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Oct 24, 2009

उदंती.com, अक्टूबर 2009

वर्ष 2, अंक 3, अक्टूबर 2009
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अपने खर्च को आमदनी से हमेशा कम रखो। सुखी और अमीर बनने का एक यही सबसे अच्छा तरीका है। - गेटे
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अनकही: तमसो मा ज्योर्तिगमय...
सुरक्षा नीति: हाय तौबा क्यों? - संजीव खुदशाह
शोध: 60 के पार चुस्त-दुरुस्त रहना हो...- नरेन्द्र देवांगन
कला: मिट्टी की महक से रोशन करें घर- आंगन - सुकांत दास
लोक परंपरा: तरी नरी नहाना री नहना रे ... - उदंती फीचर्स
आत्मकथा: सबके दाता राम - मोहन दास करमचंद गांधी 
यक्ष- प्रश्न: चहकना क्यों भूल गए बच्चे - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
समाज:समय की धूरी पर घूमता चाक - गोपाल सिंह चौहान
पलायन: आसमान की तरफ रह- रह अंख- भर ...-जोफीन टी. इब्राहिम
लघुकथा:कानून के दरवाजे पर- फ्रांज काफ्का
रहस्य: वह आंसू नहीं खून बहाता है/कुल देवता की पूजा का पर्व मातर      
मंजिल: आपका नंबर भी आयेगा - डॉ. मधुसूदन पुरोहित 
पर्यावरण: दीपदान  की परंपरा/ गर्म होती धरती और ...
अभियान/ मुझे भी आता है गुस्साः अपनी सोच बदल डालिए- सुमन परगनिहा
कविताः दिये की लौ बढ़ाओ - डॉ. रत्ना वर्मा 
 तुम ऐसे क्यों आईं लक्ष्मी - प्रेम जनमेजय



अनकही

तमसो मा ज्योर्तिगमय...
कमरतोड़ मंहगाई, सूखा और अब सैकड़ों की जान लेकर लाखों को बेघर बनाने वाली अनावृष्टि और बाढ़ जैसी आपदाओं और नक्सलवादी बर्बरता से उपजे निराशा और अवसाद का वातावरण देश पर लंबे समय से एक भयावह काली रात की तरह छाया हुआ है। जनमानस की चाहत है कि यह दीपावली आशा और विश्वास के प्रेरणा दायक दीपकों के प्रकाश से इस त्रासद काली रात से मुक्ति दिलाये।
ऐसे में हमने कुछ ऐसे प्रेरणादायक दीपक चुने हैं जो हमारे मन से निराशा और अवसाद के अंधेरे को मिटा कर मानव मन को प्रेरणा और उत्साह से पल्लवित कर उल्लास की किरणों से जगमगा सकते हैं।
प्रथम प्रेरणादायक प्रकाश स्तंभ है भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकटरमन रामकृष्णन जिन्हें इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार, रसायन शास्त्र में शोध के लिए दो अन्य प्रोफेसरों के साथ मिला है। भारतीय मेधा के इस जगमगाते सितारे का जन्म तो तमिलनाडू में हुआ परंतु प्रारंभ से कालेज तक की शिक्षा गुजरात में हुई। इन्हें प्यार से सब लोग वेन्की कहते हैं। वेन्की के विलक्षण प्रतिभा के धनी होने का प्रमाण इसी से मिलता है कि मेडिकल कालेज में दाखिले के लिए चुन लिए जाने के बावजूद उन्होंने बी.एस.सी (हानर्स) भौतिक शास्त्र तथा एम.एस.सी. और पी.एच.डी. भी उसी विषय में करने के बाद शोध रसायन शास्त्र में किया। आजकल वेन्की कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी, इंग्लैंड में शोध कार्य में संलग्न हंै। इनकी शोध एंटीबायोटिक औषधियों को और अधिक प्रभावशाली बनाएगा जिससे लाखों मनुष्यों की प्राण रक्षा की जा सकेगी। प्रो. रामकृष्णन के जीवन का एकमात्र सरोकार है वैज्ञानिक अध्ययन और शोध। विश्व में भारतीय मेधा की पताका फहराने वाले इस प्रोफेसर का जीवन कितनी सादगी का है, इसका पता इसी तथ्य से लग जाएगा कि न तो इनके पास कार है न मोबाइल फोन। वेन्की घर से प्रयोगशाला तक साइकिल से आते जाते हैं। अमेरिका की नागरिकता ग्रहण कर चुके इस विश्वप्रसिद्ध बुद्धिजीवी का हृदय भारत में ही बसता है। वेन्की न सिर्फ अपने गुजराती मित्रों से संपर्क बनाए रखते हैं बल्कि इंडियन इंस्ट्यूट ऑफ साइंस बैंगलोर के फेलो बने रहते हुए वहां भाषण देने भी निरंतर आते रहते हैं। वेंकटरमण रामकृष्णन का जीवन और कृतित्व एक ओर तो इस तथ्य को रेखांकित करता हैं कि उचित सुविधाएं और माहौल दिए जाने पर हमारे वैज्ञानिक भारत में ही चमत्कारिक उपलब्धियों कर सकते हंै, साथ ही सादगी का नाटक करने वाले हमारे नेताओं को भी जीवन में वास्तविक सादगी का अर्थ और महत्व समझने में सहायक हो सकते है।
दूसरा प्रेरणादायक दीपक की भांति जगमगाता व्यक्तित्व है राजस्थान के मनीराम का, जो बचपन में ही पूर्णतया बहरे हो जाने के बावजूद अडिग लगन से अपने जीवन का उद्देश्य हासिल करने में सफल हुए। अलवर जिले के बदनगढ़ी गांव में निर्धन मजदूर और निरक्षर माता- पिता की संतान मनीराम के मन में कलेक्टर बनने का सपना था। घर से 5 किलोमीटर दूर पैदल चल कर पढऩे जाने वाले मनीराम के दोनों कान कम उम्र में ही रोगग्रस्त हो गए थे। निर्धन माता-पिता इलाज कराने में असमर्थ थे अत: एक वर्ष की अवस्था में ही मनीराम की दोनों कानों से  सुनने की शक्ति पूर्णतया समाप्त हो गई। फिर भी मनीराम मेहनत से पढ़ते रहे और राजस्थान के हाईस्कूल और इंटरमिडियट की परीक्षाओं में मेरिट लिस्ट में क्रमश: पांचवा और सातवां स्थान प्राप्त किया। इसके बाद सरकारी कार्यालय में क्लर्क की नौकरी करते हुए मनीराम ने एम.ए. राजनीति विज्ञान में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके बाद क्लर्की से इस्तीफा देकर विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए पीएच.डी. कर ली। इसी के साथ राजस्थान प्रादेशिक, प्रशासनिक सेवा में भी सफलता प्राप्त की।  प्रादेशिक प्रशासनिक सेवा में रहते हुए 1995 से आइ.ए.एस. की परीक्षा देने लगे। इस परीक्षा में वे 2005, 2006, 2009 में सफल भी हुए। पर 2006 में उन्हें बताया गया कि वे पूर्णतया बहरे हैं अत: उन्हें आइ.ए.एस. में नहीं लिया जा सकता, हां उन्हें डाक तार विभाग दिया जा सकता है। मनीराम को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने बिना हताश हुए डॉक्टरों से संपर्क किया और एक बड़े खर्चे पर अपने कानों का जटिल ऑपरेशन करवाया और अंतिम मौखिक परीक्षा में परीक्षकों के प्रश्न अपने कानों से सुनकर उनके संतोषजनक उत्तर दिए। इस प्रकार वे आइ.ए.एस. में नियुक्ति- पत्र पाने में सफल हुए। मनीराम का जीवन और उपलब्धि हमारे युवा वर्ग के लिए प्रेरणा है, कि लगन से मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
तीसरा है हर सुनने, पढऩे वाले के मन में दीपावली जैसा आल्हाद उत्पन्न करने वाला चमत्कार। जिससे एक बार फिर साबित होता है कि जाको राखे साइयां मारे सके ना कोय। 6-7 अक्टूबर को 32 वर्षीय गर्भवती रिकूं देवी राय अपने 2 वर्षीया पुत्री और पति के साथ टाटानगर से छपरा एक्सप्रेस में देर रात सवार हुई। आधी रात को रिंकू शौचालय के लिए गई। शौचालय की सीट पर बैठते ही रिंकू को प्रसव हो गया और शिशु मल विर्सजन के लिए बने छेद से टे्रन के पहियों के बीच कंकड़ों पर जा गिरा। इसी के साथ रिंकू के तन-मन में अदम्य ममता का ऐसा उफान उठा कि वह तेजी से शौचालय से बाहर निकली और बाहर कूद पड़ी। सहयात्रियों को लगा कि रिंकू ने आत्महत्या करने के लिए छलांग लगाई है। जंजीर खींचने पर टे्रन एक किलोमीटर आगे जाकर रूकी। जब यात्री टे्रन से उतरकर उसे ढूंढने निकले तो उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा कि रिंकू अपने नवजात पुत्र को आंचल में छुपाए बैठी है। इतना ही नहीं इस दुर्घटना के बावजूद नवजात और रिंकू पूर्णतया स्वस्थ हैं।
उपरोक्त कुछ उदाहरण हैं भारत माता की असीमित सृजन शक्ति के, जो वेंकटरमन रामकृष्णन और मनीराम जैसे मेधावी, अटूट लगन वाले तथा रिंकू और नवजात शिशु की अपराजय जिजीविषा वाली संतान पैदा करती है। हमें विश्वास है कि भारत माता अपने आशीर्वाद से हमें आपदाओं और संकटों से निपटने की शक्ति देती हुई
दीपावली को हर्ष और उल्लास से मनाने  में सक्षम बनाती रहेगी।
सभी पाठकों को दीपावली पर सुख,स्वास्थ्य और समृद्धि की शुभकामनाएं।
 - डॉ रत्ना वर्मा

हाय तौबा क्यों?

