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Feb 17, 2010

रक्षक के वेश में भक्षक!


चौदह वर्षीया रुचिका टेनिस के खेल की उभरती प्रतिभा थी। उसके पिता ने अपनी लाडली बेटी के टेनिस कौशल में निखार लाने के लिए उसे कनाडा भेजने का निर्णय लिया। जैसे ही यह बात रुचिका के टेनिस क्लब में फैली, क्लब के तत्कालीन अध्यक्ष शंभु प्रताप सिंह राठौर, आई.जी. हरियाणा पुलिस ने तुरंत रुचिका के पिता से मिलकर उन्हें सलाह दी कि वे रुचिका को कनाडा न भेजें और आश्वस्त किया कि वे रुचिका की बेहतर टे्रनिंग की पूरी व्यवस्था यहीं कर देंगे। यह बात है अगस्त 1990 की और इसी के साथ निरीह रुचिका और उसके परिवार- पिता और छोटे भाई पर अमानवीय यातनाओं का पहाड़ टूट पड़ा। जिसने साबित किया कि रुचिका के बाप की उम्र का वरिष्ठ पुलिस अधिकारी राठौर एक नृशंस और बर्बर भेडिय़ा था। राठौर ने पहले टेनिस क्लब में रुचिका का यौन उत्पीडऩ किया। जब रुचिका ने इसकी शिकायत की तो राठौर ने रुचिका को क्लब से निष्कासित करवा दिया। इस अंतहीन यातनामय त्रासदी से टूट कर रुचिका ने 1993 में आत्महत्या कर ली। रुचिका के त्रस्त पिता को पचकुला (हरियाणा) का मकान बेचकर शिमला में शरण लेनी पड़ी।
इन परिस्थितियों में रुचिका की मौत के लिए राठौर को न्यायालय से दण्डित करवाने का बीड़ा उठाया रुचिका की सहेली अनुराधा और उसके साहसी माता-पिता ने। अनुराधा राठौर के कुकृत्य की प्रत्यक्षदर्शी गवाह थी। अनुराधा और उसके परिवार के लिए यह कितना मुश्किल काम था इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें पूरे 19 वर्ष लगे एक के बाद एक बाधा से जूझते हुए न्यायालय से एक निराशाजनक फैसला पाने में। न्यायालय को एक किशोरी को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को सिर्फ 6 महीने की जेल और सिर्फ एक हजार रुपए का जुर्माना उचित दण्ड लगा। इतना ही नहीं न्यायालय ने अपराधी राठौर के साथ अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा कि अपराधी की बड़ी उम्र और मुकदमे के 19 वर्ष की लंबी अवधि तक चलने के कारण हल्की सजा दी जा रही है!!! इस सजा (?) को सुनकर दर्प से दमकते चेहरे पर कुटिल मुस्कान लिए अदालत से बाहर निकलते राठौर को टीवी पर असंख्य भारतीयों ने देखा। राठौर की चाल ढाल स्पष्ट संदेश दे रही थी कि वह राजसत्ता और न्यायप्रणाली को अपनी जेब में रखता है। प्रमाण है कि इन्हीं 19 वर्षों में राठौर इतने संगीन अपराध में अभियुक्त होने के बावजूद राजनेताओं और नौकरशाहों के संरक्षण में एक के बाद एक सफलता की सीढिय़ा चढ़ता हुआ इंस्पेक्टर जनरल से डाइरेक्टर जनरल पुलिस की पदवी पाकर अपना कार्यकाल समाप्त करके ससम्मान रिटायर हुआ।
वास्तव में यह अत्यंत दर्दनाक और शर्मनाक मामला हमारे देश के राजनेताओं, शासनतंत्र और सामाजिक व्यवस्था की हेल्थ रिपोर्ट है। इस बीमार गठजोड़ के दानवी चंगुल में रुचिका जैसे लाखों निरीह साधारण नागरिक त्रस्त रहते हैं, दम तोड़ देते हैं।
राजतंत्र के शीर्ष पर बैठे लोगो के मन में जनसेवा, समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण जैसे विचार अब नहीं आते। अब राजनीति एक धंधा बन गई है। जहां वे जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक आमदनी करने में जी जान से जुटे रहते हैं। कोई मुख्यमंत्री बनकर बीस बाइस महीनों में चार हजार करोड़ रुपयों का घोटाला कर लेता है, कोई चारा घोटाला करता है और कोई कत्ल और अपहरण जैसे अपराधों में नामजद होता है। रचनात्मक सोच में अक्षम ऐसे जनप्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं में शोर- शराबा और मारपीट तथा अन्य अशोभनीय व्यवहार करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। इस प्रकार के राजनेता भ्रष्टाचार के माध्यम के रूप में नौकरशाही और पुलिस को इस्तेमाल करते हैं, फलस्वरुप पुरस्कार के रूप में सरकारी अफसर और पुलिस अफसर अपने भ्रष्टाचार और कुकर्मों के बावजूद सुरक्षित बने हुए पदोन्नति पाते रहते हैं।
