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Jun 13, 2009

उदंती.com, मई- जून 2009

वर्ष 1, संयुक्तांक 10-11, मई-जून 2009
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जीवित भाषा, बहती नदी है जिसकी धारा नित्य एक ही मार्ग से प्रवाहित नहीं होती।
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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अनकही/पारिवारिक संबंधों में जहर

पुरातन/ मंदिर
चंदखुरी: कौशल्या का मायका था छत्तीसगढ़- उदंती फीचर्स
प्रकृति/जीवाणु
चींटियां : एक साल में 400 किलो ...
छोटा पर्दा/ मनोविज्ञान
बचपन : इन्हें टीवी देखने से... - स्त्रोत
क्या खूब कही
वे इंसानों का खून .., शरीर की गर्मी से ...
कम्प्यूटर / भाषा
यूनीकोड से भारतीय भाषा - नितीन जानकीदास देसाई
संगीत/यादें
इकबाल बानो - नाजिम नकवी
कविता- मुकुन्द कौशल के नवगीत
कला/ चित्रकार
फूलों और तितलियों के संग... - उदंती फीचर्स
कैरियर/ प्रतिभा पलायन
बेआबरू होकर कूचे से निकलना - डॉ. सिद्धार्थ खरे
कहानी/ उद्धार - रविन्द्रनाथ ठाकुर
इन दिनों / जूते की जंग - अविनाश वाचस्पति
ललित निबंध/ फूल को देखने का सुख- अखतर अली
21वी सदी के व्यंग्यकार
सीनियर राइटर्स - कैलाश मंडलेकर
किताबें/ श्रम की गरिमा का सम्मान
धूप में गुलाबी होती कहानियां
इस अंक के लेखक/ वाह भई वाह
आपके पत्र/ इन बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया
तिनके नहीं मिलेंगे तब..., उम्र को भूल जाइए
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ऐसा क्यों
ऐसा क्यों है कि घर पर लोग 'स्वयं कर के देखो' में जुटे रहते हैं और कार्य- स्थल पर कोई और कर लेगा की फेर में।
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पारिवारिक संबंधों में जहर

पारिवारिक संबंधों में जहर
 - डॉ. रत्ना वर्मा
आज यह लिखते हुए मेरी कलम कांप रही है, थरथरा रही है धरती पर तो भूकंप नहीं आया है परंतु फिर भी तनमन में तो भूकंप जैसी ही उथल-पथल हो रही है। कारण है समाज की सबसे पवित्र इकाई परिवार में घिनौने प्रदूषण का प्रकोप जो महामारी का रुप लेता दिख रहा है। परिवार, जिसका पवित्रतम अंग है माता- पिता का संतान से ममता और वात्सल्य का कल्याणकारी संबंध जिसके बलबूते पर एक पूर्णतया निरीह और असहाय शिशु के रुप में जन्मा प्राणी पनप कर मानव बनता है। इसी कारण से किसी भी बच्चे के लिए सबसे विश्वसनीय लोग उसके माता- पिता ही होते हैं।  जहां तक हमारी सभ्यता और संस्कृति की बात है तो माता- पिता द्वारा पुत्रियों को पुत्रों की तुलना में कुछ अधिक ही महत्व दिया जाता है। क्योंकि पुत्री को एक दिन वधू बनकर माता- पिता का घर छोडऩा पड़ता है।

इस परिप्रेक्ष्य में यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि कुछ माह पहले योरप से समाचार आया कि आस्ट्रिया में एक व्यक्ति जोसेफ फ्रिट्जल पुलिस द्वारा इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि वह अपनी पुत्री को पिछले 24 वर्षों से अपने घर के तहखाने में कैद रखकर उसके साथ बलात्कार करता रहा था जिसके फलस्वरुप उसकी पुत्री ने सात बच्चों को जन्म दिया था। इस घिनौने समाचार ने संसार भर में तहलका मचा दिया और इस दानवी बाप के लिए पूरे मानव समुदाय ने कठोरतम दण्ड की मांग की। अदालत ने भी इस दानवी बाप को आजीवन कारावास का दण्ड दे दिया है। इसके बाद इटली से भी एक कुकर्मी पिता का समाचार आया जिसने अपनी पुत्री को 25 वर्ष तक बंधक बनाकर बलात्कार किया और 8 बच्चों को जन्म दिया। इसके बाद कोलम्बिया (दक्षिणी अमेरिका) से भी एक पिता द्वारा पुत्री से कई वर्षों तक बलात्कार किए जाने का समाचार आया है।

इन समाचारों ने यह सोचने पर बाध्य किया कि द्वितीय विश्वयुृद्ध के बाद पश्चिमी दुनिया में ऐसे विनाशकारी बदलाव हुए कि जाने-परखे कल्याणकारी सामाजिक मूल्य और नैतिकता लुप्त हो गए जिससे वहां पारिवारिक संबंधों का ताना- बना भी जीर्ण- शीर्ण हो गया। स्वच्छंदता, उद्दंडता, अनाचार, अंग प्रदर्शन, नशाखोरी अविवाहित मातृत्व और विवाह की संस्था का अवमूल्यन पश्चिमी जगत में समाज स्वीकृत आचरण बन गए। थोड़े शब्दों में कहें तो जो कुछ भी समाज को हजारों वर्षों से अनुशासित, संयमित और सभ्य बनाये हुए था उसे दकियानूसी वर्जनाओं की बेडिय़ां बताते हुए उनसे मुक्ति के नाम पर उपरोक्त स्वच्छन्दता और अनाचार को आधुनिक प्रगतिशीलता का द्योतक बना दिया गया। ज्ञात हो कि फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल में वयस्क पुत्री या बहन के साथ यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं आते !!!

यह तो हुई विदेशों की बात लेकिन पिछले महीनों में मुम्बई, थाणे, नागपुर और अमृतसर से जिस प्रकार के  समाचार आये हैं उससे लगता है कि पश्चिमी दुनिया से फैल कर यह जहर भारतीय परिवारों की जड़ों को भी संक्रमित करने लगा है। मुंबई की एक 21 वर्षीया युवती ने पुलिस में यह शर्मनाक रिपोर्ट दर्ज कराई कि उसके व्यापारी पिता और दुष्ट तांत्रिक उसके साथ पिछले 9 वर्षों से लगातार बलात्कार करते रहे हैं। हाल में जब उसके पिता और दुष्ट तांत्रिक उसकी 15 वर्षीया छोटी बहन के साथ भी यह घिनौना कुकृत्य करने लगे तब मामला इस युवती की बर्दाश्त के बाहर हो गया। ताज्जुब तो यह है कि इस कुकृत्य में इन युवतियों की मां भी अपने पति और तांत्रिक से सहयोग कर रही थी। इसके अगले ही हफ्ते अमृतसर की एक 21 वर्षीया युवती ने भी मुंबई की उक्त युवती के साहस से प्रोत्साहित होकर रिपोर्ट लिखाई कि उसका पिता जो एक समृद्ध व्यापारी हंै, उसके साथ पिछले सात वर्षों से बलात्कार करता रहा है। ये दोनों ही परिवार बड़े नगरों में समृद्ध और शिक्षित वर्ग से आते हैं। स्पष्ट है कि इन दोनों परिवारों के कर्ता- धर्ताओं द्वारा भारतीय सभ्यता की उत्कृष्ट परंपराओं से उपजे सामाजिक मूल्यों को जीर्ण- शीर्ण वस्त्रों की भांति त्याग दिया गया था।

जैसा कि अनेक समाज शास्त्री और मानव व्यवहार विज्ञान के विशेषज्ञ कहते हैं कि 1990 के बाद से 24 घंटे टेलीविजन के माध्यम से हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की जो आंधी चल रही है उसने हमारे परिवारों को दिगभ्रमित कर हमें अपने पारंपरिक मूल्यों से विमुख कर दिया है। सीरियलों में भी विवाहेतर संबंधों और अविवाहित मातृत्व को आधुनिक भारतीय परिवारों में सहज आचरण के रुप में दिखाया जाता है। स्पष्ट है कि जहां ऐसा मनोरंजन (?)  दिन रात परोसा जाता हो वहां स्वाभाविक ही है कि परिवार के सदस्यों के मन में विकृतियां उपजती हैं। वैश्विकता (ग्लोबलाईजेशन) से प्रेरित आर्थिक उदारीकरण में गरीबी से ग्रसित हमारी बड़ी आबादी के उद्धार के सुनहरे सपने तो आर्थिक मन्दी के अंधे कुएं में लुप्त हो गए और गरीबी जहां की तहां रही, ऊपर से खाद्य पदार्थों की मंहगाई ने जिंदगी को और मुश्किल बना दिया। परंतु इससे भी बड़ी जो हानि हुई वह है हमारी सभ्यता और संस्कृति में फैलता जहरीला संक्रमण।

भारतीय परिवार में रक्त संबंधियों के बीच यौन संबंध प्राचीन काल से जघन्यतम और अक्षम्य अपराध की श्रेणी में रखे गए हैं। कहा भी गया है कि -
अनुज वघू भगिनी सुतनारी। सुन शठ कन्या सम ये चारी।
इनहिं कुदृष्टि बिलौके जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई। 
हमारा समाज आज भी उपरोक्त विधान का निष्ठापूर्वक पालन करता है। यही कारण है कि जिसने भी मुंबई और अमृतसर से आए उपरोक्त समाचारों को सुना उसने इसे अत्यंत जघन्य घृणित अपराध कहते हुए अपराधी माता- पिता को कड़े दण्ड की मांग की है। यद्यपि यह यथार्थ है कि इस तरह के नैतिक रुप से पूर्णतया पतित माता- पिता हमारे भारतीय समाज में अपवाद स्वरुप ही हैं परंतु हमारे समाज को इतना शर्मनाक अपराध एक अपवाद के रुप में भी स्वीकार्य नहीं है।

फिलहाल यह भी सत्य है कि हमारे देश में इस प्रकार के अपराध को भी अन्य बलात्कारों की श्रेणी में ही रखा जाता है अत: आवश्यकता है कि केन्द्रीय कानून मंत्रालय सगे- संबंधियों के बीच होने वाले बलात्कार को जघन्यतम अपराध की श्रेणी में रखने के लिए तुरंत कानून बनाए और कठोरतम से कठोरतम दण्ड का प्रावधान करें। साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जहां पश्चिमी समाज पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को बेडिय़ां मान कर तोड़ रहा है वहीं हमारा समाज पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को ऐसे घुंघरु मानता है जिनसे समाज में कल्याणकारी संगीत प्रस्फुटित होता है। अत: समय की मांग है कि पारिवारिक संबंधों को पवित्र, प्रगाढ़ और अक्षुण्ण बनाए रखने वाले हमारे पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को सभी शिक्षण संस्थाओं में अनिवार्य विषय बनाया जाए। ताकि माता- पिता अपवाद रुप में भी अपने पवित्र कर्तव्य से विमुख न हों। हमारी परंपरा में तो ईश्वर को माता- पिता के रुप में देखा जाता है। तभी तो ईश्वर वंदना में कहा जाता है कि-  त्वमेव माता, च पिता त्वमेव। 

हमारी भारतीय परंपरा यह कहती है कि माता- पिता का चरित्र इतना उज्ज्वल हो कि वह संतान के लिए अनुकरणीय आदर्श बने।


चंदखुरी- कौशल्या का मायका था छत्तीसगढ़

चंदखुरी-
कौशल्या का मायका था छत्तीसगढ़
चंदखुरी गांव में पटेल पारा में सोमवंशी नरेशों द्वारा बनाया गया 9वीं सदी में निर्मित भव्य शिव मंदिर है। जिसे पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित किया है। इस शिव मंदिर को देखने से यह पता चलता है कि इसका अनेक बार जीर्णोद्धार किया गया है जिसके कारण उसका मूल स्वरूप विकृत हो गया है। 