- संजीव खुदशाह
पंच हो, सरपंच हो, पार्षद हो, विधायक हो, या सांसद हो सभी की गाड़ी के नेम प्लेट पर ऐसा चिन्ह जरूर होगा। जो सुरक्षा जांच टीम पर भारी पड़ेगा और वह व्यक्ति जांच से बच जायेगा। जांच से बचा यानी इज्जत बच गई। सिर्फ इज्जत बची ही नहीं बल्कि इज्जत बढ़ भी जाती है ऐसे जांच से बचने से। देखिये कितनी काम की है ये जांच।
अमेरिकी हवाई अड्डा में  'माई नेम इज, शाहरूख खान' शाहरूख खान के ये स्टाईलिश बोल सुरक्षा हेतु लगे कम्प्यूटर को नागवार गुजरे और कम्प्युटर ने सुरक्षा अधिकरियों को गहन जांच के आदेश दे दिये लगभग दो घंटे तक शाहरूख खान को जांच हेतु रोके रखा बाद में पूरी संतुष्टि पश्चात छोड़ दिया। इस पर भारतीय मीडिया ने खूब हाय तौबा मचाई शाहरूख खान न हुए भारत के बादशाह हो गये। न्यूज चैनलों ने टी आर पी बढ़ाने का कोई भी मौका हाथ से जाने न दिया। शाहरूख की सुरक्षा जांच को भारत की बेइज्जत्ती के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। क्या भारत की इज्जत इतनी सस्ती है कि अभिनेता की सुरक्षा जांच से बेइज्जत हो जाये। जबकि गौरतलब है कि इससे पहले अमेरिका में जसवंत सिंह की जांच के दौरान कपड़े भी उतारे गये तथा कुछ दिन पूर्व पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम को भारत में ही अमेरिकी हवाई कम्पनी के सुरक्षा अधिकारियों ने आम आदमी की भांति रेगुलर जांच की। तब  शायद मीडिया की नींद नहीं खुली रही होगी। लेकिन बाद में कई बुद्धिजीवियों ने इन समस्त जांच पर खूब कड़ी आलोचना की तथा अमेरिका को जी भरकर कोसा भी। उनका मानना है कि वीआईपी की जांच उसकी इज्जत से खिलवाड़ है ये जांच नहीं होनी चाहिए। अमेरिका बार-बार ऐसा करके हमारी इज्जत से खिलवाड़ कर रहा है भारत को चाहिए की उसका विरोध करे।
दरअसल ऐसा सोचने वाले तथा हाय तौबा मचाने वाले लोग उसी पुरानी मानसिकता वाले लोग हैं जो वीआईपी को इन्सान, बाकी को जानवर समझते हैं। वीआईपी यानी पैसे वाला या हर वो आदमी जो आम आदमी नहीं है। भारत में हर व्यक्ति सुरक्षा या अन्य किसी भी प्रकार की जांच से बचना चाहते हैं। एक अदना से पुलिस के सिपाही को ही देख लीजिए उसकी छोटी सी मोटर सायकल में लिखा होता है बड़ा सा 'पुलिस' उद्देश्य एक मात्र सुरक्षा जांच (टे्रफिक जांच भी) से बचना। चाहे पंच हो, सरपंच हो, पार्षद हो, विधायक हो, या सांसद हो सभी की गाड़ी के नेम प्लेट पर ऐसा चिन्ह जरूर होगा। जो सुरक्षा जांच टीम पर भारी पड़ेगा और वह व्यक्ति जांच से बच जायेगा। जांच से बचा यानी इज्जत बच गई। सिर्फ इज्जत बची ही नहीं बल्कि इज्जत बढ़ भी जाती है ऐसे जांच से बच निकलने से। देखिये कितनी काम की है ये जांच। तभी तो सारे वीआईपी जेड सुरक्षा 1-4 के गार्ड की सुरक्षा लेने हेतु जुगत लगाते रहते हैं चाहे इसके लिए फर्जी फोन का सहारा ही क्यों न लेना पड़ जाये। आजकल इस फेहरिस्त में क्रिकेट खिलाड़ी, अभिनेता भी शामिल हो गये हैं। नेताओं का तो इसमें जन्मजात अधिकार था ही। फिर प्रश्न खड़ा होता है वह नेता, नेता ही कैसा जो आम आदमी से असुरक्षित है, वह खिलाड़ी सिर्फ खिलाड़ी तो नहीं है जिसे सुरक्षा चाहिए अभिनेता में क्या खोट है जो अपने चाहने वालों से असुरक्षित है।
भारत में बड़ी जबरदस्त परंपरा है जिसकी सुरक्षा में आदमी लगे हों उसकी सुरक्षा जांच नहीं होती। जब कोई हवाई जहाज से आये तो उसकी जांच नहीं होती। जब कोई ट्रेन के वातानुकूलित डिब्बे से उतरे तो उसकी जांच नहीं होती। अगर जांच की गई तो उस सुरक्षा अधिकारी की जांच चालू हो सकती है। हो सकता है बाद में उसके स्थानांतरण या निलंबन तक ये जांच चलती रहे। इससे अंदाज लग सकता है कि कितना निरंकुश है हमारा वीआईपी समाज इसी मानसिकता का फायदा आंतकवादियों को मिलता है यही कारण है कि अमेरिका में 9/11/2001 के बाद एक भी आतंकवादी हमले नहीं हुए। लेकिन भारत में पूरा कलेण्डर आतंकवादी हमलों से भरा हुआ है। आखिर क्यूं भारतीय वीआईपी सुरक्षा जांच का सामना करने से कतराता है क्या सिर्फ अहं के कारण। कितने ही आतंकवादी भारत में एक वीआईपी की तरह प्रवेश हो जाते हैं।
हाल ही में दिल्ली में हुए हमले के सभी आरोपी ट्रेन के वातानुकूलित डिब्बे में सफर करते हुए विस्फोटक सामग्री लेकर आये थे। जो वीआईपी सदृश्य होने के कारण जांच से बज गये। क्योंकि भारत में सब कुछ हो सकता है वीआईपी की जांच नहीं हो सकती यह बात देश के दुश्मन को अच्छी तरह मालूम है। क्योंकि इससे वीआईपी की इज्जत में बट्टा लग जाता है।
अभी वक्त अमेरिका पर उंगली उठाने का नहीं हैं। बल्कि उससे सीख लेने का है। यह गहन विचार का बिन्दु है कि ट्विन टावर हमले के बाद आज तक अमेरिका में कोई आतंकवादी हमला नहीं हो सका। उनकी सुरक्षा नीति से हमें सीख लेनी चाहिए।
अमेरिका आज विश्व में सर्वश्रेष्ठ है तो हमें भी अपनी आत्म- मुग्धता से बाहर आना चाहिए। उनके सर्वश्रेष्ठता के मापदण्ड को देख कर खुश होना चाहिए। जहां भारत में आम आदमी पर सारे नियम लागू होते हैं वही वीआईपी एवं पूंजीपतियों का बोल-बाला बढ़ रहा है। ऐसे में एक सरकारी ओहदेदार सरकारी खजाने को चट करने में लगा हुआ है। चाहे चारा घोटाला हो या स्टांप घोटाला या हवाला का मामला या फिर सरकारी सम्पतियों के दुरूपयोग का मामला हो। जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति को व्हाईट हाउस में रहने एवं अपनी निजी सेवाओं का खर्च स्वयं वहन करना पड़ता है। अमेरिका में सुरक्षा जांच को महत्व देना प्रतिष्ठित नागरिक गुण माना जाता है। अमेरिका की सुरक्षा नीति ऐसी है जिसमें मंत्री, नेता, अफसर, राष्ट्रपति, सेलिब्रेटी यहां तक की जज भी जांच के दायरे से बाहर नहीं है। वहां प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा जांच की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है। ताकि कोई भी आतंकवादी गतिविधियां न हो सके। ऐसी व्यवस्था से मजाल है कोई चिडिय़ा भी पर मार सके।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब भारत में आतंकवाद तथा नक्सलवाद सिर चढ़ कर बोल रहा है, हमारी सुरक्षा व्यवस्था बेमानी हो रही है, जो केवल आम आदमी को परेशान करने का सबब बन गई है। तो क्या भारत अमेरिका का विरोध करने में अपनी शक्ति जाया करेगा या उनकी लाजवाब सुरक्षा नीति से कुछ सीख लेने की चेष्टा भी करेगा।

पता- 39/350 गणेश नगर, भवानी टेन्ट हाउस के पीछे,बिलासपुर, छत्तीसगढ़, पिन-495004 मोबाईल 09827497173

60 के पार चुस्त-दुरुस्त रहना हो तो....

- नरेन्द्र देवांगन
वे घर पर पहले की अपेक्षा बेहतर जीवन बिता पा रहे हैं। मानसिक सक्रियता कुछ ऐसी बढिय़ा हो गई है कि वे अपने नाती-पोतों को उनकी छोटी- मोटी उलझनें दूर करने में थकान या परेशानी बिलकुल नहीं महसूस करते। बल्कि वे बड़े मज़े से इन बच्चों को उनके सवालों का हल ढूंढने अथवा शब्दकोश में से शब्दार्थ ढूंढ निकालने में मदद कर सकते हैं।
बढ़ती उम्र का सबसे डरावना लक्षण होता है दिमागी हालत का बिगडऩा। लेकिन यह समस्या या ऐसे लक्षण उन लोगों के पास फटकते भी नहीं जो अपने दिमाग को हमेशा सक्रिय रखते हैं। यह केवल कपोल कल्पना नहीं बल्कि अनुसंधान द्वारा प्रमाणित सत्य है। अध्ययन बताते हैं कि दिमागी कसरतें जारी रखी जाए तो इसका जादुई सकारात्मक असर स्मरण शक्ति पर, तर्क करने की क्षमता पर और जटिल से जटिल विषयों को समझने के मामले में दिखाई देता है। अब तक के ऐसे सबसे बड़े अध्ययन में 65 वर्ष से ऊपर के 2800 बुजुर्गों को शामिल किया गया था। सभी स्वस्थ मानसिक स्थिति वाले थे। कुछ व्यक्ति तो 94 वर्ष से भी ऊपर के थे। पांच सप्ताह तक कंप्यूटर और पेपर-पेंसिल की मदद से इनको एक तरह का प्रशिक्षण दिया गया था और इसके बाद निहायत आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए। इन बुजुर्गों की मानसिक क्षमता तो बढ़ी ही, साथ ही ऐसा महसूस होने लगा मानो इनकी उम्र 7 से 14 वर्ष तक कम हो गई हो। इस तरह के प्रयोग के दौरान यह पाया गया कि ये बुजुर्ग लोग बड़ी जल्दी ही बात को समझकर उस पर अपना मत व्यक्त करने लगे, टेलीफोन बुक में से बहुत जल्दी ही फोन नंबर ढूंढ लेते थे। आसपास की घटनाओं और सूचनाओं को भी बहुत अच्छी तरह और तेज़ी से ध्यान में लेने लगे थे। कुछ अन्य प्रयोगों में यह भी देखा गया कि उम्रदराज़ लोगों की गाड़ी चलाने की क्षमता भी विकसित हुई। प्रशिक्षणों में शामिल बुजुर्ग स्त्री-पुरूषों ने यह स्वीकार किया है कि उनकी मानसिक स्थिति काफी चुस्त-दुरुस्त हुई है। कुछ का कहना है कि वे अब बेहतर तरीके से गाड़ी चलाने लगे हैं जबकि कुछ लोगों ने बताया कि वे घर पर पहले की अपेक्षा बेहतर जीवन बिता पा रहे हैं। मानसिक सक्रियता कुछ ऐसी बढिय़ा हो गई है कि वे अपने नाती-पोतों को उनकी छोटी- मोटी उलझनें दूर करने में थकान या परेशानी बिलकुल नहीं महसूस करते। बल्कि वे बड़े मज़े से इन बच्चों को उनके सवालों का हल ढूंढने अथवा शब्दकोश में से शब्दार्थ ढूंढ निकालने में मदद कर सकते हैं। हालांकि वैज्ञानिक और डॉक्टर्स कहते हैं कि इस तथ्य के प्रमाणीकरण के लिए पर्याप्त सबूत उपलब्ध नहीं हैं कि केवल एक विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण मानसिक अवस्था में सकारात्मक परिवर्तन लाता है लेकिन वे यह ज़रूर मानते हैं कि बुज़ुर्ग लोग ही नहीं बल्कि कोई भी पहेलियां बूझने वाले खेलों से, ताश के ब्रिज जैसे खेलों से, किसी नए विषय को सीखने की रुचि से अपने दिमाग की क्षमता का विस्तार कर सकता है। साथ ही यह भी माना जा रहा है कि इस तरह की दिमागी कसरतों के ज़रिए हर व्यक्ति का जीवन बेहतर बनाया जा सकता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि दिमाग को सक्रिय रखना, इससे काम लेते रहना ही इसके लिए बेहतरीन कसरत साबित होती है। इस तरह की कसरत नियमित रूप से करनी चाहिए।
प्रमाण ऐसे भी मिले हैं कि वृद्धावस्था में भी दिमाग लचीला ही रहता है बशर्ते कि उसका भरपूर उपयोग किया जाए। बढ़ती उम्र में दिमागी हालत के बिगडऩे अथवा दिमागी बीमारियों का शिकार होने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह रहता है कि इसका पर्याप्त रूप से इस्तेमाल नहीं किया जाता। बढ़ती उम्र में दिमाग की कोशिकाएं अगर नष्ट होती हैं तो नई कोशिकाएं बनती भी हैं। और इस प्रक्रियाको और तेज़ किया जा सकता है। इसके लिए दिमागी कसरतों के साथ-साथ शारीरिक कसरत भी नियमित रूप से करने की ज़रूरत होती है। पोषक आहार भी इस प्रक्रिया को सुदृढ़ करने में मददगार साबित होता है। एंटीऑक्सीडेंट्स और कई विटामिनों से युक्त फलों एवं सब्जिय़ों का सेवन बेहतर परिणाम देता है। तनाव से दूर रहना, अच्छी नींद लेना, सामाजिक सक्रियता बनाए रखना वगैरह कुछ ऐसी बातें हैं जो वृद्धावस्था में भी आपको शारीरिक व मानसिक रूप से खूब तन्दुरुस्त रख सकती हैं। उच्च रक्तचाप और मधुमेह (डायबिटीज़) जैसी बीमारियों का तुरंत व समुचित इलाज करवाकर दिमाग को इनके दुष्प्रभावों से बचाया जा सकता है। प्राय: यह देखा गया है कि 60 से 70 की उम्र के आसपास दिमाग की हालत कमज़ोर होने लगती है। लेकिन अगर उपरोक्त बातों का ध्यान रखा जाए तो ऐसी शिकायतों से बचे रहना सभी के लिए संभव है। इस गलतफहमी से मुक्त हो जाएं कि बढ़ती उम्र दिमाग खराब करती है। तात्पर्य यह है कि दिमागी हालत को चुस्त-दुरुस्त रखना है तो दिमाग का जमकर इस्तेमाल करें। तभी यह सक्रिय रहेगा वरना निष्क्रिय हो सकता। (सोत फीचर्स)
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मिट्टी की महक से रोशन करें घर- आंगन


