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Aug 7, 2010

आम आदमी की वेदना से खिलवाड़ क्यों?


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जरा सोचें
आम आदमी की वेदना से खिलवाड़ क्यों?
- बिचित्र मणि
तब गुलामी थी और इंग्लैंड में विंस्टन चर्चिल जैसा अकड़ू प्रधानमंत्री था। चर्चिल ने भारतीयों की आजादी की मांग को यह कहकर नकार दिया कि अगर भारत को आजाद कर दिया गया तो भारतीय आपस में लड़कर ही मर जाएंगे। तब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े शिखर पुरुष महात्मा गांधी ने कहा कि आजाद होकर हम चाहे मरें या जीयें, बस आप हमारा पिंड छोड़ दो। गांधी को अपने देश के व्यक्तित्व और देशवासियों की मानसिकता पर पूरा भरोसा था। लेकिन तीन दशक बाद उस भरोसे की बलि चढ़ाने की कोशिश इंदिरा गांधी के दिमाग से निकली, जो गांधी के सबसे करीबी और राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं। 25-26 जून 1975 की आधी रात को जब सारा देश सो रहा था, तब लोकतंत्र को सदा के लिए सुलाने की कोशिश हुई। समाज के आखिरी आदमी के हितों को ताक पर रख दिया गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत विपक्ष के सारे नेताओं ने रातों-रात खुद को जेल की चारदीवारी के भीतर पाया। जिसने भी इंदिरा गांधी की करनी से थोड़ी भी नाइत्तफाकी रखी, वो सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया। चाहे वो कभी इंदिरा गांधी के खासमखास रहे चंद्रशेखर रहे हों या फिर हिंदुस्तान के तकरीबन सवा लाख लोग। ईसा मसीह को एक बार सूली पर चढ़ाया गया था, अपने यहां लोकतंत्र तो पूरे 635 दिनों तक सूली पर लटका रहा।
अब ये सवाल उठ सकता है कि 35 साल पुरानी लकीर पीटने का क्या मतलब है। आज देश चहुमुखी विकास का मुंह देख रहा है, जैसा कि सरकारी आंकड़े और सरकार के लोग ढिंढोरा पीटते हैं। विकास, तरक्की और चकाचौंध की इस दीवाली में आपातकाल की उदासी बहुतों को ऐसा ही लग सकता है, जैसे किसी ने उनकी खीर में नीबू निंचोड़ दिया हो। लेकिन आपातकाल की याद इस बात की तस्दीक कराने के लिए काफी है कि यह देश सत्ता के हुक्मरानों को अपने ठेंगे के नीचे रखने का माद्दा रखता है। लोकतंत्र में भले ही नव राजा-रानियों की संतानें आज पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं लेकिन आखिरी आदमी की आवाज को नकारना आसान नहीं होगा। इसीलिए जिस दौर में सरकारें पूंजी की प्रवक्ता बनने में भी अपनी खुशकिस्मती समझ रही हैं, आपातकाल और उसके बाद इंदिरा गांधी का हश्र यह बताने के लिए काफी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और आखिरी आदमी की वेदना और संवेदना से खिलवाड़ मत करो। अभी तो 35 साल हुए हैं, जबकि 3500 साल बाद भी आपातकाल के खिलाफ उठी 35 साल पुरानी आवाज ऐसे ही गूंजती रहेगी। (chhapas.com से)
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हृषिकेश सुलभ को अंतर्राष्ट्रीय
'इन्दु शर्मा कथा सम्मानट
हिंदी के जानेमाने लेखक हृषिकेश सुलभ को उनके कथा संकलन 'वसन्त के हत्यारे' के लिये 'सोलहवां अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान' प्रदान किया गया है।
इस अवसर पर ब्रिटेन में बसे हिंदी लेखक महेन्द्र दवेसर और कादम्बरी मेहरा को ग्यारहवां पद्मानंद साहित्य सम्मान भी प्रदान किया गया। ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त नलिन सूरी ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स में इन लेखकों को सम्मानित किया। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के सांसद बैरी गार्डिनर और वीरेन्द्र शर्मा ने सम्मान समारोह की मेजबानी की। इस अवसर पर बैरी गार्डिनर का कहना था कि जिन सवालों का जवाब राजनीति नहीं दे पाती, उनका जवाब साहित्य में खोजा जा सकता है।
सोलहवें अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान से अलंकृत कथाकार हृषिकेश सुलभ ने कहा कि उनके लिए लिखना जीने की शर्त है। बिहार की जिस जमीन से वे आते हैं वहां एक- एक सांस के लिये संघर्ष करना पड़ता है।
कथा यूके के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा के अनुसार यह समारोह ब्रिटेन में बसे एशियाई लेखकों के बीच संवाद का माध्यम बन रहा है। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, पंजाबी सहित कई भाषाओं के लेखक हमसे जुड़ रहे हैं। कथा यूके द्वारा प्रकाशित लेखकों की प्रतिनिधि रचनाओं से ब्रिटेन में साहित्य संस्कृति की नई एशियाई छवि उभरी है। उन्होंने पिछले वर्ष के दौरान दुनियां भर में हुई कथा यूके की गतिविधियों की जानकारी देते हुए बताया कि हम विभिन्न समुदायों के बीच संवाद की नई पहल कर रहे हैं। यह इस आयोजन के इतिहास में यह महत्वपूर्ण अवसर है जब ब्रिटेन के दो सांसद बैरी गार्डिनर, वीरेन्द्र शर्मा हाउस ऑफ कॉमन्स में इसकी मेजबानी कर रहे हैं।
समारोह में ब्रिटिश सांसद लॉर्ड तरसेम किंग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय, बीबीसी हिंदी के पूर्व प्रमुख कैलाश बुधवार, कलाकार दीप्ति शर्मा, कथाकार सूरज प्रकाश, पत्रकार अजित राय, जय वर्मा, निखिल कौशिक, सहित साहित्य, राजनीति, मीडिया, व्यवसाय, समाज सेवा एवं अन्य क्षेत्रों से जुड़ी कई हस्तियां मौजूद थीं।
- अजित राय
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कहानी
एक और द्रौपदी
- श्याम सखा श्याम
खाप पंचायत आधारित कहानी साहित्य अकादमी हरियाणा द्वारा पुरस्कृत
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हिन्दुस्तान सारी दुनिया के साथ- साथ बड़े बाजे- गाजे के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। परन्तु असगरपुर माजरा अनेक मामलों में अभी कई सदी पीछे है। बिजली जो सप्ताह में एक- आध बार ही चमक दिखाती है यहां भी पहुंच चुकी है।
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जन्म दिवस: 12 जुलाई
विमल राय
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना....