भारत के हृदय में स्थित छत्तीसगढ़ प्रदेश सांस्कृतिक विरासत एवं आकर्षक नैसर्गिक विविधताओं से परिपूर्ण हैं । छत्तीसगढ़ की पुरातत्व संपदा छत्तीसगढ़ को देश-विदेश में अलग रेखांकित करती है। आकर्षक पर्वत मालायें, नैसर्गिक वनांचल छत्तीसगढ़ के गौरवशाली इतिहास के साक्षी है । छत्तीसगढ़ अपने आप में समृद्ध पर्यटन क्षेत्र है। यह भू-भाग ऐतिहासिक, पुरातात्वीय, पौराणिक, धार्मिक दृष्टि से भी अत्यन्त प्रतिष्ठित है। दक्षिण कोसल इसका प्राचीन नाम है। यहां के भौगोलिक स्थिति के चिन्ह 7वीं शताब्दीं ईस्वी से महाभारत और रामायण में जीवन्त है ।
भगवान श्री राम ने दक्षिण कोसल के उत्तर तथा पूर्व भू-भागों से होते हुए दंडाकारण्य में प्रवेश किया था। उन्होंने वनवास की कुछ अवधि इस क्षेत्र में बिताई थी। महाभारत में भी पांडवों के युद्ध अभियान प्रसंग में दक्षिण-कोसल का विवरण है। प्रचलित किंवदतियां, दंतकथायें, पौराणिक साक्ष्य इन सब बातों की अधिक पुष्टि करते हैं।
छत्तीसगढ़ में यह प्रचलित मान्यता है कि माता कौशल्या इसी प्रदेश (कोशल) की रहने वाली थीं, इसीलिए इसे रामचन्द्र जी का ननिहाल माना जाता है। वानरराज सुग्रीव ने अपने साथियों को इसी दंडकारण्य क्षेत्र में सीताजी का पता लगाने भेजा था।
महाभारत काल में इसी पर्वत पर परशुराम का आश्रम होने का भी उल्लेख है। जनश्रुति है इसी पर्वत में जाकर दानवीर कर्ण ने उनसे शिक्षा पाई थी।  रतनपुर, आरंग एवं सिरपुर तीनों महाभारत कालीन नगर हैं। इसी तरह रामायण के पात्रों के नाम पर ग्राम एवं बस्तियां पहचानी गई हैं जैसे - रामपुर, लक्ष्मणपुर, भरतपुर, जनकपुर, सीतापुर आदि। रायगढ़ एवं बिलासपुर जिले के सीमा पर कोसीर ग्राम में तथा आरंग के निकट ग्राम बोरसी में भी महारानी कौशल्या का प्राचीन मंदिर मिलता है। इस प्रकार कौशल्या माता के मंदिर केवल छत्तीसगढ़ में ही अनेक स्थानों पर देखने को मिलते हैं।
प्राचीन धर्मग्रंथों से यह ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ के राजा महाकोशल की पुत्री होने के कारण राममाता को कौशल्या नाम से संबोधित किया जाता था (कोशलात्मजा कौशल्या मातु राम जननी)। इसी वजह से यह क्षेत्र महाकोशल अथवा कोशल क्षेत्र कहलाया। वाल्मिकी रामायण में भी इच्छावाकु वंश राजा दशरथ और कोशल देश की राजकन्या कौशल्या के विवाह प्रसंग का विशद वर्णन है। इस विवाह के अवसर पर कोशल नरेश महाकोशल ने अपनी पुत्री को स्त्रीधन के रूप में दस हजार गांव दान में दिए थे।
ऋषिमुनि कह गए हैं कि -
ज्ञानशक्तिश्च कौसल्या सुमित्रा        
उपासनात्मिका
क्रियाशक्तिश्च मैकेयी वेटो दशरथो नृप:
जगत पिता परमात्मा जिनके घर अवतरित हुए हों उन भाग्यशाली जगन्माता के विषय में कोई कह ही क्या सकता है, पूर्वजन्म में जो मनुशतरूपा थे वे ही इस जन्म में दशरथ के रूप में अवतरित हुए। महारानी कौशल्या कोशल नरेश भानुमन्त की पुत्री थी। पुराणों में ऐसी एक कथा  का भी उल्लेख है - रावण को यह पता था कि मुझे मारने वाले राम कौशल्या के गर्भ से ही उत्पन्न होंगे। अत: विवाह के पूर्व ही गिरिजा पूजन करने गयी कौशल्या का उन्होंने अपहरण कर लिया था।
प्राप्त साक्ष्य के अनुसार विनत वंश में कोशल नामक एक महाप्रतापी राजा हुए थे उनके ही नाम पर इस क्षेत्र का कोशल नामकरण हुआ। उनकी राजधानी बिलासपुर के मल्हार के निकट कोशल नगर में थी। कोशल वंश में आगे चलकर भानुमान हुए जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है।
रायपुर से सराईपाली जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर रायपुर से 15 किमी दूर मंदिर हसौद स्थित है, यहां से बांयी ओर 11 किमी दूर मंदिर हसौद से पक्की सड़क पर बैद चंदखुरी स्थित है। चंदखुरी गांव में पटेल पारा में सोमवंशी नरेशों द्वारा बनाया गया 9वीं सदी में निर्मित भव्य शिव
मंदिर है। जिसे पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित किया है।
चंदखुरी ग्राम में मोहदी ग्राम जाने के रास्ते में भरनी तालाब के पहले एक खलिहान के बाहर बांई ओर लगभग चार फीट ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। जिसके ऊपर का हिस्सा गोलाकार तथा नीचे का आधा भाग चौकोर वर्गाकार है इस शिवलिंग की बनावट आरंग के शिवलिंग के समान है। यह शिवलिंग सोमवंशी शासनकाल की है। इसी प्रकार भरनी तालाब के किनारे पीपल के जड़ में ऐसी ही प्राचीन छोटी आकृति का शिवलिंग स्थापित है।
चंदखुरी पचेड़ा मार्ग में बलसेन तालाब के बीच एक टीला है जो बारह मास जल से घिरा रहता है। इसी टिले में स्थित मंदिर में प्राचीन कौशिल्या देवी की प्रतिमा स्थापित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण गांव वालों ने 1916 में करवाया था। इस मंदिर में राम लक्ष्मण की प्रतिमा स्थापित है। राम मंदिर के सामने हनुमान मंदिर है तथा दाहिनी पाश्र्व में शिव परिवार का मंदिर है। शिव मंदिर को देखने से यह पता चलता है कि इसका अनेक बार जीर्णोद्धार किया गया है जिसके कारण उसका मूल स्वरूप विकृत हो गया है। कौशल्या मंदिर के आसपास बड़ी संख्या में प्राचीन मंदिरों के अवशेष बिखरे मिले थे। इससे अनुमान लगाया जाता है कि किसी समय वहां भव्य मंदिर था। पिछले दिनों पर्यटन विभाग ने चंदखुरी के इस क्षेत्र को पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने हेतु योजना तैयार की  हैं विश्वास है कि शीघ्र ही यह गांव पर्यटन के मानचित्र पर नजर आने लगेगा।
जहाँ कभी 126 तालाब थे
छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी आरंग में मंदिर, मठ किले एवं जलाशयों की बहुलता है। इस क्षेत्र के लोकगीत में छह कोरी छह तरिया का उल्लेख है जिसका मतलब यहां 126 तालाब थे। इनमें से कई  तालाब आज भी विद्यमान है। रानीसागर तालाब को जलक्रीड़ा के लिए बनाया गया था जिसके अवशेष ही अब नजर आते हैं। पास ही महल का भग्नावशेष है तथा छत्तीस एकड़ में फैला झलमला तालाब है जो कौशल्या कुंड के नाम से प्रसिद्ध है। इन्हीं सब तथ्यों के आधार पर इसे दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी माना जाता है। (उदंती फीचर्स)

चींटियाँ

चींटियाँ
एक साल में 400 किलो 
पत्तियाँ काटकर फफूंद को खिलाती हैं
प्रत्येक 'खेतिहर' चींटी किसी विशिष्ट फफूंद की खेती करती हैं। शेष फफूदों को अपने खेतों में आने से रोकने के लिए चींटियां फफूंद-रोधी पदार्थों का उपयोग करती हैं। ये फफूंद-रोधी पदार्थ चींटियां स्वयं नहीं बनाती बल्कि चींटियों के शरीर पर रहने वाले जीवाणु बनाते हैं।
शायद आप न जानते हों कि चींटियां पिछले 5 करोड़ सालों से खेती करती आ रही हैं। वे अपने 'खेतो' में फफूंद उगाती हैं और उन्हें खाती हैं। इन फफूंदों को उगाने के लिए ये चींटियां पत्तियां काट-काटकर लाती हैं और उन्हें क्यारियों में बिछा देती हैं ताकि फफूंद इनका उपयोग अपने भोजन के रूप में कर सकें। लेकिन पत्तियों को पचाना आसान काम नहीं होता।
 वैज्ञानिक मानते थे कि ये फफूंदें जरूर पत्तियों में पाए जाने वाले मुख्य पदार्थ सेल्यूलो$ज को पचा सकती होंगी मगर जब इन फफूंदों को प्रयोगशाला में उगाया जाता, तो ये सेल्यूलो$ज को पचाने में असमर्थ रहती थीं। अब लगता है कि इस रहस्य का खुलासा होने को है। प्रत्येक 'खेतिहर'  चींटी किसी विशिष्ट फफूं द की खेती करती हैं। शेष फफूंदों को अपने खेतों में आने से रोकने के लिए चींटियां फफूंद-रोधी पदार्थों का उपयोग करती हैं। ये फफूंद-रोधी पदार्थ चींटियां स्वयं नहीं बनाती बल्कि चींटियों के शरीर पर रहने वाले जीवाणु बनाते हैं।
यह बात तो केमरॉन क्यूरी ने 10 साल पहले ही पता कर ली थी कि इन 'खेतिहर ' चींटियों के शरीर पर एक्टिनोमायसीट समूह के जीवाणु पाए जाते हैं। अब क्यूरी ने हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, बोस्टन के जॉन क्लार्डी और अन्य साथियों के साथ मिलकर ऐसा एक फफूंद-रोधी पदार्थ शुद्घ रूप में प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। इसे उन्होंने 
डेंटीजेरुमायसीन नाम दिया है और यह कैन्डिडा अल्बीकेन्स नामक खमीर के खिलाफ कारगर साबित हुआ है। इस आधार पर केमरॉन का मत है कि ये चींटियां तो दवाइयों के चलते फिरते कारखाने हैं। मगर सेल्यूलोज की बात तो रह ही गई। और क्यूरी ने इस महत्वपूर्ण मामले पर भी प्रकाश डाला है। क्यूरी का कहना है कि चींटियों की एक बस्ती की चींटियां प्रति वर्ष करीब 400 किलोग्राम पत्तियां काटकर फफूंदों को खिलाती हैं। फफूंद इन पत्तियों को पचाती हैं मगर चींटियों द्वारा पाले गए जीवाणुओं की मदद से ही वे यह काम कर पाती हैं। यानी जहां पहले दो जीवों (चींटी और फफूंद) के परस्पर सम्बंधों की बात हो रही थी, वहां लगता है कि वास्तव में तीन जीव शामिल हैं।
चींटियों की बस्तियों में जीवाणुओं की मदद से फफूंद द्वारा सेल्यूलोज को पचाया जाना इन्सानों के लिए जैव ईंधन का बढि़या स्रोत साबित हो सकता है। वैज्ञानिक जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं कि सेल्यूलोज को तोडऩे का कोई कारगर तरीका हाथ लग जाए। क्यूरी का मत है कि यही वह तरीका है।

बचपन

मनोविज्ञान
इन्हें टीवी देखने से कैसे रोकें?
दो साल से कम उम्र के बच्चों को टेलीविजन बिल्कुल भी नहीं देखने देना चाहिए जबकि दो साल से बड़े बच्चों को भी दो घंटे से ज्यादा टीवी देखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

