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Nov 20, 2009

उदंती.com-नवम्बर 2009


वर्ष 2, अंक 4, नवम्बर 2009
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मेरा विश्वास है कि वास्तव में महान व्यक्ति का पहला लक्षण नम्रता है और कुछ नहीं।
-जॉन रस्किन
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अनकही: भ्रष्टाचार और गरीबी का घातक गठबंधन
पर्यावरण:सब कुछ पाने की लालसा - बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
आपदा प्रबंधन: हादसों की आग कब बुझेगी? - संतोष कुमार
रंगमंच:बहादुर कलारिन: एक जीवंत दस्तावेज - मुन्ना कुमार पांडे
यादें :धरोहर बन गई हीरामन की बैलगाड़ी - उदंती फीचर्स
पुरातन:सिंघनपुर के शैलचित्र - उदंती फीचर्स
राज्योत्सव: छत्तीसगढ़ निर्माण की निरंतर बहती एक नदी - स्वराज्य कुमार
वन जीवन:हम नहीं देख पाएंगे, चीते की निराली चाल - प्रमोद भार्गव
संस्मरण: जंगल में मिलती थी उन्हें लिखने की प्रेरणा - रूपसिंह चन्देल
खोज: पहली प्लास्टिक सर्जरी भारत में की गई थी
शाकाहार : खान-पान की आदत बदल कर बचाएं पर्यावरण -एस. अनंतनारायणन
लघुकथाएं: गरीबों का मसीहा, सुख की परिभाषा - आशा तनेजा
21 वीं सदी के व्यंग्यकार: संस्कृति की सुनामी लहर - संतोष खरे
कहानी: महत्त्वाकांक्षी फूल- खलील जिब्रान
कविता: मुझे है अनुभव - जीवन यदु
अभियान: हैलो जी ...- रजत आनंद
इस अंक के लेखक - वाह भई वाह
आपके पत्र/ इन बाक्स - जरा सोचें
रंग बिरंगी दुनिया
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भ्रष्टाचार और गरीबी का घातक गठबंधन