- सुकांत दास
घर में समृद्धता के लिए गांव के देव स्थलों, घर के पूजा स्थल, भंडार, रसोई और जैसे पवित्र स्थानों पर मिट्टी के दीये जलाकर सुख समृद्धि की कामना आज भी की जाती है और मिट्टी के दिए जलाना शुभ माना जाता है। परंतु दीपावली के हमारे प्रमुख पर्व जिसमें चहुं ओर सिर्फ मिट्टी के दीये ही जलाए जाते थे वहां एक- दो दीपक अंधेरे में झिलमिलाते नजर आते हैं। शहरों की तो बात ही निराली है वहां बिजली के झालरों और मोमबत्तियों ने मिट्टी के दीपक के महत्ता ही खत्म कर दी है।
आज स्थिति यह है कि मिट्टी के बर्तनों को प्लास्टिक के बने सामानों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। जिन स्थानों पर मिट्टी के बर्तन उपयोग में लाए जाते थे, आज वहां प्लास्टिक के बर्तन उपयोग हो रहे हैं। मिट्टी के बर्तन में सबसे अधिक उपयोग चाय पीने के लिए और शादी विवाह जैसे कार्यों में पानी पीने के लिए कुल्हड़ का ही अब तक प्रयोग होता चला आया था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पानी और चाय पीने के लिए प्लास्टिक के गिलासों के चलन ने इस व्यवसाय को बिल्कुल नष्ट सा कर दिया है। तात्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद प्रसाद यादव ने जब रेलवे स्टेशनों पर मिट्टी के कुल्हड़ में चाय बेचने की घोषणा की थी तब कुम्हारों को एक बल मिला था कि हाथ से खिसकता पैतृक व्यवसाय बचा रहेगा। लेकिन उनका आदेश मात्र छलावा ही बन कर रह गया।
ऐसा नहीं है कि कुम्हार अपने जीवन के लिए संघर्ष नहीं कर रहा है, जमाने के साथ वह भी अपने व्यवसाय को आधुनिक बना रहा है और लोगों की रुचि को देखते हुए पारंपरिक दीये के साथ- साथ विभिन्न डिजाइनों के दिये खूबसूरत दिये बनाकर ग्राहकों को अपनी ओर लुभाने की कोशिश कर रहा है। जब उन्होंने देखा कि समय बदल रहा है और मंहगे होते तेल की कीमतों के कारण दिये में तेल डालकर रौशनी करना संभव नहीं रह गया है तो उन्होंने भी बाजार की नब्ज को समझा और अपनी कला को परंपरा से जोड़े रखने के लिए खूबसूरत नक्काशीदार कैंडल स्टेंड का निर्माण करना आरंभ कर दिया, ताकि लोग इन मिट्टी के कैंडल स्टैंड में मोमबत्ती लगाकर अपनी दीवाली को रोशन करें। बस्तर के कारीगर जो मिट्टी में कलाकारी करने के लिए जग- प्रसिद्ध हैं आजकल नए प्रयोग के साथ अपनी कला और व्यवसाय दोनों को जिंदा रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं। काफी हद तक उन्हें सफलता भी मिली है। बस जरुरत प्रोत्साहन और अच्छा बाजार देने की है। अफसोस तो तब होता है जब उनकी कला को मिट्टी है कहकर मिट्टी के मोल की तरह आंका जाता है।
भला इतने खूबसूरत नक्काशीदार दीयों को देखकर किसका मन नहीं ललचायेगा कि वे अपने घर को मिट्टी की महक के साथ सजाएं और रोशन करें। तो  आइए आधुनिकताऔर परंपरा को एक साथ मिलाकर इस दीपावली पर सुख समृद्धि की कामना करें।

लोक- संस्कृति


तरी नरी नहाना री नहना रे सुआ ना
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली के समय घर- घर जा कर नृत्य करते हुए सुआ गीत गाने की लोक- परंपरा है। इसमें महिलाएं गोल घेरा बनाकर खड़ी हो जाती है और संवाद, सवाल-जवाब शैली में दो दल में विभक्त हो ताली बजा कर सुआ गीत  गाती है। घेरे के बीच में बांस की टोकनी में धान भर कर प्रतीक के रूप में सुआ अर्थात मिट्टी से बने दो तोते (मिट्ठू) रखती हैं। ये सुए शिव और पार्वती के प्रतीक माने जाते है। सुआ गीतों में वे नारी मन की व्यथा को अभिव्यक्त करती हैं-
तिरिया जनम झन देव
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर
रे सुअना, तिरिया जनम झन देव
बिनती करंव मय चन्दा सुरुज के
रे सुअना, तिरिया जनम झन देव
चोंच तो दिखत हवय लाले ला कुदंरु
रे सुअना, आंखी मसूर कस दार...
सास मोला मारय, ननद गारी देवय
रे सुअना, मोर पिया गिये परदेस
तरी नरी नहना मोर नहना री ....
रे सुअना, तिरिया जनम झन देव....
इस गीत के माध्यम से वह चांद सूरज से विनती करती है कि अगले जनम में वह स्त्री बनकर जनम नहीं लेना चाहती, उसका प्रिय परदेश चला गया है। प्रिय के परदेश जाने के बाद सास उसे मारती है, ननद गाली देती है। इस तरह की जिन्दगी से वह तंग आ गई  है इसलिए अब वह नारी का जन्म नहीं लेना चाहती।
सुआ गीत मूलत: गोंड आदिवासी नारियों का नृत्य गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियां ही गाती हैं। यह गीत महिलाएं एवं लड़कियां दीपावली के पूर्व से लेकर देवोत्थान एकादशी तक घर- घर जा कर गाती हैं।  सुवा गीत गाने की यह अवधि धान के फसल के खलिहानों में आ जाने से लेकर उन्हारी फसलों के परिपक्वता के बीच का ऐसा समय होता है जहां कृषि कार्य से कृषि प्रधान प्रदेश की जनता को किंचित विश्राम मिलता है।
भारतीय परम्परा व संस्कृत- हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में जिस प्रकार कबूतर का महत्वपूर्ण स्थान रहा है उसी तरह छत्तीसगढ़ में शुक का स्थान  है।  बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने के कारण शुक यहां की नारियों का भी प्रिय पक्षी है। तभी तो वे इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने दिल की बात बताती हैं।
'तरी नरी नहा ना री
नहना रे सुवा ना,
कहि आते पिया ला संदेस'
कहकर वियोगिनी नारी यह संतोष करती है कि उनका संदेसा उनके पति, उनके प्रेमी तक पहुंच रहा है।
नृत्य और गीत के समाप्ति पर  तब घर- मालकिन रूपया-पैसा अथवा चावल, दाल आदि भेंट स्वरुप देकर विदा करती है। जाते जाते वे परिवार वालों को धन्य धान्य से भरा- पूरा रहने का आशीर्वाद देती हैं। इसे भी वे गीत के माध्यम से व्यक्त करती है-
जइसे ओ मइया लिहे दिहे
आना रे सुअना।
तइसे तैं लेइले असीस
अन धन लक्ष्मी म तोरे घर भरै रे सुअना।
जिये जग लाख बरीस...।
(उदंती फीचर्स)

Oct 22, 2009

अहमदाबाद में बसने का निर्णय

सबके दाता राम
- मोहन दास करमचंद गांधी
यदि मुझे मात्र सिद्धांतों अर्थात तत्वों का ही वर्णन करना हो तो फिर आत्मकथा लिखने की कोई आवश्यकता ही नहीं। पर मैं तो अपने द्वारा निकाले गये निष्कर्षों के इतिहास से जनसामान्य को अवगत कराना चाहता हूं, इसलिए मैंने अपने इन प्रयोगों का नामकरण किया है- 'सत्य के प्रयोग'। इसमें सत्य के पृथक समझे जाने वाले अहिंसा, ब्रह्मचर्य जैसे तत्व भी स्वत: ही समाहित माने जाएंगे। पर मेरे विचार से सत्य ही सर्वोपरि है और उसमें अनेक वस्तुएं समा सकती हैं। परंतु यह सत्य उस स्थूल वाणी का सत्य नहीं है। यह तो जिस तरह वाणी का है, उसी तरह विचारों का भी है। यह सत्य हमारा कल्पना किया गया सत्य नहीं है, बल्कि यह तो चिरस्थायी सत्य है, अर्थात ईश्वर ही है।
आश्रम की स्थापना
कुंभ की यात्रा मेरी हरद्वार की दूसरी यात्रा थी। 1915 ई. की 25 मई को सत्याग्रहाश्रम की स्थापना हुई। श्रद्धानंदजी चाहते थे कि मैं हरद्वार में बसूं। कलकत्ते के कुछ मित्रों का कहना था कि वैद्यनाथ  में बंसू। कुछ मित्रों का प्रबल आग्रह राजकोट में बसने का था।
पर जब मैं अहमदाबाद से गुजरा तो अनेक मित्रों ने अहमदाबाद में ही बसने पर जोर दिया और आश्रम के खर्च का बीड़ा उन्होंने उठाने का जिम्मा लिया। मकान ढूंढने का भार भी उन्होंने उठा लिया।
अहमदाबाद पर मेरी दृष्टि पहले से गड़ी थी। मैं जानता था कि मैं गुजराती हूं, इससे गुजराती भाषा के द्वारा देश की अधिक-से अधिक सेवा कर सकूंगा। यह भी था कि अहमदाबाद पहले हाथ की बुनाई का केंद्र रहा है, इससे चरखे का काम यहीं ज्यादा अच्छी तरह हो सकेगा। यह भी आशा थी कि गुजरात का प्रधान नगर होने के कारण यहां के धनी लोग धन की अधिक सहायता कर सकेंगे।
अहमदाबाद के मित्रों के साथ हुई बातचीत में अस्पृश्यता के प्रश्न की चर्चा हुई थीं। मैंने साफ कह दिया था कि कोई लायक अंत्यज भाई आश्रम में दाखिल होना चाहेगा तो मैं उसे अवश्य दाखिल कर लूंगा।
'आपकी शर्तों को पाल सकने वाले अंत्यज कहां पड़े मिलते हैं?' यों कहकर एक वैष्णव मित्र ने अपने मन को संतोष कर लिया और अंत में अहमदाबाद में बसने का निश्चय हो गया।
मकान की खोज करते हुए कोचरव में श्री जीवनलाल बरिस्टर जो मुझे अहमदाबाद बसाने में प्रमुख थे, का मकान किराये पर लेना तय हुआ। यह प्रश्न तुरंत उठा कि आश्रम का नाम क्या रखा जाय। मित्रों से विचार- विमर्श किया। कितने ही नाम सामने आये। सेवाश्रम, तपोवन आदि सुझाये गए थे। सेवाश्रम नाम जंच रहा था, पर उसमें सेवा की रीति का परिचय नहीं मिलता था। तपोवन नाम पसंद नहीं किया जा सकता था, क्योंकि यद्यपि तपश्चर्या हमें प्रिय थी, फिर भी यह नाम भारी लगा। हमें तो सत्य की पूजा, सत्य की खोज करनी थी, उसी का आग्रह रखना था और दक्षिण अफ्रीका में जिस पद्धति को मैंने अपनाया था। भारतवर्ष में उसका परिचय कराना था। और शक्ति कितनी व्यापक हो सकती है, यह देखना था। इससे मैंने और साथियों ने सत्याग्रहाश्रम नाम पसंद किया। उससे सेवा और सेवा की पद्धति दोनों का भाव अपने-आप जाता था।
आश्रम चलाने को नियमावली की आवश्यकता थी। इससे नियमावली का मसविदा बनाकर उस पर राय मांगी। बहुसंख्यक सम्पतियों में से सर गुरुदास बनर्जी की सम्मति मुझे याद रह गई है। उन्हें नियमावली पसंद आई, पर उन्होंने सुझाव दिया कि व्रतों में ये नम्रता की कमी है। यद्यपि नम्रता के अभाव का अनुभव मुझे जगह-जगह हो रहा था, फिर भी नम्रता को व्रत में स्थान देने से नम्रता के नम्रता न रह जाने का आभास होता था। नम्रता का पूरा तात्पर्य तो शून्यता की प्राप्ति के लिए दूसरे व्रत करने होते हैं। शून्यता मोक्ष की स्थिति है। मुमुक्ष या सेवक के प्रत्येक कार्य में यदि नम्रता, निरभिमानता न हो तो यह मुमुक्ष नहीं है, सेवक नहीं है। वह स्वार्थी है, अहंकारी है। बालक आये थे। वे और यहां के लगभग पच्चीस स्त्री पुरुषों से आश्रम का शुभारंभ हुआ था। सब एक रसोई में भोजन करते थे और इस तरह रहने की कोशिश करते थे मानो सब एक ही कुटुम्ब के हों।
कसौटी पर चढ़े
आश्रम की स्थापना को अभी कुछ ही महीने हुए थे, इतने में हमारी ऐसी अग्नि-परीक्षा हो गई जिसकी मुझे कभी आशंका नहीं थी। भाई अमृतलाल ठक्कर का पत्र आया, 'एक गरीब और ईमानदार अंत्यज कुटुम्ब है। वह आपके आश्रम में आकर रहना चाहता है। उसे लेंगे?'
मैं चौंका तो जरूर। ठक्कर बापा जैसे पुरुष की सिफारिश लेकर आने वाला अंत्यज कुटुम्ब इतना शीघ्र आयेगा, इसकी मुझे बिल्कुल उम्मीद न थी। साथियों को चिट्ठी दिखाई। उन्होंने उसका स्वागत किया। भाई अमृतलाल ठक्कर को लिख दिया कि वह कुटुम्ब आश्रम में नियमों का पालन करने को तैयार हो तो उसे लेने को हम तैयार हैं।
दूदाभाई, उनकी पत्नी, दानी बहन और बैयां-बैयां चलती दूध पीती लक्ष्मी आये। दूदाभाई बम्बई में शिक्षक का काम करते थे। नियमों का पालन करने को तैयार थे। उन्हें आश्रम में लिया।
सहायक मित्र मंडल में खलबली मच गई। जिस कुएं में बंगले के मालिक का हिस्सा था, उस कुएं के पानी भरने में ही अड़चन आने लगी। चरस वाले पर हमारे पानी के छींटे पड़ जाए तो वह अपवित्र हो जाए। उसने गालियां देना और दूदाभाई को परेशान करना शुरु कर दिया। मैंने सबसे कह दिया कि गालियां सहते जाओ और दृढ़तापूर्वक पानी भरते जाओ। हमें चुपचाप गालियां सुनते देखकर चरस वाले को शर्म आई और उसने गालियां बंद कर दीं, पर पैसे की मदद तो बंद हो गई। जिस भाई ने आश्रम के नियमों का पालन करने वाले अंत्यजों के प्रवेश के संबंध में पहले से ही संदेह जताया था, उसे तो आश्रम में अंत्यज के दाखिल होने की उम्मीद ही न थी। पैसे की मदद बंद हुई। बहिष्कार की अफवाहें मेरे कानों में पडऩे लगीं। मैंने साथियों के साथ विचार कर कहा था - 'यदि हमारा बहिष्कार हो और हमें कहीं से सहायता न मिले तो भी अब हम अहमदाबाद न छोड़ेंगे। भंगी टोले में जाकर उन्हीं के साथ रहेंगे और जो कुछ मिलता रहेगा उस पर या मजदूरी करके गुजर करेंगे।'
अंत में मगनलाल ने मुझे नोटिस दिया - 'अगले महीने में हमारे पास आश्रम का खर्च चलाने को रूपए नहीं है।' मैंने धीरज से जवाब दिया। 'तो हम भंगी टोले में चलकर रहेंगे।' मुझ पर ऐसा संकट आने का यह पहला अवसर न था। हर बार आखिरी घड़ी में 'सबके दाता राम' ने सहायता कर दी थी।
मगनलाल को नोटिस देने के कुछ ही दिन बाद एक दिन सवेरे किसी लड़के ने आकर बताया, 'बाहर मोटर खड़ी है और सेठ आपको बुला रहे हैं।' मैं मोटर के नजदीक गया। सेठ ने मुझसे पूछा- 'मेरी इच्छा आश्रम को कुछ मदद देने की है, आप स्वीकार करेंगे?'
मैंने जवाब दिया- 'कुछ दीजिएगा तो जरूर लूंगा। मुझे उसे स्वीकार करना चाहिए क्योंकि इस समय मैं संकट में भी हूं।'
'मैं कल इसी समय आऊंगा, उस वक्त आप आश्रम में होंगे?' मैंने जवाब में हां कहा और सेठ चले गये। दूसरे दिन नियत समय पर मोटर का भोंपू बजा। लड़कों ने खबर दी। सेठजी अंदर नहीं आये। मैं मिलने गया। वह मेरे हाथ पर 1300 रुपए रखकर चलते बने।
मैंने इस मदद की कभी उम्मीद नहीं थी। मदद करने का यह तरीका भी मेरे लिए नया था। उन्होंने आश्रम में पहले कभी कदम नहीं रखा था। मुझे याद आता है कि उनसे मैं एक बार ही मिला था। न आश्रम में आना, न कुछ पूछना, बाहर ही बाहर पैसे देकर चलते बनना, मेरा यह पहला ही अनुभव था। इस सहायता से भंगी टोले में जाने की नौबत नहीं आई। लगभग एक साल का खर्चा मुझे मिल गया।
जैसे बाहर खलबली मची वैसे ही आश्रम में भी मची। यद्यपि दक्षिण अफ्रीका में मेरे यहां अंत्यज आदि आते रहते, खाते थे, पर यहां अंत्यज-कुटुम्ब का आना पत्नी को और आश्रम की दूसरी स्त्रियों को पसंद आया हो, यह नहीं कहा जा सकता। दानी बहन के प्रति नफरत तो नहीं, पर उसके प्रति उदासीनता की बात मेरी सूक्ष्म आंखे देख लेतीं और तेज कान सुन लेते थे। पैसे की मदद बंद हो जाने के भय ने मुझे तनिक भी चिंता में नहीं डाला था। पर यह भीतर के क्षोभ का सामना करना कठिन लगा। दानी बहन उनका धीरज मुझे अच्छा लगा। उन्हें कभी-कभी क्रोध आता था, पर कुल मिलाकर  उनकी सहन-शक्ति की मुझ पर अच्छी छाप पड़ी थी और वह समझ जाते थे और दानी बहन से सहन करवाते थे।
इस कुटुम्ब को आश्रम में रखने को बहुत से सबक मिले हैं, और अस्पृश्यता की आश्रम में गुंजाइश नहीं है, यह शुरु में ही स्पष्ट हो जाने से आश्रम की मर्यादा निश्चित हो गई तथा इस दिशा में उसका काम बहुत सरल हो गया। यह होते हुए भी और आश्रम को उसका खर्च बढ़ते जाते हुए भी, वह मुख्यत: कट्टर समझे जाने वाले हिन्दुओं की ओर से ही मिलता आया है। यह शायद इस बात की स्पष्ट सूचना है कि अस्पृश्यता की जड़ अच्छी तरह हिल गई है। इसके और प्रमाण तो बहुत हैं ही पर अंत्यज के साथ जहां रोटी तक का व्यवहार रखा जाता हो, वहां भी अपने को सनातनी मनाने वाले हिन्दू मदद दें, यह कोई छोटा प्रमाण नहीं माना जायेगा।
इसी मसले को लेकर आश्रम में हुए एक और सफाई, उसके बारे में उठे हुए नाजुक सवालों का निर्णय, कुछ अकल्पिक अड़चनों का स्वागत करना इत्यादि सत्य की खोज के सिलसिले में हुए प्रयोगों का वर्णन प्रस्तुत होने पर भी मुझे छोड़ देना पड़ रहा है, इसका मुझे दु:ख है। पर अब आगे के प्रकरणों में यह त्रुटि तो रहा ही करेगी। आवश्यक तथ्य मुझे छोडऩे पड़ेगे, क्योंकि उनमें हिस्सा लेने वाले पात्रों में से बहुतेरे आज मौजूद हैं और रजामंदी के बिना, उनके नामों का और उनके साथ घटित प्रसंगों का स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग करना अनुचित जान पड़ता है। सबकी सम्मति समय-समय पर मंगवाना और उनसे संबंध रखने वाली बातों को उनके पास भेजकर सुधरवाना, यह हो सकने वाली बात नहीं है और यह आत्मकथा की मर्यादा के बाहर की बात है। इससे आगे की कथा, यद्यपि मेरी दृष्टि से सत्य के शोध के लिए जानने लायक है, फिर भी मुझे भय है कि अधूरी दी जाया करेगी। इतने पर भी असहयोग के युग तक ईश्वर पहुंचने दे तो पहुंच जाऊं, यह मेरी कामना और आशा है। (आत्मकथा  'सत्य के प्रयोग' से) 