टेलीविजन अच्छी बातों के साथ-साथ बुराई का भी स्रोत हो सकता है। कई अनुसंधानों से खुलासा हुआ है कि टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा से बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता बढ़ी है, वे समाज-विरोधी कार्यों में प्रवृत्त हुए हैं। दुर्भाग्य से भारत में ऐसी कोई गाइडलाइन नहीं है जो यह तय कर सके कि विभिन्न उम्र के बच्चों के लिए कितना टीवी देखना अच्छा है और कितना बुरा। नवंबर 2008 में मुंबई के ताज व ओबेराय होटलों और सीएस टर्मिनल पर हुआ आतंकी हमला शारीरिक त्रासदी से भी कहीं बढ़कर था। इसका उन बच्चों की मानसिकता पर गंभीर असर पड़ा जिन्होंने इससे सम्बंधित प्रसारण को टीवी पर देखा।
इस घटना के बाद मनोचिकित्सकों के पास लाए जाने वाले ऐसे बच्चों की संख्या में 25 फीसदी इजाफा हुआ है जो चिंता और अनिद्रा की समस्या से ग्रस्त हैं। आम तौर पर ये बीमारियां स्कूली उम्र के बच्चों में नहीं पाई जाती हैं। दक्षिण मुंबई के वे बच्चे जिन्होंने अपनी खिड़कियों से इन आतंकी वारदातों को देखा था, अब सेना में जाने की तमन्ना रखने लगे हैं।
अभिभावकों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि उनके बच्चों के लिए टीवी कितना सुरक्षित है। इसको लेकर हमारे यहां कोई गाइडलाइन भी नहीं है। इसीलिए अभिभावकों ने टीवी पर मुंबई त्रासदी के दृश्यों को अपने बच्चों को देखने दिया जिनका लाइव प्रसारण टीवी चैनलों पर लगातार किया जा रहा था। यहां तक कि आतंकियों के सफाए के बाद भी बच्चे आतंकी हमले के टीवी फुटेज से चिपके रहे।
आम तौर पर टीवी के आदी बच्चों की शारीरिक गतिविधियां कम हो जाती हैं और वे मोटापे, उच्च रक्तचाप व मधुमेह जैसी बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। दिल्ली स्थित अपोलो हॉस्पिटल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. अनुपम सिबल कहते हैं, 'भारतीय बच्चों के लिए टीवी देखने के मानदंड बनाने का वक्त आ चुका है।' कई पश्चिमी देशों में इस तरह के नियम लागू किए गए हैं। दी अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स ने वर्ष 2004 में अपनी सिफारिश में कहा था कि दो साल से कम उम्र के बच्चों को टेलीविजन बिल्कुल भी नहीं देखने देना चाहिए जबकि दो साल से बड़े बच्चों को भी दो घंटे से ज्यादा टीवी देखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। चंडीगढ़ की एक गैर सरकारी संस्था हेल्थ एंड मेडिसीन ने उच्च व उच्च मध्यम वर्ग के करीब 500 बच्चों का सर्वेक्षण किया था।
इस सर्वेक्षण में उसने पाया कि बच्चे दिन-प्रतिदिन तनावग्रस्त होते जा रहे हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह है टेलीविजन। इससे बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता और गुस्सा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2002 में जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट 'हिंसा एवं स्वास्थ्य' में पहली बार वैश्विक स्तर पर हिंसा के कारण और हिंसा के असर को कम करने के उपाय पेश किए गए थे। हिंसा में रोजाना 1424  लोग मारे जाते हैं यानी लगभग हर एक मिनट में एक व्यक्ति जानलेवा हिंसा का शिकार होता है। इस हिंसा का एक स्रोत यानी टेलीविजन कई घरों में मौजूद है। अमरीका में बच्चे एक सप्ताह में औसतन 23 से 28 घंटे टीवी देखते हैं। एक अनुमान के अनुसार 18 साल की उम्र तक आते-आते एक बच्चा टीवी पर हिंसा के 20 हजार कारनामे देख चुका होगा जिनमें 48 हजार हत्याएं शामिल होंगी। कई अध्ययनों में साबित हो चुका है कि बच्चों के हिंसात्मक व्यवहार के लिए जिम्मेदार कई तत्वों में से टीवी एक बड़ा स्रोत है और इसका असर जिदंगी भर रह सकता है। मसलन, न्यूयार्क में 16 साल का एक किशोर एक शराबखाने का ताला तोड़कर अंदर घुस गया। उसने हाथों में दस्ताने पहन रखे थे। उस किशोर ने बाद में पुलिस को बताया कि उसे टीवी पर देखकर पता चला था कि इस तरह से मौका-ए-वारदात पर उंगलियों के निशान से बचा जा सकता है। इसी प्रकार अलाबामा में एक शिक्षक ने एक नौ साल के लड़के को अच्छे अंक नहीं दिए तो लड़के ने शिक्षक से बदला लेने के लिए जहरीले कार्ड भेजने की योजना बना ली। लड़के ने बाद में बताया कि ऐसा उसने एक रात पहले ही टीवी पर देखा था।
इस्राइल में शोधकर्ताओं ने तेल अवीव और ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों पर अध्ययन किया तो पाया कि दोनों ही इलाकों के बच्चे टीवी पर हिंसात्मक कार्यक्रमों को देखना पसंद करते हैं, लेकिन शहरी बच्चों ने न केवल कार्यक्रमों के चरित्रों के साथ खुद को जोड़ लिया, बल्कि उन्होंने टीवी की हिंसा को वास्तविक जीवन का ही प्रतिबिंब करार दिया।
प्रारंभिक स्कूली उम्र (6 से 11 साल) में बच्चों की ध्यान देने व संज्ञान लेने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है और वे पात्रों को व उनकी नीयत को पहचानने तथा उनके कार्यों के नतीजों को समझने लगते हैं। साथ ही वे मानसिक प्रयास भी कम करने लगते हैं। यही मानसिक प्रयास तय करता है कि वे टीवी से मिलने वाली सूचनाओं को गहराई से ग्रहण करते हैं या ऊपरी तौर पर।
टीवी की हिंसा बच्चों की बाद की जिदंगी पर असर डाल सकती है। यह बच्चों को समय से पहले ही वयस्क बना सकती है। बहुत छोटे बच्चे भी काफी तेजी से गतिशील कार्टून पात्रों के जरिए हिंसा से रू-ब-रू होते हैं। बच्चे केवल हिंसात्मक दृश्यों से ही आकर्षित नहीं होते, बल्कि उसके साथ अन्य मजाकिया फीचर्स भी उन्हें पसंद आते हैं। जैसा कि मनोविज्ञान के प्रोफेसर जॉन मरे कहते हैं, 'पात्रों को गोली मारी जाती है और इसे जिस तरह हास्य के साथ फिल्माया जाता है उससे बच्चों को संदेश जाता है कि हिंसा तो मजाक जैसी है और इसलिए उसमें कोई दिक्$कत नहीं है।'
टीवी पर हिंसात्मक दृश्य देखने के बाद छोटे बच्चे खेलकूद के दौरान अपेक्षाकृत अधिक आक्रामक व्यवहार करते हैं। टीवी सीरियल कूंग- फू की वजह से बच्चों में मार्शल आर्ट के प्रति रुझान फैशन की तरह बढ़ गया। कुछ स्कूलों में तो बच्चे उसी प्रकार के सितारे बनाते और एक-दूसरे पर फेंकते पाए गए जैसा कि इस सीरियल में दिखाया गया।
माना जाता है कि टीवी की हिंसा लोगों को जिदंगी की वास्तविक विभीषिकाओं के प्रति संवेदनहीन बनाती है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह न्यूयार्क की 9/11 या मुंबई की 26/11  जैसी घटनाओं के आघात को सहने के लिए हमें पूर्व से तैयार नहीं कर सकती। अधिकांश लोग गैंगस्टर्स की फिल्मों को इस भावना के बगैर देखते हैं कि हिंसा की उन्हें जरूरत है। दरअसल, पुराने जमाने में दोषियों को सरेआम फांसी देने या रोमन काल में हिंसात्मक ग्लैडिएटर खेलों या थिएटरों में प्रदर्शनों का मुख्य मकसद ही यही होता था कि लोग विद्रोह या बगावत से दूर रहें। टीवी पर हिंसात्मक दृश्यों को रोकना आसान है, लेकिन व्यावसायिक हितों की वजह से ऐसा नहीं किया जाता। ऐसे में बच्चों को हिंसात्मक कार्यक्रमों से दूर रखने की सारी जिम्मेदारी अभिभावकों पर ही है। बच्चों को हिंसात्मक दृश्यों से दूर रखने का एकमात्र तरीका तो यही है कि जब भी ऐसा कोई दृश्य आए, टीवी बंद कर दें।
एक छोटे बच्चे के लिए उसके अभिभावक ही आदर्श होते हैं। यदि वह बचपन में यह सीख लेता है कि टीवी पर क्या चीज उसके लिए खराब है, तो बड़ा होने पर भी वह उसे खराब ही मानेगा और टीवी पर ऐसे खराब दृश्यों के आने पर स्वयं ही टीवी बंद कर देगा। अधिकांश माता- पिता सेक्स संबंधी दृश्यों को अपने बच्चों के लिए देखना ठीक नहीं मानते हैं और ऐसे दृश्य आते ही वे टीवी बंद कर देते हैं। ठीक यही रवैया वे हिंसात्मक दृश्यों को लेकर भी आजमा व अपना सकते हैं। (स्त्रोत)
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वे इंसानों का खून पीते थे!!!

वे इंसानों का खून पीते थे!!!
वेनिस में एक कब्र की खुदाई करने पर एक ऐसा कंकाल मिला है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह एक वैम्पायर का है। वैम्पायर युरोप में बहुत प्रसिद्घ रहे हैं और उनके बारे में माना जाता था कि वे इंसानों का खून पीते थे। मध्य युग में जब युरोप में प्लेग फैला था तो हजारों लोग मारे गए थे। कई जगहों पर इन्हें सामूहिक रूप से दफनाया गया था। इटली के फ्लोरेंस विश्वविद्यालय के मैटियो बोरिनी वेनिस में लैजरेटो नुओवो द्वीप पर ऐसी ही सामूहिक कब्र खोद रहे थे। यहां से उन्हें एक महिला का कंकाल मिला जिसके मुंह में एक ईंट फंसी हुई है। यह ईंट फंसा कंकाल एक दंतकथा का प्रमाण पेश करता है। जिस समय इस महिला की मृत्यु हुई थी, उस समय कई लोग मानते थे कि प्लेग वैम्पायरों द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारी है। ये वैम्पायर लोगों का खून पीने की बजाय मरने के बाद अपने कफन को चबाते हैं और बीमारी को फैलाते हैं। प्रचलित मान्यता के चलते कब्र तैयार करने वाले ऐसे संदिग्ध वैम्पायरों के मुंह में एक ईंट फंसा देते थे ताकि वे कफन न चबा सकें।
वैम्पायरों के बारे में इस मान्यता का आधार शायद यह था कि कभी-कभी शव के मुंह से खून टपकता है जिसकी वजह से कफन अंदर की ओर धंस जाता है और फट जाता है। इस संबंध में बोरिनी ने अपना शोध पत्र अमेरिकन एकेडमी ऑफ फॉरेंसिक साइंस की एक बैठक में प्रस्तुत करते हुए बताया कि संभवत: यह पहला 'वैम्पायर' है जिसकी अपराध वैज्ञानिक जांच हुई है। यह कंकाल वेनिस में 1576 में फैले प्लेग के मृतकों की एक कब्र में से निकाला गया है। बोरिनी का दावा है कि यह खोज उस समय प्रचलित मान्यता का एक पुरातात्विक प्रमाण है। अलबत्ता, कुछ अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि यह खोज रोमांचक जरूर है मगर इसे प्रथम वैम्पायर कहना थोड़ी ज्यादती है।
शरीर की गर्मी से बनेगी बिजली 
बहुत कम बिजली पर चलने वाले उपकरण भविष्य में हमारे शरीर की गर्मी से चल सकेंगे। जर्मनी
 में एरलांगन के एक संस्थान के शोधकों ने रेत के दाने जितना बड़ा एक ऐसा सूक्ष्म यंत्र बनाया है, जो गर्मी को बिजली में बदलने वाले मात्र डाक टिकट जितने बड़े एक थर्मो-जनरेटर की मदद से बहुत कम वोल्टेज की बिजली पैदा करता है।    
कानों की मशीन चलेगी शरीर की गर्मी से!!! 
 इस बिजली से, उदाहरण के लिए, ऊंचा सुनने वाले अपने कान में लगे श्रवणयंत्र को चला सकते हैं। इस मिनी जनरेटर के लिए बाहरी हवा और शरीर की गर्मी के बीच मात्र दो डिग्री अंतर होना भी पर्याप्त है। चलिए इंसान के शरीर की गर्माहट कुछ तो काम आएगी। संभवत: एक दिन ऐसा भी आएगा कि उसके शरीर की गर्मी से वह अपनी रोजमर्रा के कार्यों को भी कर सकेगा जैसे खाना पकाना, कार या मोटर साइकिल चलाना।

Jun 12, 2009

यूनीकोड से भारतीय भाषा को मिली विश्व स्तर पर पहचान

यूनीकोड से भारतीय भाषा को
 मिली विश्व स्तर पर पहचान
- नितीन जे. देसाई
कम्प्यूटर जब भारत में आया तो हमने उसका स्वागत किया।  कम्प्यूटर को तो हम अपने अनुरूप नहीं बना पाए, लेकिन हमने स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लिया।  यहां तक कि हमारा जो काम हम स्थानीय भाषाओं में किया करते थे, उसे अंग्रेजी में अपना लिया।

