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Feb 26, 2009

उदंती.com, फरवरी 2009

उदंती. com, वर्ष 1, अंक 7, फरवरी 2009
- सबसे जीवित रचना वह है जिसे पढऩे से प्रतीत हो कि लेखक ने अंतर से सब कुछ फूल सा प्रस्फूटित किया है।  -शरतचंद्र
                              .....
 अनकही/ भारतीय कारोबार की छवि...
बांस गीत.... इस सुरीली तान को...- राजेश अग्रवाल

Feb 25, 2009

शेयर मार्केट की स्थिरता में मेरा योगदान

शेयर मार्केट की स्थिरता में मेरा योगदान
- त्रिभुवन पांडे
मैं सब्जी वगैरह भी मंहगाई के हिसाब से उपयोग में लाता हूं। इससे दो लाभ होता है। कम वस्तु खरीदने से बाजार में वस्तुओं की कमी नहीं होती और मंहगाई की वृद्धि का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
शेयर मार्केट में हिन्दी के एक छोटे से व्यंग्यकार का ऐसा कथा योगदान हो सकता है कि वह उसे स्थिर रखने के लिए अपनी सम्पूर्ण आर्थिक शक्ति उसमें झोंक दे। जब बुश जैसे आर्थिक भूकंप के महानायक व्हाइट हाउस में बैठकर रेक्टर स्केल से उसकी प्रभाव शक्ति नाप रहे हैं, यूरोप के पूंजी बाजार उसके भटके महसूस कर रहे हैं, भारत के रातों-रात लखपति बनने का ख्वाब देखने वाले लोग शेयर बाजार को कांपता देखकर मुश्किल से जुटाये रुपयों के डूबने की चिंता कर रहे हों तब मेरा निश्चिन्त रहना अर्थशास्त्रियों को काफी परेशान कर रहा है। इस पछाड़ खाकर गिरते शेयर मार्केट को स्थिर रखने में आखिर मेरा क्या योगदान हो सकता है। मैं जानता हूं आपको भी विश्वास नहीं हो रहा है, एडमस्मिथ और कौटिल्य को भी विश्वास नहीं होता, मुझे भी पहले स्थिरता के इस मध्यवर्गीय आर्थिक सिंद्धात पर विश्वास नहीं था लेकिन जैसे-जैसे दुनियां का बड़ा पूंजीबाजार एक के बाद एक धराशायी हो रहा है, स्थिरता के इस सिद्धांत पर मेरा विश्वास भी बढ़ता जा रहा है।
मेरा मार्केट में जो शेयर है वह सभी तरह के दबाव से मुक्त है। चावल, गेंहू, दाल, शक्कर, चाय, आलू, प्याज जैसी खाने की जरूरी चीजों में मंहगाई के बढऩे के अनुसार क्रय में कमी करता जाता हूं, इससे मार्केट में चीजों का अनुपात मंहगाई की वृद्धि के बराबर रहता है। मैं सब्जी वगैरह भी मंहगाई के हिसाब से उपयोग में लाता हूं। इससे दो लाभ होता है। कम वस्तु खरीदने से बाजार में वस्तुओं की कमी नहीं होती और मंहगाई की वृद्धि का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
शेयर मार्केट में धन के उछाल की स्थिति हो या धड़ाम से गिरकर जमीन पर लेट जाने की इसका भी मुझ पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। मैं बैंक से लेनदेन के मामले में सदैव सतर्क रहा हूं। महीने में पेंशन के रूप में जो राशि जमा होती है उसमें से पचास रुपए बैंक में छोड़ देता हूं जिससे उनका काम चलता रहे। शेष रुपए निकाल लेता हूं जिससे मेरा काम चलता रहे। महीने में केवल एक बार बैंक जाने से बैंक स्टाफ भी प्रसन्न रहता है और अनावश्यक क्यू में खड़े रहने से बच जाने के कारण मुझे भी प्रसन्नता होती है। पेंशन में जो राशि मिलती है उसमें महीने भर खर्च चल जाए तो बड़ी बात होती है। शेयर मार्केट मेरी ओर से निश्चिंत हैं। उन्हें पता है कि मैं इस जन्म में शेयर मार्केट को अस्थिर करने की स्थिति में नहीं हूं, और इस दिशा में सोचना भी मेरे लिए कठिन है।
मेरा संवेदी सूचकांक साहित्य के स्थायी भाव की तरह स्थिर है। वह काफी दिनों से एक ही बिंदु पर टिका है। जब तक महंगाई भत्ता में वृद्धि नहीं होती वह इसी तरह स्थिर रहता है। कई बार छोटे-मोटे एरियर्स के कारण थोड़ी बहुत हलचल होती है लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि आज यदि दस हजार पर है तो कल उछल कर सीधे बीस हजार पर पहुंच जाए।
अमेरिका के निवृत्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश अरबों डालर झोंककर शेयर मार्केट सहित अमेरिकी आर्थिक साम्राज्य को स्थिर बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं लेकिन ईराक जैसे देशों में हमलों के कारण स्थिति जिस तरह चिंताजनक हुई है वह डीजल और पेट्रोल पर कब्जे के बाद भी ठीक नहीं हो सकी है। विकासशील देश के आर्थिक विशेषज्ञ भी यह बात अच्छी तरह समझ गए हैं कि उनके देश में अमेरिका की बड़ी-बड़ी कंपनियां क्यों चली आ रही हैं। आर्थिक क्षेत्र में कोई किसी की सेवा करने के लिए नहीं जाता। सब लूटने के लिए जाते हैं। ज्यादातर हुए तो लूट का थोड़ा बहुत हिस्सा उसी देश में लोक कल्याण के लिए छोड़ आते हैं।
भारत में जो आर्थिक स्थिरता है वह विश्व बंधुत्व की भावना के कारण है। मेरी भी यही स्थिति है। मैं अपने पड़ोसी से कभी नहीं लड़ता। भारत पड़ोसी देशों से नहीं लड़ता। मैं मुकदमे के खर्च से बच जाता हूं। भारत हथियारों के खर्च से बच जाता है। शेयर मार्केट में स्थिरता के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण उपाय है।

इस अंक के रचनाकार

परदेशीराम वर्मा
जन्म तिथि - 18 जुलाई 1947 भिलाई इस्पात संयंत्र के करीबी गांव लिमतरा में। प्रमुख कृतियां -हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में तीन उपन्यास, चार कथा संग्रह, आठ संस्मरण तथा नाटक और जीवनी प्रकाशित। सम्मान- अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पंथी नर्तक स्व. देवदास बंजारे पर केंद्रित पुस्तक 'आरुग फूल' को मध्यप्रदेश शासन का माधवराव सप्रे सम्मान । 2003 में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा मानद् डी. लिट् की उपाधि। असम राइफल्स, भारतीय डाक तार विभाग, डीएमसी तथा भिलाई इस्पात संयंत्र में सेवा के बाद 2002 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर स्वतंत्र लेखन। संप्रति- दुर्ग जिला जनवादी लेखक संघ 'अगासदिया' के अध्यक्ष। पता- एलआईजी, 18, आमदीनगर, भिलाई-490009, (छ.ग.)
फोन- 0788-2242217.
उमेश चतुर्वेदी
कार्य-सात साल दैनिक भास्कर के पोलिटिकल ब्यूरो में रिपोर्टिंग के बाद इंडिया टीवी के लांचिग टीम के सदस्य रहे। तीन साल जी न्यूज में सीनियर प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया। रूचि- साहित्यिक वैचारिक और राजनीतिक विषयों की किताबें पढऩा संप्रति- वर्तमान में सकाल टीवी में डिपुटी एक्सक्यूटिव प्रोड्यूसर के रुप में कार्यरत।
पता- द्वारा जयप्रकाश, एफ-23 ए, निकट शिवमंदिर,
दूसरा तल, कटवारिया सराय, नई दिल्ली-110016.
email- uchaturvedi@gmail.com
अखतर अली
जन्म तिथि - 14 अप्रेल 1960 शिक्षा - बी. कॉम, मूलत: नाटककार, निरंतर व्यग्य लेखन जारी। देश भर की पत्र पत्रिकाओं में अनेकों रचनाए प्रकाशित। हबीब तनवीर, कार्तिक अवस्थी, सलीम आरिफ, जेराडीन बोन से रंगमंच का प्रशिक्षण। नाटय स्पर्धाओं एव सम्मेलनों में शिरकत। प्रमुख नाटक- किस्सा कल्पनापुर का, नंगी सरकार, विचित्रलोक की सत्यकथा, खुल्म खुल्ला, निकले थे मांगने, नाटक की आड में, खदान दान, अमंचित नाटक प्रस्तुति। इसके अतिरिक्त प्रमुख नाटय रूपांतरण -किस्सा नागफनी ; बाकी सब खैरियत है; टोपी शुक; असमंजस बाबू की आत्मकथा। संप्रति - क्वाटिली फाउन्ड्री इन्डस्ट्रीज में कार्यरत । पता - अखतर अली, फजली अर्पाटमेंट, आमानाका, रायपुर.
मो०- 09826126781, email- akhterspritwala.co.in
रश्मि वर्मा
जन्म तिथि - 24 नवम्बर 1968 रायपुर
शिक्षा - एमए, एम फिल (मनोविज्ञान) गाइडेंस एंड काउंसलिंग में डिप्लोमा कार्य- मनोवैज्ञानिक सलाहकार रूचि- सामाजिक और साहित्यक किताबें पढऩा, पर्यटन स्थलों का भ्रमण संप्रति- उदंती.com में व्यापारिक प्रतिनिधि पता- 60/2 नेहरू नगर (ईस्ट), भिलाई (छत्तीसगढ़)
मो. 09826950466