चहकना क्यों भूल गए बच्चे

- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
छात्रों पर बढ़ता निरन्तर पढ़ाई का दबाव, अच्छा  परीक्षा- परिणाम देने की गलाकाट प्रतियोगिता कहीं उनका बचपन, उनका सहज जीवन तो नहीं छीन ले रही है? घर, विद्यालय, कोचिंग सेण्टर सब मिलकर एक दमघोंटू वातावरण का सर्जन कर रहे हैं।
आज का दौर तरह- तरह  के तनाव को जन्म देने वाला है, घर-परिवार, कार्यालय, सामाजिक परिवेश का वातावरण निरन्तर जटिल एवं तनावपूर्ण होता जा रहा है,  इसका सबसे पहले शिकार बनते हैं निरीह बच्चे। घर हो या स्कूल, बच्चे समझ ही नहीं पाते कि आखिरकार उन्हें माता- पिता या शिक्षकों के मानसिक तनाव का दण्ड क्यों भुगतना पड़ता है। घर में अपने पति /पत्नी या बच्चों से परेशान शिक्षक छात्रों पर गुस्सा निकालकर पूरे वातावरण को असहज एवं दूषित कर देते हैं। विद्यालय से लौटकर घर जाने पर फिर घर को भी नरक में तब्दील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। यह प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण छात्रों के मन पर गहरा घाव छोड़ जाता है। कोरे ज्ञान की तलवार बच्चों को काट सकती है, उन्हें संवेदनशील इंसान नहीं बना सकती है। शिक्षक की नौकरी किसी जुझारू पुलिस वाले की नौकरी नहीं है, जिसे डाकू या चोरों से दो- चार होना पड़ता है। शिक्षक का व्यवसाय बहुत जि़म्मेदार, संवेदनशील, सहज जीवन जीने वाले व्यक्ति का कार्य है, मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति का कार्यक्षेत्र नहीं है। आज नहीं तो कल ऐसे दायित्वहीन, असंवेदनशील लोगों को इस क्षेत्र से हटना पड़ेगा या हटाना पड़ेगा। प्रशासन को भी यह देखना होगा कि कहीं इस तनाव के निर्माण में उसकी कोई भूमिका तो नहीं है ?
छात्रों पर बढ़ता निरन्तर पढ़ाई का दबाव, अच्छा  परीक्षा- परिणाम देने की गलाकाट प्रतियोगिता कहीं उनका बचपन, उनका सहज जीवन तो नहीं छीन ले रही है? घर, विद्यालय, कोचिंग सेण्टर सब मिलकर एक दमघोंटू वातावरण का सर्जन कर रहे हैं।
बच्चे मशीन नहीं हैं। बच्चे चिडिय़ों की तरह चहकना क्यों भूल गए हैं? खुलकर खिलखिलाना क्यों छोड़ चुके हैं? माता-पिता या शिक्षकों से क्यों दूर होते जा रहे हैं? उनसे अपने मन की बात क्यों नहीं कहते? यह दूरी निरन्तर क्यों बढ़ती जा रही है? अपनापन बेगानेपन में क्यों बदलता जा रहा है? यह यक्ष प्रश्न हम सबके सामने खड़ा है। हमें इसका उत्तर तुरन्त खोजना है।
मानसिक सुरक्षा का अभाव नन्हें-मुन्नों के अनेक कष्टों एवं उपेक्षा का कारण बनता
जा रहा है। कमजोर व मानसिक रोगियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। जिनके पास हज़ारों माओं का हृदय नहीं है, वे शिक्षा के क्षेत्र को केवल दूषित कर सकते हैं, बच्चों को प्रताडि़त करके उनके मन में शिक्षा के प्रति केवल अरुचि ही पैदा कर सकते हैं।हम सब मिलकर इसका सकारात्मक समाधान खोजने के लिए तैयार हो जाएँ।
अभिभावकों के पास सबके लिए समय है, घण्टों विवाद के लिए  समय है, विश्व की  राजनीति पर बहस  करने के लिए  समय है, अगर  समय नहीं है तो सिर्फ बच्चों के लिए। उन  बच्चों के लिए , जो उनका वर्तमान तो हैं ही साथ ही उनका भविष्य भी हैं। बच्चों से आत्मीयता से बात करें तो उनके मन का एक पूरा संसार अपने व्यापक रूप के साथ 'खुल जा सिम-सिम' की तरह खुल जाएगा। अभिभावकों को लगेगा कि उनके छोटे-से घर में एक अबूझ संसार विद्यमान है ।
अध्यापक किताबें पढ़ते- पढ़ाते हैं। कभी बच्चों का चेहरा पढ़ें, मन पढें तो पता चलेगा कि अभी बहुत कुछ पढऩा बाकी है। पढ़ाने की तो बात ही छोडि़ए। अगर पढऩे वाला तैयार न हो तो कोई भी तुर्रम खां कुछ नहीं पढ़ा सकेगा। यदि पढऩे वाला तैयार है तो कम से कम समय में उसे पढ़ाया जा सकता है। विद्यालय अच्छा परीक्षा-परिणाम दे सकते हैं, क्या वे विद्यालय बच्चों के चेहरे पर मधुर मुस्कान बिखेर सकते हैं ? यदि नहीं तो उनका वह परीक्षा-परिणाम किसी मतलब का नहीं। मशीनीकरण के इस युग में शिक्षा का भी मशीनीकरण हो गया है। बच्चे को क्या पढऩा है, इसका निर्धारण वे करते हैं जिनको छोटे  बच्चों के शिक्षण एवं उनके मनोविज्ञान का व्यावहारिक अनुभव नहीं है ।
जिनका जीवन बच्चों के निकटतम सान्निध्य  में बीता है, वे ही बच्चों के लिए  रोचक, तनाव रहित शिक्षा का सूत्रपात कर सकते हैं। देर- सवेर यह करना ही पड़ेगा। इसी में नन्हें- मुन्नों का तनावरहित भविष्य निहित है।
जीवन के लिए अमृत हैं पुस्तकें
जहां पढऩे के लिए  पुस्तकें मिल जाती है, वहां भी चयन सम्बन्धी लापरवाही  साफ़  झलकती है। जहां बच्चे पुस्तकें पढऩे के  लिए  लालायित हैं, वहां उन्हें न पुस्तकें मिल पाती हैं और न पढऩे का अवसर। बच्चे क्या पढ़ें ? यह ठीक वैसा ही प्रश्न है जैसा -बच्चे क्या खाएं ? जिस प्रकार शरीर को  स्वस्थ रखने के लिए सन्तुलित आहार की ज़रूरत है, उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी पुस्तकें अनिवार्य हैं। अच्छी पुस्तकें वे हैं; जो मानसिक पोषण दे सकें, बच्चों को सहजभाव से संस्कारवान बना सकें। पुस्तकों की विषयवस्तु बच्चों के मानसिक स्तर, आयुवर्ग, परिवेशगत अनुभवों के अनुकूल हो। बच्चे को समझे बिना उसका पोषण नहीं किया जा सकता, इसी तरह बच्चे के मनोविज्ञान को समझे बिना  लेखन नहीं किया जा सकता है। ऐसा  नहीं है कि बच्चों के लिए कुछ नहीं लिखा जा रहा है। लेकिन बाल-लेखन में ऐसा ढेर सारा लेखन है जो या तो बच्चे  को कोरी स्लेट मानकर लिखा जा रहा है या यह सोचकर कि यह बच्चे को जानना ही चाहिए। भले ही उस लेखन का बच्चे के व्यावहारिक जीवन से कोई लेना-देना न हो। चित्रकथा, कार्टून, कविता, कहानी, पहेलियां, खेल गीत, ज्ञान-विज्ञान सबका अपना महत्व है। बाल- साहित्य के नाम पर कुछ भी लिखना या व्यवसाय की दृष्टि से छापकर बेच देना कुपोषित अन्न परोसने जैसा ही है। बहुत से लेखक एवं प्रकाशक यह काम बेरोकटोक कर रहे हैं। भूत-प्रेत, डाकू-चोरों की धूर्तता और चालाकी के जीवन को नायकत्व में बदलने वाली रचनाएं आज का बड़ा खतरा हैं। बच्चों के लिए जो लिखा जाए, यह विचार भी किया जाना चाहिए कि उसका प्रभाव क्या होगा? इस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया की धूम है।
इसका त्वरित प्रभाव भी नजऱ आ रहा है । बहुत सारी चिन्ताजनक विकृतियों  का जन्म हो रहा है। बच्चों की सहजता तिरोहित होती जा रही है। माता-पिता के पास इतना समय नहीं  है कि वह ठण्डे मन से कुछ समाधान सोचे। उन्हें तो अभी आगामी संकट का आभास भी नहीं है। ऐसे कितने  अभिभावक या रिश्तेदार हैं जो जन्म दिन के अवसर पर बच्चों  को  उपहार में पुस्तकें देते हैं ? मैं समझता हूँ न के बराबर। खिलौनों में अगर पिस्तौल दी जाएगी तो वह  उसके कोमल मन को एक न एक दिन ग़लत दिशा में ले जाएगी। स्कूलों में ही छात्रों को पुरस्कार- स्वरूप कितनी बार पुस्तकें दी जाती हैं ? बच्चों को उनकी रुचि के अनुकूल अगर किताबें मिलेंगी तो वे ज़रूर पढ़ेंगे। पत्र-पत्रिकाओं को बच्चों से कोई लेना- देना नहीं है। जो अखबार रविवार को बच्चों का एक पन्ना निश्चित रूप से देते थे, विज्ञापन के मायाजाल ने उसको भी ग्रस लिया है।
नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं ने इस दिशा में गम्भीर कार्य किया है। नन्दन, बालहंस, बालवाटिका, बाल भारती, पाठक मंच बुलेटिन आदि पत्रिकाएं इस कार्य में गम्भीर हैं। स्थापित साहित्यकारों ने बच्चों के लिए जो लिखा, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आरसी प्रसाद सिंह, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, निरंकार देव सेवक, श्री प्रसाद, अमृत लाल नागर, प्रमोद जोशी, रमेश तैलंग, प्रकाश मनु, डा शेरजंग गर्ग, अमर गोस्वामी, हरि कृष्ण देवसरे, शंकर बाम, राष्ट्र बन्धु, जगत राम आर्य आदि की एक लम्बी परम्परा है । दिनकर (चांद का कुर्ता), हरिवंश राय बच्चन (चिडिय़ा ओ चिडिय़ा), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (बतूता का जूता) डा विश्वदेव शर्मा (हरा समन्दर गोपी चन्दर ) जैसी कविताएं सहज रूप में ग्राह्य हैं ।
विश्व बहुत तेज़ी से बदल रहा है। बच्चे भी बदल रहे हैं। यह बदलाव अच्छा और बुरा दोनों तरह का है। बच्चे किसी भी  स्वस्थ समाज की सबसे बड़ी धरोहर है। यदि हमें समाज को सुखी बनाना है तो बच्चों पर ध्यान देना पड़ेगा। अच्छे संस्कार देने होंगे अच्छी किताबें इस भूमिका का वहन बखूबी कर सकती हैं। प्रचार माध्यम बच्चों की मासूमियत छीन रहे हैं। अपने ऊल-जलूल उत्पाद लेकर बच्चों की जि़द के साथ हमारे घरों में घुसपैठ कर रहे हैं । हमें इसका अहसास ही नहीं है। किताबों के कितने विज्ञापन टी वी पर आते हैं ? अन्य उत्पादों से तुलना कर लीजिए। किताबों के विज्ञापन नजऱ ही नहीं आएंगे ।
 घर में एक अच्छी पुस्तक होगी तो उसे घर के अन्य सदस्य भी पढ़ेंगे। एक अच्छी पुस्तक जीवन के लिए अमृत का काम करती है। भेंट में दी गई पुस्तक सबसे मूल्यवान उपहार है। पुस्तकें कभी बूढ़ी नहीं होती, अपने ताजग़ी भरे विचारों से सदा जवान बनी रहती हैं। पुस्तकें निराशा के क्षणों में सबसे बड़ा मित्र सिद्ध होती हैं। ऐसे मित्रों को अपने घर में आने दें।

