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Dec 2, 2009

छिति जल पावक गगन समीरा...


उपरोक्त शब्दों से महाकवि तुलसीदास ने सरल भाषा में पंचतत्व के गूढ़ार्थ को स्पष्ट किया है। पंचतत्व के रूप में हमारे मनीषियों ने पर्यावरण के मुख्य निर्णायक अवयवों की पहचान हजारों वर्ष पहले ही कर ली थी। इतना ही नहीं हमारे पूर्वजों ने यह जानकर कि पर्यावरण के उचित संतुलन पर समूची प्रकृति का अस्तित्व निर्भर है, पर्यावरण के निर्णायक अवयवों को पूजनीय भी निर्धारित कर दिया था। बड़ी संख्या में वेदों की ऋचाओं में धरती, वृक्षों, नदियों, सूर्य, आकाश इत्यादि की स्तुति की गई है। कालांतर में प्रकृति के प्रति आस्था हमारी परंपरा का स्थायी अंग बन गई और आज तक चली आ रही है।
प्राकृतिक पर्यावरण के पूजनीय मानने का ही यह परिणाम था कि हमारे देश की समृद्धि की पूरे विश्व में ख्याति थी और इसे सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। विश्व में मान्यता थी कि भारत में दूध की नदियां बहती थीं। यह ख्याति अंग्रेजों के भारत में आने के पहले तक बरकरार रही।
हमारे पर्यावरण से बलात्कार अंग्रेजी राज में औद्योगीकरण के साथ प्रारंभ हुआ। रेलवे लाइन बिछाने के लिए जंगलों की बेहिसाब कटाई की गई। औद्योगिक उत्पादन के लिए लगाए गए कारखानों से निकलने वाला धुआं वायुमंडल प्रदूषित करने लगा और उनसे निकलने वाला रसायन मिश्रित जल नदियों को गंदा करने लगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से औद्योगीकरण में और तेजी आई और आज यह हालत हो गई है कि जनता के बड़े हिस्से को सांस लेने के लिए शुद्ध वायु और पीने के लिए शुद्ध जल नसीब नहीं है।
वास्तव में पर्यावरण का प्रदूषण एक वैश्विक संकट है अत: इसका उपचार भी वैश्विक स्तर ही संभव है। अर्थात विश्व के सभी राष्ट्रों को मिलकर ही इस संदर्भ में कठोर निर्णय लेने होंगे। अमरीका और यूरोप के देशों में जिस विशाल स्तर पर औद्योगीकरण हुआ है उतना ही अधिक इन विकसित राष्ट्रों ने पर्यावरण को प्रदूषित किया है और कर रहे हैं। न्यायोचित बात तो यह है कि जिन राष्ट्रों ने पर्यावरण को जितना अधिक नुकसान पहुंचाया है/ पहुंचा रहे हैं वे इतनी ही अधिक इसकी जिम्मेदारी लें। परंतु औद्योगिकीकरण के बलबूते पर विकसित अमरीका और योरप के देश अपनी धौंस दिखाकर विकासशील राष्ट्रों को भी समानरूप से जिम्मेदारी लेने का दबाव डाल कर इस मामले को टालते जा रहे हैं। आज हालत कितनी संकटपूर्ण बन गई है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पर्यावरण विशेषज्ञ यह चेतावनी दे रहे हैं कि अगले कुछ दशकों में मानव का अस्तित्व ही समाप्त होने की संभावना है।
पर्यावरण एक विश्वव्यापी व्यवस्था है जो पृथ्वी के दो ध्रुवों पर जमी बर्फ की मोटी परत (आइस कैप), समुद्रों से जल का वाष्पीकरण, वायुमंडल और सूर्य किरणों से निर्धारित होती है। पर्यावरण में तेजी से बढ़ते प्रदूषण से इन प्राकृतिक अवयवों के आपसी तालमेल में जो गड़बड़ी आई है उसका परिणाम हम विश्व के बढ़ते तापमान के रूप में भुगत रहे हैं। विश्व में तापमान का लेखा जोखा रखने की प्रथा सन 1850 से प्रारंभ हुई। इसके अनुसार 2009 में समाप्त हुआ दशक अभी तक का सबसे गरम दशक रहा है।
