमें ब्रूस ने न्यूजीलैंड के आसपास बिखरे टापुओं के बीच नौकायन का वर्णन किया है, का अनुवाद -
पिछले साल समुद्री तूफान में मस्तूल टूट जाने के कारण कैरियाड (ब्रूस की नाव का नाम) बुरी तरह टूट गई थी पर उसे फिर से मरम्मत करके नई जैसी कर लिया है और तब से मेरा समुद्री पर्यटन विचित्र तरह का, पर बहुत ही दिलचस्प रहा है। गर्मी तो (कैरियाड की मरम्मत में) गुजर गई। मैं अब जाड़े में साउथ आइलैंड का समुद्री भ्रमण कर रहा हूं।
गर्मियों में भी मैंने दूसरों की और अन्य मछुआरों की नौकाओं पर जितना हो सका समुद्री पर्यटन किया। मैं टापू के दक्षिणी आधे भाग के आस- पास कई बार गया और उत्तरी आधे भाग की भी कुछ यात्राएं की। मैंने पैदल भी यात्राएं की। मैं एक मित्र के फार्म पर कुछ दिन ठहरा जहां मैंने गायों को दुहने, भेड़ों को चराने तथा भूसा ढोने में उसकी सहायता की। मारापूरी झील में मछली मारने गया तथा दो ट्राउट मछलियां मारी।
वहां से लौटकर कैरियाड में फिर से समुद्री पर्यटन प्रारंभ किया। मेरी पहली यात्रा स्टुअर्ट आइलैंड की थी। मैं एक हफ्ता पैटरसन इनलेट में ठहरा। वहां मुझे दो नाविक और मिल गए और हम सब लोग टापू के चारों ओर नौका में घूमे, इसमें हमें 10 दिन लगे। एक नाविक जो अंग्रेज था, हम लोगों को छोड़कर अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गया पर दूसरा नाविक डेव मेरे साथ फियोरलैंड में नौकायान के लिए रूका रहा। हम लोग 23 अप्रैल को मेरे तीसवें जन्मदिन पर नाव से अपनी यात्रा पर निकले। यहां पर पूर्व की ओर बहने वाली हवा का मिलना दुर्लभ होता है लेकिन इस समय हम लोगों की किस्मत बुलंद थी जहां हमें बढिय़ा पुरवइया मिली जो हमारी नाव को पूरे रास्ते तेजी से पश्चिमी तट तक ले गई। हम लोग सीधे डस्की साउन्ड तक गए, क्योंकि रास्ते में पडऩे वाले चॉकी साउन्ड और प्रीजरवेशन इनलेट में मैं पहले ही मछली मारने के लिए घूम चुका था। डस्की साउन्ड में दूसरे दिन हमने कैप्टन कुक (जिन्होंने 18वीं शताब्दी में आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की खोज की थी।) से संबंधित कुछ ऐतिहासिक स्थानों की खोजबीन की। फिर हम लोग ब्लफ़ (एक छोटा सा समुद्री बंदरगाह और मछुआरों की बस्ती) के एक मछुआरे के निमंत्रण पर उसकी नौका पर एक दिन भ्रमण के लिए गये। जब हम लोग समुद्र में थे तो एक नाविक का हाथ कट गया अत: उसे तुरंत हवाई जहाज से चिकित्सा के लिए भेजना पड़ा। उसकी दोस्त भी उसके साथ चली गई। तब कप्तान ने मुझसे और डेव से पूछा कि क्या हम बाकी दिनों में मछली मारने में उसके नाविक का काम करेंगे? हम लोग सहर्ष तैयार हो गये।
लेकिन मछली तो बिल्कुल भी नहीं पकड़ी जा सकीं। अचानक ही सब क्रेफिश अन्र्तध्यान हो गईं। इसलिए हम दोनों पैसा तो कोई खास न कमा सके लेकिन हम लोगों को भोजन मिलता रहा और डाउटफुल साउन्ड तक की मुफ्त सैर भी।
साथ ही एक फ्लोट प्लेन (समुद्र से उडऩे व समुद्र पर उतरने वाला वायुयान) से तेअनाऊ तक की यात्रा और वहां के होटल में एक रात ठहरने को भी मिला। जब हम मछली मार रहे थे तो हम लोगों ने डस्की साउन्ड की खोजबीन भी एक नौका से की। हम लोगों ने मछली मारने का तीन हफ्ते तक काम किया। फिर कप्तान अपनी नौका लेकर ब्लफ़ लौट गया। डेव ने भी तय किया कि उसने फियोरलैंड काफी घूम लिया था अत: वह भी उसी के साथ वापस चला गया।
पर मेरा मन अभी नहीं भरा था अत: एकेरन पैसेज के रास्ते उत्तर की ओर ब्रेकसी साउन्ड की ओर चल दिया। मैं ब्रेकसी साउन्ड के छोर तक गया जहां चारों ओर हिमाच्छादित पर्वत थे। वहां से मैं ब्रेकसी साउन्ड के मुहाने की ओर लौटा तथा एक 110 फीट लम्बे लोहे के जहाज रेन्गिमी के पास अपनी नौका का लंगर डाला। रैन्गिमी वहां पर सदैव के लिए लंगर डाले बंधी हुई है। इसका मालिक एक परिवार है जो उसका प्रयोग गोताखोरी, मछली मारने और मौज मस्ती में छुट्टियां बिताने के लिए करते हैं। स्कूलों की छुट्टियां थी अत: पूरा परिवार रैन्गिमी पर ही था। मैंने भी उनके साथ गोताखोरी की और उन्होंने बाद में मेरा ऑक्सीजन टैंक भी भर दिया। हम लोगों ने एकेरान पैसेज में दो बार गोते लगाये। मैंने कुछ क्रेफिश पकड़ी तथा काला