समय की धूरी पर घूमता चाक

समय की धूरी पर घूमता चाक
- गोपाल सिंह
जहां बाजार की हर दुकान पर बेतहाशा भीड़ दीपावली की हर खुशी को अपने आंचल में समेट लेना चाह रही हो वहीं इस बाजार का एक कोना दर्दनाक सन्नाटे का अहसास करवाता है। हम इस देश में मनाये जाने वाले त्योहारों के पीछे की ग्रामीण या स्थानीय अर्थव्यवस्था को तो भूल ही चुके हैं और यही कारण है कि भीड़ भरे बाजार में कुम्हार की दुकान का कोना अब सुनसान रहने लगा है। जिन कुम्हारों के बनाये दीयों से हर घर में रोशनी हुआ करती थी अब उन्हीं घरों के दीये बुझने लगे हैं।
बाजारों में दीपावली की रौनक अपने चरम पर है। बाजार की हर गली नुक्कड़ पर खरीददारों की भीड़ हर साल की तरह इस बार भी लक्ष्मी जी को अपने घर के आंगन तक लाने के लिए या यूं कहें उन्हें रिझाने के सारे साजो सामान को खरीदने में जुटी है। एक तरफ औरतें नये बर्तनों की खरीद में दुकानदार से भाव-ताव में मशगूल हैं तो दूसरी तरफ छठे वेतन आयोग की खुशी में बच्चों की फरमाइश को पूरा करते सरकारी कर्मचारी। ऐसे में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऐसी मंहगी खरीददारी तो नहीं कर सकते लेकिन हां, कईं हफ्तों की मेहनत के बाद रंगे और साफ-सुथरे घरों में देवी-देवताओं या हीरो-हिरोईनों के कुछ नये पोस्टर तो लगा ही सकते हैं।
जहां बाजार की हर दुकान पर बेतहाशा भीड़ दीपावली की हर खुशी को अपने आंचल में समेट लेना चाह रही हो वहीं इस बाजार का एक कोना दर्दनाक सन्नाटे का अहसास करवाता है। 60 साल की एक बुढिय़ा के साथ 15 साल की बच्ची दीयों के बीच ऐसे बैठी है जैसे उसके घर में कोई मातम छाया हो। उनके पास अपने बनाये दीयों, कुल्हड़ और मटकियों के अलावा और कोई नहीं। ऐसा कोई ग्राहक नहीं जो उससे दस दिये तो खरीद सके और इतना नहीं, तो कम से कम मोल भाव तो करने वाला आये। यह कैसी दीपावली जिसमें दीये खरीदने वाले नहीं। जिस त्योहार का नाम ही दीप से शुरू होता हो, जिस त्योहार का पर्याय ही दीप हो, जिस त्योंहार में रोशनी ही दीपों से होती हो, उन्हीं दीयों का खरीददार आज इस समाज से कहीं दूर किसी बाजार खो सा गया है।
पिछले कुछ सालों में बाजार के एक कोने का यह सन्नाटा शहर के हर बाजार से होता हुआ गांव के हर कुम्हार के घर तक पहुंच गया है। जिन कुम्हारों के बनाये दीयों से हर घर में रोशनी हुआ करती थी अब उन्हीं घरों के दीये बुझने लगे हैं। आधुनिकता के इस दौर में दीपावली जैसे त्योहार बाजारों की भेंट इस तरह चढ़ चुके हैं कि आज इन दीये बनाने वालों को अपने चूल्हे की रोशनी जलाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इस आधुनिकता ने न केवल इन त्योंहारों के अर्थ को समाप्त किया है बल्कि अपने ही गांव-समाज के कारीगरों के प्रति हमें इतना असंवेदनशील भी बना दिया है कि हम हमारे पैसों से देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों का तो पेट भर रहे हैं लेकिन गांव के कारीगरों को भूखे मारने में हमें कोई संकोच नहीं। हम इस देश में मनाये जाने वाले त्योहारों के पीछे की ग्रामीण या स्थानीय अर्थव्यवस्था को तो भूल ही चुके हैं और यही कारण है कि भीड़ भरे बाजार में कुम्हार की दुकान का कोना अब सुनसान रहने लगा है। ऐसी बात नहीं है कि लोगों ने दीपावली पर दीये जलाना बंद कर दिया है बल्कि हाथ से बने दियों को छोड़कर मशीन से बने दियों की दुकानों पर दिखने वाली भीड़ से आप मनुष्य के भीतर दिन-ब-दिन घुसने वाली कृत्रिमता का अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।
पहले के समाज में इस बात पर अधिक बल था कि गांव के कारीगरों को अधिक से अधिक काम कैसे मिले। इसी को देखते हुए यहां हर त्योहार को किसी न किसी कला से जोड़ा है जिसमें एक, दो, तीन या अनेक प्रकार की हाथ से बनी चीजों का इस्तेमाल होता हो। आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में दशहरे पर अभी भी कुछ युवा पूरे गांव का चक्कर निकालते हैं और हर घर की छत पर दो-चार पत्थर फेंकते हैं ताकि छत में इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी की कुछ खपरेल टूट जाये। इन खपरेल के टूटने पर गांव के कुम्हार को हर साल काम मिलना तय था। इस प्रकार से ऐसे अनेक आयोजन हर तरह की कारीगरी और उनकी रोजी- रोटी को सुरक्षित करने के लिए किए जाते रहे हैं।
18 वीं शताब्दी तक भारत के हर गांव में कम से कम अठारह तरह की कारीगरी का मिलना कोई साधारण बात नहीं थी लेकिन आज हमारे लिए यह कोई महत्व का विषय नहीं बचा।
आज कुम्हार की आवाज इस आधुनिक चकाचौंध वाले बाजारनुमा नक्कारखाने में तूती की आवाज जरूर लगती है लेकिन उसका चाक समय की धुरी पर चलता है। इस समय से हम इतने आगे ना निकल जाएं कि लोग पीछे रह जायें।
यदि आप अपने समाज के प्रति संवेदनशील हैं तो कृपया इस दीपावली पर हाथ से बने दीये या मिट्टी के अन्य सामान खरीदें। संभव हो तो आप अपने मित्रों को भी इसके लिए प्रेरित करें। बहुत ज्यादा नहीं इस दीपावली पर आप पारंपरिक मिट्टी का बस इतना ही सामान खरीदें-
छोटे दीपक- 101 (तीन दिनों के लिए)
बड़ा दीपक-1, कुल्हड़- 4, चार खानों वाले कुल्हड़- 2, आकाश दीप- 1
सजावट के लिए स्थानीय कारीगरों द्वारा अन्य सामान भी बनाया जाता है जो स्थानीय जरूरत और कारीगरों पर निर्भर करता है।