त्रिभुवन पाण्डेय
जन्म तिथि- 21 नवम्बर 1938 धमतरी में प्रमुख कृतियां- भगवान विष्णु की भारत यात्रा (व्यंग्य उपन्यास), पम्पापुर की कथा, ब्यूटी पार्लर में भालू (व्यंग्य संग्रह), झूठ जैसा सच (लघु उपन्यास), पंछी मत हंसो (हास्य व्यंग्य एकांकी संग्रह) सुनो सूत्रधार (गीत संग्रह) महाकवि तुलसी (जीवनी) मोर्चा फीचर में व्यंग्य प्रकाशित, भारत की जनपदीय कविता के छत्तीसगढ़ खंड का संपादन। सम्मान- छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, रायपुर, स्मृति नारायण लाल परमार सम्मान-2005, साहित्य संगीत सांस्कृतिक मंच, मुजगहन।
पता -सोरिद नगर, धमतरी - 493773 फोन 232815।
राजेश अग्रवाल
जन्म तिथि - जन्म - 1965, छतौना(मुंगेली) के एक कृषक परिवार में शिक्षा- बीए एलएलबी। कार्य- सम्पादक के नाम चिट्ठी लिखते-लिखते अंशकालिक संवाददाता बना। लोकस्वर, नवभारत, देशबंधु, दैनिक भास्कर आदि अख़बारों में रिपोर्टर से लेकर न्यूज़ एडीटर तक कार्य। सम्मान- जशपुर की लड़कियों की ट्रैफेकिंग पर की गई रिपोर्टिंग पर पत्रकार उदयन शर्मा स्मृति राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित। संप्रति- राजस्थान पत्रिका समूह के दैनिक 'पत्रिका' भोपाल के लिये छत्तीसगढ़ का ब्यूरो प्रभारी। कभी-कभी छत्तीसगढ़ी में कविताएं और यहां की संस्कृति से जुड़ी अनोखी बातों को लिख लेता हूं? एक अनियमित प्रविष्टि वाला ब्लाग
Sarokaar.blogspot.com भी वेब पर है। पता- 15, पत्रकार कालोनी, रिंग रोड नं 2, बिलासपुर (छ. ग.) मो.098263 67433
संजीव खुदशाह
जन्म- 12 फरवरी 1973 बिलासपुर में शिक्षा-बीकाम, डीबीएमएस, एमए ( समाजशास्त्र) एलएलबी कृतिया - सफाई कामगार समुदाय, आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग, लेख, कहानी एवं कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, राज्य संसाधन केंद्र (सतत शिक्षा अभियान) द्वारा हमारा पर्यावरण का प्रकाशन उपलब्धि- क्राप कटींग एक्सपेरीमेंट साफ्टवेयर का निर्माण जो छत्तीसगढ़ के जिला कार्यालयों में संचालित है, सफाई कामगार समुदाय पुस्तक को साहित्य का तेजस्विनी सम्मान तथा भारत में भंगी का अध्ययन हेतु वाशिंगटन यूनिर्वसिटी लाइब्रेरी में शामिल। संप्रति - राजस्व विभाग में प्रभारी सहायक प्रोग्रामर पता- 39/350 गणेश नगर, भवानी टेन्ट हाउस के पीछे बिलासपुर (छत्तीसगढ़)495004
http://sanjeevkhudshah.webs.com/index.html,

सकारात्मक पक्ष

सकारात्मक पक्ष
भाई जयराम दास जी ने जिम्मेदार मीडिया का गढ़ छत्तीसगढ़ नामक आलेख में राजधानी में पत्रकारिता के सकारात्मक पक्ष को बखूबी प्रस्तुत किया है। कई वर्ष नागपुर में पत्रकारिता करने के बाद जब मैं रायपुर आया था तो कई मुद्दों पर स्थानीय मीडिया से मेरा विरोध रहा। इसी क्रम में नक्सलवाद के मुद्दे पर भी मेरा पत्रकारिता का मन सदैव उद्वेलित रहा है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि राजधानी के कुछ प्रमुख समाचार पत्र हर उस खबर को प्रमुखता देते थे जिसे अंग्रेजी में प्रो-नक्सली कहा जा सकता है। इस अफवाह युद्ध के साथ हम लोगों ने संघर्ष का बिगुल फूंका और कुछ ही दिनों में समूची मीडिया का स्वर बदल गया। उस समय ऐसा लगा था कि हर सही कार्य के लिए ईश्वर मदद करता है। खैर, सलवा जुडूम और नक्सलवाद के मुद्दे पर राजधानी की मीडिया जगत का न्यायपरक नजरिया वाकई काबिले- तारीफ है। अब यह बात अलग है कि इस मानसिक समर्थन के बाद सरकार इस समस्या के समूल उच्चाटन के लिए क्या कदम उठाती है।
-अंजीव पांडेय, रायपुर से
मीडिया का स्वरूप
सुरुचिपूर्ण पत्रिका
उदंती पांचवां अंक सुरुचिपूर्ण है। मृत्युंजय के चित्रों से सुसज्जित अंक ने पत्रिका को दर्शनीय भी बना दिया है। उदय प्रकाश से विनोद साव की बातचीत सारगर्भित है। शताब्दी वर्ष पर क्रांतिकारी महिला दुर्गा भाभी को याद करने व उनके बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद। आज की पीढ़ी को हमारे देश के लिए कुर्बानी देने वालों के बारे में समय- समय पर बताते रहने की जरुरत है।
-रवीन्द्र शर्मा, दिल्ली से
हिमाचल में भी एलोरा
इतनी अच्छी पत्रिका प्रकाशित करने के लिए मैं आपको बधाई देना चाहती हूं। पत्रिका में अभियान के तहत गुस्सा कॉलम की शुरुआत से हम जैसे पाठकों को अपनी बात कहने का मौका मिलेगा। खुशियों का मेला, हिमचल में एलोरा... पर लेख जानकारी प्रधान है। पढ़ कर वहां जाने की इच्छा बलवती हो गई। मीडिया का गढ़ छत्तीसगढ़ ने बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया। वाकई, आज मीडिया की परिभाषा बदल गई है। पर्यावरण, समाज, और पुरातन पर पठनीय सामग्री दी गई है।
-रचना कश्यप, इंदौर से
वृक्ष में देवत्व
उदंती का दिसंबर अंक पठनीय था। यूं तो सभी लेख व रचनाएं अच्छी लगीं पर हमारे लोक देवता वृक्ष के माध्यम से हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा परंपरा को उदाहरण सहित बताया गया है। आज की पीढी को समझना होगा कि हमारे पर्यावरण में वृक्ष क्यों महत्वपूर्ण है। लेखक को बधाई।
-सुशांत, नागपुर से

प्रकृति की लीला...

प्रकृति की लीला...