- एन. के. राजू
फिल्म निर्देशक का माध्यम होता है पर विमल राय जैसे चंद ही भारतीय फिल्मकार हुए हैं जिनकी अपनी फिल्मों के फिल्मांकन, पटकथा, संगीत, नृत्य आदि तमाम पक्षों पर गहरी पकड़ रही है। उनकी फिल्मों के हर दृश्य पर उनकी एक विशिष्ट छाप होती थी और इसी ने विमल राय को फिल्म निर्माण का ऐसा स्कूल बना दिया जिसका कमोबेश आज भी पालन किया जाता है।

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मुख्यधारा में रहकर भी जिन फिल्मकारों ने सिनेमा की कलात्मक ऊंचाइयों को बरकरार रखा, उनमें सबसे सम्मानित और अहम नाम है- विमल राय। सिनेमैटोग्राफर से डायरेक्टर और प्रोड्यूसर बने विमल राय ने फिल्मों के जरिए धन कमाने की बजाय सामाजिक सरोकार को सबसे ऊपर रखकर हमेशा सार्थक फिल्मों का निर्माण किया।
सिनेमा की अप्रतिम समझ रखने वाले विमल दा का जन्म 12 जुलाई 1909 में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में एक जमींदार परिवार में हुआ था। वह ढाका के जगन्नाथ कालेज में पढ़ाई कर ही रहे थे कि उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। पहले पिताजी का निधन हो गया फिर धोखाधड़ी का शिकार हुए और पारिवारिक संपत्ति से महरूम कर दिए गए। परिवार के भरण पोषण के लिए मां तथा छोटे भाइयों के साथ वह कलकत्ता आ गए। कहा जाता है कि इस घटना की छाप उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म दो बीघा जमीन में भी मिलती है। फोटोग्राफी के प्रति उनके लगाव हो देखते हुए दिग्गज फिल्मकार पीसी बरूआ ने उन्हें बतौर पब्लिसिटी फोटोग्राफर रख लिया और यहीं से उनका फिल्मी सफर शुरू हो गया जो निरंतर नयी ऊंचाइयों को छूता गया।
विमल दा की फिल्मों में एंट्री बतौर कैमरामैन हुई। वह कैमरामैन के तौर पर न्यू थिएटर्स प्राइवेट लिमिटेड में शामिल हुए। उन्होंने न्यू थिएटर्स की दस से ज्यादा हिंदी और बंगाली फिल्मों का छायांकन किया। इस दौरान उन्होंने 1935 में प्रदर्शित हुई पीसी बरुआ कीफिल्म देवदास और 1937 में प्रदर्शित मुक्ति के लिए फोटोग्राफी की। लेकिन बिमलदा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया।
1944 में विमल राय को न्यू थिएटर्स की बांग्ला फिल्म उदयेर पाथे का निर्देशन का मौका मिला। बतौर निर्देशक विमल राय की पहली फिल्म उदयेर पाथे ही थी जो सामाजिक कुरीतियों पर आधारित थी। यह फिल्म बेहद कामयाब रही। इस फिल्म ने ही दर्शा दिया कि सिनेमा जगत को बेहतरीन फिल्मकार मिल गया है। एक साल बाद ही इस बांग्ला फिल्म का हमराही टाइटल से हिंदी संस्करण बनाया गया। हमराही का निर्देशन भी विमल राय ने ही किया था, लेकिन इसे वैसी सफलता नहीं मिली। इसके बाद विमलदा ने न्यू थिएटर्स के लिए तीन हिंदी फिल्मों- अंजनगढ (1948), मंत्रमुग्ध (1949) और पहला आदमी (1950) का निर्देशन किया। ये तीनों फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित थीं, जो परदे पर क्लासिक साबित हुर्ई। साहित्य से उन्हें गहरा लगाव था, जो उनकी हर फिल्म और हर फ्रेम में नजर आता है।
वर्ष 1950 में इधर कोलकाता में न्यू थिएटर्स बंद होने की कगार पर था, तो उधर मुंबई में बॉम्बे टॉकीज का भी परदा गिरने वाला था। के.एल. सहगल और पृथ्वीराज कपूर जैसे अदाकार और नितिन बोस और फणि मजमूदार जैसे प्रतिष्ठित निर्देशक मुंबई आ गए थे। बॉम्बे टॉकीज को जीवनदान देने के लिए विमल राय को मुंबई बुलाया गया। यहां उन्होंने 1952 में बांबे टाकीज के लिए मां (1952) का निर्देशन किया। जो असफल रही।
विमल राय कोलकाता से अकेले नहीं आए थे, उनके साथ पूरी टीम थी। जिसमें ऋ षिकेश मुखर्जी, नबेंदु घोष, पाल महेंद्र, असित सेन और नजीर हुसैन शामिल थे। विमलदा ने खुद की फिल्म कंपनी विमल राय प्रोडक्शन की स्थापना कर 1953 में पहली फिल्म दो बीघा जमीन का निर्माण किया। इस फिल्म से संगीतकार सलिल चौधरी भी विमलदा से जुड़ गए। दो बीघा जमीन की कहानी सलिलदा की ही लिखी हुई थी। भारतीय किसानों की दुर्दशा पर केंद्रित इस फिल्म को हिंदी की महानतम फिल्मों में गिना जाता है। इटली के नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित बिमल दा की दो बीघा जमीन एक ऐसे गरीब किसान की कहानी है जो शहर चला आता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपया कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी जमीन को छुड़ा सके। गरीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने जान डाल दी है। व्यावसायिक तौर पर दो बीघा जमीन भले ही कुछ खास सफल नहीं रही लेकिन इस फिल्म ने बिमल दा की अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फिल्म के लिए उन्होंने कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता।इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा में विमल राय के पैर जमा दिये। दो बीघा जमीन को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं फिल्म फेस्टिवल्स में व्यापक सराहना मिली। देश के पहले पॉपुलर फिल्म पुरस्कार फिल्म फेअर अवार्ड 1953 में शुरू किए गए थे। दो बीघा जमीन के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फिल्मफेअर अवार्ड दिया गया।
