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Feb 17, 2010

जिनके लिए बस्तर के गाँव स्वर्ग समान हैं


- हरिहर वैष्णव
आज आज जब अपने देश में चहुं ओर पाश्चात्य संस्कृति का न केवल बोलबाला है अपितु इसमें पूरी तरह रच-बस जाने के लिये आबाल-वृद्घ सभी में जानलेवा और जानदेवा होड़ लगी है भारत, विशेषत: बस्तर आने वाले बहुतेरे विदेशी भारतीय संस्कृति से न केवल अभिभूत हो उठते हैं अपितु वे इसे आत्मसात करते भी न$जर आते हैं। पाश्चात्य संस्कृति की विद्रूप चकाचौंध और मशीनी दौड़ से ऊब चुके और इन सबके कारण आत्मीय सम्बन्धों में आती जा रही कटुता, टूटन और रिक्तता-तिक्तता से बहुत गहरे अवसाद में जी रहे पश्चिमी देशों के लोगों को भारतीय संस्कृति, विशेषत: ग्रामीण भारतीय संस्कृति बहुत ही रास आती है। वे इस संस्कृति और इस देश के ग्रामीण परिवेश में सुकून पाते हैं। भारत के ग्रामीण अंचलों की 'अतिथि देवो भव' की भावना और आत्मीयता उन्हें ऐसे बांध लेती है कि जब वे यहां से, भले ही यहां केवल कुछ ही दिन रहने के बाद विदा हो रहे होते हैं तब अनायास ही उनकी आंखों से आंसू बह निकलते हैं।
अभी पिछले वर्ष की ही बात लें। लंदन (इंग्लैंड) के हॉनमैन म्यूजियम की डिप्टी हेड जॉजना गैरेट बस्तर के घड़वा शिल्प के अध्ययन के सिलसिले में अपने चित्रकार और छायाकार मंगेतर क्रैग हाना, जो मूलत: अमेरिकी हैं और अब पेरिस (फ्रान्स) में रह रहे हैं, के साथ बस्तर आयीं। वे दोनों यहां केवल सात दिन रहे किन्तु इन सात दिनों में वे आतिथेय परिवार से इस कदर घुल-मिल गये कि उनसे विदा होते दोनों ही की आंखों से आंसू बहने लगे। जॉजना ने आतिथेय की पत्नी को अपने गले से लगा लिया और कहने लगीं, 'इस ममतामयी महिला ने पूरे सात दिनों तक अपने हाथों से बना भोजन हमें खिलाया और अब जाते वक्त ये हमें कपड़े भी भेंट कर कर रही हैं, जबकि मैं इनके लिये कुछ भी नहीं कर सकी। मुझे अपने आप पर लज्जा आ रही है।' उत्तर में आतिथेय की पत्नी ने कहा, 'यह तो हम भारतीयों की परम्परा है। अतिथि हमारे लिये देवता होता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है।'
वापसी में रायपुर एयरपोर्ट पर तो क्रैग ने हद ही कर दी। उन्होंने कम से कम दस बार अपने आतिथेय के पांव छुए होंगे। एयरपोर्ट पर खड़े लोग कभी उन्हें तो कभी क्रैग को आश्चर्यजनक निगाहों से देख रहे थे। .....और जॉजना ने तो भावावेश में अपने आतिथेय को गले से ही लगा लिया। कहा, वे उन्हें और उनके परिवार को कभी भी नहीं भुला पायेंगी। आतिथेय को लगा, उनकी लाड़ली बहिन उनसे विदा हो कर ससुराल जा रही है और वे उसे दुआएं दे रहे हैं, 'बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले।'
इसी तरह की सन् 2000 की एक घटना मुझे याद आती है, स्विट्जरलैंड की। जिनेवा एयरपोर्ट पर मुझे छोडऩे आयीं मेरी मित्र और फ्रेन्च फिल्मों की सफल अभिनेत्री सोफी कैण्डाव्हरोफ की आंखों में मुझे 'सी ऑफ' करते हुए आंसुंओं की झड़ी लग गयी थी। मेरी आंखों से भी आंसू झरझर बह रहे थे। अनायास ही उन्होंने मुझे अपने गले से लगा लिया और बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं। मैं हक्का-बक्का रह गया था। मुझे लगा था, सोफी और कोई नहीं, मेरी छोटी बहिन ही है जिसे मैं छोड़े जा रहा हूं। ऐसा ही हुआ था ऑस्ट्रेलिया में