पिछले माह अमरीका के केलिफोर्निया में एक 33 वर्षीय स्त्री ने एक साथ आठ बच्चों को जन्म देकर सबको चमत्कृत कर दिया। छह लडक़े और दो लड़कियां में से सभी बच्चे स्वस्थ हैं। इन बच्चों का वजन आधा किलो से लेकर डेढ़ किलो तक है। 46 डॉक्टरों की मदद से बच्चों को सीजेरियन ऑपरेशन करके निर्धारित समय से 9 सप्ताह पहले ही जन्म दिलवाना पड़ा क्योंकि आठ बच्चों के गर्भ में होने से मां का पेट इतना बड़ा हो गया था कि उसका जीवन ही संकट में पड़ गया था।

14 बच्चों की यह मां जरुर कोई जीवट महिला होगी जिसने एक साथ आठ बच्चों को अपने गर्भ में पालने का साहस किया। मीडिया जगत इस मां के बारे में अधिक से अधिक जानकारी इकठ्ठा करने में लगी रही और अंतत: उसने यह जानकारी हासिल कर ली कि नादिया सुलेमान नाम की इस महिला ने अपने एक दोस्त के शुक्राणुओं की मदद फर्टिलिटी ट्रीटमेंट से गर्भधारण किया था। इस तकनीक से मल्टीपल प्रेगनेन्सी की बहुत अधिक संभावना रहती है। गर्भकाल के दौरान ही महिला को सोनोग्राफी तथा अन्य मेडिकल जांच से आठ भ्रूण होने का पता चल गया था। लेकिन उसने सभी बच्चों को जन्म देने का निर्णय कर लिया। यद्यपि मीडिया की बहुत कोशिश के बाद भी उसने बच्चो के पिता के बारे में कोई भी जानकारी देने से इंकार कर दिया। उसने अपने इन आठ बच्चों के नाम रखे हैं- नोआह एंजल, सिस्टर मालियाह एंजल, इसियाह एंजल, नारियाल एंजल, जेरेमियाह एंजल, जोसियाह एंजल और मेकेय एंजल।

आश्चर्य तो यह है कि इस महिला के पहले से ही आठ साल के कम उम्र के छह: बच्चे और हैं उनमें से दो जुड़वा हैं। अब अपने 14 बच्चों को पालने के लिए नादिया ने इंटरनेट में लोगों से सहयोग की अपील की है। नाडिया अपने माता- पिता के साथ ही रहती है।

अमरीका में आठ बच्चे एक साथ पैदा होने की यह दूसरी घटना है। 10 वर्ष पहले भी अमरीका के टेक्सास राज्य में एक स्त्री ने आठ बच्चों को जन्म दिया था, जिनमें से एक बच्चे की मृत्यु हो गई थी, बाकी सात बच्चे अब 10 वर्ष के हो गए हैं। इससे पहले 1971 में आस्ट्रिया में एक और महिला ने 9 बच्चों को जन्म दिया था। जानकारी के अनुसार उनमें से संभवत: एक-दो ही जीवित बच पाए थे। प्रकृति की लीला अपरमपार है।

नानस्टाप हंसी...
बच्चों को हंसते-खेलते देखना किसे अच्छा नहीं लगता लेकिन एक चीनी दंपत्ति के लिए उनकी बेटी की हंसी ही परेशानी की वजह बन गई है। दरअसल उनकी बेटी शू पिंगुई पिछले 12 वर्षो से लगातार हंस रही है।

शू पिंगुई 8 माह की थी तब से यह सिलसिला जारी है। दो साल की उम्र के बाद से उसने बोलना बंद कर दिया और लगातार हंसती रहती है। बेटी के कितने ही इलाज के बाद भी यह बीमारी ठीक नहीं हो रही है। शू के पिता वीमिंग कहते हैं कि उसे हंसता देख कर हम दोनों को बहुत दुख होता है। वहीं चांगकिंग मेडिकल कालेज के डाक्टर, शू के दिमाग की स्कैनिंग करने की सोच रहे हैं ताकि उसके लगातार हंसने के कारणों का ठीक-ठीक पता लगाया जा सके। कितनी अजीब बात है शू के लिए उसकी हंसी ही श्राप बन गई है।

वह चार साल तक पलंग के नीचे छुपा रहा

डांट या मार से बचने के लिए प्राय: बच्चे मां के आंचल के पीछे छिप जाते हैं लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पुलिस से बचने के लिए रोमानिया के एक चोर पेट्रू सुसानू चार साल तक मां के पलंग के नीचे छिपा रहा।
व्लादेनी स्थित पैतृक घर में सुसानू ने बिस्तर के नीचे छिपे रहने की शानदार व्यवस्था बना रखी थी। किसी को पता न चले इसलिए वह खुद को फर्श के नीचे बने लकड़ी के बक्से में छिप कर रहता था। पता न चले इसलिए उसने उस जगह को एक गलीचे से ढक रखा था। लेकिन चार साल चकमा देने के बाद पड़ोसियों व एक दुकानदार के जरिए पुलिस ने उसे पकड़ ही लिया। दरअसल पड़ोसियों ने पेट्रू की मां को दुकान से सिगरेट व बीयर लाते देखा जबकि वह न तो सिगरेट पीती है न शराब। दुकानदार को शक तब हुआ जब सुसानू की मां रोज उसी ब्रांड की सिगरेट दुकान से लेकर जाती थी, जिस ब्रांड की सिगरेट उसके दुकान से हमेशा चोरी होती थी।

सुसानू की 2005 में की गई चोरी के आरोप में पुलिस को तलाश थी। फिलहाल जेल में वह चार साल की सजा काट रहा है। सुसानू के लिए पलंग के नीचे चार साल तक छिपे रहने की बजाय बाहर आकर जेल की सजा काटना शायद ज्यादा आसान होगा।