उसी साल विमलदा ने अशोक कुमार के बैनर के लिए परिणीता और हितेन चौधरी के लिए बिराज बहू का निर्देशन किया। ये दोनों फिल्में शरतचंद्र के उपन्यासों पर आधारित थीं। 1955 में शरतचंद्र के पॉपुलर उपन्यास देवदास पर इसी नाम से फिल्म बनाकर विमलदा देशभर में छा गए। दो बीघा जमीन की तरह यह भी एक क्लासिक कृति साबित हुई। इससे बीस साल पहले विमलदा न्यू थिएटर्स की के.एल. सहगल स्टारर देवदास (1935) का छायांकन कर चुके थे। विमल राय ने अपने होम प्रोडक्शन के तहत 1953 से 1964 तक 14 फिल्मों का निर्माण किया। इनमें से छह फिल्मों का निर्देशन उन्होंने अपने सहयोगियों से करवाया, लेकिन उन फिल्मों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विमल राय ने अपने बैनर की आठ फिल्मों दो बीघा जमीन (1953), नौकरी (1954), देवदास (1955), मधुमती (1958), सुजाता (1959), परख (1960), प्रेमपत्र (1962), बंदिनी (1964) और बाहर के बैनर की तीन फिल्मों परिणीता (1953) ,बिराज बहू (1954) और यहूदी (1958) का सफल निर्देशन किया था।
1958 में पुनर्जन्म पर आधारित मधुमति तथा यहूदी का निर्देशन किया। दोनों ही फिल्में जबर्दस्त हिट रहीं। संगीतकार सलिल चौधरी ने मधुमति के लिए ऐसी धुन रची कि उसके गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं। इस फिल्म में स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत आजा रे परदेसी... उनके सर्वश्रेष्ठ दस गीतों में शुमार किया जाता है।
विमल राय ने 1960 में साधना को लेकर परख नाम की फिल्म बनाई। कम बजट की इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर कामयाबी हासिल की और यह बात साबित कर दी कि किसी फिल्म की सफलता के लिए बड़ा बजट होना अनिवार्य शर्त नहीं है। यह बात आज की पीढ़ी के फिल्मकारों के लिए भी एक जरूरी सबक बन सकती है। इसके अलावा 1962 में प्रेम पत्र नाम की फिल्म का निर्देशन किया।
इस तरह अपने जीवन काल में ही मिथक बन चुके महान फिल्मकार विमल राय ने कलात्मक और लोकप्रिय फिल्मों की विभाजन रेखा को मिटा दिया था। इसके अलावा उन्होंने ऋ षिकेश मुखर्जी, नवेन्दु घोष, सलिल चौधरी और गुलजार जैसे तमाम बेशकीमती सौगात हिन्दी फिल्म उद्योग को दिए। कहते हैं कि फिल्म निर्देशक का माध्यम होता है पर विमल राय जैसे चंद ही भारतीय फिल्मकार हुए हैं जिनकी अपनी फिल्मों के फिल्मांकन, पटकथा, संगीत, नृत्य आदि तमाम पक्षों पर गहरी पकड़ रही है। उनकी फिल्मों के हर दृश्य पर उनकी एक विशिष्ट छाप होती थी और इसी ने विमल राय को फिल्म निर्माण का ऐसा स्कूल बना दिया जिसका कमोबेशआज भी पालन किया जाता है।
बिमल दा की सर्वाधिक यादगार फिल्मों में बंदिनी (1963) का नाम लिया जा सकता है। यह फिल्म हत्या के आरोप में जेल में बंद एक महिला की कहानी है। इस फिल्म में अभिनेत्री नूतन ने शानदार भूमिका अदा की है। विमल राय के फिल्मांकन का बेजोड़ उदाहरण बंदिनी का वह दृश्य हैं जिसमें नूतन अस्पताल में एक दरवाजे के सामने खड़ी है और बगल में वेल्डिंग के कारण चिंगारियों का एक सैलाब फूट रहा है। चिंगारियों के माध्यम से विमल राय ने नायिका की मनोदशा को जिस प्रकार पेश किया वह किसी भी दर्शक के मन पर अमिट छाप छोड़ सकता है। इसके अलावा उन्होंने छूआछूत की समस्या पर आधारित सुजाता फिल्म का निर्देशन किया। इस फिल्म में भी एकबार फिर उन्होंने नूतन को अभिनेत्री के तौर पर लिया जबकि अभिनेता की भूमिका निभाई सुनील दत्त ने।
आस्कर पुरस्कार से सम्मानित सत्यजीत राय ने कहा था कि विमल दा ने अपनी पहली ही फिल्म से सिनेमा की परंपराओं के मकडज़ाल को दरकिनार कर दिया और ऐसे यथार्थवादी दौर की शुरुआत की जिसे दर्शकों ने भी भरपूर सराहा।
फीचर फिल्मों के अलावा उन्होंने कई डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनायी। उनमें एक गौतम द बुद्घा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुयी। पुरस्कार जीतने मे भी विमल दा का कोई सानी नहीं था।
बिमल दा ने सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। उन्हें यह पुरस्कार 1954 में दो बीघा जमीन, 1955 में परिणीता, 1956 में बिराज बहू, 1959 में मधुमति, 1960 में सुजाता, 1961 में परख तथा 1964 में बंदिनी के लिए यह पुरस्कार मिला। 1940 और 1950 के दशक में समानांतर सिनेमा के प्रणेता रहे बिमल दा के प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म रही बेनजीर (1964)। इसका निर्देशन एस खलील ने किया था।
बंदिनी के बाद विमल राय शिखर पर थे। हिंदुस्तानी सिनेमा को उनसे बहुत उम्मीदें थी, लेकिन आठ जनवरी 1966 को लंबी बीमारी के बाद 56 साल की उम्र में विमल राय के निधन से ये उम्मीदें अधूरी रह गई और हिंदी सिनेमा को नई ऊंचाई देने वाले एक रत्न को फिल्म जगत ने खो दिया। अपने तीन दशकों के फिल्मी जीवन में विमलदा ने हिंदी सिनेमा को जिन ऊंचाइयों पर पहुंचाया, वह फिल्मी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। इतनी कम उम्र में ही वे वहां चले गए जहां के लिए यही कहा जा सकता है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...।
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क्लासिक फिल्मों का रचनाकार
देश के पहले पॉपुलर फिल्म पुरस्कार फिल्म फेअर अवार्ड 1953 में शुरू किए गए थे। दो बीघा जमीन के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फिल्मफेअर अवार्ड मिला। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्मफेयर पुरस्कारों की दो बार हैटट्रिक बनायी। 1953 में दो बीघा जमीन, 1954 में परिणीता, 1955 में विराज बहू के लिए। बीच में दो साल के अंतराल के बाद 1958-59 और 60 में भी उन्हें यह सम्मान दिया गया। एक बार फिर 1963 में बंदिनी के लिए वह इस पुरस्कार से नवाजे गए।
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यात्रा
किसी रोज
बनजारों की तरह
- प्रिया आनंद