आज हम कम्प्यूटर की पांचवी पीढ़ी में विचरण कर रहे हैं।  इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस क्षेत्र में हम कितना आगे बढ़ चुके हैं। कम्प्यूटर हमारे दैनंदिन जीवन और हमारी समाज व्यवस्था का अंग बन गया है। अब इस मुकाम से पीछे हटना लगभग असंभव है। किसी भी क्षेत्र में विकास करना मानव का स्वभाव रहा है जो आवश्यक भी है। लेकिन विकास की दौड़ में कहीं हम अपने बुनियादी मूल्यों का हनन तो नहीं कर रहे? इस पर विचार करना आवश्यक है।
कम्प्यूटर जब भारत में आया तो हमने उसका स्वागत किया।  कम्प्यूटर को तो हम अपने अनुरूप नहीं बना पाए, लेकिन हमने स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लिया।  यहां तक कि हमारा जो काम हम स्थानीय भाषाओं में किया करते थे, उसे अंग्रेजी में अपना लिया। कालांतर में हमारी अंतरात्मा की आवाज कहो, वाणिज्यिक आवश्यकता कहो या सरकारी आदेश, स्थानीय भाषाओं पर हमारा ध्यान गया और हमने कम्प्यूटर को भारतीय भाषाओं के अनुरूप बनाने की कोशिश की।  इसमें कुछ हद तक हमें सफलता भी मिली। कम्प्यूटर भारतीय भाषाओं में काम करने लगा।  कम्प्यूटर क्षेत्र में इसे एक क्रांति माना जाने लगा। वाकई वह एक क्रांति थी। अब इस व्यवसाय में होड़ शुरू हो गई। कई सॉफ्टवेयर कंपनियों ने भारतीय भाषाओं में काम करने लायक सॉफ्टवेयर और फॉन्ट बना डाले।  इधर केंद्र सरकार ने सरकारी कार्यालयों, उपक्रमों और बैंकों में हिंदी के उपयोग के लिए और राज्य सरकारों ने स्थानीय भाषाओं का कम्प्यूटर में उपयोग करने के लिए आदेश जारी कर दिए। फलस्वरूप हिंदी और देशीय भाषाओं के सॉफ्टवेयरों के लिए भारत में एक अच्छा खासा बाज़ार तैयार हो गया। कालांतर में इन हिंदी सॉफ्टवेयरों की कमियां उभरकर सामने आने लगीं।
 हिंदी सॉफ्टवेयरों के संबंध में सबसे पहली समस्या यह आई कि इनके फॉन्ट आपस में मेल नहीं खाते थे। अर्थात, यदि किसी एक कंपनी के हिंदी फॉन्ट में कोई टेक्स्ट बनाया गया हो तो वह दूसरी कंपनी के हिंदी सॉफ्टवेयर में नहीं खुलता था। यह टेक्स्ट केवल उसी कम्प्यूटर में खुलता था जिसमें उसी कंपनी का हिंदी सॉफ्टवेयर लगा होता था। अत: किसी कंपनी विशेष द्वारा तैयार किए गए सॉफ्टवेयर में लिखित पाठ उसी स्थिति में पढ़ा जा सकता था जब दूसरे कम्प्यूटर में भी वहीं सॉफ्टवेयर लगा हो।  इसका मूल कारण था हिंदी फॉन्टों के निर्माण का आधार। उदाहरणस्वरूप, आप अपने ट्रांजिस्टर या केल्कुलेटर में किसी भी कंपनी का पेन्सिल सेल इस्तेमाल कर सकते हैं, भले ही वे विश्व में कहीं भी बना हो। यह इसलिए संभव है क्योंकि सभी कंपनियां इसका उत्पादन विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त मापदंडों के अनुसार ही करती हैं जिसके कारण उनकी बाहरी साज- सज्जा को छोड़कर उनका मूल ढांचा एक समान रहता है। यही सूत्र  अंग्रेजी फॉन्टों पर भी लागू है। अंग्रेजी के लगभग सभी फॉन्ट अमरीका में बने हैं और एक ही कोडिंग प्रणाली पर आधारित हैं जिन्हें आस्की  कहा जाता है।  इसलिए ये फॉन्ट आपस में एक-दूसरे के अनुरूप होते हैं और एक कम्प्यूटर से दूसरे कम्प्यूटर में अंग्रेजी टेक्स्ट भेजने पर वह ठीक दिखाई देता है।
अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यूनिकोड प्रणाली पर फॉन्ट विकसित किए जा रहे हैं। इससे यह संभव हो गया है कि कोई भी फॉन्ट, भले ही वह विश्व में कहीं भी निर्मित हो, आपके कम्प्यूटर पर खुल जाएगा, यदि वह यूनिकोड में बना हो।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए फॉन्ट विकसित करने के लिए इस प्रकार की मानक कोडिंग के लिए उस समय कोई विचार नहीं किया गया था। पुणे स्थित सी-डैक ने इस ओर कुछ प्रयास किए थे और डस्की कोडिंग (ISCII इंडियन स्टैंडर्ड कोड फॉर इन्फॉर्मेशन इंटरचेंज) प्रणाली स्थापित करने के प्रयास किए। लेकिन इसे लागू करने में सफलता नहीं मिली। निजी कंपनियां अपने स्वयं की सुविधानुसार, बिना किसी मानक कोडिंग प्रणाली के, नए-नए फॉन्ट विकसित करती गईं और ग्राहकों को अपने साफ्टवेयर बेचती रहीं।  परिणामस्वरूप, हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के लिए ग्राहकों को अपने सभी कम्प्यूटरों के लिए एक ही कंपनी का सॉफ्टवेयर खरीदना पड़ता था ताकि फॉन्ट की समस्या का सामना न करना पड़े। सबसे बड़ी समस्या सरकारी कार्यालयों और सरकारी कंपनियों को थी। स्थानीय भाषाओं के लिए यह समस्या उतनी गंभीर नहीं थी और किसी प्रकार सुलझाई  जा सकती थी।  लेकिन हिंदी के मामले में एक तो भारत सरकार के राजभाषा नियमों और आदेशों का पालन करना था, तो दूसरी ओर कार्यालय के सैंकड़ों कम्प्यूटरों में फॉन्ट की एकरूपता भी बनाए रखनी थी। परिणामस्वरूप उन्हें किसी एक ही कंपनी का  साफ्टवेयर खरीदना पड़ता था ताकि फॉन्ट की समस्या न रहे।  इससे सॉफ्टवेयर कंपनियों की अपने-अपने क्षेत्र में मोनोपली बनने लगी।  यही स्थिति कई वर्षों तक बनी रही। हिंदी सॉफ्टवेयर कंपनियों का एक प्रकार से इन कार्यालयों पर एकाधिकार सा बन गया।  अत: इन कंपनियों को एक-समान कोडिंग पद्धति पर कभी विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।  इस ओर न किसी का ध्यान गया और न ही कोई ठोस प्रयास हुए।  व्यावसायिक एकाधिकार बनाए रखना भी इसका एक कारण को सकता है। इधर कम्प्यूटर क्षेत्र में तेज़ी से विकास होता रहा।  पहले पेंटियम-।, फिर पेंटियम-।।, पेंटियम-।।। और पेंटियम –ढ्ढङ्क आदि-आदि। इसी प्रकार ऑपरेटिंग सिस्टम में भी विकासात्मक परिवर्तन होते गए। इसके चलते हिंदी फॉन्टों की समस्या और भी बढ़ गई क्योंकि ऑपरेटिंग सिस्टम और एम.एस.ऑफिस जैसे सॉफ्टवेयर बदलने पर इन फॉन्टों के उपयोग में कठिनाइयां आने लगीं। उधर कार्यालयों के कामकाज में भी भारी परिवर्तन हुए। इंटरनेट और ई-मेल का उपयोग बढ़ गया। इससे हिंदी में किए जाने वाले कार्य में अड़चनें उत्पन्न होने लगीं।  इन फॉन्टों का न तो इंटरनेट साइट बनाने के लिए उपयोग हो पाता था और न ही ई-मेल आदि भेजने के लिए।
सरकारी कार्यालयों और उपक्रमों को भारत सरकार की राजभाषा नीति संबंधी आदेशों का पालन करने में दिक्कतें आने लगीं।  सरकार ने इस समस्या पर गौर किया। अंत में कम्प्यूटर क्षेत्र के विशेषज्ञों की सहमति से यह निर्णय लिया गया कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए यूनिकोड प्रणाली अपनाई जाए और यूनिकोड आधारित फॉन्ट विकसित कराए जाएं ताकि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में किए गए कार्य का आदान- प्रदान आसानी से हो सके। भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने यूनिकोड कंसोर्शियम और भारतीय भाषाओं पर काम करने वाली  कुछ प्रमुख साफ्टवेयर कंपनियों के साथ मिलकर यूनिकोड प्रणाली पर आधारित फॉन्ट विकसित करने के प्रयास शुरू किए। परिणामस्वरूप सितंबर 2005 में सरकार की ओर से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए नि:शुल्क यूनिकोड फॉन्ट उपलब्ध कराए गए। पहली बार यह एक सुसंगठित और ठोस प्रयास था। माइक्रोसॉफ्ट जैसे सॉफ्टवेयर जायंट ने भी इसके महत्व को पहचाना और अपने ऑपरेटिंग सिस्टम में इसे शामिल किया और फॉन्ट का नाम रखा मंगल। यह फॉन्ट ऑपरेटिंग सिस्टम 2000 और उससे उच्चतर वर्जन में पहले से विद्यमान है। भारत सरकार ने हिंदी के लगभग सौ यूनिकोड फॉन्ट अपनी वेबसाइट www.ildc.in पर उपलब्ध कराए हैं।
फॉन्ट के अलावा अन्य कई सुविधाएं इस साइट पर उपलब्ध हैं। अनुरोध करने पर कोई भी व्यक्ति अपने नाम का पंजीकरण करके इसकी सीडी नि:शुल्क प्राप्त कर सकता है। माइक्रोसॉफ्ट ने भी www.bhashaindia.com पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के लिए कई सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं। सीडैक, साइबरस्केप, मॉड्यूलर जैसी भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों का इसमें सराहनीय योगदान रहा है। अब कहा जा सकता है कि भारत में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए यूनिकोड आधारित फॉन्ट उपलब्ध हो गए हैं। जहां तक यूनिकोड फॉन्ट विकसित करने और उसकी उपलब्धता का प्रश्न था उसका काफी हद तक समाधान हो गया।
किंतु इस समस्या के दूसरे पक्ष का समाधान होना अभी बाकी था और वह था इसे लागू करने का।  सबसे बड़ी समस्या तो यह थी कि गैर यूनिकोड फॉन्टों में पहले से जो सामग्री तैयार की जा चुकी थी उसका क्या होगा।  इसके लिए सॉफ्टवेयर निर्माताओं ने कन्वर्टर दिए थे जो गैर-यूनिकोड फॉन्टों को यूनिकोड फॉन्टों में परिवर्तित करते थे।  अभी इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिली है।  दूसरा गंभीर प्रश्न यह था कि यूनिकोड में काम करने के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम विंडोज़ 2000 या एक्स.पी. की आवश्यकता होती है।  सरकारी कार्यालयों और बैंकों में अभी भी कई कम्प्यूटर ऐसे हैं जिनमें विंडोज़ 98 का उपयोग हो रहा है।  इस कम्प्यूटरों को विंडोज़ 2000 या विंडोज़ एक्स.पी. में अपग्रेड करना होगा जिसमें काफी खर्च निहित है। लेकिन अब यह समस्या समाप्त होती जा रही है क्योंकि लगभग सभी सरकारी कार्यालयों, बैंकों आदि में अपग्रेडेशन हो रहा है। इसके अलावा एक अन्य समस्या की-बोर्ड की थी जो अभी भी बनी हुई है।  विविध कार्यालयों में विविध प्रकार के की-बोर्ड उपयोग में लाए जा रहे हैं, जैसे कहीं सामान्य हिंदी टाइपराइटर की-बोर्ड का इस्तेमाल हो रहा है तो कहीं भारत सरकार सरकार द्वारा विकसित इन्सक्रिप्ट की-बोर्ड का।  कई उपयोगकर्ता ध्वनि आधारित फोनेटिक की-बोर्ड को पसंद करते है क्योंकि इससे उन्हें अलग से किसी टाइपराइटर को सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती और उसमें अंग्रेजी टाइपराइटर की-बोर्ड से सीधे हिंदी में टाइप किया जा सकता है।  कहीं-कहीं की-बोर्ड अपनी सुविधानुसार अलग से भी बनवाए गए हैं।  इतनी विविधता के चलते हमें यूनिकोड फॉन्टों के साथ-साथ यह सुविधाएं भी उपलब्ध करानी होंगी।  अंत में एक संवेदनशील मसला बच जाता है वैयक्तिक दृष्टिकोण का। यदि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को विश्व स्तर की अन्य भाषाओं के समकक्ष स्थापित करना है तो यूनिकोड को अपनाना ही होगा। इसके लिए हमें मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा और अपना दृष्टिकोण भी बदलना होगा।
हिंदी और हमारी क्षेत्रीय भाषाएं यूनिकोड मंच पर पहुंच जाने से उन्हें एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली है। अब विश्व स्तर पर इन भाषाओं का प्रचलन संभव हो सकेगा। भारतीय संस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए यह जो सशक्त माध्यम हमें प्राप्त हुआ है उसे अनदेखा नहीं करना है। शुरूआत स्वयं से करनी है।

इकबाल बानोः जिनकी आवाज जख्म भरने का काम करती थी

इकबाल बानोः 
जिनकी आवाज जख्म भरने का काम करती थी
- नाजिम नकवी
पता नहीं कितनों को ये इल्म है कि इकबाल बानों की पैदाइश इसी दिल्ली में हुई। दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खान ने उन्हें शास्त्रीय संगीत और लाइट क्लास्किल म्यूजिक में प्रशिक्षित किया। पहली बार उनकी आवाज को लोगों ने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली से सुना।
पाकिस्तान से कोई ताज़ा ख़बर है?... ज़रूर कोई बुरी ख़बर होगी। याद नहीं पिछली बार कब इस मुल्क से कोई अच्छी ख़बर सुनने को मिली थी। करेले जैसी ख़बरें वो भी नीम चढ़ी कि उनपर अफ़सोस करने के लिये न तो दिमाग़ के पास फ़ालतू-दिमाग़ रह गया है और न दिल के पास वो धड़कनें जो आंसू में ढल जाती हैं। नहीं दोस्त ये वाक़ई बुरी ख़बर है... और फिर जो कुछ मोबाइल पर कहा गया वो वाक़ई यक़ीन करने वाला नहीं था। इक़बाल बानों नहीं रहीं।
हंसी कब ग़ायब हो गई, बेयक़ीनी कब यक़ीन में बदल गई, पता ही नहीं चला। एक ऐसे मुल्क में जहां ख़तरनाक ख़बरें रोज़मर्रा की हक़ीक़त बन चुकी हैं। जहां मौत तमाशा बन चुकी है वहां इक़बाल बानों की मौत ने उस आवाज़ को भी हमसे छीन लिया जो ज़ख्म भरने का काम करती थी, जो रूह का इलाज थी। 'दश्ते तन्हाई में ऐ जाने जहां जिंदा हैं'  फ़ैज़ की ये नज़्म अगर सुननेवालों के दिलों में जि़ंदा है तो इसकी एक बड़ी वजह इक़बाल बानों की वो आवाज़ है जो इसका जिस्म बन गई। बहरहाल ये सच है कि 21 अप्रैल 2009 को इकबाल बानो अपने चाहने वालों को ख़ुदा हाफिज़ कहके हमेशा-हमेशा के लिये रुख़सत हो गईं। और इसी के साथ ठुमरी, दादरा, खय़ाल और गज़़ल की एक बेहतरीन खिदमतगार एक न मिटने वाली याद बन कर रह गई।
'हम देखेंगे, लाजि़म है कि हम भी देखेंगे... हम देखेंगे' यूनिवर्सिटी के ज़माने से लेकर अब तक जब कभी ये नज़्म गायी गई, बदन में सिरहन दौड़ा गई। कई बार टेप की हुई आवाज़ में इसे सुना और साथ ही सुनीं वो हज़ारों तालियां जो लय के साथ-साथ गीत को ऊंचा और ऊंचा उठाती रहीं। मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे कि इस नज़्म के अलावा शायद ही कभी किसी और गीत को जनता का, श्रोताओं का, दर्शकों का इतना गहरा समर्थन कभी मिला हो, हमने तो कभी नहीं देखा-सुना हालांकि सब कुछ देखने-सुनने का कोई दावा भी हम नहीं करते। अवाम की आवाज़ में हुक्मरानों के खिलाफ़ पंक्ति दर पंक्ति व्यंग्य की लज़्ज़त महसूस करना और ताली बजाकर उसके साथ समर्थन का रोमांच जिन श्रोताओं की यादों का हिस्सा है उन्हें इक़बाल बानो की मौत कैसे खल रही होगी इसका अंदाज़ा हम लगा सकते हैं।
पता नहीं कितनों को ये इल्म है कि इकबाल बानों की पैदाइश इसी दिल्ली में हुई। दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खान ने उन्हें शास्त्रीय संगीत और लाइट क्लासिकल म्यूजि़क में प्रशिक्षित किया। पहली बार उनकी आवाज़ को लोगों ने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली से सुना। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। अगर इजाज़त हो तो ये कहना चाहूंगा कि हमारे पास दो बेगम अख्तर थीं, विभाजन में हमने एक पाकिस्तान को दे दी। 1952 में, 17 साल की उम्र में उनकी शादी एक ज़मींदार से कर दी गई। इक़बाल बानो की इस शर्त के साथ कि उनके शौहर उन्हें गाने से कभी नहीं रोकेंगे। ताज्जुब है कि मौसिकी के नाम पर, एक इस्लामी गणराज्य में, एक शौहर अपने वचन के साथ अंत तक बंधा रहा और इक़बाल बानो की आवाज़ के करिश्में दुनिया सुनती रहीं।
1957 से वो संगीत की अपनी प्रस्तुतियों के द्वारा लोकप्रियता की सीढियां चढऩे लगीं। और जल्दी ही फ़ैज़ के कलाम को गाने की एक्सपर्ट कही जाने लगीं। प्रगतिशील आंदोलन के बैनर तले जब भी, कहीं भी, कोई भी आयोजन हुआ तो इक़बाल बानो की आवाज़ हमेशा उसमें शामिल रही। हर ख़ास और आम ने इस आवाज़ को सराहा, उसे दिल से चाहा। (हिन्द युग्म.com)

तार-तार जिंदगी हुई, पत्र तुम्हारा

तार-तार जिंदगी हुई
- मुकुन्द कौशल
जार-जार चांदनी हुई
तार-तार जिंदगी हुई
योजनाएं अर्थ खो चुकीं
लो बहुत विकास हो गया
गांव-गांव धूल से सने
खेत में किसान अनमने
झोपड़ी गरीब की जली
हर तरफ उजास हो गया।