लोक- संगीत

बाँस गीत इस सुरीली तान को सहेजना होगा
- राजेश अग्रवाल
पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था। दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी ठहर कर कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था।
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रंगकर्मी हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की बोली और लोक विधाओं को छत्तीसगढ़ के बाहर देश-विदेश के मंचों पर रखा। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक 'मिड समर नाइट स्ट्रीम' का हिन्दी रूपान्तर 'कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना' तैयार किया, इसका मंचन अब तक केवल विदेशों में हो सका है।
निर्धनता के थपेड़ों से सूख चुके 70 साल के छेडूराम को आज की शाम भी चौकीदारी पर जाने के लिए देर हो रही थी। अपने पोपले मुंह से बार-बार उखड़ती सांसों पर जोर देते हुए उसने तकरीबन एक घंटे तक सुरीली तान छेड़ी फिर पूरे आदरभाव के साथ बांस को भितिया पर लटका दिया। अब ये कई-कई दिनों तक इसी तरह टंगा रहेगा।
छेडूराम को याद नहीं कि पिछली बार बांस उसने कब बजाया। छेडूराम कहते हैं- अब कौन पूछता है इसे... मैं क्या उम्मीद करूं कि मेरे नाती-पोते इसे साध पाएंगे। पूरी रात खत्म नहीं होगी, अगर मैं एक राजा महरी का ही किस्सा लेकर बैठ जाऊं। अब तो वह कोलाहल है कि मेरे बांस बजाने पर पड़ोसी को भी पता नहीं चलता, पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक यह लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था। दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था। एक वह भी समय था जब छठी, बरही, गौना सब में बांस गीत गाने-बजाने वालों को बुलाया जाता था। राऊतों का तो कोई शुभ प्रसंग बांस गीत की बैठकी के बगैर अधूरा ही होता था।
अब इंस्टेन्ट का जमाना हैं। टेस्ट मैच की जगह ट्वेन्टी-20 पसंद किये जाते हैं। बांस गीत की मिठास को पूरी रात पहर-पहर भर धीरज के साथ सुनकर ही महसूस किया जा सकता है। इसके सुर बहुत धीमे-धीमे रगों में उतरते हैं, आरोह- अवरोह, पंचम, द्रुत सब इसमें मिलेंगे। जब स्वर तेज हो जाते हैं तो मन-मष्तिष्क का कोना-कोना झनकने लगता है। रात में जब भोजन-पानी के बाद बांसगीत की सभा चबूतरे पर बैठती है तो बांस कहार, गीत कहार, ठेही देने वाले रागी और हुंकारू भरने वाले के बीच सुरों की संगत बिठाई जाती है। इसके बाद मां शारदा की वंदना होती है फिर शुरू होता है किसी एक कथानक का बखान। यह सरवन की महिमा हो सकती है, गोवर्धन पूजा, कन्हाई, राजा जंगी ठेठवार या लेढ़वा राऊत का किस्सा हो सकता है। गांव के बाल-बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े बारदाना, चारपाई, पैरा, चटाई लाकर बैठ जाते हैं और रात के आखिरी पहर तक रमे रहते हैं।
अहो बन मं गरजथे बनस्पतिया जइसे,
डिलवा मं गरजथे नाग हो
मड़वा में गरजथे मोर सातों सुवासिन गंगा,
सभा में गरजथे बांस हो।
राऊत जब जंगल की ओर गायों को लेकर गए होंगे तब बांस की झुरमुट से उन्हें हवाओं के टकराने से निकलते संगीत का आभास हुआ होगा। इसे कालान्तर में उन्होंने वाद्य यंत्र के रूप में परिष्कृत कर लिया। इसी का उन्नत स्वरूप बांसुरी के रूप में सामने आया। बांसुरी अपने आकार और वादन में बांस के अनुपात में ज्यादा सुविधाजनक होने के कारण सभी समुदायों में लोकप्रिय हो गया। बांस, जंगल-झाड़ी और पशुओं के साथ जन्म से मृत्यु तक का नाता रखने वाले यादवों ने बांस गीत को पोषित पल्लवित किया।
छत्तीसगढ़ की जिन लोक विधाओं पर आज संकट मंडरा रहा है, बांस गीत उनमें से एक है। रंगकर्मी हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की बोली और लोक विधाओं को छत्तीसगढ़ के बाहर देश-विदेश के मंचों पर रखा। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक 'मिड समर नाइट स्ट्रीम' का हिन्दी रूपान्तर 'कामदेव का अपना वसंत ऋ तु का सपना' तैयार किया, इसका मंचन अब तक केवल विदेशों में हो सका है। जानकर हैरत हो सकती है कि नाटक का पूरा कथानक बांस गीतों के जरिए ही आगे बढ़ता है, बांस न हो तो इस नाटक का दृश्य परिवर्तन अधूरा लगेगा।
राजनांदगांव के विक्रम यादव ने बांस की धुनों से पूरे नाटक में जादुई माहौल पैदा किया है। विक्रम ने बनारस के घाट पर हुए सन् 2007 के संगीत नाटक अकादमी के वार्षिक समारोह में भी प्रस्तुति दी। सार्क फेस्टिवल 2007 के विज्ञापनों और निमंत्रण पत्रों में बांस गीत गायक खैरागढ़ के नकुल यादव की तस्वीर को ही उभारा गया था।
आकाशवाणी रायपुर में बांस गीतों के लिए हर सोमवार का एक समय निर्धारित था। यदा-कदा कला महोत्सवों में भी बांस गीत के कलाकारों को शामिल किया जाता है।
छत्तीसगढ़ के हर उस गांव में जहां यादव हैं, बांस गीत जरूर होता रहा है। यह बस्तर तक भी फैला हुआ है। बस्तर कोंडागांव के खेड़ी खेपड़ा गांव में यादवों का एक समूह बांस गीत को बड़ी रूचि से बजाते हैं।
बांसुरी से लम्बी किन्तु बांस से पतली और छोटी, मुरली भी बजाने की परम्परा यादवों में रही है। मुरली बजाने वाला एक परिवार बिलासपुर के समीप सीपत में मिल जाएगा। यादव दो मुंह वाला अलगोजना और नगडेवना भी बजाते रहे हैं, जो काफी कुछ सपेरों के बीन से मिलता- जुलता वाद्य यंत्र है, यह खोज-बीन का मसला है कि कहां कहां बांस या उससे मिलते जुलते वाद्य यंत्र अब बजाये जा रहे हैं।
बांस गीतों का सिमटते जाने के कुछ कारणों को समझा जा सकता है। बांस गीत में वाद्य बांस ही प्रमुख है। गीत-संगीत की अन्य लोक विधाओं की तरह इसके साजों में बदलाव नहीं किया जा सकता। यादवों के अलावा भी कुछ अन्य लोगों ने बांस गीत सीखा पर इसके अधिकांश कथानक यादवों के शौर्य पर ही आधारित हैं। सभी कथा-प्रसंग लम्बे हैं, जिसके श्रोता अब कम मिलते हैं। पंडवानी, भरथरी में कथा प्रसंगों के एक अंश की प्रस्तुति कर उसे छोटा किया जा सकता है, पर बांस गीत में इसके लिए गुंजाइश कम ही है। हिन्दी फिल्मों की फूहड़ नकल से साथ फिल्मांकन कर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का सर्वनाश करने वालों को बांस गीतों में प्रयोग करने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। अब तेजी से जंगल खत्म हो रहे हैं, गांवों में बड़ी मुश्किल से चराई के लिए दैहान मिल पाता है। ऐसे में कच्चे बांस के जंगल कहां मिलेंगे। वे पेड़ नहीं मिलते, गाय चराते हुए जिस पर टिककर बांस या बांसुरी बजाई जा सके। यादवों के एक बड़े वर्ग से उनका गाय चराने का परम्परागत व्यवसाय छिन चुका है। छैड़ूराम, नकुल या विक्रम में से किसी का भी परिवार अब गाय नहीं चराता है। बांस गीत से इनका लगाव अपनी परम्परा और संगीत बचाये रखने की ललक की वजह से ही है।
रंगकर्मी अनूप रंजन पाण्डेय पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ की लुप्त होती लोक विधाओं और वाद्य यंत्रों को सहेजने के लिए काम कर रहे हैं। उनका मामना है कि लोक विधाओं को संरक्षण देने के नाम पर सरकार या तो कलाकारों को खुद या सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से बढ़ावा देती है, लेकिन बांस गीत जैसी लोक विधाओं की बात अलग है, इसे 15-20 मिनट के लिए मंच देकर बचाया नहीं जा सकता, बांस गीत तब तक नहीं बचेगा, जब तक इसे सीखने वालों की नई पीढ़ी तैयार न की जाए। बांस गीत जैसी विधाओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये, जिनमें गुरू शिष्य परम्परा को ध्यान में रखा जाए और दोनों को मानदेय मिले।
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तीन कविताएं

- डॉ. रत्ना वर्मा
डायरी के पृष्ठ
डायरी के पृष्ठों पर
मैंने जानबूझ कर छोड़ दी थी
कुछ खाली लकीरें,
इन लकीरों में
तुम थे।
गुलाब की पत्तियां
सहेज रखी थी
इन पृष्ठों पर
पत्तियों में
लिख दिया था
मैंने तुम्हारा नाम।
जिस दिन
यह पत्तियां सूख जायेंगी
इन पत्तियों से तुम्हारा नाम
आहिस्ता से उठा कर
डायरी के पृष्ठों की
खाली लकीरों पर लिख दूंगी
और यह कविता पूरी हो जायेगी।
एक शब्द कोश है तुम्हारी यादें
इस शब्द कोश से
एक-एक शब्द
बीन कर लिखी है मैंने
यह कविता
तुम्हारे नाम
जब भी तुम्हारी याद आती है
पढ़ लेती हूं यह कविता।
धूप का टुकड़ा
अपनी हथेली पर
मुटिठ्यों में बंद कर लेना चाहती हूं
टूटी हुई छत की खपरैल से
मेरे कमरे में आते हुए
इस धूप के टुकड़े को
वह हर बार
सरक जाता है
साबुन की गीली टिकिया की तरह
खिडक़ी से आती हवा
छोड़ जाती है
दीवार पर टंगी तिथियां
अब भी खुली हैं मेरी मुटिठ्यां
और फुदक रहा है धूप का टुकड़ा
मेरे कमरे में
बहुत कुछ सीखना चाहती हूं
धूप के टुकड़े से
लेकिन हर बार
जिंदगी का यह केलेंडर
मेरे बीच में आ जाता है।
बासंती खत
उतरती ठंड के हाथों
मौसम ने फिर
भेज दिया
एक बासंती खत
गुलाब की कलियों के नाम
अब
सुर्ख हो जाएंगी पंखुरियां
सुबह की गुनगुनी धूप
उतर कर
आ गई आंगन में
अब
सिलसिला शुरू होगा मनुहार का
धूप तापने बैठ जाएंगी क्यारियां
शाम की हवा
गूंजती है कानों में
मेंहदी हसन की $गज़लों की तरह
लौट रहे हैं चहकते हुए
नर-मादा के जोड़े
अपने पंखों से हवा को काटते हुए
अब
बजेंगी कहीं मधुर संबंधों की सारंगियां
मौसम ने फिर
भेज दिया
एक बासंती खत।
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नक्सल समस्या