मौसम में अब बस गुलाबी ठंडक बाकी रह गई थी जब मुझे प्रबाल प्रमाणिक के यहां से फोन आया। काफी दिनों से वे मुझे बुला रहे थे। हां, ना करते पूरा एक साल गुजर गया। इस बार भी जैसे मैं संकोच से घिर गई। कितना तो काम था। सिलसिलेवार ही सारे काम निपटते थे। ऐसे में चार दिन की छुट्टी निकाल लेना मुश्किल ही था।
-शायद छुट्टी नहीं मिलेगी मैंने हिचकते हुए कहा।
-छोड़ दीजिए ऐसी नौकरी, यह स्लेवरी है।
यह सुनने के बाद मैंने एक दिन का ऑफ लगाया और दो दिन की छुट्टी लेकर चल दी। चक्की के स्टाप पर उतरने के बाद मैंने देखा वहां धार ब्लाक जाने वाली बस खड़ी थी या यों कहें कि यात्रियों का इंतजार कर रही थी।
-बस कब तक चलेगी? मैंने वहां खड़े एक आदमी से पूछा।
-11 बजे... कहकर उसने मुंह फेर लिया। थोड़ी ही देर में बस पूरी तरह भर गई। हंसी तब आई जब सवारियों के साथ बकरियां भी बस में आ गईं। पहले तो उन्हें सीट के नीचे ठूंसने की कोशिश की गई। जब वे वहां बैठने को तैयार नहीं हुईं, तो बकरी वाले उन्हें गोद में लेकर बैठ गए। बस आहिस्ता चलती एक- एक सवारी उठाती- उतारती धार ब्लाक पहुंची। सामने एक बड़ा सा छतनार पेड़ था। वहीं एक आईस्क्रीम का ठेला था और एक छोटा सा रेस्तरां। कुछ सवारियां उतरकर होटल में चाय पीने चली गईं। बाकी आराम से पेड़ की छाया में बातें करने लगे। धार पहुंच कर आधी बस खाली हो गई थी। धूप की चमक तेज थी यह एरिया हिमाचल की ठंडक से थोड़ी दूर भी था इसलिए हवा में गर्मी थी।
-कहां पहुंचीं आप...? प्रबाल लाइन पर थे
-बस धार पर खड़ी है, हिलने का नाम नहीं ले रही।
-ऐसे ही चलती है, पर इसका एक फायदा है कि यह सीधे मेरे घर के सामने आपको उतारेगी।
सचमुच बस ने मुझे ठीक उनके घर के सामने उतार दिया। प्रबाल प्रमाणिक की अकादमी काफी बड़ी है। अंदर से लगातार कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही थी। बस की आवाज सुनते ही प्रबाल बाहर निकल आए। बताया कि मेरे रहने के लिए उनके सहयोगी अरूप चंद्रा के घर इंतजाम किया गया था। बंगाली होने के कारण प्रबाल का हिंदी उच्चारण बेहद फनी और लुभावना लगता है।
- अभी मैं कुत्तों का खाना बना रहा हूं, थोड़ी देर में वहां आऊंगा। ये आदमी आपको वहां ले जाएगा। तब तक आप रेस्ट करें। उन्होंने यह कह कर मुझे एक आदमी के साथ भेज दिया।
घर अच्छा था दो कमरों का छोटा सा फ्लैट। दीपाली ने मुस्कुरा कर मेरा स्वागत किया। दीपाली अरूप की पत्नी हैं। वह हिंदी समझ तो लेती हैं, पर बोल नहीं पाती।
शाम तक अरूप भी आ गए। वह भी किचन में दीपाली का हाथ बंटाने चले गए। खाने की मेज पर सब साथ थे। प्रबाल, अरूप और दीपाली। सभी एक जैसे मस्त मौला। यह बेलौस मस्ती और कहां...? पहली बार मुझे लगा कि काम के तनाव से बाहर निकलने के लिए ऐसी जगहों पर जरूर जाना चाहिए। कितनी अजीब बात थी कि प्रबाल ने कोलकाता से यहां आकर बसेरा बनाया था। शायद इसके पीछे हेरिटेज के प्रति उनका आकर्षण रहा हो। हिमाचल ने उन्हें जमीन नहीं दी थी इसलिए उन्होंने हिमाचल बार्डर पर जमीन ले ली थी और बीस कमरों का मकान डाल लिया था।
बीस कमरों का मकान... सुनने में अजीब लगता है, पर कुछ कमरे तो उन लावारिस कुत्तों के लिए थे, जो स्ट्रीट डॉग्स थे। जो सड़क पर घायल हो जाते थे। प्रबाल उनकी मरहम पट्टी करते और फिर उन्हें अपने पास रख लेते थे। अब वहां 17 कुत्तों का झुंड है। उनका खाना पकाना, सफाई सब प्रबाल के जिम्मे था। प्रबाल एक अच्छे पेंटर हैं। ग्लोबल पहचान वाले आर्टिस्ट, पर उनका ज्यादा नाम उनकी देवस्थान कला के कारण है। पेपर कटिंग से समूचा परिदृश्य निर्मित करने वाले प्रबाल अपने काम में दक्ष हैं और मशहूर भी। मथुरा के मंदिरों की चौखटों पर रंगीन कागजों और पन्नियों की कटिंग की सजावट को उन्होंने अपनी कला में ढाल लिया। अब यह कला देवस्थान कला के नाम से चर्चित हो चुकी है। अरूप कोलकाता में साफ्टवेयर इंजीनियर थे। वे भी कोलकाता को नमस्ते कर यहां आ गए थे। फोटोग्राफी और डाक्यूमेंट्रीज बनाने में उनकी स्पेशिएलिटी है और वे इसी काम में यहां आकर जुट गए थे। उसी शाम हम रणजीत सागर वाटर रिजर्वायर देखने गए।
चप्पूवाली नाव किनारे पर ही थी।
मदन हमें सैर कराने ले चलोगे? प्रबाल ने नाविक से कहा।
-क्यों नहीं आइए। मदन ने खुश होकर कहा।
सभी नाव में बैठ गए। मैं शायद पंद्रह सालों बाद ऐसी नाव में बैठी थी। बोटिंग ऐसी ही नाव में अच्छी लगती है। मोटर बोट का सफर बहुत जल्दी खत्म हो जाता है।
धीरे- धीरे नाव बीच झील में पहुंच गई। शाम होने को थी। पूरा आकाश सिंदूरी था और पानी पर भी उसकी लाल छाया थी। कुछ ही क्षणों के अंतराल में आकाश स्लेटी रंग में तबदील हो गया।पूर्व के पहाड़ों के पीछे से चांद निकला।
-यह पूर्णिमा की रात है... प्रबाल ने कहा और गुनगुनाने लगे।
-आपने कभी बाउल संगीत सुना है?
-नहीं...
-कोलकाता में ऐसे गीत आम हैं। बहुत खूबसूरत और मधुर।
अरूप और दीपाली बातों में मस्त थे। पूरे एक घंटे की बोटिंग के बाद हम वापस लौटे। चांद पूरे जोश से निकला था और चांदनी पूरी झील पर लहरियों में फैली हुई थी।
पहाड़ी के पीछे से मोर की आवाज आई। तुरंत झील के उस पार की पहाड़ी से दूसरे मोर ने जवाब दिया
-आहा! केका ध्वनि ... प्रबाल खुश होकर बोले।
-ये एक दूसरे को संदेश दे रहे हैं... रोमांटिक मैसेज
- हो सकता है यह अपनी टीम को बुला रहा हो कि चलो शिकार पर चलते हैं आखिर भोजन उन्हें भी तो ढूंढना है... अरूप ने कहा।
- तुम बेहद अनरोमांटिक हो कहकर प्रबाल फिर गीत गुनगुनाने लगे।
शाम को मशरूम सूप और -ब्राउन ब्रेड का शानदार डिनर था, साथ में मिठाई। खाने के बाद देर तक सब बातें करते रहे फिर गुड नाइट कर सोने को चल दिए।