नौकरशाही, न्यायप्रणाली और पुलिस के अशुभ गठबंधन का भयावह, क्रूर और दमनात्मक चेहरा रुचिका की त्रासदी से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अंग्रेजों ने पुलिस विभाग को एक ऐसे निर्मम और बर्बर संगठन के रूप में गठा था जो अमानवीय यंत्रणाओं से जनता को आतंकित रखे ताकि आम नागरिक अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत भी न जुटा सके। पुलिस विभाग आज भी अंग्रेजों के बनाए उसी कानून के तहत काम करता है और आज के शासन तंत्र के प्रति वही भूमिका निभाता है जो पहले अंग्रेजी शासनतंत्र के प्रति निभाता था। अवधारणा में पुलिस के रक्षक होने की कल्पना की जाती है परंतु भारत में यह कोरी कल्पना ही है। भारत में पुलिस भक्षक बन विचरती है। नतीजा है कि पुलिस थाने में प्राथमिक रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज कराना एवरेस्ट विजय से भी ज्यादा मुश्किल काम है। अवकाश प्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी किरन बेदी के अनुसार पुलिस थाने में अपराध की प्राथमिकी दर्ज होना अपवाद है, दर्ज न होना आम बात है। रूचिका के साथ 1990 में हुए अपराध की प्राथमिकी जब मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और डाइरेक्टर जनरल पुलिस, हरियाणा से गुहार लगाने के बावजूद भी दर्ज नहीं हो पाई तो अन्तत: हाइकोर्ट के आदेश पर आठ वर्ष बाद 1998 में दर्ज हुई। इसीसे प्रगट होता है कि पुलिस विभाग कितना निरंकुश है।
रुचिका के मामले में राठौर ने रुचिका और उसके परिवार को यौन शोषण की शिकायत वापस लेने के लिए उन्हें आतंकित करने हेतु एक के बाद एक भयानक अपराध किए। रुचिका को हरियाणा टेनिस फेडरेशन से निष्कासित करवाया, सेक्रेड हार्ट स्कूल जिसमें रुचिका 11 वर्षों से पढ़ रही थी और जहां राठौर की पुत्री भी उसी क्लास में थी, से भी निष्कासित करवा दिया, रुचिका के छोटे भाई 14 वर्षीय आशू पर कार चोरी जैसे झूठे अपराधिक मुकदमे चलवा कर उसे थाने में लाकर भूखा प्यासा रखते हुए भंयकर शारीरिक यातनाएं दीं। रुचिका को आत्महत्या करने को मजबूर किया, रुचिका की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से छेड़छाड़ की, सीबीआई के जांच अधिकारी पर तथ्य को छुपाने के लिए दबाव डाला और रिश्वत देने का प्रयास किया, उसके छोटे भाई को हथकडिय़ों में बांध कर घर के सामने घुमाया, गुंडों से अश्लील नारे लगवाए, गवाहों को धमकाया और प्रताडि़त किया इत्यादि। इस परिप्रेक्ष्य में यदि आम जनता का यह विश्वास है कि पुलिस की वर्दी अपराधियों का सुरक्षा कवच है तो क्या आश्चर्य। विडम्बना यह है कि भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में राठौर जैसे जालिमों की भरमार है। कानून में प्रशासनिक अधिकारियों को पब्लिक सर्वेंट अर्थात जनता के सेवक कहा जाता है परंतु वास्तविक में ये ऐसे आचरण करते है जैसे जनता इनकी सेवक हो।
उपरोक्त संगीन जुर्मों के लिए 19 वर्ष बाद न्यायालय से अत्यंत मुलायम दण्ड मिलने पर भारत के प्रबुद्धवर्ग और मीडिया में जो आक्रोश उमड़ा है वह रुचिका की त्रासदी से उपजा एक सकारात्मक कदम है। चारों ओर से मांग हो रही है कि राठौर को उसके जघन्य अपराधों के लिए कठोर दण्ड मिले और साथ ही साथ शासन के शीर्ष से लेकर निम्नतम स्तर तक के उन सभी व्यक्तियों को भी कठघरे में खड़ा किया जाए जो राठौर के अपराधों में उसे सरंक्षण देते रहे या सहायता देते रहे। साथ ही यह भी मांग हो रही है कि- बच्चों के साथ होने वाली शारीरिक छेड़छाड़ को गंभीर अपराध मानते हुए कानून में इसके लिए कठोर दंड का प्रावधान किया जाए और थाने में अपराध की प्राथमिकी दर्ज होने को सर्वसुलभ बनाया जाए। हम भी इन सभी मांगों का पूर्ण समर्थन करते हैं।
लोकतंत्र में जनहित में प्रबुद्ध वर्ग और मीडिया द्वारा सम्मिलित रूप से चलाए जाने वाले आंदोलन के परिणाम बहुत ही दूरगामी होते हैं। परंतु आवश्यक यह है कि इस प्रकार के आंदोलन वांछित परिणाम आने तक अबाध रूप से चलते रहें। जुल्म और अन्याय के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से आवाज उठाना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
आइये हम सभी नववर्ष के संकल्प के रूप में प्रण करें कि रक्षक के चोले में घूमने वाले खूंखार भक्षकों से बालक बालिकाओं को सुरक्षित बनाए रखने हेतु सभी कानूनी कदम तत्परता से उठाएगें।
सभी प्रबुद्ध पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं।
- रत्ना वर्मा

