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Aug 20, 2009

चलें बचपन के गांव में

- भारती परिमल
बचपन की गलियां तो उसे हमेशा याद रहती हैं, जब भी वक्त मिलता, इंसान उन गलियों में विचरने से अपने को नहीं रोक सकता।
आओ चलें बचपन के गांव में, यादों की छांव में... कलकल करती लहरों से खेलें, कच्ची अमियां और बेर से रिश्ता जोड़े। रेत के घरोंदे बनाकर उसे अपनी कल्पनाओं से सजाएं। कड़ी धूप में फिर चुपके से निकल जाएं घर से बाहर और साथियों के संग लुकाछिपी का खेल खेलें। सावन की पहली फुहार में भीगते हुए माटी की सौंधी महक सांसों में भर लें। ठंड की ठिठुरन, गरमी की चुभन और भादों का भीगापन सब कुछ फिर ले आएं चुराकर और जी लें हर उस बीते पल को, जो केवल हमारी यादों में समाया हुआ है।
वो सुबह-सुबह मंदिर की घंटियों और अजान की आवाज के साथ खुलती नींद और दूसरे ही क्षण ठंडी बयार के संग आता आलस का झोंका, जो गठरी बन बिस्तर में दुबकने को विवश कर देता, वो झोंका अब भी याद आता है। मां की आवाज के साथ.. खिड़की के परदों के सरकने से झांकती सूरज की पहली रश्मियों के साथ.. दरवाजे के नीचे से आते अखबार की सरसराहट के साथ.. चिडिय़ों की चीं चीं के साथ.. दादी के सुरीले भजन के साथ.. दादा के हुक्के की गुडग़ुड़ के साथ.. सजग हुए कानों को दोनों हाथों से दबाए फिर से आंखे नींद से रिश्ता जोड़ लेती थी। आंखों और नींद का यह रिश्ता आज भी भोर की बेला में गहरा हो जाता है। इसी गहराई में डूबने आओ एक बार फिर चलें बचपन के गांव में। बरगद की जटाओं को पकड़े हवाओं से बातें करना.. कच्चे अमरुद के लिए पक्की दोस्ती को कट्टी में बदलना.. टूटी हुई चूडिय़ों को सहेज कर रखना.. बागों में तितलियां और पतंगे पकडऩा.. गुड्डे-गुडिय़ा के ब्याह करवाना.. पल में रूठ कर क्षण में मान जाना.. बारिश की बूंदों को पलकों पे सजाना.. पेड़ों से झांकती धूप को हथेलियों में भरने की ख्वाहिश करना.. बादल के संग उड़कर परियों के देश जाने का मन करना.. तारों में बैठ कर चांद को छूने की चाहत रखना.. बचपन कल्पना के इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों से सजा होता है। सारी चिंताओं और प्रश्नों से दूर ये केवल हंसना जानता है, खिलखिलाना जानता है, अठखेलियां करना और झूमना जानता है। तभी तो जीवन की आपाधापी में हारा और थका मन जब-जब उदास होता है, यही कहता है- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.. बीते हुए दिन की कल्पना मात्र से ही आंखों के आगे बचपन के दृश्य सजीव होने लगते हैं। बचपन एक मीठी याद सा हमारे आसपास मंडराने लगता है। एकांत में हमारी आंखों की कोर में आंसू बनकर समा जाता है, तो कभी मुस्कान बन कर होठों पर छा जाता है। कभी ये बचपन चंचलता का लिबास पहने हमें वर्तमान में भी बालक सा चंचल बना देता है, तो कभी सागर की गहराइयों सा गंभीर ये जीवन क्षण भर के लिए इसकी एक बूंद में ही समा जाने को व्याकुल हो जाता है।
एक बार किसी विद्वान से किसी महापुरुष ने पूछा कि यदि तुम्हें ईश्वर वरदान मांगने के लिए कहे, तो तुम क्या मांगोगे? विद्वान ने तपाक से कहा- अपना बचपन।
