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Mar 21, 2009

मैंने देखा... एक समृद्ध संस्कृति को लुप्त होते

मैंने देखा... एक समृद्ध संस्कृति को लुप्त होते
-अंजीव पांडे

यात्रा तो यात्रा ही होती है, चाहे वह सुनियोजित हो या फिर अचानक। यह यात्रा थी बस्तर के धूर नक्सली इलाकों की। मैंने क्यों की यह यात्रा? इसका जवाब तो आज भी मेरे पास नहीं है।

यह बयानी है एक यात्रा की, एक ऐसी यात्रा जिसकी न शुरुआत निर्धारित थी और न ही अंत। फिर भी यात्रा तो यात्रा ही होती है, चाहे वह सुनियोजित हो या फिर अचानक। यह यात्रा थी बस्तर के धूर नक्सली इलाकों की। मैंने क्यों की यह यात्रा? इसका जवाब तो आज भी मेरे पास नहीं है। लेकिन इतना अवश्य है कि नागपुर से रायपुर आने के बाद नक्सली समस्या पर काफी काम किया, कई रिपोर्ट भी प्रकाशित हुईं। नक्सली समस्या, सलवा जुडूम और अलगाववादी ताकतों के छद्म मनोवैज्ञानिक युद्ध पर बड़ी-बड़ी फिलासाफी परोसते समय एक कसक तो हमेशा मन में बनी रहती थी कि मैंने आज तक अपनी आंखों से इस समस्याग्रस्त इलाके को नहीं देखा है।

बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को नजदीक से देखने-जानने की इच्छा तो कई वर्षों से थी ही। साथ ही नक्सली इलाके का दौरा करने की बात दिमाग में कौंधी। मैंने बीजापुर के एक उत्साही पत्रकार शेख इस्माइल (बब्बू खान) को फोन किया और बस यूं ही बन गई इस यात्रा की योजना। रात 11 बजे रायपुर के पंडरी बस स्टैंड से स्लीपर कोच की बस में बैठ गया। बस में सोते हुए कब गीदम पहुंच गए पता ही नहीं चला। सुबह लगभग 7.30 बजे गीदम में बस से उतरने के बाद पहले इच्छा हुई कि दिन भर वहीं विश्राम किया जाए। वहां मुझे एक लाज दिखा। वहां दो तल तक मैंने आवाज लगाई लेकिन कोई नहीं आया तो मैं वापस सड़क पर आ गया। एक महिला खड़ी थीं। उनसे बीजापुर जाने के लिए साधन के सबंध में पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि बीजापुर की बस थोड़ी ही देर में आएगी। उन्होंने बताया कि वे भी भैरमगढ़ तक उसी बस में जाएंगी। थोड़ी ही देर में बस आ गई और मैं उसमें बैठ गया। सफर के दौरान मैंने कोट पहन रखा था। मुझे काफी बाद में समझ में आया कि कोट पहनना मुझे उस क्षेत्र के लोगों से अलग करने का परिधान था। गीदम से बीजापुर तक का रास्ता काफी खराब था। पता चला कि नक्सली इस मार्ग को बनने नहीं दे रहे हैं। खैर उस ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर बस दौड़ रही थी। मुझे नींद आ रही थी लेकिन कैसे सो सकता था। हड्डी टूटने का डर बना हुआ था। भैरमगढ़ आने के पहले ही मैं बस की केबिन में आकर बैठ गया।

सुबह करीब 10.30 बजे मैं बीजापुर पहुंचा तो बाबूभाई अपनी मोटरसाइकिल में मुझे लेने के लिए खड़े थे। तुरंत उन्होंने मुझे गेस्ट हाउस पहुंचाया। बीजापुर में एक ही गेस्ट हाउस है। वह वन विभाग का है, जहां दो कमरे हैं। अब एक जिला मुख्यालय का यह हाल हो तो उस जिले के अन्य स्थानों का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। जिला मुख्यालय की हालत एक समृद्ध तहसील से भी बुरी थी। मुझे समझ में आने लगा था कि बस्तर को मिलने वाले अरबों रुपयों से किसका विकास हुआ है। वह पूरा दिन विश्राम का था। गेस्ट हाउस में ही केयर टेकर ने खाना बनाकर खिला दिया। पूरे 24 घंटे मैंने विश्राम किया। शाम को मैं पैदल बीजापुर शहर देखने के लिए निकला। कुल मिला कर मुझे यह अहसास हो गया कि नक्सलियों से त्रस्त आदिवासियों के विकास का दावा सिर्फ दावा है। इसलिए मैंने अपनी यात्रा का उद्देश्य बदल डाला। पहले यह योजना थी कि मैं नक्सलियों और नक्सली समर्थकों से भी मिलूंगा लेकिन बाद में मैंने फैसला किया कि मैं अपनी यात्रा सुरक्षा बलों और पुलिस को मिलने वाली सुविधाओं और राहत शिविरों की हालत तक ही सीमित रखूंगा।