बूंद-बूंद भाप बन उड़ी
दर्द को न छांव मिल सकी
खिल सकी न नेह की कली
मन बहुत उदास हो गया।
बात-बात स्वार्थ से सनी
लोग सिर्फ बात के धनी
आदमी रहा न आदमी
आदमी का दास हो गया।
        पत्र तुम्हारा 
 पत्र तुम्हारा मुझे प्रेम के,
ढाई आखर सा लगता है।
यूं तो तुमने इस चिट्ठी में
ऐसा कुछ भी लिखा नहीं है
सब स्पष्ट समझ आ जाए
ऐसा भी कुछ दिखा नहीं है
किंतु भाव-भाषा से उठती
इसमें जो रसमय तरंग है
उस तरंग का रंग बहुत ही
सुंदर-सुंदर सा लगता है।
कहते हैं चिन्तन के पथ पर
जो चलता है वह अरस्तु है
जीवन की हर एक लघुकथा
उपन्यास की विषय वस्तु है
अर्थ बड़ा व्यापक होता है
संकेतों में लिखे पत्र का
कम शब्दों के पानी में भी
गहरे सागर सा लगता है।
आकर्षण के प्रश्नपत्र को
कब किसने जांचा है अब तक
स्पर्शों की लिपियों को भी
अनुभव ने बांचा है अब तक
टेटू से अंकित की तुमने
उड़ते पंछी की आकृतियां
तबसे मुझको अपना मन भी,
नीले अम्बर सा लगता है।
ठग रही हैं पत्रिकाएं
खिलखिलाकर हंस रही हैं वर्जनाएं
टूटकर बिखरी पड़ी हैं मान्यताएं।।
बिक रही है मंडियो में आधुनिकता
और नारी देह, ऊंचे दाम पर
छापकर निर्वस्त्र काया के कथानक
संस्कारों के क्षरण के नाम पर
पाठकों को ठग रहीं हैं पत्रिकाएं।
प्रेस की बलिवेदियों पर हो रहा है
सर्जना का सामूहिक संहार अब
छुप गया विद्रोह जाकर कन्दरा में
 कोई भी करता नहीं प्रतिकर अब
मुत्युशय्या पर पड़ी हैं सभ्यताएं।
पुत्रियों के पर्स से कुछ चित्र निकले
मच गया परिवार में हड़कम्प सा
पुत्र ले आया बिना ब्याहे बहू को
और घर में आ गया भूकंप सा
हो रही हैं पीढिय़ों साधनाएं।
यह नई झुग्गी
यह नई झुग्गी,
बहुत तनकर खड़ी तो है-
लग रहा है टूटकर गिर जाएगी इक दिन।
कामनाएं देर तक सोयी हुईं
वेदनाएं रात भर रोयी हुईं
हर हथेली पर उभरते आबले
पांव के नीचे लरजते •जलजले
गुदगुदी करती,
समय की खिलखिलाहट भी -

मौन होकर दर्द के घर जाएगी इक दिन।
बस्तियां बोझिल उनींदी भोर में
पीर डूबी क्रन्दनों के शोर में
बन्द रोशनदान वाली जिन्दगी
सब्र में लिपटी हुई शर्मिन्दगी
नीति की दुर्गति,
भयावहता गिरावट की
हर किसी की आंख में तिर जाएगी इक दिन।
घर गिरे, उजड़ी पुरानी बस्तियां
फिर उठी चौरास्तों से गुमटियां
बन्द आंखों में सुलगती आग है
आंसुओं में अग्निधर्मा राग है
आंधियां शायद,
सभी कुछ ध्वस्त कर देंगी
किंतु मेहनत फिर उसे सिर जाएगी इक दिन।

फूलों और तितलियों के संग बतियाते

फूलों और तितलियों के संग बतियाते
-अनिल खोब्रागड़े
उदंती.com के इस अंक में किसी एक कलाकार को प्रस्तुत करने की श्रृंखला में इस बार हमने अनिल खोब्रागड़े के चित्रों को विभिन्न पन्नों पर प्रकाशित किया है। अनिल के चित्रों में एक ओर जहां क्षेत्रीय संस्कृति की छाप हैं वहीं वे प्रकृति के रंगों को चुरा कर वर्तमान में रंग भरने का खूबसूरत प्रयास करते हैं। रंग बिरंगे फूल और तितली के साथ उन्होंने बस्तर के जीवन को रेखाओं में उतारा है।
बैलाडीला में स्कूली शिक्षा प्राप्त अनिल खोब्रागड़े को पेंटिंग में रुचि बचपन में अपने दोस्त की बहन को कढ़ाई बुनाई करते देख कर हुई। अनिल कहते हैं रंग बिरंगे धागों से उनकी कढ़ाई को देखकर मैंने भी एक ग्रीटिंग कार्ड बनाया। संयोग देखिए दोस्त की उस बहन की शादी एक आर्टिस्ट जितेन्द्र साहू से हो गइ, जब उन्हें मेरी रुचि के बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे खैरागढ़ में इसकी शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया।  मैं पहले तो इस क्षेत्र को समझ नहीं पाया फिर धीरे-धीरे मेरे सीनियर्स व गुरुओं के प्रोत्साहन से काम करने लगा।
चूंकि मेरा जन्म बस्तर में हुआ है तो मैंने पहले बस्तर की संस्कृति को अपनी पेटिंग्स में तराशा।  जैसे बस्तर के आदिवासी किस तरह जंगल में मशरूम चुनते हैं, किस तरह गोदना गुदाते हैं।  इसी तरह सल्फी जो बस्तर के जीवन  का अनिवार्य अंग है, को चित्रित किया। मैंने अपनी पेटिंग में इमेजिनेशन को अधिक महत्व दिया।
 बाद में मैंने महसूस किया कि आदिवसियों के जीवन में बदलाव आने लगा  है। उनपर आधुनिकता का असर तो हुआ पर वे पूरी तरह उसे अपना नहीं पाए- जैसे वे चप्पल तो जान गये पर उसे वे पहन नहीं पाए। उनके पास चप्पल  तो होता है पर जब वे हाट से घर की ओर लौटते हैं तो उनका चप्पल पैरों में नहीं डंडे में लटका होता है। इस तरह के दृश्यों को भी मैंने अपने चित्रों में उतारने की कोशिश की।
मैंने पिछले कुछ वर्षों में देखा कि आदिवासी पहले खुश व संतुष्ट होकर अपना जीवन जीते थे पर अब विकास के नाम पर वह दुखित हो गया है। उनके जीवन में आए इस बदलाव पर भी मैंने काम किया है।
बस्तर के जीवन को अपना विषय बनाने के साथ अनिल ने  बच्चों के मूड पर काम किया  है। नेहरू आर्ट गैलरी में बच्चों के विभिन्न मूड वाली उनकी पेटिंग्स अवार्ड के लिए चुनी गई थी। इसके बाद उन्होंने तितली और फिर फूलों के सीरीज पर काम किया।
चित्र प्रदर्शनी के कुछ अनुभव सुनाते हुए अनिल ने बनारस के अस्सी घाट में लगाए गये एक ओपन एक्जीबिशन को अपने जीवन की  शानदार प्रस्तुतियों में से एक बताया, इस प्रदर्शनी में  हम सीधे जनता के साथ रुबरु थे। इस प्रदर्शनी के लिए कला कम्यून संस्था ने हमें आमंत्रित किया था।  अस्सी घाट की उस चित्र प्रदर्शनी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। घाट में तो हमारी पेंटिंग्स प्रदर्शित थी ही हमने बांस व लकड़ी के सहारे नदी में भी अपनी पेंटिंग का प्रदर्शन किया था जो अद्भुत था। अनिल ने कविता पोस्टर भी किया है। भिलाई, खैरागढ़ आदि कई स्थानों में  भी अनिल की कई प्रदर्शनी लग चुकी हैं।
ठंड, बाजार, बारिश और ओस पर भी अनिल ने बेहतरीन काम किया है। लेकिन अनिल ने गत वर्ष  फूलों को लेकर जो श्रृंखला बनाई है वह उनके किए गए पूर्व के कार्यों से कुछ हट कर है। अपने फ्लावर सीरीज के बारे में अनिल का कहना है कि - मैंने महसूस किया कि हम सब फूल के बाहरी स्वरुप को ही देखते हैं पर मैंने सोचा कि इन फूलों के साथ यदि उन्हें जीवन देने वाले पानी के साथ मिला दिया जाए तो उस फूल का क्या रूप होगा, यही कल्पना करके मैंने इस सीरीज को शुरु किया। मेरे इन चित्रों में फूल और पानी का समावेश नजर आता है। फूल श्रृंखला के अंतर्गत  अनिल ने  200-300 के लगभग पेंटिंग बनाई है। 2008 में ललित कला आर्ट एकेडमी दिल्ली ने पहली बार इस सीरीज को प्रदर्शित किया।
पेटिंग बिकती है पर संतुष्टि नहीं आर्ट का मार्केट स्ट्रगल का काम है कर्मिशियल मार्केट में आर्टिस्ट को उतना नहीं मिल पाता। हमें प्लेटफार्म नहीं मिलता। यह सीरीज मैंने इतना कर लिया कि अब बंद कर दिया।
अपनी आगे की योजना के बारे में अनिल का कहना है कि वे फूलों पर ही आगे भी काम करना चाहते हैं मैं फूलों को हर मौसम में जैसे बारिश में, ठंड में, धूप में उसकी भावनाओं को व्यक्त करना चाहता हूं। मेरे मन में फूलों को लेकर एक विचार- मंथन चल रहा कि  हम फूलों को तभी देख कर खुश होते हैं जब तक वह खिलता है, लेकिन मुरझाते ही उसकी उपेक्षा कर देते हैं अत: मैं सोच रहा हूं कि फूल के उस अनुभव को अपने चित्रों में उतारने की कोशिश करुंगा। (उदंती फीचर्स)
अनिल खोब्रागड़े
जन्म- 5 जुलाई 1978 में बस्तर छत्तीसगढ़ में शिक्षा- बीएफए, एमएफए (पेटिंग) इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ (छ.ग.)। भिलाई, खैरागढ़, भोपाल, मुजफ्फरनगर, मुम्बई व दिल्ली में कई चित्र प्रदर्शनी। साथी समाज सेवी संस्था कोंडागांव द्वारा आयोजित आर्टिस्ट कैंप में भागीदारी। वाराणासी, जगदलपुर, मलाजखंड (मप्र) खैरागढ़ ओपन एक्जीबिशन। पता- c/o श्री एम आर खोब्रागड़े, क्वाटर नं. टी/सी-188, पोस्ट- किरंदुल, जिला दंतेवाड़ा (बस्तर) छत्तीसगढ़ - 494556 मोबाइल- 09926469545.

बेआबरू होकर कूचे से निकलना

बेआबरू होकर कूचे से निकलना
- डॉ. सिद्धार्थ खरे
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगले तीन से पांच साल में एक लाख भारतीय पेशेवर और इतने ही चीनी मूल के लोग अमेरिका छोडऩे को विवश होंगे।
हम इस चिंता में भी घुले जाते रहे हैं कि देश से प्रतिभा पलायन होता है और इस चिंता में भी छाती पीटने लगते हैं कि जिन्होंने बेहतर भविष्य कि प्राथमिकता के चलते भारत माता कि छाती रौंदकर पलायन किया, उन्हें नियोक्ता देश छोडऩा होगा।
इन भगोड़ों को लेकर ताजी चिंता का कारण आर्थिक मंदी है। अमेरिका में आब्रजन पर अध्ययन करने वाली Duke and Barkle University एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगले तीन से पांच साल में एक लाख भारतीय पेशेवर और इतने ही चीनी मूल के लोग अमेरिका छोडऩे को विवश होंगे। यह भी कह सकते हैं इन्हें 'बेआबरू होकर कूचे से निकलना' होगा।
कूचे को इस बात कि कतई कोई चिंता नहीं कि इस स्थिति का उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उसे इस बात कि भी कोई चिंता नहीं है कि इन पेशेवरों का भविष्य क्या होगा। मगर उक्त विश्वविद्यालय की अध्ययनकर्ता दल के नेता विवेक वाधवा बेहद दुखी हैं। दु:ख इस बात का अधिक है कि इससे अमेरिका को नुकसान होगा क्योंकि ये लोग उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत करने के साथ ही उसके विकास में भागीदार भी हैं। वधावा का ये दावा भी है कि इन प्रतिभाओं के कारण ही अमेरिका तकनीक के मामले में इतना आगे है।
एक देश जो गिरगिट कि तरह रंग बदलने में माहिर है जो कभी भारत का खुले दिल से स्पष्ट मित्र नहीं रहा उसके इन शुभचिंतकों के दर्द से हमारा दिल क्यों फटा जा रहा है? क्या इसलिए कि संयोग से इन्होंने भारत में जन्म लिया? क्या जन्म लेने मात्र से वे भारतीय हो गए? सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि इतनी ही बेकरारी के साथ उनका दिल भारत कि तरक्की के लिए कभी क्यों नहीं धड़का?
तर्क दिया जाता रहा है कि देश में अवसर होते तो विदेशों की खाक क्यों छानते! मां बाप पर नालायकी का तोहमद लगाकर वल्दियत बदलने वाले इन जांबाजों को एक गलतफहमी यह भी है कि संदर्भित स्थिति के चलते भारत और चीन प्रतिस्पर्धात्मक रूप से मजबूत होंगे। वास्तव में यह बात कह कर उक्त रिपोर्ट के जरिये नए जमीन तलाशी जा रही है।
भारतीय होने के नाते मेरी चिंता यह नहीं कि इतनी बड़ी संख्या में भारतीय मूल के जांबाजों को बेआबरू होकर अमेरिका से निकलना होगा। मेरी चिंता यह भी नहीं कि इनका भविष्य क्या होगा। मेरी वास्तविक चिंता यह है कि इनकी वापसी से उन भारतीय पेशेवरों के भविष्य पर आंच न आए जो भारत में रहकर भारत की प्रगति में लगे रहे। तमाम कठिनाइयां सहकर भी भगोड़े साबित नहीं हुए। वास्तव में अव्वल दर्जे की प्रतिभा तो वह है जो देश में रहकर देश के काम आए।  वधावा ने जिन प्रतिभाओं के स्वदेश लौटने और उसकी तरक्की का आधार बनने की बात कही है उससे इन्हें 'आन गांव का सिद्ध' मान लिए जाने का खतरा है। वास्तव में यह स्थिति किसी खतरे से कम नहीं है। देश में वोटों कि राजनीति के चलते इन सूरमाओं के लिए लाल कालीन भी बिछाया जा सकता है। इन महानुभावों की जितनी चिंता कि जानी है, उसकी एक चौथाई चिंता भी भारत के काम आने वाली प्रतिभाओं की करती तो आज देश का नक्शा बदला होता।
यह ध्यान रखना सरकार की पहली प्राथमिकता होना चाहिए की अमेरिका या किसी भी अन्य देश के विकास को प्राथमिकता देने वालों की वापसी पर उन्हें ऐसा कोई दर्जा नहीं दिया जाए जो देश की प्रतिभाओं को प्राप्त दर्जे से ऊंचा हो। ध्यान रखने की बात यह भी है कि इनके देश छोडऩे के बाद भी देश की प्रगति न तो पंगु हुई और न ही लौटने पर कोई 'सुरखाब के पर' ही लग जायेंगे।
कुल मिलाकर पांच सालों में एक लाख भारतीयों के अमेरिका छोडऩे की स्थिति उनका दुर्भाग्य हो सकती है लेकिन ऐसा कोई फैसला न होने पाए जो भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण हो।