दीवार पर महज एक पोस्टर चिपकाने से किस तरह अधिकार के लिए लडऩे वालों के भीतर चेतना का संचार होने लगता है यह हम इस नाटक में देखते हैं।
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छत्तीसगढ़ में जमीनें रोज बिक रही है। नई राजधानी नहीं बनी है मगर संभावना की जमीनों पर बाहरी शक्तियों का अधिकार सर्वत्र बन गया है। प्रलोभन, मजबूरी, दिवास्वस्न और नासमझी के कारण छत्तीसगढ़ी किसान जमीन दे रहे हैं।
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नक्सल समस्या, भू-माफिया संकट और कारखानेदारों का आतंक, यह तीन तरह का ताप यहां के लोगों को झुलसा रहा है। समय अब भी है। कम से कम मैदानी क्षेत्रों को तो अब भी बचाया जा सकता है।
नक्सल समस्या भू-माफिया की दबिश और गांव की खेती योग्य जमीन पर फैलते पसरते कारखानों के खौफ के बीच जीते आमजन और छत्तीसगढ़ी बुद्धिजीवियों को डॉ. शंकर शेष का नाटक पोस्टर याद आता है।
डॉ. शंकर शेष ने छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए वंदनीय शोध कार्य किया था। छत्तीसगढ़ की लोक कथाओं को हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी में एक साथ एक ही पुस्तक में संग्रहित कर उन्होंने प्रस्तुत किया। मुख्य रूप से वे एक चर्चित नाटककार थे। पोस्टर उनका बहुचर्चित नाटक था। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध रंगकर्मी स्व. सुब्रत बोस इस नाटक को लेकर देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में गये। उन्हें इस नाटक की प्रस्तुति के लिए खूब सराहना मिली। सुब्रत बोस की प्रस्तुतियों में इस नाटक को शीर्ष स्थान प्राप्त रहा। सुब्रत के सपूत अनुराग आज देश के चर्चित फिल्म निर्देशक है।
पोस्टर में प्रतीक के माध्यम से परिवर्तनकारी बिंदु का महत्वपूर्ण विस्तार दर्शाया गया है। दीवार पर महज एक पोस्टर चिपकाने से किस तरह अधिकार के लिए लडऩे वालों के भीतर चेतना का संचार होने लगता है यह हम इस नाटक में देखते हैं।
वैचारिक उग्रता के लिए लगातार निंदित हो रहे नक्सली जिस तरह मासूम वनवासियों को नृशंसतापूर्वक कत्ल कर रहे हैं उससे उनकी रही सही साख भी खत्म हो रही है। सलवा जुडूम अभियान की निंदा करने वाले भी कम नहीं है, किंतु सलवा जुडूम वस्तुत: पोस्टर ही है, प्रतिरोध की एक कोशिश मात्र। यह साधनहीन वनवासियों की असहमति का ऐलान भर तो है। न उनके पास पर्याप्त हथियार है न ही संगठन की जुझारु शक्ति। वे केवल अपने स्वतंत्र जीवन के लिए आवाज उठा रहे हैं। उन्हें यह पसंद नहीं कि कोई अपने हिसाब से अपनी योजनाओं के तहत उन्हें हांके। चाहे नक्सली हो या सरकारी तंत्र। स्वतंत्रचेता आदिवासियों ने दमन और तानाशाही का विरोध सदैव किया और इसकी भरपूर कीमत भी उन्होंने समय-समय पर चुकाई।
सलवा जुडूम के समर्थन में क्या हो रहा है या इसका विरोध क्या रंग लायेगा यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह संदेश है कि विरोध का शालीन स्वर संगठित बंदूकधारी नक्सलियों को भी किस तरह वैचारिकता का नकली नकाब उतारने के लिए मजबूर कर देता है।
डॉ. शंकर शेष का नाटक 'पोस्टर' इसीलिए याद हो आता है।
बस्तर में किस तरह नक्सली गतिविधियां धीरे-धीरे अपने असली रंग में आई इसे सभी जानते हैं। मासूम आदिवासी सरकारी अति के शिकार तो थे ही, सरकारी तंत्र के दमन से हताश जंगल ने अनजाने ही नक्सलियों को अपना हितैषी समझ लिया। धीरे-धीरे नक्सली आग से जंगल जलने लगा। ऐसी गफलत को ही छत्तीसगढ़ में 'आंजत आंजत कानी' करना कहते हैं। नक्सली गतिविधियां जारी थीं कि सलवा जुडूम का पोस्टर चिपक गया। लेकिन चिपका बहुत देर से। सलवा जुडूम रूपी यह पोस्टर भी नक्सलियों को डरा रहा है। वे हड़बड़ा गये हैं। अभी नक्सल समस्या से छत्तीसगढ़ जूझ ही रहा था कि, नये ढंग के शिकारी छत्तीसगढ़ के मैदानी गांवों में फांदा फटिका लेकर घूमने लगे। ये जमीन के सौदागर हैं। जो बुद्धिजीवी छत्तीसगढ़ के गांवों से जुड़े हैं वे ग्रामीणों के भीतर पसर रहे भय को बहुत करीब से देख पा रहे हैं। जमीन के ये नये सौदागर छत्तीसगढ़ में लगभग नक्सलियों के जुड़वा भाई बनकर उतरे हैं। इनका रंग भी एक दशक बाद छत्तीसगढ़ देखेगा। अभी तो वे चुग्गा डालकर संत्री, तंत्री, आला अफसर और दलालों को फांस रहे हैं। इक्का-दुक्का किसानों को हलाक कर रहे हैं। मगर वह दिन दूर नहीं जब ये जाल में समेटकर सारी चिडिय़ों को नष्टï कर देंगे। तब कोई युक्ति काम न आयेगी। जाल लेकर उडऩे वाली चिडिय़ों का किस्सा पढऩे-सुनने के लिए ठीक है। जो शिकारी छत्तीसगढ़ में उतरे हैं, वे किसी झांसे में नहीं आने वाले। वे समूचा मैदानी इलाका लील कर छत्तीसगढ़ की पहचान मिटा देंगे। चातर क्षेत्रों के गांवों में दहशत है। गांवों में किसानों को पाठ पढ़ाने के लिए एक नया खेल खेला जा रहा है। सरकारी विभाग द्वारा वृक्षारोपण ठीक वहीं किया जाता है जहां से किसानों का गाड़ा खेत में जाता था। खेत जाने का रास्ता बंद कर विकल्प के तौर पर बहुत दूर का ऐसा रास्ता सुझाया जाता है जहां आवाजाही नहीं हो सकती। अब किसान जिले के अफसरों के आगे पीछे घूमें या खेती बाड़ी सब बेच-बांच कर मजूर हो जाएं। भू-माफिया की शातिर योजना के क्रियान्वयन से यह नई परेशानी खड़ी हुई।
छत्तीसगढ़ के गांवों में बाहर से आये जमीनखोरों ने बहुतेरे किसानों की जमीन खरीद लिया है। अब उन्हें शेष किसानों की जमीन चाहिए इसलिए शासकीय लोगों से मिलकर वह कुछ ऐसा कर रहे हैं जो कभी किसी ने नहीं किया। इस तरह शुरू हो रही है दमन की नई कारगर योजना। जिस तरह वनवासियों को नक्सलियों के चंगुल में जाते देखकर भी प्रशासन प्रारंभिक दौर में सतर्क नहीं हुआ ठीक उसी तरह भू-माफिया के कसते शिकंजे के प्रति भी शासन आज असावधान हैं। छत्तीसगढ़ में जमीनें रोज बिक रही है। नई राजधानी नहीं बनी है मगर संभावना की जमीनों पर बाहरी शक्तियों का अधिकार सर्वत्र बन गया है। प्रलोभन, मजबूरी, दिवास्वस्न और नासमझी के कारण छत्तीसगढ़ी किसान जमीन दे रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के किसानों को घेरकर मारने की घटनाएं भी हो रही है। छत्तीसगढ़ में बाहर से आकर लोग रास्ता बंद कर रहे हैं और जिन पर राह बनाये रखने की जिम्मेदारी है वे मायावश आंखें मूंदे बैठे हैं। किसान हताश होकर आखिर में भू-माफिया की शरण में जाने पर मजबूर हो जायेगा और कालांतर में मैदानी इलाका भी बस्तर की तरह लहुलूहान होगा।
बंद कमरे में घिर जाने पर जिस तरह बिल्ली कूद कर गले को पकड़ लेती है उसी तरह घिरे वनवासी प्रतिरोध की मुद्रा में आ गये। मैदानी क्षेत्र के गांवों में अचानक- ही ये खतरनाक भू-माफिया नहीं आये।
लगभग विगत बीस वर्षों से यह प्रयास भीतर ही भीतर जारी था। सडक़ों के किनारे की दूर-दूर तक जमीनें अब छत्तीसगढ़ी व्यक्ति के पास नहीं है। चंदूलाल चंद्राकर से जब भी बड़े पुलों के निर्माण का आग्रह किया जाता था तब वे कहते थे कि पुल बना कि जमीन छत्तीसगढिय़ों के हाथ से निकल जायेंगी। एक का दस देकर बाहरी लोग यहां पसर जायेंगे।
दूरदृष्टा चंदूलाल जी को तब लोग विकास विरोधी कहते थे। आज समझ में आ रहा है कि जिस तरह भिलाई इस्पात संयंत्र खुलने से पहले छत्तीसगढ़ी लोगों को तकनीकी शिक्षा देकर कारखाने के लायक बनाया जाना जरुरी था उसी तरह छत्तीसगढ़ में जागृति के बाद ही पुल-पुलियों का विकास वे चाहते थे। पर छत्तीसढिय़ों के जागने से पहले ही पुल बन गये। उन पुलों से चलकर दमनकारियों का हथियारबंद हरावल दस्ता सर पर चढ़ आया और बेबस छत्तीसगढ़ केवल हाय-हाय करता रह गया।
वन क्षेत्रों में सलवा जुडूम का पोस्टर नक्सलियों को भयभीत करता है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों में अभी विरोध की सुगबुगाहट शुरू नहीं हुई है। स्थानीय किसान गरीब, असंगठित और भयग्रस्त है। अब भू-माफिया के साथ छत्तीसगढ़ के गांवों में प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों के मालिक भी दमन कर रहे हैं। अचानक गांव के मैदानों में शेड लगने शुरू हो जाते हैं। गांव के लोग भी अब जान गये हैं कि ये कारखाने रात भर जहरीला धुआं और कालिख उगलते हैं। इसीलिए वे चिंतित है। थरथराते हुए इक्के-दुक्के स्थानीय जनप्रतिनिधि अपने स्तर पर विरोध का तीर भी चलाते हैं मगर कारखाने के मालिकों की शक्ति असीमित है। इसलिए वे अट्टहास करते हुए छोटी चिमनियों से कालिख का विराट गोला अपने हिसाब से दागने लगते हैं।
छत्तीसगढ़ के हित में सोचने और लिखने की शालीन शैली में प्रवीण लोगों के इक्के-दुक्के आलेख इधर इन विषयों पर छपे भी हैं लेकिन बीमारी महामारी का रूप धारण कर रही है। ऐसे दौर में छिटपुट टीकाकरण से कोई लाभ नहीं होगा। जरूरत है छत्तीसगढ़ हितैषी सभी लोग एक स्वर में इसे बचाने के लिए हुंकारें। आध्यात्मिक गुरुओं ने मनुष्य के जीवन में दैहिक दैविक भौतिक त्रिताप का वर्णन किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है...
'दैहिक दैविक भौतिक तापा,