मस्तिष्क में इसकी स्पष्ट रूपरेखा बनने के बाद मैंने बीजापुर के पुलिस अधीक्षक को अपने आने की सूचना देना ही मुनासिब समझा। दोपहर में अंकित गर्ग (पुलिस अधीक्षक) और श्री दास (अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक) से मुलाकात हुई। मैंने उन्हें बताया कि मैं राहत शिविर जा रहा हूं लेकिन मुझे कोई शासकीय मदद नहीं चाहिए क्योंकि यह मेरा नितांत निजी दौरा है और मैं जमीनी हकीकत अपनी आंखों से देखना चाहता हूं। श्री गर्ग ने मुझे कुछ सलाह दी जिन्हें मैंने सहर्ष स्वीकार किया। उस दिन शाम को गंगालूर निकलने का कार्यक्रम था। लेकिन जो टैक्सी गंगालूर जाती थी वो छूट गई। शाम करीब पौने चार बजे इच्छा हुई कि मोटर साइकिल से ही चला जाऊं। मेरे साथ जो स्थानीय लोग थे वे मुझे मना कर रहे थे। तब मैंने दास साहब से सलाह ली, उन्होंने कहा कि अगर 5 मिनट के भीतर आप निकल सकते हैं तो निकल जाइए, अन्यथा कल जाइयेगा। खैर उस दिन भी मुझे बीजापुर में ही रहना पड़ा।

इस बीच बीजापुर में एक निजी विद्यालय भी देखने गया। और बाबूभाई ने मुझे बीजापुर से सटे राहत शिविर दिखाए। शिविर क्या था - एक पंक्ति में घर बने थे, जहां आदिवासी संस्कृति के कोई झलक नजर नहीं आ रही थी। बस्तर के गांवों की जैसी कल्पना मेरे मन में थी वैसा यहां कुछ भी नहीं था। सब ओर एक सन्नाटा था। वहां से नजदीक ही एक छोटी सी पहाड़ी दिख रही थी। पता चला कि उस पहाड़ी पर जो जंगल है, वहां नक्सलियों का कब्जा है। वहीं से आकर नक्सलियों ने बीजापुर के मुर्गााजार मोहल्ले में तीन लोगों की हत्या कर दी थी। बीजापुर जिला महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुश्री नीनाजी से भी मुलाकात हुई। वहां रहने वाले हर व्यक्ति की तरह नीनाजी की भी आंखों में कुछ कर दिखाने की व्याकुलता दिखी। यह दुखद था कि बीजापुर में एक अच्छा जिला अस्पताल भी नहीं है जबकि मुठभेड़ या नक्सली वारदातों में काफी लोग यहां घायल होते हैं।

बीजापुर में रहते हुए तीसरे दिन तक यह साफ हो गया था कि यहां मुझे न कैलेंडर देखना है और न ही समय। बस आगे बढ़ते जाना है। तीसरे दिन ब-मुश्किल दोपहर 12.30 टैक्सी मिली। वहां का बस स्टैंड भी ऐसा है कि अगर दो बस खड़ी हो जाए तो तीसरी गाड़ी वहां प्रवेश नहीं कर सकती। ... तीसरे दिन मेरा गंगालूर का सफर शुरू हुआ और मैंने बाबूभाई से विदाई ली। एक स्कूल की शिक्षिका भी बगल में बैठी थीं। सामने की ड्राइवर वाली सीट के साथ चालक सहित हम 6 लोग बैठे थे। उस कमांडर जीप में छत पर भी लोग बैठे थे। सब यात्री मिलाकर उस गाड़ी में लगभग 45 से 50 लोग सवार थे। ऐसा सफर करते हुए मुझे रोमांच का अनुभव भी हो रहा था। रास्ते में साथ यात्रा कर रहीं शिक्षिका मुझे बताते जा रही थीं कि किस प्रकार सड़क किनारे के गांव उजड़ गए हैं। उजड़े गांव नजर आ रहे थे। सड़क के दोनों ओर एसपीओ, जिला सशस्त्र पुलिस बल और सीआरपीएफ की टुकडिय़ां लगातार गस्त करती भी दिखीं। पोंजेर, जुगमबुड़ा, पदेड़ा जैसे कितने ही गांव नक्सली त्रासदी के कारण उजड़ गए हैं। खंडहर देख कर इमारत के बुलंद होने का अहसास हो रहा था। फिल्मों में चलने वाले फ्लैश बैक के सीन की तरह मेरी आंखों में भी इस गांव पर हमले से पहले के दृश्य घूम रहे थे। ये उजड़े गांव जैसे अपनी कहानी स्वयं कहते लग रहे थे कि यहां भी कभी खुशहाली थी, हमारे गांव में नाच गाना और उत्सव का माहौल होता था।

