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Aug 26, 2010

उदंती.com, अगस्त 2010

उदंती.com,
वर्ष 3, अंक 1, अगस्त 2010
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इतिहास के अध्ययन से मनुष्य बुद्धिमान बनता है।
- बेकन
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घोटालों में डूबा कामनवेल्थ गेम्स

घोटालों में डूबा कामनवेल्थ गेम्स
-डॉ. रत्ना वर्मा
हम भारत की आजादी का 63वां जश्न मनाने जा रहे हैं। लेकिन क्या वास्तव में हम जश्न मना पाएंगे? इन दिनों देश के जो हालात हैं उसे देखते हुए मन तो नहीं करता कि जश्न मनाया जाए। क्योंकि महंगाई जैसे सबसे गंभीर मुद्दे को छोड़कर इस समय जो विषय सबसे अधिक चर्चा में है वह अक्टूबर में दिल्ली में होने वाले कामनवेल्थ गेम्स की है। इसकी भव्यता या शानदार तैयारी को लेकर नहीं बल्कि इसकी आड़ में आयोजकों द्वारा किए गए करोड़ों के घोटाले की है। जबकि आजादी के इस दिवस पर होना यह चाहिए था कि हम गर्व के साथ अपने तिरंगे के नीचे खड़े होकर कह सकते कि हमारा देश खेलों के सबसे बड़े आयोजन की शानदार मेजबानी करने जा रहा है जिसे देखकर दुनिया हमसे रश्क करती। पर यहां तो सब कुछ उल्टा हो रहा है। हमारा सिर शर्म से झुक गया है।
19 वें कामनवेल्थ गेम्स 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान दिल्ली में होना तय हुआ था। स्वयं खेल मंत्री डॉ एम.एस. गिल ने संसद में बयान दिया कि इस आयोजन की घोषणा के बाद तीन- चार वर्ष तक खेलों के आयोजन एवं इसके ढांचागत निर्माण की ओर कतई ध्यान नहीं दिया गया। तब प्रधानमंत्री का ध्यान भी कामनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के अध्यक्ष माइक फेनेल ने भी दिलाया था। केन्द्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति भी नियुक्त की। किन्तु इस सबके बाद भी न आयोजन समिति न दिल्ली सरकार और न ही केन्द्र सरकार की आंख खुली। इन सबका नतीजा आज सबके सामने है।
यह खेल आज देश के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन गया है। एक तो इसकी तैयारी में की गई देरी व धन की बर्बादी और एक के बाद एक भ्रष्टाचार का उजागर होना हमारी 63 वर्ष की आजादी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है और हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या यही है हमारे इतने वर्षों की स्वतंत्रता की कमाई। देश की गरीब जनता के खून पसीने की कमाई को लूटकर हमारे अपने ही लोगों ने अपनी जेबें भरी और दुनिया भर में देश की छवि को मिट्टी में मिला दिया। दरअसल कामनवेल्थ गेम्स के संयोजकों ने कामनवेल्थ के शाब्दिक रुप को अपना लिया और अपना ही कामनवेल्थ बना लिया। इतना ही नहीं घोटालों के उजागर होने के बाद भी वे बड़ी बेशर्मी से यह कहते घूम रहे हैं कि फिलहाल तो यह खेल हो जाने दो राष्ट्र की इज्जत का सवाल है, बाकी बाद में देख लेंगे।
केंद्रीय सतर्कता आयोग ने कामनवेल्थ गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों में पांच सरकारी एजेंसियों को कठघरे में खड़ा किया है। आयोग के अनुसार इन सरकारी एजेंसियों ने मनमाने तरीके से ठेके तो दिए ही, जो निर्माण कार्य कराए उनमें एक भी कार्य निर्धारित मानदंडों के अनुरूप नहीं था। निर्माण कार्यों में लगी सरकारी एजेंसियों, लोक निर्माण विभाग, एमसीडी, डीडीए, एनडीएमसी और राइट्स के संदेह के घेरे में आने का अर्थ है कि भ्रष्टाचार कीनिगरानी की कहीं कोई व्यवस्था नहीं थी। अब भले ही सतर्कता आयोग ने भ्रष्टाचार की निशानदेही कर ली, पर प्रश्न फिर भी वहीं का वहीं है कि क्या भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार सरकारी, गैरसरकारी तत्वों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई की जाएगी। काश यदि ऐसे तत्वों को आरंभ में ही हतोत्साहित कर दिया जाता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता।
भारत ने 2003 में जब कामनवेल्थ गेम्स की मेजबानी हासिल की थी तो खेलों की कुल लागत 767 करोड़ रुपए आंकी गई थी। जो अब बहुत ज्यादा हो चुकी है, सरकार ने भी इसके बारे में नहीं सोचा था। अब सरकार कह रही है कि खेलों पर कुल लागत 11294 करोड़ रुपए आएगी। जब इन खेलों की मेजबानी की बात उठी थी तब बड़ी- बड़ी बातें की गईं थी कि इस आयोजन से देश को बहुत फायदा होगा। जबकि वास्तविकता यह है कि खेलों के इतिहास में अब तक कोई भी ओलंपिक खेल, एशियाई खेल या कॉमनवेल्थ गेम्स कभी फायदे का धंधा नहीं रहा।
हां इन खेलों की आड़ में बहुत से लोगों की तिजोरियां जरुर भर जाती हैं, अधिकारियों, बिल्डरों और ठेकेदारों की ऐसे आयोजनों में चांदी ही चांदी रहती हैं। खेल की आड़ में बड़ी- बड़ी घोषणाएं की जाती रहीं कि इस मेजबानी से लाखों हाथों को रोजगार मिलेगा पर देश के कोने- कोने से आए लाखों मजदूरों को रोजगार मिलना तो दूर कितने तो मर गए जिसकी वजह से कई परिवार बेघर हो गए हंै, उजड़ गए। बल्कि आम जनता का कई गुना पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। दिल्ली वालों का हाल भी इससे कुछ अलग नहीं, तरह- तरह के टैक्सों की मार तो उनपर पडऩी शुरू हो ही चुकी है, इससे जल्दी निजात की कोई संभावना भी नजर नहीं आती। माना जा रहा है कि इन खेलों के चलते दिल्ली के लोग अगले 25 सालों तक कर्जों को तमाम तरह के टैक्सों के रूप में झेलेंगे।
शायद आप नहीं जानते कि 1976 के ओलंपिक खेलों का आयोजक मांट्रियल 2006 में जाकर कर्जों से उबर पाया था। ग्रीस 2004 में हुए ओलंपिक खेलों के बाद कर्जों में इस कदर डूबा कि आज तक नहीं उबर पाया है और अंतत: वर्तमान यूरोपियन मंदी का प्रमुख कारण बन गया।
इन खेलों के आयोजन में अब दो माह से भी कम समय शेष रह गया है, लेकिन प्रत्येक स्तर पर आधी- अधूरी तैयारियों और घोटालों के उजागर होने से तो यह साफ हो गया है कि इन खेलों से देश को चाहे कोई मेडल या उपलब्धि हासिल हो या न हो पर घोटाला और भ्रष्टाचार के खेल में हम मील के पत्थर साबित होंगे। सच तो यह है कि हाल ही दिल्ली में हुई बारिश ने खेल के लिए तैयार किए गये स्टेडियमों की पूरी पोल खोल कर रख दी है, यह सब इतने कम समय में कैसे पूरा हो पाएगा यह तो आयोजक ही बता पाएंगे। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि भगवान से प्रार्थना करो कि- हे भगवान हमारी लाज रखो।


पीपली लाइव के बहाने...- छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सोनहा बिहान

पीपली लाइव के बहाने...
साहित्य, कला और संस्कृति की तरह फिल्मों को भी समाज का दर्पण कहा जाता है और यदि बात क्षेत्रीय फिल्मों की हो तो उसमें उस प्रदेश की माटी की खूशबू बसी होती है। यदि छत्तीसगढ़ी फिल्मों के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो इसका आरंभिक दौर काफी समृद्ध रहा है। उदंती के इस अंक में प्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्यकार डॉ। परदेशी राम वर्मा, जो लगातार क्षेत्रीय मुद्दों पर भी अपनी कलम चलाते हैं ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों के इतिहास पर प्रकाश डाला है। उनका यह आलेख इसलिए भी सामयिक बन जाता है क्योंकि हाल ही में प्रदर्शित आमीर खान प्रोडक्शन की फिल्म 'पीपली लाइव' के बहाने छत्तीसगढ़ के लोक गीतों और लोक कलाकारों पर बात करने के लिए एक बार फिर मुद्दा मिल गया है। कला धर्मी राहुल सिंह ने इस फिल्म में शामिल छत्तीसगढ़ के एक लोक गीत चोला माटी के हे राम... के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला है तो पत्रकार राजेश अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ की समृद्ध सांस्कृतिक और कलात्मक धरोहर को भुलाते चले जाने पर आक्रोश व्यक्त किया है। इन तीनों लेखों के माध्यम से अपने प्रदेश की कला एवं संस्कृति से प्रेम करने वालों से अनुरोध करते हैं कि इस विषय पर नए सिरे से चर्चा करें।
- संपादक
इतिहास के आइने में
छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सोनहा बिहान
- डॉ. परदेशी राम वर्मा
छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म 'कहि देबे संदेश' एक संदेशपरक फिल्म थी जिसमें छत्तीसगढ़ की उदारता और सहिष्णुता का संदेश था। चालीस वर्ष पूर्व दो भिन्न जातियों के बीच वैवाहिक मेल की कहानी इस फिल्म में थी। हम देख रहे हैं कि चालीस वर्षों बाद छत्तीसगढ़ में अंतर्जातीय विवाह की स्वीकृति तेजी से बढ़ी है।
छत्तीसगढ़ राज्य नौ वर्ष पूर्व बना मगर छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सफर चार दशक पूर्व प्रारंभ हो गया था। साहित्य एवं संस्कृति के पुरोधा लगातार सैकड़ों वर्षों से छत्तीसगढ़ राज्य बनाये बैठे थे। संभवत: इसीलिए छत्तीसगढ़ इस तरह शांतिपूर्ण ढंग से अस्तित्व में आ सका।
एक लंबी रचनात्मक प्रक्रिया से गुजर कर बना है हमारा छत्तीसगढ़। इसके निर्माण में भुला दिए जा रहे महान धरतीपुत्रों का योगदान है। इनमें मनु नायक निर्मित पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेश' के कवि डॉ. हनुमंत नायडू और दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म 'घर द्वार' के गीतकार हरि ठाकुर ऐसे साधक हैं जिन्हें राज्य बनने के बाद यथोचित महत्व नहीं मिला।
आज जो फिल्में बन रही हैं उनके लिए आधारभूमि उपरोक्त दो फिल्मों से ही मिली। छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म 'कहि देबे संदेश' एक संदेशपरक फिल्म थी जिसमें छत्तीसगढ़ की उदारता और सहिष्णुता का संदेश था। चालीस वर्ष पूर्व दो भिन्न जातियों के बीच वैवाहिक मेल की कहानी इस फिल्म में थी। हम देख रहे हैं कि चालीस वर्षों बाद छत्तीसगढ़ में अंतर्जातीय विवाह की स्वीकृति तेजी से बढ़ी है। मनु नायक 'कहि देबे संदेश' के निर्माता थे। मनु नायक ने अपनी फिल्म में जिन कलाकारों को अवसर दिया वे आज भी छत्तीसगढ़ी फिल्म के लिए अनिवार्य बने हुए हैं। उनमें शिवकुमार दीपक प्रमुख हैं। शिवकुमार दीपक ने कहि देबे संदेश के बाद 'घर द्वार' में भी श्रेष्ठ अभिनय किया। घर द्वार के निर्देशक निर्जन तिवारी थे। निर्माता विजय पांडे एवं निर्देशक निर्जन तिवारी ने घर द्वार में छत्तीसगढ़ के टूटते परिवार की कहानी को प्रमुखता से चित्रित किया। इन दोनों छत्तीसगढ़ी फिल्मों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले भावना प्रधान लोगों ने अपना योगदान दिया। बसंत दीवान ने भी फिल्म घर द्वार में अभिनय किया था।
'कहि देबे संदेश' के गीतों को लिखा दुर्ग में अध्यापकीय पेशे से जुड़कर अंचल के साहित्यकारों में विशेष स्थान बनाने वाले डॉ. हनुमंत नायडू ने। 'बिहनिया के उगत सुरूज देवता',
'झमकत नदिया बहिनी लागे,' और 'मोर अंगना के सोन चिरइया बेटी' जैसे सर्वकालिक गीतों को हनुमंत ने लिखा। छत्तीसगढ़ की आंतरिक शक्ति और उसकी विशिष्ट बनावट को भी हम इस फिल्म के चर्चित स्तंभों के माध्यम से जान समझ सकते हैं। हनुमंत जन्मना गैर छत्तीसगढ़ी व्यक्ति थे। छत्तीसगढ़ के गीतकारों के आदर्श बनकर वे मील के पत्थर बन गए। माधवराव सप्रे ने हिन्दी की पहली कहानी छत्तीसगढ़ी पृष्ठभूमि पर रची। 'टोकरी भर मिट्टी' का कथानक छत्तीसगढ़ से जुड़ा हुआ है। यह कहानी हिन्दी कहानी जगत की पहली कृति मानी जाती है। हनुमंत नायडू और माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ की आत्मा की पहचान ठीक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की तरह की। कौन कहां जन्मा, किसके पुरखे कहां से आये इस तरह के अनुपयोगी और संभ्रम फैलाने वाले कमजोर सवालों के भरपूर उत्तर देने वाले ये छत्तीसगढ़ के लाल अंचल की सर्वाधिक चमत्कार तस्वीर बना सके।
'कहि देबे संदेश' के बाद आई फिल्म 'घर द्वार' की गीत रचयिता छत्तीसगढ़ के लिए मर मिटने वाले सपूत हरि ठाकुर थे।
'लोटा लेके आने वाला, इहां टिकाइन बंगला,
जांगर टोर कमाने वाला, हे कंगला के कंगला'
इसी व्यथा को कविताओं में लगातार विस्तार देने वाले हरि ठाकुर ने घर द्वार में 'गोंदा फुलगे मोर राजा', 'सुन सुन मोर मया पीरा के संगवारी रे' तथा 'आज अधरतिया मोर फुलवारी म' जैसे गीतों का सृजन कर उन लोगों को चकित कर दिया जो उन्हें श्रृंगार गीत रचने में माहिर मानने को तैयार नहीं थे। वैचारिक आलेखों के लिए वंदित एवं अपने चर्चित कई शोध गंरथों के लिए सम्मान प्राप्त हरि ठाकुर ने खुले मन से फिल्म माध्यम को स्वीकार किया। मर्यादा में रहकर संकेतों के माध्यम से श्रृंगार गीतों को रचने का कीर्तिमान हरि ठाकुर ने बनाया।
उपरोक्त दोनों फिल्मों में छत्तीसगढ़ की सच्ची तस्वीर देखते
ही बनती है। छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में एक लंबा अंतराल आया। 'मोर छइयां भुइंया' फिल्म 'घर द्वार' बनने के तीन दशक बाद आई। तब छत्तीसगढ़ राज्य बनने की धमक अपने पूरे प्रभाव के साथ सुनी-सुनाई जा रही थी। ऐसे दौर में आई यह फिल्म सुपरहिट साबित हुई। इस फिल्म की सफलता से एक नई शुरुआत हुई। उसके बाद 'मया' शब्द को लेकर तीन- चार फिल्में आई। जिसमें से अधिकांश अच्छी चली।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों का यह प्रारंभिक दौर है। फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आज के दौर में दृष्टि संपन्न समर्थ व्यक्ति नहीं हैं। पैसा लगाकर उससे लाभ कमाने का ही मुख्य उद्देश्य और संघर्ष उनके सामने है। आज के दौर में लगभग सभी फिल्मों में प्रभावी कथा तत्व का अभाव झलकता है। भाषा के मानकीकरण की तरह ही संस्कृति के क्षेत्र में भी स्तर की चिंता चिंतकों को होती है।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों में छत्तीसगढ़ी भाषा का तो प्रयोग हो रहा है मगर छत्तीसगढ़ की धड़कन इन फिल्मों में नहीं होती। तीज- त्यौहार, रीति-रिवाज और परंपराओं को भी फिल्मी रंग देते समय निर्माता को केवल फिल्म की सफलता की चिंता रहती है। और इसी चिंता में फूहड़ नृत्य, दुहरे अर्थों के संवाद, नकली दृश्य और अतिरेकपूर्ण भड़ौनी गीतों का भरपूर फिल्मांकन किया जाता है। छत्तीसगढ़ के चिर-परिचित दर्शनीय स्थलों के बदले गलत लोकेशन का चुनाव भी फिल्मकार करते हैं।
छत्तीसगढ़ में देश के किसी भी प्रांत से टक्कर ले सकने वाले मोहक और नयनाभिराम दृश्यवलियों वाले प्रक्षेत्र हैं। वे फिल्मों में कहीं नहीं दिखते। नृत्य कुशल, अनगढ़ भाषा से काम चलाने वाले कलाकारों को साथ लेकर फिल्में बनाई जाती हैं। फिल्म में पैसा लगता है और पैसा छत्तीसगढ़ी के जानकार लोगों के पास नहीं है। इसलिए समझौता अपरिहार्य है।
लेकिन निराशा के बावजूद इन सब परेशानियों से जूझते हुए कुछ फिल्में तो बन ही रही हैं जिन्हें लोग अपना समर्थन देकर राह बनाते चल रहे हैं। हम सबको आशा है शीघ्र ही परिपक्व दौर भी आयेगा जब अंचल में दृष्टि संपन्न निर्देशक और समर्थ निर्माता उभरेंगे। तब होगा छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सोनहा बिहान।