निश्चित ही ईश्वर सब-कुछ दे सकता है, लेकिन किसी का बचपन नहीं लौटा सकता। सच है, बचपन ऐसी सम्पत्ति है, जो एक बार ही मिलती है, लेकिन इंसान उसे जीवन भर खर्च करता रहता है। बड़ी से बड़ी बातें करते हुए अचानक वह अपने बचपन में लौट जाएगा और यही कहेगा कि हम बचपन में ऐसा करते थे। यहां हम का आशय उसके अहम् से कतई नहीं है, हम का आशय वे और उसके सारे दोस्त, जो हर कौम, हर वर्ग के थे। कोई भेदभाव नहीं था, उनके बीच। सब एक साथ एक होकर रहते और मस्ती करते।
हम सभी का बचपन बिंदास होता है। बचपन की यादें इंसान का पीछा कभी नहीं छोड़ती, वह कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाए, बचपन सदैव उसके आगे-आगे चलता रहता है। बचपन की शिक्षा भी पूरे जीवन भर साथ रहती है। बचपन का प्यार हो या फिर नफरत, इंसान कभी नहीं भूलता। बचपन की गलियां तो उसे हमेशा याद रहती हैं, जब भी वक्त मिलता, इंसान उन गलियों में विचरने से अपने को नहीं रोक सकता। बचपन में किसी के द्वारा किया गया अहसान एक न भूलने वाला अध्याय होता है। वक्त आने पर वह उसे चुकाने के लिए तत्पर रहता है। कई शहरों के भूगोल को अच्छी तरह से समझने वाला व्यक्ति उन शहरों में भी अपने बचपन की गलियों को अपने से अलग नहीं कर पाता।
बचपन चाहे सम्पन्नता का हो या विपन्नता का। दोनों ही स्थितियों में वह बराबर साथ रहता है। याद करें कम से कम रुपयों में पिकनिक का मजा और अधिक से अधिक खर्च करने के बाद भी और खर्च करने की चाहत। हर किसी के बचपन में मां, पिता, भाई, बहन, दोस्त एक खलनायक की तरह होतें ही हैं, उस समय उसकी सारी हिदायतें हमें दादागीरी की तरह लगती। उसे अनसुना करना हम अपना कत्र्तव्य समझते। पर उम्र के साथ-साथ वे सारी हिदायतें गीता के किसी श्लोक से कम नहीं होती, जिसका पालन करना हम अपना कत्र्तव्य समझते हैं।
आखिर ऐसा क्या है बचपन में, जो हमें बार-बार अपने पास बुलाता है? बचपन जीवन के वे निष्पाप क्षण होते हैं, जिसमें हमारे संस्कार पलते-बढ़ते हैं। बचपन कच्ची मिट्टी का वह पात्र होता है, जो उस समय अपना आकार ग्रहण करता होता है। बचपन उस इबारत का नाम है, जो उस समय धुंधली होती है, पर समय के साथ-साथ वह साफ होती जाती है।
बचपन के गांव में हमारा लकड़पन, हमारी शरारतें, हमारी उमंगें, हमारा जोश, हमारा उत्साह, हमारी नादानी, हमारी चंचलता, हमारा प्यार सब कुछ रहता है, जो समय के साथ वहीं छूट जाता है, हम चाहकर भी उसे अपने साथ ला नहीं सकते। जहां हमारा बचपन होता है, वहीं हमारी यादों का घरौंदा होता है, यादों के इस छोटे से घरौंदे में हमारा व्यक्तित्व ही समाया हुआ होता है। इसी घरौंदे का एक-एक तिनका जीवन की कठिनाइयों में हमारे सामने होता है। दूसरों के लिए वे भले ही तिनके हों, पर जब हम डूबने लगते हैं, तब यही हमें उबारने का एक माध्यम होते हैं। सच ही कहा गया है जिसने अपना बचपन भुला दिया दुनिया उसे भूल गई। इसीलिए विद्वान कह गए हैं कि यदि आप चाहते हैं कि दुनिया आपको न भूले, तो अपने बचपन को याद रखें, दुनिया अपने आप ही आपको याद रखेगी।

2 comments:

Jaijairam anand said...

bachpan pr aalekh padhkr apnaa bachpan aanhon men tairne lagaa
bahut bahut badhee aur liukhen.
Prof. Dr JaiJai Ram Anand

Jaijairam anand said...

very good wite up on childhood.Congratulations