भी। ऑस्ट्रेलिया में अपने 45 दिनों के प्रवास के बाद विदा होते हुए मेरा जी तब भी भर आया था जब मेरे परम मित्र क्रिस ग्रेगोरी और उनकी पत्नी जुडिथ रॉबिन्सन ने रोते हुए मुझे विदा किया था। जुडिथ ने, जिन्हें हम जुडी कह कर पुकारते हैं, मुझे अपने छोटे भाई जैसा प्यार दिया। जुडिथ और क्रिस हमें 45 दिनों तक अपने हाथों बना भारतीय भोजन परोसते रहे। कभी लगा ही नहीं कि हम घर से बाहर हैं। क्रिस ग्रेगोरी और उनकी पत्नी जुडिथ रॉबिन्सन ने 1982 में कोंडागांव में रह कर अपना शोध कार्य किया था। हमारी उनसे मुलाकात तभी हुई थी और फिर यह मुलाकात मित्रता में परिवर्तित हो गयी। बस्तर के लोक साहित्य और लोक संस्कृति से उनका गहरा जुड़ाव हुआ, जो आगे चल कर गहन शोध-कार्य के रूप में परवान चढ़ा।
इसके पहले की एक और घटना बताऊं। 1991 की पहली जून को जब मैं और धातुशिल्पी जयदेव बघेल सिडनी एयरपोर्ट पर उतरे तो वहां हमारी प्रतीक्षा कर रहे क्रिस ग्रेगोरी के 'जोहार' ने हमें चौंका दिया था। बजाय इसके कि वे 'हैलो' कहते, 'जोहार' कह कर उन्होंने हमारा स्वागत किया था और हम उनके बस्तर प्रेम से अभिभूत हो गये थे। उनका बस्तर प्रेम आज भी जस का तस बना हुआ है। तभी तो आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी (कैनबरा, आस्ट्रेलिया) के आर्केलॉजी और एन्थ्रोपॉलॉजी विभाग में रीडर डॉ. सी. ए. ग्रेगोरी (क्रिस ग्रेगोरी) पिछले दो दशकों से बस्तर के लोक महाकाव्य 'लछमी जगार' पर मेरे साथ संयुक्त रूप से शोध कार्य कर रहे हैं। अपने शोध कार्य को तीव्र गति प्रदान करने के लिये वे इन दिनों 2 वर्षों के अवैतनिक अवकाश पर फिजी में हैं। हिन्दी भाषा की प्रशंसा करते वे नहीं थकते। वे कहते हैं कि हिन्दी एक पूर्णत: वैज्ञानिक और समृद्घ भाषा है। स्वाध्याय के कारण हिन्दी के साथ-साथ बस्तर की लोक भाषा हल्बी पर भी उनका अच्छा अधिकार हो गया है।
रिचर्ड बार्ज एक अमेरिकी हैं और ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी, कैनबरा के एशियन स्टडी$ज विभाग में वे हिन्दी का अध्यापन करते हैं। होने को वे अमेरिकी हैं किन्तु हिन्दी और हिन्दुस्तानी संस्कृति के इतने प्रेमी कि कुछ कहा नहीं जा सकता। वे जितनी शुद्घ और परिष्कृत हिन्दी बोलते और लिखते हैं, सम्भवत: हम हिन्दी वाले भी न तो बोल पाते होंगे और न लिख। उच्चारण की शुद्घता तो कोई उनसे सीखे। उनके विभाग में हिन्दी के विद्यार्थियों को हिन्दी साहित्य पढ़ाते हुए मैं संकोच में पड़ गया था। अमेरिका के 'द राकेफेलर फाऊन्डेशन' के बेलाजो (इटली) स्थित 'स्टडी एण्ड कान्फ्रेन्स सेन्टर' के बुलावे पर हम दोनों भाई (मैं और मेरे अनुज खेम वैष्णव) दो महीने के प्रवास पर 2002 में वहां थे। वहां अमेरिका के सुप्रसिद्घ उपन्यासकार शेली सीगल और उनकी पत्नी हैरिट हमें 'हैलो' की बजाय हमेशा नमस्ते कहा करते और सम्बोधन में भाई साहब। वे कई बार भारत की यात्रा कर चुके हैं और भारतीय संस्कृति से खासे प्रभावित रहे हैं। बातों ही बातों में वे लाल किला, ताजमहल आदि से सम्बन्धित अपने संस्मरण सुना रहे थे कि मैं बोल पड़ा कि मैंने आज तक ताजमहल नहीं देखा। इस पर वे बहुत आश्चर्यचकित हो गये और बड़े ही अ$फसोस के साथ कहा, 'इससे बड़ी दुर्भाग्यजनक बात आपके लिये और क्या होगी कि आप हजारों किलोमीटर दूर इटली तो आ पहुंचे किन्तु आपने आज तक अपने ही देश के उस अद्भुत शाहकार को नहीं देखा जिसे देखने के लिये दुनिया भर के लोग एक बार नहीं बल्कि बारम्बार भारत जाते हैं।' तब मेरा सिर शर्म से झुक गया था।