पता : एल आई जी-18,
आमदीनगर, हुडको,
भिलाई 490009 (छ.ग.)
मोबाइल- 98279 93494

ब्लॉग- agasdiya.blogspot.com

पीपली लाइव के बहाने... - चोला माटी के हे राम...


पीपली लाइव के बहाने...
चोला माटी के हे राम...
- राहुल सिंह
लगता है कि हम नया थियेटर के किसी वर्कशाप में उपस्थित हैं। फिल्म आरंभ होती है, हबीब तनवीर और नया थियेटर को धन्यवाद देते हुए। निर्माता आमिर खान, हबीब जी से जुड़े रहे हैं तो फिल्म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और महमूद फारूकी (सह-निर्देशक) हबीब जी के करीबी रहे हैं।
'जय शंकर' हबीब जी के नया थियेटर का अभिवादन- संबोधन रहा है, फिल्म 'पीपली लाइव' के पात्र इसका अनुकरण करते हैं, तब लगता है कि हम नया थियेटर के किसी वर्कशाप में उपस्थित हैं। फिल्म आरंभ होती है, हबीब तनवीर और नया थियेटर को धन्यवाद देते हुए। निर्माता आमिर खान, हबीब जी से जुड़े रहे हैं तो फिल्म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और महमूद फारूकी (सह-निर्देशक) हबीब जी के करीबी रहे हैं। इस सिलसिले के चलते फिल्म के नायक 'नत्था' यानि ओंकार दास मानिकपुरी के साथ छत्तीसगढ़वासी (नया थियेटर के) कलाकारों की लगभग पूरी टीम, चैतराम यादव, उदयराम श्रीवास, रविलाल सांगड़े, रामशरण वैष्णव, मनहरण गंधर्व, और लता खापर्डे फिल्म में हैं। पात्र शैल सिंह- अनूप रंजन पांडे के पोस्टर और नारों की झलक फिल्म में जगह-जगह है। शुरुआती एक दृश्य में नत्था, लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी ददरिया 'आमा ल टोरेंव... ' पंक्तियां गाते, जाता दिखाया गया है।
फिल्म दिल्ली-6 के गीत 'सास गारी देवे' के बाद इस फिल्म का गीत 'चोला माटी के' चर्चा में है। यह प्रायोगिक लोक गीत है, जो अब पीपली लाइव के गीत के रूप में जाना जाने लगा। गीत, हबीब जी के जीवन-काल में नगीन तनवीर के स्वर में रिकॉर्ड हो चुका था और बाद में फिल्म के लिए फिर से रिकॉर्ड किया गया है, लेकिन दोनों रिकॉर्डिंग में बोल एक जैसे ही, इस तरह हैं -
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा, चोला माटी के हे रे।
द्रोणा जइसे गुरू चले गे, करन जइसे दानी
संगी करन जइसे दानी
बाली जइसे बीर चले गे, रावन कस अभिमानी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी
एक दिन आही सब के पारी
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
भव से पार लगे बर हे तैं हरि के नाम सुमर ले संगी
हरि के नाम सुमर ले
ए दुनिया माया के रे पगला जीवन मुक्ती कर ले
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
इंटरनेट पर जारी इस गीत के बोल अंगरेजी- रोमन में हैं (हिन्दी फिल्मों का कारोबार इसी तरह चलता है) और जाहिर है कि किसी छत्तीसगढ़ी जानने वाले की मदद नहीं ली गई है, इसलिए इसमें बोल, जैसा गीत में सुनाई पड़ता है, उसी तरह से आया है और भरोसा, दानी व अभिमानी के बदले क्रमश: बरोसा, दाहिक व बीमाही जैसी कई भूलें हैं। यहां इस गीत के गायक और संगीतकार का नाम नगीन तनवीर और गीतकार गंगाराम सखेत अंकित है। फिल्म में एक कदम आगे बढ़कर स्पष्ट किया गया है कि गीत की धुन मध्यप्रदेश के गोंड़ों की है और गीतकार छत्तीसगढ़ी के लोक कवि हैं।
गीत के संदर्भ और पृष्ठभूमि की बात आगे बढ़ाएं। गीत, छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती मंडलाही झूमर करमा धुन में है, जिसका भाव छत्तीसगढ़ के पारम्परिक कायाखंडी भजन (निर्गुण की भांति) अथवा पंथी गीत की तरह (देवदास बंजारे का प्रसिद्ध पंथी गीत- माटी के काया, माटी के चोला, कै दिन रहिबे, बता ना मो ला) है। इसी तरह का यह गीत देखें -
हाय रे हाय रे चंदा चार घरी के ना
बादर मं छुप जाही चंदा चार घरी के ना
जस पानी कस फोटका संगी
जस घाम अउ छइंहा
एहू चोला मं का धरे हे
रटहा हे तोर बइंहा रे संगी चार घरी के ना।
अगर हवाला न हो कि यह गीत खटोला, अकलतरा के एक अन्जान से गायक- कवि दूजराम यादव की (लगभग सन 1990 की) रचना है तो आसानी से झूमर करमा का पारंपरिक लोक गीत मान लिया जाएगा। यह चर्चा का एक अलग विषय है, जिसके साथ पारंपरिक पंक्तियों को लेकर नये गीत रचे जाने के ढेरों उदाहरण भी याद किए जा सकते हैं।
एक और तह पर चलें- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का एक बड़ा भाग प्राचीन महाश्मीय (मेगालिथिक) प्रमाण युक्त है। यहां सोरर-चिरचारी गांव में 'बहादुर कलारिन की माची' नाम से प्रसिद्ध स्थल है और इस लोक नायिका की कथा प्रचलित है। हबीब जी ने इसे आधार बनाकर 'बहादुर कलारिन' नाटक तैयार किया, जिसमें प्रमुख भूमिका फिदाबाई निभाया करती थीं।
फिदाबाई मरकाम की प्रतिभा को दाऊ मंदराजी ने पहचाना था। छत्तीसगढ़ी नाचा में नजरिया या परी भी पुरुष ही होते थे लेकिन नाचा में महिला कलाकार की पहली-पहल उल्लेखनीय उपस्थिति फिदाबाई की ही थी। वह नया थियेटर से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुंचीं। तुलसी सम्मान, संगीत नाटक अकादेमी सम्मान प्राप्त कलाकार चरनदास चोर की रानी के रूप में अधिक पहचानी गईं। फिदाबाई के पुत्र मुरली का विवाह धनवाही, मंडला की श्यामाबाई से हुआ था। पारंपरिक गीत 'चोला माटी के हे राम' का मुखड़ा हबीब जी ने श्यामाबाई की टोली से सुना और इसका आधार लेकर उनके मार्गदर्शन में गंगाराम शिवारे (जिन्हें लोग गंगाराम सिकेत भी और हबीब जी सकेत पुकारा
करते थे) द्वारा सन् 1978 में बहादुर कलारिन नाटक के लिए तैयार यह गीत पारागांव, महासमुंद के 'बहादुर कलारिन' वर्कशाप में नाटक का हिस्सा बना। जैसे 'सास गारी देवे' पारंपरिक ददरिया सन 1973 में हबीब जी के रायपुर नाचा वर्कशाप में रचे नाटक 'मोर नांव दमांद, गांव के नांव ससुरार' में गीत बन कर शामिल हुआ था।
स्वीकारोक्ति कि यह मेरी रुचि का क्षेत्र है, लेकिन अधिकार और विशेषज्ञता का कतई नहीं, साथ ही तथ्य एकत्र करने का यह प्रयास, इन गीतों के संदर्भ में जानकारों की लगातार चुप्पी और लगभग सन्नाटे के कारण है, इसका उद्देश्य खंडन-मंडन कतई नहीं है। इस क्रम में कई लोगों ने उदारतापूर्वक जानकारियां दीं और चर्चाओं में शामिल हुए, मुख्यत: जिनमें करमा परम्परा और प्रस्तुति की विस्तृत चर्चा- कमान राकेश तिवारी के हाथों रही। करमा लोक नृत्य, पाठ्यक्रम में शामिल होकर पद चलन, भंगिमा और मुद्रा के आधार पर (झूमर, लहकी, लंगड़ा, ठाढ़ा), जाति के आधार पर (गोंड, बइगानी, देवार, भूमिहार) तथा भौगोलिक आधार पर (मंडलाही, सरगुजिया, जशपुरिया, बस्तरिहा) वर्गीकृत किया जाने लगा है। अंचल में व्यापक प्रचलित नृत्य करमा के लिए छत्तीसगढ़ के नक्शे की सीमाएं लचीली हैं।
छत्तीसगढ़ की प्राचीन मूर्तिकला की विशिष्टताओं के साथ लगभग 13 वीं सदी के गण्डई मंदिर के करमा नृत्य शिल्प की चर्चा रायकवार जी लंबे समय से करते रहे हैं। ओंगना, रायगढ़ और अन्य आदिम शैलचित्रों में करमा जैसे नृत्य अंकन की ओर भी उन्होंने ध्यान दिलाया। यह उल्लेख करमा नृत्य की प्राचीनता को आदिम युग से जोडऩे की कवायद नहीं, बल्कि सहज प्रथम दृष्टि के साम्य से प्रासंगिक और रोचक होने के कारण किया गया है।
पीपली लाइव के म्यूजिक लांचिंग से लौटे कोल्हियापुरी, राजनांदगांव निवासी नया थियेटर के वरिष्ठ सदस्य अमरदास मानिकपुरी ने बताया कि शुरुआती दौर में 'चोला माटी के' गीत को टोली के फिदाबाई, मालाबाई, भुलवाराम, बृजलाल आदि गाया करते थे लेकिन तब से लेकर फिल्म के लिए हुई रिकार्डिंग और म्यूजिक लांचिंग के लाइव शो में भी मांदर की थाप उन्हीं की है।
'बस्तर बैण्ड' और 'तारे-नारे' वाले अनूप रंजन ऊपर आए संदर्भों और पीपली लाइव फिल्म के साथ तो जुड़े ही हैं उनके पास हबीब जी और नया थियेटर संबंधी तथ्यों और संस्मरणों का भी खजाना है। यह ध्यान रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की लोक कला के ऐसे पक्ष, जो बाहर भी जाने जाते हैं या चर्चा में रहे हैं, उनमें अधिकतर हबीब जी से जुड़े हैं।
अंतत: भूले जा चुके से इन गीतों की प्रासंगिकता फिर से बन रही है। यह वक्त है, छत्तीसगढ़ी लोक सुर-संवाहकों के बहाने अपनी परम्परा- स्मृति को खंगालने और ताजी कर लेने का। लोक परम्परा की सीमा लांघते हुए छत्तीसगढ़़ के पहचान का परिशिष्ट जुड़ रहा है तो यह मौका, अपनी इकहरी होती याद को संदर्भ के साथ व्यापक करने का, आत्म सम्मान को परम्परा के सम्मान में समाहित करने का और लोक-संगीत में जीवन का लय पाकर, स्व से निकलकर समष्टि की ओर दृष्टिपात का है, जो लोक-परम्परा बनकर संस्कृति को संबल देता है।