कालजयी कहानी

उद्धार
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
विश्व के महान साहित्यकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे अग्रणी लेखक थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार जैसे सम्मान से विभूषित किया गया। उनकी अनेक कृतियां प्रमुख भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित होकर चर्चित हुईं। बंगला साहित्य में छोटी कहानियों का सूत्रपात करने वालों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम लें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कम शब्दों में बड़ी बात कहने की कला बिरले के पास होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताएं तो कालजयी हैं ही, उनकी कहानियां भी अपने दौर के समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।

गौरी पुराने धनाढ्य घराने की बड़े लाड़-प्यार में पली सुन्दर लड़की है। उसके पति पारस की हालात पहले बहुत ही गिरी हुई थी, पर अब अपनी कमाई के बूते पर उसने कुछ उन्नति की है। जब तक वह गरीब था तब तक उसके सास-ससुर ने इस ख्याल से कि लड़की तकलीफ पाएगी, बहू की विदा नहीं की। गौरी कुछ ज्यादा उमर  में ससुराल आई।
शायद इन्हीं कारणों से पारस अपनी सुन्दरी युवती स्त्री को सम्पूर्णत: अपने हाथ की चीज नहीं समझता था। और मिजाज में वहम तो उसके बीमारी बनकर समा गया था।
पारस पछांह के एक छोटे-से शहर में वकालत करता है। घर में अपने कुटुम्ब का कोई न था, अकेली स्त्री के लिए उसका चित्त सदा उद्विग्न बना रहता बीच-बीच में वह अचानक असमय में अदालत से घर चला आता शुरु-शुरु में पति के इस तरह आकस्मिक आगमन का कारण गौरी की कुछ समझ में न आया। बाद में वह क्या समझी सो वही जाने।
बीच-बीच में वह बिना कारण घर का नौकर भी छुड़ा देने लगा। किसी नौकर का ज्यादा दिन तक बना रहना उसे बर्दाश्त नहीं होता। खासकर काम की परेशानी का ख्याल करके गौरी जिस नौकर को रखने के लिए ज्यादा आग्रह करती उसे तो वह फौरन ही निकाल बाहर करता। तेजस्विनी गौरी को इससे जितनी चोट पहुंचती, उसका पति उतना ही चंचल होकर कभी-कभी ऐसा विचित्र बर्ताव कर बैठता कि जिसका ठीकाना नहीं।
अन्त में जब वह अपने को सम्हाल न सका और दासी को एकान्त में बुलाकर उससे तरह-तरह के वहम के सवाल करने लगा तब सब बातें गौरी को भी मालूम होने लगीं। अभिमानिनी स्वल्पभाषिणी नारी अपमान की चोट खाकर सिंहिनी की तरह भीतर ही भीतर उफनने और घुमडऩे लगी, और इस उन्मत्त सन्देह ने दम्पत्ति के बीच में पड़कर खंडप्रलय की तरह दोनों को बिलकुल विच्छिन्न कर दिया।
गौरी के आगे अपना गहरा सन्देह प्रकट करने के बाद पारस की झिझक और शरम जब बिलकुल ही जाती रही तब वह रोजमर्रा कदम-कदम पर साफ-साफ सन्देह प्रकट करके स्त्री से लडऩे लगा, और गौरी जितनी ही गम खाकर मौन अवज्ञा और पैनी निगाहों के तेज तीरों से नीचे से लेकर ऊपर तक उसके सारे बदन में लहूलुहान करने लगी, उसका सन्देह का पागलपन मानो उतना ही बढ़ता चला गया।
इस तरह, दाम्पत्य सुख से वंचित उस पुत्रहीन तरुणी ने अपना सम्पूर्ण अन्त:करण धर्म की चर्चा में लगा दिया। हरिभजन सभा के नवीन प्रचारक ब्रह्माचारी परमानंद स्वामी को बुलाकर गौरी ने उनसे दीक्षा-मन्त्र लिया और 'भागवत' की व्याख्या सुनने लगी। नारी हृदय का सम्पूर्ण व्यर्थ स्नेह एकमात्र भक्ति के रूप में इकट्ठा होकर गुरुदेव के चरणों में लोटने लगा।
परमानंद के साधुचरित्र के संबंध में किसी को भी कोई सन्देह न था। सभी उनकी पूजा करते थे। किन्तु पारस उनके संबंध में मुंह खोलकर सन्देह प्रकट न कर सकने के कारण अत्यंत व्याकुल हो उठा और उसका सन्देह अदीठ फोड़े की तरह क्रमश: खुद उसी के मर्मस्थल को कुरेद-कुरेदकर
खाने लगा।
एक दिन जरा-सी किसी बात पर जहर बाहर निकल आया। स्त्री के सामने वह परमानंद को 'दुश्चरित्र, पाखंडी' कहकर गाली देने लगा और कहते-कहते कह बैठा 'तुम अपने शालग्राम को छूकर धर्म से बताओ तो, उस बगुला-भगत को तुम मन-ही-मन प्यार करती हो या नहीं?'
गौरी, पांव-तले दबी नागिन की तरह, एक क्षण में उग्र रूप धारण करके झूठी स्पर्धा से पति को छेदती हुई रूंधे हुए कंठ से फुंकारती हुई बोल उठी, 'हां, करती हूं! तुम्हें जो कुछ करना हो सो कर लो।'
पारस उसी वक्त घर में ताला लगाकर,  स्त्री को ताले में बंद करके, अदालत चला गया।
असह्य रोष में आकर गौरी ने किसी तरह दरवाजा खोल लिया, और उसी वक्त वह घर से बाहर निकल गई।
परमानंद अपनी एकांत कोठरी में बैठे शास्त्र पढ़ रहे थे। वहां और कोई भी न था। सहसा गौरी अमेघवाहिनी विद्युल्लता की तरह ब्रह्मचारी के शास्त्राध्ययन के बीच जाकर टूट पड़ी।
गुरु ने कहा, 'यह क्या!'
शिष्या ने कहा, 'गुरुदेव, इस अपमान-भरे संसार से उद्धार करके मुझे और कहीं ले चलो। अब मैं तुम्हारी ही सेवा में अपना जीवन न्यौछावर करना चाहती हूं।'
परमानंद ने बहुत डांट-फटकारकर गौरी को घर वापस कर दिया। किन्तु हाय, गुरुदेव, उस दिन का तुम्हारा वह अकस्मात टूटा हुआ अध्ययनसूत्र क्या फिर पहले जैसा जुड़ सका!
पारस ने घर आकर दरवाजा खुला पाया। स्त्री से पूछा, 'कौन आया था यहां?' स्त्री ने कहा, 'कोई नहीं आया, मैं खुद गुरुदेव के घर गई थी।'
पारस का चेहरा सफेद फक पड़ गया, और दूसरे ही क्षण लाल-सुर्ख होकर बोला, 'क्यों गई थी?'
गौरी ने कहा, 'मेरी तबीयत!'
उस दिन से घर पर पहरा बिठाकर स्त्री को कोठरी में बन्द करके पारस ने ऐसा उपद्रव शुरु कर दिया कि सारे शहर में बदनामी हो गई। इन सब कुत्सित अपमान और अत्याचारों की खबर पाकर परमानंद का हरिभजन बिलकुल ही जाता रहा। इस शहर को छोड़कर वे अन्यत्र कहीं जाने की सोचने लगे, किन्तु बेचारी गौरी को इस दशा में छोड़कर उनसे अन्यत्र कहीं जाते न बना।
और, सन्यासी के इन दिन-रातों का इतिहास अन्तर्यामी के सिवा और कोई भी न जान सका।
अन्त में, उस अवरोध की अवस्था में ही गौरी को एक पत्र मिला। उसमें लिखा था - 'वत्से, मैंने काफी विचार किया है। पहले अनेक साध्वी-साधक रमणियां कृष्ण-प्रेम में अपना घर संसार सबकुछ त्याग चुकी हैं। यदि संसार के अत्याचारों से तुम्हारा चित्त हरि के चरणकमलों से विक्षिप्त हो गया हो, तो मुझे खबर देना। भगवान की सहायता से उनकी सेविका का  उद्धार करके उसे मैं प्रभु के अभय पदारविन्द में न्यौछावर करने का प्रयास करूंगा। फाल्गुण शुक्ला त्रयोदशी बुधवार को दिन के दो बजे, तुम चाहो तो, अपने तालाब के किनारे मुझसे भेंट कर सकती हो।'
पति उस पत्र को पढ़कर भीतर-ही-भीतर जल भुनकर खाक हुए जा रहे होंगे, यह सोचकर गौरी मन-ही-मन जरा खुश हुई, किन्तु साथ ही उसका शिरोभूषण 'पत्र' पाखंडी के हाथ पड़कर लांछित हो रहा होगा, यह बात भी उसे सहन नहीं हुई।
वह तेजी से पति के कमरे में पहुंची।
देखा तो पति जमीन पर पड़ा हुआ बुरी तरह तड़प रहा है, मुंह से उसके झाग निकल रहा है और आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ गई है।
पति के दाहिने हाथ की मुट्ठी में से उस पत्र को निकालकर गौरी ने जल्दी से डाक्टर बुलवाया।
डाक्टर ने आकर कहा, 'ऐपोप्लेक्सी, मिरगी है।'
रोगी तब मर चुका था।
उस दिन पारस को किसी जरुरी मामले की पैरवी के लिए बाहर जाना था और, संन्यासी का यहां तक पतन हुआ था कि उस समाचार को पाकर वे गौरी से मिलने के लिए तैयार थे।
सद्य-विधवा गौरी ने खिड़की में से देखा कि उसके गुरुदेव पिछवाड़े के तालाब के किनारे चोर की तरह छिपे खड़े हैं। सहसा उस पर बिजली-सी टूट पड़ी, उसने आंखें नीची कर ली। उसके गुरु कहां से कहां उतर आए हैं, सहसा एक ही क्षण में उसका वीभत्स चित्र उसकी आंखों के सामने नाचने लगा।
गुरु ने पुकारा, 'गौरी!'
गौरी ने कहा, 'आई, गुरुदेव!'
मरने की खबर पाकर पारस के मित्र वगैरह जब घर के भीतर पहुंचे, तब देखा कि गौरी भी पति के बगल में मरी पड़ी है।
उसने जहर खा लिया था और, आधुनिक काल में इस आश्चर्यपूर्ण सहमरण के दृष्टान्त ने सती के माहात्म्य से सबको दंग कर दिया।
(मूल रचना: श्रावण, 1967)