विस्थापित सिख महिलाओं का दर्द

आसमान की तरफ रह- रह अंखभर देखती आंखें
- जोफीन टी. इब्राहिम
हालात चाहे जैसे भी हों, लगातार जो चलती रहे उसे ही जिन्दगी कहते हैं। इस बात का प्रमाण हसन अब्दाल शहर के श्री पांजा साहिब गुरुद्वारे में शरणार्थी के तौर पर रह रही 22 वर्र्षीय ए रवीना कौर से बेहतर कौन हो सकता है। इस्लामाबाद से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर अपने इस अस्थायी घर में आ रही अनेक तकलीफों ही नहीं बल्कि परिवार में हुई एक मौत के बावजूद उसने शादी की रस्म को निभाया। रवीना कहती है 'शादी की तारीख कई महीने पहले तय हो चुकी थी।' उसकी शादी में सैकड़ों लोग शामिल हुए। जिनमें रिश्तेदारों के अलावा ज्यादातर वो लोग थे जो उसी की तरह उत्तर पश्चिम पाकिस्तान स्थित अपने घरों से पलायन करने को मजबूर हुए थे। हालांकि रवीना ने इन मुश्किल परिस्थितियों में अपनी पूर्व निर्धारित समय पर शादी कर ली लेकिन उससे दुख एवं निराशा साफ नजर आते हैं। रवीना कहती है 'वह सोचती थी कि मेरी शादी धूम-धाम से होगी, लेकिन.... अफसोस न कोई नाच-गाना और न ही शादी की दावत।' इस शादी में दावत के स्थान पर गुरुद्वारे का पवित्र लंगर सभी को परोसा गया। शादी के बाद पति-पत्नी एकांत में समय भी नहीं बिता सके।
लगभग 450 सिख परिवारों के 3500 से अधिक लोगों ने हसन अब्दाल शहर के श्री पंजा साहिब गुरुद्वारे में अस्थायी शरण ले रखी है। गुरुद्वारे के ग्रंथी गुलबीर सिंह के अनुसार यह संख्या और बढऩे के आसार हैं। ये सिख ये अंत: विस्थापित लोग उन 2.5 लाख लोगों में से हैं, जिन्होंने जान की हिफाजत के लिए पाकिस्तान की उत्तर-पश्चिमी सीमा, एनडबल्युएफपी से लगते बुनेर, दिर और स्वात के संघर्ष क्षेत्रों से दिसम्बर 2008 के बाद पलायन किया है। मई 2009 से पाकिस्तानी सेना द्वारा आतंकवादियों के सफाए के लिए चलाए जा रहे अभियान के कारण इस पलायन में और तेजी आ गई। पहले भी रिपोर्टें आती रही हैं कि उत्तर पश्चिमी सीमांत क्षेत्र के अल्पसंख्यक सिख समुदाय ने तब से पलायन शुरु कर दिया था, जब ओराकजई एजेंसी से सिख समुदाय के कम से कम 11 घरों को तालिबान द्वारा जजिया कर ना देने के कारण तबाह कर दिया गया था। 'जजिया' मुगलकाल के दौरान गैर मुसलमानों पर लगाया जाता था। आतंक की मार झेल रहे लाखों सिख शरणार्थियों के लिए सरकार ने शिविर बनाये हैं लेकिन सिख समुदाय के लोग इन शिविरों की बजाय गुरुद्वारों में रहना पसंद करते हैं।
सुखविन्दर कौर ने अपने फोटोग्राफर पति एवं दो बेटियों के साथ स्वात घाटी को छोड़ दिया। वह कहती हैं, 'गुरुद्वारा हम विस्थापितों लिए न केवल एक सुरक्षित जगह है बल्कि संकट के इस समय में शांति प्रदाता भी है।' 'स्वात से जान बचाकर आई सुखविन्दर कौर हालात को भारत-पाक विभाजन से जोड़ते हुए कहती है, '1947 के खूनी मंजर के बारे में सुना था लेकिन यह शायद उससे भी ज्यादा भयानक है।'
एक अन्य विस्थापित सौरन सिंह जो गुरुद्वारे में बुनैर से आये विस्थापितों का इंतजाम देख रहे हैं, वे कहते हैं, 'डाक्टर, सरकारी कर्मचारी, प्रोफेसर एवं जिनेसमैन आदि सभी लोगों के लिए पंजा सिंह गुरुद्वारा ही अब घर है। गुरुद्वारे में 307 कमरे हैं जिनमें 6000 से 8000 तक लोग रह सकते हैं इन्हें और नए लोगों के आगमन की संभावना के मद्देनजर तैयार किया जा रहा है।' वहीं गुलबीर सिंह और स्वयंसेवकों की उनकी टीम के द्वारा सुरक्षा एवं सभी तरह की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के आश्वासन के बावजूद अनेक लोग उस सदमें से उभर नहीं पाए हैं जो भयानक दृश्य उन्होंने रास्ते में देखे। 42 साल के सुरेन्द्र कुमार स्वात में लैब टैक्नीशियन थे अपनी कार में परिवार के सदस्यों के साथ जान बचाकर भाग आए।
सुरेन्द्र कुमार कहते हैं, 'हम भाग्यशाली थे जो बच गए लेकिन मेरे पड़ोस में जो हुआ वो बहुत दिल दहला देने वाला था। जिन महिलाओं ने कभी घर से बाहर कदम भी नहीं रखा उन्हें ट्रकों में जानवरों की तरह भरकर वहां से निकाला गया।' सुरेन्द्र बताते हैं कि जो जिस तरह वहां से जान बचाकर भाग सकता था भागा। बैलगाड़ी में, साइकिल पर और पैदल हजारों लोग सुरक्षित ठिकाने की तरफ जा रहे थे। एक हृदय विदारक दृश्य के बारे में सुरेन्द्र बताते हैं, 'रास्तें में एक महिला सड़क किनारे ही बच्चे को जन्म दे रही थी, मैं चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर सका, क्योंकि रुकने का मतलब था मौत।'
16 साल की मनीषा जो स्वात में 9वीं कक्षा की छात्रा थी, उन लोगों में से एक है जिन्होंने पैदल ही भागकर अपनी जान बचाई। वह बताती है उनके परिवार के 16 सदस्य रात और दिन पैदल चलते रहे बैठने के लिए साधन तब मिला जब मंजिल करीब आ चुकी थी। रास्ते में चारों तरफ सेना के जलते हुए ट्रक देखे ऐसा लगता कि जिन्दगी शायद ही बच जाए। अपनी खतरनाक यात्रा के उस दर्दनाक घटना को बयान करते हुए उसकी आवाज भारी हो जाती है, 'मैंने एक महिला को देखा जो 2 दिन से अपने 15 दिन के शिशु के शव को छाती से लगाए हुए थी। उसके पास अपने जिगर के टुकड़े के अंतिम संस्कार के लिए भी उचित समय नहीं था।'
श्री पंजा साहिब गुरुद्वारे में ऐसी अनेक महिलाएं मिली जिन्हें रात में नींद नहीं आती थी, सारी रात उनकी आंखों में खौफ के मंजर तैरते रहते हैं। बुनैर की रहने वाली महविश कौर 5 माह की गर्भवती है। वह अपने गांव वापस जाना चाहती है। वह चाहती है कि उसका बच्चा गांव में ही पैदा हो। महविश बताती है, मैंने अपने होने वाले बच्चे के लिए छोटे-छोटे कपड़े बनाए थे, लेकिन जान बचाने की आपा-धापी में सब कुछ वहीं छूट गया। महविश अब अपने बच्चे की डिलीवरी के लिए चिंतित है वह कहती है, 'इन हालात में हम घर नहीं जा सकते और मुझे अपने बच्चे को यहीं जन्म देना होगा। डाक्टर कहता है कि 10,000 रूपये का खर्चा आएगा और मैं इतने रूपये कहां से लाऊं।' वह गुस्से में कहती है, डाक्टर भी इतने बेरहम हो सकते हैं उसने सोचा भी नहीं था, जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे पास कपड़ों के सिवा कुछ भी नहीं है।
इन सारी हालात की परेशानियों के बीच यहां रह रहे शरणार्थी ये अच्छी तरह जानते हैं कि फिलहाल गुरुद्वारा ही उनका घर है। बेहतर होगा कि खुद को व्यस्त रखें और जितनी हो सकती है सेवा करें। महिलाएं सब्जी बनाने में सफाई की सेवा में लगी रहती हैं तो पुरूष भी सब्जी कटवाने से लेकर गुरूद्वारे की सफाई में पूरा हाथ बटाते हैं। सईदुल शरीफ गर्वनमैंट स्कूल की 12वीं कक्षा की छात्रा सुनीता रामदास सेवा के लिए हैं, 'सेवा से ईश्वर खुश होता है।'
शरणार्थी सौरन सिंह बताते हैं, हम सभी पुरूष मिलकर गुरूद्वारे के वातावरण को अच्छा रखने की कोशिश करते हैं। खाना पकाने, परोसने से लेकर तालाब की सफाई तक सभी कामों में बढ़-चढ़कर लगे रहते हैं। छोटे-बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम भी गुरूद्वारे में ही किया गया है, लेकिन इंजीनियरिंग, मेडिकल और प्रबंधन की पढ़ाई कर रहे छात्रों का क्या करें, उनका तो कैरियर खराब हो रहा है। गुरूद्वारे में शरणार्थी के तौर पर रह रहे सैकड़ों परिवार इस बात को लेकर खुश हैं कि उनकी जान बच गई लेकिन भविष्य क्या होगा? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है और जल्द हालात सुधरने की उम्मीद में अंखभर रह- रह कर आसमान की तरफ देखती रहती हैं। (विमेन्स फीचर सर्विस)

कानून के दरवाजे पर

कानून के दरवाजे पर
- फ्रांज काफ्का

'मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते, पर याद रखना मैं बहुत सख्त हूं, जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूं।
कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है। उस देश का एक आम आदमी उसके पास आकर कानून के समक्ष पेश होने की इजाज़त मांगता है। मगर वह उसे भीतर प्रवेश की इजाज़त नहीं देता।
आदमी सोच में पड़ जाता है। फिर पूछता है- 'क्या कुछ समय बाद मेरी बात सुनी जाएगी?
'देखा जाएगा' ... कानून का रखवाला कहता है- 'पर इस समय तो कतई नहीं!'
कानून का दरवाज़ा सदैव की भांति आज भी खुला हुआ है। आदमी भीतर झांकता है।
उसे ऐसा करते देख रखवाला हंसने लगता है और कहता है- 'मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते, पर याद रखना मैं बहुत सख्त हूं, जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूं। यहां एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाने के बीच हर दरवाजे पर एक रखवाला खड़ा है और हर रखवाला दूसरे से ज़्यादा शक्तिशाली है। कुछ के सामने जाने की हिम्मत तो मुझ में भी नहीं है।'
आदमी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कानून तक पहुंचने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यही समझता था कि कानून तक हर आदमी की पहुंच हर समय होनी चाहिए। फर कोटवाले रखवाले की नुकीली नाक, बिखरी-लम्बी काली दाढ़ी को नज़दीक से देखने के बाद वह अनुमति मिलने तक बाहर ही प्रतीक्षा करने का निश्चय करता है। रखवाला उसे दरवाज़े की एक तरफ स्टूल पर बैठने देता है। वह वहां कई दिनों तक बैठा रहता है। यहां तक कि वर्षों बीत जाते हैं। इस बीच वह भीतर जाने के लिए रखवाले के आगे कई बार गिड़गिड़ाता है। रखवाला बीच-बीच में अनमने अंदाज में उससे उसके घर एवं दूसरी बहुत-सी बातों के बारे में पूछने लगता है, पर हर बार उसकी बातचीत इसी निर्णय के साथ ख़त्म हो जाती है कि अभी उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता।
आदमी ने सफऱ के लिए जो भी सामान इकट्ठा किया था और दूसरा जो कुछ भी उसके पास था, वह सब वह रखवाले को ख़ुश करने में खर्च कर देता है। रखवाला उससे सब-कुछ इस तरह से स्वीकार करता जाता है मानो उस पर अहसान कर रहा हो।
वर्षों तक आशा भरी नजऱों से रखवाले की ओर ताकते हुए वह दूसरे रखवालों के बारे में भूल जाता है! कानून तक पहुंचने के रास्ते में एकमात्र वही रखवाला उसे रुकावट नजर आता है। वह आदमी जवानी के दिनों में ऊंची आवाज़ में और फिर बूढ़ा होने पर हल्की बुदबुदाहट में अपने भाग्य को कोसता रहता है। वह बच्चे जैसा हो जाता है। वर्षों से रखवाले की ओर टकटकी लगाए रहने के कारण वह उसके फर के कॉलर में छिपे पिस्सुओं के बारे में जान जाता है। वह पिस्सुओं की भी ख़ुशामद करता है ताकि वे रखवाले का दिमाग उसके पक्ष में कर दें। अंतत: उसकी आंखें जवाब देने लगती हैं। वह यह समझ नहीं पाता कि क्या दुनिया सचमुच पहले से ज़्यादा अंधेरी हो गई है या फिर उसकी आंखें उसे धोखा दे रही हैं। पर अभी भी वह चारों ओर के अंधकार के बीच कानून के दरवाजे से फूटते प्रकाश के दायरे को महसूस कर पाता है।
वह नज़दीक आती मृत्यु को महसूस करने लगता है। मरने से पहले वह एक सवाल रखवाले से पूछना चाहता है जो वर्षों की प्रतीक्षा के बाद उसे तंग कर रहा था। वह हाथ के इशारे से रखवाले को पास बुलाता है क्योंकि बैठे-बैठे उसका शरीर इस कदर अकड़ गया है कि वह चाहकर भी उठ नहीं पाता। रखवाले को उसकी ओर झुकना पड़ता है क्योंकि कद में काफ़ी अंतर आने के कारण वह काफ़ी ठिगना दिखाई दे रहा था।
'अब तुम क्या जानना चाहते हो' ... रखवाला पूछता है...'तुम्हारी चाहत का कोई अंत भी है?'
'कानून तो हरेक के लिए है' ... आदमी कहता है... 'पर मेरी समझ में ये बात नहीं आ रही कि इतने वर्षो में मेरे अलावा किसी दूसरे ने यहां प्रवेश हेतु दस्तक क्यों नहीं दी?'
रखवाले को यह समझते देर नहीं लगती कि वह आदमी अंतिम घडिय़ां गिन रहा है। वह उसके बहरे होते कान में चिल्लाकर कहता है-- 'किसी दूसरे के लिए यहां प्रवेश का कोई मतलब नहीं था क्योंकि कानून तक पहुंचने का यह द्वार सिर्फ तुम्हारे लिए ही खोला गया था और अब मैं इसे बंद करने जा रहा हूं।'