फ्लैगस्टाफ (एरिजोना, सं.रा.अमेरिका) में मेरी मित्र कैरेन मेलिसा मारकस के पति ब्रुस एम. सुलिवेन 'रिलिजियस स्टडीज' के प्रोफेसर और संस्कृत के विद्वान हैं। फ्रेन्च की प्रोफेसर मेलिसा के भारत प्रेम का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके घर पर गौतम बुद्घ की प्रतिमा स्थापित है। उनका कहना है कि गौतम बुद्घ की उपस्थिति उनके मन को शान्ति देती है। वे कहती हैं कि वे अपने पति के साथ कई बार भारत की यात्रा कर चुकी हैं और अपनी प्रत्येक यात्रा में उन्हें असीम शान्ति और प्रसन्नता का अहसास हुआ है। स्विट्जरलैंड में मुझसे हुई भेंट उन्हें आज भी आह्लादित करती है मुझे भी।
जर्मन मूल के रोल्फ किल्युस पेशे से साऊण्ड इजींनियर हैं और ब्रिटेन में रहते हैं। वे भारतीय शास्त्रीय एवं लोक संगीत के दीवाने हैं। पिछले तीन दशकों से भारतीय शास्त्रीय एवं लोक संगीत के ध्वन्यांकन और लोक वाद्यों के संकलन का अभूतपूर्व कार्य वे विभिन्न संग्रहालयों के लिये करते आ रहे हैं। उनके अपने वेब साईट हैं, जिन पर लॉग ऑन कर भारतीय लोक संगीत पर किये गये उनके काम के विषय में अधिकतम जानकारी प्राप्त की जा सकती है। साथ ही, लोक संगीत का आनन्द भी लिया जा सकता है। ये वेब साईटें हैं :
http://www.rolfkillius.com
http://www.kalacollective.com
http://www.bl.uk/collections/sound-chive/wtmkeralacontents.html
लगभग 8 वर्षों पूर्व जब रोल्फ बस्तर प्रवास पर आये तो वे यह देख कर दंग रह गये थे कि बस्तर के लोक वाद्य 'धनकुल' से नि:सृत होने वाली स्वर लहरी और लय किसी एक जर्मन लोक धुन से शत प्रतिशत साम्य रखती है। वे धनकुल वाद्य की संगत में वह लोक गीत अपनी मित्र युता वकलर के साथ बेसाख्ता गा उठे। जब मैंने यह घटना कला इतिहासकार भानुमती नारायण (सुप्रसिद्घ चित्रकार अकबर पदमसी की पत्नी) को सुनायी तो वे भी दंग रह गयीं और कहने लगीं कि इस घटना को प्रकाश में लाया जाना चाहिये। युता वकलर योग से प्रभावित हैं और वे जर्मनी तथा ब्रिटेन में लोगों को अपने स्तर पर योग का प्रशिक्षण देती हैं। उनका कहना है कि भारतीय जीवन पद्घति उन्हें आकर्षित करती है और योग को वे स्वस्थ तन-मन का नियामक मानती हैं। 'अतिथि देवो भव' की भारतीय भावना की न केवल वह अपितु प्राय: भारत के गांवों में प्रवास पर आने वाले सभी विदेशी कायल हैं।
स्विट्जरलैंड के उल्लेखनीय छायाकार क्रिस्चन डुप्रे और फ्रेन्च फिल्म अभिनेत्री सोफी कैण्डाव्हरो$फ के लिये भारत, विशेषत: बस्तर के गांव स्वर्ग तुल्य हैं। इसी तरह के उद्गार व्यक्त करती हैं ब्रिटेन की एनीमेटर तारा डगलस भी। हल्बी जनभाषा में प्रस्तुत पांच एनीमेशन फिल्मों के निर्माण-प्रक्रिया और उसके बाद उनके गांव-गांव प्रदर्शन के दौरान उन्होंने बस्तर को काफी करीब से न केवल देखा बल्कि यहां की लोक संस्कृति को आत्मसात् भी किया। उनकी मां भारतीय संस्कृति की इतनी हिमायती और प्रशंसक हैं कि वे पिछले कई वर्षों से हिमालय की वादियों में साधनारत हैं। तारा के भारत प्रेम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपना नाम ही भारतीय रख लिया