जूते की जंग

- अविनाश वाचस्पति
जूता पहले काटने के लिए खूब कुख्यात रहा है परन्तु अपने नएपन में। जैसे नया आया कुत्ता सभी को काटने के लिए उद्यत मिलेगा। उसी तरह नया नया जूता पैर की खूब किसिंग करता है पर आजकल ब्रांडिड जूतों में यह गुण नहीं पाया जाता है। आज कल के जूते में नए गुणों की भरमार हो गई है। जूते की मार व्यापार हो गई है। जूते की मार से चैनलों की टी आर पी बढ़ती है।
जूता एक बारहमासी उपयोगी मस्त चीज है। पहना जाता है पर वस्त्र नहीं है। चमकाया जाता है पर आईना नहीं है। इसके बिना चलना दूभर है, बिना इसके पैरों के तलवे पर संकट है। कड़ी धूप, कड़ाके की ठंड, रेतीला सफर और पथरीला मार्ग इस पर सवार होकर यानी इन्हें धारण करके सरलता से पार किए जा सकते हैं। जूता पहले काटने के लिए खूब कुख्यात रहा है परन्तु अपने नएपन में। जैसे नया आया कुत्ता सभी को काटने के लिए उद्यत मिलेगा। उसी तरह नया नया जूता पैर की खूब किसिंग करता है पर आजकल ब्रांडिड जूतों में यह गुण नहीं पाया जाता है। आज कल के जूते में नए गुणों की भरमार हो गई है। जूते की मार व्यापार हो गई है। जूते की मार से चैनलों की टी आर पी बढ़ती है। अखबारों की जगह घिरती है। सुर्खियां बनती हैं। जूता आजकल चुनाव की नाव को डुबोने में सक्षम हो चुका है।  कुत्ते के तरह जूते के काटने की पर इंजेक्शन नहीं लगवाए जाते क्योंकि इससे रैबीज नामक बीमारी नहीं होती।
जूते को पैरों में पहने जाने के कारण नीचे दर्जे का माना गया है। जूते की मरम्मत के काम को पहले से ही दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। पर अब जूते के नए कर्मों को पत्रकार, नाखुश पार्टी सदस्य इत्यादि अंजाम तक पहुंचा रहे हैं। जूते पैर नीचे होने पर भी उपर ले जाने का काम करते हैं। यदि आदमी चल ही न पाए तो सारी प्रगति धरी रह जाए। बढऩे, चढऩे, लडऩे और अंगद की तरह अडऩे के लिए पैर जरूरी हैं। पैरों की उपयोगिता पर सवाल उठाना भी बेमानी है। पैरों के बिना इधर से उधर और उधर से इधर होना सरकना संभव नहीं है। पैर न हों तो बचपन में घुटनों के बल सरकने का आनंद नहीं लिया जा सकता जो कि चलने की पहली सीढ़ी है। बिना पैर न तो आदमी खुद ही चल सकता है और न किसी प्रकार का वाहन ही चला सकता है, चलवाने की बात छोडि़ए। अगर जानवरों द्वारा खिंचित सवारी को वाहन न माना जाए। उसके उपर तो किसी को भी पटक दो तो ले ही जाएगा।
पैर भी उपयोगी और उसमें पहने जाने वाले जूते और उपयोगी अब तो उसके चलने से असंभव कार्य भी सहजता से संपन्न होने लगे हैं। जूतों पर बने हुए सभी मुहावरों और लोकोक्तियों को दोबारा से सृजित करना पड़ेगा। जूते के संबंध में होती प्रगति जूता जनार्दन की आवाज को अमली जामा पहना रही है। नेताओं को धमकिया रहा है। उनके सपनों में आ रहा है। पर जूते वाली जफ्फी से नेता वंचित हैं। लगता है जूतों को नेता नहीं भा रहे हैं। इसलिए नेता के अगल-बगल से सरक जाते हैं। एक भी वाक्या ऐसा नहीं हुआ कि जूता नेता के गले मिला या मुंह चढ़ा हो। ऐसा लगता तो नहीं है कि जूता अपनी साख बचा रहा हो। जूता नेताओं के लिए खौफ का पर्याय हो गया है।
कहा तो यह भी जाता है कि नेता तो कर्म ही ऐसे कर रहे हैं कि उन्हें जूते खाने चाहिए। पर जूते खाने की चीज न होते हुए भी खूब खाए जा रहे हैं और खाते हुए भी बेखाए हुए हो रहे हैं। जूता और नेता का चोली दामन का अनचाहा साथ हो गया है।
जूता कंपनी का उद्घाटन भविष्य में जूता खाकर ही करना अनिवार्य होने वाला है। इससे रिहर्सल भी हो जाएगी और बचने के गुर भी सीखे जा सकते हैं। जूते के निशाने से बचने के गुर सिखाने के लिए किसी जूता विश्वविद्यालय में जूता डिप्लोमा या जूता कोर्स आरंभ किया जा सकता है। जूता खा चुके नेताओं के भाषण सत्र आयोजित किए जा सकते हैं। दोपहिये पर सवारी करने पर हेलमेट पहनने की अनिवार्यता अब ट्रांसफर होकर भाषण या प्रेस कांफ्रेंस करने वाले के लिए आवश्यक होती दिखलाई दे
रही है।
जूता पर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार शुरू करने की मांग की जा रही है। जूता मंत्रालय की स्थापना का मुद्दा घोषणापत्र में स्थान पा चुका है। जूते के जलवे पर शोध प्रबंध लिखवाए जा रहे हैं। जूते की जवानी पर, उसकी रवानी पर और जूते का जश्न मनाया जा रहा है। जूते के हुस्न के चर्चे विषय पर कविता प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है। जूता चेहरे के आगे दौड़ के बोलता है। भाषण देते समय नेता की आंखों में जूते के खौफ का जायजा लिया जा सकता है। आतंकवादी जूता बम बना सकते हैं। जूते के कहर के आगे जूता बम का भविष्य सुनहरा है। जूते की सदाबहार जंग चुनावों में विजयी रही। क्या विदेश क्या देश सब कुछ जूतामय हो गया है। जूते की एक नई संस्कृति जन्म ले चुकी है जिसके विकास की भरपूर संभावनाएं हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र बदलकर जूतातंत्र के रूप में ख्याति पा जाए। जबकि सूरते हाल यही बयां कर रहे हैं।

फूल को देखने का सुख

फूल को देखने का सुख
- अख्तर अली
फूल हमें आस्तिक बनाते है उससे बड़ी बात ये है कि फूल हमें बेहतर इंसान बनाते है। फूल प्रेम को जगाते है, प्रेम का अहसास कराते है, दो हृदय को जोड़ते हैं। रिश्तों की नदी पर पुल बन जाते है फूल।
जिस समय हम फूल को देखते है उस समय हमारे अंदर एक बाग खिल रहा होता है। फूल संसार में हर आदमी को सुंदर नहीं लगते, इस संसार में हर आदमी फूलों को देखता भी नहीं है। फूलों को वही निहारता है जो स्वयं अंदर से कोमल हो। क्रोधी और जिद्दी इंसान को फूल कभी प्रभावित नहीं करते। फूलों की सुंदरता आप के भीतर पहले से मौजूद होनी चाहिये। फूलों को देखने का नियम है कि इन्हें आंख से नहीं मन से देखा जाता है। आंख का कोई मन नहीं होता लेकिन मन की अपनी आंखें होती है। जो व्यक्ति अंदर से सूखा है उसे नदी का प्रवाह कभी गीला नहीं करता। अर्थशास्त्र का छात्र फूल को तोड़ता है, दर्शनशास्त्र का छात्र उसे दूर से निहारता है। कुछ लोग ऐसे होते है जिन्हें राह चलते किसी घर की मुंड़ेर पर खिला फूल दिखाई दे देता है और कुछ लोग ऐसे होते है जिन्हें बाग में भी फूल दिखाई नहीं देता। बगीचे में उन्हें कीचड़ दिखाई देता है, टूटी हुई बेंच दिखाई देती है, फैला हुआ कचरा दिखाई देता है,फल्ली वाला दिखाई देता है, फुग्गे वाला दिखाई देता है, अंधेरे में बैठा जोड़ा तक दिखाई दे देता है लेकिन फूल जो वहां सबसे ज्यादा मात्रा में है वे दिखाई नहीं देते। यह देखने का संकट सम्पूर्ण विश्व में तेजी से पैर पसार रहा है। दरअसल वास्तव में यह विचारधारा का संकट है। विचार हीन व्यक्ति बाग में भी फूलों की सुंदरता को नहीं देख पाता है जबकि विचारवान व्यक्ति के अंदर ही एक बाग मौजूद रहता है जिसमें सोच के फूल खिले रहते हैं।
खिला हुआ फूल प्रकाशित कविता है जिसके रचियता भगवान है, यह ऐसी रचना है जिसकी समीक्षा तो की जा सकती है लेकिन आलोचना नहीं। बनावट, आकार, रंग, सुगंध इन सब का मिश्रण फूल में इतना जबरदस्त होता है कि कला प्रेमियों को चाहिये कि वे सामूहिक रूप से पौधों के सामने खड़े होकर भगवान के सम्मान में ताली बजाये। फूल कुदरत के कारखाने का अद्भुत प्रोडक्ट है, लेकिन बाजार का आयटम नहीं। इसे मन के गमले में उगाया जाता है पैसे देकर खरीदा नहीं जाता। उगाया गया फूल प्रेमिका है और खरीदा गया फूल वेश्या। बनावट, आकार, रंग और सुगंध के आगे भी फूल की और बहुत से विशेषतांए है जो उसके फूलपन को बरकरार रखती है। फूल पाठशाला है, जहां सुगंध फैलाने का पाठ पढ़ाया जाता है। फूल को देखने का सुख, सब सुखों में श्रेष्ठतम सुख है। जिस समय हम फूल को देखते हंै उस समय हम भगवान का ध्यान कर रहे होते हैं। जब हम कोई अच्छी फिल्म देख रहे होते हैं तब हमारे जेहन में उसके निर्देशक का विचार भी आता रहता है। कविता पढ़ते समय उससे कवि को अलग नहीं किया जा सकता। फूल को देखना एक सुंदर अहसास है और फूल को देखते हुए आदमी को देखना सुंदरतम। फूल लघु पत्रिका है, कला फिल्म है। जाकिर हुसैन का तबला है, बिसमिल्ला खां की शहनाई है फूल। समय के जिस क्षण में हम फूल को देख रहे होते हैं वह क्षण जीवन के तमाम क्षणों में सबसे महत्वपूर्ण और कीमती क्षण होता है क्योंकि उस क्षण हम जरा रूमानी हो जाते हंै, लचीले हो जाते हैं, भावुक हो जाते हैं, उस समय हमारा दंभ मर चुका होता है हमारी लालच मिट चुकी होती है, आंखों से गुस्सा गुम हो चुका होता है और होंठो पर मुस्कान विराज चुकी होती है। यही तो वो भाव है जो हमारे इंसान होने को सार्थक करते है। बगीचे में टाईम पास करने के लिये आते है वे आदमी है लेकिन उन में जो फूल से जुड़ जाते है वे इंसान है। हम पैदा भले आदमी के रूप में हो पर मरना इंसान बन कर चाहिये।
ऊपर चांद और नीचे फूल। भगवान की ये दो अनुपम कृति आस्था के सेंसेक्स में जबरदस्त उछाल दर्ज कराती है। अरबों-खरबों की लागत से भी ऐसा कारखाना स्थापित नहीं किया जा सकता जिसमें फूलों का उत्पादन हो सकता हो। फूल हमें आस्तिक बनाते है उससे बड़ी बात ये है कि फूल हमें बेहतर इंसान बनाते है। फूल प्रेम को जगाते है, प्रेम का अहसास कराते है, दो हृदय को जोड़ते हैं। रिश्तों की नदी पर पुल बन जाते है फूल। फूल खिल खिल कर कह रहे है - कोमल बनिये, सुगंध बिखेरिये। फूलों की इस अपील पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाना चाहिये, उनके आह्वान पर चल पडऩा चाहिये। कोमलता फूल की वाणी  है, सुगंध उसकी भाषा। फूलों की भाषा सीखना होगा क्योंकि इसमें रस है। मंच पर किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का सम्मान उसे फूल देकर किया जाता है। गांव की लड़की सज संवर कर एक फूल अपने बालों में लगा लेती है ये फूल का सम्मान है। फूल की व्याख्या उतनी आसान नहीं है जितनी उसकी उपलब्धता हैं। फूलों की अपनी दुनियां है, अपना इतिहास है, अपना अनुशाासन है, अपना संविधान है। फूलों की संसद कभी प्रस्ताव पारित कर खुश्बू के संविधान में संशोधन नहीं करती। ये फूलों का चरित्र ही है जिसने गुलशन को शोहरत दिलाई है। नफरत के अनेकों कारणों का जवाब है फूल।
फूल लयात्मक गीत है, तुकान्त कविता है, मौसम के पन्ने पर लिखा नवगीत है। गुलशन के दफ्तर में फूल की नियुक्ति ने सुगंध को अंतराष्ट्रीय पहचान दिलाई है। अगर आपने कभी फूल को फूल के अंदाज में नहीं देखा होगा तो आज ही यह सौभाग्य प्राप्त करिये, समय का कोई भरोसा नहीं। इससे पहले की लोग आप पर फूल डाले आप फूल पर न्योछावर हो जाईये। उठिये और बिना समय गंवाए नजदीक के बाग में जाईये, और अनेको बार देखे हुए उन फूलों को मेरी नजर से देखिये आपको फूल मंगल गीत गाते हुए दिखाई देंगे। फूल बोलते हुए, झूमते हुए, नाचते हुए दिखाई देंगे। उस समय आपको सब बदला बदला दिखाई देगा। दरअसल यह परिवर्तन उस समय आपके अंदर हो रहा होगा। कुछ ही क्षण में आपको ऐसा लगेगा कि आप स्वयं एक फूल हो गये हंै।
जिस समय आप फूल को देख रहे होते हैं उस समय आप वो नहीं रहते हैं जो आप हैं, बल्कि उस समय आप जो नहीं हैं वो हो जाते हो। नहीं होने का हो जाना ही क्रंाति है और ये क्रांति एक क्षण में हो जाती है। एकाएक आपको पूरी दुनियां सुंदर महसूस होने लगती है, सब से प्रेम करने का मन करने लगता है। लालच आस पास भी नहीं फटकती। भाषा एकदम शालीन हो जाती है। बच्चों और नौकरों पर चीखने वाला व्यक्ति गाने लगता है। जीवन के चित्र में फूल रंग भर देते है। फूलों में सिर्फ शिल्प ही नहीं है उनका कथ्य भी है। फूल जीवन की सार्थकता समझा जाते हैं। आप महसूस करिये ये समूचा विश्व एक बगीचा है इसमें रंग-रंग के फूल खिले हैं और आप इसके माली हैं। आप उन पौधों को सीचो जिसमें फूल खिलते हैं, एक दिन आप महसूस करोगे कि आपके अंदर एक उपवन आकार ले रहा है। आपकी सोच बदल जायेगी, आपके शब्द नये अर्थ देने लगेंगे, आप जहां भी जाओगे वातावरण को सुगंधित कर दोगे। आप ऐसे मुकाम पर पहुंच जाओगे जहा फूलों की भाषा समझ में आने लगेगी। तब आप आंख बंद किये बैठे रहोगे और फूल आपको संबोधित करेंगे। फूलों का व्याख्यान आपको ऐसा इंसान बना देगा जिसकी दुनियां को बहुत जरूरत है। आप अपना सब कुछ औरों को दे दो और उसके बदले कोई कामना मत करो, आप देखोगे कि देने के बाद भी आपका खजाना भरा का भरा रहेगा, ये मानव के लिये फूलों का पैगाम है। ये मात्र उपदेश नहीं बल्कि फूलों का भोगा हुआ यथार्थ है। फूलों का तो बस यही काम है कि जहां रहो उस जगह को महका दो। फूलों की कोई पार्र्र्टी नहीं होती, कोई घोषणा पत्र नहीं होता, कोई प्रशिक्षण शिविर नहीं होता। इन्हें सिर्फ देना आता है, इनके पास जो भी होता है वह उसे औरो पर उंडेल देते है और खाली होते ही पुन: भर जाते है। वही भरायेगा जो खाली है। खाली होकर भर जाने का यह फार्मूला हर क्षेत्र में लागू होता है।
फूलों की सफलता उनके स्वभाव में छिपी है। फूलों के स्वभाव में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इनमें नरमी बहुत सख्ती के साथ शामिल है। अपने इस स्वभाव को फूल कभी नहीं छोड़ते चाहे जो हो जाये और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सिर्फ देना जानते है, औरो के काम आना जानते है उसके बदले में ये कोई आशा नहीं करते। डाल पर खिला फूल सिर्फ फूल नहीं है बल्कि वह मंच पर बैठा संत है जो प्रवचन दे रहा है। हमें उससे लौ लगानी होगी, उसको आत्मसात करना होगा, उसकी खुशबू में सराबोर हो जाना होगा, उसके रंग में रंग जाना होगा, खुद को उसके स्वभाव में ढालना होगा, दूसरे के काम आने के लिये अपनी डाल से बिछड़ जाना होगा।
पता: फजली अर्पाटमेंट, आमानाका, कुकुरबेड़ा,रायपुर (छ.ग.)
   मोबाईल न. 98261 26781