अब इस मार्ग की 23 कि.मी. की सड़क को कांक्रीट का बनाया जा रहा है इसे पुलिस विभाग ही बनवा रहा है क्योंकि पीडब्ल्यूडी विभाग के अधिकारी वहां आने से कतराते हैं। जंगल के बीच हमारी टैक्सी चलती रही। कभी तेज तो कभी धीमी। तभी एक चेक पोस्ट आया जहां सीआरपीएफ के जवान सर्चटावर में नजर आए। पता चला कि यह चेरपाल राहत शिविर है। जिस घर को सीआरपीएफ के जवान कब्जा किए हुए हैं वहां रहने वाला पूरा परिवार विस्थापित होकर बीजापुर चला गया है। ...यहां से सीधे गाड़ी गंगालूर पहुंची। वहां उतरने के बाद आस- पास जरूर कुछ छोटी-छोटी दुकानें दिखीं, वहां मुझे रमेश (छद्म नाम) से मुझे मिलना था। उन्हें खोजने में कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। मेरे बैठते ही उन्होंने मुझे चाय पिलाई और फिर शुरू हो गया लोगों से मिलने-जुलने का सिलसिला। किसी ने आकर बताया कि गंगालूर थाने के थानेदार सिगार मुझे लेने चेरपाल तक गए हैं। अब उनसे मिलना भी जरूरी हो गया था अत: मैं सीधे थाने पहुंच गया। मैंने देखा वह पूरा थाना परिसर एक छावनी से कम नहीं था। वहां मेरा स्वागत मीठे ताजे पपीता से किया गया। वहां से हम राहत शिविर घूमने निकले। जहां बाजार के रुप में मात्र दो-चार दुकानें हीं थीं के पास पहुंचने पर मुझे सीआरपीएफ का शिविर दिखाई दिया। मेरे अनुरोध पर थानेदार सिगार मुझे कमांडेंट शकील खान से मिलवाने ले गए। वहां करीब एक घंटे तक उनसे चर्चा हुई। चर्चा का मुख्य केंद्र था अलगाववादियों और देशद्रोहियों द्वारा किया जाने वाला छद्म मनोवैज्ञानिक युद्ध। शाम हो चुकी थी, सूरज ढलने लगा तो मैंने दोनों अधिकारियों से विदा ली और फिर राहत शिविरों में रह रहे लोगों के बीच चला गया। मैं शुरु से लेकर अब तक सुनते आए बस्तर के आदिवासी संस्कृति की झलक पाने की लालसा लिए घूम रहा था कि कहीं तो यहां जीवन का वह उल्लास बचा होगा जो इनके जीवन में, इनके रग- रग में समाया होता था। पर मुझे कहीं न वैसा हाट- बाजार मिला, न वहां के पारंपरिक मुर्गे की लड़ाई और न ही आदिवासियों द्वारा खुशी से झूमते हुए किए जाने वाले गीत- नृत्य की झलक। लेकिन इनकी ऐसी स्थिति से रुबरू होने के बाद अपनी इस सोच पर मुझे खुद पर ही शर्म आई कि खौफ के साये में जीते इन आदिवासियों से भला मैं कैसे यह उम्मीद कर सकता हूं कि खुशियों की झलक मुझे देखने को मिलेगी? हां इस जगह पर आकर मुझे महुआ शराब की संस्कृति जरूर जीवित दिखी। मैं कई घरों में गया। हरेक ने अपने-अपने तरीके से मेरा स्वागत किया। सभी ने अपनी परेशानियां बताईं। उन लोगों को मुझसे आशा थी कि मैं उनकी बात सरकार तक पहुंचा सकता हूं। रात के 9 बज चुके थे। अब रात्रि विश्राम का इंतजाम करना था। मेरी इच्छा थी कि मैं किसी आदिवासी के घर पर ही रुक जाऊं, लेकिन थाने में ही मेरे रुकने की व्यवस्था कर दी गई थी।

करैत से सामना

वापसी में थाने की ओर लौटते समय मेरे साथ गांव के एक सज्जन थे जिनके हाथ में टार्च था। वे थोड़ी-थोड़ी देर में टार्च जलाते चल रहे थे। अचानक उन्होंने मुझे धक्का दिया और चिल्ला कर कहा साहब आगे मत बढऩा। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आया लेकिन उन्होंने टार्च जला कर दिखाया, सामने लगभग 4 फुट लम्बा करैत सांप था जो बहुत ही धीरे-धीरे चल रहा था। मेरी हालत कांटो तो खून नहीं । वह करैत सांप शायद सर्पयोनी से मुक्ति चाहता था। हल्ला सुन कर कुछ एसपीओ बाहर निकल आए और उन्होंने एक ही वार में सांप को मार डाला। दूसरे दिन सुबह उस सांप की विधिवत अंतिम क्रिया की गई।