पता- राहुल कुमार सिंह, रायपुर, (छ.ग.)
मो. 09425227484
ईमेल- rahulsinghcg@gmail.com, ब्लॉग- akaltara.blogspot.com

पीपली लाइव के बहाने...गुम होती लोक विधाओं को कैसे बचाएँ


पीपली लाइव के बहाने...
गुम होती लोक विधाओं को कैसे बचाएँ
- राजेश अग्रवाल
छत्तीसगढ़ के लोक-गीत अब बालीवुड के रास्ते दुनिया भर में धूम मचा रहे हैं। दूरदर्शन में समृद्ध लोक नाटकों, प्रहसनों का और आकाशवाणी में ऐसे मशहूर गीतों का खजाना भरा पड़ा है। वक्त आ गया है कि अब इन महान रचनाओं को लोगों को सामने लाने के लिए प्रसार-भारती अपना व्यावसायिक दायित्व निभाए, वरना भद्दे वीडियो एलबम और बेतुके छत्तीसगढ़ी फिल्म, यहां के महान कलाकारों का योगदान धूल-धुसरित करके रख देंगे।

चोला माटी के राम... के जरिये, साल भर के भीतर ही बालीवुड के धुरंधरों ने दूसरी बार छत्तीसगढ़ के कला व संगीत प्रेमियों को उनके घर में उन्हीं का सामान बेचकर चौंका दिया है। दिल्ली-6 में जब प्रसून जोशी ने ससुराल गेंदा फूल का इस्तेमाल किया तो छत्तीसगढ़ी साहित्य और संस्कृति को लेकर चौकन्ना होने का दम भरने वाले बुद्धिजीवी वर्ग ने उनके इस प्रयास की सराहना कम और आलोचना ज्यादा की। ससुराल गोंदा फूल गाने की पृष्ठभूमि खोज निकाली गई और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि फिल्म के गीतकार व संगीतकार ने छत्तीसगढ़ के मूल गीतकार व गायकों का जिक्र नहीं करके उनके साथ धोखाधड़ी की, अन्याय किया।
गीत के बोल व धुन के साथ छेड़- छाड़ का आरोप भी लगा। हालांकि संगीत प्रेमियों का एक बड़ा वर्ग इस बात से कभी सहमत नहीं हुआ और उन्होंने दिल्ली-6 में पारम्परिक ददरिया लोकगीत पर किए गये प्रयोग के लिए प्रसून जोशी व एआर रहमान की भूरि-भूरि प्रशंसा की। पूरे देश के अलावा छत्तीसगढ़ के संगीत प्रेमी इस गीत पर अब भी झूम उठते हैं और उन्हें अपनी माटी की सुगंध देश-विदेश में फैलते देखकर खुशी होती है।
अब छत्तीसगढ़ के साथ-साथ पूरी दुनिया में पद्मभूषण हबीब तनवीर की बेटी नगीन तनवीर की आवाज में, इसी माटी के संगीत का एक बार फिर डंका बज रहा है। इसी माह रिलीज हुई आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म पीपली लाइव का लोक- गीत चोला माटी के राम... हर किसी की जुबान पर है। मांदर की थाप में, करमा के धुन पर तैयार इस तात्विक गीत को करीब 3 दशकों से छत्तीसगढ़ के लोग जानते हैं।
आमिर खान को इस साहस के लिए बधाई देनी होगी कि उन्होंने गीत को उसी मौलिक स्वरूप में मूल लोक वाद्य-यंत्रों के साथ परोसा। यूं तो सालों साल गाए जाने के बाद लोकगीत पारम्परिक मान लिए जाते हैं, लेकिन इस गीत के बोल लिखने वाले गंगाराम साकेत का नाम भी ईमानदारी से डाल दिया गया है। ससुराल गेंदा फूल गीत के गीतकार प्रसून जोशी और संगीतकार एआर रहमान ने मूल गीत व धुन में कुछ फेरबदल कर दिए थे। गीत को तब भी खूब सराहना मिली, इतनी कि इस नाम का एक टीवी सीरियल भी चल रहा है। ससुराल गेंदा फूल के आने पर छत्तीसगढ़ और यहां के कलाकारों की उपेक्षा की जो बात की गई, चोला माटी के राम... गीत में वह भी
नहीं है।
अब तो झेंपने की बारी थोक के भाव में छत्तीसगढ़ी फिल्म और गीत बनाने वालों की है, जो आज तक ऐसा कोई प्रयोग दिखाने का साहस नहीं कर पाए। सिर उन नौकरशाहों, नेताओं भी पीटना चाहिए जो करोड़ों का बजट लेकर राज्य की कला और संस्कृति का उत्थान करने में लगे हैं।
एक तरफ आमिर और प्रसून जैसी प्रख्यात हस्तियां बेधड़क छत्तीसगढ़ के सालों पुराने गीतों को हाथों-हाथ ले रही हैं और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की फिल्मों और वीडियो एलबम में बालीवुड के ठुमके, लटके-झटके, पहनावे आदि की भौंडी नकल हो रही है। रायपुर में जिस दिन पीपली लाइव रिलीज हुई उसी दिन गोविन्दा की एक फिल्म के नकल पर रखे गए नाम वाली एक छत्तीसगढ़ी फिल्म भी प्रदर्शित हुई। एक तरफ देशभर के चैनलों में दर्शक मंहगाई डायन और चोला माटी के राम सुन रहे थे, तो रीजनल चैनल में चल रहे इस छत्तीसगढ़ी फिल्म के प्रोमो में नहाती, साड़ी गिराती एक नायिका बालीवुड बालाओं से होड़ करने के चक्कर में नाच रही थी।
एक समय था जब पद्मभूषण हबीब तनवीर का चरणदास चोर नाटक दूरदर्शन पर आता था, तो आधी रात तक जागकर लोग उसे देखते थे। तीजन बाई की पंडवानी को भी दम साधकर सुनने वाले दर्शक मिलते थे। गली-गली में आकाशवाणी के लोकप्रिय गीत लोगों के जुबान पर होते थे। शुक्रवार की शाम बांस गीत का बेसब्री से इंतजार होता था।
लेकिन अब न दूरदर्शन के वैसे दर्शक रह गये न आकाशवाणी के श्रोता। बालीवुड के गीतों को आज मोबाइल पर लोड किया जा सकता है, इंटरनेट पर सुन सकते हैं, फिल्मों व सीडी के अलावा दिन भर टीवी पर आने वाले प्रोमो के जरिये हमारे कानों में ये गीत बार-बार झनक रहे हैं। लेकिन उन पुराने गीतों व लोकनाट्यों का क्या हो, जो आकाशवाणी व दूरदर्शन की लाइब्रेरी में तो हैं, पर कला प्रेमी उसे देख-सुन नहीं पा रहे हैं। कई दशक पहले जब आकाशवाणी मनोरंजन का प्राथमिक व एकमात्र साधन होता था, राज्य के दबे-छिपे कलाकारों को उसने उभरने का मौका दिया, अब कलाकार इसके मोहताज नहीं रह गए। वे अपना वीडियो एलबम खुद निकाल रहे हैं। उन्हें लगता है कि आकाशवाणी ने उसे ले भी लिया तो उसे पहचान भी क्या मिलेगी। अब तो डीवीडी में गाने सुने व देखे जाते हैं। बिना किसी प्रशिक्षण के, छत्तीसगढ़ के लोक-धुनों के साथ वे प्रयोग करते हैं और बाजार में आ जाते हैं। इन गीतों में न छत्तीसगढ़ की मिठास मिलेगी न अभिनय व नृत्यों में लोक तत्वों की मौजूदगी, लेकिन छत्तीसगढ़ को आज उनके इन्हीं उत्पादों के जरिए पहचाना जा रहा है। दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि छत्तीसगढ़ को असल पहचान देने वाले सैकड़ो गाने आकाशवाणी की लाइब्रेरी में मौजूद हैं। पर संगीत में रूचि रखने वाले आज के युवाओं को इनके बारे में कुछ पता ही नहीं। टीवी पर क्या आप लक्ष्मण मस्तूरिया या केदार यादव के मधुर गीत सुन या देख पाते हैं? मोर संग चलव रे... का रिंगटोन कोई उपलब्ध करा देगा आपको। टूरा नई जानय रे... का रिंग टोन तो मिल सकता है पर तपत गुरू भई तपत गुरू... सुनने के लिए आप कहां जाएंगे? छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इस उम्मीद को गहरा धक्का लगा है कि राज्य के लोक संस्कृति को नई ऊंचाई मिलेगी। तोर मन कइसे लागे राजा.. जैसे एक दो गीतों व फिल्मांकनों को छोड़ दिया जाए तो छत्तीसगढ़ के हर पंडाल पर, हर उत्सव और त्यौहार में राज्य की लोक कला को लहूलुहान होते देखा जा सकता है। यदि आज वीडियो एलबमों व छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अश्लीलता, मार-धाड़, संवाद में बालीवुड से रेस लगाने की कोशिश दिखाई दे रही है तो इसकी बड़ी वजह आकाशवाणी की वह दकियानूसी नीति भी है, जिसके चलते वह अपने खजाने को आज के लोकप्रिय इलेक्ट्रानिक माध्यमों के जरिये लोगों तक पहुंचाने में परहेज कर रही है। इन गीतों के रि-रिकार्डिंग की जरूरत भी महसूस नहीं की गई, जबकि तब और आज की तकनीक और वाद्य-यंत्रों में काफी परिष्कार हो चुका है। आज तो छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के प्रेमी सालों से उन मधुर गीतों को सुनने के लिए तरस गए हैं, जो उन्हें आकाशवाणी से तब सुनाई देते थे जब वह मंनोरंजन का इकलौता साधन हुआ करता था। दिल्ली-6 और पीपली लाइव में छत्तीसगढ़ी की जय- जयकार के बाद अब तो आकाशवाणी को अपनी गठरी खोल ही देनी चाहिए। इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए कि व्यापक श्रोता समुदाय तक अपनी दुर्लभ कृतियों को पहुंचाना अकेले उसके सामथ्र्य की बात नहीं है। इस तरह के फैसले में कोई दिक्कत भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि प्रसार भारती बन जाने के बाद तो उस पर अपने स्तर से संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी है। आकाशवाणी व दूरदर्शन दोनों में ही विज्ञापन लिए जा रहे हैं, स्टूडियो किराये पर दिए जा रहे हैं और अनेक स्तरहीन कार्यक्रम भी प्रायोजित इसलिए किये जा रहे हैं क्योंकि उससे इन्हें पैसे मिलते हैं। छत्तीसगढ़ी गीतों को भी वे पैसे लेकर संगीत प्रेमियों को उपलब्ध कराएं तो क्या बुरा है। आकाशवाणी के सालाना जलसे में सीडी के स्टाल भी लगे देखे जा सकते हैं। इनमें वे भारतीय व अन्य क्षेत्रीय संगीत की सीडी बेचते हैं, लेकिन अफसोस कि इनमें छत्तीसगढ़ी गीत आपको नहीं मिलेंगे। प्रसार-भारती को न केवल छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए बल्कि अपने मुनाफे के लिए भी, इस विषय में जल्द फैसला लेना चाहिए। क्योंकि अभी छत्तीसगढ़ी संगीत का जादू न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि देश भर के संगीत प्रेमियों में सर चढ़ कर बोल रहा है। ससुराल गेंदा फूल... और चोला माटी के राम... के बीच करीब डेढ़ साल का अंतराल रहा है। उम्मीद करनी चाहिए कि ये अंतर अब कम हो जाएगा। ठीक समय पर आकाशवाणी भी अपने दायित्व के लिए सजग हो जाए तो फिर बात ही क्या है? ये प्रयास एक दिन छत्तीसगढ़ की गुम होती नैसर्गिक लोक विधाओं को बचा लेंगे वरना छत्तीसगढ़ के लोक-संगीत का कबाड़ा करने के फिल्मकारों व वीडियो एलबम के निर्माताओं के साथ उसे भी जिम्मेदार माना जाएगा।
पता- 15, पत्रकार कालोनी, रिंग रोड नं 2, बिलासपुर (छ. ग.) मो. 098263 67433,
ब्लाग- Sarokaar.blogspot.com