अगली दोपहर छोटी- छोटी पूरियां सब्जी, दाल और बंगाल से आया खजूर का दानेदार गुड़। शायद मैंने जिंदगी में पहली बार खाया। शाम हमने वे डाक्यूमेंट्रीज देखी, जो प्रबाल और अरूप ने शेखावटी पेंटिंग्स से सजी हवेलियों पर बनाई थी। कमेंट्री करने वाली महिला का उच्चारण एकदम स्पष्ट पर कांशस था, जबकि पुरुष की आवाज बेलौस थी।
यह प्रिया मैडम की और मेरी आवाज है प्रबाल ने बताया।
प्रिया प्रवाल की पत्नी, जो अब बंगलूर में रहती हैं। उस रात डिनर पर प्रबाल ने बार- बार प्रिया को याद किया। शाम हम बसोहली की ओर चल पड़े। प्रबाल कोई चित्र बनाना चाहते थे। रास्ते में हमने शाल बनती देखी। अंगोरा ऊन की शाल भी यहां बनती है। 500 से 1500 तक की अच्छी शालें मिल जाती हैं। वहां उस समय कारीगर गोपाल सिंह खड्डी पर थे और काम कर रहे थे।
उससे आगे दोनों तरफ सरसों से पीले फूलों वाले खेतों की लंबी चौड़ी पट्टी थी। यह रणजीत सागर का वेटलैंड एरिया था और इस बार यहां बंपर फसल हुई थी। गाड़ी आगे बढ़ती गई और झोपडिय़ों के आकार में बदलाव आ गया। ढेरों लंबी चौड़ी झोपडिय़ां और जुगाली करती भैंसें।
क्या हम पंजाब में हैं ...? मैंने पूछा।
- हां यह एरिया पंजाब में ही है।
आकाश खुला नीला और विस्तृत था।
- जब सन्नी दोओल की गदर की शूटिंग हो रही थी यहां, तो मैं रोज ही देखने आता था। ड्राइवर मुन्ना ने कहा। पहाड़ दूर थे और हम हरे खेतों की बीच खड़े उस मंदिर को देख रहे थे, जो कम से कम तीन बार टूटा और बना था यह मंदिर। रणजीत सागर बांध की डूब में आ गया था पर अब बाहर था। मंदिर का निचला आधार दक्षिण के उत्कृष्ट वास्तु का परिचय देता था। नक्षत्र के आकार वाले चबूतरे पर मंदिर स्थित था। इससे ऊपर का हिस्सा पहाड़ी वास्तु पर बना था। सबसे ऊपर अनभ्यस्त हाथों की छाप थी। हां शिखर का आमलक पुराना ही था। मंदिर के द्वार पर पहाड़ी शैली में बने दो गंधर्वों की सुंदर मूर्तियां थीं, जिनके चेहरे पर अब कालिख पोत दी गई थी। टेराकोटा में बनी इन मूर्तियों का शिल्प खूबसूरत था पर इसके मुकाबले प्राचीन संरचना उत्कृष्ट थी।
- मंदिर के अंदर आले बने थे। भगवान वहां नहीं थे। शायद डूूब के वक्त लोगों ने यहां से उन्हें हटाकर कहीं और स्थापित कर दिया था। अब इस मंदिर में पशु बांधे जाते हैं। गोबर की गंध से मेरा सिर घूमने लगा, तो मैं बाहर आ गई। नदी घाटी-परियोजनाओं में रावी पर बना यह बांध विशालकाय है। पहले इसे थीन बांध कहा जाता था। इस पर 1982 में जब काम शुरू हुआ तब उसका कहर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और पंजाब ने समान रूप से झेला।
डूब की संपदा का आकलन लगभग 3800 करोड़ किया गया। रोचक यह हर बिंदु पर पंजाब सरकार ने हिमाचल सरकार को आश्वासन दिया कि मुआवजे के साथ हर विस्थापित परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी मिलेगी। वादे वफा नहीं हुए। आज यह प्रोजेक्ट लाखों रुपए प्रतिदिन की कमाई कर रहा है। पर जो गया... वह तो गया, हरे-भरे खेत बसे बसाए घर... देवी-देवताओं के मंदिर.. जिसमें से एक मंदिर हमारे सामने था।
कितने विस्थापन झेलेगा हिमाचल...? अब रेणुका बांध की तैयारी है, फायदा दिल्ली का और तबाही हिमाचल की। विस्थापितों को मुआवजा और जमीनें मिलने के बीच कितने दशक गुजर जाएंगे, पता नहीं। अगले दिन मैं वापस लौट आई। इन तीन दिनों में मैंने बनजारों जैसे जिंदगी जी थी और तनावमुक्त हो गई थी। हां, एक और विस्थापन की आहट सुनाई देने लगी है।

पता- दिव्य हिमाचल, पुराना मटौर कार्यालय, कांगड़ा पठानकोट मार्ग,
कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश)176001
मोबाइल- 09816164058
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12 जुलाई : सादगी दिवस
थोरौ ने लगभग 250 वर्ष पूर्व भविष्य के भागदौड़ भरे जीवन की कल्पना करते हुए जीवन को साधारण बनाने और प्रकृति के करीब रखने की जरूरत पर बल दिया था। उन्होंने लंबे समय तक प्रकृति के करीब रह कर अहिंसा, जीवन की सादगी और विचारों की शुद्धता संबंधित कई किताबें लिखीं, जिनमें 'वाल्डेन' और 'ऑन सिविल ओबीडियंस' सबसे ज्यादा चर्चित है।
गांधी जी ने थोरौ से पाया
सदगी भरे जीवन का फलसफा
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक महात्मा गांधी के जीवन और विचारों पर जिन चंद लोगों का जबरदस्त प्रभाव था उनमें अमेरिकी लेखक एवं विचारक थोरौ भी शामिल थे। उनकी कृतियों के कारण बापू को सादगी भरे जीवन का फलसफा मिला।
महात्मा गांधी ने 1902 में जोहांसबर्ग में अमेरिकी पत्रकार वैब मिलर से कहा था कि दक्षिण अफ्रीका में मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में काम करने के दौरान उन्होंने अमेरिकी लेखक और विचारक हेनरी डेविड थोरौ की 'वाल्डेन' को पढ़ा जिसके बाद उन्हें उनके सादा जीवन के विचारों से बहुत प्रेरणा मिली। उन्होंने कहा था कि वह भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के दौरान इनका पालन करेंगे और उनके जो साथी इस काम में सहयोग कर रहे हैं, उन्हें भी थोरौ को पढऩे को कहेंगे।
यही कारण है कि थोरौ के जन्मदिवस 12 जुलाई पर पूरी दुनिया में 'सिंपलिसिटी डे' (सादगी दिवस) मनाया जाता है।
महात्मा गांधी से जुड़ी रहीं स्वतंत्रता सेनानी रुक्मिणी दास के अनुसार महात्मा गांधी देश-दुनिया के उन सभी लेखकों को पढ़ते थे, जिनके विचार उनसे मिलते-जुलते थे।
रुक्मिणी ने बताया कि उनके पास पश्चिमी लेखकों का बहुत बड़ा संग्रह था, जिनसे वे जीवन से जुड़ी छोटी-बड़ी चीजों की प्रेरणा लेते थे। थोरौ के आदर्शो पर चलने वालों में महात्मा गांधी के अलावा मार्टिन लूथर किंग जूनियर का भी नाम है। मार्टिन ने अपनी आत्मकथा में इस बात का उल्लेख किया है कि उन्हें अहिंसा के रास्ते से विरोध करने का विचार 1944 में थोरौ को पढऩे के बाद आया।