सीनियर राइटर्स

सीनियर राइटर्स
- कैलाश मंडलेकर
हर शहर में एक न एक सीनियर राइटर जरूर होता है। वह लेखन के क्षेत्र का डॉन अथवा सरगना होता है। जिस शहर में यह डॉन नहीं होता वह शहर दो कौड़ी का होता है। सीनियर राइटर नगर की शान होता है। वह नगर की साहित्यिक गोष्ठियों और सभाओं का स्थाई अध्यक्ष होता है।
सीनियर राइटर को हिन्दी में वरिष्ठ साहित्यकार कहते हैं। वह लेखक के अलावा कवि भी हो सकता है और आलोचक तो वह होता ही है। दरअसल उम्र के साथ वह विधाओं की संकीर्णता से ऊपर उठ जाता है और जरूरत तथा मौसम के हिसाब से सभी विधाओं को ओढ़ता बिछाता रहता है।
सीनियर राइटर ज्यादातर बूढ़े होते हैं उनका बुढ़ापा दरिद्र और असहाय नहीं होता। वे अपनी वृद्धावस्था को एक तरह का रौब और रेस्पेक्टेबिलिटी दिए हुए रहते हैं, तथा जमाने पर लगभग थूकते हुए जमाने को तुच्छ और हेय दृष्टि से देखते हैं। हर शहर में एक न एक सीनियर राइटर जरूर होता है। वह लेखन के क्षेत्र का डॉन अथवा सरगना होता है। जिस शहर में यह डॉन नहीं होता वह शहर दो कौड़ी का होता है। सीनियर राइटर नगर की शान होता है। वह नगर की साहित्यिक गोष्ठियों और सभाओं का स्थाई अध्यक्ष होता है। यदि किसी गोष्ठी में उसे न बुलाया जाए तो उस गोष्ठी को वह निकृष्ट एवं फूहड़ घोषित कर देता है।
कतिपय शहरों में एक के बजाए दो-तीन सीनियर राइटर होते हैं। आयोजनकर्ताओं और संयोजकों को प्राय: मुसीबत में डाल देते हैं। आयोजनकर्ता आखरी तक तय नहीं कर पाते कि सबसे ज्यादा सीनियर कौन है। एकदम वरिष्ठतम!! किससे अध्यक्षता कराएं? शर्माजी से या वर्माजी से?? वैसे दिखने में शर्माजी ज्यादा वरिष्ठ हैं। उनके दांत भी गिर गए हैं। मुंह भी एकदम पोपले टाइप का है। बोलते हैं- तो मुंह से हवा निकल जाती है। लेकिन वरिष्ठ वे फिर भी नहीं हैं। असली 'वरिष्ठ' वर्माजी हैं। खाते-पीते घर के हैं इसीलिए कृशकाय नहीं दिखते। लेकिन शर्माजी पर भारी पड़ते हैं। कारण कि परसों उनको कलेक्टर ने शांति समिति की मीटिंग में बुलाया था। ऐसा करो!! एक से अध्यक्षता करो लो, दूसरे को (साले को) मुख्य अतिथि बना दो। फिर नगर के विधायक क्या भूट्टे सेंकेंगे?? वरिष्ठ साहित्यकारों के कारण आयोजनकर्ताओं की जान सांसत में रहती है।
स्थानीय स्तर पर वरिष्ठ साहित्यकारों के आपसी रिश्ते प्राय: ईष्र्यापूर्ण रहते हैं। वे अमूमन एक दूसरे की हत्या करने की फिराक में रहते हैं। लेकिन आपस में मिलने पर बहुत सौहार्दपूर्ण व्यवहार करते हैं।
'कैसे हैं??'
'इधर कई दिनों से दिखाई नहीं दिए??'
स्वास्थ्य तो ठीक है?? इत्यादि!
सीनियर राइटर अनुभव से पका होता है इसलिए प्राय: अडिय़ल होता है, तथा नई पीढ़ी के पिछवाड़े पर हमेशा लात जमाने को उद्यत रहता है। यह अलहदा बात है कि वक्त पडऩे पर वह नए लेखकों की किताबों के ब्लर्ब और भूमिकाएं आदि लिखता है तथा उनका विमोचन भी करता है। विमोचनार्थ प्रस्तुत की गई कृतियों के रैपर खोलने में उसकी निर्बल उंगलियां बहुत प्रवीण होती हैं। नए लेखकों की कहानियों और कविताओं पर वह धारा प्रवाह बोलता है, देर तक बोलता है और तब तक बोलता है जब तक कि पीछे से कोई उसका कुर्ता अथवा धोती न खींच ले। नए लेखकों, कवियों तथा खासतौर से नई उम्र की कवियत्रियों को आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के कार्यक्रम दिलाने में भी सीनियर राइटर मदद करता है।
आओ शालिनी तुम्हारी कविताएं रेडियो से प्रकाशित करवा दें!!
पिछली दफे सरिता की करवाई थी!!
सीनियर राइटर संस्मरण सुनाने, लिखने आदि की कला में बहुत पारंगत होता है। हर सीनियर राइटर अपने जीवन में एकाधिक बार पंत, प्रसाद अथवा निराला जी से जरूर मिला होता है। अपने संस्मरणों में वह विस्तार से बताता है, कि कब कहां और कैसे वह उपरोक्त साहित्यकारों से मिला और देर तक बातें की। वह यह भी बताता है कि निरालाजी ने या पंत जी ने उससे क्या कहा- कितनी देर तक कहा और तब तक कहा जब तक कि उस साहित्यकार विशेष की गाड़ी नहीं निकल गई। ज्यादातर सीनियर राइटर पंत, प्रसाद, बच्चन आदि महामना साहित्याकारों के साथ खिंचाई गई तथा एनलार्ज की गई ब्लैक एंड व्हाइट फोटो अपनी बैठक में लगाकर रखते हैं ताकि वक्त जरूरत काम आ सके। फोटो उस स्थान पर लगाई जाती है जहां से सबको दिखाई दे सके। कोई मूरख यदि फिर भी न देखे, तो सीनियर राइटर स्वयं भी बता देता है कि 'ये बच्चन जी हैं और उनके बाजू में 'मैंÓ हूं!!

सीनियर राइटर यदि गंजा हो (जो कि प्राय: होता ही है) तो अधिक ग्रेसफुल और विद्वान दिखाई पड़ता हैं। कुछ सीनियर राइटर अपने कपाल पर तीन-चार सलवटें बनाकर रखते हैं जिनकी वजह से वे अधिक विद्वान और चिंतनशील दिखाई देते हैं। सीनियर राइटर यदि दाढ़ी बढ़ा ले तो वह सोने में सुहागा जैसा हो जाता है। सुहागा किस वस्तु को कहते हैं इस बावत मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। इसके बारे में किसी सीनियर राइटर से ही पूछा जा सकता है।
सीनियर राइटर अक्सर ढीली पैंट पहनता है जो बार-बार फिसलती है लेकिन इतनी भी ढीली नहीं पहनता कि कमर से नीचे ही फिसल जाए। पैंट के मामले में वह सावधान रहता है। सीनियर राइटर के टेलर्स और नाई आदि फिक्स रहते हैं। ज्यादातर मामलों में नाई उसकी कटिंग करने घर पर ही आता है।
 सीनियर राइटर कभी नाई की दुकान पर नहीं जाता। कटिंग कराने के दौरान वह नाई से बातचीत करते रहता है। वह नाई की बातों में कविता तलाशता है। पक्का साहित्यकार नाई से भी कविता झटक लेता है। देखने में यह भी आया है कि सीनियर राइटर प्राय: गर्म पानी से नहाता है और यदि गर्म पानी नहीं मिले तो कई-कई दिनों तक नहीं नहाता। उनके बदन से अक्सर वरिष्ठता की बदबू आती रहती है।
सीनियर राइटर का एकांत बहुत भयावह होता है। बात-बात पर उपदेश देने वाली आदत के कारण लोग प्राय: उससे बिदकते हैं। सीनियर राइटर अमूमन अकेला ही रहता है, तथा अपने घरेलू किस्म के अकेलेपन को पत्नी से लड़ते हुए काटता है। सार्वजनिक जीवन में सीनियर राइटर आदर्शवादी होता है तथा अकेले में वह इन आदर्शों को तोड़ता जाता है। सुबह के नाश्ते के वक्त जो सीनियर राइटर परंपरा का पुजाती होता है, लंच तक आते-आते वह उन परंपराओं का भंजक बन जाता है। परंपरा भंजन की कला, साहित्य में क्रांतिकारिता कहलाती है। सीनियर राइटर एक दिन में चार पांच बार क्रांति करता है। खटिया पर पड़ा हुआ, बीमार और जर्जर साहित्यकार अधिक क्रांतिकारी
होता है।
वरिष्ठ साहित्यकारों को अपनी षष्ठीपूर्ति अथवा नागरिक अभिनंदन करवाने में बहुत चिंता रहती है। षष्ठीपूर्ति के दौरान यदि अभिनंदन ग्रंथ भी छप जाए तो फिर कहने ही क्या। नागरिक अभिनंदन करवाने के लिए वरिष्ठ साहित्यकारों ने अनेक तरीके ईजाद किए हैं। सबसे उत्तम तरीका है कि हर मिलने जुलने वालों से कहो कि यह नगर मेरा, (अर्थात सीनियर राइटर का) नागरिक अभिनंदन करना चाहता है। धीरे-धीरे इस मिथ्या प्रचार के भपके में नगर की कोई संस्था सचमुच उनका अभिनंदन करवा डालती है। कतिपय सीनियर राइटर अपने अभिनंदन का खर्चा उठाने को भी तैयार रहते हैं। ये लोग अभिनंदन ग्रंथ की सामग्री भी आनन फानन जुटा देते हैं।
ऐसे भी सीनियर राइटर देखने में आए हैं जो अपनी टांग साहित्य में तथा दूसरी समाज सेवा के क्षेत्र में डाले रखते हैं। समाजसेवा का क्षेत्र बाज- दफे साहित्य की सेवा से ज्यादा व्यापक होता है। आदमी कालोनी की नाली सुधारते-सुधारते देश की नदियों को जोडऩे की बात करने लगता है। इस क्रिया को राष्ट्रीय चेतना का विकास होना कहते हैं। ज्यादातर राष्ट्रीय चेतना वार्ड की गटर से शुरु होती है। कतिपय सीनियर राइटर राजनीति के फटे में भी पांव फंसाना चाहते हैं। कई सीनियर राइटर सरकारी पदों, पीठों अथवा समितियों के मानद सदस्य बनकर गौरवान्वित हो लेते हैं। मैं एक ऐसे साहित्यकार को जानता हूं जो रेल्वे की राजभाषा सलाहकार समिति के सदस्य थे। वे जिंदगी भर बिना टिकट रेल में सपरिवार सफर करते रहे। जब भी टीटी उनसे टिकट मांगता, वे चिरौरी करते हुए कहते - 'मैं एडवाइजरी कमेटी में हूं। ये मेरी बीवी हैं। वे साहित्य का 'अमृत' छोड़कर जिंदगी भर प्लेटफार्म की गंदी चाय पीते रहे।
वरिष्ठ     साहित्यकार, साहित्यिक मूल्यों में गिरावट, देश की गरीबी, भ्रष्टाचार तथा हिंसा आदि के लिए चिंतित दिखाई देते हैं लेकिन उनकी असली चिंता, ज्ञानपीठ और पद्मश्री पुरस्कारों के लिए होती है। दरअसल सीनियर राइटर कबीर के ब्रह्म की तरह होता है, वह चाहे तो 'पुहुपवास' से पातरा होकर सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाए। और चाहे तो नई पौध के सिर पर लादकर गुरुडम के बोझ से उसे रसातल में बिठा दे। सीनियर राइटर का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
कैलाश मंडलेकर
अमूमन लेखक अपने कथ्य के आधार पर ऊंचाई को प्राप्त करता है। पर ऐसे भी लेखक महत्वपूर्ण हैं जो अपनी भाषा और शैली के आधार पर साहित्य में अपनी जगह बना लेते हैं। हमारी पीढ़ी के लेखकों में कैलाश मंडलेकर हैं जिनसे कथ्य के आधार पर और भी कुछ कहे जाने की अभी प्रतीक्षा है लेकिन भाषा के स्तर पर हिंदी व्यंग्य साहित्य में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कर ली है और अच्छे से दर्ज की है। यह कमाल उन्होंने अपने पहले ही संग्रह 'सर्किट हाउस में लटका चांद' से ही कर दिखाया और व्यंग्य के अपने पाठक व लेखक संसार का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया है। कैलाश मंडलेकर के पास बड़ी आत्मीय और घरेलू किसम की भाषा है जिनसे वे अपने पाठकों के साथ आत्मीय सम्बंध बना लेते हैं और पाठक को बड़ी निजता सें बांधे रखते हैं। उनकी रचनाएं इस तरह झरती हैं जैसे वे पाठकों को कोई कहानी सुना रहे हों। या प्रेम से किसी घटना का बयान कर रहे हों। उनके इस प्रेमपूर्ण बयान को यहां उनकी प्रस्तुत व्यंग्य रचना 'सीनियर राइटर्स' में भी देखा जा सकता है। जिसमें कस्बे में रहने वाले अहमक किस्म के स्वनामधन्य लेखकों की खिंचाई की गई है। सार्थक और सक्रिय लेखन से परे रहकर वरिष्ठता बोध से ग्रसित और अपना मिथ्या प्रचार कर हरदम अभिभूत रहने वाले लेखकों का बढि़या खाका खींचा गया है।