है: तारा। तारा डगलस। उनका कहना है कि भारत उन देशों में से एक महत्त्वपूर्ण देश है जहां की सरल, किन्तु समृद्घ और अनुकरणीय लोक संस्कृति आज भी जीवित है। यही कारण है कि उन्होंने और उनकी स्कॉटलैंड स्थित एनीमेशन कम्पनी 'वेस्ट हाईलैंड एनीमेशन' ने भारत के पांच विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की लोकभाषाओं में प्रचलित लोक कथाओं को एनीमेशन फिल्म के जरिये प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया। मैंने उनके इस कार्य में सपरिवार सक्रिय सहयोग किया है। वे कहती हैं कि दुनिया भर में जनभाषाओं का लगातार लोप होते चला जा रहा है। गैलिक नामक अत्यन्त प्राचीन जनभाषा स्कॉटलैंड से लुप्त हो चुकी है। ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण है कि भारत जैसे देश में अभी भी विभिन्न जनभाषाएं न केवल जीवित हैं बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित भी होती चली जा रही हैं। वे आगे कहती हैं कि यद्यपि ये जनभाषाएं आज जीवित तो हैं किन्तु विभिन्न प्रचार माध्यमों और नागरी संस्कृति के प्रति बढ़ते अति उछाह के चलते इन जनभाषाओं के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। यदि समय रहते इन जनभाषाओं के संरक्षण के लिये ठोस उपाय नहीं किये गये तो भारत जैसे महान् देश से भी ये जनभाषाएं लुप्त हो जायेंगी, इसमें दो राय नहीं है। उन्होंने बस्तर की जनभाषाओं के संरक्षण की दिशा में बस्तर के कुछ लोगों द्वारा किये जा रहे स्वत:स्फूत्र्त प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि ऐसे प्रयासों से ही कुछ आशा की जा सकती है। इन दिनों तारा 'आदिवासी आर्ट्स ट्रस्ट' नामक संस्था की सचिव हैं और इस संस्था के माध्यम से वे भारतीय आदिवासी समुदाय की कला को दुनिया के सामने रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही है। उनके काम के विषय में इस वेब साईट पर जानकारी प्राप्त की जा सकती है:
http://www.talleststory.com/adivasiartstrust/mediapage.html
तारा डगलस की साध्वी माता जिन्होंने अपना नाम बदल कर उमा गिरि रख लिया है, उत्तराखण्ड के कुमाऊं अंचल के अन्तर्गत बागेश्वर जिले के तप्तकुण्ड नामक स्थान में रहती हैं। वे सरयू गंगा के तट पर बने मन्दिर में पिछले 11 वर्षों से रह रही हैं। इससे पहले वे बागेश्वर के ही श्री पंच जूना अखाड़ा आश्रम में अपने गुरुजी श्री श्री 1008 महन्त कृष्ण चन्द्र गिरि महाराज की देखरेख में रह रही थीं। अब वे अवकाश प्राप्त कर वहां स्थानीय कृषकों के साथ उद्यानिकी का कार्य कर रही हैं। वे आध्यात्मिक एवं दर्शनशास्त्र सम्बन्धी साहित्य का अध्ययन करती हैं। अद्वैत वेदान्त, उपनिषदों, वेदों और इसी तरह के साहित्य के अध्ययन में अपना समय व्यतीत करती हैं। वे चिन्तन-मनन करती हैं और मन्दिर को साफ-सुथरा रखने और रात में वहां दीपक जलाने में लगी रहती हैं। 