राम राज्य काहुंहि नहिं ब्यापा।'
राम की दुहाई देते हुए सत्ता में काबिज होने वाली सरकार छत्तीसगढ़ में है। नक्सल समस्या, भू-माफिया संकट और कारखानेदारों का आतंक, यह तीन तरह का ताप यहां के लोगों को झुलसा रहा है। समय अब भी है। कम से कम मैदानी क्षेत्रों को तो अब भी बचाया जा सकता है। स्थिति बिगड़ रही है। तीनों ओर से छत्तीसगढ़ को घेरा जा रहा है। वन क्षेत्रों में नक्सलियों का आतंक है। शहरों में छत्तीसगढ़ी व्यक्ति पूछ रहा है कि उसका घर कहां है और खेतों तथा मैदानों में भू-माफिया तथा कारखानेदारों की दबिश है।
ऐसे दारूण दौर में वह किसे पुकारे और किससे रक्षा की गुहार करे यह छत्तीसगढ़ समझ नहीं पा रहा।
आदिवासी फोटो साभार - indiamike.com

सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे...

रहमान के संगीत निर्देशन में गूंजी छत्तीसगढ़ की ददरिया
पिछले दिनों राकेश ओमप्रकाश मेहरा की नई फिल्म दिल्ली 6 का म्यूजिक एलबम जैसे ही बाजार में आया वैसे ही इसमें शामिल एक लोग गीत को सुनते ही छत्तीसगढ़ के लोग चौक गए, क्योंकि इस फिल्म में ए आर रहमान ने छत्तीगढ़ के एक बहुत ही प्रसिद्ध और चर्चित लोक गीत- सास गारी देवे, ननद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर .... को अपनी जादुई संगीत से सजाया है। जाहिर है रहमान के संंगीत में सजा यह लोक गीत कानों में रस घोलता ही है, यद्यपि इस गीत के बोल हूबहू वैसे नहीं हैं जैसा कि यहां के लोक गीत में उसे गाया जाता है।
इस छत्तीसगढ़ी लोक गीत के बारे में रायपुर आकाशवाणी में कार्यरत वरिष्ठ अधिकारी सहायक केन्द्र निदेशक श्रीमती ममता चंद्राकर से हमने कुछ खास जानकारी हासिल की है। ममता जो स्वयं छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध लोक गायिका हैं और उन्होंने लोक संगीत के क्षेत्र में अपना एक विशेष मुकाम बनाया है। उन्होंने सास गारी देवे... गीत के बारे में बताया कि 1965-70 के दौर में इस गीत ने छत्तीसगढ़ में खूब धूम मचाई थी। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए एच. एम. वी. ने इसका रिकार्ड प्लेयर भी बनाया था। आज यह रिकार्ड प्लेयर किसी के पास होगा यह मेरी जानकारी में नहीं है। बाद में इसकी कॉपी करके सुनहरे पल नाम से सीडी बनी। मूल रुप में इस गीत के बोल ददरिया के हैं। प्रसिद्ध नाट्य कर्मी हबीब तनवीर जी अपने नाचा में इस लोक गीत का प्रयोग करते थे। उनके नाचा में छत्तीसगढ़ की कलाकार और लोक गीतकार बरसन बाई इसे गाया करती थीं। उनका यह गीत आकाशवाणी रायपुर में खूब बजता था, तथा संगीत प्रेमी इसकी फरमाईश किया करते थे। (ममता के पास से प्राप्त छत्तीसगढ़ के इस लोक गीत की सीडी में बरसन बाई और चम्पा की आवाज के साथ स्वयं हबीब तनवीर ने भी अपनी आवाज दी है। बाद में उनकी नाट्य मंडली में छत्तीसगढ़ की एक और प्रसिद्ध अदाकारा फिदा बाई उनके कई नाचा कार्यक्रमों में इसे गाया करती थीं। फिदा बाई हबीब तनवीर के नाट्य संस्था की वह अदाकारा हैं जिन्होंने उनके कई प्रसिद्ध नाटकों जैसे चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, आगरा बाजार, मिट्टी की गाड़ी तथा गांव के नाव ससुराल मोर नाव दमाद आदि में बेहतरीन अदाकारी की मिसाल पेश कर छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किया है।
दिल्ली 6 में शामिल इस लोक गीत को कुछ लोग राजस्थान का लोक गीत भी कह रहे हैं, यदि वहां भी इस तरह के बोल के गीत गाए जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं, परंतु रहमान की धुन से सजे दिल्ली 6 के इस गीत को सुनने के बाद तो यही लगता है कि इसकी धुन भी छत्तीसगढ़ की है। क्योंकि ममता से प्राप्त सीडी में जो गीत उपलब्ध है उसमें उसकी धुन मिलती जुलती है। गीत के बोल जरुर अलग अलग है पर दिल्ली 6 में इस लोकगीत को रहमान ने बहुत ही मधुर संगीत से सजाया है। जो कर्णप्रिय है।
ममता चन्द्राकर के पास से प्राप्त सीडी
में इस गीत के बोल -
सास गारी देवे, ननंद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर
सैंया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल
अरे... केरा बारी म डेरा देबो चले के बेरा हो ऽऽऽ (2)
आये ब्यापारी गाड़ी में चढ़ीके,
तोला आरती उतारंव थारी में धरीके हो
करार गोंदा फूल
सास गारी देवे....
चितरी ले पइसा ल बीरी ले रीतेंव
मोर साइकल के चढैय़ा ला चिन्ही ले रीतेंव ग
करार गोंदा फूल
सास गारी देवे...
राम धरे बर्छी लखन धरे बाण
सीतामाई के खोजन बर
निकलगे हनुमान ग करार गोंदा फूल
सास गारी देवे ...