वह आँसू नहीं खून बहाता है

जब दिल भर आता है या मन दुखी होता है तो आंखों में पानी आना स्वाभाविक है। लेकिन ऐसे कई अजीबो-गरीब किस्से सुनने को मिले हैं जैसे आंखों से चिट्टियों का निकलना, सुई निकलना आदि। जेम्स बांड अभिनीत 2006 की हालीवुड फिल्म कसीनो रायॅल में बांड के दुश्मन ली सीफ्री की बीमारी से तो आप अवगत ही होंगे। लेकिन वह तो हुई फिल्म की बात। आप को जानकर आश्चर्य होगा कि लंदन के केलविनो जब रोते हैं तब उनकी आंखों से आंसुओं की जगह खून बहता है। खून के यह आंसू किसी के मारने या डराने से नहीं बल्कि उसे एक घातक बीमारी है। एक ऐसी बीमारी जिसके कारणों का पता लगाने में डॉक्टर  अभी तक अक्षम है।
केलविनो के सहपाठियों ने तो उसे ताना मारते हुए कहा कि तुम पर भूत का साया है। केलविनों की आंखों से लगभग 1 घंटे तक खून रिसता है। केलविनो का कहना है कि जब मेरी आंखों से इस तरह से खून के आंसू आते हैं तो मेरी आंखो में एक अजीब तरह की जलन होती है।
केलविनो की इस बिमारी से व्यथित उनकी मां का कहना है कि मैं डॉक्टरों के पास जा-जाकर थक चुकी हूं लेकिन कोई भी डॉक्टर मेरे बेटे की इस बीमारी देखकर दूर भागता है। केलविनो की मां ने पूरी दुनिया से अपने बेटे को ठीक करने के लिए मदद मांगी है।
क्या बुत बन जाएगी शॉनी?
केलविनो की ही तरह शॉनी नैमक जो हड्डी से संबंधित फाइब्रॉयडिस्लेप्सिया ऑरीफिकेंस प्रोग्रेसिवा नाम की बीमारी से ग्रस्त है। शॉनी 13 साल की हैं और उनके शरीर पर छोटी सी चोट भी लग जाए तो एक एक्स्ट्रा हड्डी बन जाता है। शॉनी की मम्मी ने बताया कि शॉनी की बाजुएं मुड़ी हुई अवस्था में ही जम चुकी हैं। उसकी गर्दन और पीठ भी अकड़ चुकी है। शॉनी अपने हाथों से अपना मुंह भी नहीं धो पाती है। इसके बावजूद वह बहादुरी से नॉर्मल लाइफ जीने की कोशिश कर रही है। यह रहस्यमय बीमारी ऐसी है कि वह मांसपेशियों को हड्डियों में बदल देती है। इसका कोई इलाज भी नहीं है। धीरे- धीरे उसका पूरा शरीर इस तरह अकड़ जाएगा कि वह एक बुत बन जाएंगी।
शॉनी कहती हैं कि लोगों को पता नहीं है कि मुझे किसी भी तरह की चोट नहीं लगनी चाहिए, इसलिए मेरे दोस्त मुझे भीड़ में बचाते हुए चलते हैं। मैं क्लास से पांच मिनट पहले निकल जाती हूं, ताकि भीड़ की धक्कामुक्की से बच सकूं। इस बीमारी के समाधान के लिए ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी रिसर्च में चल रही है।
केलविनो और शॉनी की रहस्यमयी बीमारी दुनिया में अपनी सफलता का परचम लहरा रहे मेडिकल साइंस और कुशल डाक्टरों के लिए चुनौती बन चुकी है। देखना है कि इस चुनौती से वे कैसे सफल हो पाते हैं।

धैर्य तो रखिए जनाब

आपका नंबर भी आएगा
- प्रो. डॉ. मधुसूदन पुरोहित
अपने भाग्य के साथ कार्यक्षमता पर भी विचार करना पड़ता है। सारे विचार जब स्थिर हो जाने हैं तब कहीं जाकर वह लाइन में खड़े होता है, जहां पहले से ही अपनी- अपनी चाहत को पूरा करने वाले लाइन लगाकर खड़े होते हैं।
प्रत्येक आदमी जिंदगी में कुछ करना चाहता है, कुछ पाना चाहता है, परंतु कुछ भी पाने की चाहत रखने का मतलब है उस मंजिल लिए प्रयत्न करना। और मंजिल तक पहुंचने के लिए पढऩा, लिखना जरूरी है। पढऩे- लिखने के लिए विद्यार्जन आवश्यक है। लेकिन यह सब भी तभी संभव है जब उसे यह पता  हो कि उसकी रूचि क्या है, कौन सी इच्छा उसके मन में, दिमाग में है। इसके साथ साथ उसे परिवार में माता- पिता की इच्छा का भी अवलोकन करना पड़ता है।
इस प्रकार अपने रहन सहन व आस- पास की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, इन सभी बातों का मंथन करके आदमी विचार करता है कि उसे क्या करना है। जब वह इस निर्णय तक पहुंच जाता है कि उसे क्या करना है तब फिर उसे इसके लिए कही खड़े होना पड़ता है। या कहीं लाईन लगाना पड़ता है।
भारत की जनसंख्या इतनी अधिक बढ़ गई है कि व्यक्ति को अपनी पसंद का कुछ पाने के लिए हर क्षेत्र में इंतजार करना पड़ता है। फिर आरक्षण की नीति भी उसके सामने मुंह खोले खड़ी हुई हैं, जिसे देखते हुए सोचना पड़ता है कि वहां उसका नम्बर कभी लगेगा भी या नहीं।
इन सबके साथ उसे अपने भाग्य के साथ कार्यक्षमता पर भी विचार करना पड़ता है। सारे विचार जब स्थिर हो जाने हैं तब कहीं जाकर वह लाइन में खड़े होता है, जहां पहले से ही अपनी- अपनी चाहत को पूरा करने वाले लाइन लगाकर खड़े होते हैं।
अपने गंतव्य तक जाने के लिए जिस चौराहे पर सब खड़े हैं वहां से पंगडंडी, बैलगाड़ी, साइकिल, तांगा और रिक्शा से उसे बस स्टैंड, रेल्वे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि तक जाना होता है। वहां पंहुच कर वह देखता है कि कौन सा वाहन सबसे पहले छूट रहा है। उसकी आंखों के सामने जो वाहन सबसे पहले छूट रहा होता है उस ओर वह दौडऩा शुरु करता है। दौड़ते- हांफते हुए वह शारीरिक क्षमता कमजोर होने पर गंतव्य स्थान तक पहुंच नहीं पाता और इस तरह वह बस छूट जाती है।
वहां से निराश लौटकर वह  रेलवे स्टेशन रेल पकडऩे के लिए दौड़ता है परंतु वहां पंहुचने में भी देरी होती है और वह दौड़कर भी रेल के डिब्बे में चढ़ नहीं पाता। लेकिन उसकी चाहत तब भी बनी रहती है और वह हवाई जहाज की ओर बढ़ता है, परंतु वहां भी उसे निराशा ही हाथ लगती  है।
 इस प्रकार गन्तव्य स्थान पर अपनी इच्छानुसार कार्य करने पहुंच नहीं पाता। काश वह एक ही लाइन में धैर्य पूर्वक खड़ा होता और अपना नम्बर आने का इंतजार करता तो उसे जीवन में सफलता जरूर मिलती।

दीपदान की परंपरा


रोशनी का पर्व दीपावली में मिट्टी के दिए में तेल डालकर  दीपदान देने की परंपरा आज भी विभिन्न स्थानों में कायम है।  लक्ष्मी पूजा के दिन कन्याएं और विवाहित महिलाएं थाली में जलते हुए दीपों को आस- पड़ोस के घरों में बांटती हैं। दीपदान का यह व्यवहारिक रूप एक परिवार से दूसरे परिवार में चलता रहता है। इसके पीछे कारण यह है कि दीपदान को स्नेह और सदाचार की कामना का प्रतीक माना जाता है। अपने आस-पास दीपक को आलोकित करने से प्रसन्नता, समृद्धि तो बढ़ती ही साथ ही साथ सहयोग की भावना का भी विकास होता है। राजस्थान और मालवा में इस प्रकार के दीपदान का विशेष महत्व है। छत्तीसगढ़ के गांवों में भी बच्चे चाहे वह लड़का हो या लड़की मिट्टी अथवा चावल के आटे का दिया बनाकर घर- घर जाते हैं और तुलसी चौरे में रखे दीपक से अपने  साथ लाए दीपक को जलाकर वहीं रख देते हैं। हर घर में प्रकाश फैलाते हुए इन बच्चों को घर मालकिन पैसा, टॉफी या कोई अन्य वस्तु उपहार स्वरुप देती हैं।

मुझे भी आता है गुस्सा

अपनी सोच बदल डालिए
- सुमन परगनिहा
आइए हम सब मिलकर कुछ सोचते हैं कि क्या किया जाए। क्यों न हम किसी का मुंह ताकने की बजाए खुद ही आगे आ कर इसके लिए एक प्रयास करें। सबसे पहले तो अपने घर से ही शुरु करें।
मैं जो यहां कहने जा रही हूं वह कोई नई समस्या या गुस्से का कोई नया कारण नहीं है। हो सकता है इसे पढ़ते ही आपको लगे ऊंहूं.... फिर वही पुराना राग।..... लेकिन रूकिए और जरा सोचिए क्या जब आप सड़क के किनारे पैदल चल रहे हों और सड़क संकरी हो तभी पीछे से तेज हार्न बजाती कोई गाड़ी आपसे और किनारे होने को कहे तो आप क्या करेंगे? क्योंकि आपके पास तब सड़क किनारे बिखरे कचरे और गंदगी के ढेर के ऊपर चलने के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा। तब, तब तो आपको गुस्सा आएगा ना? और बरबस ही आप कह उठेंगे कि कचरा फेंकने के लिए क्या सड़क का किनारा ही बचा है।
जी हां यही है मेरे गुस्से का कारण। प्रश्न यह है कि सड़क किनारे कचरा कौन फेंकता है? आस- पास रहने वाले ही न। जवाब यह भी मिलता है कि अपने घरों का कचरा कहां जा कर फेंके। नगर निगम न तो कचरा उठाने का कोई प्रबंध करती और न ही कचरा फेंकने का। सफाई कर्मचारी आते है नाली का कचरा सड़क किनारे इकट्ठा करके चले जाते हैं कि इसे उठाने का काम हमारा नहीं है इसके लिए गाड़ी आएगी कहते हुए चले जाते हैं। यह बात भी सही है। तब क्या करें? हम तो हर साल जल, मल कर नियमित पटाते हैं, पर सफाई व्यवस्था को लेकर कभी भी संतोष जनक परिणाम नहीं निकलता।
पर कोई न कोई तो हल निकालना ही होगा न? आईए हम सब मिलकर कुछ सोचते हैं कि क्या किया जाए। क्यों न हम किसी का मुंह ताकने की बजाए खुद ही आगे आ कर इसके लिए एक प्रयास करें। सबसे पहले तो अपने घर से ही शुरु करें। आप प्रति वर्ष दीपावली में अपने घर की साफ- सफाई करते हैं पर घर से निकलने वाला कचरा कहां फेंक कर आते हैं सड़क के किनारे ना? यह सोचकर कि सड़क की सफाई का काम तो नगर निगम का है वह करवायेगी सड़क की सफाई। क्या आपकी यह सोच सही है? तो बस इसी सोच को बदल डालिए। आप घर बैठकर हमेशा सफाई के नाम पर इसको- उसको कोसते रहते हैं पर क्या आपने कभी अपनी कालोनी या मोहल्ले में रहने वालों के साथ मिल बैठकर इस समस्या का हल निकालने की कोशिश की है। या कभी संबधित विभाग के अधिकारी से मिलकर इसका समाधान खोजने का प्रयास किया है। यदि नहीं तो इस दिशा में भी सोचिए, हो सकता है आपको समाधान मिल जाए।
आप कह सकते हैं कि अरे छोडिय़े यह सब कहने में बहुत अच्छा लगता है पर वास्तव में जब कुछ करने निकलो तो नतीजा कुछ नहीं निकलता। हां आप सही कह रहे हैं पर मुझे जरा यह तो बताइए क्या नतीजा चुपचाप बैठे रहने से निकल जाएगा। एक पहल तो कीजिए। भले ही गुस्सा दिखाकर। आपके इस गुस्से में कई लोगों का गुस्सा शामिल हो जाएगा तो कुछ तो हल निकलेगा।
तो आईए इस दीवाली में गुस्सा थूंक कर कोई समाधान निकालें और अपने घर के साथ- साथ अपने आस- पास के वातावरण को भी शुद्ध रखने का संकल्प लें।

दिये की लौ बढ़ाओ

- डॉ. रत्ना वर्मा
इन दोनों हाथों में


आज भी महकती है
इस दिये की मिट्टी।
मिट्टी से दीपक बन जाने की
शाश्वत निर्माण प्रक्रिया में
हर बार
एक नई ऊर्जा बटोरते हाथ
चाक पर घूमते हैं
अंधेरे घरों के लिए
रोशनी का एक संकेत लेकर।

किसी ने नहीं पूछा
दूसरों के लिए
रोशनी बन जाने में
कितनी उमर बिताओगे
अपनी अंधेरी देहलीज के लिए
दीपक
कब बनाओगे?