बढ़ते तापमान का घातक परिणाम है कि पृथ्वी के ध्रुवों पर लाखों साल से जमी बर्फ की परत तेजी से पिघल रही है और समुद्रों में जल का स्तर ऊपर उठ रहा है जिससे धरती के हिस्से डूबते जा रहे हैं। मालदीप जैसे अनेक देश जो दो समुद्र के बीच टापुओं के समूह हैं, पूरे के पूरे डूब जाएंगे। हमारे स्थानीय संदर्भ में तापमान के बढऩे का दुष्परिणाम है कि हिमालय के ग्लेशियर, गंगोत्री और यमुनोत्री, जो गंगा और यमुना को जन्म देते हैं, तेजी से पिघल रहे हैं। (प्रतिवर्ष 20 मीटर की गति से) गंगा और यमुना प्रदूषित हो चुकी हैं। अब तो इनके सूखने का संकट हमें घूर रहा है। सोचिये क्या होगा उस विशाल जनता का जो गंगा और यमुना से जीवन यापन करती हैं।
ऐसे भयानक संकट से निपटने के लिए क्या किया जाए? उत्तर स्पष्ट है। नदियों के प्रदूषण को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने के साथ-साथ हमें ऊर्जा उत्पादन के वैकल्पिक साधनों का विस्तार करना होगा। सूर्य किरणों और वायु से विद्युत उत्पादन के तरीकों की खोज कर ली गई है और इनसे पर्यावरण का प्रदूषण भी नहीं होता है फिर भी आजतक विद्युत उत्पादन के इन वैकल्पिक साधनों में भारत की क्षमता का सिर्फ 6 प्रतिशत ही कार्यान्वित किया गया। शेष विश्व में भी हालत कुछ ऐसी ही है।
पर्यावरण के प्रदूषण से आहत प्रकृति ने मौसम के चक्र को छिन्न- भिन्न करके आसन्न संकट का स्पष्ट संकेत दे दिया है। अपने देश ने ही अधिकांश क्षेत्र में सूखे के साथ-साथ कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और असम में भीषण बाढ़ की आपदा को देखा है। ऐसा ही दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका योरप और दक्षिण अमरीका के अनेक देशों को झेलना पड़ा है। आस्ट्रेलिया और उत्तरी अमरीका के विस्तृत वनक्षेत्र दावानल से भस्म हो गए हैं। इस प्रकार की आपदाओं में साल- दर -साल तेजी से वृद्धि होती जा रही है।
कोपनहेगन में इसी माह समाप्त हुए पर्यावरण संबंधी विश्व सम्मेलन के बारे में तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। विश्व के 192 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के कोपनहेगन में जुटने के बावजूद भी कोई सर्वमान्य समयबद्ध कार्यक्रम पर समझौता नहीं हो पाने से यही सिद्ध होता है कि विश्व में किसी भी देश के नेताओं ने इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया है।
सब कुछ जानते हुए भी इस भयावह स्थिति से निपटने के लिए कुछ होता क्यों नहीं दिखता? कारण है राजनैतिक इच्छा- शक्ति की कमी। राजनैतिक इच्छा- शक्ति को जगाने का एकमात्र साधन है जनता द्वारा दबाव बनाना। समय आ गया है कि जनता इस संबंध में उचित कदम उठाए। क्योंकि पृथ्वी हमारी मां है। मां का दूध तो पिया जाता है लेकिन मां का खून नहीं पिया जाता!

- रत्ना वर्मा

1 comment:

Anonymous said...

जलसमस्या आज विकराल रुप धारण करने के कगार पर है । यदि हम अब भी नही चेते तो बडी देर हो जायेगी । केवल सरकार को को ही नही हमे भी इस ओर कडे कदम उठाने होंगे। रत्ना जी बहुत ही विचारोत्तेजक लेख के लिय आभार!