सबसे बड़े विद्वान

सबसे बड़े विद्वान
एक हवाईजहाज में चार लोग सवार थे- एक पायलट, एक किशोर, एक बुजुर्ग और एक दार्शनिक। उड़ान के दौरान अचानक विमान के इंजन में खराबी आ गई। पायलट ने घोषणा की कि अब इस विमान का बचना संभव नहीं है और विमान में सिर्फ तीन ही पैराशूट हैं। किसी एक को तो अवश्य ही मरना होगा। इतना कहकर पायलट फुर्ती से अपने केबिन से निकला और बोला - चूंकि मुझे इस खराबी से संबंधित जानकारी हेडक्वार्टर को देनी होगी अत: मेरा बचना जरूरी है। इतना कहकर उसने एक पैराशूट उठाया और कूद गया। अब दो पैराशूट बचे। दार्शनिक महोदय अपने स्थान से उठे और बोले- मैंने ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज में पढ़ाई की है। ढेर सारी किताबें लिखीं हैं। मेरे जैसे विद्वान दुनिया में कम ही हैं। अभी दुनिया को मेरी विद्वत्ता की बहुत जरूरत है अत: मेरा बचना बहुत जरूरी है। इतना कहकर उन्होंने भी एक पैराशूट उठाया और कूद गए।
अब सिर्फ एक पैराशूट बचा था। बुजुर्ग सज्जन ने किशोर की ओर देखा और कहा- बेटा, मैं अपनी जिंदगी जी चुका हूं और दो-चार साल में वैसे भी मर जाने वाला हूं। तुम्हारे सामने अभी पूरी जिंदगी पड़ी है। तुम यह पैराशूट उठाओ और कूद जाओ ।
किशोर बोला- चिन्ता मत करो, हम दोनों ही बच जाएंगे। दुनिया के सबसे बड़े विद्वान व्यक्ति पैराशूट की जगह मेरा कपड़ों का बैग उठाकर कूद गए हैं।

मेरे छत पर बना है डिजाइनर वॉटर टैंक

मेरे छत पर बना है डिजाइनर वॉटर टैंक
अगर आप जालंधर- लुघियाना हाइवे पर ट्रेवल कर रहे हैं तो घरों की छत पर बने दिलकश आकार के वॉटर टैंक्स आपका ध्यान अपनी ओर जरूर आकर्षित करेंगे। जी हां यहां लोगों ने अपने घरों पर फुटबॉल, एयरोप्लेन, हाथी, घोड़े आदि की शेप में वाटर टैंक्स बनवाए हैं।
पानी स्टोर करने के लिए सभी घरों की छतों पर वॉटर टैंक बनवाए जाते हैं। लेकिन घर को नया रूप देने और उसे आकर्षक बनाने के लिए जालंधर के लोगों ने नायाब तरीका ढूंढा है। लोग घर की छतों पर डिजाइनर आकार में वॉटर टैंक बना रहे है, जो न केवल उनके घर की सुंदरता को बढ़ाते है बल्कि आम टैंक से ज्यादा पानी भी स्टोर करते हैं। ये टैंक हर राहगीर के लिए अजूबे की तरह हैं और ये शहर की खूबसूरती को भी बढ़ा रहे हैं।
पिछले दिनों इन टैंक्स पर फीफा फीवर भी देखने को मिला। गत वर्ष जितने भी नए मकान बने उनमें सबसे ज्यादा टैंक्स फुटबॉल की शेप में नजर आए। इसके अलावा ईगल, एयरोप्लेन, कार, घोड़े, हाथी, शेर, अंब्रेला, बड्र्स आदि आकार तो हैं ही। इतना ही नहीं इसे बहुत ही सुंदर तरीके से रंगों से डिजाइन कर सजावट भी की गई है।
ये टैंक्स घर के मालिकों के लिए लैंडमार्क की तरह भी काम कर रहे हैं। लोगों का कहना है कि अब किसी को भी घर का रास्ता बताना आसान हो गया है। बस कहना पड़ता है कि नीले हाथी वाला, मोर वाला या फुटबाल वाला घर मेरा है।
इस नए चलन को लेकर ग्रामीण और शहर दोनों ही क्षेत्रों के लोगों में खासा क्रेज देखने को मिल रहा है। लम्बारन, दोआबा, करतारपुरा, शाहकोट, मालसिया आदि जगाहों पर ऐसे अनेक टैंक्स लोगों ने बनाए हैं। टैंक्स बनाने का सिलसिला केवल शहर और गांवों तक ही सीमित नहीं है। यहां जालंधर- लुघियाना हाइवे पर एयरोप्लेन शेप, पखवाड़ा- चंडीगढ़ बाईपास पर लाल रंग की कार, बांगा से दस किलोमीटर पहले हॉक की शेप और इससे थोड़ा आगे ही बहुत बड़े शेर की शेप के टैंक भी देखे जा सकते हैं।
दोआबा क्षेत्र में वॉटर टैंक बनाने वाले लोग बहुत कम हैं, जिसकी वजह से नकोदर रोड और जंडियाला रोड के सब-अर्बन और रूरल एरिया के मेन्यूफेक्चरर्स को रोजगार मिल रहा है। टैंक मेन्यूफेक्चरर अवतार सिंह कहते हैं कि इन दिनों हमारे पास इस तरह के टैंक बनाने के ऑर्डर पूरे राज्य से आ रहे हैं।
टैंक बनाने वाले कुलबीर सिंह कहते हैं कि इन टैंक्स को बनाने में थोड़ा वक्त लगता है, क्योंकि इन्हें दो हिस्सों में बनाया जाता है। दोनों हिस्सों को अलग से तैयार कर उसकी फिनीशिंग की जाती है और फिर बाहर से इन्हें जोड़ा जाता है। यह जोड़ इतना परफेक्ट होता है कि न तो इससे पानी रिसता और न ही कोई आसानी से पता लगा सकता कि जोड़ कहां लगाया गया है। इन टैंकों की खासियत यह होती है कि निर्माण के समय उपयोग की गई सामग्री की वजह से इस टैंक का पानी अन्य टैंकों की अपेक्षा अधिक ठंडा रहता है।

जिंदगी के तय खाँचे और युवा पीढ़ी

जिंदगी के तय खाँचे और युवा पीढ़ी
- उमेश चतुर्वेदी
...तो क्या किताबें मर जाएंगी ...क्या नए यंत्रों की दुनिया उन्हें खा जाएगी...यहां पर याद आता है मशहूर अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन का कथन। उन्होंने कहा था- दुनिया जैसी भी है, चलती रहेगी। फिर हम भी उम्मीद क्यों न बनाए रखें।
बहुत खुशनसीब वे होते हैं, जिनकी जिंदगी की तय खांचे और योजना के मुताबिक चलती है। लेकिन आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी ने अपने बच्चों तक की जिंदगी के लिए खांचे तय कर रखे हैं और इसी खांचे के तहत जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ रही है। मनोवैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री भले ही इस चलन को गलत बताते रहें, थ्री इडियट जैसी फिल्में भी इसकी आलोचना करती रहें, लेकिन उदारीकरण के बाद आई भौतिकवाद की आंधी और उसमें कठिन और कठोर हुई जिंदगी की पथरीली राह पर चलते वक्त आज की जवान होती पीढ़ी के लोग सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि काश उनके भी माता- पिता ने उनकी जिंदगी का खांचा तय कर दिया होता ...
बहरहाल अपनी जिंदगी भी ऐसी खुशनसीबी के पड़ावों से नहीं गुजरी। जिस वक्त जिंदगी तय करने का वक्त था, पढ़ाई के उस दौर में रोजाना ट्रेन की घंटों की यात्रा करना मजबूरी थी। घर से कॉलेज की दूरी जो ज्यादा थी। लेकिन इस अनखांचे की जिंदगी ने खुदबखुद एक खांचा दे दिया। तब ट्रेन की लंबी यात्रा काटने के लिए किताबों और पत्रिकाओं का सहारा लेना शुरू किया और देखते ही देखते किताबें और पत्रिकाएं जिंदगी की पथरीली राह पर सहारा तो बन ही गईं, जिंदगी को देखने का नया नजरिया भी देने लगीं। किताबों की दुनिया से लोगों को परिचित कराने में ट्रेनों की बड़ी भूमिका रही है। मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि रेल यात्राओं का एक बड़ा फायदा उनकी जिंदगी में यह रहा है कि इसी दौरान उन्होंने कई अहम किताबें पढ़ लीं। रेल यात्रियों के मनोरंजन में किताबों की जो भूमिका रही है, उसमें एक बड़ा हाथ एएच व्हीलर बुक कंपनी और सर्वोदय पुस्तक भंडार जैसे स्टॉल का भी रहा है। यह भी सच है कि इन स्टॉल्स से गंभीर साहित्य की तुलना में इब्ने सफी और कुशवाहा कांत के साथ गुलशन नंदा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लुगदी साहित्यकार ज्यादा बिकते रहे हैं। यहां पाठकों की जानकारी के लिए बता देना जरूरी है कि इन साहित्यकारों को लुगदी साहित्यकार क्यों कहा जाता है। दरअसल इनकी रचनाएं जिस कागज पर छपा करती थीं, वह कागज अखबारी कचरे और किताबों के कबाड़ की लुगदी बनाकर दोबारा तैयार किया जाता था। बहरहाल इसी लुगदी साहित्य के बीच ही गोदान, गबन से लेकर चित्रलेखा तक पढऩे वाले पाठक भी मिल जाते थे। इसके साथ ही
पाठकीयता का एक नया संसार लगातार रचा-बनाया जाता था। ट्रेन में बैठने
की जगह मिली नहीं कि किताब या पत्रिका झोले से निकाली और अपनी दुनिया में डूब गए।
लेकिन आज हालात बदल गए हैं। तकनीकी क्रांति ने आज की पीढ़ी के हाथ में मोबाइल के तौर पर नन्हा-मुन्ना कंप्यूटर ही दे दिया है। मोबाइल फोन सचमुच में जादू का पिटारा है। बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा का 2003 में उद्घाटन करते वक्त तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था। तो इस जादुई बॉक्स ने संगीत और एफएम का जबर्दस्त सौगात दे दिया है। आज की पीढ़ी इसका हेडफोन साथ लेकर चलती है और गाड़ी या बस में जैसे ही मौका मिला, हेड फोन कान में लगाती है और दीन-दुनिया से बेखबर संगीत की अपनी दुनिया में डूब जाती है। मेरे एक मित्र हैं, वे इस पीढ़ी को ढक्कन वाली पीढ़ी कहते हैं। आपने होमियोपैथिक दवाओं की पुरानी शीशियां देखी होंगी। कार्क लगाकर उन्हें बंद किया जाता था। आज के हेडफोन कुछ वैसे ही कान में कार्क की तरह फिट हो जाते हैं, जैसे पहले ढक्कन लगाए जाते थे। जाहिर है कि ढक्कन वाली इस पीढ़ी से रेल और बस यात्राओं के दौरान पढ़े जाने का जो रिवाज रहा है, वह लगातार छीजता जा रहा है। आज की पीढ़ी के हाथ में पत्रिकाएं और किताबें कम ही दिखती हैं। लेकिन नई-नई सुविधाओं वाले यंत्र उनके हाथ में जरूर हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव मोहन प्रकाश जैसे नेता कहा करते हैं कि जब वे पढ़ाई करते थे, उस वक्त अगर दिनमान में उनकी चिट्ठी भी छप जाती थी तो वे पूरी यूनिवर्सिटी में गर्व से उसे लेकर अपने बगल में दबाए घूमा करते थे। वैसे भी दिनमान और धर्मयुग पढऩा उस समय शान की बात मानी जाती थी। लेकिन आज की पीढ़ी के लिए नए यंत्र ही शान के प्रतीक हैं। जाहिर है कि सोच में आए इस बदलाव का असर भी दिख रहा है। चूंकि पाठकीयता नहीं है, उसका संस्कार नहीं है तो आप देखेंगे कि आज की पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को सामान्य ज्ञान की सामान्य सी जानकारी भी नहीं है। इसका दर्शन यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढ़ाने वाले अध्यापकों- प्रोफेसरों को रोजाना हो रहा है। कई बार तो वे माथा तक पीटने के लिए मजबूर हो जाते हैं। लेकिन क्या मजाल कि ढक्कन वाली पीढ़ी के माथे पर शिकन तक आ जाए। हो सकता है बदले में आपको यह भी सुनने को मिले- इट्स ओके...सब चलता है यार...
... तो क्या किताबें मर जाएंगी... क्या नए यंत्रों की दुनिया उन्हें खा जाएगी...यहां पर याद आता है मशहूर अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन का कथन। उन्होंने कहा था- दुनिया जैसी भी है, चलती रहेगी। फिर हम भी उम्मीद क्यों न बनाए रखें।
पता: c/o जयप्रकाश, एफ 23-ए, निकट शिवमंदिर, दूसरा तल, कटवारिया सराय, नई दिल्ली 110016.
ईमेल- uchaturvedi@gmail.com