थोरौ ने लगभग 250 वर्ष पूर्व भविष्य के भागदौड़ भरे जीवन की कल्पना करते हुए जीवन को साधारण बनाने और प्रकृति के करीब रखने की जरूरत पर बल दिया था। उन्होंने लंबे समय तक प्रकृति के करीब रह कर अहिंसा, जीवन की सादगी और विचारों की शुद्धता संबंधित कई किताबें लिखीं, जिनमें 'वाल्डेन' और 'ऑन सिविल ओबीडियंस' सबसे ज्यादा चर्चित है।
थोरौ अमेरिका के पहले ऐसे विचारक थे, जिन्होंने अमेरिका में 'सादा जीवन, उच्च विचार' की कल्पना को देशवासियों के बीच पहुंचाने का प्रयास किया।
अपने पूरे जीवनकाल के दौरान उन्होंने पश्चिमी देशों के निवासियों को विलासिता के साधनों, मांसाहार और आधुनिकता से परे होकर विचारों की शुद्धता और जीवन को साधारण बनाने के लिए प्रेरित किया। थोरौ के आदर्शों की बदौलत अमेरिका में आज भी बड़ी संख्या में लोग 12 जुलाई के दिन मांसाहार और मशीनी जीवन त्याग कर प्रकृति के करीब होने का अहसास करते हैं।
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बाजारवाद से हारे जन- सरोकार
- एलएन शीतल
पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या इस कदर घट रही है कि घर चलाने के लिए स्त्रियां पशुओं की मानिंद खरीदकर लायी जा रही हैं। पुरुषों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा होने के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं।
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श्रेष्ठ मीडिया वह होता है, जो लोगों को सही, सटीक और बेबाक सूचनाएं दे, आने वाले खतरों से आगाह करे, समाज में व्याप्त विसंगतियों को खत्म करने का माहौल बनाये, लोगों को उनसे जूझने के लिए प्रेरित करे, और एक सच्चे मित्र की तरह मानव-मात्र के दीर्घकालिक हितों का संवद्र्धन करे। यही वे कसौटियां हैं, जिनके जरिये हम मीडिया के खरेपन की जांच कर सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि बाजारवाद के इस दौर में शाश्वत मूल्य निरंतर क्षीण हो रहे हैं और अस्थायी महत्व की बिकाऊ चीजें उत्तरोत्तर हावी होती जा रही हैं। हरियाणा की मीडिया ने माटी के प्रति अपने तकाजों को कहां तक पूरा किया है, इसकी तर्कसंगत पड़ताल के लिए हमें यह जानना होगा कि मौजूदा वक्त में ऐसे कौन से मसले हैं, ऐसी कौन-सी समस्याएं हैं, जिनसे हमें दो-चार होना पड़ रहा है। यदि हम सर्वोच्च प्राथमिकता वाली सामाजिक विसंगतियों को सूचीबद्ध करें, तो पायेंगे कि बेकाबू भ्रष्टाचार, लैंगिक विषमता, उत्तरोत्तर बढ़ती नशाखोरी, लोक- धरोहर की उपेक्षा, मातृ- शक्ति की आपराधिक अवमानना, तात्कालिक चिंता एवं चिंतन का विषय हैं।
सबसे पहले लैंगिक विषमता को लीजिए। देश में स्त्री-पुरुष अुनपात में विषमता निरतंर बढ़ती जा रही है। हम यह भूल जाते हैं कि जिन समाजों में मातृ-शक्ति का निरादर होता है, वे मिट जाया करते हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या इस कदर घट रही है कि घर चलाने के लिए स्त्रियां पशुओं की मानिंद खरीदकर लायी जा रही हैं। पुरुषों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा होने के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं। यदि मीडिया पर चौकस निगाह डालें तो इस समस्या के बारे में शायद ही कुछ ऐसी सामग्री छपी मिले, जिसे पढ़कर जनमानस में नारी- अपमान के प्रति घृणा पैदा हो। हां, अखबारों में कन्या-भ्रूण हत्या के लिए ऐसे छद्म विज्ञापन अवश्य मिलेंगे, जो प्रकटत: सिर्फ यह बताते हैं कि गर्भ परीक्षण से जान लें कि गर्भस्थ शिशु स्वस्थ है या नहीं।देश में नशे का प्रचलन बढ़ा है। यह, हमारे युवा वर्ग को किस तरह तबाह कर रही है, यह जगजाहिर हकीकत है। यह भी स्थापित सत्य है कि सामाजिक अभिशापों को ताकत के बूते खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए सामाजिक सोच अनिवार्यत: बदलनी होती है। इसमें मीडिया की भूमिका निस्संदेह कारगर होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि मीडिया शराब के खिलाफ जनमत तैयार करने वाली सामग्री ढूंढ़े नहीं मिलती।
हर राज्य की अपनी एक सांस्कृतिक धरोहर होती है। वहां के समाज का दायित्व होता है कि वह न केवल उस धरोहर को सुरक्षित रखे, बल्कि उसे ज्यादा समृद्ध भी बनाये। लोक-कलाओं, लोक-शिल्पों और लोक साहित्य की जितनी उपेक्षा हमारे यहां है, उतनी शायद ही किसी अन्य राज्य में हो। अखबारों में आपराधिक घटनाओं की चटखारेदार खबरों, पतियों को खुश रखने के फार्मूलों तथा खुद को आकर्षक बनाने के तरीकों जैसी सामग्री तो धड़ल्ले से छपती है, लेकिन लोक-कलाकारों लोक प्रतिभाओं तथा लोक-शिल्पकारों को बढ़ावा देने वाली सामग्री बहुत कम और सतही होती है। मीडिया का काम जन-रुचि को परिष्कृत करना और सकारात्मक बातों के प्रति रुझान पैदा करना भी होता है। लेकिन मीडिया समाज की सामूहिक सोच को विकृत करने और उसे बाजारू बनाने पर आमादा है, क्योंकि उपभोक्तावाद का यही तकाजा है। ...और हमारा मीडिया बाजारवाद को बढ़ावा देने वाला कारगर औजार साबित हुआ है। ऐसे अनेक अंधविश्वास और रूढि़य़ां आज भी प्रचलित हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। किंतु, हमारा मीडिया, ऐसे अंधविश्वासों को या तो महिमामंडित करता नजर आता है या फिर मूकदर्शक बना दिखता है। निंदा तो वह कभी करता ही नहीं।