67 वर्षीया उमा गिरि जी ने वहां एक बहुत ही सुन्दर बगीचा लगाया है जिसकी आसपास के सभी लोग प्रशंसा करते हैं। स्थानीय लोग उनसे मिलना और उनकी धुनी के समीप बैठ कर उनसे धर्म चर्चा करने, उनके साथ चाय की चुस्कियां लेने में आनन्द प्राप्त करते हैं। कई बार उनके कई गुरुभाई उनके आश्रम में उनके पास ठहरते हैं। वे परिव्राजक होते हैं। उमा जी मूलत: स्वीडन की हैं और वे प्राय: प्रति वर्ष ग्रीष्म ऋ तु में 2 महीनों के लिये अपनी माता के दर्शन के लिये वहां जाती हैं। सरयू गंगा दरअसल गंगा की ही एक सहायक नदी है जो मुख्य गंगा नदी से अयोध्या में मिलती है। उमा गिरि जी इसी सहायक नदी के उद्गम से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर भारत के तिब्बत-चीन से लगी सीमा पर रहती हैं। आरम्भ में वहां के निवासियों ने एक विदेशी के वहां रहने को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था किन्तु जब उन्होंने उमा गिरि जी के द्वारा वहां के स्थानीय लोगों के लिये किये जा रहे विभिन्न लाभदायक और विकासमूलक कार्यों को देखा तो उनका यह विरोध स्वत: ही समाप्त हो गया और साध्वी उमा गिरि जी अब उस अंचल में 'विदेशी हिन्दू माई' के रूप में विख्यात हो गयी हैं।
पेरिस (फ्रान्स) निवासी निकोला प्रिवो लगभग 9 वर्ष पूर्व कोंडागांव तहसील के बरकई नामक गांव में रह रहे थे। वे यहां लगभग 2 वर्षों तक रहे और बस्तर के लोक संगीत का बारीकी से अध्ययन किया। बरकई गांव में जिस परिवार के साथ वे रहे, उस परिवार को वे आज भी अपना ही परिवार मानते हैं। उनके मन में उस परिवार के प्रति दिखावे का अपनापा नहीं किन्तु वास्तविक आत्मीयता हिलोरें मारती है। मेरे साथ ईमेल के जरिये होने वाले प्रत्येक पत्राचार में वे बरकई के उस परिवार की सुध लेना कतई नहीं भूलते। बस्तर के लोक संगीत पर इस अवधि में किया गया उनका अध्ययन हम स्थानीय लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रामाणिक है, यह कहते हुए मुझे कदाचित् भी संकोच नहीं होता। बस्तर के लोक संगीत के राग-रागिनियों की बारीकियां तो कोई उनसे सीखे! निकोला प्रिवो का अध्ययन मोटे तौर पर बस्तर में आयोजित होने वाले देव बजार और मंड़ई पर केन्द्रित था। वे विशेषत: देव मोहरी की सांगीतिक संरचना और देवकुल की सामाजिक संगठना तथा सिरहा और गांडा संगीतकारों के अन्तर्सम्बन्धों को विश्लेषित करने की दिशा में अध्ययन कर रहे थे। इस शोध से उन्हें मिली पीएच.डी. के बाद वे अब पेरिस विश्वविद्यालय में इथनोम्यू$िजकोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वे कहते हैं कि वे अपने शोध को इस अति सुन्दर अंचल में यहां के प्यारे लोगों के साथ जारी रखना चाहते हैं।
संपर्क - हरिहर वैष्णव, सरगीपाल पारा, कोंडागांव 494226,
बस्तर- छ.ग. फोन : 07786-242693,
मोबा. 093004-29264
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in

2 comments:

कंदील, पतंग और तितलियां said...

बहुत ही शानदार लेख है। आंसू उनकी आंखों में भी आते हैं जिनको हम मशीनों का भाई-बहन मानते हैं। छत्तीसगढ़ की मेहमाननवाज़ी का तो खैर क्या मुकाबला। कभी महसूस नहीं की लेकिन अपने पिता से सुनता रहा हूं।
अजय शर्मा

Vivek Gupta said...

अद्भुत. बस यही एक शब्द है. अद्भुत संस्क्रिती, अद्भुत प्रशंसक, अद्भुत लेखनी. यह तो महज़ एक आलेख नहीं, पूरी आलेख सीरीज़ का विषय है. बस्तर के वनों से होता हुआ प्रेम का संदेश कहां-कहां तक पहुंच गया और अपनी अमिट छाप छोड गया, यह पढना-सुनना भी अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है. लेखक को कोटिशः धन्यवाद. अनुरोध है कि वे विदेशों में बसे दिल से हिंदुस्तानी लोगों के बारे में विस्तार से परिचय दें.
- विवेक गुप्ता (भोपाल)