3 साल की बच्ची से लेकर 60 साल की बुजुर्ग तक

गुड़ाखू के गुलाम
3 साल की बच्ची से लेकर 
60 साल की बुजुर्ग तक
- पुरुषोत्तम सिंह ठाकुर
इस तस्वीर में गुडिय़ा जैसी दिखनेवाली 3 साल की इस नन्ही परी का नाम टमी है। 3 साल की इस बच्ची की उंगली में गुड़ाखू लगा है और वह उससे दांत घिस रही है। कालाहांडी जिले के नियमगिरि पहाड़ में बसे गांव लाखपदर में जब मैंने उसे घर के बाहर खड़े होकर गुड़ाखू करते देखा तो पशोपेश में पड़ गया। गुड़ाखू यानी एक तरह का तंबाकू मिश्रित दंतमंजन, जिसमें अच्छा-खासा नशा होता है। सोचा, जरुर यह बच्ची गलती से गुड़ाखू कर रही होगी। मैंने घर के अंदर बैठी उसकी मां को आवाज़ लगाई। मां का जवाब था- नहीं, वह गुड़ाखू ही कर रही है।
उसकी मां खुद भी गुड़ाखू करती है और उन्होंने कहा कि उनके गांव की ज्यादातर लड़कियां और महिलायें गुड़ाखू करती हैं। पुरुष तो गुड़ाखू करते ही हैं।
इतने घने जंगल में बसे इस डोंगरिया कंध आदिवासी गांव में यह गुड़ाखू किस हद तक अपने पैर पसार चुका है, इस बात को समझने के लिये टमी की हालत देखना पर्याप्त था। तंबाकू मिला यह कथित दंतमंजन उस नन्हीं सी जान के जिस्म में किस तरह के दुष्प्रभाव पैदा कर रहा होगा और आगे क्या करेगा, यह पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि टमी के लिये इसका इस्तेमाल जानलेवा भी साबित हो सकता है।
हालांकि टमी को तो इसका इल्म भी नहीं है लेकिन उसकी मां भी इस बात से बेखबर है कि उन्होंने जाने-अनजाने कितनी खतरनाक चीज को अपना लिया है।
आस-पास के छोटे दुकानों के अलावा साप्ताहिक हाट में सब तरफ मिलने वाला यह गुड़ाखू जिन छोटी-छोटी डिबियों में बिकता है, उसमें किसी तरह की कोई चेतावनी भी नहीं लिखी होती है। यहां तक कि गुड़ाखू कैसे बनता है और उसमें क्या-क्या सामग्री मिलाई गयी है, उसकी भी कोई जानकारी नहीं दी जाती है। जनता के नाम अपील में दर्ज होता है कि गुड़ाखू वास्तव में तम्बाकू मिश्रित एक दंत मंजन है।
तंबाखू के सेवन से शरीर को जितना नुकसान होता है, उतना ही नुकसान गुड़ाखू के सेवन से भी होता है। इसके प्रयोग से मुंह और श्वांस नली के विभिन्न भागों में कैंसर हो सकता है। दांतों में इसे घिसने से हाजमा खराब होना, भूख न लगना, एलर्जी और अल्सर आदि रोग बड़ी तेजी से
पनपते हैं।
तंबाखू के सेवन से शरीर को जितना नुकसान होता है, उतना ही नुकसान गुड़ाखू के सेवन से भी होता है। इसके प्रयोग से मुंह और श्वांस नली के विभिन्न भागों में कैंसर हो सकता है। दांतों में इसे घिसने से हाजमा खराब होना, भूख न लगना, एलर्जी और अल्सर आदि रोग बड़ी तेजी से पनपते हैं।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल तकरीबन 10 लाख भारतीयों की मौत केवल धुम्रपान जनित बीमारी से होती है। लगभग 28 प्रतिशत भारतीय यानि आबादी का एक तिहाई तम्बाकू का सेवन करता हैं, जिनमें 15 से 49 वर्ष के लोग शामिल हैं। लेकिन इनके मुकाबले महिलाओं के आंकड़े भी कमजोर नहीं हैं। तकरीबन 11 प्रतिशत यानि करीब 5 करोड़ 40 लाख महिलाएं किसी ना किसी रूप में तम्बाकू का सेवन करती हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं धुआं रहित तम्बाकू का इस्तेमाल करती हैं, जैसे तम्बाकू वाला गुटखा, पान मसाला, मिश्री गुल आदि। 35 से 69 वर्ष की तकरीबन 20 में से एक यानि 90,000 महिलाओं की मौत के लिए धुम्रपान को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
लेकिन इन सारे आंकड़ों से बेखबर उड़ीसा के घने जंगलों में बसे इन गांवों में गुड़ाखू के अलावा खैनी और गुटका भी लोगों को नशे की एक ऐसी गिरफ्त में कस रहे हैं, जिससे निकलना मुश्किल है। पहाड़ी रास्तों में हर जगह गुटका और खैनी के खाली पाउच नजर आते हैं। गांव की बुजुर्ग महिलाएं और युवतियों में तो जैसे खैनी खाने की होड़ सी लगी हुई है। ये महिलाऐं खैनी को अपनी कमर में खोंस के रखती हैं। फिर चाहे वह घर पर हों, बाजार जा रही हों, काम पर या रिश्तेदारों के घर। कमर में हर वक्त खैनी की एक पोटली पड़ी रहती है।
गौरतलब है कि कालाहांडी जिले के लांजीगढ़ ब्लाक के नियमगिरि पहाड़ में बसे ये आदिवासी, बदनाम ब्रितानी कंपनी वेदांता के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो नियमगिरि पर्वत में बॉक्साइट की खुदाई करना चाहता है। नियमगिरि पर्वत को डोंगरिया कंध नियम राजा कहते हैं और उसकी पूजा अर्चना करते हैं क्योंकि यहां पीढिय़ों से ना केवल उनका बसेरा है बल्कि यह नियमगिरि उन्हें वह सब कुछ देता है, जो उन्हें चाहिये। इस 'सब कुछ' में भोजन से लेकर जड़ी-बुटी और दूसरे जरुरी सामान शामिल हैं।
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि तंबाकू, गुटका, खैनी और गुड़ाखू जैसी नशीली सामग्री को इलाके में जिस तरह से विस्तारित किया जा रहा है, उससे आदिवासी समाज के अंदर एक खास किस्म की अराजकता और कमजोरी पैदा हो रही है। जाहिर है, इससे ब्रितानी कंपनी वेदांता के खिलाफ चल रही लड़ाई भी कहीं न कहीं कमजोर पड़ेगी ही।
दूसरी ओर जिस राज्य सरकार को अपनी आदिवासी जनता की सुध लेनी थी, उसका कहीं अता-पता नहीं है। उदाहरण के लिये लाखपदर गांव को ही लें। गांव में ना तो स्कूल है, ना ही स्वास्थ्य केंद्र। गांव तक आने के लिये कोई सड़क भी नहीं है। गांव के छोटे बच्चे भी अपने मां-बाप के साथ जंगल जाते हैं और घर के लिए खाना जुगाडऩे में लगे रहते हैं।
मामला केवल लाखपदर और कालाहांडी तक सिमटा हुआ है, ऐसा नहीं है। कोरापूट जिले के पोटापोड़ू गांव में जब हम पहुंचे तो गांव के बाहर एक इमली के पेड़ के नीचे बड़ी संख्या में महिलाएं बैठी थीं। अधिकांश महिलाओं के कान में तंबाकू के पीका लगे हुए थे। ये ऐसे पीका हैं, जिनसे महिलाएं नशे का सेवन करती हैं। पता चला कि गांव की अधिकांश महिलाओं को इसकी लत है। दूसरी और महिलाओं के एक साथ मिल बैठने और खाली समय में बोरियत दूर करने के लिये भी पीका का सेवन किया जा रहा है। महिलाएं पीका में डूबी हैं। कम उम्र की लड़कियां और गर्भवती औरतें भी। इस बात से बेखबर कि इसका उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। सरकार की लापरवाही और उदासीनता से एकदम दूर, जैसे हर फिक्र को धुयें में उड़ाते हुये और जीवन की हर समस्या को गुड़ाखू की तरह समय की धार पर घिसते हुये। (रविवार.com से)