यों तो, जातिवाद की आदिम प्रवृत्ति लगभग सभी राज्यों में विद्यमान है। लेकिन हमारे राज्य में जातीयता जिस व्यापकता के साथ मौजूद है, वह एक स्वस्थ समाज की निशानी नहीं कही जा सकती। खेद की बाद है कि लोग रहन-सहन तथा दिखावे की अन्य तमाम बातों में तो बहुत तरक्की कर गये हैं, लेकिन जातिवाद और गोत्रवाद के मामले में वे आदिम युग की तरह ही संकीर्ण मानसिकता में जी रहे हैं। साक्षरता बढ़ी है, और तथाकथित शिक्षा भी, लेकिन उसी अनुपात में जातिवाद भी बढ़ा है। जबकि इसे निरंतर कम होना चाहिए था। समाचार-पत्र जातिवाद की घृणित राजनीति पर कारगर प्रहार करने में अभी तक तो नाकाम ही रहे हैं।
शॉर्टकट अपना कर रातोरात करोड़पति बनने की ललक ने हमारे युवाओं को कुछ ज्यादा ही पथभ्रष्ट कर दिया है। आज इसके कारणों की तह में जाने और उन्हें निर्मूल करने की जरूरत सबसे ज्यादा है। यहां भी, फिर वही अफसोस कि हमारे अखबारों में अपराधों की रिपोर्टें तो आकर्षक ढंग से छपती हैं, लेकिन उन प्रवृत्तियों पर विचार-पूर्ण सामग्री नहीं छपती, जो हमारे समाज को एक अपराधी-समाज के रूप में परिणत कर रही है।
अंत में, एक अत्यंत नाजुक और बेहद संवेदनशील मसला है- जातीय और गोत्रीय पंचायतों का। यह अभिशाप पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान को बुरी तरह से अपने चंगुल में जकड़े हुए है। दर्जनों युवा जोड़ों की जानें खाप पंचायतों के फतवे ले चुके हैं। ये क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा हैं। एक प्रगतिशील लोकतंत्र होने के नाते हमारे देश में संविधान के अंतर्गत अदालतें, पुलिस प्रणाली और मानव-अधिकार आयोग जैसी सभी नियामक व्यवस्थाएं विद्यमान हैं। किंतु, इन क्षेत्रों में जातीय एवं गोत्रीय पंचायतों की दखलंदाजी बदस्तूर जारी है। पहले छोटी पंचायत होती है, फिर उसके फैसले को उलटने के लिए बड़ी पंचायत। ...और इस तरह वर्चस्व हासिल करने के लिए पंचायतों का अंतहीन सिलसिला जारी रहता है। जरा गौर कीजिए। मुसलमानों के
कबाइली समाज में भी यही होता रहा है। वहां, कबाइली सरदारों की आस्था न तो अदालतों में है, और न अपने देश के कानूनों में। किसी भी लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर व्यवस्था की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस तरह के पंचायती फतवों से, और उन पर अमल के लिए लट्ठ का जोर इस्तेमाल किये जाने से हम उसी व्यवस्था का समर्थन करते प्रतीत होते हैं, जो अतिवादी इस्लामी तत्त्व बंदूक के जोर पर मध्यकालीन प्रथाओं को जारी रखने के लिए कर रहे हैं। यही नहीं, हम कहीं न कहीं संविधान विरोधी कृत्य भी कर रहे होते हैं, क्योंकि वह व्यवस्था संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर और उन पर चोट करती नजर आती है। ये पंचायतं महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचारों, शराब के प्रचलन, लैंगिक विषमता, और निठल्लेपन की बढ़ती प्रवृत्ति पर चोट करतीं, तो फिजा कुछ और ही होती। यहां, यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारी नाइत्तफाकी पंचायतों से नहीं, उनके स्वरूप और उनके एजेंडे से है। पंचायतें किसी जाति अतवा गोत्र- विशेष की न होकर पूरे समाज की होनी चाहिए। उनके एजेंडे में सामाजिक अभिशापों का उन्मूलन सबसे ऊपर होना चाहिए। इस प्रसंग में क्या यह चिन्ता का विषय नहीं कि हमारे किसी भी अखबार ने आज तक यह बताने का साहस नहीं दिखाया कि पंचायतों का वास्तविक स्वरूप और एजेंडा क्या होना चाहिए।
चिन्ता की सबसे अहम वजह है- अर्श से लेकर फर्श तक फैला भ्रष्टाचार, जिसे सबसे पहले राष्ट्रीय मान्यता प्रदान की थी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने, जिन्होंने कहा था- ऐसा कौन सा देश है जहां भ्रष्टाचार नहीं है। आज हालात इस कदर बिगड़ गये हैं कि जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है, उसे 'लल्लू' मान लिया जाता है। तमाम बड़े मीडिया घराने भ्रष्टाचार से दौलत के टापू खड़े करने में सबसे आगे हैं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद रखना निरी मूर्खता ही मानी जायेगी कि वे देश के सबसे बड़े शत्रु-'भ्रष्टाचार' के खिलाफ कोई मुहिम छेड़ेंगे अथवा ऐसी किसी मुहिम का हिस्सा बनेंगे।
निष्कर्ष यह कि मीडिया नित नये उत्पादों की बिक्री बढ़ाने का माध्यम मात्र बनकर रह गया है, और वह आम आदमी की चिंताओं को कारगर ढंग से पेश नहीं करके उनकी आपराधिक उपेक्षा कर रहा है। वह उच्च वर्ग में शामिल होने को आतुर मध्यम वर्ग का नुमाइंदा ज्यादा नजर आता है। समाज के दीर्घकालिक सरोकारों से उसका कहीं कोई वास्ता नजर नहीं आता। लगभग सभी अखबार अपने पाठक को तटस्थ सूचनाओं और निष्पक्ष विश्लेषण से वंचित रखकर समाचार और विचार में पूर्वाग्रह ठूंस रहे हैं। वे विज्ञान के नये आविष्कारों से अवगत कराने के स्थान पर विज्ञापनी उत्पादों को महिमामंडित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं। उनकी यह भूमिका एक बड़े अशुभ का संकेत है। वे शहरी पाठकों को अपनी सुविधा से सामग्री परोसते हैं। परोसने की इस शैली का उद्देश्य पाठकों के दीर्घकालिक हितों की रक्षा करना कम, विज्ञापनदाता के हितों की रक्षा करना ज्यादा है। दूसरी तरफ, वे ग्रामीण क्षेत्र की घोर उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसा, वे अनजाने में नहीं, जानबूझकर कर रहे हैं। ग्रामीणों की कौन-सी समस्याएं हैं, इसकी बहुत कम चिंता अखबारों को है। जीवन के हर क्षेत्र में क्षुद्र राजनीतिक दखलंदाजी जिस खतरनाक हद तक बढ़ी है, उसका प्रतिकार करने में अखबार नाकाम रहे हैं। मीडिया की मौजूदा दशा के मद्देनजर तो यही लगता है कि-
बरबाद गुलिस्तां करने को
बस एक ही उल्लू काफी है,
हर शाख पर उल्लू बैठा है,
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।
...