पहिरे ल पनही खाए ल बीरा पान
मोर रायपुर के रहईया चल दिस पाकिस्तान ग
करार गोंदा फूल
केरा बारी म डेरा देबो चले के बेरा हो ऽऽऽ
सास गारी देवे....
तथा फिल्म दिल्ली 6 में गाए गए
गीत के बोल-
ओय होय ओय होय-
होय होय होय होय होय होय .....(4)
सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का अंगना, भावे डेरा पिया का हो
सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल...


सैंया है व्यापारी, चले है परदेश
सुरतिया निहारूं जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल....
सास गारी देवे देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल...


छोड़ा बाबुल का अंगना भावे डेरा पिया का हो !
बुशर्ट पहिने खाईके बीड़ा पान, पूरे रायपुर से अलग है
सैंया...जी की शान ससुराल गेंदा फूल ....


सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल ...
सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का अंगना ,भावे डेरा पिया का हो ....
ओय होय ओय होय-
होय होय होय होय होय होय .....(4)
इस गीत को रेखा भारद्वाज, श्रद्धा पंडित और सुजाता मजुमदार ने बेहद सुरीली आवाज में मिठास के साथ गाया है। रहमान ने इसमें छत्तीसगढ़ के बांस गीत की धुन का इस्तेमाल भी किया है ऐसा बताया जा रहा है, इसमें कितनी सच्चाई है पता लगाना बाकी है। फिल्म में इस गीत के दृश्य में अभिनेता अभिषेक बच्चन ने तो अपनी खास अदा में नृत्य किया ही हैं साथ ही अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना वहीदा रहमान ने भी ठुमके लगाए हैं।
फिल्म के गीत और छत्तीसगढ़ के इस मूल गीत को सुनने के बाद महसूस हुआ कि दिल्ली 6 के निर्माता, निर्देशक, गीतकार और संगीतकार यदि इस बात की पुष्टि कर लेते कि इस गीत के वास्तविक बोल क्या हैं, तो गीत को और भी अधिक सुंदर बनाया जा सकता था।
इसके बाद भी हम छत्तीसगढ़ वासियों को खुश होना चाहिए कि उनके क्षेत्र का एक लोक गीत अब पूरे देश में लोगों की जुबान पर होगा, इससे छत्तीसगढ़ को एक विशेष पहचान तो मिलेगी ही साथ ही यहां का लोकसंगीत भी राजस्थान के लोक संगीत की तरह दुनिया के अन्य कोने में भी अपनी पहचान कायम कर पाएगा। रहमान का नाम यूं भी इन दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छाया हुआ है, वे ऑस्कर के हकदार माने जा रहे हैं। ऐसे में उनके संगीत निर्देशन में छत्तीसगढ़ के लोक धुन और लोक गीत पर संगीत देना बड़ी बात है। खासकर एक ऐसे दौर में जब हम अपनी लोक कलाओं को सहेजने की दिशा में विशेष प्रयत्नशील नजर नहीं आते।
(उदंती फीचर्स)

क्या खूब कही

फुटबाल प्रेमी तोता
वाद विवाद के चलते मैच में बाधा पडऩा आम बात है लेकिन तोते की आवाज के चलते मैच रूक जाना आश्चर्य की बात है।
इरीन केरिगन नामक महिला अपने तोते मे-तू को लेकर हर्टफोर्डशायर रेंजर्स व हटफील्ड टाउन के बीच हुआ फुटबाल मैच देखने गईं। मैच देखने के लिए उसने ग्राउंड के बेहद करीब का सीट चुनी। जैसे ही रेफरी की सीटी बजती, मे-तू भी बिल्कुल उसी तरह सीटी बजा देता था। खिलाड़ी रेफरी की तरह बजने वाली सीटी की आवाज सुन खेल बंद कर खड़े हो जाते थे। ऐसा कई बार हुआ।
रैफरी गैरी बेली ने कहा कि मैं तो आश्चर्यचकित था मैंने पहले कभी नहीं देखा। महिला ग्राउंड के नजदीक ही बैठी हुई थी। जैसे ही मैं सीटी बजाता, तोता भी हू-ब-बू वैसी ही आवाज निकालता और खिलाड़ी रुक जाते। इतना ही नहीं मे-तू खिलाडिय़ों के अच्छे प्रदर्शन पर उन्हें प्रेटी ब्वाय कहकर उत्साहित भी करता था। केरिगन का कहना है कि उसे फुटबाल काफी पसंद है जिसका वह भरपूर लुत्फ उठाता है। हारकर मुझे उस महिला को तोते को बाहर ले जाने के लिए कहना पड़ा।
तैरने वाली कार में फिशिंग
अक्सर आपने लोगों को नाव में बैठकर मछली पकड़ते देखा होगा। लेकिन अगर कोई शख्स तैरने वाली कार पर बैठ कर झील या नदी के बीच में जाकर मछली मारता है तो आपको सुनने में अजीब जरूर लग सकता है। चीन में एक शख्स ऐसा है जिसने फिशिंग के लिए खास तौर पर तैरने वाली एक कार ही बना डाली है।
हेबे प्रांत के क्विनान शहर के वांग होंगजुन ने तेरह वर्ष में इस कार को तैयार किया है। कुल एक लाख पौंड में यह कार तैयार भी हो गई। वांग की कार पानी के अलावा सडक़ पर भी सरपट दौड़ती है। लेकिन वांग अपने इस आविष्कार को खुद तक सीमित नहीं रखना चाहते। इसलिए वांग कार की मार्केटिंग के लिए निवेशक खोज रहे हैं ताकि वो इसे लोगों तक पहुंचा सके। वांग ने बताया कि वह अक्सर इस कार से मछली पकडऩे जाते हैं। वह इस कार से अपने बेटे के साथ दस मील तक की समुद्री यात्रा भी कर चुके हैं।
पानी और जमीन पर चलने वाली वांग की एम्फी कार रिमोट का बटन दबाते ही वाटरप्रूफ हो जाती है। कार आराम से पानी में तैर सके इसके लिए इसमें विशेष तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। हालांकि वांग ने इस खास तकनीक और कार की मशीनी संरचना को उजागर करने से इनकार कर दिया है। उन्होंने बताया कि कार का एक-एक हिस्सा उनके हाथ का बना है।