विद्यालयों में शारीरिक दण्ड

विद्यालयों में शारीरिक दण्ड
- डॉ. राम प्रताप गुप्ता
इसी माह आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले के जमंदला पल्ली गांव में एक प्राथमिक स्कूल के 11 बच्चों को शरारत करने पर उनकी प्रधानाचार्या ने जलती लकड़ी से जला दिया। इस तरह शिक्षकों द्वारा बच्चों को सजा के नाम पर शारीरिक दंड देने की खबरें जब- तब सामने आती रहती हैं। इस पर काबू पाने के लिए अब एक कानूनी मसौदा भी तैयार किया गया है। अब देखना यह होगा कि यह कानून बच्चों की कितनी सुरक्षा कर पाता है।
फरवरी माह में कोलकाता के एक स्कूल में प्राचार्य द्वारा एक छात्र को शारीरिक दण्ड दिए जाने पर उसके द्वारा आत्महत्या कर लेने के समाचार ने विद्यालयों में शारीरिक दण्ड पर प्रतिबंध की आवश्यकता को एक बार फिर सामयिक बना दिया है। कानूनी स्थिति जो भी हो, शासकीय और निजी, सभी विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा अनुशासन के नाम पर छात्रों को शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया जाना आम बात है।
महिला और बाल विकास विभाग द्वारा देश के 13 राज्यों के स्कूली बच्चों से पूछताछ करने पर 63 प्रतिशत छात्रों ने बताया कि उन्हें कभी न कभी प्राचार्य या शिक्षक द्वारा शारीरिक दण्ड दिया गया है। इनमें से 62 प्रतिशत दण्ड की घटनाएं शासकीय स्कूलों में और शेष 38 प्रतिशत निजी स्कूलों में हुई थीं। जब तक कोई गंभीर दुष्परिणाम न निकले, छात्र द्वारा अपेक्षित शैक्षणिक प्रगति न दिखाने या संस्था का अनुशासन तोडऩे पर शारीरिक दण्ड दिए जाने को पालकों की भी मौन सहमति है। कई बार तो विद्यालय से निरंतर शिकायतें मिलने पर परेशान पालक खुद भी अपने बच्चों को शारीरिक दण्ड देते हैं। ऐसे में स्कूल तथा घर, दोनों जगहों पर शारीरिक प्रताडऩा के चलते छात्र हमेशा के लिए स्कूल छोड़ देना ही उचित समझते हैं। पालक एवं अध्यापक अक्सर छात्रों को उद्दण्ड, अनुशासनहीन जैसे विशेषणों से विभूषित करते हैं जिसका उनके मस्तिष्क पर स्थाई दुष्प्रभाव पड़ता है।
कभी हमारे न्यायालय भी विद्यालय में अनुशासन बनाए रखने तथा विद्यार्थी की शैक्षणिक प्रगति के लिए शारीरिक दण्ड को उचित मानते थे। सन् 1964 में कोलकाता उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि इंग्लैंड के कानूनों के अनुसार भी जब छात्र विद्यालय में होता है तो अध्यापक छात्र के पालक का स्थान ले लेता है और उसे पालक के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। छात्र को शारीरिक दण्ड देने का अधिकार भी उसे प्राप्त हो जाता है। इसी तर्क के आधार पर उसने छात्र को छड़ी से दण्डित करने पर निचले न्यायालय द्वारा अध्यापक को दिए गए दण्ड के फैसले को अनुचित माना था।
विगत वर्षों में न्यायालय के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। अब न्यायालय का सोचना है कि शारीरिक दण्ड बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह बच्चों के अधिकारों का हनन है। बच्चों के अधिकार के संरक्षण हेतु बनाए गए आयोग ने हाल में घोषणा की है कि भारतीय दण्ड संहिता के उन प्रावधानों में संशोधन किया जाएगा जो बच्चों को शारीरिक दण्ड को उचित मानते हैं। 1 दिसम्बर 2000 को दिए गए एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि शारीरिक दण्ड भारतीय संविधान की धारा 14 (कानून के समक्ष समानता) और धारा 29 (जीवन एवं निजी स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है। उसने राज्यों को निर्देश दिया था कि वे देखें कि शालाओं में बच्चों को शारीरिक दण्ड न दिया जाए और वे भयमुक्त एवं स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा प्राप्त करें। परन्तु इस निर्णय के एक दशक बाद भी हमारे विद्यालयों में अनुशासन के नाम पर और समुचित अध्ययन करने की दिशा में बाध्य करने के लिए छात्रों को शारीरिक दण्ड दिया जाना आम बात है।
किशोर आयु में छात्र-छात्राओं में अनेक शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन आते हैं, परन्तु हमारे विद्यालय इन परिवर्तनों को न तो समझने में उनकी मदद करते है और न स्वयं समझने का प्रयास करते हैं। ऐसे में उनकी समस्याओं से उत्पन्न व्यवहार सम्बंधी परिवर्तनों को अनुशासनहीनता करार देकर उन्हें दण्डित करने का आसान तरीका अपना लेते हैं। अनुशासनहीनता के मामले में छात्रों को दण्डित करने के स्थान पर शिक्षकों को उनके भावना जगत में आ रही समस्याओं को समझने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए छात्रों एवं शिक्षकों के बीच खुले संवाद की स्थिति कायम की जानी चाहिए। शाला प्रशासन में भागीदारी देकर छात्रों को यह समझने का अवसर देना चाहिए कि व्यवस्था संचालन के लिए कोई नियम क्यों बनाया गया? उनकी भागीदारी के साथ ही यह तय भी किया जाना चाहिए कि किसी नियम के तोड़े जाने पर छात्र से कौन-कौन सी सुविधाएं छीनी जाएंगी।
शिक्षकों को किशोरावस्था में छात्रों में आ रहे शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों की समझ के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। अगर ऐसी समझ विकसित हो सकी तो किसी छात्र द्वारा अनुशासन तोडऩे पर शिक्षक स्थिति को समझने का प्रयास करेगा। यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि क्या छात्र उद्दंडता का व्यवहार कर छात्रों के बीच अपनी धाक जमाना चाहता है अथवा वह शिक्षक या स्कूल प्रशासन के किसी कदम से आहत है। अगर शिक्षकों में छात्रों की भावनाओं की समझ भी विकसित की जाती है तो कक्षा में ऐसा माहौल विकसित होगा जिसमें छात्र नया ज्ञान भी आसानी से ग्रहण कर सकेंगे।
शाला प्रमुखों को छात्रों की भावनाओं को समझने का प्रयास करना होगा। अनुशासन तोडऩे की प्रवृत्ति वाले छात्र को उद्दण्ड, जिद्दी, अनुशासनहीन, आलसी जैसे विशेषणों से संबोधित करने से उसके साथियों के बीच उसकी प्रतिष्ठा कम होती है और उसमें विद्रोह एवं प्रतिरोध की भावना जाग्रत होती है। बार-बार की शिकायतों से परेशान होकर माता-पिता भी उसे दोष देने लगते हैं। इससे उसके व्यवहार में सुधार की जगह बिगड़ाव आने लगता है। इसका दुष्परिणाम अंतत: स्वयं छात्र और उसके माता पिता को ही भुगतना पड़ता है। छात्र द्वारा किया जाने वाला असामान्य व्यवहार ही इस बात का प्रमाण है कि उसे मदद की जरूरत है।
समाज प्राय: किसी विद्यालय में प्रदत्त शिक्षा की श्रेष्ठता का आकलन उसके परीक्षा परिणामों से करता है। विद्यालय स्वयं भी पालकों, विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इन्हीं परिणामों का प्रचार-प्रसार करते हैं। विद्यालय और पालक दोनों ही भूल जाते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य छात्र की केवल शैक्षणिक क्षमता का विस्तार नहीं, बल्कि छात्र के व्यक्तित्व का समग्र विकास होता हैै। लेकिन आज के विद्यालय शिक्षा के इस उद्देश्य को भुलाकर ऐसे उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं जिनसे परीक्षा परिणाम बेहतर हो सके। इस प्रक्रिया में छात्र का भावना पक्ष तो पूरी तरह उपेक्षित हो जाता है। शिक्षा में बच्चों का श्रेष्ठ परिणाम नहीं, उनमें भावनात्मक परिपक्वता विकसित करने का लक्ष्य लेकर चलना होगा, व्यक्तित्व का समग्र विकास भी तभी संभव होगा। जब कोई शिक्षक कक्षा में अनुशासन स्थापित करने के लिए छात्रों की भावनाओं का दमन करता है तो उसकी स्थिति एक आतंकवादी जैसी हो जाती है। हमारा संविधान हम सबको जीवन का अधिकार देता है, सम्मानपूर्वक जीवन का अधिकार इसमें निहित है। जब बच्चे को शारीरिक प्रताडऩा दी जाती है तो उसके संवैधानिक अधिकार का हनन होता है, यह तथ्य हमारी शैक्षणिक व्यवस्था को अच्छी तरह से आत्मसात् करना होगा।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि शाला में अनुशासनहीनता अधिकांश मामलों में छात्रों की भावनाओं के दमन का परिणाम होती है। शाला के हर छात्र को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के समुचित अवसर मिलना ही चाहिए। इसकी बजाय जब उसे किसी व्यवहार के लिए शारीरिक दण्ड दिया जाता है तो उसे भारी आघात पहुंचता है और वह आत्महत्या जैसा चरम कदम भी उठा सकता है। अगर स्कूल प्रशासन छात्रों की भावनाओं को समुचित दिशा देने में सफल होता है तो उसे तमाम तरह के प्रतिकूल परिणामों वाले शारीरिक दण्ड देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। अगर किसी शाला में छात्रों को अनुशासित करने के लिए शारीरिक दण्ड दिया जाता है तो आवश्यकता छात्र के व्यवहार में सुधार की नहीं बल्कि शाला की प्रशासन प्रणाली और सोच में सुधार की है। (स्रोत फीचर्स)
स्कूल में पिटाई रोकने के लिए नए निर्देश जल्द
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के अनुसार स्कूलों में शारीरिक दंड पर लगाम लगाने के लिए सख्त दिशा निर्देश जारी किए जाएंगे। इस बारे में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) को स्कूलों में शारीरिक दंड से निजात के लिए सख्त दिशानिर्देश तैयार करने और जारी करने को कहा गया है। सरकार की यह पहल कोलकाता की घटना के मद्देनजर आई है जिसमें 13 साल के एक स्टूडेंट ने बेंत से प्रिंसिपल द्वारा पिटायी खाने के बाद कथित तौर पर आत्महत्या कर ली थी।
सिब्बल के अनुसार बच्चे हमारे लिए बेशकीमती हैं। किसी छात्र को परेशान नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे वह हतोत्साहित होते हैं और व्यवस्था से अलग-थलग पड़ जाते हैं। उन्होंने कहा कि नए शिक्षा के अधिकार कानून में शारीरिक दंड पर रोक लगाई गई है।
एनसीपीसीआर आईपीसी में बदलाव की मांग पर भी विचार कर रही है ताकि सजा देने वाला कोई भी शख्स कानून के कुछ प्रावधानों के तहत बच न सके। एनसीपीसीआर का मानना है कि आईपीसी की धारा 88 और 89 बच्चों को शारीरिक दंड देने के मामले में टीचर और अभिभावक का बचाव करती है।
इन दो धाराओं के मुताबिक अगर 12 साल से छोटे बच्चे के फायदे के लिए अच्छी सोच से कुछ किया जाता है तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता। आयोग अब इस मुद्दे को देखेगा और सरकार से सिफारिश करेगा। शारीरिक दंड रोकने के लिए एनसीपीसीआर ने 2007 में दिशा निर्देश जारी किए थे पर वे नियम इस समस्या को रोकने के लिहाज से नाकाफी थे।
अब गुरुजी की खैर नहीं
स्कूलों में शिक्षकों के अत्याचार से छात्रों को बचाने के लिए अब शिकायत बॉक्स लगाए जाएंगे। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के फरमान पर अमल करते हुए दिल्ली शिक्षा निदेशालय ने सभी स्कूलों को आदेश दिया है कि वह अपने यहां शिकायत बॉक्स लगाएं, जिनकी मदद से छात्र अपनी शिकायत बिना किसी डर के कर सकें। शिक्षा निदेशालय ने अपने आदेश में साफ कर दिया है कि इस सुविधा के तहत छात्र को अपनी पहचान सार्वजनिक करने की कोई जरूरत नहीं होगी यानी अब अत्याचारी गुरुजी की खैर नहीं है।
स्कूल में मेरी भी होती थी पिटाई
लेकिन अब मैं इसके खिलाफ हूं
- अमिताभ
स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड दिए जाने पर इन दिनों मीडिया में उपजी बहस के बीच अमिताभ बच्चन ने इस बात का खुलासा अपने ब्लॉग में किया है कि स्कूल में बाकी बच्चों की तरह उनकी भी खूब पिटाई होती थी, लेकिन बड़े 'सभ्य और शालीन' तरीके से। हालांकि अमिताभ ने इस बात को स्वीकार किया है कि उस समय ऐसा दंड अनुशासन सिखाने और नियम-कानून के प्रति सम्मान व्यक्त करने के प्रशिक्षण के रूप में दिया जाता था और आज की परिस्थितियां उस समय की तुलना में पूरी तरह बदल चुकी हैं।
मैंने नैनीताल के शेरवुड में बोर्डिंग में रह कर पढ़ाई की है और मुझे ये स्वीकार करना पड़ेगा कि वहां पिटाई एक नियमित क्रिया थी। ऐसा कोई साल नहीं गया, जब हमारे प्राचार्य रेवरेंट आरसी लेवेलिन ने हमारी पीठ पर टेनिस खेलने वाले अपने हाथों का उपयोग न किया हो। हमारे अपराध कई तरह के होते थे, लंच ब्रेक के दौरान पहाड़ी के पास के एक पिकनिक स्पॉट पर जाना, डोरोथी सीट पर पहुंच जाना, पास के स्कूल ऑल सेंट्स की लड़कियों को देखना, चुइंगम चबाना या रात को लाइट बंद होने के बाद बिलियर्ड्स खेलना। ऐसे सभी काम, जिनमें उस उम्र के बच्चे शामिल होते हैं और बाद में सजा पाते हैं।
रेवरेंट लेवेलिन हमारी सजा की घोषणा बहुत ही शालीन तरीके से ऐसे करते थे, 'मैं आपको चार बेंत मारने जा रहा हूं मिस्टर बच्चन। क्या आप दूसरे कमरे में आएंगे? दूसरे कमरे में सजा का उपकरण चुना जाता था और आपको अहसास हो जाता था कि आपका 'अंत' नजदीक आ गया है। उसके बाद आपसे पूछा जाता था 'क्या आप तैयार हैं मिस्टर बच्चन?' जिसके जवाब में मासूम और अनसुनी-सी आवाज निकलती थी 'यस सर'। जिसके फौरन बाद एक ऐसी तेज झन्नाटेदार आवाज आती थी, जिसके बाद आपको कुछ और सुनाई नहीं देता था। इसके बाद बस, ऑपरेशन खत्म। आपको पीछे मुड़कर जाना होता था और इस दौरान एक बार भी अपनी पीठ को सहलाने की भी इजाजत नहीं होती थी। आपको कहना होता था 'थैंक यू सर', अगर आप ऐसा नहीं कहते तो आपको बड़ी नजाकत से याद दिलाया जाता था कि आपको ऐसा कहना है।
तो आपने देखा, जो कुछ भी होता था, बहुत ही सभ्य और अनुशासित तरीके से होता था। किसी पाठ की तरह ये एक सीख होती थी, जो हमें नियमों का पालन करना सिखाती थी। उन्होंने लिखा है 'लेकिन, वह 1956 था, अब 2010 है। अगर अब अभिषेक, श्वेता, अगस्त्य या नव्य-नवेली से कोई तेजी से बोल भी लें, तो इससे हमें गुस्सा आ जाता है। समय और परिस्थितियां दोनों बदल गई हैं और अब मैं स्कूलों में शारीरिक दंड के पूरी तरह खिलाफ हूं।

कौन ये तूफान रोके

कौन ये तूफान रोके
-हरिवंश राय बच्चन

हिल उठे जिनसे समुन्दर...
हिल उठे दिशी और अम्बर...
हिल उठे जिस्से घर के...
वन सघन कर सब्द हर हर...

उस बवंडर के झकोरे
किस तरह इंसान रोके
कौन यह तूफान रोके...

उठ गया लो पांव मेरा
छुट गया लो ठांव मेरा
अलविदा ऐ साथ वालों
और मेरा पंथ डेरा...

तुम न चाहो मैं न चाहूं
कौन भाग्य विधान रोके
कौन ये तूफान रोके...







Aug 25, 2010

डा. महेशचंद्र शर्मा 'शिरा'