अनकही
कानून के जंगल में न्याय का अकाल
न्याय कानून रुपी वृक्ष का फल है। हमारे यहां कानून का जंगल खड़ा हो रहा है पर किसी भी वृक्ष में फल नहीं लगता क्योंकि असलियत यही है कि सरकार और प्रशासन कानून बनाकर अपने को सुरक्षित करते हैं। आजादी के पहले राजा राज्य करता था इसलिए राजा के मुंह से निकला हर शब्द कानून होता था। अब न राजा रहे न राज। अब जनतंत्र का युग है। तो जनतंत्र में कौन राज्य करेगा। कहा जाता है कि जनतंत्र में कानून का राज्य होता है। हम जनतांत्रिक देश हैं। आइए जायजा लें कि हमारे यहां कानून के राज्य का क्या हाल है। कुछ एकदम ताजे उदाहरण ये हैं-
- देश की राजधानी दिल्ली में असिसटेन्ट कमिश्नर सेल्सटैक्स ने अपनी वृद्ध विधवा मां को बेदर्दी से मारा- पीटा और ऊपरी मंजिल से धक्का दे दिया। वृद्ध महिला का सर फट गया और वह गंभीर रूप से घायल हो गई। उनके पुत्र असिसटेन्ट कमिश्नर साहब गंभीर रूप से घायल अपनी मां के पास खड़े होकर चीख रहे थे कि वह मां के मर जाने पर ही वहां से हटेंगे। असिसटेन्ट कमिश्नर साहब बहादुर को शिकायत है कि उनकी वृद्ध मां ने ग्यारह बच्चो को क्यों जन्म दिया। जब आहत मां की बेटियां पुलिस थाने में इस जानलेवा हमले की प्राथमिकी लिखाने गईं तो पुलिस ने प्राथमिकी लिखने से इंकार कर दिया। क्योंकि अपराधी उच्च सरकारी अधिकारी है। यह तो जानी हुई बात है कि कानून के मुताबिक अपराध तभी साबित होता है जब उसके बारे में थाने में प्राथमिकी पंजीकृत हो जाए।
- हरियाणा के डायरेक्टर जनरल पुलिस एक किशोरी के साथ यौन उत्पीडऩ करते हैं तो घटना के आठ वर्ष बाद उच्च नयायालय के आदेश पर थाने में प्रथमिकी दर्ज होती है। इस बीच में पीडि़त किशोरी डीजीपी द्वारा लगातार प्रताडि़त किेए जाने के कारण आत्महत्या कर लेती है। इस मामले में जब उन्नीस वर्ष बाद निचली अदालत का फैसला आता है तो इस अपराधी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को सिर्फ अ_ारह महीने की साधारण सजा देकर मामले की इति कर दी जाती है।
- भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी में विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना होती है जिसमें हजारो गरीब स्त्री- पुरूष, बच्चे और अनगिनत जानवर मारे जाते हैं तथा फैक्टरी के क्षेत्र में भूमिगत जल खतरनाक रुप से संक्रमित होकर जहरीला बन जाता है। इस मामले में छब्बीस वर्ष बाद सबसे निचली अदालत का फैसला जो आता है उसमें इस दुर्घटना के जिम्मेदार भारतीय व्यक्तियों को सिर्फ दो वर्ष की मामूली सजा देकर न्याय की इति मान ली जाती है। ध्यान रहे कि मुख्य आरोपी जो एक अमरीकन नागरिक है उसे कानून के दायरे से पूर्णतया बाहर रखा जाता है।
इस प्रकार के असंख्य उदाहरण हमारे देश में नित्य पैदा होते हैं।
रोज ही समाचार आते हैं कि पुलिस कर्मियों के पुत्र और रिश्तेदार तथा पुलिस कर्मी स्वयं धड़ल्ले से चोरी, डकैती, बलात्कार जैसे संगीन अपराध करते हैं। आईएएस एवं अन्य वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के घर में सैकड़ो करोड़़ रूपए की रिश्वत की धन राशि पकड़े जाते हैं। हद तो ये है कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी अब बेदाग नहीं रहे। जहां तक राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का प्रश्न है तो वे अपने को कानून से ऊपर मानते हैं और वैसा ही आचरण भी करते हैं। बिना डकार लिए जानवरों का चारा खा जाते हैं, हजारो करोड़ की लिश्वत लेते हैं, अपने पासपोर्ट पर स्त्रियों को विदेश में निर्यात करने का धंधा करते हैं, लोकसभा में प्रश्न करने के लिए पैसा लेते हैं आदि आदि। ये सब स्पष्ट संदेश देते हैं कि किसी तरह का कानून उनपर लागू नहीं होता।
याद होगा उत्तर प्रदेश में निठारी का वो भयानक कांड जिसमें बीसियों मासूम गरीब बच्चियों का यौन शोषण करने के बाद उनकी निर्मम हत्या कर, उनके शव नाले में बहा दिए गए। जब यह मामला उजागर हुआ तो उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री घटना स्थल का दौरा करने गए और उन्होंने मुस्कुराते हुए पत्रकारों से कहा- ऐसी छोटी- मोटी घटनाएं होती ही रहती हैं!
यह उदाहरण हैं हमारे राजनेताओं की मानसिकता का, उस मानसिकता का कि उनकी निगाह में कानून का राज महज एक बेमानी स्लोगन है। स्पष्ट है कि हमारे समाज में कानून के प्रति वांंछित इज्जत नहीं बची है। तभी तो सरकारी कर्मचारी, राजनेता सभी निर्भय होकर गैरकानूनी कार्यवाही में लिप्त रहते हैं। आय से अधिक धन अर्जित करना, सम्पति इकट्ठा करना, छोटे से छोटे सत्तासीन के लिए साधारण कार्यवाही माना जाता है। असलियत ये है कि हमारे प्रशासकों ने कानून बनाने को ही सुशासन मान लिया है। इसलिए आज स्थिति ये हो गई है कि कानूनों का पहाड़ दिन- दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ता जा रहा है और न्याय लुप्त हो गया है। हकीकत तो ये है कि सरकारी कर्मचारी इन कानूनों का दुरुपयोग सिर्फ जनता को परेशान करने के लिए ही करते हैं। आम आदमी कोई साधारण से साधारण काम करवाना चाहे तो सरकारी कर्मचारी उसे कानूनों की अड़चन दिखाकर कुछ न कुछ धन उगाह ही लेता है।
सर्वविदित है कि हमारी अदालतों में बहुत बड़ी संख्या में मुकदमें वर्षों से लंबित हैं। जांच पड़ताल करने पर मालूम होता है कि इसके लिए भी सरकार ही मुख्य दोषी है। भारत में सबसे बड़ी मुकदमेबाज केन्द्र और राज्य सरकारें ही हैं। शायद ही कोई ऐसा मामला हो जिसमें सरकारें उच्च न्यायालय तक अपील न करती हों। एक अनुमान के अनुसार आदालतों में कुल लंबित मामलों में से चालीस प्रतिशत से अधिक सरकार द्वारा चलाएं जा रहे मुकदमें हैं। गत वर्ष
इस दुर्दशा से मुक्ति पाने का भी साधन वही है। दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति। लेकिन दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति पिछले कुछ दशकों से हमारे यहां न्याय की भांति ही लुप्त हो गई है। ऐसे में फिलहाल समाज को कानूनों की इस चक्की में पिसते ही रहना है।
-रत्ना वर्मा
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इस अंक में
बुरे लोग तभी जीतते हैं जब अच्छे लोग कुछ नहीं करते।
- अब्राहम लिंकन
अनकही: कानून के जंगल में न्याय का अकाल
बाजारवाद से हारे जन- सरोकार - एलएन शीतल
सदगी भरे जीवन का फलसफा
किसी रोज बनजारों की तरह - प्रिया आनंद
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना- एन. के. राजू
आओ प्रकृति के इन अनमोल धरोहर को बचाएं- उदंती फीचर्स
ऐसे मशहूर हो गई यह तस्वीर
-10 हजार रुपये कमाने वाला लंगूर
-विज्ञापन बढ़ाते हैं आपकी डाइट
-वाह भई वाह
कहानी: एक और द्रौपदी - श्याम सखा श्याम
हृषिकेश सुलभ को कथा सम्मान - अजित राय
कविता: विश्वजयी- नीरज मनजीत
लघु कथाएं: निरुत्तर, बोकरा भात - के. पी. सक्सेना 'दूसरे
मार्निंग वॉक का फंडा - विनोद साव
आम आदमी की वेदना से खिलवाड़ क्यों?- बिचित्र मणि
इस अंक के लेखक
आपके पत्र/ इन बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया /दुनिया का सबसे बड़ा सिक्का
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