2 comments:

Unknown said...

अनकही में आपने बहुत ही अच्छे सब्जेट का चुनाव किया है.आज भी रक्षक के भेष मे कई कथित भक्षक समाज में मौजूद हैं.जरुरत है तो इनके खिलाफ़ आवाज उठाने की.अराधना गुप्ता ने जिस निडरता से इस केस को १४ साल तक लडा वह काबिल तारीफ़ है.पिछ्ले दिनों ही अराधाना गुप्ता मुम्बई आईं थी,उन्होंने पूरा घटना क्रम सुनाया तो दिल दहल उठा.अराधना से मिलकर हमे बहुत अच्छा लगा साथ ही बल भी मिला.

Anonymous said...

बहुत ही विचारणीय लेख है. आज भी रक्षक के रुप मे भक्षक समाज में व्यप्त है जरुरत है तो अराधना की तरह दिलेरी दिखाने की.१४ वर्षो से न्याय की लडाई जीत कर उसने दिखा दिया कि सच्चाई की जीत होती है हालांकि राठौर को अभी सजा नही हो पाई है.पिछले दिनो अराधना मुम्बई आयी थीं, उनके मुंह से पूरी घटना सुन कर सभी स्तब्ध रह गये.अराधना से मिलकर बहुत अच्छा लगा,और बल भी मिला..ऐसे बेबाक लेखों के लिए रत्ना जी बधाई !