आकाश को पक्षियों की उड़ान में समेटता चित्रकार
- डॉ. सुनीता वर्मा
अमूर्त चित्रों में रंगो का करिश्मा करते चित्रकार डॉ. महेशचंद्र शर्मा 'शिरा' कला समीक्षक, कला विशेषज्ञ के रुप में एक राष्ट्रीय शख्सियत हैं। वे इन दिनों इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के 'दृश्य कला संकाय के प्रोफेसर तथा चित्रकला विभाग के अध्यक्ष के रूप में कायर्रत हैं।
संगीत और कला को समर्पित इस विश्वविद्यालय का शिक्षण वातावरण आज भी गुरू शिष्य परंपरा से स्पंदित है। इस परंपरा ने खैरागढ़ की चित्रकला संभावनाओं को आत्मविश्वास से भरपूर विकास और ऊंचाइयां प्रदान की है। 'शिरा' समकालीन कला के समुचित विकास के लिए देश प्रदेश में कला का वातावरण बनाने के लिए पिछले ढाई दशक से सक्रिय हैं। उनका प्रयास अब छत्तीसगढ़ में ललित कला अकादमी की स्थापना करना है। उन्होनें देश भर में सक्रियता से कार्य करते अनेक कलाकारों की फौज खड़ी की है जो विभिन्न प्रदेशों में फैले हैं।
छत्तीसगढ़ का गौरव, देश का एकमात्र कला एवं संगीत विश्वविद्यालय शान्त, खामोश इलाका है। प्रकृति वहां चारो ओर मुखर है निष्कपट, नि:श्पाप, सात्विक। इस परिसर में प्रवेश करते ही स्वर लहरियां, नृत्य रत नृत्यांगना के नुपुरों की छम-छम, इजल पर कैनवास रंगों में लीन अभ्यास करता कोई विद्यार्थी चुपचाप किसी कोने में दिख जायेगा। इसी परिसर में जब शिरा के निवास में प्रवेश करते हैं तो बैठक की दीवारों पर 10 से 15 पेन्टिग लगी हुई मिल जाएंगी। जहां गुरू को घेरे हुए 5-6 चित्रकला छात्र और शोधार्थी मिल जाएंगे। शिरा की पत्नी डा. मंजुशर्मा रसोई में या तो चाय बनाती मिलेंगी या खाना खिलाने की व्यवस्था में व्यस्त। शिरा दम्पति बाहर से आये पढऩे वाले छात्र- छात्राओं के संरक्षक या धर्म माता-पिता की तरह उनकी व्यक्तिगत असुविधाओं को सुलझाने तक के काम में लगे होते हैं। विश्वविद्यालय की कार्यालयीन अनेक जिम्मेदारियां तो होती ही हैं। इन सारी गतिविधियों के बीच वे चित्र बना रहे हैं और प्रदशर्नियां भी।
सृष्टि के पंच तत्व में आकाश, अग्नि, जल, पृथ्वी पर पेड़, पौधे, फूल, पक्षी पहाड़ आदि को अपने कैनवास पर विषय वस्तु के रूप में प्रस्तुत करते समय 'शिरा' मानव तथा प्रकृति की आंतरिक एकात्मकता के जीवन दर्शन को उद्घाटित करते हैं।
खैरागढ़ में उनके निवास की किसी भी खिड़की से दिखते अनंत पेड़ों के समूह पहाड़ी पर मंदिर, मंदिर की मुंडेर पर लहराती लाल सफेद पताकाओं ने उनके अंन्तमर्न को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। साथ ही लोककला, पुरातत्व आदि ने उनकी कला समझ और दृष्टि पर पर्याप्त प्रभाव डाला है।
प्रसिद्ध चित्रकार मुश्ताक ने शिरा के चित्रों पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि 'शिरा के चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी रंगों का तीव्र संवेदन और समझ है। वे रंगों का पड़ोस इस तरह चुनते हैं कि उन रंगों के विरोधी स्वभाव उनके आपसी अन्र्तद्वंद्व को उजागर करते हुए भी एक दूसरे को समृद्ध करते हैं।
जल रंग हो या तैल रंग या एक्रेलिक रंग या अन्य कोई भी माध्यम हो, वे हमेशा ही नई संभावनाओं को तलाशते नजर आते हैं। इस तलाश में वे अपनी बनी हुई शैली के वजूद को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ते हैं।
रंगों के बारे में स्वयं 'शिरा' का कहना है- 'मेरे चित्रों में रंगों को लाल, पीला, नीला कह देने से बात नहीं बनती। रंग सीधे आत्मा से जुड़ते हैं। चित्रों में ताजे रंगों को पूरी आजादी से स्वच्छ रूप से घूमते टहलते दौड़ते और एक दूसरे से मिलते हुए भी देख सकते हैं। यह मिलना सिर्फ रंगों का मिलना भर नहीं है बल्कि दो इंसानों की तरह मिलना है। यह मिलना हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। नई सृष्टि के लिए भी और लगातार बढ़ती हुई दूरियों को कम करने के लिये भी। '
'शिरा' के काम की दूसरी विशेषता टैक्सचर है। इन चित्रों को जब आंखे छू रही होती हैं तो स्पर्श सुख के लिये हाथ स्वाभाविक रूप से कैनवास को छूने के लिए मचलने लगते हैं। ये टैक्सचर बचपन की उस स्मृति को भी ताजा करते हैं जब मैं धूल भरी धरती पर उंगलियों या काड़ी से खुरच कर चित्र बनाया करती थी। इन टैक्सचर को उत्पन्न करने के लिये वे कागज या कैनवास की सतह पर मोटा इम्पेस्टो करते हैं, उसके बाद रंगों को फैलाकर, फाड़कर, पोंछकर और कभी-कभी ब्लेड से घिस कर अनेक प्रभावों से अपना संसार सिरजते हैं।
उनके कैनवास पर एक और महत्वपूर्ण तत्व है 'ब्रश के स्ट्रोक्स'। कैनवास पर सफेद लयात्मक, गतिमान, प्रवाहपूर्ण शक्तिशाली स्ट्रोक्स को देखकर ऐसा लगता है जैसे ब्रश का खेल किसी सूफी नृत्य, गीत की लय में होता है, शांत, मौन,मध्यम, आध्यात्मिक ध्यान में लीन, जहां यात्रा पर निकली आंखे कुछ देर आराम करती हैं। कहीं ये उत्तेजना से भरे हैं कहीं ओजपूर्ण हैं कहीं बेचैनी को भी अभिव्यक्त करते हैं। इन कैनवास के साथ घंटों रहा जा सकता है। यह हर एक दर्शक की कल्पनाओं के लिये स्पेस और बिम्ब की रचना करती है। ये अमूर्त चित्र उस बीज जैसा है जिसमें से जीवन प्रस्फुटित, पल्लवित, पुष्पित होता है। यह विशाल वृक्ष बनने की प्रक्रिया में है उसमें से नया बीज फिर बनेगा।
'शिरा' के चित्रों को देखें तो पिन्सेन्ट वानगांग की यह उक्ति बरबस याद आ जाती है- 'चित्रकार का काम जीवन के उस परिदृश्य की रचना करना है जिसे देखा जाना चाहिये। लेकिन लोग उसे नहीं जानते।'
शिरा के अनेक चित्र आकाश में बने दिखाई देते हैं। उनपर रूपाकार आकाश से धरती की ओर बढ़ते मालूम पड़ते हैं। कहीं आकाश और पानी मिलते हैं, कहीं धरती और आकाश तो कहीं धरती आकाश पानी, फूल, मंदिर, चिडिय़ा, पहाड़ सब। सिक्किम में बर्फ के पर्वत, चंगू लेक, स्वच्छ पवित्र आकाश के बीच बिताया समय शिरा के चित्र में दिखाई देते हंै।
शिरा ने विश्व प्रसिद्ध चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के चित्रांकन एवं जीवन पर शोध प्रबंध लिखा है। लगता है स्वामीनाथन की चिडिय़ा से शिरा को भी लगाव हो गया है। शिरा की चिडिय़ा स्थिर नहीं है वे उडऩा चाहती है, शांति के प्रतीक के रूप में, जैसे वे विश्व को तनावमुक्त करने को आतुर हैं। धरती पर रहने वालों के लिए दूर आकाश रहस्यमयी लगता है। शिरा के पक्षी इसी रहस्य की पड़ताल करते समूचे आकाश को गतिशील दुनिया में बदलकर रख देते हैं।
साढ़े तीन दशक की कला यात्रा तय कर चुके शिरा के अमूर्त चित्रों पर एक स्थूल दृष्टि डालने पर लगता है चित्र में लाल- पीला हरा नीला भूरा सफेद रंग किसी ने यूं ही फैला दिया हो। यह फैलाना पूरी सजगता और संयम से की गई है। यह स्वछंदता मन को ज्यादा भाती है क्योंकि यह प्रकृति के बेहद नजदीक लगती है। लगता है प्रकृति में यत्र- तत्र मिट्टी में उगे ये पौधे सावन की फुहार पड़ते ही पूरी पृथ्वी को अपने सुन्दर आंचल में छुपा लेगी। ये रंग कोरे कैनवास को श्रृंगार से भर देते हैं। 'शिरा' के अमूर्त चित्र मन की फैन्टेसी के अनेक द्वार खोलते हैं।'
'शिरा के अमूर्त चित्रों में प्रकृति जैसे साक्षात उतर आई है। गर्मी की उमस से राहत देते उनके चित्र में पहाड़, पेड़- पौधे, फूल, पक्षी आधार हैं किन्तु यह मात्र फूल- पौधों का चित्र नहीं है इसमें फूल की कोमलता है, फूल का रंग है, फूल जैसी पवित्रता है, फूल की शीतलता है।'
प्रसिद्ध कला समीक्षक श्री मनमोहन सरल द्वारा जहांगीर आर्ट गैलरी बंबई में उनकी छठी एकल प्रदशर्नी के अवसर पर की गई उक्त टिप्पणी आज भी प्रासंगिक है।
उनके एक चित्र में घास पर खिले फूलों को देखकर जोश की पंक्तियां बरबस आ जाती हैं -
'गूचें तेरी किस्मत पे दिल हिलता है
बस एक तबस्सुम के लिये तू खिलता है
गूचें ने हंसकर कहा बाबा, ये तबस्सुम भी किसे मिलता है।'
उपरोक्त जीवन दर्शन को घास में खिले फूल के द्वारा अपनी ऊर्जा और प्यार डालकर 'शिरा' ने लंबा जीवन दे दिया।
पता: क्वा।नं. 8/सी, सड़क- 76, सेक्टर- 6, भिलाईजिला- दुर्ग (छ.ग.) 490006
मोबाइल: 09827934904, फोन: 0788-2223512
परिचय...
15 जुलाई सन् 1955 को शहवाजपुर उत्तरप्रदेश में जन्में महेशचंद्र शर्मा 'शिरा' की कलात्मक अभिरूचि को लखीमपुर के कला अध्यापक ब्रजमोहन लाल वर्मा ने प्रोत्साहन दिया, उन्होंने इस क्षेत्र में आगे बढऩे का रास्ता भी बताया। उनके कहने पर शिरा ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पांच वर्षीय बी.एफ.ए. की उपाधि प्राप्त की और फिर एम.एफ.ए. भी बीएचयू. से किया। पी.एच.डी. उन्होंने इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ से किया। उन्हें उत्तरप्रदेश सरकार की छात्रवृत्ति मिलने के साथ, उत्तरप्रदेश राज्य कला प्रदर्शनी, मध्य प्रदेश राज्य कला प्रदर्शनी, कालीदास अकादमी उज्जैन का राष्ट्रीय पुरस्कार तथा अखिल भारतीय कला प्रदशर्नी महाकोशल कला परिषद, रायपुर आदि से भी अनेक पुरस्कार मिले हैं।
डा. महेशचंद्र शर्मा की एक चित्र प्रदशर्नी 13 से 19 मई 2010 को जहांगीर आर्ट गैलरी मुम्बई में लगाई गई थी। उन्होंने देश के विभिन्न महानगारों में 16 एकल प्रदर्शनियां की हैं जिनमें से 8 प्रदर्शनी मुंबई में ही लगाई गई। उनके चित्र देश विदेश के अनेक महत्वपूर्ण संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अनेक नेशनल पेन्टर्स केम्प में भागीदारी की है। कला विषय पर उनके कई लेख प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध पत्र का पाठन एवं महत्वपूर्ण वक्ता के रूप में कला पर व्याख्यान दिये हैं। चित्रकारों पर लिखे उनके लेखों में यामिनी राय, अमृता शेरगिल, के.के. हेब्बार, एस.एच. रजा तथा जगदीश स्वामीनाथन प्रमुख हैं।

हिन्दी गजल को भारतीय काव्य की मुख्य धारा बनाने का जज्बा

- रामेश्वर वैष्णव
अब महत्वाकांक्षा का अर्थ शायद है यही लोग अपने मन में हाहाकर लेकर आ गए
तमाम विरोधों विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के हिन्दी गजल ने जन मानस में अपना स्थान बनाने में सफलता पाई है। छंद विरोधी मानसिकता ने हिन्दी गजल को रिजेक्ट करने की हर संभव कोशिश की मगर अपनी सहज संप्रेषणीयता, लघुशिल्प में विराट अभिव्यक्ति की क्षमता एवं नई कविता के तेवर से लैस होने की सजगता ने हिन्दी गजल को युगीन काव्य की मुख्य धारा के आस-पास ला खड़ा किया है। जहीर कुरेशी इसी धारा के भागीरथी हैं। दुष्यंत कुमार के बाद जिन गजलकारों ने हिंदी गजल को सहज सरल स्वरूप प्रदान करने में कामयाबी पाई उनमें विनोद तिवारी, जहीर कुरेशी, अशोक अंजूम आदि का नाम अग्रणी है। 'पेड़ तनकर भी नहीं टूटा' जहीर कुरेशी की एक सौ एक गजलों का छठवां और ताजा संकलन है। हिन्दी जैसी स्वाभिमानी भाषा को गजल के शिल्प में ढालना कोई सहज कार्य नहीं था मगर अपनी 45 वर्षों की साधना से हिन्दी सोच, हिन्दी कहन एवं हिन्दी मुहावरों को दिशा देने में कुरेशी जी की अथक मेहनत स्पष्ट झलकती है।
ऐसे मोती करोड़ों में हैं
जो समंदर से निकले नहीं।
'स्वागतम' से भी अधिक
मूल्य होता है मुस्कान का।
युगीन सच्चाइयों को अभिव्यक्ति देने में जहां व्यंग्य ही कारगर है वहीं गजलों में विसंगतियों को स्वर देने का कुरेशी जी का तरीका अलग है।
घर लौटते ही, सीधा गया संगिनी के पास
मां और बूढ़े बाप से बेटा नहीं मिला।
खुशी मुख पर प्रवासी दिख रही है,
हंसी में भी उदासी दिख रही है।
इसी तरह आधुनिक जीवन की जटिलताओं को अभिव्यक्त देने में छंदों को रोड़ा समझने वाले शायद ऐसे शेरों से रूबरू नहीं हो पाए हैं।
कभी वो मन मुताबिक बह न पाए
जो जल की तेज धाराओं में उलझे।
प्रवेश रात में किसको दिया था माली ने।
बलात् झेल चुकीं क्यारियां बताती हैं,
हिन्दी गजल को नई कविता के तेवर देने में जहीर भाई पीछे नहीं रहे -
वो अब रहते हैं सीली कोठरी में
हैं वंचित घर के उत्सव से पिता जी।
उन्हें कविता में बौनी वेदना को
कुतुब मीनार करना आ गया है।
सूर्य की कोशिशें हुई नाकाम
हिम के पर्वत पिघल नहीं पाए।
कुरेशी जी का यह कहना कि 'मुझे लगता है अभी बहुत कुछ कहा जाना शेष है' उनकी चूकने तथा संभावनाओं की निस्सीमता का प्रतीक है। सजग और सही रचनाकार की यही पहचान है। हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है और कोई भी शिल्प वह अपने अनुसार चयन करे तो उसमें ज्यादा निखार आता है।
जहीर कुरेशी अपने शेरों में अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भी करते हैं। कुछ लोगों को यह नागवार गुजर सकता है परंतु यह भी तय है उसका विकल्प वे नहीं सुझा सकते। बहरहाल हिन्दी गजल की शानदार यात्रा जारी है और इसमें बहुत सारे सहयात्री अपनी तान छेड़ते हुए शामिल है।
पता: 62/699 प्रोफेसर कालोनी, सेक्टर-1, सड़क-3 रायपुर- 492001
फोन. नं. 0771-2272789