छ: सात तरूण तरुणियां। औसत आयु बीस-बाइस वर्ष। सभी मेधावी। एमबीए के विद्यार्थी। बहस चल रही थी। बहस का विषय, हमारी राष्ट्रीय पहचान। खानपान, वेशभूषा, रीति- रिवाज, भाषा इन सबके मामले में तो हमारे देश में इतनी विविधता है कि एक ही प्रांत में ये सब अनेक हो सकते हैं। तो फिर क्या है जो भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और मुम्बई से मेघालय तक हमारे समाज में समान रूप से व्याप्त है। इन मेधावी छात्र-छात्राओं की बहस का निष्कर्ष था कि गरीबी और भ्रष्टाचार ही सिर्फ दो ऐसी चीजें हैं जो हमारे देश के चप्पे-चप्पे में समान रूप से व्याप्त हैं। अतएव गरीबी और भ्रष्टाचार ही हमारी राष्ट्रीय पहचान है।
यह हमारा राष्ट्रीय दुर्भाग्य है कि उपरोक्त निष्कर्ष एक कड़वा सच है।
हमारा समाज दो भागों में बटा है। एक वह जो शक्तिशाली वर्ग है- नेता और प्रशासन के सदस्य वे जो भ्रष्टाचार के लाभार्थी हैं। दूसरा समाज का बहुसंख्यक निर्बल वर्ग जिसे आम आदमी भी कहने का चलन है। यद्यपि कि बिना लेनदेन के कुछ भी न करने की हमारे यहां पुरानी परंपरा रही है। राजा, महाराजा, बादशाह और नवाब से तो बिना नजर भेंट किए मिला भी नहीं जा सकता था। इसी चलन के फलस्वरूप राज्य के निचले तबके के पदाधिकारी जैसे सूबेदार, तालुकेदार, जमींदार भी लड़की के ब्याह के बहाने या हाथी खरीदने या कार खरीदने के बहाने रियाया से धन उगाहा ही करते थे। इसी परिपाटी के चलते 1947 में आजादी मिलने के समय भी पुलिस, तहसील और जिला स्तर पर न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार व्याप्त था। इनके अतिरिक्त सरकार के अन्य विभाग तथा उच्च न्यायालय इत्यादि पर भ्रष्टाचार की काली छाया तब तक नहीं पड़ी थी।
आजादी के बाद से भ्रष्टाचार बेहद तेजी से बढ़ा है और आज यह हालत है कि आज ऐसा सरकारी विभाग जिसमें भ्रष्टाचार कार्यप्रणाली का अनिवार्य अंग न हो ढूंढने पर भी न मिलेगा। बच्चे का स्कूल में दाखिला कराना हो, मरीज का अस्पताल में इलाज कराना हो, पासपोर्ट लेना हो, ड्राइविंग लाईसेंस लेना हो, जन्म या मृत्यु प्रमाण पत्र लेना हो, बिजली या पानी का कनेक्शन लेना हो- कुछ भी ऐसा हो जिसमें सरकार से कोई कागज प्राप्त करना हो तो वह काम बिना रिश्वत दिये हो नहीं पाता है। कोई भी ट्रक राजमार्ग पर ट्रैफिक पुलिस को नजराना चढ़ाये बगैर एक इंच भी चल नहीं सकता है।
सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि इस भ्रष्टाचार की आग में आम आदमी की गरीबी हटाने के नाम पर चलाई गई सरकारी योजनाओं ने घी का काम किया है। 1969 से गरीबी हटाओं के नाम पर जनता के पैसे (सरकारी खजाना) की जो लूट शुरु हुई उससे गरीबी तो नहीं हटी पर नेताओं और सरकारी कर्मचारियों की अमीरी दिन दूनी रात चौगुनी बढऩे लगी। अब तो हालत यह है कि सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा हो, सेनाओं के लिए हथियारों की खरीद हो, गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के लिए सस्ते मूल्य के खाद्यान्न हो, सूखे के कारण भूख से मरते पशुओं का चारा हो, न्याय प्रणाली के उच्च स्तर हो, सभी जगह भ्रष्टाचार का नंगा नाच अबाध रूप से चल रहा है। सांसद भी प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत लेते देखे गए हैं।
भ्रष्टाचार को राजनीतिक सत्ता का एकमात्र उद्देश्य बनाने की अंधी दौड़ में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा ने सबको पछाड़ दिया है। झारखंड देश का प्राकृतिक संसाधनों में सबसे संपन्न राज्य होने के बावजूद आर्थिक रूप से सबसे गरीब और पिछड़ा है। मधु कोडा पहले खाद्य मंत्री बने और फिर से दो वर्ष से भी कम समय तक मुख्यमंत्री रहे। आयकर विभाग के अनुसार इन चार वर्षों में 4000 हजार करोड़ रुपए ( जो झारखंड के सलाना बजट की बीस प्रतिशत राशि है) कि रकम हड़प ली और देश में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता इत्यादि के साथ-साथ विदेश में लीबिया, दुबई, थाईलैंड इत्यादि में व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित किए। त्रासदी यह है कि राज्य सरकारों और केंद्र में राजनीति के ऐसे काले चेहरों की भरमार है।
एक पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया था कि सरकारी योजनाओं में खर्चा होने वाली रकम का सिर्फ10 प्रतिशत ही वास्तविक कार्यों पर खर्च होता है। अभी कुछ ही हफ्ते पहले केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना का दो जिलों में सर्वेक्षण कराया तो ज्ञात हुआ कि इस पर खर्च होने वाली हजारों करोड़ की राशि का कम से कम 40 प्रतिशत भ्रष्टाचारियों द्वारा हड़प लिया जाता है। हम यह भी जानते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार स्वीकारोक्ति में काफी कंजूसी दिखाती है अत: वास्तव में यह रकम 40 प्रतिशत से कहीं अधिक होगी।
हमारे देश में भ्रष्टाचार के इतने व्यापक रूप से पनपने के प्रमुख कारणों में से एक हमारे देश की जर्जर और लचर न्याय प्रणाली भी है। जिसके कारण भ्रष्टाचार के लिए दंडित होने की संभावना गधे के सिर पर सींग होने से भी कम है। कड़वा सच तो यह है कि न्याय प्रणाली भ्रष्टाचारियों के लिए सुरक्षा कवच का काम करती प्रतीत होती है। यथार्थ तो यह है कि गरीबी और भ्रष्टाचार का चोली दामन का साथ है। यह तो कहना मुश्किल है कि इन दोनों में से कौन कारण है और कौन परिणाम परंतु दोनों का एक दूसरे पर आश्रित होना तो बिल्कुल स्पष्ट है। गरीबी और भ्रष्टाचार का यह घातक गठजोड़ अब कैंसर बनकर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था की जड़े ही खोदने में जुटा है। दावानल की तरह फैलते नक्सलवाद के लिए भी यही काफी कुछ जिम्मेदार है।
विडंबना यह है कि भ्रष्टाचार के अथाह दलदल में महात्मा गांधी के नाम को भी घसीटा जा रहा है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में व्यापक रूप से भ्रष्टाचार होने का तथ्य उजागर होते ही इस योजना का नामकरण महात्मा गांधी के नाम पर कर दिया गया है। वर्तमान माहौल में तो भ्रष्टाचार का गहरा अंधेरा मिटता नहीं दिखता। हां, यह विश्वास अवश्य है कि भ्रष्टाचार और गरीबी की अमावस्या से मुक्ति दिलाने के लिए भारत माता महात्मा गांधी जैसी महान आत्मा को फिर से जन्म देगी जो हमारे देश में सार्वजनिक सुख और समृद्धि की परिस्थितियां संभव करेगी।

- डॉ. रत्ना वर्मा

प्रकृति के नियम से छल सब कुछ पाने की लालसा

प्रकृति के नियम से छल सब कुछ पाने की लालसा
- बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव सकता है कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी आदि। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है।
प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढऩे लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों (मुख्यत: मल-मूत्र) के सडऩे से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।
एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है।
फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।
आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोडऩे लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए।
एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, 'जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में सकती थी।' गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने का यही एकमात्र रास्ता है।