मूंगा भी देखा। आश्चर्य की बात यह है कि काला मूंगा जब तक समुद्र की तलहटी में रहता है सफेद होता है। हम लोगों ने साउन्ड में भी एक गोता लगाया। पर पिघलती हुई बर्फ के ताजे पानी के कारण वहां पर काफी ठंडा था तथा वहां देखने के लिए भी कुछ नहीं था। उस परिवार ने रैन्गिमी जहाज से प्रस्थान के पहले अपने हेलीकाप्टर में भी मुझे एक छोटी सी हवाखोरी कराई। फिर वह सब लोग हेलीकाप्टर से चले गये। मैं भी अपनी नौका खोलकर डाग साउन्ड की ओर चल दिया। चूंकि हवा नहीं चल रही थी अत: यह नौकायन मजेदार नहीं था पर दूरी भी ज्यादा नहीं थी। मैं जब डाग साउन्ड में प्रवेश कर रहा था तो पानी बरसने लगा और साथ ही धूप भी निकली हुई थी। सम्पूर्ण इन्द्रधनुष निकला हुआ था। एक किनारे से दूसरे किनारे तक। पानी में उसकी परछाई नौका के पास से गुजर रही थी। यह इन्द्रधनुष मुझे अपने साये में एक घंटे तक साउन्ड में 5 मील तक लिये चला गया। जब तक कि 19 मिलीमीटर फिशआई लेन्स का कैमरा न हो इस खूबसूरत इंद्रधनुषीय दृश्य का चित्र लेना असंभव होगा।
अगले दिन भी हवा इतनी हल्की थी कि मुझे नौका पूरे दिन नैन्सी साउन्ड तक इंजन से ही चलानी पड़ी। जिस कव में मैंने अपनी नौका का लंगर डाला उसमें आगे पीछे बस इतनी ही जगह थी कि एक नौका ही आ सके। अत: मैं घूमकर टामसन साउन्ड होता हुआ ब्रैडशा साउन्ड पहुंचा। अगले दिन मैं डाउटफुल साउन्ड गया जो बगल में ही थी। अत: मुझे खुले समुद्र में नहीं जाना पड़ा। मुझे पहली बार ढाई घंटे तक फियोरलैंड में आनंददायक नौकायान का मजा मिला। मैं डीप कव पहुंचा और वहां कुछ दिन रूका। मैंने इंजन का पंखा निकाल कर मरम्मत की तथा पंखे को इंजन में मजबूती से बांधे रखने के लिए एक नई चाबी बनाई। यह सब करते हुए अच्छा हुआ कि कोई चीज उस गहरे कव में नहीं गिरी।
रविवार के अपरान्ह में मैं सामने के पन- बिजलीघर को देखने गया। वहां काम करने वाले एक व्यक्ति ने मुझे पूरा पन-बिजलीघर दिखाया। फिर हम लोग मारापुरी झील के आर- पार बिजलीघर की नौका से गये। सोमवार को मैं एक ट्रक में सी अर्चिन लेकर ब्लफ़ तक गया और ट्रक को वापस लाया। एक व्यक्ति ने मेरे साथ मेरी नौका पर सैर करने को कहा तो उसे लेकर हम लोग बुधवार को दक्षिण जाने के लिए तैयार हुए। बृहस्पतिवार को हवा शांत थी अत: पूरे रास्ते हमें इंजन चलाना पड़ा। हम लोगों ने अपनी नौका एकेरान पैसेज में किनारे के वृक्षों से बांधी। हम ने नौका से मछली मारने वाली डोरियां डाली और कुछ ही मिनटों में अपना डिनर पकड़ लिया। शुक्रवार को फिर हवा नहीं चल रही थी अत: हमें इंजन चलाना पड़ा।
इसके बाद हम प्रीजरवेशन इनलेट पहुंचे। शनिवार को इनलेट के छोर तक पहुंच गए और वहां के झरने पर चढ़े। रविवार के लिए मौसम की भविष्यवाणी थी कि पश्चिम से बढिय़ा हवा चलेगी। अत: हम उस उम्मीद से चल निकले पर हवा बहुत हल्की थी अत: हमारी चाल बहुत धीमी रही और कई बार तो हमारी नाव बिल्कुल स्थिर ही हो गई। पर आधी रात के बाद हवा बढिय़ा चलने लगी और हमारी चाल काफी तेज हो गई। फोवोक्स स्ट्रेट के बीच में से हम ब्लफ़ रात को 9 बजे पहुंच गये। इसी के साथ मेरा शीत कालीन नौकायान समाप्त होता है। अब मैं 48 घंटे नौकायान कर सीधे क्राइस्ट चर्च (नगर) पहुंचने की योजना बना रहा हूं जहां मुझे विश्वास है बाकी बचे शीतकाल के लिए कोई काम अवश्य मिल जाएगा।
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देश व दुनिया के बारे में जानने के लिए पढऩे तथा यात्रा के शौकीन प्रताप सिंह राठौर का जन्म स्थान उत्तर प्रदेश फतेहगढ़ (फर्रूखाबाद) है। अंग्रेजी साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने बैंक में नौकरी की। वे भारतीय साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाज शास्त्र तथा नेचरल साईंस से संबधित हिन्दी अंग्रेजी किताबों का निरंतर अध्ययन करते हैं। इतिहास व सामाजिक विषयों पर विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख एवं संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं, उन्होंने भारत के साथ यूरोप का विस्तृत भ्रमण किया है।
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