राजिम कुंभ- धर्म, आस्था और संस्कृति का संगम

राजिम कुंभ- 
धर्म, आस्था और संस्कृति का संगम
2005 से छत्तीसगढ़ शासन ने राजिम मेले के आयोजन को राजिम कुंभ का स्वरूप देकर लोकव्यापी बनाने की दिशा में एक नई पहल की। यही वजह है कि राजिम कुंभ के अवसर पर पर्यटकों की संख्या बढ़ जाती है। कुंभ में देश भर से पर्यटकों की भीड़ के साथ श्रद्धालु एवं साधु-महात्माओं के अखाड़े विशेष रूप से आमंत्रित रहते है।
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में महानदी का वही स्थान है जो भारत में गंगा नदी का है। यहां का सबसे बड़ा पर्व महाशिवरात्रि है जो माघ मास की पूर्णिमा से शुरु होकर फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि तक चलता है। इस अवसर पर राजिम एक तीर्थ का रूप ले लेता है। यहां हजारों श्रद्धालु संगम स्नान करने और भगवान राजीव लोचन तथा कुलेश्वर महादेव के दर्शन करने दूर-दूर से पहुंचते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक कि वे राजिम की यात्रा नहीं कर लेते।
रायपुर से लगभग 45 किमी दूर त्रिवेणी संगम (महानदी- सोंढूर-पैरी) के किनारे बसा राजिम छत्तीसगढ़ का प्रमुख तीर्थ स्थल है। इस संगम की खास बात यह है कि यहां तीनों नदियां साक्षात दिखाई देती हैं, जबकि इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम में सरस्वती लुप्तावस्था में है।
राजिम के देवालय ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहां प्राप्त मंदिरों को कालक्रम के अनुसार चार भागों में बांटा गया है।
(1) कुलेश्वर (9वीं सदी), पंचेश्वर (9वीं सदी) तथा भूतेश्वर महादेव (14वीं सदी), (2) राजीवलोचन (8वी सदी), वामन, वाराह, नृसिंह, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, राजेश्वर, दानेश्वर एवं राजिम तेलिन मंदिर। (3) रामचन्द्र (14वीं सदी) (4) सोमेश्वर महादेव नलवंशी नरेश विलासतुंग के राजीव लोचन मंदिर अभिलेख के आधार पर अधिकांश विद्वानों ने इस मंदिर को 8वीं शताब्दी की निर्मिति माना है। इस मंदिर के विशाल प्राकार के चारों अंतिम कोनों पर बने वामन, वाराह, नृसिंह तथा बद्रीनाथ के मंदिर स्वतंत्र वास्तुरुप के उदाहरण माने जा सकते । राजिम के मंदिर तथा यहां स्थापित प्रतिमाएं लोगों की धार्मिक आस्था पर प्रकाश तो डालती ही हैं, साथ ही भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्तिकला के इतिहास को रेखांकित भी करती हैं । इन मंदिरों के कालक्रम को देखने से यह पता चलता है कि छत्तीसगढ़ अंचल कला और स्थाप्त्य की दृष्टि से कितना समृद्धशाली था।
एशियाटिक रिसर्च सोसायटी के रिचर्ड जैकिंस इसे राजा राम के समकालीन राजीव नयन नामक राजा से जोड़ते हैं लेकिन मंदिर के पुजारी ठाकुर ब्रजराज सिंह जो कथा बतातें है वह कुछ इस तरह है:
सतयुग में एक प्रजापालक भक्त राजा रत्नाकर था। उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था। इसके आसपास का इलाका दंडकारण्य के नाम से प्रसिद्ध था। यहां अनेक राक्षस निवास करते थे। राजा रत्नाकर समय-समय पर यज्ञ, हवन, जप-तप करवाते रहते थे ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दु:खी हो कर एक खंडित हवन कुंड के सामने ही ईश आराधना में लीन हो गए और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि वे स्वयं आकर इस संकट से उबारें। ठीक इसी समय गजेंद्र और ग्राह में भी भारी द्वन्द्व चल रहा था, ग्राह गजेंद्र को पूरी शक्ति के साथ पानी में खींचे लिए जा रहा था और गजेंद्र ईश्वर को सहायता के लिए पुकार रहा था। उसकी पुकार सुन भक्त वत्सल विष्णु जैसे बैठे थे वैसे ही नंगे पांव उसकी मदद को दौड़े। और जब वह गजेंद्र को ग्राह से मुक्ति दिलवा रहे थे तभी उनके कानों में राजा रत्नाकर का आर्तनाद सुनाई दिया। भगवान उसी रूप में राजा रत्नाकर के यज्ञ में पहुंचे और राजा रत्नाकर ने यह वरदान पाया कि अब श्री विष्णु उनके राज्य में सदा इसी रूप में विराजेंगे। तभी से राजीव लोचन की मूर्ति इस मंदिर में विराज रही है। कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया था।
एक और जनश्रुति के अनुसार राजा जगतपाल इस क्षेत्र पर राज कर रहे थे तभी कांकेर के कंडरा राजा ने इस मंदिर के दर्शन किए और उसके मन में लोभ जागा कि यह मूर्ति तो उसके राज्य में स्थापित होनी चाहिए इसके लिए उन्होंने पुजारियों को धन का लोभ दिया पर वे नहीं माने तब राजा ने बलपूर्वक सेना की मदद से इस मूर्ति को उठा लिया और एक नाव में रखकर महानदी के जलमार्ग से कांकेर रवाना हुआ पर धमतरी के पास रूद्री नामक गांव के समीप मूर्ति सहित नाव डूब गई और मूर्ति शिला में बदल गई। कंडरा राजा खिन्न मन से कांकेर लौट गया। लेकिन राजिम में महानदी के बीच में स्थित कुलेश्वर महादेव मंदिर की सीढ़ी से आ लगी इस 'शिलाÓ को देख 'राजिमÓ नाम की तेलिन उसे अपने घर ले गई और उसने शिला को कोल्हू में रख दिया। उसके बाद से उस तेलिन का घर धन-धान्य से भर गया। उधर सूने मंदिर को देखकर दुखी होते राजा जगतपाल को भगवान ने स्वप्न दिया कि वे तेलिन के घर से मुझे वापस लाकर मंदिर में प्रतिष्ठित करें। पहले तो तेलिन राजी ही नहीं हुई पर अंतत: पुन:प्रतिष्ठा हुई और तभी से यह क्षेत्र राजिम तेलिन के नाम से राजिम कहलाने लगा। आज भी राजीव लोचन मंदिर के आसपास अन्य मंदिरों के साथ राजिम तेलिन का मंदिर भी विराजमान है।
यहां पंचकोसी यात्रा की जाती है जिसके बारे में भी यहां एक कथा प्रचलित है- एक बार विष्णु ने विश्वकर्मा से कहा कि धरती पर वे एक ऐसी जगह उनके मंदिर का निर्माण करेें, जहां पांच कोस के अन्दर शव न जला हो। अब विश्वकर्मा जी धरती पर आए, और ढूंढ़ते रहे, पर ऐसा कोई स्थान उन्हें दिखाई नहीं दिया। उन्होंने वापस जाकर जब विष्णु जी से कहा तब विष्णु जी एक कमल के फूल को धरती पर छोडक़र विश्वकर्मा जी से कहा कि यह जहां गिरेगा, वहीं हमारे मंदिर का निर्माण होगा। इस प्रकार कमल फूल के पराग पर विष्णु भगवान का मन्दिर है और पंखुडिय़ों पर पंचकोसी धाम बसा हुआ है। कुलेश्वर नाथ (राजिम) चम्पेश्वर नाथ (चम्पारण्य) ब्राह्मकेश्वर (ब्रह्मणी), पाणेश्वर नाथ (फिंगेश्वर) कोपेश्वर नाथ (कोपरा)।
लोगों की यह भी मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक सम्पूर्ण नही होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नही कर लेता। कहते हैं माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान जगन्नाथ पुरी से यहां आते हैं। उस दिन जगन्नाथ मंदिर के पट बंद रहते हैं और भक्तों को भी राजीव लोचन में ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन होते हैं। महाभारत के आरण्यक पर्व के अनुसार संपूर्ण छत्तीसगढ़ में राजिम ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां बदीनारायण का प्राचीन मंदिर है। इसका वही महत्व है जो जगन्नाथपुरी का है।
राजिम मेले को कुंभ का रुप प्रदान करने के बाद से अब प्रति वर्ष यहां राज्य शासन विशेष व्यवस्था करता है। लोगों के लिए ठहरने खाने, कुंभ स्नान करने तथा भगवान के दर्शन की व्यवस्था के साथ अन्य राज्यों से अनेक कलाकार, विद्वान आमंत्रित किये जाते हैं। इस प्रकार राजिम के इस त्रिवेणी संगम पर धर्म, आस्था और संस्कृति का अद्भुत संगम नजर आता है। (उदंती फीचर्स)
राजिम कुंभ तक पहुंचने के लिए
हवाई मार्ग- रायपुर (45 किमी) निकटतम हवाई अड्डा है तथा दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम और चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- रायपुर निकटतम रेलवे स्टेशन है जो कि मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग पर स्थित है।
सडक़ मार्ग- राजिम नियमित बस तथा टैक्सी सेवा से रायपुर व महासमुंद से जुड़ा हुआ है।
तीर्थ यात्रियों के ठहरने के लिए कुंभ के अवसर पर संस्कृति विभाग विशेष रुप से व्यवस्था करता है। सामान्य पर्यटकों के लिए रायपुर में अनेक होटल उपलब्ध हैं।