एसपीओ के साथ कुछ क्षण

रात को मेरे भोजन की व्यवस्था एसपीओ ने ही की थी। काफी स्वादिष्ट भोजन बना था। भोजन बनते और खाते तक मैं इन जाबांज युवाओं की व्यथा-कथा सुनता रहा। एक बात साफ थी कि इन लोगों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। ठीक वही जज्बा जो आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को हुआ करता था। इस पूरे सफर में अगर कोई बेखौफ दिखा तो विशेष पुलिस अधिकारियों का यह समूह ही था। बाकी सबके चेहरे पर खौफ का साया मंडरा रहा था। इन एसपीओ को न तो अपनी जान की फिक्र है और न ही अपने सूरतेहाल की। मैं मन ही मन उनके इस जज्बे को नमन करता रहा।

महिलाओं को जागरूक कर रही हैं सिस्टर जूली गंगालूर से मिलकर मैं वापस बीजापुर लौट आया और दूसरे दिन भोपालपट्टनम के लिए रवाना हुआ। मोदकपाल, कोंगूपल्ली, संगमपल्ली, चेरपल्ली जैसे गांव से गुजरते हुए मेरी यात्रा बढ़ रही थी। बीजापुर से आगे मद्देड़ तक तो गोंड़ी बोली सुनाई दे रही थी लेकिन चरपल्ली आते तक आंध्र की तेलुगू संस्कृति का असर भी दिखने लगा था। पहनावे से लेकर बोली तक में फर्क था। यहां नक्सलियों का आतंक तो है लेकिन इस पूरे रास्ते में उसका असर ज्यादा दिखा नहीं। शायद इसका कारण यहां सलवा जुडूम जैसे किसी आंदोलन का न होना है। वैसे भी सलवा जुडूम आंदोलन के बाद नक्सलियों ने भी अपने तेवर में नरमी लाई है।

रात लगभग 8 बजे मैं भोपालपट्टनम पहुंचा। यहां भी स्थिति गंभीर है। यहां भी थाना, छावनी बना हुआ है। पुलिस के जवान बैरक बना कर रहते हैं। यहां के नागरिकों में इतनी दहशत है कि वे थाने नहीं आ सकते। अगर वे थाना पहुंचे तो नक्सली परेशान करते हैं। अब मैं पुलिस थाने में प्रवेश कर चुका था तो बाहर निकलने का सवाल ही नहीं था। रात वहीं विश्राम किया। दूसरे दिन दोपहर में भोजन के बाद यहां के टीआई कंवर साहब और एएसआई देवांगन जी ने मुझे इंद्रावती नदी के किनारे तक छोड़ दिया। यहां से मैंने पैदल इंद्रावती नदी पार की और पातागुड़म नामक गांव तक पहुंचा। वहां से महाराष्ट्र राज्य परिवहन निगम की बस में बैठकर सिरोंचा गया। सिरोंचा से आलापल्ली, चंद्रपुर होते हुए मैं नागपुर पहुंचा। लगभग 7 दिनों तक के लगातार सफर के बाद अपने परिवार के बीच था।

इस पूरी यात्रा में मुझे सबसे अधिक निराशा हुई राहत शिविरों की हालत देख कर। इसके अलावा पुलिस थानों में रहने वाले जवानों की स्थिति देखकर लगा कि इन लोगों को इस नारकीय जीवन से मुक्ति कब मिलेगी। आदिवासियों में मुझे एक ही परिवर्तन दिखाई दिया, पहले यहां के आदिवासी पुरुष लंगोट पहनते थे और अब वे लुंगी लपेटते हैं। आजादी के बाद आदिवासी क्षेत्रों का विकास यानी लंगोट से लुंगी तक।

1 comment:

Shweta said...

उदंती डाट काम का मार्च अंक आनलाइन पढ़ा। नक्सलग्रस्त इलाके का यात्रावृतांत- मैंने देखा एक समृद्ध संस्कृति को विलुप्त होते... काफी अच्छा लगा। पढ़कर ताज्जुब हुआ हालात इतने जटिल हैं। वैसे यह बिना किसी लागलपेट के लिखा गया वृतांत प्रतीत हुआ। दाद देनी होगी अंजीवजी के हिम्मत की जिन्होंने हमें आजाद भारत इस भयावह हकीकत से अवगत कराया। उदंती पत्रिका के प्रकाशन के लिए संपादक को कोटिशः बधाई।
श्वेता शर्मा
कवयित्री,
यू.एस.ए.