व्यर्थ ढूंढ रहे हो
बिजली के लट्टुओं में
आदमी के हाथों की महक
ये तो
इशारे से जलने
बुझने वाले दिये हैं।

इस छद्म रोशनी में
नहीं मिलेगी तुम्हें
अपनी मिट्टी की गंध।

यह जगमगाता शहर
बिजली से चलता है
कम्प्यूटर से निर्धारित होती है
अंधेरे और रोशनी की सीमाएं।

चेहरों पर
नकली रोशनी बांटते हुए
पूछा होता कभी
लोगों के दिलों में
गहराते अंधेरे का हिसाब।

अभी भी
दूर टिमटिमा रहा है
इन दो हाथों से बना हुआ
मिट्टी का दिया
इस दिये की लौ बढ़ाओ
पास आओ और
हाथों की इस महक को गले लगाओ।

इन हाथों में
आज भी बहता है
आदमी का खून
ये कम्प्यूटर नहीं है
जब भी पास आयेंगे
अंधकार और प्रकाश का
सही समीकरण बतायेंगे।

तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी

तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी 
- प्रेम जनमेजय
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, 'भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मंगवाइए, बढिय़ा चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।'
लोग दीपावली पर लक्ष्मी पूजन करते हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है। फिर भी लक्ष्मी मुझपर कृपा नहीं करती। मैं लक्ष्मी-वंदना करता हूं- हे भ्रष्टाचार प्रेरणी, हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी! मुझ पर कृपा कर! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई। यहां तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर किसी प्रदेश का मंत्री/किसी थाने का थानेदार/किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी/आदि-आदि बन देश- सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता। युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा। जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने बहुत जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया। हे कृपाकारिणी मुझपर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर। मैं मानता हूं कि मैंने मास्टर बनकर तेरी आराधना के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं परंतु हे रिश्वकेशी तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं, एक दीन-हीन मास्टर के द्वार क्या चीज़ है। एक दरवाज़ा मेरी ही खोल दे।
तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, 'सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है।' मैं मुद्रास्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढ़क गया। क्यों कि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाजा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है।
'दरवाज़ा तुम ही खोल दो।' मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी।
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, 'भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मंगवाइए, बढिय़ा चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।'
उसकी इस मंगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, 'क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों?'
'यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूं, तू बीच में अपनी टांग क्यों अड़ा रहा है? भाभी जी, मैं आपके लिए हज़ारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूं और ये है कि,' लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा।
'तुम चुप रहो जी!' पत्नी ने ससम्मान मुझे डांटा और लक्ष्मीकांत की तरफ़ मुस्कराकर देखा तथा कहा, 'आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सबकुछ बनाकर लाती हूं। आप हजारों मिलने वाली बात बताओ न।' पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था।
'भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हजार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलॉटमेंट लेटर आ गया है।'
'यानी हमारे हजार रुपए डूब गए। तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है।' मैंने इस मध्य
आह भरी।
'अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हज़ार रुपए के तीन महीने में दस हजार हो गए हैं। कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में, कुछ समझे संत मलूकदास जी।'
पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, 'हमारे कितने शेयर हैं।'
'सौ शेयर।'
'सौ शेयर! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हज़ार रुपए मिलेंगे दस हजार! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हजार मिलेंगे।' (सुधीजन नोट करें, धन, लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भैया की बदौलत भी मिल सकता है। अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें।) ये दस हजार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया!'
'भाभी जहां इतना इंतज़ार किया वहां थोड़ा इंतजार और कर लो। आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही। सिफऱ् दस-पंद्रह दिन की बात है दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए। आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हजार गिनने की भी तैयार कर लो।' लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा।
'पार्टी तो आप जितनी ले लो। पंद्रह-बीस हजार! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्ते वाली बरफी मंगवाती हूं कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा। तुम आराम से सोफे पर क्या बैठे हो जल्दी से बाजार हो आओ हे भगवान!'
लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार कर के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए। पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिशा- निर्देश मुझे जारी कर दिए। माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी ज़रूरी चीजों को बेकार सिद्ध किया। पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया। भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हजार से कम बन ही नहीं रहा था। पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हजार शहीद हो चुके थे। बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे। पत्नी रोज सुबह मुझे उठाती, हाथ में अखबार पकड़ाती और जैसे मैं कभी मां को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढ़कर सुनाया करता। हम घंटों उस पेज को घूरते रहते। देश में कहां हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता। बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता। पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाजार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती।
महीना बीत गया। शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हजार का कागजी नुकसान हमें हो गया। पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ। मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा। उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिजल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा। हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे। लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था। मेरा पढऩा-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मंडराता रहता।
जिस तरह से लक्ष्मी भैया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया। कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढ़कता-फुड़कता ग्यारह पर आ टिका। हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथ शुक्र मनाया की गांठ से पैसा नहीं गया। पत्नी ने सवा पांच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋ ण भुगतान में जुट गया।
अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूं, बस लक्ष्मी मैया से एक प्रश्न करता हूं तुमने आने का अभिनय क्यों किया लक्ष्मी! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ रही हो!'
 संपर्क-  संपादक : व्यंग्य यात्रा, 73, साक्षर अपार्टमेंट, ए-3 पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110 063, मोबाइल नम्बर- 09811154440 Email- prem_janmejai@yahoo.com
व्यंग्यकार के बारे में ...
प्रेम जनमेजय व्यंग्यकर्म के क्षेत्र में एक बेहद सक्रिय हस्ती हैं। व्यंग्य और व्यंग्यकारों के प्रति जो विकट जुड़ाव प्रेम जी में दिखलाई देता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। व्यंग्य लेखन, व्यंग्य की पत्रिकाओं और संकलनों के सम्पादन तथा व्यंग्य के आयोजनों में वे न केवल स्वयं निरंतर जुटे होते हैं बल्कि लोगों को अधिकाधिक जोडऩे का भाव भी उनमें प्रबल है। वे साहित्य की परम्परागत उठा- पटक से दूर रहते हुए हरदम रचनात्मकता के साथ खड़े होते हैं । ऐसे समय में भी जब कोई लेखकीय संकट का दौर गुजर रहा हो। इसे प्रमाणित भी उन्होंने किया है। पिछले कुछ समय से प्रेम जनमेजय 'व्यंग्य यात्रा' नामक एक त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। यह देश की एकमात्र व्यंग्य पत्रिका है जो सार्थक लेखन और आलोचना के प्रति गंभीर है। प्रेम जनमेजय उन बिरले व्यंग्यकारों में से हैं जो व्यंग्य की विधा के अतिरिक्त अन्य विधाओं में लिखते हैं। उन्होंने नाटक लिखे हैं और बाल साहित्य पर भी उनकी पुस्तिकाएं प्रकाशित हुई हैं। वे आयोजनों के सिलसिले में देश-विदेश की खूब यात्रा करने वाले एक घुमक्कड़ लेखक भी हैं, पर जहां भी वे जाते हैं व्यंग्य उनके साथ होता है। अपनी इसी सक्रियता के लिए उनके सम्मानित और पुरस्कृत होने का समाचार अक्सर सुर्खियों पर होता है। 
यहां प्रस्तुत व्यंग्य रचना 'तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी..' में उनकी वही तरल और आत्मीय भाषा है जैसी उनके रोजमर्रा के जीवन में है। वे ज्यादातर विषय भी आम जन जीवन से उठाते हैं और उसी बोलचाल में रचना की बुनावट करते हैं जो आम जन की भाषा होती है। यहां शेयर मार्के ट में शेयर लेने के चक्कर में पड़े उस मध्यम वर्गीय समाज की लोलुपता का चित्रण है जिसके लिए परसाई जी कह गए हैं कि 'यह मध्यम वर्गीय समाज एक विकट किसम का जीव है जिसमें उच्च वर्ग का अहंकार होता है और निम्न वर्ग की दयनीयता।'
                - विनोद साव

इस अंक के लेखक

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
19 मार्च 1949 को बेहट जिला सहारनपुर में जन्मे रामेश्वर काम्बोज की शिक्षा एम ए (हिन्दी), बी एड। प्रकाशित  रचनाएं- 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस',  'कुकडूं कूं', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आंसू', दीपा, दूसरा सवेरा (लघु उपन्यास), असभ्य नगर (लघुकथा संग्रह), खूंटी पर टंगी आत्मा (व्यंग्य संग्रह) अनेक  संकलनों में लघुकथाएं संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं  नेपाली में अनूदित। वेब साइट पर प्रकाशन, रचनाकार, अनुभूति, अभिव्यक्ति, हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज, लेखनी, इर्द-गिर्द, इन्द्र धनुष आदि। निर्देशन- केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक , निदेशक एवं केन्द्रीय विद्यालय  संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य। सेवा- 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य। प्राचार्य- केन्द्रीय विद्यालय के पद से सेवानिवृत्त।
 पता - 37, बी/2 रोहिणी सेक्टर -17, नई दिल्ली-110 089
मोबाइल नंबर- 9313727493 www.laghukatha.com व    
बच्चों के लिए ब्लॉगर  http://patang-ki udan.blogspot.com
प्रो. डॉ. मधुसूदन पुरोहित 
6 अगस्त 1948 रायपुर छत्तीसगढ़ में जन्मे प्रोफेसर डॉ. मधुसूदन पुरोहित होम्योपैथिक विशेषज्ञ एवं सलाहकार हैं। शिक्षा- बीकॉम, एमए (फिलोसफी) डीएचबी, डीएचएमएस। होम्योपैथिक संकाय के रविशंकर वि.वि. के भूतपूर्व अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ राज्य होम्योपैथिक परिषद के सदस्य, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया रायपुर के अधिकृत चिकित्सक।
संप्रति- महाराणा प्रताप होम्पोपैथिक कालेज रायपुर में प्रोफेसर।
पता- मधु होम्यो मेडिकोज, डॉ.पुरोहित बिल्डिंग, सदर बाजार,  
    रायपुर (छ.ग.) फोन नम्बर 0771 2226824,
    मोबाइल नंबर- 09406300430
सुमन परगनिहा  

रायपुर छत्तीसगढ़ में जन्मी श्रीमती सुमन परगनिहा सामाजिक संस्था माटी समाज सेवी संस्था की अध्यक्ष हैं। उन्होंने  स्वास्थ्य पर्यावरण, प्रदूषण और बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रेेरक कार्य किए हैं। उनकी अभिरूचियां हैं यात्रा करना, चित्रकारी करना और सॉफ्ट टायज बनाना।  उनका पता है- राजनांदगांव बाड़ा, तात्यापारा, रायपुर (छ.ग.)
 मोबाइल नंबर- 09009535540
Email- suman1055@yahoo.com
सुकांत दास   
8 अक्टूबर 1976 पश्चिम बंगाल सोनामुखी में जन्मे सुकांत दास ने स्नातकोत्तर बंगाल के विष्णुपुर से तथा पेटिंग में मास्टर डिग्री खैरागढ़ से ली है। वर्तमान में वे  'मास्क'  आर्टिस्ट ग्रुप के सदस्य हैं और फ्रीलांस आर्ट डिजानिंग का कार्य करते हैं। उनका पता है- मास्क, 981, शांति नगर, राम मंदिर के पास, रायपुर (छ.ग.)  मोबाइल नंबर- 099935 75515
Email- ksdas101@yahoo.com
गोपाल सिंह चौहान
मैं एक फेलोशिप प्रोग्राम 'कम्यूनिटी' का हिस्सा हूं और हाथ के कारीगरों के साथ बीकानेर में ही कार्य कर रहा हूं।  मुझे लिखने और पढऩे के अलावा यात्राएं करने एवं शास्त्रीय संगीत सुनने का शौक है। मेरा पता है- गोपाल सिंह चौहान उस्ता बारी के अन्दर बीकानेर राजस्थान।
मोबाइल नंबर- 09928522992,
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