अनारकली

अनारकली
- सआदत हसन मंटो
नाम उसका सलीम था। मगर उसके यार-दोस्त उसे शहजादा सलीम कहते थे। शायद इसलिए कि उसका चेहरा मोहरा मुगलई था, खूबसूरत था। चाल ढाल से रईसी टपकती थी।
उसका बाप पीडब्लयूडी के दफ्तर में नौकर था। तनख्वाह ज्यादा से ज्यादा सौ रुपए होगी, मगर बड़े ठाठ से रहता था। जाहिर है कि रिश्वत खाता था। यही वजह है कि सलीम अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनता। जेब-खर्च भी उसको काफी मिलता था, इसलिए कि वह अपने माता- पिता का इकलौता बेटा था।
वह बहुत बन-ठनकर रहता। उसके पास कई सूट, कई कमीजें थीं, जो वह बदल- बदल कर पहनता। शू कम से कम 20 के करीब होंगे।
जब कालेज में था तो कई लड़कियां उस पर जान छिड़कती थीं, मगर वह उनके प्रति बेपरवाह रहता। आखिर उसकी आंख एक शोख-चंचल लड़की से, जिसका नाम सीमा था, लड़ गई। सलीम ने उससे दोस्ती पैदा करनी चाही। उसे यकीन था कि वह उसकी दोस्ती हासिल कर लेगा। नहीं, वह तो यहां तक समझता था कि सीमा उसके कदमों में गिर पड़ेगी और उसकी एहसानमंद और शुक्रगुजार होगी कि उसने मुहब्बत की निगाहों से उसे देखा।
एक दिन कालेज में सलीम ने सीमा से पहली बार संबोधित करते हुए कहा, 'आप किताबों का इतना बोझ उठाए हुए हैं- लाइए, मुझे दे दीजिए। मेरा तांगा बाहर मौजूद है। आपको और इस बोझ को आपके घर तक पहुंचा दूंगा।'
सीमा ने अपनी भारी भरकम किताबें बगल में दबाए हुए बड़े खुश्क लहजे में जवाब दिया, 'आपकी मदद की मुझे कोई जरूरत नहीं, फिर भी शुक्रिया अदा किए देती हूं।'
शाहजादा सलीम को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा पहुंचा। कुछ लम्हों के लिए वह अपनी झेंप मिटाता रहा। इसके बाद उसने सीमा से कहा, 'औरत को मर्द के सहारे की जरूरत होती है। मुझे हैरत है कि आपने मेरी पेशकश को क्यों ठुकरा दिया?'
सीमा का लहजा और ज्यादा खुश्क हो गया, 'औरतों को मर्द के सहारे की जरूरत होगी,मगर फिलहाल मुझे ऐसी कोई जरूरत महसूस नहीं होती। आपकी पेशकश का शुक्रिया मैं अदा कर चुकी हूं, इससे ज्यादा आप और क्या चाहते हैं?'
यह कहकर सीमा चली गई। शहजादा सलीम जो अनारकली के ख्वाब देख रहा था, आंखें झपकता रह गया। उसने बहुत बुरी तरह शिकस्त खाई थी।
इससे पहले उसकी जिंदगी में कई लड़कियां आ चुकी थीं जो उसकी आंख के इशारे पर चलती थीं, मगर यह सीमा क्या समझती है अपने को। इसमें कोई शक नहीं कि खूबसूरत है। जितनी लड़कियां मैंने अब तक देखी है, उनमें सबसे ज्यादा हसीन है। मगर मुझे ठुकरा देना- यह बहुत बड़ी ज्यादती है। मैं जरूर उससे बदला लूंगा- चाहे, कुछ भी हो जाए।
शाहजादा सलीम ने उससे बदला लेने की कई स्कीमें बनाई, मगर कामयाब साबित न हुई। उसने यहां तक सोचा कि उसकी नाक काट डाले। वह यह जुर्म कर बैठता, मगर उसे सीमा के चेहरे पर यह नाक बहुत पसंद थी। कोई बड़े से बड़ा चित्रकार भी ऐसी नाक की कल्पना नहीं कर सकता था।
सलीम तो अपने इरादों में कामयाब न हुआ, मगर तकदीर ने उसकी मदद की। उसकी मां ने उसके लिए रिश्ता ढूंढना शुरु किया। चुनाव की निगाह आखिर सीमा पर पड़ी जो उसकी सहेली की सहेली की लड़की थी।
बात पक्की हो गई, मगर सलीम ने इंकार कर दिया। इस पर उसके माता-पिता बहुत नाराज हुए। घर में दस-बारह दिन तक हंगामा मचा रहा। सलीम के वालिद जरा सख्त तबीयत के थे। उन्होंने उससे कहा, 'देखो, तुम्हें हमारा फैसला कबूल करना होगा।'
शाहजादा सलीम को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा पहुंचा। कुछ लम्हों के लिए वह अपनी झेंप मिटाता रहा। इसके बाद उसने सीमा से कहा, 'औरत को मर्द के सहारे की जरूरत होती है। मुझे हैरत है कि आपने मेरी पेशकश को क्यों ठुकरा दिया?'
सलीम हठधर्मी था। जवाब में यह कहा, 'आपका फैसला कोई हाईकोर्ट का फैसला नहीं, फिर मैंने क्या जुर्म किया है जिसका आप फैसला सुना रहे हैं।'
उसके वालिद को यह सुनकर तैश आ गया, 'तुम्हारा यह जुर्म है कि तुम नाफरमाबरदार हो- अपने माता-पिता का कहना नहीं मानते। हुक्म-उदूली करते हो। मैं तुम्हें जायदाद से अलग कर दूंगा।'
सलीम का जोश थोड़ा-सा ठंडा हो गया, लेकिन अब्बाजान, शादी मेरी मर्जी के मुताबिक तो होनी चाहिए।
'बताओ, तुम्हारी मर्जी क्या है?'
'अगर आप ठंडे दिल से सुनें तो अर्ज करूं?'
'मेरा दिल काफी ठंडा है। तुम्हें जो कुछ कहना है, फौरन कह डालो। मैं ज्यादा देर इंतजार नहीं कर सकता।'
सलीम ने रूक-रूक कर कहा, 'मुझे-मुझे एक लड़की से मुहब्बत है।'
उसका बाप गरजा, 'किस लड़की से?'
सलीम थोड़ी देर हिचकिचाया, 'एक लड़की है।'
'कौन है वह? क्या नाम है, उसका?'
'सीमा- मेरे साथ कालेज में पढ़ती थी।'
'मियां इफ्तखाररुद्दीन की लड़की?'
'जी, हां। उसका नाम सीमा इफ्तखार है- मेरा ख्याल है, वही है।'
उसके वालिद बेतहाशा हंसने लगे, 'ख्याल के बच्चे- तुम्हारी शादी उसी लड़की से तय हुई क्या वह तुम्हें पसंद करती है?'
सलीम बौखला-सा गया। यह सिलसिला कैसे हो गया, उसकी समझ में नहीं आता था। कहीं उसका बाप झूठ तो नहीं बोल रहा था? सलीम से सवाल किया पूछा, सलीम, मुझे बताओं, क्या सीमा तुम्हें पसंद करती है?
सलीम ने कहा, 'जी नहीं।'
'तुमने यह कैसे जाना?'
'उससे- उससे एक बार मैंने थोड़े से शब्दों में मुहब्बत का इजहार किया, लेकिन उसने मुझे...'
'तुम्हें भरोसेमंद न समझा।'
'जी, हां-बड़ी बेरुखी बरती।'
सलीम के पिता ने अपने गंजे सिर को थोड़ी देर के लिए खुजलाया और कहा, 'तो फिर यह रिश्ता नहीं होना चाहिए। मैं तुम्हारी मां से कहता हूं कि वह लड़की वालों से कह दे कि लड़का रजामंद नहीं।' सलीम एकदम भावुक हो गया, 'नहीं, अब्बाजान- ऐसा न कीजिएगा। शादी हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा। मैं उससे मुहब्बत करता हूं, और किसी की मुहब्बत बेकार नहीं जाती। लेकिन आप उन लोगों को- मेरा मतलब है सीमा को यह पता न लगने दें कि उसका ब्याह मुझसे हो रहा है, जिसके प्रति वह बेरूखी और लापरवाही प्रगट कर चुकी है।'
उसके बाप ने अपने गंजे सिर पर हाथ फेरा, 'मैं इसके बारे में सोचूंगा।' यह कहकर वह चले गए कि उन्हें एक ठेकेदार से रिश्वत वसूल करनी थी, अपने बेटे की शादी के खर्चों के सिलसिले में।
शहजादा सलीम जब रात को पलंग पर सोने के लिए लेटा तो उसे अनार की कलियां ही कलियां नजर आई। सारी रात वह इनके ख्वाब देखता रहा।
घोड़े पर सवार बाग में आया है- शाहाना लिबास पहने। घोड़े से उतरकर बाग की एक रविश पर जा रहा है। क्या देखता है कि सीमा अनार के बूटे की सबसे ऊंची शाख से एक नई कली तोडऩे की कोशिश कर रही है। उसकी भारी-भरकम किताबें जमीन पर बिखरी पड़ी हैं। जुल्फें उलझीं हुई हैं और यह उचक-उचककर उस शाख तक अपना हाथ पहुंचाने की कोशिश कर रही है। मगर हर बार नाकाम रहती है।
वह उसकी तरफ बढ़ा। अनार की झाड़ी के पीछे छुपकर उसने उस शाख को पकड़ा और झुका दिया। सीमा ने वह कली तोड़ ली जिसके लिए वह इतनी कोशिश कर रही थी, लेकिन फौरन उसे इस बात का अहसास हुआ कि वह शाख कैसे झुक गई।
वह अभी यह सोच ही रही थी कि शहजादा सलीम उसके पास पहुंच गया। सीमा घबरा गई। लेकिन संभलकर उसने अपनी किताबें उठाई और बगल में दबा लीं। अनारकली अपने जुड़े में खोंस ली और ये खुश्क शब्द कहकर वहां से चली गई, 'आपकी इमदाद की मुझे कोई जरूरत नहीं थी, बहरहाल शुक्रिया अदा किए देती हूं।'
तमाम रात वह इसी किस्म के ख्वाब देखता रहा- सीमा, उसकी भारी भरकम किताबें, अनार की कलियां और शादी की धूमधाम।
शादी हो गई। शहजादा सलीम को इस अवसर पर अपनी अनारकली की एक झलक भी नहीं दिख पाई थी। वह उस लम्हे के लिए तड़प रहा था जब सीमा उसके आगोश में होगी। वह उससे इतना प्यार करेगा कि वह तंग आकर रोना शुरु कर देगी।
सलीम को रोने वाली लड़कियां बहुत पसंद थी। उसका यह फलसफा था कि औरत जब रो रही हो तो बहुुत हसीन हो जाती है। उसके आंसू शबनम के कतरों की तरह होते हैं, जो मर्द की भावनाओं के फूलों पर टपकती हैं तो उनसे उसे ऐसी राहत, ऐसा संतोष मिलता है जो और किसी वक्त नसीब नहीं हो सकता।
रात के दस बजे दुल्हन को सुहागरात के कमरे में दाखिल कर दिया गया। सलीम को भी इजाजत मिल गई कि वह उस कमरे में जा सकता है। लड़कियों की छेड़छाड़ और रीति-रिवाज सब खत्म हो गए तो वह कमरे के अंदर दाखिल हुआ।
फूलों से सजी हुई सेज पर दुल्हन घूंघट काढ़े रेशम की गठरी-सी बनी बैठी थी। शहजादा सलीम ने खास इंतजाम किया था कि फूल अनार की कलियां हों। वह धड़कते हुए दिल के साथ सेज की तरफ बढ़ा और दुल्हन के पास बैठ गया।
काफी देर तक वह अपनी बीवी से कोई बात न कर सका। उसको ऐसा महसूस होता था कि उसकी बगल में किताबें होंगी जिनको वह उठाने नहीं देगी। आखिर उसने बड़ी हिम्मत से काम लिया और उससे कहा, 'सीमा....'
यह नाम लेते ही उसकी जबान खुश्क हो गई। लेकिन उसने फिर हिम्मत बटोरी और अपनी दुल्हन के चेहरे से घूंघट उठा दिया, और भौंचक्का रह गया। यह सीमा नहीं थी, कोई और ही लड़की थी। अनार की सारी कलियां, उसको ऐसा महसूस हुआ, मुर्झा गई हैं।